Friday, June 24, 2011

आपातकालीन दमन के अमिट व्रणचिह्न


कुन्दन पाण्डेय
24 june 2011
BHOPAL


कहते हैं वक्त हर जख्म को भर देता है, लेकिन जख्म के चिह्न को वक्त मिटा नहीं पाता, धुंधला अवश्य कर देता है। भारतीय लोकतंत्र में आपातकाल का व्रणचिह्न, एक ऐसा ही चिह्न है। आज से ठीक 36 वर्ष पूर्व देश पर 25 जून, 1975 की मध्य रात्रि को आपातकाल थोपा गया था। लोकतंत्र के विशेषज्ञों का कहना है कि लोकतंत्र 100 वर्षों में परिपक्व होता है। इस आधार पर हमारा भारतीय लोकतंत्र 1975 में परिपक्वता वर्ष से 75 वर्ष कम था। दरअसल 1971 के आम चुनाव में दो तिहाई बहुमत से चुनाव जीतने वाली इंदिरा गांधी के खिलाफ रायबरेली से समाजवादी राजनारायण चुनाव हार गये थे। परन्तु राजनारायण के इंदिरा गांधी की जीत को चुनौती देने वाली चुनाव याचिका पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा ने 12 जून, 1975 को श्रीमती गांधी का चुनाव रद्द करने का आदेश घोषित कर दिया।
दरअसल 25 जून, 1975 की शाम छह बजे से जयप्रकाश नारायण ने रामलीला मैदान पर एकत्रित तकरीबन 1 लाख के उत्साही जनसमूह को संबोधित करते हुए इंदिरा गांधी से इस्तीफा देने का आग्रह किया और कहा कि अन्यथा भारत की जनता को उन्हें शांतिपूर्वक इस्तीफा देने को बाध्य करना चाहिए। इतना सुनने के बाद, इंदिरा गांधी ने लगभग 11.30 बजे आपातकाल के दस्तावेज पर हस्ताक्षर कर दिए। आपातकाल की घोषणा पर राष्ट्रपति ने बिना मंत्रीमंडल की सिफारिश के ही हस्ताक्षर कर दिए थे। 25 जून की रात्रि को 3 बजे जेपी को गिरफ्तार करने गयी पुलिस, 5 बजे तक पार्लियामेंट स्ट्रीट थाने ले आई। फौरन मिलने पहुंचे युवा तुर्क कहे जाने वाले कांग्रेसी नेता ‘चन्द्रशेखर’ तक को पुलिस ने वहीं गिरफ्तार कर लिया। चन्द्रशेखर की गिरफ्तारी समस्त कांग्रेसी सांसदों को यह चेतावनी थी कि जो विरोध करेगा, विपक्ष की तरह जेल में होगा।
“मेंटीनेंस ऑफ इंटरनल सिक्युरिटी एक्ट” यानी मीसा जैसा काला कानून लागू करके, प्रख्यात समाजवादी नायक रघु ठाकुर के अनुसार आपातकाल में लगभग 2 लाख लोगों को हिरासत में रखा गया था। ताज्जुब की बात है कि, यह संख्या 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन के समय कारावास में रखे गये लोगों की संख्या से अधिक थी। तत्कालीन महान्यायवादी (अटार्नी जनरल) ने कहा था कि, “राज्य किसी की भी हत्या बिना दंडित हुए कर सकता है”। यह वाक्य निश्चित ही इस समय भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ रहे सिविल सोसायटी के सदस्यों व समर्थकों के अंतस-मानस में सिहरन पैदा करने के लिए काफी है।
आपातकाल के दौरान सत्ता के नशे में मदांध संजय गांधी की मंडली का उत्साहित नारा था कि ‘एक राष्ट्र, एक पार्टी और एक नेता’। तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने ‘इंडिया इज इंदिरा’ व ‘इंदिरा इज इंडिया’ कहकर के चाटुकारिता को जबर्दस्त बढ़ावा दिया। बरूआ का यह कथन इसलिए सत्य प्रतीत होता है कि इंदिरा गांधी अपना लोकसभा निर्वाचन रद्द होने तथा कांग्रेस संसदीय दल में नये नेता के चुनाव की मांग से मानसिक रूप से अपने राजनीतिक जीवन में सबसे अशांत थी। बस फिर क्या था, ‘इंदिरा इज इंडिया’ के कारण इंदिरा ने अपनी नितांत निजी अशांति को पूरे देश पर थोप दिया। इंदिरा गांधी के सामान्य विरोध तक को देशद्रोही मानकर पूरे विपक्ष सहित जेलों में मीसा के तहत ठूंसकर, संविधान के 53 अनुच्छेद बदल दिए गए। 