Saturday, October 30, 2010

विद्या से आएगी समृद्धि: प्रो. कुठियाला



विद्यार्थियों ने मनाया दीपावली मिलन समारोह
भोपाल, 30 अक्तूबर 2010

लक्ष्मी और सरस्वती आपस में बहनें ही हैं। यदि विद्या है तो धन और समृद्धि अपने आप ही प्राप्त हो जाएंगी। पत्रकारिता में सरस्वती की अराधना से ही लक्ष्मी भी प्रसन्न होंगी। दीपावली का पर्व मर्यादा पुरुषोत्तम राम के आगमन को याद करने के साथ उनके आदर्शों को जीवन में अपनाने का संकल्प लेने का अवसर है। उक्त बातें माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने विवि के जनसंचार विभाग द्वारा आयोजित दीपावली मिलन सामारोह में कही।
प्रो. कुठियाला ने विश्वविद्यालय प्रशासन तथा स्वयं की ओर से विद्यार्थियों को दीपावली की शुभकामनाएँ देते हुए अपील की कि विद्यार्थी कोर्स समाप्त होने के बाद जब पत्रकारिता करें तो मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के आदर्शों को ध्यान में रखकर करें ताकि दीपावली की प्रासंगिकता युगों-युगों तक कायम रहे। वर्तमान में मीडिया जगत में पाँव पसार रहे सुपारी पत्रकारिता व पेड-न्यूज संस्कृति से पत्रकारिता को मुक्त करने की आवश्यकता है। उन्होंने हनुमान जी को विश्व का पहला खोजी पत्रकार बताया। जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने विद्यार्थियों को दीपावली की शुभकामनाएं देते हुए कहा कि पूरा विश्व आज भारत की ओर आशा भरी नजरों से देख रहा है। हमें उनकी आशाओं पर खरा उतरने के लिए रामराज्य को धरती पर उतारने की आवश्यता है। इसके लिए भारत में सुख, समृद्धि, एकता और अखंडता का वातावरण बनाना होगा। तभी, दीपावली का पर्व भी सार्थक होगा। शिक्षिका मोनिका वर्मा ने विद्यार्थियों को घर जाकर आनंद से दीपावली मनाने की शुभकामनाएँ दी और कहा कि जब वापस आएँ तो पूरी लगन से पढ़ाई करें ताकि सारा जीवन दीपावली की खुशियाँ मनाएँ।
समारोह में दीपावली की पौराणिक कथाओं के बारे में बताते हुए छात्र देवाशीष मिश्रा ने बताया कि यह बुराइयों पर अच्छाइयों की जीत की खुशी मनाने का पर्व है। छात्रा श्रेया मोहन ने दीपावली के बाद बिहार-झारखण्ड में विशेष रूप सें मनाए जाने वाल छठ-पर्व पर प्रकाश डाला। कार्यक्रम में विद्यार्थियों ने गीत-गायन व कविता पाठ भी किया। शाहीन बानो ने एक हास्य कविता का पाठ कर सबका मन मोह लिया वहीं संजय ने राजस्थानी लोकगीत पधारो म्हारो देश गाकर सबको राजस्थान आने का निमंत्रण दिया। छात्रा मीमांसा ने एक सुंदर कृष्ण-भजन का गायन किया। कार्यक्रम का संचालन अंशुतोष शर्मा व शिल्पा मेश्राम ने किया। इस अवसर पर विभाग के शिक्षक संदीप भट्ट, शलभ श्रीवास्तव, कर्मचारीगण तथा समस्त छात्र-छात्राएँ उपस्थित थे।

