Thursday, February 25, 2010

Happy Holi


Pichkari की धार,
gular की bauchar,
apno का प्यार,
यही है होली tyohar


- Sanjay Dwivedi

होली की बहुत- बहुत शुभकामनाएं


होली का त्यौहार आपके सबके लिए शुभ और मंगलकारी हो। हम सब साथ रहें और देश को महाशक्ति बनाने के प्रयासों में जुटें। होली के रंग हमारे मन को निर्मल और पवित्र बनाएं।
- संजय द्विवेदी,
विभागाध्यक्ष

नई प्रौद्योगिकी से आया हिंदी लेखन में लोकतंत्र


-संजय द्विवेदी
साहित्य और मीडिया की दुनिया में जिस तरह की बेचैनी इन दिनों देखी जा रही है। वैसी पहले कभी नहीं देखी गयी। यह ऐसा समय है जिसमें उसके परंपरागत मूल्य और जनअपेक्षाएं निभाने की जिम्मेदारी दोनों कसौटी पर हैं। बाजार के दबाव और सामाजिक उत्तरदायित्व के बीच उलझी शब्दों की दुनिया अब नए रास्तों की तलाश में है । तकनीक की क्रांति, मीडिया की बढ़ती ताकत, संचार के साधनों की गति ने इस समूची दुनिया को जहां एक स्वप्नलोक में तब्दील कर दिया है वहीं पाठकों एवं दर्शकों से उसकी रिश्तेदारी को व्याख्यायित करने की आवाजें भी उठने लगी है।
साहित्य की बात करते ही उसकी हमारी चेतना में कई नाम गूंजते हैं जो हिंदी के नायकों में थे, यह खड़ी बोली हिंदी के खड़े होने और संभलने के दिन थे। वे जो नायक थे वे भारतेंदु हरिश्चंद्र हों, प्रेमचंद हों, महावीर प्रसाद द्विवेदी हों ,माखनलाल चतुर्वेदी या माधवराव सप्रे, ये सिर्फ साहित्य के नायक नहीं थे, हिंदी समाज के भी नायक थे। इस दौर की हिंदी सिर्फ पत्रकारिता या साहित्य की हिंदी न होकर आंदोलन की भी हिंदी थी। शायद इसीलिए इस दौर के रचनाकार एक तरफ अपने साहित्य के माध्यम से एक श्रेष्ठ सृजन भी कर रहे थे तो अपनी पत्रकारिता के माध्यम से जनचेतना को जगाने का काम भी कर रहे थे। इसी तरह इस दौर के साहित्यकार समाजसुधार और देशसेवा या भारत मुक्ति के आंदोलन से भी जुड़े हुए थे। तीन मोर्चों पर एक साथ जूझती यह पीढ़ी अगर अपने समय की सब तरह की चुनौतियों से जूझकर भी अपनी एक जगह बना पाई तो इसका कारण मात्र यही था कि हिंदी तब तक सरकारी भाषा नहीं हो सकी थी। वह जन-मन और आंदोलन की भाषा थी इसलिए उसमें रचा गया साहित्य किसी तरह की खास मनःस्थिति में लिखा गया साहित्य नहीं था। वह समय हिंदी के विकास का था और उसमें रचा गया साहित्य लोगों को प्रेरित करने का काम कर रहा था। उस समय के बेहद साधारण अखबार जो जनचेतना जगाने के माध्यम थे और देश की आजादी की लड़ाई में उन्हें एक हथियार की तरह इस्तेमाल किया गया। जबकि आज के अखबार ज्यादा पृष्ठ, ज्यादा सामग्री देकर भी अपने पाठक से जीवंत रिश्ता जोड़ने में स्वयं को क्यों असफल पा रहे हैं, यह पत्रकारिता के सामने भी एक बड़ा सवाल है । क्या बात है कि जहां पहले पाठक को अपने ‘खास’ अखबार की आदत लग जाती थी । वह उसकी भाषा, प्रस्तुति और संदेश से एक भावनात्मक जुड़ाव महसूस करता था, अब वह आसानी से अपना अखबार बदल लेता है । क्या हिंदी क्षेत्र के अखबार अपनी पहचान खो रहे हैं, क्या उनकी अपनी विशिष्टता का लोप हो रहा है-जाहिर है पाठक को सारे अखबार एक से दिखने लगे हैं। ‘जनसत्ता’ जैसे प्रयोग भी अपनी आभा खो चुके हैं। मुख्यधारा के मीडिया से साहित्य को लगभग बहिष्कृत सा कर दिया गया है। बाजार ने आंदोलन की जगह ले ली है। मास मीडिया के इस भटकाव का प्रभाव साहित्य पर भी देखा जा रहा है। साहित्य में भी लोकप्रिय लेखन की चर्चा शुरू हो गयी है।
हिंदी साहित्य पर सबसे बड़ा आरोप यह है कि उसने आजादी के बाद अपनी धार खो दी। समाज के विभिन्न क्षेत्रों में आए अवमूल्यन का असर उस पर भी पड़ा जबकि उसे समाज में चल रहे सार्थक बदलाव के आंदोलनों का साथ देना था। मूल्यों के स्तर पर जो गिरावट आई वह ऐतिहासिक है तो विचार एवं पाठकों के साथ उसके सरोकार में भी कमी आई है।हिंदी का साहित्यिक जगत का क्षेत्र संवेदनाएं खोता गया,जो उसकी मूल पूंजी थे। आजादी के पूर्व हमारी हिन्दी पट्टी का साहित्य सामाजिक एवं राजनीतिक आंदोलन से जुड़कर ऊर्जा प्राप्त करता था।
निर्बल का बल है संचार प्रौद्योगिकीः
बात अगर नई तकनीक और प्रौद्योगिकी की करें तो उसने हिंदी की ताकत और उर्जा का विस्तार ही किया है। हिंदी साहित्य को वैश्विक परिदृश्य पर स्थापित करने और एक वैश्विक हिंदी समाज को खड़ा करने का काम नयी प्रौद्योगिकी कर रही है। इंटरनेट के अविष्कार ने इसे एक ऐसी शक्ति दी जिसे सिर्फ अनुभव किया जा सकता है। वेबसाइट्स के निर्माण से ई-बुक्स का प्रचलन भी बढ़ा है और नयी पीढ़ी एक बार फिर पठनीयता की ओर लौटी है। हमारे पुस्तकालय खाली पड़े होंगे किंतु साइबर कैफै युवाओं से भरे-पड़े हैं। एक क्लिक से उन्हें दुनिया जहान की तमाम जानकारियां और साहित्य का खजाना मिल जाता है। यह सही है उनमें चैटिंग और पोर्न साइट्स देखनेवालों की भी एक बड़ी संख्या है किंतु यह मैं भरोसे के साथ कह सकता हूं कि नई पीढ़ी आज भी ज्यादातर पाठ्य सामग्री की तलाश में इन साइट्स पर विचरण करती है। साहित्य जगत की असल चुनौती इस पीढ़ी को केंद्र में रखकर कुछ रचने और काम करने की है। तकनीक कभी भी किसी विधा की दुश्मन नहीं होती, वह उसके प्रयोगकर्ता पर निर्भर है कि वह उसका कैसा इस्तेमाल करता है। नई तकनीक ने साहित्य का कवरेज एरिया तो बढ़ा ही दिया ही साथ ही साहित्य के अलावा ज्ञान-विज्ञान के तमाम अनुशासनों के प्रति हमारी पहुंच का विस्तार भी किया है। दुनिया के तमाम भाषाओं में रचे जा रहे साहित्य और साहित्यकारों से अब हमारा रिश्ता और संपर्क भी आसान बना दिया है। भारत जैसे महादेश में आज भी श्रेष्ठ साहित्य सिर्फ महानगरों तक ही रह जाता है। छोटे शहरों तक तो साहित्य की लोकप्रिय पत्रिकाओं की भी पहुंच नहीं है। ऐसे में एक क्लिक पर हमें साहित्य और सूचना की एक वैश्विवक दुनिया की उपलब्धता क्या आश्चर्य नहीं है। हमारे सामने हिंदी को एक वैश्विक भाषा के रूप में स्थापित करने की चुनौती शेष है। यदि एक दौर में बाबू देवकीनंदन खत्री की चंद्रकांता संतति को पढ़ने के लिए लोग हिंदी सीख सकते हैं तो क्या मुश्किल है कि हिंदी में रचे जा रहे श्रेष्ठ साहित्य से अन्य भाषा भाषियों में हिंदी के प्रति अनुराग न पैदा हो। वैश्विक स्तर भी आज हिंदी को सीखने-पढ़ने की बात कही जा रही है वह भले ही बाजार पर कब्जे के लिए हो किंतु इससे हिंदी का विस्तार तो हो रहा है। अमेरिका जैसे देशों में हिंदी के प्रति रूझान यही बताता है.।
