Thursday, September 29, 2011

पचमढी की छवियां





पचमढी यात्रा की छवियां-2





पचमढी यात्रा की छवियां






भोपाल। जनसंचार विभाग के विद्यार्थी दिनांक25,26,27 सितंबर को पचमढी यात्रा पर रहे। इस दौरान सबने खूब मस्ती की। प्रकृति से संवाद का यह अवसर सभी को बहुत अच्छा लगा।

सार्थक शनिवार-24सितंबर,2011






सार्थक शनिवार को क्विज के साथ सांस्कृतिक कार्यक्रम भी हुए जिनमें सबने उत्साह से भाग लिया।

सार्थक शनिवार 24सितंबर की छवियां





सार्थक शनिवार(24सितंबर2011)-डा.वैदिक का व्याख्यान





आंदोलनों को गति देता है मीडियाः वैदिक
जनांदोलन और मीडिया विषय पर डा. वैदिक का व्याख्यान

भोपाल,24 सितंबर। वरिष्ठ पत्रकार डा. वेदप्रताप वैदिक का कहना है कि हर जनांदोलन की सफलता में पत्रकारिता ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। वे यहां माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में “जनांदोलन और मीडिया” विषय पर आयोजित व्याख्यान में मुख्यवक्ता की आसंदी से बोल रहे थे।
उन्होंने कहा कि जब-जब आम जनता व मीडिया की आवाज को दबाने का प्रयास किया गया है, मीडिया ने पूरी ताकत से इसका विरोध किया है। मीडिया खासकर अखबारों ने राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा दिया है। यह पत्रकारों के दृढ़ निश्चय का ही परिणाम था कि पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी को मानहानि विधेयक वापस लेना पड़ा। उन्होंने कहा कि तमाम जनांदोलनों को मीडिया तरजीह नहीं देता क्योंकि वे उसके लिए बाजार नहीं बनाते। खासकर आदिवासियों और किसानों के सवालों पर हुए आंदोलनों की मीडिया ने खासी उपेक्षा की है। उन्होंने कहा कि सबके बावजूद मीडिया बाजार की तलाश में तमाम सवालों की उपेक्षा कर जाता है। उनका कहना कि पत्रकारों को जनांदोलन के विषयों का ठीक से विश्लेषण करना चाहिए।
डा. वैदिक ने कहा कि मीडिया के सहयोग ने ही बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के आंदोलन को ताकत दी है। दोनों के आंदोलन ने देश को एक दिशा दी है इससे हमें पता चलता है कि मीडिया कितना महत्वपूर्ण रोल अदा कर सकता है। उनका कहना था कि लोगों के बीच भ्रष्टाचार और काले धन के सवाल पर काफी गुस्सा है, राजनीति निरंतर निराश कर रही है। ऐसे में जनांदोलनों में लोगों का जुटना स्वाभाविक है। उनका यह भी कहना था कि अन्ना हजारे के आंदोलन की सफलता के पीछे बाबा रामदेव के आंदोलन ने ही आधार तैयार किया था। क्योंकि जिस तरह सरकार ने बाबा के आंदोलन का दमन किया उससे लोग गुस्से से भरे बैठे थे, अन्ना ने जब दिल्ली में हुंकार लगाई तो लोग सड़कों पर उतर आए। डा. वैदिक ने कहा कि मीडिया की भूमिका इस आंदोलन में बहुत खास रही है। इसके बावजूद कोई भी आंदोलन सिर्फ मीडिया के चलते महत्वपूर्ण नहीं हो सकता। मीडिया की अपनी सीमाएं हैं तथा उसकी अपनी बाजारकेंद्रित रूचियां हैं। साथ ही कई मामलों में वह चयनित दृष्टिकोण अपनाता है। जनांदोलन के नेताओं का उंचा चरित्र ही किसी आंदोलन की सफलता की गारंटी है। कार्यक्रम की अध्यक्षता कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने की एवं संचालन जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने किया। कार्यक्रम के प्रारंभ में प्रो. आशीष जोशी, डा. पी. शशिकला, दीपक शर्मा, डा. आरती सारंग, राघवेंद्र सिंह ने अतिथियों का स्वागत किया।

Tuesday, September 20, 2011

उनकी दुआओं से ही बरसती हैं रहमतें


-संजय द्विवेदी

बुर्जुगों की दुआएं और पुरखों की आत्माएं जब आशीष देती हैं तो हमारी जिंदगी में रहमतें बरसने लगती हैं। धरती पर हमारे बुर्जुग और आकाश से हमारे पुरखे हमारी जिंदगी को रौशन करने के लिए दुआ करते हैं। उनकी दुआओं-आशीषों से ही पूरा घर चहकता है। किलकारियों से गूंजता है और जिंदगी भी हमारे साथ महक उठती है। जिंदगी उजाले से भर जाती है, रास्ते रौशन हो उठते हैं और कायनात मुस्कराने लगती है।

