Wednesday, November 30, 2011

ममता को सराहौं या सराहौं रमन सिंह को

नक्सलवाद के पीछे खतरनाक इरादों को कब समझेगा देश
-संजय द्विवेदी
नक्सलवाद के सवाल पर इस समय दो मुख्यमंत्री ज्यादा मुखर होकर अपनी बात कह रहे हैं एक हैं छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह और दूसरी प.बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी। अंतर सिर्फ यह है कि रमन सिंह का स्टैंड नक्सलवाद को लेकर पहले दिन से साफ था, ममता बनर्जी अचानक नक्सलियों के प्रति अनुदार हो गयी हैं। सवाल यह है कि क्या हमारे सत्ता में रहने और विपक्ष में रहने के समय आचरण अलग-अलग होने चाहिए। आप याद करें ममता बनर्जी ने नक्सलियों के पक्ष में विपक्ष में रहते हुए जैसे सुर अलापे थे क्या वे जायज थे?
मुक्तिदाता कैसे बने खलनायकः आज जब इस इलाके में आतंक का पर्याय रहा किशन जी उर्फ कोटेश्वर राव मारा जा चुका है तो ममता मुस्करा सकती हैं। झाड़ग्राम में ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस में सैकड़ों की जान लेने वाला यह खतरनाक नक्सली अगर मारा गया है तो एक भारतीय होने के नाते हमें अफसोस नहीं करना चाहिए।सवाल सिर्फ यह है कि कल तक ममता की नजर में मुक्तिदूत रहे ये लोग अचानक खलनायक कैसे बन गए। दरअसल यही हमारी राजनीति का असली चेहरा है। हम राजनीतिक लाभ के लिए खून बहा रहे गिरोहों के प्रति भी सहानुभूति जताते हैं और साथ हो लेते हैं। केंद्र के गृहमंत्री पी. चिदंबरम के खिलाफ ममता की टिप्पणियों को याद कीजिए। पर अफसोस इस देश की याददाश्त खतरनाक हद तक कमजोर है। यह स्मृतिदोष ही हमारी राजनीति की प्राणवायु है। हमारी जनता का औदार्य, भूल जाओ और माफ करो का भाव हमारे सभी संकटों का कारण है। कल तक तो नक्सली मुक्तिदूत थे, वही आज ममता के सबसे बड़े शत्रु हैं । कारण यह है कि उनकी जगह बदल चुकी है। वे प्रतिपक्ष की नेत्री नहीं, एक राज्य की मुख्यमंत्री जिन पर राज्य की कानून- व्यवस्था बनाए रखने की शपथ है। वे एक सीमा से बाहर जाकर नक्सलियों को छूट नहीं दे सकतीं। दरअसल यही राज्य और नक्सलवाद का द्वंद है। ये दोस्ती कभी वैचारिक नहीं थी, इसलिए दरक गयी।
राजनीतिक सफलता के लिए हिंसा का सहाराः नक्सली राज्य को अस्थिर करना चाहते थे इसलिए उनकी वामपंथियों से ठनी और अब ममता से उनकी ठनी है। कल तक किशनजी के बयानों का बचाव करने वाली ममता बनर्जी पर आरोप लगता रहा है कि वे राज्य में माओवादियों की मदद कर रही हैं और अपने लिए वामपंथ विरोधी राजनीतिक जमीन तैयार कर रही हैं लेकिन आज जब कोटेश्वर राव को सुरक्षाबलों ने मुठभेड़ में मार गिराया है तो सबसे बड़ा सवाल ममता बनर्जी पर ही उठता है। आखिर क्या कारण है कि जिस किशनजी का सुरक्षा बल पूरे दशक पता नहीं कर पाये वही सुरक्षाबल चुपचाप आपरेशन करके किशनजी की कहानी उसी बंगाल में खत्म कर देते हैं, जहां ममता बनर्जी मुख्यमंत्री बनी बैठी हैं? कल तक इन्हीं माओवादियों को प्रदेश में लाल आतंक से निपटने का लड़ाका बतानेवाली ममता बनर्जी आज कोटेश्वर राव के मारे जाने पर बयान देने से भी बच रही हैं। यह कथा बताती थी सारा कुछ इतना सपाट नहीं है। कोटेश्लर राव ने जो किया उसका फल उन्हें मिल चुका है, किंतु ममता का चेहरा इसमें साफ नजर आता है- किस तरह हिंसक समूहों का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने राजनीतिक सफलताएं प्राप्त कीं और अब नक्सलियों के खिलाफ वे अपनी राज्यसत्ता का इस्तेमाल कर रही हैं। निश्चय ही अगर आज की ममता सही हैं, तो कल वे जरूर गलत रही होंगीं। ममता बनर्जी का बदलता रवैया निश्चय ही राज्य में नक्सलवाद के लिए एक बड़ी चुनौती है, किंतु यह उन नेताओं के लिए एक सबक भी है जो नक्सलवाद को पालने पोसने के लिए काम करते हैं और नक्सलियों के प्रति हमदर्दी रखते हैं।
छत्तीसगढ़ की ओर देखिएः यह स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं कि देश के मुख्यमंत्रियों में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह पहले ऐसे मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने इस समस्या को इसके सही संदर्भ में पहचाना और केंद्रीय सत्ता को भी इसके खतरों के प्रति आगाह किया। नक्सल प्रभावित राज्यों के बीच समन्वित अभियान की बात भी उन्होंने शुरू की। इस दिशा परिणाम को दिखाने वाली सफलताएं बहुत कम हैं और यह दिखता है कि नक्सलियों ने निरंतर अपना क्षेत्र विस्तार ही किया है। किंतु इतना तो मानना पड़ेगा कि नक्सलियों के दुष्प्रचार के खिलाफ एक मजबूत रखने की स्थिति आज बनी है। नक्सलवाद की समस्या को सामाजिक-आर्थिक समस्या कहकर इसके खतरों को कम आंकने की बात आज कम हुयी है। डा. रमन सिंह का दुर्भाग्य है कि पुलिसिंग के मोर्चे पर जिस तरह के अधिकारी होने चाहिए थे, उस संदर्भ में उनके प्रयास पानी में ही गए। छत्तीसगढ़ में लंबे समय तक पुलिस महानिदेशक रहे एक आला अफसर, गृहमंत्री से ही लड़ते रहे और राज्य में नक्सली अपना कार्य़ विस्तार करते रहे। कई बार ये स्थितियां देखकर शक होता था कि क्या वास्तव में राज्य नक्सलियों से लड़ना चाहता है ? क्या वास्तव में राज्य के आला अफसर समस्या के प्रति गंभीर हैं? किंतु हालात बदले नहीं और बिगड़ते चले गए। ममता बनर्जी की इस बात के लिए तारीफ करनी पड़ेगी कि उन्होंने सत्ता में आते ही अपना रंग बदला और नए तरीके से सत्ता संचालन कर रही हैं। वे इस बात को बहुत जल्दी समझ गयीं कि नक्सलियों का जो इस्तेमाल होना था हो चुका और अब उनसे कड़ाई से ही बात करनी पड़ेगी। सही मायने में देश का नक्सल आंदोलन जिस तरह के भ्रमों का शिकार है और उसने जिस तरह लेवी वसूली के माध्यम से अपनी एक समानांतर अर्थव्यवस्था बना ली है, देश के सामने एक बड़ी चुनौती है। संकट यह है कि हमारी राज्य सरकारें और केंद्र सरकार कोई रास्ता तलाशने के बजाए विभ्रमों का शिकार है। नक्सल इलाकों का तेजी से विकास करते हुए वहां शांति की संभावनाएं तलाशनी ही होंगीं। नक्सलियों से जुड़े बुद्धिजीवी लगातार भ्रम का सृजन कर रहे हैं। वे खून बहाते लोगों में मुक्तिदाता और जनता के सवालों पर जूझने वाले सेनानी की छवि देख सकते हैं किंतु हमारी सरकार में आखिर किस तरह के भ्रम हैं? हम चाहते क्या हैं? क्या इस सवाल से जूझने की इच्छाशक्ति हमारे पास है?
देशतोड़कों की एकताः सवाल यह है कि नक्सलवाद के देशतोड़क अभियान को जिस तरह का वैचारिक, आर्थिक और हथियारों का समर्थन मिल रहा है, क्या उससे हम सीधी लडाई जीत पाएंगें। इस रक्त बहाने के पीछे जब एक सुनियोजित विचार और आईएसआई जैसे संगठनों की भी संलिप्पता देखी जा रही है, तब हमें यह मान लेना चाहिए कि खतरा बहुत बड़ा है। देश और उसका लोकतंत्र इन रक्तपिपासुओं के निशाने पर है। इसलिए इस लाल रंग में क्रांति का रंग मत खोजिए। इनमें भारतीय समाज के सबसे खूबसूरत लोगों (आदिवासियों) के विनाश का घातक लक्ष्य है। दोनों तरफ की बंदूकें इसी सबसे सुंदर आदमी के खिलाफ तनी हुयी हैं। यह खेल साधारण नहीं है। सत्ता,राजनीति, प्रशासन,ठेकेदार और व्यापारी तो लेवी देकर जंगल में मंगल कर रहे हैं किंतु जिन लोगों की जिंदगी हमने नरक बना रखी है, उनकी भी सुध हमें लेनी होगी। आदिवासी समाज की नैसर्गिक चेतना को समझते हुए हमें उनके लिए, उनकी मुक्ति के लिए नक्सलवाद का समन करना होगा। जंगल से बारूद की गंध, मांस के लोथड़ों को हटाकर एक बार फिर मांदर की थाप पर नाचते-गाते आदिवासी, अपना जीवन पा सकें, इसका प्रयास करना होगा। आदिवासियों का सैन्यीकरण करने का पाप कर रहे नक्सली दरअसल एक बेहद प्रकृतिजीवी और सुंदर समाज के जीवन में जहर घोल रहे हैं। जंगलों के राजा को वर्दी पहनाकर और बंदूके पकड़ाकर आखिर वे कौन सा समाज बनना चाहते हैं, यह समझ से परे है। भारत जैसे देश में इस कथित जनक्रांति के सपने पूरे नहीं हो सकते, यह उन्हें समझ लेना चाहिए। ममता बनर्जी ने इसे देर से ही सही समझ लिया है किंतु हमारी मुख्यधारा की राजनीति और देश के कुछ बुद्धिजीवी इस सत्य को कब समझेंगें, यह एक बड़ा सवाल है।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)