आंतरिक सुरक्षा पर मीडिया में ऊहापोह




कुन्दन पाण्डेय
MAMC III SEM
भोपाल 30 अक्टूबर,2010



आज का युग मीडिया क्रांति का युग है। आज मीडिया की प्रभावकता इतनी अधिक बढ़ गयी है कि मीडिया किसी घटना, विषय या व्यक्ति को अत्यल्प समय में अंतर्राष्ट्रीय सुर्खियां बना सकता है और अंतरराष्ट्रीय सुर्खियां रूपी अर्श से फर्श पर भी पटक सकता है। परन्तु, ताज्जुब की बात यह है कि आंतरिक सुरक्षा जैसे गंभीर व संवेदनशील राष्ट्रीय विषय पर मीडिया अपनी सकारात्मक भूमिका की जगह लगातार ऊहापोह की स्थिति में नजर आ रहा है।
आज देश की आंतरिक सुरक्षा अत्यंत नाजुक दौर से गुजर रही है। एक ओर जेहादी आतंकवादियों का देश भर में फैलता हुआ संजाल तो दूसरी ओर नक्सली, पूर्वोत्तर के अलगाववादी संगठन, भारत माता के मष्तक कश्मीर को शाश्वत रणभूमि बना देने में संलग्न पाकिस्तानी आतंकी, अदृश्य रुप में चोरी, ड़कैती, तोड़फोड़ करने वाले लगभग 4 करोड़ बंग्लादेशी घुसपैठिए, देश के रोम रोम में अगणित वर्षों से समाये आईएसआई एजेन्टों और प्रशिक्षित दहशतगर्दों द्वारा अत्याधुनिक संचार साधनों तथा अरब देशों से प्राप्त बेहिसाब पैसे के बल पर जबरर्दस्त कहर ढाया जा रहा है।
इस संजाल को तोड़ने में सरकार, पुलिस एवं गुप्तचर एजेंसियाँ तो हमेशा साँप निकल जाने पर लाठी पीटने जैसा कार्य कर रही हैं, क्योंकि इन सभी में कुछ देशद्रोही घुसे हुए हैं, परन्तु मीडिया में तो इस तरह की कोई बात नहीं है। तो फिर मीडिया स्वयं से अपनी भूमिका सार्वजनिक कर जनता जनार्दन को यह बताये कि उसका आंतरिक सुरक्षा से कोई सरोकार है या नहीं? यदि है तो इस सरोकार के लिए मीडिया अब तक क्या-क्या कर चुका है?
कश्मीर के मामले में मीडिया सरकार के एजेंट की तरह कार्य करती हुई प्रतीत हो रही है। कश्मीर में पिछले वर्ष तक लगभग सबकुछ ठीक रहने पर केन्द्र सरकार विशेष सशस्त्र बल अधिनियम हटाने व पाक अधिकृत कश्मीर गये आतंकवादियों के घर वापसी व पुनर्वास की व्यवस्था करने की कवायद कर रही थी तो मीडिया ने सरकार से यह मुखरित होकर क्यों नहीं कहा कि कश्मीर अंदर ही अंदर शांति से सुलग रहा है। आखिरकार एक दिन यह सुलग रही आग व्यापक रुप से सबके सामने आ ही गयी।
जब कश्मीर में हालात अचानक विस्फोटक हो गये, तब सरकार की पुरजोर आलोचना, जब 26/11 को मुम्बई हमला हुआ तब सरकार की मुखर आलोचना, जब संसद पर हमला हुआ तब सरकार की चौतरफा आलोचना और 26/11 के बाद जब तक विस्फोट नहीं हुए तब तक तत्कालीन गृहमंत्री पी. चिदम्बरम की मुक्तकण्ठ से मीडिया में होने वाली सारी प्रशंसायें विस्फोट के फौरन बाद कठोर आलोचनाओं में तब्दील हो गयी।
पूर्वोत्तर के राज्यों में भारत से स्वतंत्र राज्य बनाने की माँग करने का एक प्रमुख आधार कश्मीर को मिला विशेष राज्य का दर्जा भी रहा है। पूर्वोत्तर के प्रमुख पृथकतावादी संगठनों में से प्रमुख ‘यूनाईटेड लिबरेशन फ्रन्ट ऑफ असम’ अर्थात् उल्फा, नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रन्ट ऑफ बोडोलैन्ड, नेशनल लिबरेशन फ्रन्ट ऑफ त्रिपुरा, मणिपुर में पीपुल्स लिबरेशन आर्मी, मिजो नेशनल फ्रन्ट, नेशनल सोशलिस्ट कौंसिल ऑफ नागालैन्ड-आईजक मूईवा (एन एस सी एन- आई एम) आदि प्रमुख हैं परन्तु मीडिया में इनकी गंभीरता से चर्चा कम ही हो पाती है जबकि पूर्वोत्तर के अधिकांश राज्य अशांति से ग्रस्त ही रहते हैं।
गत लोकसभा चुनावों के पेड न्यूज व मुम्बई के 26/11 हमले के कवरेज से मीडिया विश्वसनीयता के मामले में सबसे अविश्वसनीय हो गया है। विश्वसनीयता कभी खरीदी-बेची, बनाई-बिगाड़ी नहीं जा सकती, यह गणितबाजी-चालबाजी से निर्मित नहीं की जा सकती। यह कच्चे धागे की तरह अत्यंत नाजुक होती है जो काल के कपाल पर मीडिया या व्यक्ति अपने मन-वचन, कर्म और आचरण से धीरे-धीरे अर्जित ही कर सकते हैं निर्मित नहीं कर सकते।
मीडिया अगर आंतरिक सुरक्षा जैसे किसी राष्ट्रीय मसले पर ठोस कवायद कर दे तो वह अपनी अविश्वसनीयता को कुछ हद तक विश्वसनीयता में तब्दील कर पायेगा। पीपली लाईव फिल्म ने तो इलेक्ट्रानिक मीडिया की सारी कलई खोल कर रख दी है। दरअसल मीडिया का अब एक ही इष्ट देव है वह है लाभ-लाभ, बस लाभ, केवल लाभ। मीडिया लोक कल्याण के ध्येय को तिरोहित करने पर आमादा तो है लेकिन मजबूरी में, क्योंकि इष्टदेव की आराधना बंद करने पर वह कुपित भी हो सकते हैं। वैसे यदि देश गुलामी के दौर की तकनीक और सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक व नैतिक स्थिति व स्तर में नहीं जा सकता तो, मीडिया क्यों और कैसे चला जाय।
आंतरिक सुरक्षा की गंभीर स्थिति देश के आर्थिक विकास के लिए विकराल चुनौती है। आंतरिक सुरक्षा को नष्ट करने वाले दुर्जनों के विरुद्ध जब भी कारगर कार्रवाई की बात की जाती है, तब छद्म मानवाधिकारवादी हत्यारों के मानवाधिकार की बात करते नहीं अघाते। मानव अधिकार किसके मरने वाले के या मारने वाले के, लेकिन मीडिया छद्म मानवाधिकारवादियों के चेहरे से नकाब को नहीं उतारती क्योंकि मीडिया द्वारा इस विषय में किए गए प्रयत्न बिकाऊ या टी आर पी बढ़ाने वाले साबित नहीं होंगे।
राष्ट्र के संप्रभुता के सर्वोच्च प्रतीक संसद पर हमले के जुर्म में उच्चतम न्यायालय द्वारा मृत्युदंडित अफजल गुरू को कई वर्षों से छद्म सेकुरलवाद के कारण सजा नहीं दी जा पा रही है। भारत की मीडिया अफजल जैसे आतंकवादियों को क्या यह संदेश देना चाहती है कि राष्ट्र ऐसे आतंकियों को सजा देने के मसले पर एक मत नहीं है। इस विषय पर कोई प्रयत्न नहीं करने से तो यही साबित होता है कि मीडिया आंतरिक सुरक्षा के मसले पर केवल हमले के बाद की सख्त रिपोर्टिंग तक सीमित रहता है। हमले के बाद आंतरिक सुरक्षा को अभेद्य बनाने हेतु मीडिया कुछ नहीं करना चाहता।
मीडिया की आलोचना इतनी सतही और स्तरहीन है कि वह सुरक्षा व्यवस्था की कठोरता, मजबूती या अभेद्यता पर आधारित ना होकर हमले या बम विस्फोट पर आधारित है। जिस सुरक्षा-व्यवस्था की प्रशंसा हमले या विस्फोट नहीं होने पर मुक्त कंठ से होती है उसी व्यवस्था की विस्फोट के बाद चौतरफा अतिशय आलोचना होती है। मीडिया इस व्यवस्था का सूक्ष्म विश्लेषण करके आलोचना इसलिए नहीं करता, क्योंकि ऐसा करके मीडिया अपनी टीआरपी या पाठक संख्या को नहीं बढ़ा पायेगा।
मीडिया का आर्थिक जीवनचक्र पूर्णतया बाजार-आधारित है, मिशन-आधारित नहीं। वर्तमान मीडिया को संतुलित और पौष्टिक आहार देकर पेट भरने का काम केवल बाजार ही कर सकता है, सामाजिक राष्ट्रीय मिशन नहीं।
आंतरिक सुरक्षा के लिए व्यवस्थापिका व कार्यपालिका अपनी-अपनी भूमिकाओं में मुस्तैद है कि नहीं, इसकी कड़ी निगरानी करके जनता-जनार्दन को अवगत कराने का काम मीडिया का ही है। अगर सत्ता अपनी सुविधा हेतु सामान्य जनजीवन के लिए अपरिहार्य सुरक्षा के विषय को हाशिए पर धकेल रहा है तो मीडिया को इस विषय को चर्चा के केन्द्र में लाकर सत्ताधीशों पर दबाव बनाये क्योंकि ऐसा काम केवल मीडिया ही कर सकता है।
यदि मीडिया आंतरिक सुरक्षा पर अपना कर्तव्य निभाने के मामले में पुलिस, गुप्तचर एजेन्सियों तथा सरकार जैसे ही असफल है तो उसे अन्य तीनों लोकतांत्रिक स्तम्भों को कठघरे में खड़ा करने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है। यदि मीडिया लोकतंत्र में तीनों स्तम्भों के बराबर की (लम्बाई व मजबूती का) भागीदार है तो उसकी लोकतंत्र के हर मसले पर बराबर की जिम्मेदारी भी है।
भारत जैसे सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक, सांस्कृतिक-धार्मिक-पारम्पिरक वैविध्य वाले देश में आंतरिक सुरक्षा को राष्ट्रव्यापी स्वरूप में अक्षुण्ण बनाए रखना वोट बैंक को दृष्टिगत रखकर हर फैसला करने वाली सरकार के लिए अत्यधिक दुरूह कार्य है। मीडिया आंतरिक सुरक्षा को अभेद्य बनाने के लिए ना तो सरकार के समानांतर कार्य कर सकता है, न ही खुद सरकार बन सकता है। वह अपनी सीमा में रहकर केवल प्रचंड व बाध्यकारी जनमत का निर्माण कर सकता है। जब मीडिया सामाजिक राष्ट्रीय सरोकारों के तहत आंतरिक सुरक्षा के लिए जबरदस्त अभियान चलाएगा तो उससे उसका व्यवसायिक हित जरूर प्रभावित होगा। मसलन मीडिया को यदि सामाजिक राष्ट्रीय सरोकार व व्यवसायिक हित में से किसी एक को प्राथमिकता देनी हो, तो वह निश्चित रूप से व्यवसायिकता को पहली प्राथमिकता देगा।
आदर्श कहता है कि मीडिया जनगणमन को वह न दे, जो की वह मीडिया से चाहता है, बल्कि मीडिया जनगणमन को वह दे जो की मीडिया को उसे देना चाहिए। परन्तु वैश्वीकरण का वर्तमान वैश्विक परिदृश्य मीडिया से यह चीख-चीख कर कह रहा है कि वैश्वीकरण के विरोध से मीडिया का विकास एकांगी होगा,े जो वैश्विक प्रतिस्पर्द्धा में शायद ही टिक पाये।
वर्तमान बहुमत शासित वैश्विक व भारतीय परिदृश्य में मीडिया पाठक-दर्शक-श्रोता किसी गंभीर विषय को पढ़ना-देखना-सुनना नहीं चाहते हैं। बहुमत का दबाव है कि हल्की, मनोरंजक, चटपटी, गॉशिप वाली फिचरिस्टिक खबरें मीडिया में बहुतायत से रहे, तो मीडिया जनमत की अवहेलना कैसे करे। जनमत आदर्श, औसत, उत्कृष्ट या निकृष्ट कुछ भी हो सकता है, परन्तु पहले वह जनमत है, उसकी अवहेलना खबरपालिका सहित चारों स्तम्भों के लिए लगभग नामुमकिन ही है।