42 वां संविधान संशोधन इसी समय विपक्ष की अनुपस्थिति में हुआ था। पीएम के लोकसभा निर्वाचन को कोर्ट में चुनौती न देने का अकल्पनीय, निराधार एवं हास्यास्पद कानून संसद द्वारा बनाया गया। और तो और पं. नेहरू द्वारा प्रस्तावित एवं संविधान सभा द्वारा पारित ‘संविधान की प्रस्तावना’ में ‘पंथनिरपेक्ष व समाजवादी’ शब्द जोड़कर, इंदिरा ने नेहरू की समझ व विद्वता पर ही प्रश्न चिह्न लगा दिए।
राष्ट्रीय अंग्रेजी दैनिक ‘मदरलैंड’ के कार्यालय पर तोड़-फोड़ करके इसके संपादक मलकानी को गिरफ्तार किया गया। अनगिनत अखबार जो ऐसी स्थिति नहीं झेल सके, बंद हो गये। दैनिक जागरण ने अपने संपादकीय का स्थान खाली रखकर, नये तरह की पत्रकारीय अभिव्यक्ति की इबारत लिखी। प्लेटो का यह कथन इंदिरा गांधी पर सटीक बैठता है कि, “लोकतंत्र में आक्रामक और साहसी लोग नेता बन जाते हैं। दब्बू और चापलूस लोग इन नेताओं के अनुयायी।” 1971 की युद्ध विजय से अपनी आक्रामकता और साहसीपन पर श्रीमती गांधी जनता से मुहर लगवा चुकी थीं। पीएम इंदिरा ने तानाशाह के जैसे कहा कि, “मैं ही वह हूं जो देश को एकताबद्ध रखे है।” इसका तो यही अर्थ है न, कि इनके पहले नेहरू युग व इनके बाद के युग में देश में एकता नहीं थी। जेपी आन्दोलन में जनसंघ से अधिक अत्याचार सहकर संघ परिवार ने अद्वितीय व स्वर्णिम यश-ख्याति अर्जित की।
भारतीय लोकतंत्र के सभी संस्थाओं को अपूर्णनीय आघात पहुंचाया गया। आपातकाल के नाम पर किए गए दमन-शोषण और ज्यादतियों की जांच के लिए शाह आयोग का गठन किया गया। इस आयोग की गवाही में नौकरशाहों और अन्य अधिकारियों ने स्पष्ट रूप से यह स्वीकार किया कि अपने-अपने पद की रक्षा ही हमारे कार्य का एकमात्र आधार था। आपातकाल में इंदिरा गांधी ने सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग करके पहली बार लोकसेवकों को नौकरशाह बना डाला। ऐसा आभास होता है कि देश पर आपातकाल थोपने वाला शासक यह कह रहा हो कि “ऐ लोकसेवकों तुम जनता के लिए शाह जरूर हो, परन्तु एकमात्र मेरे लिए तो नौकर (शाह नहीं) ही हो”। आपातकाल ने राष्ट्र-समाज-शासन में जो धर्म-अधर्म, सही-गलत, अच्छा-बुरा, संवैधानिक-असंवैधानिक एवं नैतिक-अनैतिक का भेद बचा-खुचा था, उसे भी हमेशा-हमेशा के लिए अधिकारिक रूप से समाप्त कर दिया। अब तो भारत की प्रशासनिक मशीनरी के अंतस-मानस, चाल-चेहरा-चरित्र में आपातकाल के दुर्गुण शाश्वत अंग बन गये हैं।
परन्तु यक्ष प्रश्न यह है कि क्या आज की सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक परिदृश्य वाले समाज में जे पी जैसा कोई व्यक्तित्व हो सकता है? जो मंत्री, प्रधानमंत्री तो बहुत बड़ी बात है, सांसद या विधायक तक न बना हो। लेकिन केन्द्रीय सत्ता (इंदिरा गाँधी) के खिलाफ आन्दोलन को सफल करने के लिए लाखों लोगों को जोड़ने की क्षमता रखता हो। जो व्यक्ति, समाज या राष्ट्र इतिहास से सबक नहीं सीखता, वो इतिहास में ही दफ्न हो जाता है। लेकिन भारतीय राष्ट्र, समाज, सत्ताधारी पार्टी कांग्रेस, भाजपा सहित सभी विपक्षी दलों ने शायद ही आपातकाल से कोई सबक सीखा है। अब यह भविष्य ही बतायेगा कि पूर्व उल्लिखित सभी इकाईयों का इतिहास कैसा होता है?