दूसरी महत्वपूर्ण बात तकनीक को लेकर हो हिचक को लेकर है। यह तकनीक सही मायने निर्बल का बल है। इस तकनीक के इस्तेमाल ने एक अनजाने से लेखक को भी ताकत दी है जो अपना ब्लाग मुफ्त में ही बनाकर अपनी रचनाशीलता से दूर बैठे अपने दोस्तों को भी उससे जोड़ सकता है। भारत जैसे देश में जहां साहित्यिक पत्रिकाओं का संचालन बहुत कठिन और श्रमसाध्य काम है वहीं वेब पर पत्रिका का प्रकाशन सिर्फ आपकी तकनीकी दक्षता और कुछ आर्थिक संसाधनों के इंतजाम से जीवित रह सकता है। यहां महत्वपूर्ण यह है कि इस पत्रिका का टिका रहना, विपणन रणनीति पर नहीं, उसकी सामग्री की गुणवत्ता पर निर्भर करता है। वेबसाइट्स पर चलने वाली पत्रिकाएं अपनी गुणवत्ता से जीवित रहती हैं जबकि प्रिंट पर छपने वाली पत्रिकाएं अपनी विपणन रणनीति और अर्थ प्रबंधन की कुशलता से ही दीर्धजीवी हो पाती हैं। सो साहित्य के अनुरागी जनों के लिए ब्लाग जहां एक मुफ्त की जगह उपलब्ध कराता है वहीं इस माध्यम पर नियमित पत्रिका या विचार के फोरम मुफ्त चलाए जा सकते हैं। इसमें गति भी है और गुणवत्ता भी। इस तरह बाजार की संस्कृति का विस्तारक होने की आरोपी होने के बावजूद आप इस माध्यम पर बाजार के खिलाफ, उसकी अपसंस्कृति के खिलाफ मोर्चा खोल सकते हैं। इस मायने में यह बेहद लोकतांत्रिक माध्यम भी है। इसने पत्राचार की संस्कृति को ई-मेल के जरिए लगभग खत्म तो कर दिया है पर गति बढ़ा दी है, इसे सस्ता भी कर दिया है।
ई-संस्कृति विकसित करने की जरूरतः
सही मायने में हिंदी समाज को ई-संस्कृति विकसित करने की जरूरत है जिससे वह इस माध्यम का ज्यादा से ज्यादा बेहतर इस्तेमाल कर सके। यह प्रौद्योगिकी शायद इसीलिए निर्बल का बल भी कही जा सकती है। यह प्रौद्योगिकी उन शब्दों को मंच दे रही है जिन्हें बड़े नामों के मोह में फंसे संपादक ठुकरा रहे हैं। यह आपकी रचनाशीलता को एक आकार और वैश्विक विस्तार भी दे रही है। सही मायने में यह प्रौद्योगिकी साहित्य के लिए चुनौती नहीं बल्कि सहयोगी की भूमिका में है। इसका सही और रचनात्मक इस्तेमाल साहित्य के वैश्विक विस्तार और संबंधों की सघनता के लिए किया जा सकता है। रचनाकार को उसके अनुभव समृद्ध बनाते हैं। हिंदी का यह बन रहा विश्व समाज किसी भी भाषा के लिए सहयोगी साबित हो सकता है। हिंदी की अपनी ताकत पूरी दुनिया में महसूसी जा रही है। हिंदी फिल्मों का वैश्विक बाजार इसका उदाहरण है। एक भाषा के तौर हिंदी का विस्तार संतोषजनक ही कहा जाएगा किंतु चिंता में डालने वाली बात यही है कि वह तेजी से बाजार की भाषा बन रही है। वह वोट मांगने, मनोरंजन और विज्ञापन की भाषा तो बनी है किंतु साहित्य और ज्ञान-विज्ञान के तमाम अनुशासनों में वह पिछड़ रही है। इसे संभालने की जरूरत है। साहित्य के साथ आम हिंदी भाषी समाज का बहुत रिश्ता बचा नहीं है। ऐसे में तकनीक, बाजार या जिंदगी की जद्दोजहद में सिकुड़ आए समय को दोष देना ठीक नहीं होगा। नयी तकनीक ने हिंदी और उस जैसी तमाम भाषाओं को ताकतवर ही बनाया है क्योंकि तकनीक भाषा, भेद और राज्य की सीमाओं से परे है। हमें नए मीडिया के द्वारा खोले गए अवसरों के उपयोग करने वाली पीढ़ी तैयार करना होगा। हिंदी का श्रेष्ठ साहित्य न्यू मीडिया में अपनी जगह बना सके इसके सचेतन प्रयास करने होंगें। हिंदी हर नए माध्यम के साथ चलने वाली भाषा है। आज हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं की यह ताकत ही है कि देश के सर्वाधिक बिकने वाले दस अखबारों में अंग्रेजी का कोई अखबार नहीं है। ज्यादातर टीवी चैनल हिंदी या मिली जुली हिंदी जिसे हिंग्लिश कहा जा रहा है में अपनी बात कहने को कहने को मजबूर हैं। यह हिंदी की ही ताकत है कि वह श्रीमती सोनिया गांधी से लेकर कैटरीना कैफ सबसे हिंदी बुलवा लेती है। हिंदी की यह ताकत उसके उस आम आदमी की ताकत है जो आज भी 20 रूपए रोज पर अपनी जिंदगी जी रहा है। उस समाज को कोई तकनीक तोड़ नहीं सकती,कोई प्रौद्योगिकी तोड़ नहीं सकती। मेहनतकश लोगों की इस भाषा की इसी ताकत को महात्मा गांधी, स्वामी दयानंद ने पहचान लिया था पर कुछ लोग जानकर भी इसे नजरंदाज करते हैं। हिंदी में आज एक बड़ा बाजार उपलब्ध है वह साबुन, शैंपो का है तो साहित्य का भी है। साहित्य की चुनौती यह भी है कि वह अपने को इस बाजार में खड़ा होने लायक बनाए। हिंदी का प्रकाशन जगत लगातार समृद्ध हो रहा है। इस फलते-फूलते प्रकाशन उद्योग का लेखक क्यों गरीब है यह भी एक बड़ा सवाल है। असल चुनौती यहीं है कि हिंदी समाज में किस तरह एक व्यवासायिक नजरिया पैदा किया जाए। क्या कारण है कि चेतन भगत तीन उपन्यास लिखकर अंग्रेजी बाजार में तो स्वीकृति पाते ही हैं ही हिंदी का बाजार भी उन्हें सिर माथे बिठा लेता है। उनकी किताबों के अनुवाद किसी लोकप्रिय हिंदी लेखक से ज्यादा बिक गए। हिंदी समाज को नए दौर के विषयों पर भी काम करना होगा। ऐसी कथावस्तु जिससे हिंदी जगत अनजाना है वह भी हिंदी में आए तो उसका स्वागत होगा। चेतन भगत की सफलता को इसी नजर से देखा जाना चाहिए।
इन सारी चुनौतियों के बीच भी हिंदी साहित्य को एक नया पाठक वर्ग नसीब हुआ है, जो पढ़ने के लिए आतुर है और प्रतिक्रिया भी कर रहा है। नई प्रौद्योगिकी ने इस तरह के विर्मशों के लिए मंच भी दिया है और स्पेस भी। इसका स्वागत किया जाना चाहिए। इसी प्रौद्योगिकी ने हिंदी में एक तरह का लोकतंत्र भी विकसित किया है। यह हिंदी और उस जैसी तमाम भाषाओं को भी समर्थ करेगा जो अन्यान्य कारणों से उपेक्षा की शिकार रही हैं या होती आयी हैं।
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(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)
मोबाइलः 098935-98888 ईमेल - 123dwivedi@gmail.com
वेबसाइटः www.sanjaydwivedi.com
ब्लागः http://www.sanjayubach.blogspot.com/

