Friday, October 25, 2013

गणेश शंकर विद्यार्थी: एक क्रांतिकारी पत्रकार


----अंकुर विजयवर्गीय


(गणेश शंकर विद्यार्थी जी के जन्मदिवस 26 अक्टूबर पर विशेष लेख)
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अपनी बेबाकी और अलग अंदाज से दूसरों के मुंह पर ताला लगाना एक बेहद मुश्किल काम होता है। कलम की ताकत हमेशा से ही तलवार से अधिक रही है और ऐसे कई पत्रकार हैं, जिन्होंने अपनी कलम से सत्ता तक की राह बदल दी। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जिन पत्रकारों ने अपनी लेखनी को हथियार बनाकर आजादी की जंग लड़ी थी, उनमें गणेश शंकर विद्यार्थी का नाम अग्रणी है। आजादी की क्रांतिकारी धारा के इस पैरोकार ने अपने धारदार लेखन से तत्कालीन ब्रिटिश सत्ता को बेनकाब किया और इस जुर्म के लिए उन्हें जेल तक जाना पड़ा। सांप्रदायिक दंगों की भेंट चढ़ने वाले वह संभवत: पहले पत्रकार थे।

विद्यार्थी जी का जन्म 26 अक्टूबर, 1890 को उनके ननिहाल प्रयाग (इलाहाबाद) में हुआ था। इनके पिता का नाम जयनारायण था। पिता एक स्कूल में अध्यापक थे और उर्दू व फारसी के जानकार थे। विद्यार्थी जी की शिक्षा-दीक्षा मुंगावली (ग्वालियर) में हुई। पिता के समान ही इन्होंने भी उर्दू-फारसी का अध्ययन किया।

आर्थिक कठिनाइयों के कारण वह एंट्रेंस तक ही पढ़ सके, लेकिन उनका स्वतंत्र अध्ययन जारी रहा। विद्यार्थी जी ने शिक्षा ग्रहण करने के बाद नौकरी शुरू की, लेकिन अंग्रेज अधिकारियों से नहीं पटने के कारण उन्होंने नौकरी छोड़ दी। पहली नौकरी छोड़ने के बाद विद्यार्थी जी ने कानपुर में करेंसी ऑफिस में नौकरी की, लेकिन यहां भी अंग्रेज अधिकारियों से उनकी नहीं पटी। इस नौकरी को छोड़ने के बाद वह अध्यापक हो गए।

महावीर प्रसाद द्विवेदी उनकी योग्यता के कायल थे। उन्होंने विद्यार्थी जी को अपने पास 'सरस्वती' में बुला लिया। उनकी रुचि राजनीति की ओर पहले से ही थी। एक ही वर्ष के बाद वह 'अभ्युदय' नामक पत्र में चले गए और फिर कुछ दिनों तक वहीं पर रहे। उन्होंने कुछ दिनों तक 'प्रभा' का भी संपादन किया। अक्टूबर 1913 में वह 'प्रताप' (साप्ताहिक) के संपादक हुए। उन्होंने अपने पत्र में किसानों की आवाज बुलंद की।

पत्रकारिता के क्षेत्र में क्रांतिकारी कार्य करने के कारण उन्हें पांच बार सश्रम कारागार और अर्थदंड अंग्रेजी शासन ने दिया। विद्यार्थी जी के जेल जाने पर 'प्रताप' का संपादन माखनलाल चतुर्वेदी व बालकृष्ण शर्मा नवीन करते थे। उनके समय में श्यामलाल गुप्त पार्षद ने राष्ट्र को एक ऐसा बलिदानी गीत दिया, जो देश के एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक छा गया। यह गीत 'झण्डा ऊंचा रहे हमारा' है। इस गीत की रचना के प्रेरक थे अमर शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी।

सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समस्याओं पर विद्यार्थी जी के विचार बड़े ही निर्भीक होते थे। विद्यार्थी जी ने देशी रियासतों द्वारा प्रजा पर किए गए अत्याचारों का तीव्र विरोध किया। पत्रकारिता के साथ-साथ गणेश शंकर विद्यार्थी की साहित्य में भी अभिरुचि थी। उनकी रचनाएं 'सरस्वती', 'कर्मयोगी', 'स्वराज्य', 'हितवार्ता' में छपती रहीं। 'शेखचिल्ली की कहानियां' उन्हीं की देन है। उनके संपादन में 'प्रताप' भारत की आजादी की लड़ाई का मुखपत्र साबित हुआ। सरदार भगत सिंह को 'प्रताप' से विद्यार्थी जी ने ही जोड़ा था। विद्यार्थी जी ने राम प्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा 'प्रताप' में छापी, क्रांतिकारियों के विचार व लेख 'प्रताप' में निरंतर छपते रहते थे।

महात्मा गांधी ने उन दिनों अंग्रेजों के खिलाफ अहिंसात्मक आंदोलन की शुरुआत की थी, जिससे विद्यार्थी जी सहमत नहीं थे, क्योंकि वह स्वभाव से उग्रवादी विचारों के समर्थक थे। विद्यार्थी जी के 'प्रताप' में लिखे अग्रलेखों के कारण अंग्रेजों ने उन्हें जेल भेजा, जुर्माना लगाया और 22 अगस्त 1918 में 'प्रताप' में प्रकाशित नानक सिंह की 'सौदा ए वतन' नामक कविता से नाराज अंग्रेजों ने विद्यार्थी जी पर राजद्रोह का आरोप लगाया व 'प्रताप' का प्रकाशन बंद करवा दिया।

आर्थिक संकट से जूझते विद्यार्थी जी ने किसी तरह व्यवस्था जुटाई तो 8 जुलाई 1918 को फिर इसकी की शुरुआत हो गई। 'प्रताप' के इस अंक में विद्यार्थी जी ने सरकार की दमनपूर्ण नीति की ऐसी जोरदार खिलाफत कर दी कि आम जनता 'प्रताप' को आर्थिक सहयोग देने के लिए मुक्त हस्त से दान करने लगी।

जनता के सहयोग से आर्थिक संकट हल हो जाने पर साप्ताहिक 'प्रताप' का प्रकाशन 23 नवंबर 1990 से दैनिक समाचार पत्र के रूप में किया जाने लगा। लगातार अंग्रेजों के विरोध में लिखने से इसकी पहचान सरकार विरोधी बन गई और तत्कालीन दंडाधिकारी स्ट्राइफ ने अपने हुक्मनामे में 'प्रताप' को 'बदनाम पत्र' की संज्ञा देकर जमानत की राशि जप्त कर ली।

कानपुर के हिंदू-मुस्लिम दंगे में निस्सहायों को बचाते हुए 25 मार्च 1931 को विद्यार्थी जी भी शहीद हो गए। उनका पार्थिव शरीर अस्पताल में पड़े शवों के बीच मिला था। गणेश शंकर जी की मृत्यु देश के लिए एक बहुत बड़ा झटका थी। गणेश शंकर विद्यार्थी एक ऐसे साहित्यकार रहे हैं, जिन्होंने देश में अपनी कलम से सुधार की क्रांति उत्पन्न की।


(लेखक जनसंचार विभाग के पूर्व छात्र हैं और हिन्दुस्तान टाइम्स समूह से जुड़ें हैं।...)