यह फलसफा इतना आसान नहीं है। आत्मा से दुआ करके देखिए, या आत्माओं की दुआएं लेकर देखिए। यह तभी महसूस होगा। आत्मा के भीतर एक भरोसा, एक आंच और जज्बा धीरे-धीरे उतरता चला जाता है। वह भरोसा आत्मविश्वास की शक्ल ले लेता है, और आप वह कुछ भी कर डालते हैं जिसके बारे में आपने सोचा न था। क्योंकि आपको भरोसा है कि आपके साथ बड़ों की दुआएं हैं।

उन घरों की रौनक को देखिए जिनमें बुर्जुग भी हैं और बच्चे भी। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को साथ खेलते हुए देखिए। उनके संवाद और निश्चल प्रेम को देखिए। यही पीढ़ियों का संवाद है। अनुभवों और परंपराओं का एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानांतरण है। हमारे बुर्जुग आने वाली पीढ़ी को देखकर खुश होते हैं। इसलिए बेटा नहीं, पोता ज्यादा प्यारा होता है,बेटी नहीं- उसकी बेटी ज्यादा प्यारी होती है। पीढ़ियां यूं ही बनती हैं। इसी तरह आत्मा को अजर-अमर मानने वाली संस्कृति के विश्वासी क्या ये मानेंगें कि हमारे पुरखे हमें देख रहे हैं ? वे यह देख रहे हैं कि हमने कैसे परिवार को जोड़कर रखा है ? कैसे हम प्रगति कर रहे हैं ? कैसे हमने अपनी विरासतों को संभाला हुआ है ? अगर हम सारा कुछ बेहतर करते हैं तो वे हमें आशीष देते हैं। कुछ बेहतर होने पर देवताओं द्वारा की जाने पुष्पवर्षा को सिर्फ कथा न मानिए। हमारे पुरखे भी अपनी आशीषों के, दुआओं के फूल हम पर बरसाते हैं। वे खुश होते हैं और हमारी तरक्की के रास्ते खोलते हैं।

वे हमसे दूर पर भगवान से निकट हैं, प्रकृति से उनका सीधा संवाद है,उनकी दुआएँ ही हममें ताकत भरती हैं कि हम कुछ कर सकें। पितृमोक्ष के ये दिन हमारे श्रद्धा निवेदन के दिन हैं। स्मृतियों के दिन हैं। उनको याद करने के दिन हैं जिनकी परंपरा के अनुगामी हम हैं। जिनके चलते हम इस दुनिया में हैं। यह स्मरण ही हमें जड़ों से जोड़ता है। यह बताता है कि कैसे पूरी सृष्टि एक भाव से हमें जोड़ती है और कैसे हम सब एक परमपिता के ही अंश हैं। यह पर्व बताता है कि कैसे हम एक परिवार हैं,बंधु-बांधव हैं और सहयात्री हैं। एक ऐसी परंपरा के हिस्से हैं जो अविनाशी है और चिरंतन है, सनातन है।

क्रोमोजोम्स के जरिए वैज्ञानिक यह सिद्ध करने में सफल रहे हैं कि नवजात शिशु में कितने गुण दादा व परदादा तथा कितने गुण नानामह और नाना के आते हैं। इसके मायने यह हैं कि पूर्वजों का हमसे जुड़ाव बना रहता है। श्राद्ध के वैज्ञानिक आधार तक पहुंचने में शायद दुनिया को अभी समय लगे किंतु हमारे पुराण और ग्रंथ इन रहस्यों को भली-भांति उजागर करते हैं। हमारी परंपरा में श्राद्ध एक विज्ञान ही है, जिसके पीछे तार्किक आधार हैं और आत्मा की अमरता का विश्वास है। श्राद्ध कर्म करके अपने पितरों को संतुष्ट करना, वास्तव में पीढ़ियों का आपसी संवाद है। यही परंपरा हमें पुत्र कहलाने का हक देती है और हमें हमारी संस्कृति का वास्तविक उत्तराधिकारी बनाती है। पितरों का सम्मान और उनका आशीष हमें हर कदम पर आगे बढ़ाता है। उनका हमारे पास आना और संतुष्ट होकर जाना,कपोल कल्पना नहीं है। यह बताता है कि किस तरह हम अपने पितरों से जुड़कर एक परंपरा से जुड़ते हैं, समाज के प्रति दायित्वबोध से जुड़ते हैं और अपनी संस्कृति के संरक्षण और उसकी जड़ों को सींचने का काम करते हैं। यही पितृऋण है। जिससे मुक्त होने के लिए हम सारे जतन करते हैं।