Friday, November 25, 2011

आखिर देश कहां जा रहा है ?


देश के खुदरा बाजार को विदेशी कंपनियों को सौंपना एक जनविरोधी कदम
- संजय द्विवेदी
या तो हमारी राजनीति बहुत ज्यादा समझदार हो गयी है या बहुत नासमझ हो गयी है। जिस दौर में अमरीकी पूंजीवाद औंधे मुंह गिरा हुआ है और वालमार्ट के खिलाफ दुनिया में आंदोलन की लहर है,यह हमारी सरकार ही हो सकती है ,जो रिटेल में एफडीआई के लिए मंजूरी देने के लिए इतनी आतुर नजर आए। राजनेताओं पर थप्पड़ और जूते बरस रहे हैं पर वे सब कुछ सहकर भी नासमझ बने हुए हैं। पैसे की प्रकट पिपासा क्या इतना अंधा और बहरा बना देती है कि जनता के बीच चल रही हलचलों का भी हमें भान न रह जाए। जनता के बीच पल रहे गुस्से और दुनिया में हो रहे आंदोलनों के कारणों को जानकर भी कैसे हमारी राजनीति उससे मुंह चुराते हुए अपनी मनमानी पर आमादा हैं, यह देखकर आश्चर्य होता है.
महात्मा गांधी का रास्ता सालों पहले छोड़कर पूंजीवाद के अंधानुकरण में लगी सरकारें थप्पड़ खाते ही गांधी की याद करने लगती हैं। क्या इन्हें अब भी गांधी का नाम लेने का हक है? हमारे एक दिग्गज मंत्री दुख से कहते हैं “पता नहीं आखिर देश कहां जा रहा है ?” आप देश को लूटकर खाते रहें और देश की जनता में किसी तरह की प्रतिक्रिया न हो, फिर एक लोकतंत्र में होने के मायने क्या हैं ? अहिंसक प्रतिरोधों से भी सरकारें ‘ओबामा के लोकतंत्र’ की तरह ही निबट रही हैं। बाबा रामदेव का आंदोलन जिस तरह कुचला गया, वह इसकी वीभत्स मिसाल है। लोकतंत्र में असहमतियों को अगर इस तरह दबाया जा रहा है तो इसकी प्रतिक्रिया के लिए भी लोगों को तैयार रहना चाहिए।
रिटेल में एफडीआई की मंजूरी देकर केंद्र ने यह साबित कर दिया है कि वह पूरी तरह एक मनुष्यविरोधी तंत्र को स्थापित करने पर आमादा है। देश के 30 लाख करोड़ रूपए के रिटेल कारोबार पर विदेशी कंपनियों की नजर है। कुल मिलाकर यह भारतीय खुदरा बाजार और छोटे व्यापारियों को उजाड़ने और बर्बाद करने की साजिश से ज्यादा कुछ नहीं हैं। मंदी की शिकार अर्थव्यवस्थाएं अब भारत के बाजार में लूट के लिए निगाहें गड़ाए हुए हैं। अफसोस यह कि देश की इतनी बड़ी आबादी के लिए रोजगार सृजन के लिए यह एक बहुत बड़ा क्षेत्र है। नौकरियों के लिए सिकुड़ते दरवाजों के बीच सरकार अब निजी उद्यमिता से जी रहे समाज के मुंह से भी निवाला छीन लेना चाहती है। कारपोरेट पर मेहरबान सरकार अगर सामान्य जनों के हाथ से भी काम छीनने पर आमादा है, तो भविष्य में इसके क्या परिणाम होंगें, इसे सोचा जा सकता है।
खुदरा व्यापार से जी रहे लाखों लोग क्या इस सरकार और लोकतंत्र के लिए दुआ करेंगें ? लोगों की रोजी-रोटी छीनने के लिए एक लोकतंत्र इतना आतुर कैसे हो सकता है ? देश की सरकार क्या सच में अंधी-बहरी हो गयी है? सरकार परचून की दुकान पर भी पूंजीवाद को स्थापित करना चाहती है, तो इसके मायने बहुत साफ हैं कि यह जनता के वोटों से चुनी गयी सरकार भले है, किंतु विदेशी हितों के लिए काम करती है। क्या दिल्ली जाते ही हमारा दिल और दिमाग बदल जाता है, क्या दिल्ली हमें अमरीका का चाकर बना देती है कि हम जनता के एजेंडे को भुला बैठते हैं। कांग्रेस की छोड़िए दिल्ली में जब भाजपा की सरकार आयी तो उसने प्रिंट मीडिया में विदेशी निवेश के लिए दरवाजे खोल दिए। क्या हमारी राजनीति में अब सिर्फ झंडों का फर्क रह गया है। हम चाहकर अपने लोकतंत्र की इस त्रासदी पर विवश खड़े हैं। हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना शायद इसीलिए लिखते है-
‘दिल्ली हमका चाकर कीन्ह,
दिल-दिमाग भूसा भर दीन्ह।’