Monday, October 25, 2010

WOMEN EMPOWERMENT



Vikas Mishra
MAMC I SEM
25 october,2010
Our religious scriptures enjoin upon us the duty to accord due respect to women. God live where women are worshipped. The need to incorporate the injunction into the constitution of India arose due to the prevailing atmosphere in which women are denied the rightful place in society and are subjected to humiliations, galore which reduce them to a position inferior to men.
The average women have always led a life not better than that of a slave. At all the stages of life, right from childhood to the old age, she have been in a subordinate position to man. She has never been recognized as an independent entity free to select a course of her life at her own choice. Her good has always been said to be associated with the good of the husband whose service alone has been recognized as a way for deliverance. For wife the only God worth worshipping is her husband regardless of the fact that he treats her well or not. The irony is that “man is born of woman and yet the latter is dominated by the former“. Women have been enslaved, degraded and subjected to various types of atrocities and tyrannies at the hand of men and the men have dominated society. Even the modern times have not brought liberation of them. The gift of democracy which we have received from our generation is denied to women. Not to speak of the women of India, their counterparts in some advanced countries too were never treated on a footing of equality with their men folk - for example the united kingdom adult franchise to women was as late in coming as 1928 . Women in France were enfranchised as late as 1956.
Education has always been regarded as the sole preserve of men. All this is highly derogatory for women. Most parents treats a girl as an inferior being and consider them an unwanted burden. There is a clear discrimination in favour of boys and against the girls in their upbringing. In matter of education again girls are blatantly discriminated. That is why women’s education in India as well as in other countries lag behind men’s education. Women are subjected to various kinds of harassments and atrocities if they dare to come out of the four walls of their household.
But certain measures for the empowerment of women are being taken like reservation for women in jobs and in legislative assemblies and other democratic institutions right from the parliament down to the village panchayats is round the corner. Steps are being taken in government services to allow out of turn promotion to women. Girl’s education is receiving top priority with a number of Indian already having made female education up to intermediate level free. Thinking is also a foot to make degree and university education also free for women. Measures are also being taken to make women self- reliant economically in the rural India. Excellence in every field of life is no longer a man’s preserve. Women power is asserting itself surely.
To conclude I would say, “Women are the maker and moulder for the destiny of every society “.

Wednesday, October 20, 2010

मैं नक्सली हूँ......!!



साकेत नारायण
MAMC III SEM
भोपाल,20अक्टूबर 2010
आज नही पर काफी दिनों से मुझे ये सवाल परेशान कर रहा है कि क्युँ मै नक्सली हूँ? मै नही जानता पर ऐसा हैं। मै सोचता हूँ क्या मै एक नक्सली जन्मा था? पता नहीं पर मेरी माँ ने तो मुझे अपने जिगर के टुकड़े के तरह ही पाला और हमेशा अपने आँखों का तारा बना कर रखा तो क्युँ मै आज एक नक्सली हूँ?
लोग मुझे नक्सली कहते हैं, परंतु मैनें इसकी कोई शिक्षा नहीं ली हैं। आज मैं स्कूलो के भवन गिराता हूँ पर मेरे अध्यापको ने मुझे कभी ऐसी शिक्षा नही दी। मैने भी अपने भविष्य के लिए सपना देखा था, परंतु आज मै दूसरो के सपने उजाड़ता हूँ। मै क्युँ एक नक्सली हूँ, कोई क्युँ नक्सली बनता है? मै हमेशा ये सोचता हूँ की आखिर ऐसा क्युँ है और मै निरतंर इन प्रश्नों के उत्तर ढूँढ़ने का प्रयास करता हूँ। आज देश ही नहीं पूरा विश्व मुझे नक्सली कहता है, पर न कोई ये जानना चाहता है और न ही इस बारे में चर्चा करना चाहता है की आख़िर मैं और मुझ जैसे अनेक नक्सली क्युँ बने?
एक लड़ाई या यूँ कहे विरोध करने का तरीका जिसे कानु सान्याल ने शुरु किया था, मै उस लड़ाई का ही एक सिपाही हूँ। अब हूँ नहीं था, क्योंकि अब मै एक नक्सली हूँ। हाँ मै बुरा हूँ पर क्या मै अपने नेताओं और सिस्टम के आगे बौना नहीं लगता? मै ये तर्क इस लिए नहीं दे रहा हूँ क्योंकि मुझें खुद को सही और दूसरों को गलत साबित करना है। मै तो बस ये बताना चाहता हूँ की मुझ मे और मेरे जैसे दूसरों में भी कोई बात हैं, बहुत कम लोग ही खुद से नक्सली बनते हैं ज्य़ादातर तो परिस्थिती के कारण मजबूरी में इस राह पर चलते हैं। मै ये मानता हूँ कि मै कमजोर हूँ, मुझ मे सहन शक्ति कम है, मुझ मे परिस्थिती से लड़ने की ताकत नही है इसलिए तो मै नक्सली हूँ।
मेरी राय में............
मैंने इस विषय पर इसलिए नही लिखा की मै नक्सलवाद का समर्थक हूँ या ये विचारधारा मुझे पसंद हैं। वैसे कोई विचारधारा सही और गलत नही होती है, हम उसके अनुशरण करने वाले उसे सही और गलत का स्वरुप देते हैं। मैने तो इस विषय पर बस इस लिएलिखा क्योंकि मुझे लगता है कि हमे एक बार इस पहलु पर भी सोचना चाहिए..........