मृत्यु के अंतराल के बाद भी हमारे पुरखे हमसे जुड़े रहते हैं। यह स्मृति ही हमें जड़ों से जोड़ती है, परिवार के संस्कारों से जोड़ती है और बताती है कि दुनिया कितनी भी बदल जाए, हम लोग अपनी परंपरा के सच्चे उत्तराधिकारी हैं। श्राद्ध कर्म के बहाने हमारे पुरखे हमसे जुड़े रहते हैं, हमारी स्मृतियों में कायम रहते हैं। भारत की संस्कृति सही मायने में स्मृतियों का ही लोक है। इस लोक में हमारे पूर्वजों की यादें, उनकी सांसें, उनकी बातें, उनके जीवन मूल्य, उनकी जीवन शैली सब महकती है। हमें हमारी जड़ों से जोड़ने का यह उपक्रम भी है और मां-माटी का ऋण चुकाने का अवसर भी। श्रद्धा और विश्वास से तर्क की किताबें बेमानी हो जाती हैं। यह समय हमें लोक से जोड़ता है, जिसमें हमारी माटी, पूरी प्रकृति, विभिन्न जीव एवं देव (गाय, कुत्ते, कौआ, देवता,चीटियां, ब्राम्हण) तक का विचार है। यह हमें बताता है कि लोक के साथ हमारा रिश्ता क्या है। प्रकृति और इसमें बसने वाले जीवधारी सब हमारे लिए समान रूप से आदर के पात्र हैं। उनका संरक्षण और पूजन ही हमारी संस्कृति है। यह पाठ है लोक के साथ जीने का और उसका मान करने का। यह एक सहजीवन है जिसमें पूरी प्रकृति की पूजा का भाव है। इस लोकअर्चना से ही पितृ प्रसन्न होते हैं। वे हमें दुआएं देते हैं, जिसका फल हमारे जीवन की सर्वांगीण प्रगति के रूप में सामने आता है।

अब सवाल यह उठता है कि मृत्यु के पश्चात भी अपने पुरखों का इतना सम्यक विचार करने वाली संस्कृति का विचलन आखिर क्यों हो रहा है ? हालात यह हैं कि आत्माओं के तर्पण की बात करने वाला समाज आज परिवार के बुर्जुगों को सम्मान से जीने की स्थितियां भी बहाल नहीं कर पा रहा है। जहां माता-पिता को भगवान का दर्जा हासिल है, वहां ओल्ड होम्स या वृद्धाश्रम बन रहे हैं। यह कितने खेद का विषय है कि हमारी परंपरा के विपरीत हमारे बुर्जुग घरों में अपमानित हो रहे हैं। उनके साथ अच्छा व्यवहार नहीं हो रहा है। बाजार और अपसंस्कृति का परिवार नाम की संस्था पर सीधा हमला है। अगर हमारे समाज में ऐसा हो रहा तो पितृमोक्ष के मायने क्या रह जाते हैं। एक भटका हुआ समाज ही ऐसा कर सकता है।

जो समाज अपने पुरखों के प्रति श्रद्धाभाव रखता आया, उनकी स्मृतियों को संरक्षित करता आया, उसका ही जीवित आत्माओं को पीड़ा देने का प्रयास कई सवाल खड़े करता है। ये सवाल, ये हैं कि क्या हमारा दार्शनिक और नैतिक आधार चरमरा गया है? क्या हमारी स्मृतियों पर बाजार और संवेदनहीनता की इतनी गर्द चढ़ गयी है कि हम अपनी सारी नैतिकता व विवेक गवां बैठे हैं। अपने पितरों की मोक्ष के लिए प्रार्थना में जुड़ने वाले हाथ कैसे बुर्जुगों पर उठ रहे हैं, यह एक बड़ा सवाल है। पितृपक्ष के बहाने हमें यह सोचना होगा कि आखिर हम कहां जा रहे हैं? किस ओर बढ़ रहे हैं? कौन सा पाठ पढ़ रहे हैं और अपनी जड़ों का तिरस्कार कैसे कर पा रहे हैं? पाठ यह भी है कि आखिर हम अपने लिए कैसा भविष्य और कैसी गति चाहते हैं। अपने बुर्जुगों का तिरस्कार कर हम जैसी परंपरा बना रहे हैं क्या वही हमारे साथ दुहराई नहीं जाएगी। माता-पिता का तिरस्कार या उपेक्षा करती पीढ़ियां आखिर किस मुंह से अपनी संततियों से सदव्यवहार की अपेक्षा कर सकती हैं, इस पर सोचिएगा जरूर। यह भी सोचिए कि मृत्यु के बाद भी अपने पितरों को स्मृतियों में रखकर उनका पूजन,अर्चन करने वाली प्रकृति जीवित माता-पिता के अपमान को क्या सह पाएगी ? टूटते परिवारों, समस्याओं और अशांति से घिरे समाज का चेहरा क्या हमें यह बताता कि हमने अपने पारिवारिक मूल्यों के साथ खिलवाड़ किया है। अपनी परंपराओं का उल्लंधन किया है। मूल्यों को बिसराया है। इसके कुफल हम सभी को उठाने पड़ रहे हैं। आज फिर एक ऐसा समय आ रहा है जब हमें अपनी जड़ों की ओर झांकने की जरूरत है। बिखरे परिवारों और मनुष्यता को एक करने की जरूरत है। भारतीय संस्कृति के उन उजले पन्नों को पढ़ने की जरूरत है जो हमें अपने बड़ों का आदर सिखाते हैं। जो पूरी प्रकृति से पूजा एवं सद्भाव का रिश्ता रखते हैं। जहां कलह, कलुष और अवसरवाद के बजाए प्रेम, सद् भावना और संस्कार हैं। पितृऋण से मुक्ति इसी में है कि हम उन आदर्श परंपराओं का अनुगमन करें, उस रास्ते पर चलें जिन पर चलकर हमारे पुरखों ने इस देश को विश्वगुरू बनाया था। पूरी दुनिया हमें आशा के साथ देख रही है। हमारी परिवार नाम की संस्था, हमारे रिश्ते और उनकी सधनता-सब कुछ दुनिया में आश्चर्यलोक ही हैं। हम उनसे न सीखें जो पश्चिमी भोगवाद में डूबे हैं, हमें पूरब के ज्ञान- अनुशासन के आधार के एक नई दुनिया बनाने के लिए तैयार होना है। श्रवण कुमार, भगवान राम जैसी कथाएं हमें प्रेरित करती हैं, अपनों के लिए सब कुछ उत्सर्ग करने की प्रेरणा देती हैं। मां, मातृभूमि, पिता, पितृभूमि इसके प्रति हम अपना सर्वस्व अर्पित करने की मानसिकता बनाएं, यही इस समय का संदेश है। इस भोगवादी समय मे अगर हम ऐसा करने का साहस जुटा पाते हैं तो यह बात हमारे परिवारों के लिए सौभाग्य का टीका साबित होगी।

