Wednesday, January 19, 2011

“गण”से दूर होता “तंत्र”


- अंकुर विजयवर्गीय
“26 जनवरी को मैंने सोचा है कि आराम से सुबह उठूंगा, फिर दिन में दोस्तों के साथ फिल्म देखने जाना है, इसके बाद मॉल में जाकर थोड़ी शॉपिंग और फिर रात में दोस्तों के साथ दारू के दो-दो घूंट। क्यूं तुम भी आ रहे हो ना अंकुर।”

अब आप बताएं कि इतना अच्छा मौका कोई हाथ से जाने देगा। हालांकि मेरे संपादक ने मुझे राष्ट्रपति के भाषण का अनुवाद करने के लिए ऑफिस आने को कहा है लेकिन, फिर भी मैंने इस कार्यक्रम के लिए हामी भर दी है। अधिकांश लोग शायद मुझे गाली देंगे कि देश अपना 62वां गणतंत्र दिवस मनाने की तैयारियां कर रहा है और ये महाशय फिल्म ओर दारू पर ही अटके हुए हैं। पर जनाब कौनसा गण और कौनसा तंत्र। मेरे जैसे युवा ही नहीं बल्कि देश की आधी आबादी को भी शायद अब इन राजकीय उत्सवों से ज्यादा सरोकार नहीं है। लेकिन इसके जिम्मेदार देश का गण नहीं अपितु तंत्र है। लोगों के अंदर गुस्सा है, प्याज और पेट्रोल की बढ़ती कीमतों से, अफजल को फांसी न होने से, आदर्श सोसायटी और कॉमनवेल्थ घोटालों से, राजा और नीरा राडिया की दलाली से और यहां तक की नेताओं की शक्ल से लेकर उनकी अक्ल तक। लेकिन सब चुप हैं। क्यूंकि बोलने की आजादी हमें सिर्फ संविधान में ही दी गई है, वास्तविक जिंदगी में नहीं। आप बोल सकते हैं लेकिन सरकार के हक में। खिलाफत शासन को भी मंजूर नहीं है। आप घर के बाहर आवाज उठाइये और घर के अंदर आपकी बीबी या बहन के साथ बलात्कार हो जायेगा या फिर आपकी सड़क चलती बेटी को नेता के गुंडे उठाकर कार में गैंग रेप कर डालेंगे या फिर आपके जवान बेटे की लाश आपको चौराहे पर टंगी मिल जायेगी। और ये सब नहीं तो निपटाने के लिए तो आप हैं ही। कब तक साहब कब तक। कब तक तंत्र अपनी तानाशाही चलाता रहेगा और गण चुपचाप सहता रहेगा। ये गुस्सा किसी पत्रकार का नहीं है जनाब बल्कि ये गुस्सा तंत्र की तानाशाही में पिसते एक आम आदमी का है।

जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र आदि के नाम पर हिंदुस्तान तथा हिंदुस्तानियों को बांटते रहनेवाले अवसरवादी राजनेता अपनी घिनौनी हरकतें करते ही रहेंगे। केवल वोट की राजनीति करनेवाले भ्रष्ट, चरित्रहीन तथा स्वार्थी राजनेता अपना स्वयं का हित करने के चक्कर में देश और देशवासियों का अहित करते ही रहेंगे। झोपड़ी बनवाना, झोपड़ी बढ़वाना, फेरीवालों को जमा करना, अनधिकृत निर्माण कार्य करवाना, असामाजिक तत्वों तथा गुंडों को संरक्षण देना तथा ऐसे ही ग़ैर-क़ानूनी कार्यों को बढ़ावा देना उन्हीं राजनेताओं का मुख्य उद्देश्य बन गया है, जो दूसरों के लिए क़ानून बनाते हैं, परंतु अपने आपको क़ानून के दायरे से दूर ही रखते हैं। शायद विश्वभर में हिंदुस्तान ही एक ऐसा महत्वपूर्ण गणतंत्रीय राष्ट्र होगा, जहां के अधिकतर राजनेता बलात्कार, दुराचार, हत्या, भ्रष्टाचार, व्यभिचार आदि में ही लिप्त रहते हैं फिर भी अपने आपको चरित्रवान, निष्ठावान, समाजसेवी, राष्ट्रसेवी तथा ईमानदार ही घोषित करते रहते हैं। यह भी एक अति कड़वी सच्चाई है कि आतंकवादी, नक्सली तथा अन्य इसी प्रकार के उग्रवादियों के जन्मदाता तथा पालनकर्ता वास्तव में हमारे सफ़ेदपोश शांति के पुजारी कहलानेवाले राजनेता ही तो होते हैं। आजकल के दिखावे के समय में नागरिकों और देश की सुरक्षा के स्थान पर अपनी निजी सुरक्षा के प्रति अत्यधिक चिंतित रहनेवाले राजनेता पता नहीं क्यों, उन्हीं लोगों से डरे हुए रहने लगे हैं, जो उन्हें वोट देकर चुनते रहते हैं। ये राजनेता ही अधिकांश शिक्षा संस्थानों के प्रमुख होते हैं और इन्होंने ही शिक्षा को व्यापार बना रखा है। मैं यह समझ नहीं पाता हूं कि जो स्वयं संस्कारहीन होते हैं, वो दूसरों को किन संस्कारों की शिक्षा दे सकेंगे और जो खुद ही पथभ्रष्ट हो गये हैं, वो दूसरों का मार्गदर्शन कैसे कर सकते हैं। इन्हीं के प्रोत्साहन के कारण हिंदुस्तान जैसे महान गणतंत्र को `गण तंत्र' बना देनेवाले लोग फल-फूल रहे हैं। ग़रीब लोग देश के अनेक भागों में आत्महत्या करने पर मजबूर होते जा रहे हैं। कर्ज के बोझ के तले अनगिनत परिवार दबे हुए हैं। बढ़ती महंगाई ने आम आदमी की कमर ही तोड़ दी है, परंतु फिर भी दावा यही किया जा रहा है कि हिंदुस्तान और हिंदुस्तानी प्रगति कर रहे हैं। बेरोज़गारी बढ़ती ही जा रही है, परंतु आंकड़ों के जरिये यही प्रमाणित किया जा रहा है कि अधिकतर लोगों को रोज़गार उपलब्ध कराये जा रहे हैं। अनेक प्राकृतिक आपदाओं के कारण खेती को भीषण नुकसान उठाना पड़ रहा है, परंतु दावा यही किया जाता रहा है कि हिंदुस्तान में कृषि पैदावार बढ़ रही है। आवश्यक वस्तुओं के दाम सारी सीमाएं तोड़ते जा रहे हैं, परंतु घोषणा यही की जाती है कि मूल्यों को नियंत्रण में रखा जा रहा है। स्वास्थ्य सेवाएं हिंदुस्तान में अचानक आसानी से धन लूटने का साधन बनती जा रही हैं। कुपोषण के कारण लाखों बच्चे और बड़े असहाय तथा जर्जर अवस्था में पड़े हैं और मृत्यु का इंतजार कर रहे हैं और राजनेता चिल्ला-चिल्लाकर यही कहते रहते हैं कि किसी भी व्यक्ति को भूख या कुपोषण का शिकार नहीं होने दिया जायेगा।