सामाजिक बदलाव के माध्यम बन सकते हैं हमारे उत्सव




-प्रो. बृजकिशोर कुठियाला
भोपाल, 20 अक्टूबर 2010

अक्टूबर का महीना त्यौहारों व उल्लास का समय है। चारों तरफ आस्था- पूजा संबंधी आयोजन हो रहे हैं और पूरा समाज भक्तिभाव में डूबा हुआ है। न केवल मंदिरों में बाजारों और मोहल्लों में भी स्थान-स्थान पर नवरात्रों के उपलक्ष्य में दुर्गा, लक्ष्मी व सरस्वती की आराधना से वातावरण चौबीसों घंटे गूंजता है। समाज का लगभग हर व्यक्ति, कुछ कम कुछ ज्यादा इन कार्यक्रमों में हिस्सा लेता है। सामाजिक उल्लास व सार्वजनिक सहभागिता का ऐसा उदाहरण और कहीं मिलता नहीं है। बच्चे, किशोर, युवा, वृद्ध, स्त्री, पुरूष, मजदूर, किसान, व्यापारी, व्यवसायी सभी इन सामाजिक व धार्मिक कार्यों में स्वयं प्रेरणा से जुड़े हैं। इन कार्यक्रमों के आयोजन के लिए और लोगों की सहभागिता के लिए कोई बहुत बड़े विज्ञापन अभियान नहीं चलते, छोटे या बड़े समूह इनका आयोजन करते है और स्वयं ही व्यक्ति और परिवार दर्शन -पूजन के लिए आगे आते हैं। कहीं भी न तो सरकारी हस्तक्षेप है और ना ही प्रशासन का सहयोग। उत्तर से दक्षिण, पूर्व से पश्चिम सभी महानगरों, नगरों और गांवों में धार्मिक अनुष्ठानों की गूंज है।
केवल यह अक्टूबर में होता है ऐसा नहीं है, पूरे वर्ष छोटे या बड़े अंतराल से कुछ न कुछ आस्था व पूजा संबंधी कार्यक्रम पूरे देश में चलते रहते हैं। वर्ष में दो बार तो रोजों का ही चलन है, दो बार नवरात्रों में 20 दिन के लिए समारोह होते हैं। अक्टूबर के नवरात्रों का अन्त दशहरे के विशाल आयोजन से होता है और दिवाली के 20 दिनों की गिनती प्रारंभ हो जाती है। ईदज्जुहा पर भी सामूहिकता का परिचय होता है। बीच में करवा चौथ का त्यौहार पड़ता है जो कहने के लिए तो महिलाओं के लिए है परन्तु पूरा परिवार ही उसमें उत्साहित होता है। हर पति करवा चौथ के दिन सामान्य से अधिक प्रेम व महत्व प्राप्त करता है, जिससे पारिवारिक संबंध दृढ़ होते हैं। दिसम्बर में क्रिसमस, जनवरी में लोहड़ी, फरवरी में शिवरात्रि, मार्च में फिर से नवरात्र व होली, अप्रैल में वर्ष प्रतिप्रदा, गुड फ्रायडे व बाद में जन्माष्टमी, रक्षाबंधन और इसी तरह सिलसिला चलता रहता है। संक्रांति, अमावस्या, पूर्णिमा यह सभी हमारे समाज में कुछ न कुछ महत्व रखते हैं और अनुष्ठान, सरोवरों में नहाने आदि की अपेक्षा रखते है।
इन पारंपरिक उत्सवों का रूप और भव्यता दिन पर दिन बढ़ती जा रही है और विशेष कर युवा वर्ग तो इनका आनंद सर्वाधिक लेता है। इसकी तुलना में स्वतंत्रता के बाद तीन राष्ट्रीय पर्वों में जनता की सहभागिता लगभग नगण्य है। गणतंत्र दिवस ( 26 जनवरी) तो केवल सरकारी कार्यक्रम बनकर रह गया है। स्वतंत्रता के प्रारंभिक वर्षों में दिल्ली व अन्य प्रान्तों की राजधानियों में झांकियों आदि के कार्यक्रम होते थे और उसमें लोग उत्साह से जाते थे परन्तु वह उत्साह लगभग समाप्त हो गया है और ये कार्यक्रम केवल प्रशासनिक स्तर पर मनाये जाते हैं और जिनको उनमें होना आवश्यक है वही जाते है। इनमें आम जनता की उपस्थिति कम होती जा रही है। स्वतंत्रता दिवस यानि 15 अगस्त का भी यही हाल है। गणतंत्र दिवस और 15 अगस्त के दिन राष्ट्रीय ध्वज यदि घर-घर पर दिखता, तो कह सकते थे कि आम व्यक्ति की भावना इन उत्सवों से जुड़ी है परन्तु ये दोनों दिन एक अवकाश के रूप में तो स्वागत योग्य होते है, परन्तु इनके महत्व को जानकर सामूहिक कार्यक्रमों का ना होना चिन्ता का विषय है। इसी प्रकार गांधी जयन्ती के दिन औपचारिक कार्यक्रम तो गांधी जी से संबंधित संस्थानों में हो जाते हैं परन्तु आम व्यक्ति गांधी को स्मरण कर उनके प्रति श्रद्धा भाव प्रकट करे ऐसा होता नहीं है। 30 जनवरी को प्रातः 11.00 बजे सायरन तो बजता है परन्तु कितने लोग उस समय मौन होकर गांधीजी को श्रृद्धांजलि देते हैं, यह सब जानते ही हैं। राष्ट्रीय उत्सवों में सहभागिता नहीं होने का अर्थ यह नहीं है कि समाज में राष्ट्रभाव की कमी है, परन्तु इन उत्सवों का सामाजिक चेतना से सम्बन्ध नहीं बन पाया है। इनके कारण एकता और समरसता का वातावरण नहीं हुआ है।
हमारे समाज के पारंपरिक उत्सवों में भी बहुत परिवर्तन आये हैं, झांकियों में आधुनिक प्रौद्योगिकी का प्रयोग करके उनको अधिक आकर्षक बनाया जाता है, कलाकार मूर्तियों को गढ़ने में नित नए-नए प्रयोग करते हैं, गीतकार नए शब्दों, भावों व धुनों से खेलते हैं, गायक गीतों को आम आदमी के गुनगुनाने वाले गानों में बदलते हैं। अब तो इवेन्ट प्रबंधन के कई व्यवसायी संस्थान इन कार्यक्रमों का दायित्व लेते हैं। दांडियां व गरबा जिस प्रकार गुजरात से निकलकर पूरे देश में प्रचलित हो रहा है यह इस बात का द्योतक है कि आम भारतीय उत्सव प्रिय है व समारोहों में स्वप्रेरणा से सहभागिता करने का उसे शौक है। ऐसा इसलिए है कि हर त्यौहार व पूजन का कहीं न कहीं आम आदमी से जीवन की अपेक्षाओं से संबंध है। हर त्यौहार का कोई न कोई सामाजिक उद्देश्य भी है जो कहीं न कहीं इतिहास और परम्पराओं से भी जुड़ता है। जहां होली पूरे समाज को एक रस करती है उसमें सत्य की विजय का भी भाव है। दशहरा समाज की विध्वंसकारी शक्तियों के नाश का द्योतक है और दिवाली परिवारों में वापसी का त्यौहार।
इन सभी त्यौहारों का संबंध भूतकाल में होते हुए भी इनकी प्रासंगिकता वर्तमान की परिस्थितियों से भी है। हजारों या सैकड़ों वर्ष पूर्व समाज में जो घटा उससे मिलता जुलता आज के समाज में भी हो रहा है। दशरथ के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए रावण ने वनों में आश्रमों पर आक्रमण करने के लिए अपने साथियों को भेजा, जिससे दशरथ के राज्य का संबंध उन ऋषि- मुनियों से टूट जाए जहां से राज्य की नीतियों का निर्धारण होता था। आज का आतंकवाद और माओवाद भी इसी श्रेणी में आते हैं। विश्वामित्र सरीखे न तो बुद्धिजीवी आज हैं और न ही अपने प्रिय पुत्रों को राक्षसों के संहार के लिए भेजने का का साहस करने वाले प्रशासक। वास्तव में तो संकल्प शक्ति ही नहीं है। विजयादशमी को आतंक के विरोध में दृढ़ संकल्प का रूप दिया जा सकता है। ऐसा करने से समाज का सहयोग देश के अंदर की अराष्ट्रीय शक्तियों से निपटने के लिए किया जा सकता है। केवल भावनात्मक संवेदनाओं को पुनः परिभाषित करने की आवश्यकता है।इसी प्रकार होली को सामाजिक समरसता के उत्सव के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास होना चाहिए जिससे कि जाति, वर्ण व गरीबी अमीरी का भेद मिटकर समाज राष्ट्र बोध के रंग में ही रंग जाए। पश्चिम व कई अन्य प्रभावों के कारण आज देश में परिवारों का विघटन हो रहा है और सामाजिक भीड़ में व्यक्ति अकेला होता जा रहा है। सर्वमान्य है कि यह समाज के लिए घातक है। करवाचौथ, रक्षाबंधन व भाईदूज जैसे त्यौहार है जिनको फिर से परिवार, विशेषकर संयुक्त, परिवार की स्थापना के लिए प्रयोग किया जा सकता है। रोजे व नवरात्र व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास के साधन हैं, उन्हें इस रूप में और प्रचारित करने की भी आवश्यकता है। स्वतंत्रता दिवस व गणतंत्र दिवस राष्ट्र के प्रति बार-बार समर्पण के त्यौहार होने चाहिए जहां व्यक्ति प्रान्त और क्षेत्र से ऊपर उठकर राष्ट्र की सोच से जुड़े। गांधी जयंती के दिन समाज अहिंसा का पाठ तो पढ़े ही, परन्तु गांधी द्वारा स्वदेशी के आग्रह को वैश्वीकरण के संदर्भ में व्यवहारिक रूप में लाने की प्रेरणा भी ले। त्यौहारों के इस देश में उत्सव न केवल सामाजिक परिवर्तन के द्योतक है परन्तु वे सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक विकास के साधन भी हैं। करोड़ों के विज्ञापनों के द्वारा जो मानसिक परिवर्तन नहीं हो पाता है वह इन त्यौहारों के माध्यम से सहज ही होगा। इस बात के प्रमाण भी हैं, देश के पश्चिमी भाग में गणेश पूजन के कारण सामाजिक क्रांति लाई गई थी। राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय मार्केटिंग के प्रयास इन त्यौहारों में बखूबी होते है और वस्तुओं व सेवाओं को बेचने का काम प्रभावी रूप से होता है। यदि ये व्यापारिक कार्य हो सकता है तो सामाजिक कार्य इन त्यौहारों के माध्यम से अवश्य ही हो सकता है। केवल मन बनाकर योजनाबद्ध प्रयास करने की आवश्यकता है।
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के कुलपति हैं)

संपर्कः कुलपति, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, प्रेस काम्पलेक्स, एमपी नगर, भोपाल (मप्र)

प्रियदर्शन फूहड़ कॉमेडी क्यों बनाते हैं?