Monday, September 19, 2011

उर्वशी सिटोके के लिए...


-संजय द्विवेदी
उर्वशी सिटोके यही नाम था उसका, मेरी छात्रा। जिसने विश्वविद्यालय में बहुत कम हाजिरी दी। वह कक्षाएं नहीं कर पा रही थी। उसकी खराब तबियत और शायद कुछ मुश्किलें जो मुझे पता नहीं रही हों। पहली बार एडमीशन के वक्त मैंने उसे देखा था। बातें करने और किसी को पल भर में अपना बना लेने की कला थी उसमें। उससे मेरी कुल चार या पांच मुलाकातें हुयीं पर बार-बार उसका चेहरा सामने आता है। इतनी खुशदिल और बातचीत करने वाली लड़की जिस परिवार में थी, वहां कितना सन्नाटा पसरा होगा। उसके परिजनों की सोचता हूं तो मन भारी हो उठता है। उसे हर चीज की जल्दी थी, एडमीशन की भी, इंदौर जाने की भी। मुझे अब लगता है कि आखिर वह इतनी जल्दी में क्यों थी। साधारण सी बीमारी में उसका इस तरह दुनिया छोड़ देना कई सवाल खड़े करता है। मैं जनसंचार-प्रथम सेमेस्टर में कक्षाएं नहीं लेता, पर संवाद सब बच्चों से है। इस बार एडमीशन फार्म भरने आयी तो मैने कहा कि तुम क्लास क्यों नहीं कर रही हो, टेस्ट भी छोड़ दिया। उसका कहना था बस “सर इंदौर जाकर माईग्रेशन ले आएं,फिर बस क्लास ही करना है। ” मुझे उसके न होने की खबर पर भरोसा नहीं हो रहा है। किंतु क्या वह इंदौर से लौटेगी......? उसकी शोकसभा कर ली है..... पर कहीं कोने पर उसकी आवाज गूंज रही है -......बस अब तो क्लास की करनी है सर। अपने एक सीनियर मिलन भार्गव से उसने कहा था सर मेरे क्लास न आने से नाराज हैं। पर क्या उर्वशी जैसे लड़की से कोई नाराज हो सकता है.....? मेरी भावभीनी श्रद्धांजलि।

Saturday, September 17, 2011

चित्रों में सार्थक शनिवार






भोपाल,17 सितंबर। इस बार सार्थक शनिवार की ड्रेस कोड थी ब्लैक और यह सौभाग्य था कि आज हमें कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला का व्याख्यान सुनने के लिए मिला। आखिरी सत्र में सांस्कृतिक प्रस्तुतियां राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत थीं जिसने एक अलग ही समां बांध दिया।