भारत के 58 साल गणतंत्र की अनेक उपलब्धियों पर हम फक्र कर सकते हैं। लोकतंत्र में हमारी चरित्रगत आस्था का इससे बड़ा सबूत क्या हो सकता है कि दुनिया के सबसे बड़े और जटिल समाज ने सफलतापूर्वक 15 राष्ट्रीय चुनाव संपन्न किए। सरकारों को बनाया और बदला। विशाल और सशक्त सेना जनप्रतिनिधियों के आदेश पर चलने के अलावा कुछ और सोच भी नहीं सकती। पिछले एक दशक से हमारी आर्थिक विकास की रफ्तार लगभग 9 फीसदी बनी हुई है। 1975 के आपातकाल के कुछ महीनों के अलावा देश के नागरिक अधिकारों और मीडिया की स्वतंत्रता पर कोई राष्ट्रीय पाबंदी नहीं लग सकी, आदि।

दूसरी ओर, गैर बराबरी और भूख से हुई मौतों, किसानों द्वारा आत्महत्याओं, महिलाओं की असुरक्षा और बलात्कार, जातिवाद, सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार, अशिक्षा आदि कलंक भी हमारे लोकतांत्रिक चेहरे पर खूब दिखाई देते हैं, किंतु इन सबमें सबसे अधिक शर्मनाक देश में चलने वाली बच्चों की गुलामी और बाल व्यापार जैसी घिनौनी प्रथाएँ हैं। बाल वेश्यावृत्ति, बाल विवाह, बाल मजदूरी, बाल कुपोषण, अशिक्षा, स्कूलों, घरों और आस-पड़ोस में तेजी से हो रही बाल हिंसा से लगाकर शिशु बलात्कार जैसी घटनाएँ हमारी बीमार और बचपन विरोधी मानसिकता की परिचायक हैं। भारत में लगभग दो तिहाई बच्चे किसी न किसी रूप में हिंसा के शिकार हैं। 5 वर्ष से कम उम्र के लगभग 47 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं। गैर सरकारी आँकड़ों के अनुसार 6 करोड़ बच्चे बाल मजदूरी और आर्थिक शोषण के शिकार हैं औरइतने ही बच्चे स्कूलों से बाहर हैं।