(लेखक युवा पत्रकार हैं।)

Friday, June 17, 2011

क्या रंग लाएगा शिष्टाचार का भ्रष्टाचार से संघर्ष


-प्रो. बृजकिशोर कुठियाला

भ्रष्टाचार के विरोध में उठी जनमानस की आवाज को जिस प्रकार से वर्तमान राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्था ने कुचला है वह अप्रत्यक्षित था। अन्ना हजारे देश के विशिष्ठ और नगरीय जनता की आवाज को लेकर उठे। उनके साथ कुछ और भी प्रतिष्ठित सामाजिक कार्यकर्ताओं ने सहयोग किया। कुटिलता से सरकार ने अन्ना हजारे की टीम को लुभाया और आन्दोलन टाय-टाय फिस हो गया। वार्ता के चक्रों में फंसाकर कुछ राजनेताओं ने तो स्थापित प्रतिष्ठा वाले अन्ना हजारे की छवि को भी धूमिल करने का प्रयास किया।
बाबा रामदेव की आवाज में निम्न मध्यवर्ग और ग्रामीण जनता की पीड़ा और विरोध शामिल था। भ्रष्टाचार की व्यापकता और उसकी विराटता से आम आदमी न केवल क्षुब्ध है बल्कि कुछ कर गुजरने की इच्छा भी रखता है। श्रीमती गांधी ने भी जयप्रकाश के नेतृत्व में युवा आन्दोलन को कुचलने का प्रयास किया था। जिसके कारण से भारत के प्रजातन्त्र के स्वर्णिम इतिहास में 19 महीने का एक काला अध्याय जुड़ा।
कुटिल परन्तु सफल प्रयास यह भी हुआ कि अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के आन्दोलन एक- दूसरे के सहयोगी नहीं बन पाये। दोनों ही व्यक्ति राजनीति के गठजोड़ के दांवपेच के खिलाड़ी नहीं है। परन्तु दूसरे पाले में ऐसे ही लोग सक्रिय और मुखर हैं जिनका राजनीतिक और सार्वजनिक जीवन झूठ, धोखे और ईर्ष्या का उदाहरण है। भ्रष्टाचार को रोकने, अपनी सम्पत्ति को देश में वापस लाने और सड़ी हुई व्यवस्था को बदलने के लिये आन्दोलन तो उठेंगे ही परन्तु इनका सूत्रपात राजनीति नहीं करेगी, क्योंकि जो व्यक्ति उस शाखा को काटता है जिस पर वह स्वयं बैठा है उसे शेखचिल्ली कहा गया है। हमारे राजनीतिक कार्यकर्ता सब कुछ हो सकते है, परन्तु वह मूर्ख नहीं है। इसलिये व्यवस्था परिवर्तन का कार्य तो नागरिक समाज को ही करना होगा।
नागरिक समाज के समक्ष भी प्रश्न रणनीति का उठना चाहिए। भ्रष्ट व्यवस्था को समाप्त करने का आन्दोलन तर्क संगत है परन्तु क्या नागरिक समाज विकल्प प्रस्तुत करने की स्थिति में है ? भ्रष्टाचार का सबसे परिचय है परन्तु इसके स्थान पर जिस शिष्टाचार को लाना चाहते है उसकी रचना और कल्पना हमारे पास नहीं है। आम आदमी को यह समझ में नहीं आता कि भ्रष्ट व्यवस्था द्वारा स्थापित लोकपाल की संस्था भ्रष्टाचार को कैसे समाप्त कर सकती है। केन्द्र में और राज्य सरकारों में विजिलेन्स आयोग और आर्थिक अपराधों से निपटने के लिये अनेक संस्थाएं है, वे कितनी कारगर हैं यह प्रश्न हर आन्दोलनकारी के मन में है। बाबा रामदेव भी व्यवस्था में परिवर्तन की बात तो करते हैं परन्तु नई व्यवस्था की आसानी से समझ में आने वाली परिकल्पना या मॉडल उनके पास नहीं है।