संबोधन देते हुए ध्रुव शुक्लः


प्रख्यात लेखक श्री ध्रुव शुक्ल।

दादा का पुण्यस्मरणः


माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में दादा माखनलाल जी की पुण्यतिथि पर व्याख्यान देते हुए प्रख्यात हिंदीसेवी श्री कैलाशचंद्र पंत।

Monday, February 22, 2010

नए बाजार में खुद को तलाशता एक जनमाध्यम


- संजय द्विवेदी

अगर किसी देश का परिचय पाना है तो उसका टेलीविजन देखना चाहिए। वह उस राष्ट्र का व्यक्तित्व होता है। - पीसी जोशी पैनल

आज 2009 में खड़े होकर हम इस टिप्पणी से कितना सहमत हो सकते हैं। जाहिर तौर पर यह टिप्पणी एक बड़ी बहस की मांग करती है। अब जबकि देश में प्राइवेट चैनलों की संख्या 450 के आसपास जा पहुंची है तो दूरदर्शन भी अपना परिवार बढ़ाकर 30 चैनलों के नेटवर्क में बदल चुका है। 15 सितंबर,1959 को हमारे यहां टीवी की शुरूआत हुयी। आकाशवाणी की तरह दूरदर्शन के लिए हमारी सरकारों में कोई स्वागतभाव नहीं था। भारत सरकार और वित्त मंत्रालय की यह धारणा बनी हुयी थी कि टीवी तो विलास की चीज है। शायद इसीलिए इसे रेडियो की तरह पश्चिम के साथ ही, प्रारंभ नहीं किया जा सका।

दूरदर्शन को लेकर सरकारी हिचक के कारण इसे एक माध्यम के रूप में स्थापित होने में काफी समय लगा। यह तो इस माध्यम की शक्ति ही थी कि उसने बहुत कम समय की यात्रा में खुद को न सिर्फ स्थापित किया वरन तमाम जनमाध्यमों को कड़ी चुनौती भी दी। हम देखें तो 1966 में दूरदर्शन को लेकर पहला गंभीर प्रयत्न चंदा कमेटी के माध्यम से नजर आया। जिसने उसे रेडियो के बंधन से मुक्त करने और एक स्वतंत्र माध्यम के रूप में काम करने की सलाह दी। कमेटी ने कहा- उसे (टीवी को) उस रेडियो के उपांग के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए, जो (रेडियो)खुद आमूल परिवर्तन की दरकार रखता हो।

इसके लगभग एक दशक बाद 1977 में बनी बीजी वर्गीज कमेटी ने भी अपनी 1978 में दी गयी रिपोर्ट में भी स्वायत्तता की ही बात कही। कुल मिलाकर दूरदर्शन को लेकर सरकारी रवैये के चलते उसके स्वाभाविक विकास में भी बाधा ही पड़ी। संचार माध्यमों की विकासमूलक भूमिका को दुनिया भर में स्वीकृति मिल चुकी थी। शिक्षण और सूचना का दौर भी इसी माध्यम के साथ आगे बढ़ना था। कुल मिलाकर इस भूमिका को स्वीकृति मिल रही थी और भारत की सूचना नीति (1985) इसे काफी कुछ साफ करती नजर आती है, जिसमें दूरदर्शन व्यापक फैलाव के सपने न सिर्फ देखे गए वरन उस दिशा में काफी काम भी हुआ। हालांकि 1982 में एशियाड के आयोजन के चलते दूरदर्शन को रंगीन किया गया। तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री बसंत साठे की इसमें बड़ी भूमिका रही। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि हमसे पहले ही पाकिस्तान, श्रीलंका और बांगलादेश में रंगीन टीवी आ चुका था। दूरदर्शन के पूर्व महानिदेशक शिव शर्मा के मुताबिक एशियाड के बेहतर प्रसारण के लिए पांच ओबी वैन, और 20 कैमरे खरीदे गए, नौ लोगों की टीम दी गयी। जिस दिन एशियाड का प्रसारण प्रारंभ हुआ उस दिन वह टीम 900 लोगों की हो चुकी थी। इस प्रसारण की दुनिया भर में तारीफ हुयी।

दूरदर्शन का यह सफर जारी रहा। सही मायनों में 1982 से 1991 तक का समय भारतीय दूरदर्शन का स्वर्णकाल कहा जा सकता है जिसने न सिर्फ उसके नायक गढ़े वरन एक दूरदर्शन संस्कृति का विकास भी किया। यह उसकी लोकप्रियता का चरम था जहां आम जनता के बीच उसके समाचार वाचकों, धारावाहिकों के अभिनेताओं की छवि एक नायक सरीखी हो चुकी थी। दूरदर्शन के लोकप्रिय कार्यक्रमों में चित्रहार का प्रमुख स्थान था। यह आधे धटे का फिल्मी गीतों का कार्यक्रम जनता के बीच बहुत लोकप्रिय था। दूरदर्शन पर आने वाले शैक्षणिक कार्यक्रमों के अलावा कृषि दर्शन नाम का कार्यक्रम भी काफी देखा जाता था। इसे ऐतिहासिक विस्तार ही कहेंगें कि जहां 1962 में देश में मात्र 41 टीवी सेट थे वहीं 1985 आते-आते इनकी संख्या 67 लाख, 85 हजार से ज्यादा हो चुकी थी। रंगीन प्रसारण और सोप आपेरा ने इसे और विस्तार दिया। हमलोग, बुनियाद धारावाहिक के माध्यम से मनोहर श्याम जोशी ने एक क्रांति की। ये जो है जिंदगी, फिर वही तलाश जैसे धारावाहिक काफी पसंद किए गए। इसके बाद दूरदर्शन पर धार्मिक धारावाहिकों का दौर शुरू हुआ। रामानंद सागर की रामायण और उसके चमत्कारी प्रभाव ने सारे रिकार्ड तोड़ डाले। रामायण के प्रसारण के समय गांवों-शहरों में जिंदगी ठहर जाती थी। इस धारावाहिक का ही असर था कि इसके पात्र सीता और रावण दोनों लोकसभा तक पहुंच गए। आंकड़ों पर भरोसा करें तो करीब 10 करोड़ लोगों ने इसका हर एपीसोड देखा। इसके अलावा इसी कड़ी में महाभारत को भी अपार लोकप्रियता मिली। भारत एक खोज जहां एक नया स्वाद लेकर आया वहीं मुंगेरीलाल के हसीन सपने, कक्का जी कहिन, करमचंद, मुल्ला नसीरूद्दीन, वागले की दुनिया, तमस जैसे धारावाहिक अपनी जगह बनाने में सफल रहे। एकमात्र चैनल होने के नाते प्रतिस्पर्धा का अभाव तो था ही किंतु जो कार्यक्रम सराहे गए उनकी गुणवत्ता से भी इनकार नहीं किया जा सकता।

सही मायनों में दूरदर्शन ने देश में इलेक्ट्रानिक मीडिया के लिए एक पूरी पीढी का विकास किया। आज की बहुत विकसित हो चुकी टीवी न्यूज मीडिया के स्व. कमलेश्वर, स्व. सुरेंद्र प्रताप सिंह, प्रणव राय, विनोद दुआ, नलिनी सिंह, अनुराधा प्रसाद, सईद नकवी या राहुल देव, ये सभी दूरदर्शन के माध्यम से ही प्रकाश में आए। सुरेंद्र प्रताप सिंह की प्रस्तुति आजतक, दूरदर्शन के मैट्रो चैनल के माध्यम से ही प्रकाश में आयी। यही आधे घंटे का कार्यक्रम बाद में टीवी टुडे कंपनी के पूर्ण चैनल आजतक के रूप में दिख रहा। प्रणव राय भी एनडीटीवी इंडिया के मालिक हैं। इसी तरह अनुराधा प्रसाद भी अब न्यूज 24 चैनल चला रही हैं। राहुल देव, सीएनईबी न्यूज चैनल के संपादक हैं। दूरदर्शन के मंच से सामने आए ये पत्रकार आज खुद उसके एक बड़े प्रतिद्वंदी के रूप में हैं, किसी माध्यम की सफलता का इससे बड़ा उदाहरण क्या हो सकता है। ऐसे में यह कहा जा सकता है कि टीवी मीडिया की एक पूरी पीढ़ी के विकास एवं वातावरण निर्माण का श्रेय दूरदर्शन को ही जाता है। चुनावी नतीजों के कई दिनों के प्रसारण की याद करें तो दूरदर्शन का महत्व और नेटवर्क की कार्यक्षमता याद आएगी। तब होने वाली बहसें, कई दिनों तक चलने वाली मतगणना में भी दूरदर्शन ने अपनी ताकत का अहसास कराया था। 1989 की मतगणना की याद करें दूरदर्शन ने 100 जगहों पर संवाददाताओं को रखकर चुनाव का सीधा प्रसारण कराया था। प्रणव राय और विनोद दुआ की जोड़ी का आनस्क्रीन कमाल इसमें दिखा था। क्रिकेट के खेलों के सीधे प्रसारण से लेकर, संसदीय कार्यवाहियों के सीधे प्रसारण का श्रेय दूरदर्शन के हिस्से दर्ज है। दूरदर्शन ने एक मास कल्चर भी रचा था। गोविंद निहलानी, माणिक सरकार, गिरीश करनाड, तपन सिन्हा, महेश भट्ट जैसे लोग दूरदर्शन से यूं ही नहीं जुड़े थे। उन दिनों मंडी हाउस देश की कला,संस्कृति और प्रदर्शन कलाओं को मंच देने का एक बड़ा केंद्र बन गया था।

