Friday, April 9, 2010

कायर नक्सली और बहादुर सरकारें


लोकतंत्र विरोधी ताकतों से निर्णायक लड़ाई का समय आ गया है
-संजय द्विवेदी
छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले में नक्सलियों द्वारा लगभग 76 जवानों की हत्या के बाद कहने के लिए बचा क्या है। केंद्रीय गृहमंत्री नक्सलियों को कायर कह रहे हैं, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री नक्सलियों की कार्रवाई को कायराना कह रहे हैं पर देश की जनता को भारतीय राज्य की बहादुरी का इंतजार है। 12 जुलाई, 2009 छत्तीसगढ़ में ही राजनांदगांव के पुलिस अधीक्षक सहित 29 पुलिसकर्मियों को नक्सलियों ने ऐसी ही एक घटना में मौत के घाट उतार दिया था। राजनांदगांव, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री का गृहजिला भी है। चुनौती के इस अंदाज के बावजूद हमारी सरकारों का हाल वही है। केंद्रीय गृहमंत्री और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री हर घटना के बाद नक्सलियों को इस कदर कोसने लगते हैं जैसे इस जुबानी जमाखर्च से नक्सलियों का ह्रदय परिवर्तन हो जाएगा।
सुरक्षा बलों और आम आदिवासी जनों का तरह नक्सली सामूहिक नरसंहार कर रहे हैं यह सबसे बड़ी त्रासदी है। बावजूद इसके सरकारों का भ्रम कायम है। लोकतंत्र के सामने चुनौती बनकर खड़े नक्सलवाद के खिलाफ भी हमारी राजनीति का भ्रम अचरज में डालता है। क्या कारण है कि हमारी राजनीति इतने खूनी उदाहरणों के बावजूद लोकतंत्र के विरोधियों को ‘अपने बच्चे’ कहने का साहस पात लेती है। क्या ये इतनी आसानी से अर्जित लोकतंत्र है जिसे हम किसी हिंसक विचारधारा की भेंट चढ़ जाने दें। हिंसा से कराह रहे तमाम इलाके हमारे लोकतंत्र के सामने सवाल की तरह खड़े हैं। हमारी राजनीति के पास के विमर्श, बैठकें, आश्वासन और शब्दजाल ही हैं। अपने सुरक्षाबलों को हमने मौत के मुंह में झोंक रखा है जबकि हमें खुद ही नहीं पता कि हम चाहते क्या हैं। हम नक्सलियों को कोसने और उन्हें यह बताने में लगे हैं कि वे कितने अमानवीय हैं। इन शब्दजालों से क्या हासिल होने वाला है। हम नक्सलियों को कायर और अमानवीय बता रहे हैं। अमानवीय तो वे हैं यह साबित है पर कायर हैं यह साबित करने के लिए हमारे राज्य ने कौन से कदम उठाए हैं, जिससे हमारा राज्य बहादुर साबित हो सके। हमें देखना होगा कि हमारी सरकारें एक गहरे भ्रम का शिकार हैं। शक्ति के इस्तेमाल को लेकर एक गहरा भ्रम है।
नक्सलवाद को पूरा खारिज कीजिएः
कुछ रूमानी विचारक अपनी कल्पनाओं में नक्सलियों के महिमामंडन में लगे हैं। जैसे कि नक्सली कोई बहुत महान काम कर रहे हैं। अफसोस कि वे विचारक नक्सलियों के पक्ष में महात्मा गांधी को भी इस्तेमाल कर लेते हैं। भारतीय राज्य के सामने उपस्थित यह चुनौती बहुत विकट है किंतु इसे सही संदर्भ में समझा नहीं जा रहा है। शब्दजाल ऐसे की आज भी तमाम बुद्धिजीवी ‘नक्सली हिंसा’ की आलोचना कर रहे हैं, ‘नक्सलवाद’ की नहीं। आखिर विचार की आलोचना किए बिना, आधी-अधूरी आलोचना से क्या हासिल। सारा संकट इसी बुद्धिवाद का है। अगर हम नक्सलवाद के विचार से जरा सी भी सहानुभूति रखते हैं तो हम अपनी सोच में ईमानदार कैसे कहे जा सकते हैं। नक्सलवाद या माओवाद स्वयं में लोकतंत्र विरोधी विचार है। उसे किसी लोकतंत्र में शुभ कैसे माना जा सकता है। हमें देखना होगा कि रणनीति के मामले में हमारे विभ्रम ने ही हमारा ये हाल किया है। हम बिना सही रणनीति के अपने ही जवानों की बलि ले रहे हैं। ऐसी अधकचरी समझ से हम नक्सलवादियों की सामूहिक और चपल रणनीति से कैसे मुकाबला करेगें। आजतक के उदाहरणों से तो यही साबित होता है और नक्सली हमारी रणनीति को धता बताते आए हैं। राज्य की हिंसा के अरण्यरोदन से घबराई हमारी