आज भारतीय समाज तीन हिस्सों में बांटा जा सकता है पहला भाग संख्या में छोटा परन्तु बहुत अधिक प्रभावी है जो न केवल भ्रष्ट है परन्तु बेईमानी और अपराध से ही विकास करने की प्रक्रिया पर उसे पूरा विश्वास है। दुर्भाग्य से समाज का अत्यन्त सूक्ष्म यह भाग ही देश को चलाता है।
एक बहुत बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जो भ्रष्ट तो नहीं है परन्तु शिष्टाचारी भी नहीं है। आवश्यकता पड़ने पर वे भ्रष्ट व्यवस्था के साथ भी हो लेते हैं और मन ही मन उसका विरोध भी करते हैं। लाइसेन्स जल्दी बने इसके लिये रिश्वत दे देते है, टैफिक का चालान हो तो चालान की जगह रिश्वत दे कर बचने में उन्हे कोई बुराई नहीं लगती। परीक्षा में अध्यापक को सिफारिश करना उन्हें उचित लगता है और बिजली की चोरी करना वह अपना अधिकार मानते है। कहा जाये तो यह वर्ग भ्रष्ट नहीं है परन्तु शिष्टाचारी भी नहीं है। इस समूह को हम छद्म शिष्टाचारी की संज्ञा दे सकते है।
आशा की किरण इस भयानक काली रात में यह दिखाती है कि भारतीय जनता का एक वर्ग न केवल भ्रष्टाचार के विरोध में मुखर है परन्तु अपने व्यवहार से वह शिष्टाचारी भी है। सूचना प्रौद्योगिकी की बड़ी संस्था के प्रमुख की यह छवि है कि उन्होंने अपने संस्था को आज अन्तरराष्ट्रीय स्तर का बनाया है और उन्होंने कभी भी कानून को नहीं तोड़ा है रिश्वत नहीं दी है और ‘गुड प्रेक्टिसेस’ अर्थात् आदर्श व्यवहार का पालन किया है। आज का पढ़ा-लिखा युवा वर्ग अधिकतर शिष्टाचारी है उसे अपने सामने ऐसे अवसर दिखते है जिनमें वह आदर्श सामाजिक व्यवस्था में रहते हुए भी वह आगे बढ़ सकता है। आगे बढ़ने के लिये वह पीछे के द्वार, ’लाइन जम्पिंग’ और विशिष्ट देखभाल के शाटर्कट्स वह नहीं लेता। यह वर्ग देश और समाज के भविष्य के लिये चिंतित दिखता है और भ्रष्टाचार को निपटाने के लिये न केवल प्रयास परन्तु त्याग करने के लिये भी तत्पर है। अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के हाल ही में हुए आयोजनों से यह बात स्पष्ट होती है कि जब देश का शिष्टाचारी वर्ग आन्दोलित होगा तो छद्म शिष्टाचारियों का बड़ा हिस्सा उनके साथ आयेगा क्योंकि इन छद्म शिष्टाचारियों के मन में भी भ्रष्टाचार और अनाचार के प्रति विपरीत भाव है वे समाज की आदर्श व्यवस्थाओं और नैतिक मूल्यों में विश्वास रखते हैं परन्तु उनका पालन करने का साहस नहीं कर पाते। मौका मिलने पर और विश्वसनीय नेतृत्व द्वारा प्रोत्साहित करने पर वे शिष्टाचार के संरक्षक बनकर ऊभर सकते है।