कभी-कभी लगता है कि हम आज भी गुलाम हैं। बस पराधीनता का स्वरूप बदल गया है। हजारों साल पुरानी हमारी इस सभ्यता को कई बार गुलाम बनाया गया और कई वंशों और सभ्यताओं ने हम पर शासन किया। पर कभी-कभी ऐसा लगता है कि आज भी कोई हम पर शासन कर रहा है। शायद हमारी अपनी ही बनाई व्यवस्था के अधीन कभी-कभी हम अपने आप को जकड़ा हुआ महसूस करते हैं। पता नहीं हमारे सत्ताधीशों को इस पर शर्म आएगी कि नहीं? वे गणतंत्र दिवस समारोह की चकाचौंध में उस गण की दशा की ओर शायद ही देखना चाहें, जिसके बूते वे भारतीय गणतंत्र के स्तंभ बनने का दंभ पाले हुए हैं। वास्तव में देश भी महान है, देशवासी भी महान हैं, देशवासियों की सहनशीलता भी महान है और अत्याचार करनेवालों की कर्तव्यपरायणता भी महान है। अपनी लाचारी, मजबूरी, निष्क्रियता, संवेदनहीन आलसीय प्रवृत्ति, टालने की आदत और अपने भाग्य को कोसते रहने की आदत को नतमस्तक हो प्रणाम करनेवाले हम सब हिंदुस्तानियों को एक और गणतंत्र दिवस की ``हार्दिक बधाई''।

क्रमश: - हाल ही में मेरे प्रिय कवि विनीत चौहान की कुछ पंक्तियां यू-टयूब के माध्यम से मुझे सुनने को मिली । इस गणतंत्र के मौके पर पंक्तियां सटीक बैठती हैं-

सांप, नेवले और भेडिये एक दूजे के मीत मिले,

सारे सिंह मुलायम निकले मिमियाते सुरजीत मिले,

चरण चाटते हुए मिले सब राजनीति की ड्योडी पर,

और पीएम शीश झुकाये बैठे दस जनपथ की सीढ़ी पर ।।।



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(लेखक जनसंचार विभाग के पूर्व छात्र हैं)