सरकारें, भारतीय नागरिकों और जवानों की मौत पर सिर्फ स्यापा कर रही हैं। हमारी सरकार कहती हैं कि नक्सली अमानवीय हरकतें कर रहे हैं। आखिर आप उनसे मानवीय गरिमा की अपेक्षा ही क्यों कर रहे हैं। नक्सलवाद कभी कैसा था, इसकी रूमानी कल्पना करना और उससे किसी भी प्रकार की नैतिक अपेक्षाएं पालना अंततः हमें इस समस्या को सही मायने में समझने से रोकना है। वह कैसा भी विचार हो यदि उसकी हमारे लोकतंत्र और संविधान में आस्था नहीं है तो उसका दमन करना किसी भी लोकतांत्रिक विचार की सरकार व जनता की जिम्मेदारी है। जिन देशों में लोकतंत्र नहीं है वे लोकतंत्र को पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं और हम अपने लोकतंत्र को नष्ट करने की साजिशों का महिमामंडन कर रहे हैं।
जवानों के लिए क्यों सूखे आंसूः
देश की महान लेखिका अरूंधती राय ने पिछले दिनों एक महत्वपूर्ण पत्रिका में एक लेख लिखकर अपनी बस्तर यात्रा और नक्सलियों के महान जनयुध्द पर रोचक जानकारियां दी हैं और पुलिस की हिंसा को बार-बार लांछित किया है। महान लेखिका क्या दंतेवाड़ा के शहीदों और उनके परिजनों की पीड़ा को भी स्वर देने का काम करेंगीं। जाहिर वे ऐसा नहीं करेंगीं। हमारे मानवाधिकार संगठन, जरा –जरा सी बातों पर आसमान सिर पर उठा लेते हैं, आज वे कहां हैं। संदीप पाण्डेय, मेधा पाटकर और महाश्वेता देवी की प्रतिक्रियाओं की देश प्रतीक्षा कर रहा है। मारे गए जवान निम्न मध्यवर्ग की पृष्ठभूमि के ही थे, इसी घरती के लाल। लेकिन लाल आतंक ने उन्हें भी डस लिया है। नक्सलवाद या माओवाद का विचार इसीलिए खारिज करने योग्य है कि ऐसे राज में अरूंधती को माओवाद के खिलाफ लिखने की, संदीप पाण्डेय को कथित नक्सलियों के पक्ष में धरना देने की आजादी नहीं होगी। तब राज्य की हिंसा को निंदित नहीं,पुरस्कृत किया जाएगा। ऐसे माओ का राज हमारे जिंदगीं के अंधेरों को कम करने के बजाए बढ़ाएगा ही।
जनतंत्र को असली लोकतंत्र में बदलने की जरूरतः
लोकतंत्र अपने आप में बेहद मोहक विचार है। दुनिया में कायम सभी व्यवस्थाओं में अपनी तमाम कमियों के बावजूद यह बेहद आत्मीय विचार है। हमें जरूरत है कि हम अपने लोकतंत्र को असली जनतंत्र में बदलने का काम करें। उसकी कमियों को कम करने या सुधारने का जतन करें न कि लोकतंत्र को ही खत्म करने मे लगी ताकतों का उत्साहवर्धन करें। लोकतांत्रिक रास्ता ही अंततः नक्सल समस्या का समाधान है। ऐसे तर्क न दिए जाएं कि आखिर इस व्यवस्था में चुनाव कौन लड़ सकता है। पूंजीपतियों, ठेकेदारों, नेताओं और अफसरों का अगर कोई काकस हमें बनता और लोकतंत्र की बुनियाद को खोखला करता दिख रहा है तो इसके खिलाफ लड़ने के लिए सारी सरंजाम इस लोकतंत्र में ही मौजूद हैं। अकेले सूचना के अधिकार के कानून ने लोकतंत्र को मजबूत करने में एक बड़ी भूमिका अदा की है। हमें ऐसी जनधर्मी व्यवस्था को बनाने और अभिव्यक्ति के तमाम माध्यमों से जनचेतना पैदा करने के काम करने चाहिए। सारी जंग आज इसी विचार पर टिकी है कि आपको गणतंत्र चाहिए गनतंत्र। लोकतंत्र चाहिए या माओवाद। जाहिर तौर पर हिंसा पर टिका कोई राज्य जनधर्म नहीं निभा सकता। भारत के खिलाफ माओवादियों की यह जंग किसी जनमुक्ति की लड़ाई नहीं वास्तव में यह लड़ाई हमारे जनतंत्र के खिलाफ है। इस बात को हम जितनी जल्दी समझ जाएं बेहतर, वरना हमारे पास सड़ांध मारती हिंसा और देश को तोड़ने वाले विचारों के अलावा कुछ नहीं बचेगा। उम्मीद है चिंदबरम साहब भी कुछ ऐसा ही सोच रहे होंगें। इतिहास की इस घड़ी में नक्सलप्रभावित सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों की भी जिम्मेदारी है कि वे अपने कर्तव्य के निवर्हन में किंतु-परंतु जैसे विचारों से इस जंग को कमजोर न होने दें।