देश में अनेक अन्ना हजारे और बाबा रामदेव हैं। अनेक सामाजिक और सांस्कृतिक संगठन ऐसे है जो केवल मात्र शिष्टाचार का ही संस्कार देते हैं। ऐसे संगठनों का प्रभाव भारतीय जीवन के हर पहलू पर पड़ रहा है। एक बड़ा कारण यह भी है कि भारत के नागरिक को सत्य, अहिंसा और नैतिकता का पाठ हजारों वर्षों से विरासत में मिला है। इसलिये भारत में ईमानदारी को श्रेष्ठ नीति नहीं माना गया है (ओनेस्टी इज द बेस्ट पॉलिसी) परन्तु एक अनपढ़ ग्रामीण भारतीय को भी बचपन से ही बताया जाता है कि धर्म का पालन अनिवार्य है और धर्म के पालन के लिए सत्य का आचरण अनिवार्य है। जैसा कि 1974-75 में हुआ था एक बार फिर देश में छोटे-छोटे आन्दोलन उठेंगे और मिलकर एक विराट आन्दोलन बनेगा जो अभारतीय और अव्यवहारिक व्यवस्था को परिवर्तित करेगा। आवश्यकता वर्तमान भ्रष्ट व्यवस्था के रखवालों से बेहतर रणनीति बनाने की है। इसके लिये अनेक हजारे और अनेक रामदेव मिलकर प्रयास करेंगे। शिष्टाचारी समाज के हर सज्जन व्यक्ति को अन्ना और बाबा बनना पड़ेगा।
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के कुलपति हैं)

Wednesday, June 1, 2011

नक्सलवाद से कौन लड़ना चाहता है ?

दुनिया के सबसे निर्दोष लोगों को खत्म करने का पाप कर रहे हैं हम
-संजय द्विवेदी

उनका वहशीपन अपने चरम पर है, सोमवार की रात (23 मई,2011) को वे फिर वही करते हैं जो करते आए हैं। एक एडीशनल एसपी समेत 11 पुलिसकर्मियों को छत्तीसगढ़ के गरियाबंद में वे मौत के घाट उतार देते हैं। गोली मारने के बाद शवों को क्षत-विक्षत कर देते हैं। बहुत वीभत्स नजारा है। माओवाद की ऐसी सौगातें आए दिन छ्त्तीसगढ़, झारखंड और बिहार में आम हैं। मैं दो दिनों से इंतजार में हूं कि छत्तीसगढ़ के धरतीपुत्र और अब भगवा कपड़े पहनने वाले स्वामी अग्निवेश, लेखिका अरूंघती राय, गांधीवादी संदीप पाण्डेय, पूर्व आईएएस हर्षमंदर या ब्रम्हदेव शर्मा कुछ कहेंगें। पुलिस दमन की सामान्य सूचनाओं पर तुरंत बस्तर की दौड़ लगाने वाले इन गगनविहारी और फाइवस्टार समाजसेवियों में किसी को भी ऐसी घटनाएं प्रभावित नहीं करतीं। मौत भी अब इन इलाकों में खबर नहीं है। वह बस आ जाती है। मरता है एक आम आदिवासी अथवा एक पुलिस या सीआरपीएफ का जवान। नक्सलियों के शहरी नेटवर्क का काम देखने के आरोपी योजना आयोग में नामित किए जा रहे हैं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर नक्सलवाद से क्या हमारी राजनीति और राज्य लड़ना चाहता है। या वह तमाम किंतु-परंतु के बीच सिर्फ अपने लोगों की मौत से ही मुग्ध है।
दोहरा खेल खेलती सरकारें-
केंद्र सरकार के मुखिया हमारे प्रधानमंत्री और गृहमंत्री नक्सलवाद को इस देश के लिए सबसे बड़ा खतरा बता चुके हैं। उनके ही अधीन चलने वाला योजना आयोग अपनी एक समिति में नक्सल समर्थक होने के आरोपों से घिरे व्यक्ति को नामित कर देता है। जबकि उनपर राष्ट्रद्गोह के मामले में अभी फैसला आना बाकी है। यानि अदालतें और कानून सब बेमतलब हैं और राजनीति की सनक सबसे बड़ी है। केंद्र और राज्य सरकारें अगर इस खतरे के प्रति ईमानदार हैं तो इसके समाधान के लिए उनकी कोशिशें क्या हैं? लगातार नक्सली अपने कार्यक्षेत्र का विस्तार कर रहे हैं और यह तब हो रहा है जब उनके उन्मूलन पर सरकार हर साल अपना बजट बढ़ाती जा रही है। यानि हमारी कोशिशें ईमानदार नहीं है। 