सही मायने में अर्थपूर्ण कार्यक्रमों और भारतीय संस्कृति को बचाए रखते हुए देश की भावनाओं को स्वर देने का काम दूरदर्शन ने किया है। आज जबकि 24 घंटे के तमाम निजी समाचार चैनल अपनी भाषा, प्रस्तुति और भौंडेपन को लेकर आलोचना के शिकार हो रहे हैं, तब भी दूरदर्शन का डीडी न्यूज चैनल अपनी प्रस्तुति के चलते राहत का सबब बन गया है। क्योंकि लोग कहने लगे हैं कि बाकी चैनलों में खबरें होती ही कहां हैं। दूरदर्शन आज भी अपने न्यूज नेटवर्क और तंत्र के लिहाज से बेहद सक्षम तंत्र है। उसकी पहुंच का आज भी किसी चैनल के पास तोड़ नहीं है। फिर क्या कारण है कि आज के चमकीले बाजार तंत्र में उसकी आवाज अनसुनी की जा रही है। उसके भौतिक विकास, पहुंच, सक्षम तकनीकी तंत्र के बावजूद उसके सामने चुनौतियां कठिन हैं। उसे आज के बाजारवादी तंत्र में अपनी उपयोगिता के साथ-साथ, कटेंट को सरोकारी बनाने की भी चुनौती है। नया बाजार, नए सूत्रों और नए मानदंडों के साथ विकसित हो रहा है। इसके लिए दूरदर्शन को एक नया रास्ता पकड़ना होगा। आने वाले समय में दूरदर्शन को भी हाई डिफिनिशन टीवी और मोबाइल टीवी शुरू करना होगा। इससे उसे बहुत लाभ होगा। दूरदर्शन की डायरेक्ट टू होम सेवा ने उसकी पहुंच को विस्तारित किया है। इसे और विस्तारित किए जाने की जरूरत है। इसमें पेड चैनलों को शामिल कर उसकी उपयोगिता को बढ़ाया जा सकता है। आने वाले दिनों में दिल्ली में होने वाले राष्ट्रमंडल खेलों में दूरदर्शन ही होस्ट ब्राडकास्टर है, इसमें उसे अपनी तकनालाजी को उन्नत करते हुए विश्वस्तरीय प्रसारण मुहैया कराने का मौका मिलेगा। एशियाड के माध्यम से उसने जो ख्याति पाई थी, राष्ट्रमंडल खेल उसमें एक अवसर ही है जब उसे अपनी सिद्धता और उपयोगिता साबित करनी है। लाख बाजारी दावों के बावजूद दूरदर्शन आज भी अपनी पहुंच, क्षमता, तकनीक में बहुत बेहतर है। पचास साल पूरे होने पर इसका संकल्प यही होना चाहिए कि वह अपने देश के विशाल जनमानस के लिए रुचिकर कार्यक्रमों का प्रसारण करे। बीबीसी को एक रोलमाडल की तरह इस्तेमाल करते हुए उस दिशा में कुछ कदम चलने का सार्थक प्रयास करे। बाजार के इस दौर में जब हर तंत्र पर बाजारी शक्तियों का कब्जा है और यह बढ़ता ही चला जाने वाला है ऐसे में आम आदमी और उसकी सरकार की बात कहने-सुनने का यह अकेला माध्यम बचा है। जिसपर आज भी बाजार की ताकतें अभी पूरी तरह काबिज नहीं हो पायी हैं। सरकार और लोकतंत्र के पहरेदारों को समझना होगा कि आज जिस तरह पूरा मीडिया बाजार और पैसे के तंत्र का गुलाम है, ऐसे में दूरदर्शन और आकाशवाणी जैसे तंत्र को बचाना भी जरूरी है। क्योंकि सरकारें कम से कम इन माध्यमों पर अपनी बात कह सकती हैं। अन्यथा अन्य प्रचार माध्यमों तो बिकी हुयी खबरों के ही वाहक बन रहे हैं। जो कई बार सामाजिक, सामुदायिक हितों से परे भी आचरण करते नजर आते हैं। ऐसे में सरकारी तंत्र होने के नाते जो इसकी सीमा है वही इसकी शक्ति भी है। इस कमजोरी को ताकत बनाते हुए दूरदर्शन समाचार-विचार और संस्कृति केंद्रित कार्यक्रमों का अकेला प्रस्तोता हो सकता है। जड़ों की तरफ लौटने, जड़ों से जोड़ने, उसपर संवाद करने और सही मायने में जनमाध्यम बनने की ताकत आज भी दूरदर्शन में ही है। बड़ा सवाल यह है कि क्या दूरदर्शन अपनी इस ताकत को पहचान कर आज के समय के प्रश्नों से जूझने को तैयार है। अगर नहीं तो उसे अपनी धीमी और खामोश मौत के लिए तैयार हो जाना चाहिए।
( लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं।)
- संपर्कः अध्यक्ष , जनसंचार विभाग माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, प्रेस काम्पलेक्स, एमपी नगर, भोपाल (मप्र)
मोबाइलः 098935-98888 e-mail- 123dwivedi@gmail.com
Web-site- www.sanjaydwivedi.com

Sunday, February 21, 2010

मीडिया विमर्श के प्रभाष जोशी अंक का विमोचन

बिलासपुर। बिलासपुर में आयोजित समारोह में प्रख्यात लेखक एवं मुख्यअतिथि विनोदकुमार शुक्ल ने मीडिया विमर्श के प्रभाष जोशी स्मृति अंक का विमोचन किया। इस अंक में प्रभाष जी के व्यक्तित्व पर महत्वपूर्ण लेखकों ने लिखा है।