सार्थक शनिवार में बोले कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला






भोपाल, 17 सितंबर,2011। सार्थक शनिवार के इस हफ्ते के आयोजन में कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने वैश्विक परिदृश्य और भारत जापान संबंध विषय पर अपने विचार व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि बदलती दुनिया में भारत-जापान मिलकर वैश्विक चुनौतियों का मुकाबला कर सकते है क्योंकि दोनों देशों मे कई जोड़ने वाले बिंदु मौजूद हैं। इससे विश्वशांति और सद्भाव को भी बढ़ावा मिलेगा। उन्होंने कहा जापान और भारत दोनों मिलकर एक नई दुनिया बना सकते हैं, जहां सबको साथ मिलकर काम करने और प्रगति करने के अवसर होंगें। उन्होंने कहा कि भारत और जापान का मीडिया एक सक्रिय भूमिका निभाकर रिश्तों में पुल का काम कर सकता है। इस मौके पर प्रो. कुठियाला ने छात्रों के सवालों के जबाव भी दिए।
दूसरे सत्र में विद्यार्थियों ने क्विज के माध्यम से ज्ञान और सूचनाओं के संसार का आनंद लिया तो तीसरे सत्र में सांस्कृतिक प्रस्तुतियां दीं। इनमें सर्वश्री अभिषेक झा, पुनीत पाण्डेय,विकास मिश्र, मिलन भार्गव,साजिया परवीन खान, योगिता राठौर, मनीषा तोमर, सुमित रंजन, चिरंजीवी थापा, विकास गौर, सौरभ पवार, मनीष दुबे, सद्दाम हुसैन मंसूरी, अनुतोष ने अपनी प्रस्तुतियां दीं। कार्यक्रम का संचालन तृषा गौर और शिल्पा अग्रवाल ने किया। कार्यक्रम में विभाग के प्राध्यापकगण डा. राखी तिवारी, गरिमा पटेल, पूर्णेंदु शुक्ल,प्रशांत पाराशर मौजूद रहे। अंत में विभागाध्यक्ष संजय द्विवेदी ने विद्यार्थियों की प्रस्तुति की सराहना की और कहा कि सार्थक शनिवार को आप सबने सार्थकता प्रदान की है।