याद कीजिए वे दिन जब हिंदुस्तान के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अमरीका से परमाणु करार के लिए अपनी सरकार गिराने की हद तक आमादा थे। किंतु उनका वह पुरूषार्थ, जनता के महंगाई और भ्रष्टाचार जैसे सवालों पर हवा हो जाता है। सही मायने में उसी समय मनमोहन सिंह पहली और अंतिम बार एक वीरोचित भाव में दिखे थे क्योंकि उनके लिए अमरीकी सरकार के हित, हमारी जनता के हित से बड़े हैं। यह गजब का लोकतंत्र है कि हमारे वोटों से बनी सरकारें विदेशी ताकतों के इशारों पर काम करती हैं।
राहुल गांधी की गरीब समर्थक छवियां क्या उनकी सरकार की ऐसी हरकतों से मेल खाती हैं। देश के खुदरा व्यापार को उजाड़ कर वे किस ‘कलावती’ का दर्द कम करना चाहते हैं, यह समझ से परे है। देश के विपक्षी दल भी इन मामलों में वाचिक हमलों से आगे नहीं बढ़ते। सरकार जनविरोधी कामों के पहाड़ खड़े कर रही है और संसद चलाने के लिए हम मरे जा रहे हैं। जिस संसद में जनता के विरूद्ध ही साजिशें रची जा रही हों, लोगों के मुंह का निवाला छीनने की कुटिल चालें चली जा रही हों, वह चले या न चले इसके मायने क्या हैं ? संसद में बैठे लोगों को सोचना चाहिए कि क्या वे जनाकांक्षाओं का प्रकटीकरण कर रहे हैं ? क्या उनके द्वारा देश की आम जनता के भले की नीतियां बनाई जा रही हैं? गांधी को याद करती राजनीति को क्या गांधी का दिया वह मंत्र भी याद है कि जब आप कोई भी कदम उठाओ तो यह सोचो कि इसका देश के आखिरी आदमी पर क्या प्रभाव पड़ेगा ? सही मायने में देश की राजनीति गांधी का रास्ता भूल गई है, किंतु जब जनप्रतिरोध हिंसक हो उठते हैं तो वह गांधी और अहिंसा का मंत्र जाप करने लगती है। देश की राजनीति के लिए यह सोचने का समय है कि कि देश की विशाल जनसंख्या की समस्याओं के लिए उनके पास समाधान क्या है? क्या वे देश को सिर्फ पांच साल का सवाल मानते हैं, या देश उनके लिए उससे भी बड़ा है? अपनी झोली भरने के लिए सरकार अगर लोगों के मुंह से निवाला छीनने वाली नीतियां बनाती है तो हमें डा. लोहिया की याद आती है, वे कहते थे- “जिंदा कौमें पांच तक इंतजार नहीं करती। ” सरकार की नीतियां हमें किस ओर ले जा रही हैं, यह हमें सोचना होगा। अगर हम इस सवाल का उत्तर तलाश पाएं तो शायद प्रणव बाबू को यह न कहने पड़े कि “पता नहीं आखिर देश कहां जा रहा है ?”

Thursday, November 24, 2011

विश्वविद्यालय के संस्थापक महानिदेशक के साथ जनसंचार विभाग के छात्र-छात्राएं





देश के जाने माने पत्रकार, ट्रिब्यून-चंढ़ीगढ़ के पूर्व संपादक और माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के प्रथम महानिदेशक (बाद में यह पदनाम कुलपति हुआ) डा. राधेश्याम शर्मा के साथ जनसंचार विभाग के एमए-जनसंचार के विद्यार्थियों ने बातचीत की। श्री शर्मा ने छात्र-छात्राओं के साथ अपने पत्रकार जीवन के अनुभव बांटें और कहा कि पत्रकारिता का काम बहुत जिम्मेदारी व जवाबदेही का है। हमें इस जवाबदेही के धर्म का निर्वहन करना है, इससे ही हमारे पेशे को सार्थकता मिलेगी।