चल रही ज्ञान पर एकाधिकार की साजिशः सुलभ


बिलासपुर। कथाकार एवं संस्कृतिकर्मी ह्रषिकेश सुलभ का कहना है कि भूमंडलीकरण के युग में ज्ञान के क्षेत्र में एकाधिकार की साजिश चल रही है। जो भी सुंदर है, शुभ है और मंगल है उसका हरण हो रहा है। मीडिया का स्वरूप भस्मासुर की तरह है लेकिन वहां भी मंगल और शुभ है, जिसके लिए तमाम पत्रकार संघर्ष कर रहे हैं। वर्तमान में लोग साहित्यिक पत्रकारिता के प्रति उदासीन हैं, इसलिए सच सामने नहीं आ पा रहा है। श्री सुलभ बिलासपुर (छत्तीसगढ़) के लायंस भवन में आयोजित पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति अखिलभारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान समारोह में मुख्यवक्ता की आसंदी से बोल रहे थे। इस आयोजन में कथादेश ( दिल्ली) के संपादक हरिनारायण को मुख्यअतिथि प्रख्यात कवि,कथाकार एवं उपन्यासकार विनोदकुमार शुक्ल ने यह सम्मान प्रदान किया। सम्मान के तहत शाल, श्रीफल, प्रतीक चिन्ह, प्रमाणपत्र और ग्यारह हजार रूपए नकद प्रदान कर साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में किसी यशस्वी संपादक को सम्मानित किया जाता है। इसके पूर्व यह सम्मान वीणा (इंदौर) के संपादक रहे स्व. श्यामसुंदर व्यास और दस्तावेज ( गोरखपुर) के संपादक डा. विश्वनाथप्रसाद तिवारी को दिया जा चुका है।
श्री सुलभ ने पत्रकारिता के सामने मौजूद संकटों की विस्तार से चर्चा की और कहा कि वर्तमान में उद्योगों के साथ अखबारों की संख्या भी बढ़ती जा रही है ऐसे में साहित्य व पत्रकारिता से जुड़े लोगों को साहस दिखाने की जरूरत है ताकि मीडिया पर गलत तत्वों का कब्जा न हो जाए। उन्होंने कहा कि कथादेश के संपादक हरिनारायण लोकमंगल के लिए काम रहे हैं, उनका सम्मान गौरव की बात है।
कार्यक्रम के मुख्यअतिथि विनोदकुमार शुक्ल ने कहा कि इस सम्मान ने प्रारंभ से ही अपनी प्रतिष्ठा बना ली है। एक अच्छा पाठक होने के नाते हरिनारायण को यह सम्मान देते हुए मैं प्रसन्नता का अनुभव कर रहा हूं। कवि-कथाकार जया जादवानी ने कहा कि शब्दों का जादू मनुष्य को जगाता है, दुख है कि पत्रकारिता इस जादू को खो रही है। पत्रकारिता समाज के मन से मनुष्य के मन तक का सफर कर सकती है। साहित्य मनुष्य के मन को सूकून देता है। वरिष्ठ पत्रकार और छत्तीसगढ़ हिंदी ग्रंथ अकादमी के निदेशक रमेश नैयर ने कहा कि मीडिया और पत्रकारिता दो अलग ध्रुव बन गए हैं। समाचारों में मिलावट आज की एक बड़ी चिंता है। इसी तरह खबरों की भ्रूण हत्या भी हो रही है।
बख्शी सृजनपीठ, भिलाई के अध्यक्ष बबनप्रसाद मिश्र का कहना था कि जो समाज पूर्वजों के योगदान को भूल जाता है वह आगे नहीं बढ़ सकता। निरक्षर भारत की अपेक्षा आज के साक्षर होते भारत में समस्याएं बढ़ रही हैं। ऐसे समय में साहित्यकारों को भी अपनी भूमिका पर विचार करना चाहिए। साहित्य अकादमी, दिल्ली के सदस्य और व्यंग्यकार गिरीश पंकज ने कहा कि इस विपरीत समय में साहित्यिक पत्रिका निकालना बहुत कठिन कर्म है। कथादेश एक अलग तरह की पत्रिका है, इसमें साहित्यिक पत्रकारिता के तेवर हैं और देश के महत्वपूर्ण लेखकों के साथ नए लेखकों को भी इसने पहचान दी है। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल के पत्रकारिता विभाग के अध्यक्ष पुष्पेंद्रपाल सिंह ने कहा कि वर्तमान की चुनौतियों का सामना हम तभी कर सकते हैं जब सहित्य, पत्रकारिता और समाज तीनों मिलकर काम करें। उन्होंने कहा कि यह सम्मान साहित्य और पत्रकारिता के रिश्तों का सेतु बनता हुआ दिख रहा है। मीडिया विमर्श के संपादक डा. श्रीकांत सिंह ने साहित्य के संकट की चर्चा करते हुए कहा कि संकट के दौर का साहित्य ही सच्चा और असरदार साहित्य होता है। पत्रकारिता के अवमूल्यन पर उन्होंने कहा कि पाठक सूचनाओं से वंचित हो रहे हैं। भूमंडलीकरण के नशे में मीडिया पैसे के पीछे भाग रहा है, इससे देश या प्रदेश का विकास नहीं होगा। साहित्यिक त्रैमासिक पत्रिका दूर्वादल ( बस्ती, उप्र) के संपादक डा. परमात्मानाथ द्विवेदी ने समाज में बाजार की भूमिका की चर्चा करते हुए कहा कि इससे सारे रिश्ते खत्म हो रहे हैं। इस स्थिति से हमें सिर्फ साहित्य ही जूझने की शक्ति दे सकता है।
इस मौके पर सम्मानित हुए संपादक हरिनारायण ने अपने संबोधन में कहा कि इसे छद्म विनम्रता ही माना जाएगा यदि मैं कहूं कि इस सम्मान को प्राप्त कर मुझे खुशी नहीं हो रही है। बल्कि इसे मैं एक उपलब्धि की तरह देखता हूं। मेरी जानकारी में साहित्यिक पत्रकारिता के लिए यह तो अकेला सम्मान है। उन्होंने कहा कि मैंने शुऱू से रचना को महत्व दिया। कथादेश में संपादकीय न लिखने के प्रश्न का जवाब देते हुए हरिनारायण ने कहा कि इसे लेकर शुरू से ही मेरे मन में द्वंद रहा है। क्योंकि वर्तमान परिवेश में अधिकतर संपादकीयों में अपने गुणा-भाग, आत्मविज्ञापन, झूठे दावे, सतही वैचारिक मुद्रा,उनके अंतविर्रोध या रचना की जगह अपने हितकारी लेखकों का अतिरिक्त प्रोजेक्शन ही नजर आता है। जिससे साहित्य का वातावरण दूषित हुआ है। कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे छत्तीसगढ़ी राजभाषा आयोग के अध्यक्ष श्यामलाल चतुर्वेदी ने कहा कि अखबारों ने जमीनी समस्याओं को निरंतर उठाया है किंतु आज उनपर सवाल उठ रहे हैं तो उन्हें अपनी छवि के प्रति सचेत हो जाना चाहिए। क्योंकि शब्दों की सत्ता से भरोसा उठ गया तो कुछ भी नहीं बचेगा।
कार्यक्रम के प्रारंभ में स्वागत भाषण बेनीप्रसाद गुप्ता ने किया। संचालन छत्तीसगढ़ महाविद्यालय, रायपुर हिंदी की प्राध्यापक डा. सुभद्रा राठौर ने तथा आभार प्रदर्शन बिलासपुर प्रेस क्लब के अध्यक्ष शशिकांत कोन्हेर ने किया। इस अवसर पर छत्तीसगढ़ के अनेक महत्वपूर्ण रचनाकार, साहित्यकार, पत्रकार एवं बुद्धिजीवी उपस्थित थे। जिनमें प्रमुख रूप से रविवार डाट काम के संपादक आलोकप्रकाश पुतुल, पत्रकार नथमल शर्मा, कथाकार सतीश जायसवाल, रामकुमार तिवारी, संजय द्विवेदी, भूमिका द्विवेदी, कपूर वासनिक,डा. विनयकुमार पाठक, डा. पालेश्वर शर्मा, सोमनाथ यादव, अचिंत्य माहेश्वरी, प्रवीण शुक्ला, हर्ष पाण्डेय, यशवंत गोहिल, हरीश केडिया, बजरंग केडिया, पूर्व विधायक चंद्रप्रकाश वाजपेयी, बलराम सिंह ठाकुर, पं. रामनारायण शुक्ल, व्योमकेश त्रिवेदी आदि मौजूद रहे। इस अवसर मुख्यअतिथि विनोदकुमार शुक्ल ने मीडिया विमर्श के प्रभाष जोशी स्मृति अंक का विमोचन किया। इसके अलावा उप्र के बस्ती जिले से प्रकाशित साहित्यिक त्रैमासिक पत्रिका दूर्वादल के नवीन अंक का विमोचन भी हुआ।