Monday, January 17, 2011

लोकजीवन, बाजार और मीडिया


‘लोक’ मीडिया के लिए एक डाउन मार्केट चीज
- संजय द्विवेदी

‘लोक’ मीडिया के लिए एक डाउन मार्केट चीज है। ‘लोक’ का बिंब जब हमारी आंखों में ही नहीं है तो उसका प्रतिबिंब क्या बनेगा। इसलिए ‘लोक’ को मीडिया की आंखों से देखने की हर कोशिश हमें निराश करेगी। क्योंकि लोकजीवन जितना बाजार बनाता है, उतना ही वह मीडिया का हिस्सा बन सकता है। लोक मीडिया के लिए कोई बड़ा बाजार नहीं बनाता, इसलिए वह उसके बहुत काम का नहीं है। मीडिया के काम करने का अपना तरीका है, जबकि लोकजीवन अपनी ही गति से धड़कता है। उसकी गति, लय और समय की मीडिया से संगति कहां है। अगर मीडिया लोकजीवन में झांकता भी है तो कुछ कौतुक पैदा करने या हास्य रचने के लिए। वह लोकजीवन में एक कौतुक दृष्टि से प्रवेश करता है, इसलिए लोक का मन उसके साथ कहां आएगा। लोक को समझने वाली आँखें और दृष्टि यह मीडिया कहां से लाएगा। ‘लोक’ को विद्वान कितना भी जटिल मानें, उत्तरआधुनिकतावादी उसे अश्पृश्य मानें, किंतु उसकी ताकत को नहीं नकारा जा सकता।
बाजार की ताकतों का लोकजीवन पर हमला
बाजार की ताकतों के लिए यह ‘लोक’ एक चुनौती सरीखा ही है। इसलिए वह सारी दुनिया को एक रंग में रंग देना चाहता है। एक भाषा, एक परिधान, एक खानपान, एक सरीखा पश्चिम प्रेरित जीवन आरोपित करने की कोशिशों पर जोर है। यह सारा कुछ होगा कैसे ? हमारे ही लोकजीवन को नागर जीवन में बदलकर। यानि हमला तो हमारे लोक पर ही है। सारी दुनिया को एक रंग में रंग देने की यह कोशिश खतरनाक है। ‘राइट टू डिफरेंट’ एक मानवीय विचार है और इसे अपनाया जाना चाहिए। हम देखें तो भारतीय बाज़ार इतने संगठित रूप में और इतने सुगठित तरीके से कभी दिलोदिमाग पर नहीं छाया था, लेकिन उसकी छाया आज इतनी लंबी हो गई है कि उसके बिना कुछ संभव नहीं दिखता। भारतीय बाज़ार अब सिर्फ़ शहरों और कस्बों तक केंद्रित नहीं रहे। वे अब गाँवों यानि हमारे लोकजीवन में नई संभावनाएं तलाश रहे हैं। भारत गाँव में बसता है, इस सच्चाई को हमने भले ही न स्वीकारा हो, लेकिन भारतीय बाज़ार को कब्जे में लेने के लिए मैदान में उतरे प्रबंधक इसी मंत्र पर काम कर रहे हैं। शहरी बाज़ार अपनी हदें पा चुका है। वह संभावनाओं का एक विस्तृत आकाश प्राप्त कर चुका है, जबकि ग्रामीण बाज़ार और हमारा लोकजीवन एक नई और जीवंत उपभोक्ता शक्ति के साथ खड़े दिखते हैं। बढ़ती हुई प्रतिस्पर्धा, अपनी बढ़त को कायम रखने के लिए मैनेजमेंट गुरुओं और कंपनियों के पास इस गाँव में झाँकने के अलावा और विकल्प नहीं है। एक अरब आबादी का यह देश जिसके 73 फ़ीसदी लोग आज भी हिंदुस्तान के पांच लाख, 72 हजार गाँवों में रहते हैं, अभी भी हमारे बाज़ार प्रबंधकों की जकड़ से बचा हुआ है। जाहिर है निशाना यहीं पर है। तेज़ी से बदलती दुनिया, विज्ञापनों की शब्दावली, जीवन में कई ऐसी चीज़ों की बनती हुई जगह, जो कभी बहुत गैरज़रूरी थी शायद इसीलिए प्रायोजित की जा रही है। भारतीय जनमानस में फैले लोकजीवन में स्थापित लोकप्रिय प्रतीकों, मिथकों को लेकर नए-नए प्रयोग किए जा रहे हैं। ये प्रयोग विज्ञापन और मनोरंजन दोनों दुनियाओं में देखे जा रहे हैं। भारत का लोकजीवन और हमारे गांव अपने आप में दुनिया को विस्मित कर देने वाला मिथक है। परंपरा से संग्रही रही महिलाएं, मोटा खाने और मोटा पहनने की सादगी भरी आदतों से जकड़े पुरूष आज भी इन्हीं क्षेत्रों में दिखते हैं। शायद इसी के चलते जोर उस नई पीढ़ी पर है, जिसने अभी-अभी शहरी बनने के सपने देखे हैं। भले ही गाँव में उसकी कितनी भी गहरी जड़ें क्यों न हों। गाँव को शहर जैसा बना देना, गाँव के घरों में भी उन्हीं सुविधाओं का पहुँच जाना, जिससे जीवन सहज भले न हो, वैभवशाली ज़रूर दिखता हो। यह मंत्र नई पीढ़ी के गले उतारे जा रहे हैं।
सामूहिकता की संस्कृति भी निशाने पर
आज़ादी के 6 दशकों में जिन गाँवों तक हम पीने का पानी तक नहीं पहुँचा पाए, वहाँ कोला और पेप्सी की बोतलें हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था को मुँह चिढ़ाती दिखती हैं। गाँव में हो रहे आयोजन आज लस्सी, मठे और शरबत की जगह इन्हीं बोतलों के सहारे हो रहे हैं। ये बोतलें सिर्फ़ लोक की संस्कृति का विस्थापन नहीं हैं, यह सामूहिकता का भी गला घोंटती हैं। गाँव में हो रहे किसी आयोजन में कई घरों और गाँवों से मांगकर आई हुई दही, सब्जी या ऐसी तमाम चीजें अब एक आदेश पर एक नए रुप में उपलब्ध हो जाती हैं। दरी, चादर, चारपाई, बिछौने, गद्दे और कुर्सियों के लिए अब टेंट हाउस हैं। इन चीज़ों की पहुँच ने कहीं न कहीं सामूहिकता की भावना को खंडित किया है। भारतीय बाज़ार की यह ताकत हाल में अपने पूरे विद्रूप के साथ प्रभावी हुई है। सरकारी तंत्र के पास शायद गाँव की ताकत, उसकी संपन्नता के आंकड़े न हों, लेकिन बाज़ार के नए बाजीगर इन्हीं गाँवों में अपने लिए राह बना रहे हैं। नए विक्रेताओं को ग्रामीण भारत और लोकजीवन की सच्चाइयाँ जानने की ललक अकारण नहीं है। वे इन्हीं जिज्ञासाओं के माध्यम से भारत के ग्रामीण ख़जाने तक पहुँचना चाहते हैं। उपभोक्ता सामग्री से अटे पड़े शहर, मेगा माल्स और बाज़ार अब यदि भारत के लोकजीवन में अपनी जगह तलाश रहे हैं, तो उन्हें उन्हीं मुहावरों का इस्तेमाल करना होगा, जिन्हें भारतीय लोकजीवन समझता है। विविधताओं से भरे देश में किसी संदेश का आख़िरी आदमी तक पहुँच जाना साधारण नहीं होता। कंपनियां अब ऐसी रणनीति बना रही हैं, जो उनकी इस चुनौती को हल कर सकें। चुनौती साधारण वैसे भी नहीं है, क्योंकि पांच लाख, 72 हजार गाँव भर नहीं, वहाँ बोली