Thursday, September 15, 2011

हिन्दी है हम वतन है हिन्दोस्तां हमारा



-शिशिर सिंह
विलाप करने से अगर कुछ मिलता होता तो दुनिया में मौत अन्तिम सच्चाई नहीं होती, विलाप शून्य पैदा करता है और कुछ नहीं। हिन्दी का भी विलाप करने से कुछ नहीं होगा। बेशक ऐसे समय में जब यूनेस्को विश्व की 3000 से अधिक भाषाओं पर संकट बता रहा हो। हिन्दी को लेकर चिंतित होना स्वाभाविक है पर हिन्दी का जितना तेजी से अभी विकास किया जा सकता है वो न शायद पहले करना संभव होता और न ही शायद भविष्य में होगा। जो है, जैसा है उसी में से रास्ता निकाल कर हिन्दी को आगे बढ़ाना होगा।
हिन्दी, समय के नाजुक मोड पर खड़ी है। यहाँ से अगर वह सही दिशा में ठीक-ठाक प्रयासों से भी चलती है तो अर्श उसका स्वागत करेगा, नहीं तो गर्त की परिणित उसकी बाट जोह ही रही है।
इन्टरनेट एक ऐसा माध्यम है जो हिन्दी को पैर नहीं पंख दे सकता है। इसमें किसी भी भाषा को लोकप्रिय बनाने का माद्दा है। अच्छी बात यह है कि यह किसी के बाप की बपौती नहीं है। अगर इन्टरनेट पर हिन्दी से संबंधित काम को बढ़ाया जाए तो हिन्दी को बहुत फायदा मिलेगा। यूनीकोड ने यह काम और आसान कर दिया है। इन्टरनेट पर हिन्दी भाषा में पाठ्य सामग्री को बढाना होगा। हिन्दी भाषा में पठनीय सामग्री की बेहद कमी है। लोग हिन्दी में सामग्री न मिलने का अफसोस तो जाहिर करते हैं पर कुछ करते नहीं। हिन्दी भाषियों की इस आदत के चलते अभी तक इन्टरनेट पर भाषा को गरीबी झेलनी पड़ रही है। हिन्दी भाषी कुछ नहीं देना चाहते यहाँ तक कि अपना ज्ञान भी जो बांटने से बढ़ता है। इसके उलट अंग्रेजी को देखिए। अंग्रेजी को अति लोकप्रिय बनाने में इन्टरनेट का बहुत बड़ा योगदान है। गूगल, विकीपीडिया, स्किराईव जैसी साइटों ने पाठ्य सामग्री की जो सुविधा लोगों को उपलब्ध कराई है, उसे लोगों ने अंग्रेजी में होने के बावजूद स्वीकार कर लिया। आरंभिक दौर में भाषा मजबूरी रही होगी वह बाद में रच बस कर आदत बन गई।
अगर हम इन्टरनेट पर जानकारियों को हिन्दी में देना शुरू करें तो भाषा की लोकप्रियता जरूर बढ़ेगी। ज्यादा कुछ नहीं तो जो जानकारियाँ कानूनी रूप से हिन्दी में अनुवाद करके डाली जा सकती है उसके लिए तो यह काम किया जा सकता है। गूगल, गूगल अनुवाद, विकीपिडिया तो ऐसी पहल का स्वागत करते हैं। हांलाकि यह दोनों संस्थान अपने तरफ से हिन्दी में सामग्री देने के लिए प्रयासरत हैं, पर आर्थिक संसाधनों के सहारे सीमित काम ही हो पा रहा है। बडे स्तर पर काम मन से और स्वयं सेवा से ही होगा।
इसके साथ हिन्दी की लोकप्रियता के लिए जरूरी है कि इसे प्रतिष्ठा से जोड़ा जाए। भारतीय समाज प्रतिष्ठा को लेकर बहुत संवेदनशील है। हिन्दी की साथ दिक्तत यह है कि लोग इसे ‘घर की मुर्गी दाल बराबर’ समझ रहे हैं। भारत का अभिजात्य वर्ग हिन्दी को हेय की दृष्टि से देखता है। वह हिन्दी अपनाता है पर उसे अछूत भी समझता है। संस्कृति का प्रवाह ऊपर से नीचे की ओर होता है। यही कारण है कि धीरे-धीरे अन्य वर्गों में भी हिन्दी को लेकर यह दृष्टिकोण बनता जा रहा है। ऐसा नहीं है कि हिन्दी की प्रतिष्ठा नहीं है, कई विदेशी शिक्षण संस्थान हिन्दी को प्रमुखता से अपना रहे हैं। ब्रिटेन के लन्दन, कैंब्रिज, यॉर्क जैसे विश्व प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में हिन्दी को पढ़ाया जा रहा है। हालैंड के भी चार विश्वविद्यालय इसे प्रमुख विषय के रूप में पढ़ा रहे हैं। इसके अलावा अमेरीका के 30, जर्मनी के 15 और विश्व के अन्य देशों में 100 से अधिक शिक्षण संस्थान में हिन्दी का अध्ययन होता है। ब्रिट्रेन में तो यह वेल्स भाषा के बाद उपयोग में लाई जाने वाली दूसरी सबसे बड़ी भाषा है। विश्व में इतना सम्मान होने के बावजूद भारतीय विश्वविद्यालयों में इसे सिर्फ पास करने लायक विषय के अध्ययन के रूप में अधिकतर लोग उपयोग करते हैं।
भारतीय मीडिया इसे प्रतिष्ठा दिलाने में काफी सहयोग कर सकता है। लेकिन इस पहल के लिए जरूरी है कि हिन्दी मीडिया अपना छिछलापन छोड़े, अधिक गम्भीर बने। हिन्दी मीडिया अपनी इन्हीं आदतों के चलते बदनाम है।
प्रतिष्ठा के लिए राजनीति और बाजार का सहारा लिया जा सकता है। यह सर्वविदित तथ्य है कि राजनीति और बाजार दोनों का काम हिन्दी के बिना नहीं चल सकता। यह भी सच्चाई है कि ये दोनों समाज को काफी हद तक नियंत्रित करते हैं। हिन्दी के बिना भारतीयों का जीवन अधूरा है। हिन्दी भाषा नहीं अभिव्यक्ति है जो मूलभूत जरूरतों के बाद एक बड़ी जरूरत है।
दरअसल बाजार न जहाँ हर चीज को बेचने के नजरिया बना रखा है वहीं उसने जाने-अनजाने हर चीज के लिए प्रतियोगिता का माहौल बना दिया है। भाषा के साथ भी यही हुआ है। संकट केवल हिन्दी पर नहीं आया है,बल्कि हर भाषा की शुद्धता पर है।
बाजार के कारण सब संकट में है पर बाजार ही इसका हल निकालेगा। बाजार उग्र और अड़ियल रवैया नहीं सहता। हिन्दी को शुरूआती दौड़ में इन्हीं दोनों से बचना होगा। हिन्दी भाषा के बुद्धिजीवियों के साथ यह दिक्तत आम है। भाषा के बुद्धिजीवियों को इसके हिसाब से खुद को ढालना होगा। इससे फायदा उनको भी होगा। समय सबको मौका देता है। अभी बाजार के हिसाब से चलें बाद में वह बाजार को नियंत्रित करेंगे।
राजकाज के स्तर पर इसे लोकप्रिय बनाने के लिए जरूरी है कि हम हिन्दी राज्यों की तरफ आशा की नजरों से देखें । रूठों को मनाना और संग खडे लोगों को न देखने की भारतीयों की जो आदत है वह हिन्दी के प्रसार में भी समस्या खड़ी कर रही है। दक्षिण भारत के राज्यों के हिन्दी के प्रति विरोध को भले ही नजरअंदाज करना उचित न हो, पर जो समर्थन में हैं उनके सहारे हिन्दी राजकाज की भाषा बनाई जा सकती।
हिन्दी सबसे अधिक जनसंख्या वाले उत्तर प्रदेश की मुख्य भाषा है। इसके अलावा बिहार, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान आदि ऐसे इलाके हैं जहाँ कि बोलियाँ और भाषा हिन्दी के काफी करीब है, जिनको हिन्दी भाषी प्रदेश का व्यक्ति थोड़ा बहुत समझ लेता है। उत्तर भारत के राज्य भी अगर हिन्दी भाषा में काम करना शुरू कर दें और इसे अपने यहाँ राजभाषा/राज्यभाषा का दर्जा दे दें तो काफी बडा कदम होगा।
दरअसल हिन्दी भाषी अपनी भाषा को लेकर उतने आसक्त नहीं है जितना इसका विरोध करने वाले या दक्षिण के लोग अपने भाषा के प्रति। हिन्दी पट्टी को भी इसके प्रति आसक्त होना होगा। स्कूल कॉलेजों में भाषा को लेकर काम करना होगा, खासकर स्कूलों में ताकि भाषा के लिए नींव तैयार हो।
अंग्रेजी भारत के विविधतापूर्ण भूगोल में संपर्क भाषा के रूप में काम कर रही है, पर यह पूरी संच्चाई नहीं है। गाँधी जी जिसे भारत कहते थे, जिसे उन्होंने रेलयात्रा करके जाना, वह भारत हिन्दी में ही संपर्क कर सकता है।
अगर यह सब होता है तब भी हम हिन्दी दिवस मानयेंगे पर विलाप के साथ नहीं, गर्व के साथ यह कहते हुए कि हिन्दी है हम वतन है हिन्दोस्तां हमारा।