कहां खो गयी हैं खबरें


-संजय द्विवेदी
खबरिया चैनलों की होड़ और गलाकाट स्पर्धा ने खबरों के मायने बदल दिए हैं। खबरें अब सिर्फ सूचनाएं नहीं देती, वे एक्सक्लूसिव में बदल रही हैं। हर खबर अब ब्रेकिंग न्यूज में बदल जाना सिर्फ खबर की कलरिंग भर का मामला नहीं है। दरअसल, यह उसके चरित्र और प्रस्तुति का भी बदलाव है । खबरें अब निर्दोष नहीं रहीं। वे अब सायास हैं, कुछ सतरंगी भी।
खबरों का खबर होना सूचना का उत्कर्ष है, लेकिन जब होड़ इस कदर हो तो खबरें सहम जाती हैं, सकुचा जाती हैं और खड़ी हो जाती हैं किनारे । खबर का प्रस्तोता स्क्रीन पर आता है और वह बताता है कि यह खबर आप किस नज़र से देखेंगे। पहले खबरें दर्शक को मौका देती थीं कि वह समाचार के बारे में अपना नज़रिया बनाए। अब नज़रिया बनाने के लिए खबर खुद बाध्य करती है। आपको किस ख़बर को किस नज़रिए से देखना है, यह बताने के लिए छोटे पर्दें पर तमाम सुंदर चेहरे हैं जो आपको अपनी खबर के साथ बहा ले जाते हैं। ख़बर क्राइम की है तो कुछ खतरनाक शक्ल के लोग, खबर सिनेमा की है तो कुछ सुदर्शन चेहरे, ख़बर गंभीर है तो कुछ गंभीरता का लबादा ओढ़े चेहरे ! कुल मिलाकर मामला अब सिर्फ ख़बर तक नहीं है। ख़बर तो कहीं दूर बहुत दूर, खडी है...ठिठकी हुई सी। उसका प्रस्तोता बताता है कि आप ख़बर को इस नज़र देखिए। वह यह भी बताता है कि इस ख़बर का असर क्या है और इस खबर को देख कर आप किस तरह और क्यों धन्य हो रहे हैं ! वह यह भी जोड़ता है कि यह ख़बर आप पहली बार किसी चैनल पर देख रहे हैं। दर्शक को कमतर और ख़बर को बेहतर बताने की यह होड़ अब एक ऐसी स्पर्धा में तब्दील हो गई है जहाँ ख़बर अपने असली व्यक्तित्व को खो देती है और वह बदल जाती है नारे में, चीख में, हल्लाबोल में या एक ऐसे मायावी संसार में जहाँ से कोई मतलब निकाल पाना ज्ञानियों के ही बस की बात है।
हर ख़बर कैसे ब्रेकिंग या एक्सक्लूसिव हो सकती है, यह सोचना ही रोचक है। टीवी ने खबर के शिल्प को ही नहीं बदला है। वह बहुत कुछ फिल्मों के करीब जा रही है, जिसमें नायक हैं, नायिकाएं हैं और खलनायक भी। साथ मे है कोई जादुई निदेशक । ख़बर का यह शिल्प दरअसल खबरिया चैनलों की विवशता भी है। चौबीस घंटे के हाहाकार को किसी मौलिक और गंभीर प्रस्तुति में बदलने के अपने खतरे हैं, जो कुछ चैनल उठा भी रहे हैं। पर अपराध, सेक्स, मनोरंजन से जुड़ी खबरें मीडिया की आजमायी हुई सफलता का फंडा है। हमारी नैसिर्गिकी विकृतियों का प्रतिनिधित्व करने वाली खबरें खबरिया चैनलों पर अगर ज्यादा जगह पाती हैं तो यह पूरा का पूरा मामला कहीं न कहीं टीआरपी से ही जाकर जुड़ता है। इतने प्रभावकारी माध्यम और उसके नीति नियामकों की यह मजबूरी और आत्मविश्वासहीनता समझी जा सकती है। बाजार में टिके रहने के अपने मूल्य हैं। ये समझौतों के रूप में मीडिया के समर्पण का शिलालेख बनाते हैं। शायद इसीलिए जनता का एजेंडा उस तरह चैनलों पर नहीं दिखता, जिस परिमाण में इसे दिखना चाहिए । समस्याओं से जूझता समाज, जनांदोलनों से जुड़ी गतिविधियाँ, आम आदमी के जीवन संघर्ष, उसकी विद्रूपताएं हमारे मीडिया पर उस तरह प्रस्तुत नहीं की जाती कि उनसे बदलाव की किसी सोच को बल मिले। पर्दें पर दिखती हैं रंगीनियाँ, अपराध का अतिरंजित रूप, राजनीति का विमर्श और सिनेमा का हाहाकारी प्रभाव । क्या खबरें इतनी ही हैं ?
बॉडी और प्लेजर की पत्रकारिता हमारे सिर चढ़कर नाच रही है। शायद इसीलिए मीडिया से जीवन का विमर्श, उसकी चिंताएं और बेहतर समाज बनाने की तड़प की जगह सिकुड़ती जा रही है। कुछ अच्छी खबरें जब चैनलों पर साया होती हैं तो उन्हें देखते रहना एक अलग तरह का आनंद देता है। एनडीटीवी ने ‘मेघा रे मेघा’ नाम से बारिश को लेकर अनेक क्षेत्रों से अपने नामवर रिपोर्टरों से जो खबरें करवाईं थीं वे अद्भूत थीं। उनमें भाषा, स्थान, माटी की महक, फोटोग्राफर, रिपोर्टर और संपादक का अपना सौंदर्यबोध भी झलकता है। प्रकृति के इन दृश्यों को इस तरह से कैद करना और उन्हें बारिश के साथ जोड़ना तथा इन खबरों का टीवी पर चलना एक ऐसा अनुभव है जो हमें हमारी धरती के सरोकारों से जोड़ता है। इस खबर के साथ न ब्रेकिंग का दावा था न एक्सक्लूसिव का लेकिन ख़बर देखी गई और महसूस भी की गई। कोकीन लेती युवापीढ़ी, राखी और मीका का चुंबन प्रसंग, करीना या सैफ अली खान की प्रेम कहानियों से आगे जिंदगी के ऐसे बहुत से क्षेत्र हैं जो इंतजार कर रहे हैं कि उनसे पास भी कोई रिपोर्टर आएगा और जहान को उनकी भी कहानी सुनाएगा । सलमाल और कैटरीना की शादी को लेकर काफी चिंतित रहा मीडिया शायद उन इलाकों और लोगों पर भी नज़र डालेगा जो सालों-साल से मतपेटियों मे वोट डालते आ रहे हैं, इस इंतजार में कि इन पतपेटियों से कोई देवदूत निकलेगा जो उनके सारे कष्ट हर लेगा ! लेकिन उनके भ्रम अब टूट चुके हैं। पथराई आँखों से वे किसी ख़बरनवीस की आँखें तकती है कि कोई आए और उनके दर्द को लिखे या आवाज़ दे। कहानियों में कहानियों की तलाश करते बहुत से पत्रकार और रिपोर्टर उन तक पहुँचने की कोशिश भी करते रहे हैं। यह धारा लुप्त तो नहीं हुई है लेकिन मंद जरूर पड़ रही है। बाजार की मार, माँग और प्रहार इतने गहरे हैं कि हमारे सामने दिखती हुई ख़बरों ने हमसे मुँह मोड़ लिया है। हम तलाश में हैं ऐसी स्टोरी की जो हमें रातों-रात नायक बना दे, मीडिया में हमारी टीआरपी सबसे ऊपर हो, हर जगह हमारे अखबार/चैनल की ही चर्चा हो। इस बदले हुए बुनियादी उसूल ने खबरों को देखने का हमारा नज़रिया बदल-सा दिया है। हम खबरें क्रिएट करने की होड़ में हैं क्योंकि क्रिएट की गई ख़बर एक्सक्लूसिव तो होंगी ही । एक्सक्लूसिव की यह तलाश कहाँ जाकर रूकेगी, कहा नहीं जा सकता। बावजूद इसके हम पत्रकारिता के बुनियादी उसूलों पर कायम रहते हुए एक संतुलन बना पाएं तो यह बात हमारी विश्वसनीयता और प्रामाणिकता को बनाए रखने में सहायक होगी।
( लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं।)
- संपर्कः अध्यक्ष , जनसंचार विभाग माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, प्रेस काम्पलेक्स, एमपी नगर, भोपाल (मप्र)
मोबाइलः 098935-98888 e-mail- 123dwivedi@gmail.com
Web-site- www.sanjaydwivedi.com