भारतीय सिनेमाः विकृतियों का सुपर बाजार

-संजय द्विवेदी

  जब हर कोई बाजार का माल बनने पर आमादा है तो हिंदी सिनेमा से नैतिक अपेक्षाएं पालना शायद ठीक नहीं है। अपने खुलेपन के खोखलेपन से जूझता हिंदी सिनेमा दरअसल विश्व बाजार के बहुत बड़े साम्राज्यवादी दबावों से जूझ रहा है। जाहिर है कि यह वक्त नैतिक आख्यानों, संस्कृति और परंपरा की दुहाई देने का नहीं है। हिंदी सिनेमा अब आदर्शों के तनाव नहीं पालना चाहिता । वह अब सिर्फ विश्व बाजार का सांस्कृतिक एजेंट है। उसके ऊपर अब सिर्फ बाजार के नियम लागू होते हैं।मांग और आपूर्ति के इस सिद्धांत पर वह खरा उतरने को बेताब है।
कला सिनेमा को निगलने के बादः
 यह अकारण नहीं है कि कला सिनेमा की एक पूरी की पूरी धारा को यह बाजार निगल गया। कला या समानांतर सिनेमा से जुड़ा जागरुक तबका भी अब इसी बाजार की ताल से ताल मिलाकर मालबनाने में लगा है। ऐसे में सिनेमा के सामाजिक उत्तरदायित्व और उसके सरोकारों पर बातचीत बहुत जरूरी हो जाती है। ऐसे में समाज को सर्वाधिक प्रभावित करने वाले इस माध्यम का विचलन और उसके संदेशों को लेकर लंबी बहसें चलती रही हैं, लेकिन अब इसका दौर भी थम गया है। शायद इस सबने यह मान लिया है कि इस माध्यम से जन अपेक्षाएं पालना ही अनैतिक है। सिनेमा बनाने वाले भी यह कहकर हर प्रश्न का अंत कर देते हैं कि हम वहीं दिखते हैं जो समाज में घट रहा है।लेकिन यह बयान सत्य के कितना करीब है, सब जानते हैं। सच कहें तो आज का सिनेमा समाज में चल रही हलचलों का वास्तविक आईना कभी प्रस्तुत नहीं करता । वह उसे या तो अंतिरंजित करता है या चीजों को अतिसरलीकृत करके पेश करता है। 47 के पहले या 60 के दशक में दर्शक अपने नैतिक मूल्यों के लिए हीरो को लड़ते और बुरी ताकतों पर विजय प्राप्त करते हुए देखते थे। प्रेम और नैतिक आदर्श के लिए लड़ने वाला हीरो समाज में स्वीकारा जाता था। नेहरू युग के बाद लोगों की टूटती आस्था, आजादी के सपनों से छल की भावना बलवती हुई तो मुख्यधारा का सिनेमा अभिताभ बच्चन के रुप में एक में एक ऐसी व्यक्तिगत सत्ताके स्थापना का गवाह बना जो अपने बल और दुस्साहस सेल लोगों की लड़ाई लड़ता है।
कहां खो गया नायकः
    आज का सिनेमा जहां पहुंचा है, वहां नायक-खलनायक और जोकर का अंतर ही समाप्त हो गया है। इसके बीच में चले कला फिल्मों के आंदोलन को उनका सचऔर उनकीवस्तुनिष्ठ प्रस्तुतिही खा गई । यहां यह तथ्य उभरकर सामने आया कि बाजार में झूठ ही बिक सकता है, सच नहीं। इस एक सत्य की स्थापना ने हिंदी सिनेमा के मूल्य ही बदल दिए। दस्तक, अंकुर, मंथन, मोहन जोशी हाजिर हो, चक्र, अर्धसत्य, पार, आधारशिला, दामुल, अंकुश, धारावी जैसी फिल्में देने वाली धारा ही कहीं लुप्त हो गई। एक सामाजिक माध्यम के रूप में सिनेमा के इस्तेमाल की जिनमें समझ थी वे भी मुख्यधारा के साथ बहने लगे। यहां यह बात भी काबिले गौर है कि कला फिल्मों ने अपने सीमित दौर में भी अपनी सीमाओं के बावजूद व्यावसायिक सिनेमा की झूठी और मक्कार