2005 से 2010 के बीच 3,299 नागरिक और 1,379 सुरक्षाकर्मी मारे जा चुके हैं। साथ ही 1,226 नक्सली भी इन घटनाओं में मारे गए हैं- वे भी भारतीय नागरिक ही हैं। बावजूद इसके नक्सलवाद को लेकर भ्रम कायम हैं। सरकारों में बैठे नौकरशाह, राजनेता, कुछ बुद्धिजीवी लगातार भ्रम का निर्माण कर रहे हैं। टीवी चैनलों और वातानुकूलित सभागारों में बैठकर ये एक विदेशी और आक्रांता विचार को भारत की जनता की मुक्ति का माध्यम और लोकतंत्र का विकल्प बता रहे हैं।
आदिवासियों की मौतों का पाप-
किंतु हमारी सरकार क्या कर रही है? क्यों उसने एक पूरे इलाके को स्थाई युद्ध क्षेत्र में बदल दिया है। इसके खतरे बहुत बड़े हैं। एक तो यह कि हम दुनिया के सबसे सुंदर और सबसे निर्दोष इंसानों (आदिवासी) को लगातार खो रहे हैं। उनकी मौत सही मायने में प्रकृति के सबसे करीब रहने वाले लोगों की मौत है। निर्मल ह्रदय आदिवासियों का सैन्यीकरण किया जा रहा है। माओवादी उनके शांत जीवन में खलल डालकर उनके हाथ में बंदूकें पकड़ा रहे हैं। प्रकृतिपूजक समाज बंदूकों के खेल और लैंडमाइंस बिछाने में लगाया जा रहा है। आदिवासियों की परंपरा, उनका परिवेश, उनका परिधान, उनका धर्म और उनका खानपान सारा कुछ बदलकर उन्हें मिलिटेंट बनाने में लगे लोग आखिर विविधताओं का सम्मान करना कब सीखेंगें? आदिवासियों की लगातार मौतों के लिए जिम्मेदार माओवादी भी जिम्मेदार नहीं हैं? सरकार की कोई स्पष्ट नीति न होने के कारण एक पूरी प्रजाति को नष्ट करने और उन्हें उनकी जमीनों से उखाड़ने का यह सुनियोजित षडयंत्र साफ दिख रहा है। आदिवासी समाज प्रकृति के साथ रहने वाला और न्यूनतम आवश्यक्ताओं के साथ जीने वाला समाज है। उसे माओवादियों या हमारी सरकारों से कुछ नहीं चाहिए। किंतु ये दोनों तंत्र उनके जीवन में जहर घोल रहे हैं। आदिवासियों की आवश्यक्ताएं उनके अपने जंगल से पूरी हो जाती हैं। राज्य और बेईमान व्यापारियों के आगमन से उनके संकट प्रारंभ होते हैं और अब माओवादियों की मौजूदगी ने तो पूरे बस्तर को नरक में बदल दिया है। शोषण का यह दोहरा चक्र अब उनके सामने है। जहां एक तरफ राज्य की बंदूकें हैं तो दूसरी ओर हिंसक नक्सलियों की हैवानी करतूतें। ऐसे में आम आदिवासी का जीवन बद से बदतर हुआ है।
शोषकों के सहायक हैं माओवादीः
नक्सलियों ने जनता को मुक्ति और न्याय दिलाने के नाम पर इन क्षेत्रों में प्रवेश किया किंतु आज हालात यह हैं कि ये नक्सली ही शोषकों के सबसे बड़े मददगार हैं। इन इलाकों के वनोपज ठेकेदारों, सार्वजनिक कार्यों को करने वाले ठेकेदारों, राजनेताओं और उद्योगों से लेवी में करोड़ों रूपए वसूलकर ये एक समानांतर सत्ता स्थापित कर चुके हैं। भ्रष्ट राज्य तंत्र को ऐसा नक्सलवाद बहुत भाता है। क्योंकि इससे दोनों के लक्ष्य सध रहे हैं। दोनों भ्रष्टाचार की गंगा में गोते लगा रहे हैं और हमारे निरीह आदिवासी और पुलिसकर्मी