शब्द की सत्ता का क्षरण रोकेः पंत

भोपाल, 30 जनवरी। शब्द की सत्ता से उठता भरोसा सबसे बड़ा खतरा है। इसे बचाने की जरूरत है। ये विचार माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में पं. माखनलाल चतुर्वेदी की पुण्यतिथि के अवसर पर आयोजित स्मृति व्याख्यान में अध्यक्षीय भाषण देते हुए राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के मंत्री-संचालक कैलाशचंद्र पंत ने व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि माखनलाल जी एक साथ प्रखर वक्ता, कवि, पत्रकार और सेनानी रूपों में नजर आते हैं। उनका हर रूप आज भी प्रेरित करता है। वे सही मायनों में भारतीयता का जीवंत प्रतीक हैं और मानवीय दृष्टि से पूरी मानवता को संदेश देते हैं।
कार्यक्रम के मुख्यवक्ता कवि-कथाकार ध्रुव शुक्ल ने कहा कि हमारा समय अभिव्यक्ति की मुश्किलों का समय है। आज के समय में किस बात से कौन मर्माहत हो जाए कहा नहीं जा सकता। देश में अजीब से हालात हैं। उन्होंने कहा कि वे बौद्धिक नहीं अंर्तमन की भाषा लिखते थे। वे सही मायनों में एक भारतीय आत्मा थे। उनकी हिंदी चेतना और भारतीय मन आज के समय की चुनौतियों का सामना करने में समर्थ है।
मुख्यअतिथि वरिष्ठ पत्रकार राजेंद्र शर्मा ने अपने संबोधन में कहा कि माखनलाल जी मूल्यों की परंपरा स्थापित की और उसपर चलकर दिखाया। हिंदी के लिए उनका संघर्ष हमें प्रेरित करता है। वे समय के पार देखने वाले चिंतक और विचारक थे। भारतीय पत्रकारिता के सामने जो चुनौतियों हैं उसका भान उन्हें बहुत पहले हो गया था। विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो। बृजकिशोर कुठियाला ने कहा कि आज का दिन संत रविदास, महात्मा गांधी और माखनलाल जी से जुड़ा है तीनों बहुत बड़े संचारक के रूप में सामने आते हैं। अपनी संचार प्रक्रिया से इन तीनों महापुरूषों ने समाज में चेतना पैदा की। मानवता की सेवा के लिए तीनों ने अपनी जिंदगी लगाई। उन्होंने कहा कि मीडिया को जनधर्मी बने बिना सार्थकता नहीं मिल सकती। पश्चिम का मीडिया आतंकी हमलों के बाद अपने को सुधारता दिखा है हमें भी उसे उदाहरण की तरह लेते हुए बदलाव लाने की जरूरत है।
कार्यक्रम का संचालन जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी और आभार प्रर्दशन कुलसचिव प्रकाश साकल्ले ने किया। इस अवसर पर सर्वश्री विजयदत्त श्रीधर, रेक्टर जेआर झणाणे, डा.श्रीकांत सिंह, चैतन्य पुरूषोत्तम अग्रवाल, पुष्पेंद्रपाल सिंह, डा. पवित्र श्रीवास्तव, पत्रकार मधुकर द्विवेदी, रामभुवन सिंह कुशवाह, सरमन नगेले, युगेश शर्मा, सुरेश शर्मा, अनिल सौमित्र सहित अनेक साहित्यकार, पत्रकार एवं विद्यार्थी मौजूद थे।

“इश्किया” का गीत किसका गुलजार या सर्वेश्वर का


- संजय द्विवेदी
इश्किया फिल्म में गुलजार के लिखे ‘ इब्नबतूता ’ गीत को लेकर छिड़ा विवाद दुखी करता है। कहा जा रहा है कि इसे मूलतः हिंदी के यशस्वी कवि एवं पत्रकार स्व. सर्वेश्वरदयाल सक्सेना ने लिखा है। ऐसे मामलों में नाम जब गुलजार जैसे व्यक्ति का सामने आए तो दुख और बढ़ जाता है। वे देश के सम्मानित गीतकार और संवेदनशील रचनाकार हैं। ऐसे व्यक्ति जिन्हें साहित्य और उसकी संवेदना की समझ भी है। हाल में ही चेतन भगत और आमिर खान के बीच थ्री इटियट्स को लेकर छिड़ी बहस को जाने दें तो भी मायानगरी ऐसे आरोपों की जद में निरंतर आती रही है। सहित्य के महानायकों की रचनाएं लेना और उसे क्रेडिट भी न देना कहीं से उचित नहीं कहा जा सकता। यह सिर्फ गलती नहीं है एक ऐसा अपराध है जिसके लिए कोई क्षमा भी नहीं मांगता। दिल्ली-6 में छत्तीसगढ़ के गांव-गांव में गूंजनेवाला छत्तीसगढ़ी गीत “ सास गारी देवे, देवर जी समझा लेवे “ का उपयोग किया गया। सब जानते हैं इसे रायपुर की जोशी बहनों ने गाया था। किंतु क्रेडिट के नाम पर फोक लिख दिया। फोक क्या हवा में पैदा होता है। छत्तीसगढ़ी फोक लिखकर उस राज्य की संस्कृति को मान्यता देने में हर्ज क्या था पर चोरियों से ज्यादा सीनाजोरियां मुंबई की मायानगरी का चलन बन गयी हैं।
सर्वेश्वर जी हिंदी के एक बहुत सम्मानित कवि और पत्रकार होने के साथ-साथ रंगमंच के क्षेत्र में भी खास पहचान रखते थे। वे बच्चों के लिए भी लिखते रहे और अपने समय की महत्वपूर्ण बालपत्रिका पराग के संपादक रहे। उन्होंने बतूता का जूता और महंगू की टाई नाम से बच्चों के लिए कविताओं की दो पुस्तकें भी लिखी हैं। जिसमें बतूता का जूता (1971) में यह कविता है जिसपर विवाद छिड़ा हुआ है। अपने समय की महत्वपूर्ण पत्रिका दिनमान से जुड़े रहे सर्वेश्वर जी को शायद भान भी नहीं होगा कि उनकी मृत्यु के बाद उनकी रचनाएं इस तरह उपयोग की जाएंगी और उनके नामोल्लेख से भी पीढ़ियां परहेज करेंगीं। पर ऐसा हो रहा है और हमसब इसे देखने को विवश हैं।
भाव का अपहरण क्षम्य है, शब्द का अपहरण भी क्षम्य है किंतु पूरी की पंक्ति निगल जाना और क्रेडिट न देना कैसे माफ किया जा सकता है। यह रोग जिस तरह पसर रहा है वह दुखद है। फिल्मी दुनिया में नित उठते यह विवाद साबित करते हैं कि इससे किसी ने सबक नहीं लिया है। सर्वेश्वर जी ने अपनी एक कविता में लिखा था-
“और आज छीनने आए हैं वे
हमसे हमारी भाषा
यानी हमसे हमारा रूप
जिसे हमारी भाषा ने गढ़ा है
और जो इस जंगल में
इतना विकृत हो चुका है
कि जल्दी पहचान में नहीं आता ।”
सर्वेश्वर कहते हैं कि वस्तुतः हमसे हमारी भाषा का छिन जाना हमारे व्यक्तित्व और अस्तित्व का मिट जाना है । चंद मामूली से शब्दों के द्वारा ही (छीनने आए हैं वे... हमसे हमारा रूप) कवि ने यह अर्थ हमें सौंप दिया है कि भाषा का छिन जाना हमारी जातीय परंपरा, संस्कृति, इतिहास और दर्शन का छिन जाना है। सर्वेश्वर हमारी सांस्कृतिक चेतन पर आए इस संकट को पहचानते हैं । वस्तुतः भाषा के सवाल पर यह संजीदगी सर्वेश्वर को एक जिम्मेदार पत्रकार बनाती है। सर्वेश्वर का पत्रकार इसी प्रेरणा के चलते पाठक में एक चेतना और अर्थवत्ता भरता नजर आता है । सर्वेश्वर की लेखनी से गुजरता पाठक, उनकी लेखनी से निकले प्रत्येक शब्द को अपनी चेतना का अंग बना लेता है । ऐसा इसलिए क्योंकि सर्वेश्वर पूरी ईमानदारी और संवेदना के साथ पाठक की चेतना को सम्प्रेषित करते हैं । सर्वेश्वर ने इसीलिए ऐसी भाषा तलाशी है जो वर्तमान परिवेश में सांस लेने वाले हरेक इन्सान की हैं, हरेक की जानी पहचानी है और हरेक का उससे गहरा और करीबी रिश्ता है। किंतु सर्वेश्वर की यही भाषा और शब्द आज मायानगरी के बाजार में सुनाए तो जा रहे हैं पर किसी और के नाम से। हालांकि इस पूरे मामले पर अभी गीतकार गुलजार की प्रतिक्रिया आना शेष है किंतु प्रथमदृष्ट्या यह मामला माफी के काबिल तो नहीं दिखता। इस तरह के विवाद साहित्य की अस्मिता पर हमला हैं और कलमकारों के लिए अपमानजनक भी किंतु क्या इस विवाद से कोई सबक लेने को तैयार है, शायद नहीं।
इन पंक्तियों के लेखक ने सर्वेश्वर की पत्रकारिता पर शोधकार्य भी किया है जिसे निम्न लिंक पर देखा जा सकता हैः
http://sampadakmahoday.blogspot.com/

( लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)

शाहरूख को सलाम, शिवसेना को सलाह


- संजय द्विवेदी
एक अकेला आदमी अगर तय कर ले तो बहुत कुछ बदल सकता है। शाहरूख खान ने तो हमें यही सिखाया है। अब सीखने की बारी शिवसेना की भी है, महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना की भी और उन राजनेताओं की भी जो भारतीय जनता को फुटबाल बनाकर अपनी रोटियां सेंकते रहते हैं। शाहरूख खान न राजनेता हैं, न एक्टीविस्ट हैं, न उन्हें समाज को सुधारना है। वे एक कलाकार हैं और ऐसे कलाकार जिनका एक बाजार है।
जब तक बाजार है तब तक शाहरुख खान हैं। जाहिर तौर पर दांव पर किसी का कुछ था तो वो शाहरुख खान का ही था। अगर फिल्म की रिलीज न होती तो करोड़ों का नुकसान होता। शाहरूख को सलाम इसीलिए कि उन्होंने हमें डटे रहना सिखाया। कुछ अरसे पहले ऐसी ही हिम्मत प्रीति जिंटा ने दिखाई थी पर उनकी इतनी चर्चा नहीं हो पायी। शाहरूख परदे के ही नहीं असली हीरो की तरह सामने आए। इस बात को साबित किया कि वे बाजार में भी हैं, कलाकार भी हैं पर हैं एक हिंदुस्तानी और एक ऐसे परिवार के वारिस हैं जिसकी जड़ें आजादी के आंदोलन से जुड़ी हैं। एक स्वतंत्रता सेनानी परिवार के वारिस से जो उम्मीद थी उसे शाहरुख ने पूरा किया है। बाल ठाकरे जैसी असंवैधानिक सत्ताएं देश के तमाम इलाकों में फलफूल रही हैं। लोकतंत्र को चोटिल कर रही हैं। उन्हें सबक सिखाने के लिए ऐसी ही हिम्मत की जरूरत है।
आम आदमी पर अपनी ताकत दिखाकर मुंबई का सरकारराज बने ठाकरे के परिजनों को यह समझने की जरूरत है कि हुल्लड़ राजनीति के दिन अब लद गए हैं। देश इक्कीसवीं सदी का पहला दशक पूरा कर नए सपनों की ओर बढ़ रहा है। बाल ठाकरे और उनके वंशज उन सपनों तक नहीं पहुंच सकते। देश और उसके लोकतंत्र ने एक परिपक्वता और अभय प्राप्त किया है। देश के युवा अपने सपनों में रंग भरने में लगे हैं किंतु हमारी राजनीति लौटकर उन्हीं वीथिकाओं में चली जाती है जो रास्ता अंधेरी सुरंग में जाता है। राजनीति का यह खेल हमें समझना होगा। क्या अगर हमारी सरकारें तय कर लें तो कहीं भी अराजक दृश्य देखे जा सकते हैं। हमारी राजनीति और उसकी दुरभिसंधियां ही हमारे बीच बाल ठाकरे, राज ठाकरे जैसे चेहरों को पैदा करती हैं। शरद पवार जैसे राजनीति के चतुर सुजान अगर ऐसे हालात में बाल ठाकरे के दरबार में हाजिरी भर आते हैं तो इसके अर्थ समझना कठिन नहीं है। लेकिन ऐसा होता है और हम देखते हैं। राहुल गांधी ने जैसी भी, जितनी भी हिम्मत दिखाकर मुंबई की यात्रा की, पवार उस पर पानी फेर आए। क्या मुट्ठी पर लंपट तत्वों को यह अधिकार दिया जा सकता है कि वे सिनेमाधरों या खेल के मैदानों में दौड़ें। शाहरूख खान इस मामले में अन्य कलाकारों की तुलना में भाग्यशाली साबित हुए कि उनके माध्यम से ठाकरे परिवार की किरकिरी हो गयी। सच तो यह है कि सत्ता के नकारेपन ने शिवसेना और मनसे के गुंडाराज को प्रश्रय दिया है। यदि शासन अपने कर्तव्यों का सही मायने में निर्वाह करे तो हमें दृश्य शायद दुबारा देखने न मिलें। मातोश्री के बंगले में बैठकर फरमान जारी करना और युवाओं का गलत इस्तेमाल, शिवसेना की यही परिपाटी रही है। ऐसी राजनीतिक शैली को पुरस्कृत करना ठीक नहीं है। बाल ठाकरे की अपनी एक अलग शैली रही है, अपने भाषणों और लेखन से उन्होंने बहुत आग उगली। स्थानीयता के नारे ने उनकी पार्टी को सत्ता तक पहुंचाया किंतु राजनीतिक सफलता पाने के बाद भी उनकी पार्टी में अपेक्षित गंभीरता और मुद्दों को लेकर समझ का निरंतर अभाव है। यही कारण है कि मराठी मानुष की एकता का नारा उनके परिवार को भी एक न रख सका। उनके भतीजे और बहू सब आज ठाकरे से अलग राय रखते हैं। यह साधारण नहीं है छगन भुजबल, नारायण राणे और संजय निरूपम जैसे नेता आज ठाकरे के साथ नहीं है। यही ठाकरेशाही का अंत है। दुर्भाग्य कि ठाकरे आजतक इसे नहीं समझ पा रहे हैं।
इक्कीसवीं सदी की राजनीति के मानक और उसकी शैली अलग है, दुर्भाग्य से ठाकरे परिवार टीवी न्यूज चैनलों की टीआरपी के लिहाज से सही काम कर रहा है किंतु जनता के मन में उसकी जगह बन पाएगी इसमें संदेह है। यह असाधारण नहीं है कि शिवसेना की सहयोगी भाजपा के भीतर भी उसके साथ रिश्तों को लेकर पुर्नविचार प्रारंभ हो गया है। शिवसेना का संकट यह है कि वह एक साथ बहुत सारे प्रश्नों पर मोर्चा खोलकर अपने शत्रु ही बढ़ा रही है। मुसलमानों के प्रति उसका रवैया बहुत धोषित रहा है किंतु उसने हिंदी भाषियों को भी अपना शत्रु बना लिया है। वह क्षेत्रीयता, भाषा, जातीय अस्मिता और धर्मिक भावनाओं सबका माखौल बना रही है। सही मायने में उसने अपने पतन का रास्ता खुद तय कर लिया है। मारपीट और हुल्लड़ की राजनीति कहीं न कहीं लोगों को मुक्त भी करती है। शाहरूख ने इस भय को थोड़ा खत्म किया है। कल्पना कीजिए जिन निरीह टैक्सी चालकों पर, दूकानदारों पर शिवसैनिक या मनसे के कार्यकर्ता अपने पुरूषार्थ का प्रदर्शन करते हैं, वे भी एकजुट होकर प्रतिवाद पर उतर आएं तो शिवसेना की आक्रामक राजनीति का क्या होगा। सही मायने में अपनी लगातार आक्रामक शैली से शिवसेना अब लोगों से दूर हो रही है। उसकी अतिवादी राजनीति अब आकर्षित नहीं, आतंकित करती है। लोग इसीलिए इस शैली की राजनीति का खात्मा चाहते हैं। राजनेताओं की चाल भी लोग समझ रहे हैं। ठाकरे से मिलने के नाते शरद पवार की जितनी और जैसी आलोचना हुयी उसे साधारण मत समझिए। राहुल गांधी, शाहरूख खान के स्टैंड को भी साधारण मत समझिए। यह जनभावना है जो लोगों को हिम्मत दे रही है। भारत बदल रहा है। पिछले चुनाव में बिहार, उप्र से लेकर पूरे देश में हारे बाहुबलियों की कहानी हो,महाराष्ट्र में शिवसेना की चुनावी पराजय की कथा हो, सबको इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। भारतीय राजनीति में जब गर्वनेंस, सुशासन और विकास के सवाल सबसे अहम हो चुके हों तब शिवसेना की राजनीतिक शैली का भविष्य क्या है। इस पर बाल ठाकरे को सोचना होगा पर दुख यह है कि वे इन दिनों राज ठाकरे से सीख रहे हैं। ऐसे में शिवसेना और ठाकरेशाही का भविष्य तो तय ही है पर क्या बूढ़े हो चुके इस सच का सामना करने को तैयार हैं।