जाने वाली 33 भाषाएं, 1652 बोलियाँ, संस्कृतियाँ, उनकी उप संस्कृतियाँ और इन सबमें रची-बसी स्थानीय लोकजीवन की भावनाएं इस प्रसंग को बेहद दुरूह बना देती हैं। यह लोकजीवन एक भारत में कई भारत के सांस लेने जैसा है। कोई भी विपणन रणनीति इस पूरे भारत को एक साथ संबोधित नहीं कर सकती। गाँव में रहने वाले लोग, उनकी ज़रूरतें, खरीद और उपभोग के उनके तरीके बेहद अलग-अलग हैं। शहरी बाज़ार ने जिस तरह के तरीकों से अपना विस्तार किया वे फ़ार्मूले इस बाज़ार पर लागू नहीं किए जा सकते। शहरी बाज़ार की हदें जहाँ खत्म होती हैं, क्या भारतीय ग्रामीण बाज़ार वहीं से शुरू होता है, इसे भी देखना ज़रूरी है। ग्रामीण और शहरी भारत के स्वभाव, संवाद, भाषा और शैली में जमीन-आसमान के फ़र्क हैं। देश के मैनेजमेंट गुरू इन्हीं विविधताओं को लेकर शोधरत हैं। यह रास्ता भारतीय बाज़ार के अश्वमेध जैसा कठिन संकल्प है। जहाँ पग-पग पर चुनौतियाँ और बाधाएं हैं। भारत के लोकजीवन में सालों के बाद झाँकने की यह कोशिश भारतीय बाज़ार के विस्तारवाद के बहाने हो रही है। इसके सुफल प्राप्त करने की कोशिशें हमें तेज़ कर देनी चाहिए, क्योंकि किसी भी इलाके में बाज़ार का जाना वहाँ की प्रवृत्तियों में बदलाव लाता है। वहाँ सूचना और संचार की शक्तियां भी सक्रिय होती हैं, क्योंकि इन्हीं के सहारे बाज़ार अपने संदेश लोगों तक पहुँचा सकता है। जाहिर है यह विस्तारवाद सिर्फ़ बाज़ार का नहीं होगा, सूचनाओं का भी होगा, शिक्षा का भी होगा। अपनी बहुत बाज़ारवादी आकांक्षाओं के बावजूद वहाँ काम करने वाला मीडिया कुछ प्रतिशत में ही सही, सामाजिक सरोकारों का ख्याल ज़रूर रखेगा, ऐसे में गाँवों में सरकार, बाज़ार और मीडिया तीन तरह की शक्तियों का समुच्चय होगा, जो यदि जनता में जागरूकता के थोड़े भी प्रश्न जगा सका, तो शायद ग्रामीण भारत का चेहरा बहुत बदला हुआ होगा। भारत के गाँव और वहाँ रहने वाले किसान बेहद ख़राब स्थितियों के शिकार हैं। उनकी जमीनें तरह-तरह से हथियाकर उन्हें भूमिहीन बनाने के कई तरह के प्रयास चल रहे हैं। इससे एक अलग तरह का असंतोष भी समाज जीवन में दिखने शुरू हो गए हैं। भारतीय बाज़ार के नियंता इन परिस्थितियों का विचार कर अगर मानवीय चेहरा लेकर जाते हैं, तो शायद उनकी सफलता की दर कई गुना हो सकती है। फिलहाल तो आने वाले दिन इसी ग्रामीण बाज़ार पर कब्जे के कई रोचक दृश्य उपस्थित करने वाले हैं, जिसमें कितना भला होगा और कितना बुरा इसका आकलन होना अभी बाकी है?
लोक की शक्ति को पहचानना जरूरी
बावजूद इसके कोई भी समाज सिर्फ आधुनिकताबोध के साथ नहीं जीता, उसकी सांसें तो ‘लोक’ में ही होती हैं। भारतीय जीवन की मूल चेतना तो लोकचेतना ही है। नागर जीवन के समानांतर लोक जीवन का भी विपुल विस्तार है। खासकर हिंदी का मन तो लोकविहीन हो ही नहीं सकता। हिंदी के सारे बड़े कवि तुलसीदास, कबीर, रसखान, मीराबाई, सूरदास लोक से ही आते हैं। नागरबोध आज भी हिंदी जगत की उस तरह से पहचान नहीं बन सका है। भारत गांवों में बसने वाला देश होने के साथ-साथ एक प्रखर लोकचेतना का वाहक देश भी है। आप देखें तो फिल्मों से लेकर विज्ञापनों तक में लोक की छवि सफलता की गारंटी बन रही है। बालिका वधू जैसे टीवी धारावाहिक हों या पिछले सालों में लोकप्रिय हुए फिल्मी गीत सास गारी देवे (दिल्ली-6) या दबंग फिल्म का मैं झंडू बाम हुयी डार्लिंग तेरे लिए इसका प्रमाण हैं। ऐसे तमाम उदाहरण हमारे सामने हैं। किंतु लोकजीवन के तमाम किस्से, गीत-संगीत और प्रदर्शन कलाएं, शिल्प एक नई पैकेजिंग में सामने आ रहे हैं। इनमें बाजार की ताकतों ने घालमेल कर इनका मार्केट बनाना प्रारंभ किया है। इससे इनकी जीवंतता और मौलिकता को भी खतरा उत्पन्न हो रहा है। जैसे आदिवासी शिल्प को आज एक बड़ा बाजार हासिल है किंतु उसका कलाकार आज भी फांके की स्थिति में है। जाहिर तौर पर हमें अपने लोक को बचाने के लिए उसे उसकी मौलिकता में ही स्वीकारना होगा। हजारों-हजार गीत, कविताएं, साहित्य, शिल्प और तमाम कलाएं नष्ट होने के कगार पर हैं। किंतु उनके गुणग्राहक कहां हैं। एक विशाल भू-भाग में बोली जाने वाली हजारों बोलियां, उनका साहित्य-जो वाचिक भी है और लिखित भी। उसकी कलाचेतना, प्रदर्शन कलाएं सारा कुछ मिलकर एक ऐसा लोक रचती है जिस तक पहुंचने के लिए अभी काफी समय लगेगा। लोकचेतना तो वेदों से भी पुरानी है। क्योंकि हमारी परंपरा में ही ज्ञान बसा हुआ है। ज्ञान, नीति-नियम, औषधियां, गीत, कथाएं, पहेलियां सब कुछ इसी ‘लोक’ का हिस्सा हैं। हिंदी अकेली भाषा है जिसका चिकित्सक भी ‘कविराय’ कहा जाता था। बाजार आज सारे मूल्य तय कर रहा है और यह ‘लोक’ को नष्ट करने का षडयंत्र है। यह सही मायने में बिखरी और कमजोर आवाजों को दबाने का षडयंत्र भी है। इसका सबसे बड़ा शिकार हमारी बोलियां बन रही हैं, जिनकी मौत का खतरा मंडरा रहा है। अंडमान की ‘बो’ नाम की भाषा खत्म होने के साथ इसका सिलसिला शुरू हो गया है। भारतीय भाषाओं और बोलियों के सामने यह सबसे खतरनाक समय है। आज के मुख्यधारा मीडिया के मीडिया के पास इस संदर्भों पर काम करने का अवकाश नहीं है। किंतु समाज के प्रतिबद्ध पत्रकारों, साहित्यकारों को आगे आकर इस चुनौती को स्वीकार करने की जरूरत है क्योंकि ‘लोक’ की उपेक्षा और बोलियों को नष्ट कर हम अपनी प्रदर्शन कलाओं, गीतों, शिल्पों और विरासतों को गंवा रहे हैं। जबकि इसके संरक्षण की जरूरत है।
-अध्यक्षः जनसंचार विभाग, माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, प्रेस काम्पलेक्स, एमपी नगर, भोपाल (मप्र)
मोबाइलः 9893598888, ईमेलः 123dwivedi@gmail.com