Saturday, November 19, 2011

नेतृत्व ईमानदार हो तो भारत बनेगा सुपरपावरः डा. गुप्त


पत्रकारिता विश्वविद्यालय में “विविधता और अनेकता में एकता के सूत्र” पर व्याख्यान
भोपाल,19 नवंबर। प्रख्यात अर्थशास्त्री व दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक रहे डा. बजरंगलाल गुप्त का कहना है कि भारत को अगर ईमानदार, नैतिक और आत्मविश्वासी नेतृत्व मिले तो देश सुपरपावर बन सकता है। वे यहां माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में "विविधता व अनेकता में एकता के सूत्र" विषय पर आयोजित व्याख्यान में मुख्यवक्ता की आसंदी से बोल रहे थे । उन्होंने कहा कि दुनिया के अंदर बढ़ रहे तमाम तरह के संघर्षों से मुक्ति का रास्ता भारतीय संस्कृति ही दिखलाती है क्योंकि यह विविधता में विश्वास करती है। सबको साथ लेकर चलने का भरोसा जगाती है। सभी संस्कृतियों के लिए परस्पर सम्मान व अपनत्व का भाव ही भारतीयता की पहचान है। उनका कहना था कि सारी विचारधाराएं विविधता को नष्ट करने और एकरूपता स्थापित करने पर आमादा हैं, जबकि यह काम अप्राकृतिक है।
उन्होंने कहा कि एक समय हमारे प्रकृति प्रेम को पिछड़ापन कहकर दुत्कारने वाले पश्चिमी देश भी आज भारतीय तत्वज्ञान को समझने लगे हैं । जहाँ ये देश एक धर्म के मानक पर एकता की बात करते हैं, वहीं भारत समस्त धर्मों का सम्मान कर परस्पर अस्मिता के विचार को चरितार्थ करता आया है । शिकागो में अपने भाषण में स्वामी विवेकानंद ने भी इसी बात की पुष्टि की थी । उन्होंने कहा कि भारत की संस्कृति की प्रासंगिकता आज भी है, क्योंकि यह वसुधैव कुटुम्बकम की बात करती है। जबकि पश्चिमी देश तो हमेशा से पूंजीवाद व व्यक्तिवाद पर जोर देते आए हैं जो 2007 के सबसे बड़े आर्थिक संकट का कारण बना । वाल स्ट्रीट के खिलाफ चल रहे नागरिक संघर्ष भी इसकी पुष्टि करते हैं। सोवियत संघ का विघटन भी साम्यवाद की गलत आर्थिक पद्धति को अपनाने से ही हुआ। श्री गुप्त ने यह भी कहा कि गरीबों का अमीर देश कहा जाने वाला भारत जैव-विविधता से संपन्न है, जिस पर पश्चिम की बुरी नज़र है । अपनी इसी निधि का संरक्षण हमारा कर्तव्य है, जिससे हम भविष्य में भी स्वावलंबी व मज़बूत बने रहेंगे ।

कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो.बृजकिशोर कुठियाला ने कहा कि हमें विकास का नया रास्ता तलाशना होगा। भारतीय जीवन मूल्य ही विविधता स्वीकार्यता और सम्मान देते हैं। इसका प्रयोग मीडिया, मीडिया शिक्षा और जीवन में करने की आवश्यक्ता है। उनका कहना था कि मानवता के हित में हमें अपनी यह वैश्विक भूमिका स्वीकार करनी होगी। कार्यक्रम का संचालन जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने किया। कार्यक्रम के प्रारंभ में कुलपति प्रो.बृजकिशोर कुठियाला ने शाल-श्रीफल पुष्पगुच्छ एवं पुस्तकों का सेट भेंट करके डा.बजरंगलाल गुप्त का अभिनदंन किया। व्याख्यान के बाद डॉ. गुप्त ने श्रोताओं के प्रश्नों के भी उत्तर दिए । कार्यक्रम में प्रो. अमिताभ भटनागर, प्रो. आशीष जोशी, डा. श्रीकांत सिंह, डा. पवित्र श्रीवास्तव, पुष्पेंद्रपाल सिंह, डा. आरती सारंग, दीपेंद्र सिंह बधेल, डा. अविनाश वाजपेयी मौजूद रहे।

Friday, November 18, 2011

डा. बजरंगलाल गुप्त का व्याख्यान 19को


भोपाल. देश के जाने माने विचारक एवं चिंतक डा. बजरंगलाल गुप्त का व्याख्यान 19 नवंबर, 2011 को पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पंचम तल पर आयोजित है। आप सब सादर आमंत्रित हैं।

ब्रितानी हिन्दी

डॉ. गौतम सचदेव
42 Headstone Lane, Harrow, Middlesex HA2 6HG (U.K.) मो.-00-(44)-7752 269 257 (mobile)
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ब्रिटेन के उन मुट्ठी भर लोगों को छोड़कर, जो व्यावसायिक अथवा शैक्षिक आवश्यकताओ के लिये हिन्दी सीखते और उसका प्रयोग करते हैं, शेष हिन्दी भाषा-भाषी वे भारतवंशी और उनकी सन्तानें हैं, जो सांस्कृतिक, धार्मिक या निजी कारणों से हिन्दी को बचाये हुए हैं । ब्रिटेन अंग्रेज़ी का गढ़ है और व्यापक ब्रितानी समाज हिन्दी का प्रयोग नहीं करता । कुछ अपवादों को छोड़कर हिन्दी प्रचार और प्रसार के माध्यमों में भी दिखाई नहीं पड़ती । यहाँ रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिये अंग्रेज़ी जानना, समझना और बोलना अनिवार्य है । जो ऐसा नहीं करता या कर पाता, वह सामान्य जनजीवन से कट जाता है ।

भौगोलिक दृष्टि से ब्रितानी हिन्दी भारत से आयातित और ब्रिटेन में प्रतिरोपित पौधे जैसी या चौहद्दी में घिरे तालाब जैसी है। जिन थोड़े-से वर्गों द्वारा परस्पर व्यवहार में हिन्दी का प्रयोग किया जाता है, वहाँ भी हिन्दी भाषा-भाषियों का कोई सघन या व्यापक क्षेत्र नहीं है । इस लिये भाषा के परिवर्तन में जिस तरह से स्थानभेद की भौगोलिक और सामाजिक भूमिका होती है, यथा चार कोस पर पानी बदले, आठ कोस पर बोली – वह ब्रिटेन के सन्दर्भ में सही नहीं है ।

हिन्दी यहाँ पर अपने स्वरूप और विकास में उसके बोलने वालों की योग्यता और ज्ञान, रेडियो और टेलिविजन के उपग्रहों से प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों और अत्यल्प तथा त्रुटिपूर्ण ढंग से कराये गये अनुवादों के द्वारा परिचालित होती है, भौगोलिक कारणों से नहीं । जो अध्येता ब्रितानी हिन्दी के विकास और परिवर्तनों का अध्ययन करना चाहते हैं, उनके लिये यह एक रोचक विषय है । ब्रिटेन में हिन्दी का एक भी समाचारपत्र नहीं है । एक त्रैमासिक पत्रिका पुरवाई को छोड़कर (जो अब समय पर प्रकाशित नहीं होती) यहाँ से और कोई हिन्दी पत्रिका नहीं निकलती । हिन्दी का शिक्षण केवल कुछ संस्थाएँ और उत्साही व्यक्ति ही कर रहे हैं और उनसे हिन्दी सीखने वाले बच्चों को छोड़कर यहाँ की युवा पीढ़ी हिन्दी में कोई रुचि नहीं रखती । इस लिये ब्रिटेन में हिन्दी का भविष्य कदापि उज्ज्वल नहीं है ।