दुनिया की पोल खोल दी। यह सही बात है कि आज सिनेमा का माध्यम अपनी तकनीकगत श्रेष्ठताओं, प्रयोगों के चलते एक बेहद खर्चीला माध्यम बन गया है। ऐसे में सेक्स, हिंसा उनके अतिरिक्त हथियार बन गए हैं। पुराने जमाने में भी वी. शांताराम से लेकर गुरुदत्त, ख्वाजा अहमद अब्बास ने व्यावसायिक सिनेमा में सार्थक हस्तक्षेप किया, लेकिन आज का सिने-उद्योग सिर्फ मुनाफाखोरी तक ही सीमित नहीं है, उसके इरादे खतरनाक हैं। काले धन की माया, काले लोग इस बाजार को नियंत्रित कर रहे हैं। आज के मुख्यधारा का सिनेमा समाज के लिएनहीं बाजार के लिएहै। देशभक्ति, प्रेम, सामाजिक सरोकार सब कुछ यदि बेचने के काम आए तो ठीक वरना दरकिनार कर दिये जाते हैं। नकली इच्छाएं जगाने, मायालोक में घूमते इस सिनेमा का अपने आसपास के परिवेश से कोई लेना-देना नहीं है। इसीलिए आज उसके पास कोई नायकनहीं बचा है। पहले एकांत में नाचते नायक-नायिका इसलिए अब भीड़ में नाचते हैं । शोर का संगीत और शब्दों का अकाल इस सिनेमा की दयनीयता का बखान करते हैं । सच कहें तो भारतीय जीवन का अनिवार्य हिस्सा बने होने के बावजूद सिनेमा पर जनता का कोई बौद्धिक अंकुश नहीं रह गया है । परिणाम यह हुआ है कि हिंदी सिनेमा पागल हाथी की तरह व्यवहार कर रहा है।
मनोविकारी फिल्मों का समयः
   हिंदी सिनेमा तो वैसे ही हॉलीवुड की जूठन उठाने और खाने के लिए मशहूर है। इसीलिए प्रेम के कोमल और मोहक अंदाज की फिल्मों के साथ मनोविकारी प्रेम की फिल्में भी बालीवुड में खूब बनीं । एक दौर में शाहरूख खान ऐसी मनोविकारी प्रेम की फिल्मों के महानायक बन गए । सही अर्थों में मनोविकारों से ग्रस्त प्रेमी को पहली बार बालीवुड में शाहरूख खान ने ग्लैमराइज्डकिया । फिल्मबाजीगरसे प्रेम में हिंसा व उन्माद के जिस दौर की शुरूआत हुई, ‘डरऔरअंजाममें उसे और विस्तार मिला । फिल्म बाजीगरमें शिल्पा शेट्टी के प्रेम में दीवाना शाहरूख खान छत से धकेल कर उसकी हत्या कर देता है। डरमें जूही की दीवानगी में वह इस कदर पागल है कि वह जूही के पति सन्नी देओल की जान से पीछे पड़ जाता है। अंजाममें शाहरूख, शादीशुदा माधुरी दीक्षित की चाहत में उसके पति की हत्या कर डालता है। इस शाहरूख लहरकी सवारी नाना पाटेकर भी अग्निसाक्षीमें करते नजर आते हैं। इस फिल्म में नाना पाटेकर स्लीपिंग विद द एनमीके नायक सरीखा पति साबित होते हैं। पूरी फिल्म एक ऐसे सनकी इंसान की कथा है, जो यह बर्दाश्त नहीं कर सकता कि उसकी पत्नी किसी और से बात भी करे । दीवानगी की इस हिंसक हद से आतंकित उसकी पत्नी कहती है वह मुझे इतना प्यार करता है कि मुझको छूकर गुजरने वाली हवा से भी नफरत करने लगा है। नाना इस फिल्म में मुहब्बत के तानाशाह के रूप में नजर आते हैं। इसके बावजूद ये फिल्में सफल रहीं। बदलते जीवन मूल्यों की बानगी पेश करती ये फिल्म एक नए विषय से साक्षात्कार कराती हैं। प्रेम की उदात्त भावनाओं के प्रति आस्था दिखाने वाला समाज एक हिंसक एवं क्रूर प्रेमी को सिर क्यों चढ़ाने लगा है, यह सवाल वस्तुतः एक बड़े समाज शास्त्रीय अध्ययन का विषय थोड़े अलग जरूर है, लेकिन वह भी प्रेम के विकृत रूप का ही परिचय कराती है।