Wednesday, January 12, 2011

मन का श्रृंगार



12 जनवरी 2011
अंकुर विजयवर्गीय, पू्र्व छात्र(जनसंचार विभाग)



काश ।
एक कोरा केनवास ही रहता
मन… ।
न होती कामनाओं की पौध
न होते रिश्तों के फूल
सिर्फ सफेद कोरा केनवास होता
मन… ।

न होती भावनाओं के वेग में
ले जाती उन्मुक्त हवा
न होती अनुभूतियों की
गहराईयों में ले जाती निशा ।
सोचता हूं,
अगर वाकई ऐसा होता मन
तो मन मन नहीं होता
तन तन नहीं होता
जीवन जीवन नहीं होता… ।

तो सिर्फ पौधा एक पौधा होता
फूल सिर्फ एक फूल होता
फूल पौधों का उपवन नहीं होता… ।
हवा सिर्फ हवा होती
निशा सिर्फ निशा होती
कोई खूशबू नहीं होती
कोई उषा नहीं होती… ।

जीवन की संजीवनी है भाव
रिश्तों का प्राण है प्यार
मन और तन दोनों का
यही तो है
शाश्वत श्रृंगार
एक मात्र मूल आधार... ।


वर्तमान में,
वरिष्ठ कॉपी संपादक,
हिन्दुस्तान टाइम्स मीडिया लिमिटेड, सी-164, सेक्टर -63,
नोएडा – 201301
मोबाइल - 8826399822 / 91-120-3329403
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अकेले हम, अकेले तुम

सिमोन बैक की आत्महत्या से उठे कई सवाल

सोशल नेटवर्किंग साइट्स के सामाजिक प्रभावों का अध्ययन जरूरी

-संजय द्विवेदी

संचार क्रांति का एक प्रभावी हिस्सा है- सोशल नेटवर्किंग साइट्स, जिन्होंने सही मायने में निजता के एकांत को एक सामूहिक संवाद में बदल दिया है। अब यह निजता, निजता न होकर एक सामूहिक संवाद है, वार्तालाप है, जहां सपने बिक रहे हैं, आंसू पोछे जा रहे हैं, प्यार पल रहा है, साथ ही झूठ व तिलिस्म का भी बोलबाला है। यह वर्चुअल दुनिया है जो हमने रची है, अपने हाथों से। इस अपने रचे स्वर्ग में हम विहार कर रहे है और देख रहे हैं फेसबुक,ट्विटर और आरकुट की नजर से एक नई दुनिया। इन तमाम सोशल साइट्स ने हमें नई आँखें दी हैं, नए दोस्त और नई समझ भी। यहां सवाल हैं, उन सवालों के हल हैं और कोलाहल भी है। युवा ही नहीं अब तो हर आयु के लोग यहां विचरते हैं कि ज्ञान और सूचना ना ही सही, रिश्तों के कुछ मोती चुनने के लिए। यह एक एक नया समाज है, यह नया संचार है, नया संवाद है, जिसे आप सूचना या ज्ञान की दुनिया भी नहीं कह सकते। यह एक वर्चुअल परिवार सरीखा है। जहां आपके सपने, आकांक्षाएं और स्फुट विचारों, सबका स्वागत है। दोस्त हैं जो वाह-वाह करने, आहें भरने और काट खाने के लिए तैयार बैठे हैं। यह सारा कुछ भी है तुरंत, इंस्टेंट। तुरंतवाद ने इस उत्साह को जोश में बदल दिया है।यह इतना सहज नहीं लगता पर हुआ और सबने इसे घटते हुए देखा है।