विदेशों में पनपने वाली हिन्दी को जो व्यापक अन्तरराष्ट्रीय आयाम प्राप्त होता है, उसके सीमित रूप से ब्रिटेन में भी दर्शन किये जा सकते हैं । इसका मुख्य कारण यह है कि ब्रिटेन में भारतवंशियों की काफ़ी बड़ी संख्या मौजूद है । उन्होंने अपने घरों, धार्मिक स्थलों और संस्थाओं में भारत के जो छोटे-छोटे द्वीप बसा रखे हैं, उनसे हिन्दी भाषा समेत भारतीय संस्कृति और भारतीयता के बहुविध पक्षों का विकास होना स्वाभाविक है, लेकिन चूँकि उनपर ब्रिटेन के सामाजिक और सांस्कृतिक दबाव भी काफ़ी प्रबल रूप से पड़ते हैं, इस लिये यहाँ भारत वाली शुद्ध भारतीयता के दर्शन शायद नहीं होंगे ।

ब्रिटेन में भारतीय उपमहाद्वीप के अनेक भागों से आये लोग बसे हुए हैं । उनमें भारतीय पंजाबी तो मुख्यतः पंजाबी भाषा की दोआबी बोली और गुरुमुखी लिपि का प्रयोग करते हैं, जबकि पाकिस्तानी पंजाबी टक्साली या उर्दू मिश्रित पंजाबी बोलते हैं और उसे लिखने के लिये नस्तालीक यानि उर्दू लिपि काम में लाते हैं । इसी तरह से भारतीय बंगाली बंगला भाषा का प्रयोग करते हैं, जबकि बंगलादेशी बंगाली उसकी उपभाषा सिल्हटी का । ब्रिटेन के भारतवंशियों में अपनी-अपनी क्षेत्रीय या प्रादेशिक भाषा और बोली की रक्षा का भाव इतना प्रबल है कि राष्ट्रभाषा हिन्दी प्रायः उपेक्षित हो जाती है । लेकिन भला हो हिन्दी फ़िल्मों और भारतीय टी.वी. चैनलों से प्रसारित धारावाहिकों तथा समाचारों का, जिनके कारण हिन्दी समझने वालों का दायरा काफ़ी व्यापक है और हिन्दी भाषा जीवित है ।

ब्रिटेन में हिन्दी के जीवित रहने का दूसरा मुख्य कारण है भारतवंशियों का भारत प्रेम और इस नाते उनका अपनी राष्ट्रीय पहचान बनाये रखना । तीसरा कारण धर्म या संस्कृति है। धार्मिक अनुष्ठानों, त्योहारों, पर्वों, उत्सवों और समारोहों आदि में हिन्दी को उसका परम्परागत आदर एवं स्थान मिल ही जाता है, लेकिन वह समूचे भारतवंशियों के सामाजिक और धार्मिक व्यवहार की प्रथम भाषा नहीं है । उसकी वैसी सामाजिक या भाषिक पहचान भी नहीं है, जैसी भारतवंशियों की स्वयं अपनी पहचान है और उनकी प्रान्तीय या क्षेत्रीय भाषाओं की है । चौथा कारण सामूहिक कारण है । ब्रिटेन में हिन्दी को जीवित और लोकप्रिय बनाये रखने में भारतीय उच्चायोग काफ़ी सक्रिय है, जो हिन्दी सेवियों को सम्मान और अनुदान प्रदान करता है । उसके अलावा यू.के. हिन्दी समिति, गीतांजलि, भारतीय भाषा संगम, कृति यू.के., वातायन और कथा यू.के. जैसी अनेक हिन्दी सेवी संस्थाएँ हैं, जो हिन्दी का प्रचार-प्रसार करती हैं, सम्मेलनों और समारोहों का आयोजन करती हैं और सम्मान आदि प्रदान करती हैं। इन सबके साथ आर्य समाज, भारतीय विद्या भवन, हिन्दू सोसाइटियाँ और स्थानीय काउंसिलें यानि नगर परिषदें हैं तथा बहुत-से उत्साही शिक्षक हैं, जो अपने-अपने ढंग से हिन्दी की शिक्षा, प्रचार और प्रसार में योगदान करते हैं ।

व्यावसायिक स्तर पर कुछ प्रकाशकों ने हिन्दी सिखाने वाली पुस्तकें तथा दृश्य और श्रव्य कैसेट प्रकाशित किये हैं, जिनके आलेख भारतीयों ने भी रचे हैं और अंग्रेज़ों ने भी । इनके लक्ष्य भिन्न-भिन्न हैं, कुछ पर्यटकों के लिये हैं, कुछ बच्चों के लिये और कुछ सामान्य शिक्षार्थियों के लिये हैं । इनमें हिन्दी व्याकरण का जैसा ध्यान रखा जाना चाहिये, वह प्रायः नहीं मिलता । जो संस्थाएँ और व्यक्ति हिन्दी शिक्षण का कार्य कर रहे हैं, उनके पास कोई मानक या सर्वमान्य और वैज्ञानिक पाठ्यक्रम नहीं है । उनके अध्यापक भी प्रशिक्षित हिन्दी अध्यापक नहीं हैं । सब अपने-अपने ढंग और सूझबूझ से हिन्दी सिखाते हैं । मैंने स्वयं अनेक व्यक्तियों को हिन्दी की शिक्षा दी है, जिनमें अधिकतर बीबीसी के वे अंग्रेज़ संवाददाता थे, जिनको भारत में नियुक्त किया गया था । मैंने हिन्दी सिखाने के लिये व्यावहारिक, भाषा-वैज्ञानिक और आधुनिक रीतियों का पालन किया और प्रायः वह मानक ब्रितानी पद्धति अपनाई, जो अंग्रेज़ी को विदेशी भाषा के रूप में सिखाने वाली स्वीकृत पद्धति है । प्रत्येक विद्यार्थी के अनुरूप मैंने स्वयं पाठ और पाठ्य सामग्री तैयार की तथा उच्चारण के लिये प्रायः रोमन, पंजाबी, उर्दू तथा अन्य लिपियों का प्रयोग किया ।