प्रेम के चित्रण का इतिहासः
 आप हिंदी सिनेमा के 100 सालों का मूल्यांकन करें तो वह मूलतः प्रेम के चित्रण का इतिहास है। मानव सभ्यता के विकास के साथ-साथ दरअसल यौन सम्बन्धों की उन्मुक्ति एवं वर्जनाओं का भी रूप बदलता रहा है। सिनेमा की संपूर्ण यात्रा में प्रेम संबंधों की व्याख्या का दौर सबसे महत्वपूर्ण है। हिंदुस्तानी लोक चेतना में प्रेम के इस तत्व की जगह वैसे भी बहुत बड़ी है। दूसरे यौन संबंधों पर खुली बहस की कम गुंजाइश के कारण हम इसके अक्स एवं विकल्प परदे पर तलाशते रहे । दमित इच्छाओं एवं यौन कुंठाओं के इसी संदर्भ की समझ ने हिंदी सिनेमा व्यवसायियों को एक बेहतर मसाला दिया। गीत संगीत एवं प्रेम की इस चेतना का व्यवसाय फिल्म उद्योग की प्राथमिकता बन गई। इस सबके बावजूद हिंसा से लबरेज यह प्रेम, भारतीय दर्शकों के लिए बहुत अजनबी न था। हिंसाचार की शुरुआत और अंत अपने प्रेम को पाने या अनाचार से मुक्ति के लिए होती थी। पर प्रेम के आयातित संस्करण में अब अपनी मुहब्बत का ही गला घोंटने की तैयारियों पर जोर है। हिंसा प्रेमका यह दौर वास्तव में भारतीय सिने जगत की रेखांकित की जाने लायक परिघटना है, जो कहीं से भी प्रेम के परंपरागत चरित्र से मेंल नहीं खाती । हिंसा भारतीय सिनेमा की जानी पहचानी चीज है, पर नायक आम तौर पर खलनायक के अनाचार से मुक्ति के लिए हिंसा का सहारा लेता दिखता था। उसकी प्रमिका का ही उसके द्वारा उत्पीड़न, यह नया दौर है। जाहिर है समाज में ऐसी घटनाएं घट रही थीं और उनकी छाया रूपहले पर्दे पर भी दिखी। इस प्रकार की घटनाओं ने पर्दे पर भी हिंसक प्रेमकी थ्यौरीको जगह दी।
पलायनवादी नायकः
  शाहरूख खान की फिल्में इसी थ्यौरीका संदर्भ मानी जा सकती हैं। वह चुनौती को स्वीकारता नहीं, भागता है। मध्य वर्ग के नौजवान की चेतना एवं उसकी कुंठाओं का शाहरूख सच्चा प्रतिनिधि नजर आता है। वह प्यार करता है, किंतु स्वीकार का साहस उसमें नहीं हैं । उसे श्रम, रचनाशीलता एवं इंतजार नहीं है। सो वह पागलों सी हरकतें करता है, जिसमें प्रेमिका का उत्पीड़न भी शामिल है। इस प्रसंग पर मीडिया विशेषज्ञ सुधीश पचौरी की राय गौरतलब है। वे लिखते है- वह हमेशा लड़ता भिड़ता नजर आता है। किसी लड़की से छेड़छाड़ से लेकर मारपीट तकहिंसकऔर देहके रिश्ते बनाना ही उसका लक्ष्य है। उसके गीतों में भी सौंदर्य व कमनीयता के प्रतीक तलाशे नहीं मिलते। वह इंस्टेटिज्म’ (तुरंतवाद) का शिकार है। उसे जो भी कुछ चाहिए तुरंत चाहिए। इंस्टेट। अपने प्रेम को न पा सकने की स्थिति में उसे समाप्त कर देने की आकांक्षा उसके इसी पागलपन से उपजी है। आप इसे पूरे चित्र को पढ़ने की कोशिश करें तो यह भारतीय काव्य के धीरोदात्त नायक की विदाई का दौर है। इसमें लडके और लड़की के बीच कहीं प्यार या सामाजिक संबंध नहीं।