एक मौत, हजारों प्रश्नः

पिछले दिनों लंदन की 42 वर्षीय महिला सिमोन बैक की आत्महत्या की खबर एक ऐसी सूचना है जिसने सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर पल रहे रिश्तों की पोल खोल दी है। यह घटना हमें बताती है कि इन साइट्स पर दोस्तों की हजारों की संख्या के बावजूद आप कितने अकेले हैं और आपकी मौत की सूचना भी इन दोस्तों को जरा भी परेशान नहीं करती। सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक पर सिमोन ने अपनी आखिरी पंक्तियों में लिखा था-“ मैंने सारी गोलियां ले ली हैं, बाय बाय।” उसके 1048 दोस्तों ने इन्हें पढ़ा, लेकिन किसी ने यकीन नहीं किया, न ही किसी ने उसे बचाने या बात करने की कोशिश की। एक दोस्त ने उसे ‘झूठी’ बताया तो एक ने लिखा “उसकी मर्जी।” जाहिर तौर पर यह हमारे सामाजिक परिवेश के सच को उजागर करती हुई एक ऐसी सत्यकथा है जो इस नकली दुनिया की हकीकत बताती है। यह हिला देने वाली ही नहीं, शर्मसार कर देने वाली घटना बताती है कि भीड़ में भी हम कितने अकेले हैं और अवसाद की परतें कितनी मोटी हो चुकी हैं। आनलाइन दोस्तों की भरमार आज जितनी है ,शायद पहले कभी न थी किंतु आज हम जितने अकेले हैं, उतने शायद ही कभी रहे हैं।