हिन्दी शिक्षण सामग्री में व्याकरण की जो भूलें मेरे देखने में आईं, उनमें कुछ के उदाहरण हैं, आपने शादी किया, ग़रीब लोग क्या करना और न्यू डेल्ही स्टेशन कितने पैसे हैं, आदि । कैसेटों में प्रायः अंग्रेज़ी-हिन्दी का मिश्रण मिलता है, जैसे – फ़्लाइट कब चलती है, पहले रिपोर्ट हिन्दुस्तान जाएगी और क्लियरैन्स के बाद ही पासपोर्ट मिल सकता है, और हम बीवी, बच्चे यानी कि पूरी ट्राइब के साथ भारत जा रहे हैं । केम्ब्रिज विश्वविद्यालय के एक विख्यात प्रोफ़ैसर ने जो हिन्दी का व्याकरण लिखा है, उससे हिन्दी के कुछ उदाहरण देखिये – वह विजय की मुस्कराहट मुस्कराया, तालाब में कुछ पानी नहीं है, मुझे बहुत बड़ी खुशी है, हमें समय नहीं है और किन्हीं-किन्हीं गाँवों में तालाब नहीं हैं । हिन्दी के एक अन्य अंग्रेज़ प्राध्यापक ने जो चर्चित और उपयोगी हिन्दी स्वयं शिक्षक लिखा है, उसमें भी त्रुटियों का अभाव नहीं है । कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं – यात्रियों को तो यात्रा की कहानियाँ दिलचस्प होती हैं, वह चश्मा वाला लड़का जो बीड़ी पी रहा था, अभी तो मुझे मुक्ति पाने की कोई विशेष इच्छा तो नहीं है । उपर्युकत विवेचन के आधार पर ब्रितानी हिन्दी के ये सन्दर्भ विचारणीय हैं – भारतीय हिन्दी बनाम विदेशी हिन्दी, मौलिक हिन्दी बनाम अनूदित हिन्दी, मानक हिन्दी बनाम अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी और व्यवसायिक हिन्दी बनाम बोलचाल की सामान्य हिन्दी आदि।

भाषावैज्ञानिक आधार पर भारतीय और विदेशी हिन्दी में तात्त्विक अन्तर नहीं मिलता, लेकिन ब्रिटेन में अंग्रेज़ी के दबाव के कारण कुछ अन्तर अवश्य मिलता है । यद्यपि आज यह दबाव भारतीय हिन्दी पर भी कम नहीं है, क्योंकि शिक्षित और सम्भ्रान्त समाज हिन्दी के स्थान पर अंग्रेज़ी बोलने या हिन्दी को अंग्रेज़ीनुमा बनाने में प्रतिष्ठा का अनुभव करता है, लेकिन ब्रितानी हिन्दी पर यह दबाव अन्य कारणों से भी पड़ता है, जिनमें सांस्कृतिक और भौगोलिक कारण मुख्य हैं । ब्रिटेन जैसे अंग्रेज़ी के महासागर में हिन्दी जैसी भारतीय भाषाओं के द्वीप बहुत छोटे हैं, जिनपर अंग्रेज़ी के ज्वारभाटे और तूफ़ान आते ही रहते हैं । एक इस रूप में कि भारतीय माता-पिताओं के बच्चे यहाँ शिक्षित होने के कारण अपनी मातृभाषा का बहुत कम प्रयोग करते हैं या करते ही नहीं ।

इससे हिन्दी का क्षेत्र और भी संकुचित हो जाता है और उसमें केवल अंग्रेज़ी शब्दों और उसकी उच्चारण शैली का ही मिश्रण नहीं होता, रोमन लिपि के कारण हिन्दी के नामों और शब्दों का अंग्रेज़ीकरण भी होता है । इसके उदाहरण कभी-कभी बड़े रोचक होने लगते हैं, लेकिन ब्रितानी हिन्दी में उन्हें सहज रूप से स्वीकार किया जाता है, जैसे कीर्ति का कर्टी, गुरुमूर्ति का गुरुमर्टी, धवन का डवन या डॉवन और कान्ता का काँटा या कैंटा सुनाई पड़ना आम बात है । यहाँ भारतीय नामों को छोटा करके या बदलकर अंग्रेज़ी ढंग से बोलने-बुलवाने की प्रवृत्ति भी मिलती है, जो अंग्रेज़ों के नामों से मेल खाती है – जैसे सरस्वती का सेरा या सारा, हर्ष का हार्श, हरी या हर्षित का हैरी और कृष्ण का क्रिस हो जाना ।

अंग्रेज़ी से प्रभावित वाक्यों के कुछ उदाहरण देखिये – मेरे सनी को टायलेटें लग गई हैं, ज़रा डोर शट कर दो, मैंने संडे को टैम्पल में वर्शिप करने जाना है, आदि । इसी तरह से जब ब्रितानी हिन्दी में अंग्रेज़ी-हिन्दी व्याकरणों का मिश्रण होता है, तो टेबले, चेयरें, डिशें, डिबेटें, डेकोरेशनें, स्पीचें, हैबिटें और ट्रांसलेशनें जेसे बहुवचन सुनाई पड़ते हैं और ‘उसने कहा, यू नो जो वो हमेशा कहा करता है, दैट हीज़ बिज़ी, वो बिज़ी है, इस लिये नहीं आ सकता’ तथा ‘उसने ख़बर सुनते ही, ऐज़िज़ हिज़ हैबिट, रिऐक्ट किया अपने उसी पर्सनल स्टाइल में कि हाउ डेयर यू, तुम्हारी यह हिम्मत’ जैसे वाक्य सुनने को मिलते हैं । इस मिश्रण से आगे की स्थिति वह है, जब अनुवाद करते समय या तो अंग्रेज़ी के वाक्य-विन्यास की नक़ल की जाती है या अंग्रेज़ी का शाब्दिक अनुवाद कर दिया जाता है।

उपर्युक्त उदाहरणों से देखा जा सकता है कि लोग हिन्दी बोलते-बोलते कैसे अंग्रेज़ी में पहुँच जाते हैं । वे या तो पूरा वाक्य हिन्दी में नहीं बोल पाते या फिर बोलते ही नहीं और हिन्दी सुनकर अंग्रेज़ी में जवाब देते हैं । अंग्रेज़ी के अलावा ब्रितानी हिन्दी में पंजाबी और गुजराती शब्दों का मिश्रण भी मिलता है । हिन्दी का मर्मज्ञ होने की न यहाँ किसी को ज़रूरत है और न ही कोई होना चाहता है । यहाँ शुद्ध हिन्दी बोलने-सिखाने के साधन भी प्रायः उपलब्ध नहीं हैं, जिसका एक कारण यह है कि हिन्दी सिखाने वाले व्यक्ति स्वयं हिन्दी के उच्च कोटि के विद्वान या अध्यापक नहीं हैं । अलबत्ता सरकारी अनुवाद के कामों और व्यावसायिक कारणों से एक समय पर यहाँ अनुवादकों की आवश्यकता अवश्य रही है, लेकिन उच्च स्तर के अनुवादकों का ब्रिटेन में हमेशा से अभाव चला आता है । परिणाम यह है कि यहाँ का हिन्दी अनुवाद प्रायः भ्रष्ट, अशुद्ध और कृत्रिम है । उर्दू, पंजाबी और बंगाली की दशा इससे बहुत अच्छी है ।