-शिशिर सिंह
MAMC III SEM
भोपाल,20 अक्टूबर

प्रियदर्शन फूहड़ कॉमेडी क्यों बनाते हैं? ‘आक्रोश’ देखने के बाद सबसे पहला सवाल दिमाग में यही आया। ‘ऑनर किलिंग’ जैसे ज्वलंत एवं संवेदनशील विषय को उन्होंने जिस बेहतरीन तरीके से प्रस्तुत किया है, वह काबिल-ए-तारीफ है। कहा जाता है कि फिल्म को देखते वक्त हम खुद को पर्दे पर जीते हैं। रोमांटिक फिल्में इसीलिए लोगों को छू जाती है। फिल्मों में अभिनेताओं और अभिनेत्री को प्यार रोमांस करता देख व्यक्ति खुद जो रुमानियत महसूस करता है। आक्रोश देखते वक्त प्यार करने वालों को इससे पैदा हो सकने वाले सम्भावित खतरों का अहसास हो जाएगा। वह अहसास जिसे देखकर शायद वह एक बार घबरा भी जाएं।
सच बात यह है कि अखबार एवं पत्र-पत्रिकायों में ‘ऑनर किलिंग’ की खबरें पढ़कर इसकी भयावहता का पता नहीं चलता, उल्टा हम इसे टाल जाते हैं, पर फिल्म देखकर महसूस होता है कि कितनी भयानक समस्या है ‘ऑनर किलिंग’। मालूम चलता है क्या होता है एक ‘बन्द समाज’ में। ऐसे समाज में कानून की पुस्तक को ठीक उसी छुपाकर रखा जाता है, जैसे कोई लड़का अपने घर में अश्लील साहित्य छुपा कर रखता है। फिल्म की कहानी की बात की जाए तो कहानी कोई ज्यादा जटिल नहीं है। दिल्ली में मेडिकल की पढ़ाई करने वाले तीन छात्र अचानक गायब हो जाते हैं, वह बिहार के एक गाँव झांझण गए हुए थे। दिल्ली में बढ़ते राजनीतिक दबाब के कारण मामले की जाँच सीबीआई को सौंप दी जाती है। यह कमान दी जाती है, एक अनुभवी सीबीआई ऑफिसर सिद्धांत चतुर्वेदी (अक्षय खन्ना) और एक सेना के ऑफिसर प्रताप कुमार (अजय देवगन) को। फिर शुरू होती है इनकी और झाँझण ग्रामवासियों की समस्याओं की शुरुआत। ऑफिसर्स पर हमले, साथ देने वालों की हत्यायें आदि-आदि। इन सबके पीछे मास्टरमांइड है पुलिस आफिसर अजातशत्रु (परेश रावल)। फिल्म में बिपाशा बसु को छोड़कर सब पर उनके किरदार फबे हैं। बिपाशा बसु एक ऐसी औरत की भूमिका में बिल्कुल फिट नहीं बैठती है, जो घर में अपने पति से सबके सामने बेरहमी से मार खा सकती है।
सबसे ज्यादा तारीफ जिसके काम की करनी चाहिए वह है फिल्म के सिनमेटोग्राफर ‘थिरु’ का। थिरु ने कमाल का काम किया है।
फिल्म कहीं भी बोर नहीं करती है। कुछ जगहों पर दृश्यों में काफी अतिरेकता की गई है, खासकर एक्शन मार-धाड़ आदि के सन्दर्भ में। एक्शन की जिम्मेदारी सम्हाले आरपी यादव व त्याग राजन से भरपूर काम करवाया गया है। सीधी सरल बात यह है कि फिल्म देखने लायक है। खासकर मीडिया छात्रों को तो यह फिल्म देख ही लेनी चाहिए।

Friday, October 15, 2010

क्या हूँ मैं…….



Annie Ankita
MAMC III SEM
15 अक्टूबर

क्या हूँ मैं ..........
मैं भी नहीं जानती
हूँ मैं मोम की गुड़िया
पल में पिघल जाती हूँ...
कभी लगता है....
चट्टान सी हूँ मैं कठोर....
जिसे कोई हिला नहीं सकता..
आखिर क्या हूँ मैं....
मैं भी नही जानती..

दुनिया से लड़ने की ताकत रखती हूँ मैं
कभी दुनिया की कुछ बातों से ही डर जाती हूँ...
चाँदनी की तरह हूँ मैं शीतल या....
सूरज की किरणों की तरह तेज
आखिर क्या हूँ मैं....
मैं भी नही जानती..

Thursday, October 14, 2010

बेहतर शासन के लिए जरूरी है सकारात्मक संचार : प्रो. कुठियाला


एमआईटी स्कूल आफ गर्वमेंट के छात्रों ने किया पत्रकारिता विश्वविद्यालय का भ्रमण

भोपाल 14 अक्टूबर। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला का कहना है कि समाज को अगर सकारात्मक दिशा देनी है तो जरुरी है कि शासन और संचार दोनों की प्रकृति भी सकारात्मक हो। मीडिया और शासन समाज के दिशावाहकों में से एक हैं। इसलिए इनको अपने व्यवहार और कार्यप्रणाली में सकारत्मकता रखना बेहद जरुरी है।
वे यहां विश्वविद्यालय परिसर में शैक्षणिक भ्रमण के अन्तर्गत भोपाल आए पुणे स्थित एमआईटी स्कूल ऑफ गर्वमेंट के विद्यार्थियों को सम्बोधित कर रहे थे। प्रो. कुठियाला ने छात्रों को मीडिया की मूलभूत जानकारी देते हुए कहा कि दोनों संस्थानों का मूल उद्देश्य समान है, जहाँ एमआईटी का उद्देश्य बेहतर शासन प्रणाली के लिए अच्छे राजनेता पैदा करना है, वहीं पत्रकारिता विश्वविद्यालय का उद्देश्य केवल पत्रकार बनाना नहीं बल्कि विद्यार्थियों को अच्छा संचारक बनाना भी है। ताकि वे समाज के मेलजोल और सदभाव के लिए काम करें। प्रो. कुठियाला ने विश्वविद्यालय की कार्यप्रणाली, उद्देश्य एवं लक्ष्यों के बारे में भी विद्यार्थियों को अवगत कराया। एक प्रश्न के जबाब में उन्होंने कहा व्यवसायीकरण और व्यापारीकरण में अन्तर पहचानना बेहद जरूरी है। किसी भी वस्तु या सेवा के व्यवसायीकरण में बुराई नहीं है, समस्या तब शुरू होती है जब उसका व्यापारीकरण होने लगता है। वर्तमान मीडिया, इसी स्थिति का शिकार है। संवाद पर आधारित इस क्षेत्र का इतना व्यापारीकरण कर दिया गया है कि सूचना अब भ्रमित करने लगी है, उकसाने लगी है। उन्होंने कहा कि वर्तमान समय में मीडिया की जिम्मेदारी केवल मीडिया के लोगों पर छोड़ना ज्यादती होगी, इसलिए जरूरी है कि समाज के अन्य वर्ग भी मीडिया से जुड़ी अपनी जिम्मेदारी समझे एवं निभाएं। कार्यक्रम के प्रारंभ में एमआईटी, पुणे के छात्रों ने अंगवस्त्रम और प्रतीक चिन्ह देकर प्रो. कुठियाला का स्वागत किया। इस अवसर पर विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी , जनसंपर्क विभाग के अध्यक्ष डॉ. पवित्र श्रीवास्तव, डा. जया सुरजानी, गरिमा पटेल एवं कई शिक्षक उपस्थित रहे। संचालन एमआईटी संस्थान की शिक्षिका सीमा गुंजाल एवं आभार प्रदर्शन एमआईटी के ओएसडी संकल्प सिंघई ने व्यक्त किया।
(डा. पवित्र श्रीवास्तव)