(शिशिर सिंह विभाग के पूर्व छात्र हैं)

विकास ही बन रहा है विनाश : राजकुमार भारद्वाज





किसानों को न तो सरकार समझती है न मीडिया

भोपाल, 15 सितंबर। वरिष्ठ पत्रकार एवं कृषि मामलों के जानकार राजकुमार भारद्वाज का कहना है कि किसानों की समस्याओं को न तो सरकार समझती है न मीडिया। इसके चलते कृषि को विकास से जितना फायदा होना चाहिए था, भारतीय परिवेश में वह उतना सफल नहीं हुआ है, नहीं तो ऐसा क्यों है कि जो क्षेत्र उत्पादन में अग्रणी थे, वहीं के किसान आत्महत्या में अब सबसे आगे हैं। वे यहां माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग में आयोजित कार्यक्रम में‘किसानों के मुद्दे और मीडिया ‘विषय पर बोल रहे थे। श्री राजकुमार लंबे समय से कृषि मुद्दों पर काम कर रहे हैं और संप्रति दिल्ली से प्रकाशित नई दुनिया अखबार से जुड़े हैं।

श्री राजकुमार ने बताया कि भारत में जोतों का आकार काफी छोटा है, जिसके चलते कृषि कार्यों को सुगम बनाने के लिए जो तकनीक विकसित की गई है वह भारतीय खेती को बहुत फायदा नहीं पहुंचा पा रही हैं। उदाहरण के लिए हमारे यहाँ अधिकतर किसानों के पास उपलब्ध जोत पांच एकड़ से कम है, जबकि ट्रैक्टर इतनी छोटी जोत के लिए उपयुक्त नहीं रहता है। अन्य जानकारी देते हुए उन्होंने बताया कि भले ही ‘कांट्रेक्ट खेती’ ने किसानों को तेजी से आर्थिक लाभ पहुंचाया हो, पर लंबे समय में इसके नुकसान ज्यादा हैं। कांट्रैक्ट खेती करने वाली कंपनियाँ अपने बीज, अपनी खाद आदि इस्तेमाल करवाती हैं, जो जमीन की उर्वरा शक्ति दो-तीन फसलों के बाद कम कर देते हैं। फिर किसान खुद को ठगा महसूस करता है।

जमीन अधिग्रहण पर किसानों का पक्ष रखते हुए उन्होंने कहा कि, भारत का किसान समझदार निवेशक नहीं है, पहले हुए जमीन अधिग्रहणों से मिले पैसों का वह उचित निवेश नहीं कर पाया, फलस्वरूप पहले तो खूब शानो-शौकत की इकट्ठी की, पर अब उसकी आर्थिक हालत काफी खराब है। किसानों का ये हश्र देखकर अब नए किसान अपनी जमीन देने में ज्यादा संकोच कर रहे हैं। किसानों के प्रति बैंकों के तौर-तरीकों पर भी उन्होंने नाराजगी प्रकट की, उन्होंने कहा कि जो किसान पहले साहूकार के चंगुल से छूटकर बैंकों की तरफ मुड़ा था, वह अब वापस साहूकारों की तरफ लौट रहा है। कारण बैंक रकम वापस न होने पर जिस तरह से वसूली करते हैं उससे किसान की सामाजिक प्रतिष्ठा खराब होती है। एक अन्य संकट की तरफ इशारा करते हुए उन्होंने कहा कि भारतीय किसान अभी अपनी फसलों के पेटेंट के प्रति सजग नहीं है। उनकी इस कमी का फायदा विदेशी कंपनियाँ उठाना चाहती हैं वह लंबे समय से देश में उत्पादित अच्छी फसलों की किस्मों का पेटेंट कराने की फिराक में है। बासमाती चावल उनमें से एक है। बीटी बीजों के बारे में तल्ख टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा कि मल्टीनेशनल कंपनियां बीटी बीजों के सहारे भारतीय कृषि को गुलाम बनाना चाह रही हैं। बीटी बीज से पैदा होनी फसलें जमीन की उर्वरा शक्ति को तो कम करती ही है, साथ ही हर बार नए बीज के लिए कंपनियों पर ही निर्भर रहना पड़ता है।