हिन्दी के भ्रष्ट और अशुद्ध अनुवाद के अतिरिक्त इसमें वर्तनी की अशुद्धियों की भी भरमार है, जैसे अधर्म का अर्धम, रूप का रुप, नीति का निति या निती, कृपया का कृप्या और विद्या का विध्या लिखा हुआ मिलना बड़ी सामान्य बात है । एक बार यहाँ की एक स्थानीय नगर परिषद यानि काउंसिल ने हिन्दी अनुवादकों की नियुक्ति के लिये विज्ञापन दिया । उसमें जो ग़लतियाँ थीं, वे तो थीं ही, परीक्षार्थियों के लिये उसने लगभग 600 शब्दों की जो नियमावली प्रकाशित की थी, उसमें 100 से अधिक केवल वर्तनी की अशुद्धियाँ थीं । अच्छी हिन्दी के लिये किसी समय पर जिस बीबीसी हिन्दी सेवा की प्रशंसा की जाती थी, उसमें अनुवाद की इस प्रकार की त्रुटियाँ मैंने स्वयं सुनी हैं – फ़िलिस्तीन समझौतों पर बमबारी (बॉम्बार्डमेंट ऑन पैलेस्टिनिटन सेटलमेंट्स), ज़ैतून की टहनी पेश की (ऑफ़र्ड एन ऑलिव ब्रांच) और पर्याप्त ही पर्याप्त है (इनफ़ इज़ इनफ़) । आज भी बीबीसी हिन्दी सर्विस की ऑनलाइन वेबसाइट पर भाषा की अशुद्धियाँ मिल जाना बड़ी आम बात है ।

ब्रिटेन के जिन हिन्दी लेखकों की आजकल भारत में प्रवासी लेखकों के रूप में काफ़ी चर्चा होती है, उनमें अपवाद स्वरूप दो-चार लेखकों को छोड़कर अधिकांश में भाषा की त्रुटियों के प्रति असावधानी के सहज ही दर्शन किये जा सकते हैं ।

ब्रिटेन के पुस्तकालयों में हिन्दी की पुस्तकें बहुत कम मिलेंगी । थोड़ी-बहुत जो दिखाई पड़ भी जाती हैं, वे किसी भ्रान्त और भ्रष्ट क्रय-नीति के अन्तर्गत ख़रीदी गई थीं । इससे भी ख़राब स्थिति यह है कि हिन्दी के पाठक एकदम नदारद हैं । पत्रिकाओं के नाम पर पुरवाई का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है । हिन्दी के विपरीत पुस्तकालयों में उर्दू, गुजराती, पंजाबी और बंगला पुस्तकों का न केवल स्तर ही ऊँचा है और वे बहुसंख्य रूप से मौजूद भी हैं, बल्कि उनके पाठकों की संख्या भी काफ़ी अधिक है । उनकी पत्रिकाएँ और समाचारपत्र भी नियमित रूप से छपते और पढ़े जाते हैं । इस लिये अगर ब्रिटेन में हिन्दी को लोकप्रिय और ग्राह्य बनाने के ठोस और कारगर उपाय न किये गये, तो वह दिन दूर नहीं, जब ब्रिटेन से हिन्दी पूरी तरह विदा हो जायेगी ।

Tuesday, November 15, 2011

कैसा है डिजिटल युग का युवा



- डॉ. दुर्गा प्रसाद अग्रवाल
संस्कृति और अमरीकी जीवन के गहन अध्येता और एमॉरी विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी के प्रोफेसर मार्क बॉयेर्लाइन की नई किताब ‘द डम्बेस्ट जनरेशन: हाउ द डिजिटल एज स्टुपिफाइज़ यंग अमरीकन्स एण्ड जिओपार्डाइजेज़ अवर फ्यूचर’ अमरीका की तीस साल तक की उम्र वाली वर्तमान पीढी के बौद्धिक खालीपन को जिस शिद्दत के साथ उजागर करती है वह हमें भी बहुत कुछ सोचने को विवश करता है। मार्क बेबाकी से कहते हैं कि सायबर कल्चर अमरीका को कुछ भी नहीं जानने वालों के देश में तब्दील करती जा रही है। वे चिंतित होकर पूछते हैं कि अगर किसी देश की नई पीढी का समझदार होना अवरुद्ध हो जाए तो क्या वह देश अपनी राजनीतिक और आर्थिक श्रेष्ठता कायम रख सकता है?

वैसे तो पॉप कल्चर और युवा पीढी पर उसके प्रभावों को लेकर काफी समय से बहस हो रही है। वर्तमान डिजिटल युग जब शुरू हुआ तो बहुतों ने यह आस बांधी थी कि इण्टरनेट, ई मेल, ब्लॉग्ज़, इण्टरएक्टिव वीडियो गेम्स वगैरह के कारण एक नई, अधिक जागरूक, ज़्यादा तीक्ष्ण बुद्धि वाली और बौद्धिक रूप से परिष्कृत पीढी तैयार होगी। इंफर्मेशन सुपर हाइवे और नॉलेज इकोनॉमी जैसे नए शब्द हमारी ज़िन्दगी में आए और उम्मीद की जाने लगी कि नई तकनीक के इस्तेमाल में दक्ष युवा अपने से पिछली पीढी से बेहतर होंगे। लेकिन, दुर्भाग्य, कि यह आस आस ही रही। जिस तकनीक से यह उम्मीद थी कि उसके कारण युवा अधिक समझदार, विविध रुचि वाले और बेहतर सम्प्रेषण कौशल सम्पन्न होंगे, उसका असर उलटा हुआ। ताज़ा रिपोर्ट्स बताती हैं कि अमरीका की नई पीढी के ज़्यादातर लोग न तो साहित्य पढते हैं, न म्यूज़ियम्स जाते हैं और न वोट देते हैं। वे साधारण वैज्ञानिक अवधारणाएं भी नहीं समझ-समझा सकते हैं। उन्हें न तो अमरीकी इतिहास की जानकारी है और न वे अपने स्थानीय नेताओं को जानते हैं। उन्हें यह भी नहीं पता कि दुनिया के नक्शे में ईराक या इज़राइल कहां है।

इन्हीं सारे कारणों से मार्क बॉयेर्लाइन ने उन युवाओं को, जो अभी हाई स्कूल में हैं, द डम्बेस्ट जनरेशन का नाम दिया है। बॉयेर्लाइन ने जो तथ्य दिए हैं वे बहुत अच्छी तरह यह स्थापित करते हैं कि आज का युवा डिजिटल मीडिया के माध्यम से और ज़्यादा आत्मकेन्द्रित होता जा रहा है। वह नई तकनीक का इस्तेमाल किताब पढने या पूरा वाक्य लिखने जैसी गतिविधियों से अलग जाकर सतही, अहंकारवादी और भटकाने वाली ऑन लाइन दुनिया में रत रहने में कर रहा है। बॉयेर्लाइन यू ट्यूब और माय स्पेस का नाम लेते हैं और कहते हैं कि इन और इन जैसे दूसरे वेब अड्डों पर युवाओं ने अपनी मनचाही जीवन शैली विषयक सामग्री की भरमार कर रखी है और वे इस संकुचित परिधि से बाहर नहीं निकलते हैं। मार्क इस मिथ को भी तोडते हैं कि इण्टरनेट में बढती दिलचस्पी ने युवाओं के बुद्धू बक्सा-मोह को कम किया है। वे आंकडों के माध्यम से स्थापित करते हैं कि युवाओं ने इण्टरनेट को दिया जाने वाला समय मुद्रित शब्द से छीना है और उनका टी वी प्रेम तो ज्यों का त्यों है। मार्क बताते हैं कि 1981 से 2003 तक आते-आते पन्द्रह से सत्रह साल वाले किशोरों का फुर्सती पढने का वक़्त अठारह मिनिट से घटकर सात मिनिट रह गया है।