अमेरिका की कृपा मंहगी पड़ेगी


पंकज साव
MAMC III SEM

भोपाल,14 अक्टूबर
संयुक्त राज्य अमेरिका के एक शीर्ष सैन्य अधिकारी के अनुसार, अगर पाकिस्तान ने आतंकी ठिकाने नष्ट नहीं किए तो अमेरिकी सेना पाकिस्तान की ही सेना की मदद लेकर उन ठिकानों पर हमला कर देगी। अब तक तो सिर्फ हवाई हमले हो रहे हैं, जमीनी लड़ाई भी शुरू की जा सकती है। किसी एशियाई देश को इतनी धमकी दे देना अमेरिका के लिए कोई नई बात नहीं है, लेकिन इसे हल्के में लेना पाक की भूल होगी। इसके खिलाफ कोई तर्क देने से पहले हमें ईराक और अफगानिस्तान की मौजूदा हालत की ओर एक बार देख लेना चाहिए।

इस मामले में पाक विदेश मंत्री रहमान मलिक का पिछले दिनों दिया गया बयान उल्लेखनीय है। रहमान ने कहा था- “नाटो बलों की हमारे भूभाग में हवाई हमले जैसी कार्रवाई संयुक्त राष्ट्र की उन दिशानिर्देशों का स्पष्ट उलंघन है जिनके तहत अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा सहायता बल काम करता है।” पूरी दुनिया जानती है कि अमेरिका अंतरराष्ट्रीय नियमों को कितना मानता है। ये अलग बात है कि उसने प्रोटोकॉल को मानने का वादा भी कर दिया है अमेरिका ने, इस शर्त के साथ कि सेना को आत्मरक्षा का अधिकार है।


दोनों तरफ की बयानबाजी को देखकर एक बात साफ हो जाती है कि ईराक और अफगानिस्तान के बाद अब अमेरिका की हिटलिस्ट में पाकिस्तान का नंबर है। तेल के पीछे पागल अमेरिका ने सद्दाम हुसैन के बहाने ईराक पर हमले किए। उसी तरह 9/11 के हमलों नें उसे अफगानिस्तान पर हमले के लिए तर्क तैयार किए और अब आर्थिक मदद दे देकर पाक को इतना कमजोर और परनिर्भर बना दिया है कि आज वह कोई फैसला खुद से लेने के काबिल नहीं रहा। जहाँ तक बात आतंकवाद के खात्मे की है तो यूएस ने ही लादेन और सद्दाम को पाला था जो आस्तीन के साँप की तरह उसी पर झपटे थे। इसके बाद पाकिस्तान में पल रहे आतंकियों को भी अप्रत्यक्ष रूप से उसने सह ही दी। शायद, इसके पीछे उसकी मंशा भारत और पाक के बीच शक्ति-संतुलन की थी ताकि अपना उल्लू सीधा किया जा सके। समय- समय पर उसने खुले हथियार भी मुहैया कराए। अमेरिकी जैसे धुर्त देश से भोलेपन की आशा की करना बेवकूफी है। उससे प्राप्त हो रही हर प्रकार की सहायता का मनमाना दुरुपयोग पाकिस्तान भारत के खिलाफ करता रहा और आतंकिवादियों की नर्सरी की अपनी भूमिका पर कायम रहा। यह उसकी दूरदर्शिता की कमी उसे इस मोड़ पर ले आई है कि उसके पड़ोसी देश भी उसके साथ नहीं हैं और अमेरिका की धमकियों के आगे उसे नतमस्तक होना पड़ रहा। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी जब अमेरिका सच में वहाँ जमीनी लड़ाई पर उतर आएगा और वहाँ की आम जनता भी पाक सरकार के साथ खड़ी नहीं होगी। अपने निर्माण के समय से ही वहाँ की जनता अराजकता झेलती आ रही है। कुल मिलाकर एक और इस्लामिक देश एक खतरे में फँसता जा रहा है जहाँ न वो विरोध कर सकेगा और न ही अंतरराष्ट्रीय समुदाय की सहानुभूति ही हासिल कर पाएगा। विश्व में इसकी छवि एक आतंकी देश के रूप में बहुत पहले ही बन चुकी है।



Wednesday, October 13, 2010

कला आलोचना में व्यापक संभावनाएं : मनीष



भोपाल 13 अक्टूबर।
रजा फेलोशिप से सम्मानित अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त चित्रकार मनीष पुष्कले का कहना है कि भारत में कला एवं सांस्कृतिक समीक्षा का स्तर दुनिया के तमाम देशों के मुकाबले काफी पिछड़ा हुआ है। भारत में आलोचना केवल रिपोर्ताज तक ही सीमित है, इस कारण भारत में अच्छे आलोचकों एवं समीक्षकों की कमी है। श्री पुष्कले बुधवार को माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंपर्क विभाग द्वारा ’व्यावसायिक संचार का सौंदर्यशास्त्र’ विषय पर एक सेमीनार को संबोधित कर रहे थे।
उन्होंने छात्रों से कहा कि वे कला आलोचना के प्रति अपनी समझ विकसित करें और इस क्षेत्र में आगे आएं, क्योंकि इस क्षेत्र में असीम सम्भावनाएं हैं। पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र रहे मनीष पिछले बीस सालों से कला के क्षेत्र में सक्रिय हैं अपने छात्र जीवन को याद करते हुए उन्होंने कहा कि पत्रकारिता विश्वविद्यालय के परिसर ने उन्हें बहुत कुछ सिखाया है। मनीष पुष्कले के चित्रों की 500 से ज्यादा प्रदर्शनियां लग चुकी हैं। भारत के अलावा 55 अन्य देशों में भी उनके चित्रों की प्रदर्शनी हो चुकी है। मनीष ने पढ़ाई के दौरान विश्वविद्यालय में बिताए गए समय के अनुभवों को छात्रों के साथ बांटा, उन्होंने कहा कि इसके चलते वह भाषा के प्रति अपनी एक नई नजर और बेहतर समझ विकसित कर पाए, जिससे उनकी भाषा को मजबूती मिली। उन्होंने कहा कि भाषा का चित्रों की अभिव्यक्ति में काफी अहम योगदान रहता है। उन्होंने छात्रों से कहा कि वह भाषा का सिर्फ एक योग्यता तक सीमित न रखें, बल्कि वह भाषा के प्रति श्रद्धा भी रखें। मनीष का कहना था कि हमारी देश में भाषा का इतिहास काफी गौरवशाली रहा है, हमारे देश ने चार धर्म दिए हैं, कई महाकाव्य दिए हैं। उन्होंने भाषा में नई सम्भावनाओं को तलाशने पर जोर दिया। साहित्य को उन्होंने वैचारिक शक्ति व भाषाई समझ विकसित करने वाला माध्यम बताया। छात्रों को प्रोत्साहित करते हुए उन्होंने कहा कि वे जीवन की आपाधापी में अपने सपनों को देखना बन्द न करें बल्कि उसको जीने की कोशिश करें। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए पत्रकारिता विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो. कमल दीक्षित ने कहा कि अपने छात्रों को ऊंचाईयाँ छूते देख उन्हें काफी खुशी होती है। इस दौरान विश्वविद्यालय के शिक्षक व बड़ी संख्या में छात्र-छात्राएं मौजूद रहे। संचालन जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी एवं आभार जनसंपर्क विभाग के अध्यक्ष डॉ. पवित्र श्रीवास्तव ने व्यक्त किया।