किसान और मीडिया के बारे में उन्होंने कहा कि मीडिया में कृषि आन्दोलनों के लिए जगह ही नहीं है, अगर किसी मुद्दे को स्थान मिलता भी है तो वह कृषि आन्दोलन के कारण नहीं, बल्कि अन्य कारणों से मिलता है, इस संदर्भ में उन्होंने भट्टा पारसौल का जिक्र किया। समस्याओं को कम करने के सुझाव में उन्होंने कहा कि यह जरूरी है कि किसान शिक्षित और जागरूक बने। कृषि से जुड़ी संस्थाओं को चाहिए कि वह शोध पर ज्यादा ध्यान दें। साथ ही साथ वह किसान को कृषि से जुड़े आर्थिक, सामाजिक सहित सभी मुद्दों पर जागरूक भी करें , ताकि किसान को उचित निर्णय लेने में आसानी हो। उन्होंने कोआपरेटिव संस्थाएं, संघ, अनाज बैंक आदि को बढ़ाने पर जोर दिया।

इस व्याख्यान के दौरान डा. राखी तिवारी, डा. संजीव गुप्ता एवं बड़ी संख्या में विद्यार्थी मौजूद रहे। कार्यक्रम का संचालन जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने किया।

Wednesday, September 14, 2011

हिंदी के साथ जुड़ा है मानवता का सपनाः कुठियाला




पत्रकारिता विश्वविद्यालय में मना हिंदी दिवस समारोह
भोपाल,14 सितंबर,2011।
माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला का कहना है कि हिंदी सदभावना की भाषा है, उसके साथ विश्व मानवता के कल्याण का सपना जुड़ा हुआ है। वे यहां विश्वविद्यालय में आयोजित हिंदी दिवस समारोह को संबोधित कर रहे थे। उन्होंने कहा कि भारत की संस्कृति और उससे जुड़ी सभी भारतीय भाषाओं के पीछे एक वैज्ञानिक आधार है। उनकी ध्वनियां और उच्चारण व लेखन सब मिलकर इनको एक वैज्ञानिक संबल देते हैं। जिसके चलते नए तकनीकी दौर में इन भाषाओं की उपयोगिता बहुत बढ़ गयी है। इसीलिए संस्कृत को कंप्यूटर की सबसे सक्षम भाषा माना जा रहा है।
उनका कहना था कि जब सारी दुनिया हर क्षेत्र में श्रेष्टता का विचार कर रही है तो आखिर भाषा के मामले में संस्कृत, हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं को अपनाने पर हिचक क्यों है। श्री कुठियाला ने कहा कि हिंदी के साथ एक मानवीय संस्कृति का आधार है, इसलिए इसे विश्वभाषा बनाने का हमें संकल्प लेना चाहिए। क्योंकि यह दूसरी संस्कृति और भाषाओं का भी आदर करना जानती है। उन्होंने इस बात पर दुख व्यक्त किया कि हिंदी पत्रकारिता पर आज अंग्रेजी शब्दों का आतंक सरीखा व्याप्त है। हमें इससे बचने की जरूरत है। उन्होंने विद्यार्थियों का आह्ववान किया कि वे कंप्यूटर के उपयोग, तथा सोशल साइट्स पर संवाद करते समय अधिकाधिक हिंदी का उपयोग करें।
कार्यक्रम के मुख्यअतिथि वरिष्ठ पत्रकार गिरीश उपाध्याय ने कहा कि हिंदी हमारी विवशता नहीं, कर्तव्य है, क्योंकि यह हमारे सपनों और अपनों की भाषा है। हिंदी का अधिकाधिक प्रयोग और इसका सही इस्तेमाल जरूरी है। साथ ही हमें अंग्रेजी से दुश्मनी न निभाते हुए, हिंदी के लिए आंसू न बहाते हुए आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ना है। हिंदी आज रोजगार की भी भाषा है। अच्छी हिंदी का इस्तेमाल एक जरूरी चीज है जो आपको स्थापित कर सकती है।
कार्यक्रम में सर्वश्री दीपक शर्मा, डा. चंदर सोनाने, प्रो. आशीष जोशी, प्रो. अमिताभ भटनागर, डा. आरती सारंग, पुष्पेंद्रपाल सिंह, गरिमा पटेल, मीता उज्जैन, डा. मोनिका वर्मा, डा. रंजन सिंह, राघवेंद्र सिंह, सुरेंद्र पाल, डा. राखी तिवारी, डा. संजीव गुप्ता, पूर्णेंदु शुक्ल आदि मौजूद थे। कार्यक्रम का संचालन जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने किया।

हिदी दिवस के अवसर मौजूद प्राध्यापक एवं विद्यार्थी