महानगरीय जिंदगी का अकेलापनः

महानगरीय अकेलेपन और अवसाद को साधने वाली इन साइट्स के केंद्र में वे लोग हैं जो खाए-अधाए हैं और थोड़ा सामाजिक होने के मुगालते के साथ जीना चाहते हैं। सही मायने में यह निजता के वर्चस्व का समय है। व्यक्ति के सामाजिक से एकल होने का समय है। उसके सरोकारों के भी रहस्यमय हो जाने का समय है। वह कंप्यूटर का पुर्जा बन चुका है। मोबाइल और कंप्यूटर के नए प्रयोगों ने उसकी दुनिया बदल दी है, वह एक अलग ही इंसान की तरह सामने आ रहा है। वह नाप रहा है पूरी दुनिया को, किंतु उसके पैरों के नीचे ही जमीन नहीं है। उसे अपने शहर, गली, मोहल्ले या जिस बिल्डिंग में वह रहता है उसका शायद कुछ पता ना हो किंतु वह अपनी रची वर्चुअल दुनिया का सिरमौर है। वह वहां का हीरो है। मोबाइल, लैपटाप और डेस्कटाप स्क्रीन की रंगीन छवियों ने उसे जकड़ रखा है। वह एकांत का नायक है। उसे आसपास के परिवेश का पता नहीं है, वह अब विश्व नागरिक बन चुका है। दोस्तों का ढेर लगाकर सामाजिक भी हो चुका है। कुछ स्फुट, एकाध पंक्ति के विचार व्यक्त कर समाज और दुनिया की चिंता भी कर रहा है। यानि सारा कुछ बहुत ही मनोहारी है। शायद इसी को लीला कहते हैं, वह लीला का पात्र मात्र है। कारपोरेट, बाजार और यंत्रों का पुरजा।
सेहत पर भी असरः
इसके सामाजिक प्रभावों के साथ-साथ स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं भी अब असर दिखाने लगीं हैं। तमाम प्रकार की बीमारियों के साथ अब कंप्यूटर सिड्रोम का खतरा आसन्न है। जिसने नई पीढ़ी ही नहीं, हर कंप्यूटर प्रेमी को जकड़ लिया है। अब यहां सिर्फ काम की बातें नहीं, बहुत से ऐसे काम हैं जो नहीं होने चाहिए, हो रहे हैं। एकांत अब आवश्यक्ता में बदल रहा है। समय मित्रों, परिजनों के साथ नहीं अब यहां बीत रहा है। ऐसे में परिवारों में भी संकट खड़े हो रहे हैं। यह खतरा टेलीविजन से बड़ा दिख रहा है, क्योंकि लाख के बावजूद टीवी ने परिवार की सामूहिकता पर हमला नहीं किया था। साइबर की दुनिया अकेले का संवाद रचती है, यह सामूहिक नहीं है इसलिए यह स्वप्नलोक सरीखी भी है। यहां सामने वाले की पहचान क्या है यह भी नहीं पता, उस नाम का कोई है या नहीं यह भी नहीं पता, किंतु कहानियां चल रही हैं, संवाद हो रहा है, प्यार घट रहा है, क्षोभ बढ़ रहा है। एक वाक्य के विचार किस तरह कमेंट्स में और पल की दोस्ती किस तरह प्यार में बदलती है- इसे घटित होता हम यहां देख सकते हैं। सोशल नेटवर्किग साइट्स के सामाजिक प्रभावों का भारतीय संदर्भ में विशद अध्ययन होना शेष है किंतु यह एक बड़ी पीढ़ी को अपनी गिरफ्त में ले रहा है इसमें दो राय नहीं। नई पीढ़ी तो इसी माध्यम पर संवाद कर रही है, प्यार कर रही है, फंतासियां गढ़ रही है, समय से पहले जवान हो रही है। हमारे पुस्तकालय भले ही खाली पड़े हों किंतु साइबर कैफे युवाओं से भरे पड़े हैं और अब इन साइट्स ने मोबाइल की भी सवारी गांठ ली है, यानि अब जेब में ही दुनिया भर के दोस्त भी हैं। सोशल नेटवर्किंग साइट्स का भारतीय संदर्भ में असर शशि थरूर के बहाने ही चर्चा में आया, जबकि ट्विटर पर वे अपनी कैटल क्लास जैसी टिप्पणियों के चलते विवादों में आए और बाद में उन्हें मंत्री पद भी छोड़ना पड़ा। भारत में अभी कंप्यूटर का प्रयोग करने वाली पीढ़ी उतनी बड़ी संख्या में नहीं हैं किंतु इन साइट्स का सामाजिक प्रभाव बहुत है। ये निरंतर एक नया समाज बन रही हैं। सपने गढ़ रही हैं और एक नई सामाजिकता भी गढ़ रही हैं।
नकली प्रोफाइलों पर पलता प्यारः
नकली प्रोफाइल बनाकर पलने वाले पापों के अलावा छल और झूठे-सच्चे प्यार की तमाम कहानियां भी यहां पल रही हैं। व्यापार से लेकर प्यार सबके लिए इन सोशल साइट्स ने खुली जमीन दी है। सही मायने में यह सूचना, संवाद और रिश्ते बनाने का बेहद लोकतांत्रिक माध्यम हो चुका है जिसने संस्कृति,भाषा और भूगोल की सरहदों को तोड़ दिया है। संचार बेहद सस्ता और लोकतांत्रिक बन चुका है। जहां तमाम अबोली भाषाएं, भावनाएं जगह पा रही हैं। आप यहां तो अपनी बात कह ही सकते हैं। यह आजादी इस माध्यम ने हर एक को दी है। यह आजादी नौजवानों को ही नहीं, हर आयु-वर्ग के लोगों को रास आ रही है, वे विहार कर रहे हैं इन साइट्स पर। यह एक अलग लीलाभूमि है। जो टीवी से आगे की बात करती है। टीवी तमाम अर्थों में आज भी सामाजिकता को साधता है किंतु यह माध्यम एकांत का उत्सव है। वह आपके अकेलेपन को एक उत्सव में बदलने का सामर्थ्य रखता है। वह आपके लिए एक समाज रचता है। आपकी निजता को सामूहिकता में, आपके शांत एकांत को कोलाहल में बदलता है। सोशल साइट्स की सफलता का रहस्य इसी में छिपा है। वे महानगरीय जीवन में, सिकुड़ते परिवारों में, अकेले होते आदमी के साथ हैं। वे उनके लिए रच रही हैं एक वर्चुअल दुनिया जिसके हमसफर होकर हम व्यस्त और मस्त होते हैं। किंतु यह दुनिया कितनी खोखली, कितनी नकली, कितनी बेरहम और संवेदनहीन है, इसे समझने के लिए सिमोन बैक की धीरे-धीरे निकलती सांसों और बाद में उसकी मौत को महसूस करना होगा। सिमोन बैक के अकेलेपन, अवसाद और उससे उपजी उसकी मौत को अगर उसके 1048 दोस्त नहीं रोक सके तो क्या हमारी रची इस वर्चुअल दुनिया के हमारे दोस्त हमें रोने के लिए अपना कंधा देगें ?

( लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)

Monday, January 3, 2011

विवि के छात्र मनींद्र पाण्डेय का दुखद निधन

भोपाल,3 जनवरी.पत्रकारिता विश्वविद्यालय में विज्ञान पत्रकारिता के छात्र मनींद्र पाण्डेय का रविवार को आकस्मिक निधन हो गया। तबियत खराब होने पर उन्हें स्थानीय रेडक्रास अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहां उनका निधन हो गया। जनसंचार विभाग के सभी कर्मचारी,छात्र-छात्राओं और प्राध्यापकों की ओर से दिवंगत आत्मा को भावभीनी श्रद्दांजलि। प्रभु उनके परिजनों को यह दुख सहने की शक्ति प्रदान करे।

Saturday, January 1, 2011

नववर्ष की बहुत -बहुत शुभकामनाएं


पुर्ननवा के सभी पाठकों और शुभचिंतकों को नए साल की हार्दिक शुभकामनाएं।
-संपादक मंडल