पचौरी आगे लिखते शुद्ध रुप में फिजिकलरिश्ते पल रहे हैं। इसे हम फिल्मों के डांस सिक्वेंससे देख समझ सकते हैं नौजवान का 2 कैरेट खरा फिजिकल रूप ।यहां नायक और नायिका सिर्फ शरीरहैं। एक ऐसा शरीर, जिसमें मन, आत्मा, भावना, सुख व दुख सारे भाव तिरोहित हो चुके हैं। वह सिर्फ शरीरबनकर रह गया है। उसे खोज भी प्रेम के प्रतीक नहीं मिलते। इसीलिए गीतों में भी वह प्रेम की प्रतीक नहीं खोज पाता। एक गीत में नायक कहता है खंभे जैसी खड़ी है,/ लड़की है या छड़ी है। जाहिर है कोमल अनूभूतियों को व्यक्त करने वाले शब्दों व प्रतीकों के भी लाले हैं।
समाज में घट रही घटनाएं प्रेम के प्रति हिंसाचार इस संवेदनहीनता पर मुहर भी लगाती हैं। सिर्फ शरीरही बचा है, जिसमें से मन, आत्मा, भावना, सुखदुख, हर्ष-विषाद आदि सारे भाव तिरोहित हो चुके हैं। अपने अहंकार पर चोट आज के युवा को आहत करती है। वह घर, परिवार, समाज की बनी बनाई लीक को एक झटके में तोड़ डालने पर आमादा है। साहिर लुधियानवी की कुछ पंक्तियां इस संदर्भ को समझने में सहायक हो सकती हैं तुम अगर मुझको न चाहो तो / कोई बात नहीं,/ तुम किसी और को चाहोगी/तो मुश्किल होगी। साहिर की ये पंक्तियां इस घातक चाहत का बयान करती हैं। जहां प्रेम की प्राप्ति न होने पर उसे नष्ट कर डालने का संदेश फिल्मों में दिखता है। उपभोक्तावाद के ताजा दौर में भोगवादी संस्कृति के थपेड़ों में हमारा दार्शनिक आधार चरमरा गया है। इसी के चलते फिल्मों ने ऐसे नकारात्मक मूल्यों को सिर चढ़ाया है। पैसे की सनक और नवधनाढ्यों के उभार के बीच ये फिल्मी कथाएं वस्तुतः हमारे समाज के सच की गवाही हैं। समाचार पत्रों में आए दिन प्रेमी द्वारा प्रेमिका की हत्या, पत्नी की हत्या या पति की हत्या जैसे समाचार छपते हैं। दुर्भाग्य से सिनेमा और दूरदर्शन इस नकारात्मक प्रवृत्ति को एक आधार प्रदान करते हैं। फिल्मों की कथाएं देखकर छोटे कस्बे गांवों के नौजवान उससे गलत प्रेरणा ग्रहण करते हैं। कई बार वे पर्दे पर दिखाई घटना को जीवन में दोहराने की कोशिश करते हैं। निश्चित रूप से ताजा बाजारवादी अवधारणाओं में हमारा सिनेमा पाश्चात्य प्रभावों से तेजी से ग्रस्त हो रहा है। पश्चिमी जीवन की ज्यों की त्यों स्वीकार्यता हमारे समाज में संकट का सबब बनेगी। प्रेम के एक क्रूर चेहरे को भारतीय मन पर आरोपित करने की कोशिशें तेज हैं। दुर्भाग्य है कि यह सारा कुछ प्रेम के नाम पर हो रहा है।
सिनेमा पर गैरहाजिर विमर्शः
   किसी भी समाज में बौद्धिक और सांस्कृतिक अंकुश रखने का काम लेखक और विचारक ही करते हैं, कोई सरकार नहीं। फिल्मों पर हिंदी पत्रकारिता और टी. वी. चेनलों पर भी चल रही चर्चाएं एवं उन पर आधारित कार्यक्रम भी सतही और बचकाने होते हैं । हिंदी सिनेमा ने सही अर्थों में भारतीय समाज एवं उसके संघर्षों, उसकी चेतना को अपनी ही जमीन से बदखल कर दिया है। उसकी ताकत लगातार बढ़ी है, वह हमारा लोकाक्षर और दैन्दिन का व्यवहार तय करने लगा है। इतनी सशक्त माध्यम पर समूचे हिंदी क्षेत्र में ठोस विचार की शुरुआत के बजाए गाशिप बाजीचल रही है।