मारे जा रहे हैं। राज्य पुलिस के आला अफसररान अपने वातानुकूलित केबिनों में बंद हैं और उन्होंने सामान्य पुलिसकर्मियों और सीआरपीएफ जवानों को मरने के लिए मैदान में छोड़ रखा है। आखिर जब राज्य की कोई नीति ही नहीं है तो हम क्यों अपने जवानों को यूं मरने के लिए मैदानों में भेज रहे हैं। आज समय आ गया है कि केंद्र और राज्य सरकारों के यह तय करना होगा कि वे नक्सलवाद का समूल नाश चाहते हैं या उसे सामाजिक-आर्थिक समस्या बताकर इन इलाकों में खर्च होने वाले विकास और सुरक्षा के बड़े बजट को लूट-लूटकर खाना चाहते हैं। क्योंकि अगर आप कोई लड़ाई लड़ रहे हैं तो उसका तरीका यह नहीं है। लड़ाई शुरू होती है और खत्म भी होती है किंतु हम यहां एक अंतहीन युद्ध लड़ रहे हैं। जो कब खत्म होगा नजर नहीं आता।
माओवादी 2050 में भारत की राजसत्ता पर कब्जे का स्वप्न देख रहे हैं। विदेशी विचार और विदेशी मदद से इनकी पकड़ हमारे तंत्र पर बढ़ती जा रही है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चीजों का तमाशा बनाने की शक्ति इन्होंने अर्जित कर ली है। दुनिया भर के संगठनों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का सहयोग इन्हें हासिल है। किंतु यह बात बहुत साफ है उनकी जंग हमारे लोकतंत्र के खिलाफ है। वे हमारे जनतंत्र को खत्म कर माओ का राज लाने का स्वप्न देख रहे हैं। वे अपने सपनों को पूरा कभी नहीं कर पाएंगें यह तय है किंतु भारत जैसे तेजी से बढ़ते देश की प्रगति और शांति को नष्ट कर हमारे विकास को प्रभावित करने की क्षमता उनमें जरूर है। हमें इस अंतर्राष्ट्रीय षडयंत्र को समझना होगा। यह साधारण नहीं है कि माओवादियों के तार मुस्लिम जेहादियों से जुड़े पाए गए तो कुछ विदेशी एवं स्वयंसेवी संगठन भी यहां वातावरण बिगाड़ने के प्रयासो में लगे हैं।
समय दर्ज करेगा हमारा अपराध-
किंतु सबसे बड़ा संकट हमारा खुद का है। क्या हम और हमारा राज्य नक्सलवाद से जूझने और मुक्ति पाने की इच्छा रखता है? क्या उसमें चीजों के समाधान खोजने का आत्मविश्वास शेष है? क्या उसे निरंतर कम होते आदिवासियों की मौतों और अपने जवानों की मौत का दुख है? क्या उसे पता है कि नक्सली करोड़ों की लेवी वसूलकर किस तरह हमारे विकास को प्रभावित कर रहे हैं? लगता है हमारे राज्य से आत्मविश्वास लापता है। अगर ऐसा नहीं है तो नक्सलवाद या आतंकवाद के खिलाफ हमारे शुतुरमुर्गी रवैयै का कारण क्या है ? हमारे हाथ किसने बांध रखे हैं? किसने हमसे यह कहा कि हमें अपने लोगों की रक्षा करने का अधिकार नहीं है। हर मामले में अगर हमारे राज्य का आदर्श अमरीका है, तो अपने लोगों को सुरक्षा देने के सवाल पर हमारा आदर्श अमरीका क्यों नहीं बनता? सवाल तमाम हैं उनके उत्तर हमें तलाशने हैं। किंतु सबसे बड़ा सवाल यही है कि नक्सलवाद से कौन लड़ना चाहता है और क्या हमारे भ्रष्ट तंत्र में इस संगठित माओवाद से लड़ने की शक्ति है ?