1 comment:

  1. mahoday agar pure social system ko dekhein to aap jaise logon ka yogdaan bi is naxalwaad ya aage koi bhi waad aaye usko poshit karane me sahayak hai. kyonki aap log savinay pratirodh ko tarjeeh nahi dete. irom sharmila ka pratirodh bhi ek pratirodh hai par wah kahin nahin dikhta naxalawad usi system ki upaj hai jise banaye rakhane me aap jaise log daleel dete hain ki system ko aaj ke tareeke se dekho. hum unhi cheenjo ko dekh sakate hain jinhe hum jaanate hain... aap log apne chadm aavaran se pare kisi kon dekhne nahi dena chaate.. hinsa kaise bi ho chahe naxal ya state ki dono galat hain... aapne visvaranjan ka argument suna tha jab wo visvavidyalya me aaye the aur ek vidhyarthi ne planning comm ke ek samiti ki report ka hawala dekar rajya me 63 tarah ke bhadbhav hone ki baat kahi thi.. unhone kaha tha ki wo log ek vichardhar wale the... jab tak kam nyay se adhik nyay ki aor samaj ke prayaas nhai honge tabtak ye hota rahega kabhi kuch elite marenge .. kabhi kuch middle claas... aur sabse jyada kamjor log... rona hai to khairlanji pe bhi aansu bahaye.. dantewad aur bastar ke rape par bhi...satya hamesha pashdhar hota hai isliye arundhati ka nibandh jaisa aap chahte the waisa nahi tha ... naxali kya sabse jyada kaayar wo log hain jo pet bharane ke alawa niwaloon ke jugad me is system ki wahwahi aur bachaav me lage hain.... royeee khoob royeee aapka kaam hai paisa leke likhna aur rona ....himmat ho to ek baar dantewad se lekar north east tak ka sach bayaan keejiye

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