    सिनेमा पर लगभग गैरहाजिर विमर्श को चर्चा के केंद्र में लाना और उस पर बौद्धिक-सामाजिक अंकुश लगाना समय की जरूरत है। 1939 में हिंदी के यशस्वी कथाकार-उपन्यासकार प्रेमचंद ने लिखा था मगर खेद है कि इसे कोरा व्यवसाय बनाकर हमने उसे कला के उच्च आसन से खींचकर ताड़ी की दूकान तक पहुंचा दिया है यह बात प्रेमचंद के दौर की है, जब देश के लोग आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे और आज तो हिंदी सिनेमा विकृतियों का सुपर बाजारबन गया है। ऐसे ही चित्रों पर हमारी नई पीढ़ी और बचपन झूम-झूम कर जवान हो रहा है। क्या हम समाज के इतने प्रभावकारी माध्यम को, यूं ही बेलगाम छोड़ दें ?

Wednesday, October 23, 2013

मालदीव में चुनाव... भारत पर वैश्विक दबाव

मालदीव में राष्ट्रपति पद के लिए मतदान शुरू होने से ठीक पहले अचानक चुनाव प्रक्रिया रोकने से माली में लोकशाही के भविष्य पर संकट गहरा गया, लेकिन इस निर्णय से हतप्रभ विश्व समुदाय का भारत पर वहां जल्द लोकतंत्र स्थापित कराने में अहम भूमिका निभाने का दबाव बढ़ गया है। 
       
मालदीव दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (दक्षेस) का सदस्य देश है और वहां 19 अकटूबर को चुनाव होना था। मतदान से ठीक एक घंटा पहले चुनाव आयुक्त फवाद तौफीक ने यह कह कर दुनिया को हतप्रभ कर दिया कि दो प्रत्याशियों द्वारा मतदाता सूची को सत्यापित नहीं करने और पुलिस का समर्थन नहीं मिलने के कारण चुनाव स्थगित कर दिया गया है। देश के सभी 200 द्वीपों में चुनाव की तैयारियां पूरी हो चुकी थी और मतदान केंद्रों पर मतदान पेटियां पहुंच चुकी थी, लेकिन मतदान प्रक्रिया शुरू होती, इससे पहले ही चुनाव रोक दिए गए। 
       
मालदीव सरकार का यह फरमान पूरी दुनिया के लोकतंत्र प्रेमियों के लिए चौंकाने वाला था। भारत ने चुनाव रद्द किए जाने की कडी निंदा की है और वहां जल्द चुनाव कराए जाने की मांग की है। इसके लिए भारत ने एक तरह से लॉबिंग भी की है। विदेश सचिव सुजाता सिंह जिस उल्लास के साथ चुनाव प्रक्रिया को देखने के लिए माले गई थी, उससे कहीं अधिक मायूस होकर वह स्वदेश लौटी और उन्होंने विश्व के कई देशों के राजनयिकों से मुलाकात कर मालदीव की स्थिति से उन्हें अवगत कराया है। 
       
भारत की सक्रियता से दुनिया की यह उम्मीद बंधी है कि मालदीव जल्द ही लोकतंत्र की राह पर लौट आएगा। सैकड़ों द्वीपों को मिलाकर बना यह देश दक्षेस का भी सदस्य है और इस समूह में भारत ही सबसे बडा राष्ट्र है, इसलिए नई दिल्ली पर दुनिया ने एक तरह से दबाव बनाना शुरू कर दिया है, कि वह मालदीव में लोकतंत्र की स्थापना में अपनी अहम भूमिका निभाए, ताकि वहां जल्द से जल्द चुनाव सुनिश्चित किए जा सकें।  
       
दुनिया की पांच बडी शक्तियों अमेरिका, ब्रिटेन, रूस, फ्रांस तथा चीन के साथ ही जर्मनी ने भी भारत से कहा है कि वह मालदीव में चुनाव प्रक्रिया समय पर पूरी कराने के लिए काम करे। इन देशों के अलावा दक्षेस सदस्य बंगलादेश तथा श्रीलंका भी भारत पर यही उम्मीद लगाए बैठे हैं। ऑस्ट्रेलिया को भी उम्मीद है कि भारत की पहल पर माले की कुर्सी के लिए जल्द ही लोकतांत्रिक प्रक्रिया शुरू हो जाएगी। मलेशिया और सऊदी अरब जैसे देशों ने भी इस मामले में भारत की तरफ उम्मीदभरी निगाह से देखना शुरू कर दिया है। चारों तरफ से भारत पर वहां लोकतंत्र की बहाली के लिए चुनाव प्रक्रिया जल्द शुरू कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने का दबाव लगातार बढ़ रहा है। 
        