Tuesday, October 12, 2010

Media’s involvement in Ayodhya verdict and Commonwealth Games




Nitisha Kashyap
MAMC III SEM
Bhopal, 12oct2010

Media, as we all know, plays a very crucial role in making opinions and propagating messages. We have two cases in which media’s participation have been contradictory.
The first case is the Ayodhya verdict. After more than a decade’s wait the historic Ayodhya verdict came on September 30. Like the year 1992, this time too there was maximum probability of riots. Much havoc were created by the anti-social elements and the media forgetting its social responsibility were dogging them. Similar coverage was done with the 26/11 Mumbai terrorist attack case. It had raised a lot of questions (which all of us are well aware of). This time, as Shailja Bajpai of Indian Express opines, media did take lessons from 26/11. The panic creation was null. In fact news channels like CNN-IBN, NDTV 24×7, NDTV India started a campaign where we saw celebrities requesting and appealing for communal harmony. Apart from the news channels, we also saw newspapers appealing for peace. There were articles related to communal harmony and version of various religious leaders/preachers asking for peace. Media having greater and immediate impact on public did not go for the oversimplification and over interpretation of the verdict. In fact they said that it is a very “secular” verdict. Kudos to media.
But when we talk about media’s coverage of Commonwealth Games, we do not see an iota’s positive ness. Media has been very critical about the Commonwealth Games. Each and every thing has been criticized. Media’s exclusive stories about the games village are disappointing. I am not of the view that media should not expose the conditions but in a particular manner. Daily in the morning when you pick your newspaper or switch over to various news channels the only news for people were the stories of CWG ‘s bad progress. Those news could have been in the inner pages of the newspapers. (Well i’m a novice to comment on this). No wonder the foreign media is also criticizing. The Australian media telecasted a fake sting operation showing the “ill security” inside the CWG village. Though that news was later criticised by ABC(Australian Broadcasting Cooperation). Apart from showing the ill-functioning they could have shown the hard work that they have put. I’m not talking of the CWG’s management or the corruption (it will involve an incessant debate). There were many things to highlight apart from the ill functioning. Commonwealth Game will reflect our image in the international market.

In Ayodhya verdict case media was successful in developing a positive image and response but just the opposite happened with the coverage of Commonwealth Games.

Sunday, October 10, 2010

संजय सर के सम्मान समारोह की झलकियां-1


भोपाल,10 अक्टूबर। मध्यप्रदेश के राज्यपाल रामेश्वर ठाकुर ने रविवार को भोपाल स्थित हिंदी भवन के सभागार में आयोजित समारोह में युवा पत्रकार एवं लेखक संजय द्विवेदी को उनकी नई किताब ‘मीडियाः नया दौर- नई चुनौतियां’ के लिए इस वर्ष के वाड्.मय पुरस्कार से सम्मानित किया।

संजय सर के सम्मान समारोह की झलकियां-2

संजय सर के सम्मान समारोह की झलकियां-3

वाड्.मय पुरस्कार से नवाजे गए संजय सर


मध्यप्रदेश के राज्यपाल रामेश्वर ठाकुर ने किया सम्मान

भोपाल,10 अक्टूबर। मध्यप्रदेश के राज्यपाल रामेश्वर ठाकुर ने रविवार को भोपाल स्थित हिंदी भवन के सभागार में आयोजित समारोह में युवा पत्रकार एवं लेखक संजय द्विवेदी को उनकी नई किताब ‘मीडियाः नया दौर- नई चुनौतियां’ के लिए इस वर्ष के वाड्.मय पुरस्कार से सम्मानित किया। स्व. हजारीलाल जैन की स्मृति में प्रतिवर्ष किसी गैर साहित्यिक विधा पर लिखी गयी किताब पर यह पुरस्कार दिया जाता है।
मध्य प्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति द्वारा आयोजित इस सम्मान समारोह की अध्यक्षता प्रदेश के नगरीय विकास मंत्री बाबूलाल गौर ने की और विशिष्ट अतिथि के रूप में सांसद रधुनंदन शर्मा मौजूद थे। कार्यक्रम के प्रारंभ में स्वागत भाषण समिति के अध्यक्ष रमेश दवे ने किया और आभार प्रदर्शन कैलाश चंद्र पंत ने किया। संजय की यह किताब यश पब्लिकेशन, दिल्ली ने छापी है और इसमें मीडिया के विविध संदर्भों पर लिखे उनके लेख संकलित हैं। सम्मान समारोह में वितरित पुस्तिका में कहा गया है कि- “वर्ष 2010 में प्रकाशित इस कृति में लेखक के आत्मकथ्य सहित 27 लेख हैं। इन लेखों में प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया की दशा व दिशा का आज के बाजारवाद के परिप्रेक्ष्य में विशद् तार्किक विवेचन किया गया है। पुस्तक के लेखक संजय द्विवेदी स्वयं पत्रकारिता को जी रहे हैं, इसलिए पुस्तक के लेखों में विषय की गहराई, सूक्ष्मता और अनुभवपरकता तीनों मौजूद है। पुस्तक मीडिया से जुड़े कई अनदेखे पृष्ठ खोलने में सफल है।” श्री द्विवेदी अनेक प्रमुख समाचार पत्रों के अलावा इलेक्ट्रानिक और वेबमीडिया में भी महत्वपूर्ण पदों पर काम कर चुके हैं। उनकी अब तक आठ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं और छः पुरस्कार भी मिल चुके हैं। संप्रति वे माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं।

पुस्तक परिचयः
पुस्तक का नामः मीडियाः नया दौर नई चुनौतियां
लेखकः संजय द्विवेदी
प्रकाशकः यश पब्लिकेशन्स, 1 / 10753 सुभाष पार्क, गली नंबर-3, नवीन शाहदरा, नीयर कीर्ति मंदिर, दिल्ली-110031, मूल्यः 150 रुपये मात्र

संजय सर हुए सम्मानित


भोपाल,10 अक्टूबर,2010। जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी सर का सम्मान करते हुए मप्र के राज्यपाल रामेश्वर ठाकुर। साथ में हैं मप्र सरकार के नगरीय विकास मंत्री बाबूलाल गौर, सांसद रधुनंदन शर्मा, कैलाशचंद्र पंत और प्रो. रमेश दवे।

Saturday, October 9, 2010

चैटिंग से चौपट



हाल ही में किए गए एक अध्ययन में पता चला है फेसबुक जैसी साइटों पर ज्यादा वक्त बिताने वाले बच्चे पढ़ाई में पिछड़ जाते हैं और उन्हें अन्य बच्चों की तुलना में 20 फीसदी कम अंक प्राप्त होते हैं। ये आंकड़े ब्रिटेन के हैं, लेकिन इससे भारत के विद्यार्थियों को भी सचेत हो जाना चाहिए। इंटरनेट और तमाम नेटवर्किंग साइटें तभी उपयोगी हैं, जब उन्हे मनबहलाव या चैटिंग से ज्यादा शिक्षा के साधन की तरह उपयोग किया जाय। सर्च इंजिनों का सही इस्तेमाल करने वाले बच्चे कक्षा में पिछड़ नही सकते। अति हर चीज की बुरी होती है और बेकार की सूचनाओं की अति तो निश्चित ही बुरी है।
साभार दैनिक भाष्कर

For beautiful ladies…………..


Saket narayan
Bhopal, oct 9, 2010
Ladies and beauty tips are like two opposite polls of magnet, wherever they are, they will come closer and closer to each other. God knows for till date no scientist has found that there must be some special type of hormone in women for their beauty conscious nature.
Thinking of a topic to write which would be read by maximum people I decided to attract the beauty conscious gender and decided to write about the beauty tips for beautiful ladies. Now everyone will say that why have I written this for beautiful ladies only, then the reason is that every lady wish to look and be complimented beautiful. Now I need to talk some useful and related things to my subject. But before that let me clarify that I m not a professional, so before trying any tips do consult a beautician, or you will be solely responsible for the undesired and ugly outcome.
If the young ladies are facing the problem of loosening of skin then you must try Elovera Jel on your face. The girls considering themselves inferior because of dark complex and wish to become fair need to use Scrub regularly. Ladies small eyes can use this to give a big look to their eyes. These ladies need to use eyeliner on their eyelid and apply light color eye shadow on their eyelid. As tip is monsoon season then women getting ready for party should remember to apply waterproof make up. In this season light shade make up should be preferred. Ladies with oily skin should avoid using foundation in monsoon season, at this time they should go for compact powder. For the ladies with dry skin the tips are use nourishing cream or do masaj with pure Badam Oil. Girls with dark or black color of lips should make a paste of milk and kesar and apply it on their lips.
I think these many tips are sufficient for the time being. Now it’s your part of job to try it and make my effort worth successful. Hope these tips will prove to be beneficial for you all beautiful ladies at every corner of the earth, but sorry unfortunately the earth is round…………..