मालदीव में चुनाव प्रक्रिया रद्द किए जाने की अब तक स्पष्ट वजह सामने नहीं आई है। राष्ट्रपति पद के लिए नया चुनाव कब होगा, इस बारे में चुनाव आयोग सुप्रीम कोर्ट की राय लेगा और उसके बाद ही चुनाव कराए जाएंगे। कोर्ट में प्रोग्रेसिव पार्टी ऑफ मालदीव तथा जमूहरी पार्टी ने चुनाव प्रक्रिया को लेकर अर्जी लगाई थी, लेकिन कोर्ट ने अर्जी पर दलील सुनने से यह कहते हुए मना कर दिया कि यह राष्ट्रीय मामला है और इसमें कोर्ट के सातों न्यायाधीशों की मौजूदगी जरूरी है। एक न्यायाधीश विदेश यात्रा पर हैं और उनके आने के बाद ही याचिका पर सुनवाई हो सकती है। 
         
राष्ट्रपति मोहम्मद वहीद हसन का कहना है कि देश में 26 अक्टूबर तक चुनाव करा लिए जाएंगे। संविधान के अनुसार वहां अगले माह 11 नवंबर तक राष्ट्रपति को शपथ ग्रहण कर लेनी चाहिए, इसलिए 10 नवंबर तक चुनाव प्रक्रिया पूरी होनी जरूरी है। इससे पहले वहां सात सितंबर को दूसरी बार आम चुनाव कराए गए था, लेकिन किसी उम्मीदवार को जरूरी 50 फीसदी मत नहीं मिले, इसलिए 28 सितंबर को दूसरे चरण के मतदान कराने का फैसला किया गया। सुप्रीम कोर्ट ने उसे रद्द कर 20 अक्टूबर तक नया चुनाव कराने का आदेश दिया था, लेकिन शनिवार को चुनाव प्रक्रिया शुरू होती, उससे पहले ही चुनाव आयुक्त ने बताया कि पुलिस ने आयोग का काम रोक दिया है।  
      
मालदीव 1190 छोटे छोटे द्वीपों का देश है और वहां 200 द्वीपों पर आबादी बसी है। देश में 80 से अधिक रिसॉर्ट हैं। इस देश की अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से पर्यटन और मछली पकड़ने के व्यवसाय पर ही टिकी है। यह देश अंग्रेजों की दासता से 1965 में मुक्त हुआ और वहां की शासन व्यवस्था दूसरी सल्तनत के हाथों शुरू हुई।  
      
पहली बार 2008 में वहां लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत चुनाव हुए और डॉक्टर मोहम्मद नशीद लोकतांत्रिक व्यवस्था से देश के पहले राष्ट्रपति चुने गए, लेकिन सात फरवरी 2012 को उपराष्ट्रपति वहीद ने तख्ता पलट करके उन्हें हटा दिया और स्वंय राष्ट्रपति बन गए। इसी बीच उन्होंने डॉक्टर नशीद को बंधक बनाने की कोशिश की, लेकिन उन्हें वहां भारतीय दूतावास में शरण दी गई, ताकि मालदीव में लोकतंत्र फिर से शुरू किया जा सके। भारत की वहां बडी भूमिका है और विश्व समाज का मानना है कि माले में भारत की अहम भूमिका की वजह से लोकतंत्र स्थापित हो सकता है। 
        
मालदीव राष्ट्रमंडल देशों का भी सदस्य है और अगले माह श्रीलंका में इन देशों के प्रमुखों की बैठक होनी है। इस बैठक में मालदीव की स्थिति पर गंभीरता से विचार विमर्श हो सकता है। इस बीच डॉक्टर नशीद ने भी विश्व समुदाय से मालदीव में लोकतंत्र की बहाली के लिए हस्तक्षेप करने की गुहार लगाई है। पिछले माह हुए चुनाव में उन्हें बहुमत के लिए आवश्यक 50 प्रतिशत की तुलना में 45 फीसदी मत मिले थे, जबकि उनके निकटतम प्रतिद्वंद्वी को महज 25 प्रतिशत मत ही मिले थे। 

(लेखक अंकुर विजयवर्गीय जनसंचार विभाग के पूर्व छात्र हैं और हिन्दुस्तान टाइम्स समूह से जुड़े हैं।)