Thursday, October 7, 2010

अयोध्या की समस्या के मूल में संवादहीनता


- प्रो. बृज किशोर कुठियाला
इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खण्डपीठ ने राम जन्मभूमि का जो निर्णय दिया उससे पूरे देश की जनता ने राहत की सांस ली है। फैसले से पूर्व का तनाव सभी के चेहरों और व्यवहार में था। परन्तु इस राहत के बाधित होने की संभावनाएं बनती नज़र आ रही हैं। 60 वर्ष से अधिक की नासमझी और विवेकहीनता के कारण एक छोटा सा विवाद पहाड़ जैसी समस्या बन गया है। उसी तरह की विवेकहीनता यदि आज भी रही तो सुलझी हुई समस्या फिर से उलझ जाएगी। कारण अनेक हो सकते हैं, परन्तु एक मुख्य कारण हमारे राष्ट्रजीवन में बढ़ती हुई संवादहीनता है। उच्च न्यायालय के निर्णय से तीन मुख्य पक्ष उभर कर आये हैं। एक पक्ष ने उच्चतम न्यायालय जाने की घोषणा की है। देश से अनेक प्रतिक्रियाएं आई हैं। परन्तु एक भी प्रतिक्रिया में यह सुझाव नहीं है तीनों पक्ष आपस में वार्ता करे। प्रधानमंत्री, केन्द्रीय गृहमंत्री और प्रदेश के मुख्यमंत्री तीनों की मुख्य जिम्मेदारी बनती है, उनमें से किसी ने भी न तो संवाद बनाने का प्रयास किया न ही संवाद का सुझाव दिया।
प्रबंधन शास्त्र का एक मूलभूत सिद्धान्त है कि समुचित संवाद से संस्थाओं और समूहों का स्वास्थ्य सुन्दर बना रहता है। छोटी-बड़ी संस्थाओं के लिए न केवल मिशन और उद्देश्यों के निर्धारण में वार्ता के महत्व को बताया गया है परन्तु तत्कालीन उद्देश्य भी यदि चर्चाओं के कारण आम सहमति से बने तो संस्थाएं विकासोन्मुख होती है। राष्ट्र जैसी सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक व्यवस्था में भी संवाद की अनिवार्यता सर्वमान्य है। परन्तु दुर्भाग्य यह है कि हमारे देश में औपचारिक य अनौपचारिक संवाद शून्य से थोड़ा ही अधिक है। यही कारण है कि छोटी-छोटी समस्याएं विकराल रूप ले लेती हैं। उदाहरण के लिए कश्मीर घाटी के मुसलमानों और उसी घाटी से विस्थापित कश्मीरी पंडितों के बीच पूर्ण संवादहीनता है। माओवादियों और सरकार के बीच वार्ता के छूट-मुट प्रयासों में कोई गंभीरता नज़र नहीं आती। यहा तक की देश को चलाने वाली मुख्य राजनीतिक पार्टियों में अधिकतर संवाद संसद और विधानसभाओं में ही बनता है जहां कोशिश एक दूसरे के दोष ढूंढने की होती है, न की वार्ता के द्वारा समस्याओं का हल ढूंढने की।
अयोध्या का मसला भी संवादहीनता का ही परिणाम है। मुगलों के कार्यकाल में ढांचा बनाते समय स्थानीय लोगों से वार्ता नहीं की। अयोध्या के मुस्लिमों और हिन्दुओं में इस विषय पर वार्ता का कोई दृष्टान्त नहीं है। अग्रेंजों ने जो वार्ताएं की वे समस्या को सुलझाने की नहीं थी बल्कि एक पक्ष के मन में दूसरे के प्रति बैर-भाव को बढ़ाने की थी। 1949 में मूर्तियां रखने में कोई वार्ता नहीं हुई। ताला लगाने और ताला खोलने के समय संबंधित पक्षों से परामर्श नहीं हुआ। एक समय ऐसा भी आया जब सारा देश अयोध्या की बात कर रहा था परन्तु सभी अपना-अपना बिगुल बजा रहे थे। सरकारी तौर पर कुछ वार्ताओं के नाटक तो हुए परन्तु कुल मिलाकर ऐसा परामर्श जिससे उलझन को मिटाना ही है, कभी नहीं हुआ। ढांचा गिरने के बाद भी विषय संबंधित शोर बहुत हुआ परन्तु संवाद शून्य रहा।
अन्य समस्याओं की तरह अयोध्या विषयक समाचार, विश्लेषण, टिप्पणियां और चर्चाएं मीडिया में अनेक आईं परन्तु उनके कारण से समाज में कोई संवाद बना हो ऐसा नहीं हुआ। टेलीविजन पर हुई चर्चाएं एक ओर तो पक्षधर होती है दूसरी ओर वार्ताओं में मतप्रकटीकरण और विवाद बहुत होता है परन्तु ऐसी कोई चर्चा नहीं होती जिसके अन्त में सभी एक मत होकर समस्या के हल की ओर चलते हों। ऐसा एक भी उदाहरण नहीं मिलता है जब टेलीविजन की वार्ता में किसी ने माना हो कि वह गलत था और उस चर्चा के परिणामस्वरूप अपना मत परिवर्तन करेगा। प्रबंधन शास्त्र में दिये गये चर्चा के द्वारा आम सहमति बनाने के संभी सिद्धान्तों की मीडिया में अवेहलना होती है। शंकराचार्य के वर्गीकरण के अनुसार टेलीविजन की चर्चाएं न तो संवाद हैं, न ही वाद-विवाद वे तो वितण्डावाद का साक्षात उदाहरण हैं।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अत्यन्त विवेकपूर्ण व व्यावहारिक फैसला देकर यह सिद्ध किया है कि देश की न्यायापालिका कम से कम समस्याओं का समाधान सुझाने में तो सक्षम है। परन्तु दिए गए सुझावों का क्रियान्वयन तो मुख्यतः केन्द्र सरकार को और कुछ हद तक राज्य सरकार को और देखा जाए तो सभी राजनीतिक दलों को करना है। निर्णय के बाद की प्रतिक्रियाओं से स्पष्ट होता है कि ऐसा प्रयास होने वाला नहीं है। जैसे कबूतर बिल्ली को देखकर आंख मूंद लेता है मानों बिल्ली है ही नहीं वैसे ही केन्द्र सरकार ने यह मन बना लिया है कि उच्चतम न्यायालय की शरण में ही किसी न किसी पक्ष को जाना है और कोई भी कार्यवाही करने के लिए तुरन्त कुछ करना नहीं है। क्या राष्ट्र की चिति इतनी कमजोर है कि तीनों पक्षों को बिठाकर आम सहमति न बन सके। संवाद शास्त्र का भी सिद्धान्त है कि संवादहीनता अफवाहों व गलतफहमियों को जन्म देती है जिससे संबंध खराब होते हैं और परिणामस्वरूप नई समस्याएं जन्म लेती है और पुरानी और उलझती है। इसी सिद्धान्त का दूसरा पहलू यह भी है ऐसी कोई समस्या नहीं है जिसे संवाद से सुलझाया न जा सके। इसलिए न केवल संवाद होना चाहिये परन्तु संवाद में ईमानदारी और समाजहित भी निहित होना चाहिए।
आज देश में ऐसी अनेक प्रयास होने चाहिए जो विभिन्न वर्गों, पक्षों और समुदायों में लगातार संवाद बनाए रखें। संवादशील समाज में समस्याओं की कमी तो होगी परन्तु यदि समस्याएं बनती भी है तो गंभीर और ईमानदार संवाद से उनको अधिक उलझने से बचाया जा सकता है। व्यक्तिगत जीवन में हम संवाद की सहायता से जीवन को आगे बढ़ाते हैं तो राष्ट्रजीवन में भी ऐसा क्यों न करे, क्योंकि सुसंवादित समाज ही सुसंगठित समाज की रचना कर सकता है। देखना यह है कि रामलला, निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी वक्फ बोर्ड को एक मंच पर लाने की पहल कौन करता है।
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के कुलपति हैं)