इससे आगे बढकर मार्क यह भी कहते हैं कि 12 वीं कक्षा के छियालीस प्रतिशत विद्यार्थी विज्ञान में बेसिक स्तर को भी नहीं छू पाते हैं, एडवांस्ड स्तर तक तो महज़ दो प्रतिशत ही पहुंचते हैं। यही हाल उनकी राजनीतिक समझ का भी है। हाई स्कूल के महज़ छब्बीस प्रतिशत बच्चे नागरिक शास्त्र में सामान्य स्तर के हैं। नेशनल असेसमेण्ट ऑफ एज्यूकेशनल प्रोग्रेस की इसी रिपोर्ट के अनुसार बारहवीं कक्षा के बच्चों में 1992 से 2005 के बीच पढने की आदत में भी भारी कमी आई है। इस कक्षा के केवल चौबीस प्रतिशत बच्चे ही ठीक-ठाक वर्तनी और व्याकरण वाला काम-चलाऊ गद्य लिख सकने में समर्थ हैं। यही हाल उनकी मौखिक अभिव्यक्ति का भी है।

मार्क का निष्कर्ष है कि आज की सांस्कृतिक और तकनीकी ताकतें ज्ञान और चिंतन के नए आयाम विकसित करने की बजाय सार्वजनिक अज्ञान का एक ऐसा माहौल रच रही है जो अमरीकी प्रजातंत्र के लिए घातक है। मार्क जो बात अमरीका के लिए कह रहे हैं, विचारणीय है कि कहीं वही बात भारत के युवा पर भी लागू तो नहीं हो रही? खतरे की घण्टी के स्वरों को हमें भी अनसुना नहीं करना चाहिए।
कृति: The Dumbest Generation
लेखक : Mark Bauerlein
प्रकाशक : Tarcher
पृष्ठ : 273 pages, Hardcover
मूल्य : US $ 24

गूगल का खौफ: तकनीक को बांधना मुश्किल

-बालेंदु शर्मा दाधीच
सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में दुनिया की सबसे तेज बढ़ती कंपनी गूगल ने महज सात साल में जिस तीव्र गति से करोड़ों प्रशंसक बना लिए हैं लगभग उसी रफ्तार से ऐसे प्रतिद्वंद्वियों की जमात भी खड़ी कर ली है जो उसकी विस्मयकारी उड़ान रोकने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। जब तक गूगल एक सर्च इंजन के तौर पर सफलता की गाथाएं लिख रहा था, तब तक उसका मुकाबला सिर्फ याहू, इंकटोमी, लुकस्मार्ट, एल्टाविस्टा और आस्क जीव्स जैसी इंटरनेट.खोज वाली मझौले दर्जे की कंपनियों से था। लेकिन पिछले दो साल में गूगल ने इंटरनेट.खोज के पारंपरिक कारोबार से आगे बढ़कर जिस अद्भुत तेजी से नई गतिविधियों और सेवाओं के क्षेत्र में पांव पसारे हैं उससे आईटी के दिग्गजों के पांवों तले जमीन खिसकने लगी है। इंटरनेट पोर्टल और सेवाओं में नंबर एक मानी जाने वाली 'याहू' और पीसी आपरेटिंग सिस्टम तथा आफिस सॉफ्टवेयर के क्षेत्र में 90 फीसदी बाजार पर काबिज माइक्रोसॉफ्ट ने इंटरनेट मैसेजिंग सेवाओं के क्षेत्र में अपनी पारंपरिक प्रतिद्वंद्विता को त्याग कर गूगल के खिलाफ एकजुट होने का फैसला किया है।

याहू और माइक्रोसॉफ्ट के बीच हाल ही में हुए समझौते का घोषित उद्देश्य तो उनके इंटरनेट संदेशवाहक सॉफ्टवेयरों. 'एमएसएन मैसेंजर' और 'याहू मैसेंजर' के बीच अंतरसंबंध (इंटरकॉम्पेटिबिलिटी) को सुनिश्चित करना है, लेकिन वास्तव में यह गूगल के विस्तीर्ण होते कारोबार पर अंकुश लगाने के लिए बनाई गई माइक्रोसॉफ्ट की दूरगामी कारोबारी रणनीति का हिस्सा है। इसका एक अन्य उद्देश्य इंटरनेट मैसेजिंग के क्षेत्र में अमेरिका ऑनलाइन के दबदबे (5॰15 करोड़ सदस्य) को चुनौती देना है। गूगल के खिलाफ छेड़े जाने वाले किसी भी युद्ध में याहू एक स्वाभाविक भागीदार है क्योंकि गूगल की कामयाबी से सवरधिक नुकसान उसी को हुआ है। गूगल के आगमन से पहले इंटरनेट.खोज के क्षेत्र में याहू का ही दबदबा था और उसकी आय का एक बड़ा हिस्सा सर्च इंजन से ही आता था। सगेर्ई ब्रिन और लैरी पेज नामक दो युवाओं ने अद्वितीय व्यापारिक व तकनीकी मेधा का परिचय देते हुए गूगल का विकास किया जो अपनी उपयोगिता मात्र के बल पर इतना अधिक लोकप्रिय हो गया कि याहू और अन्य जाने.माने सर्च इंजन उसके सामने 'शौकिया डवलपर्स के बनाए हुए अपरिपक्व उत्पाद' नजर आने लगे। आज गूगल इंटरनेट.खोज का पयरय बन चुका है। वह न सिर्फ अपनी सार्थकता के लिहाज से बल्कि आय के हिसाब से भी अन्य सभी सर्च इंजनों को बहुत पीछे छोड़ चुका है।

गूगल के आने से पहले तक इंटरनेट खोज के क्षेत्र में की.वर्ड (विशेष शब्द) आधारित इन्डेक्सिंग (सूचीकरण) की विधि प्रचलित थी। होता यह था कि लगभग हर वेबसाइट में कुछ शब्द कीवर्ड के रूप में डाल दिए जाते थे जो यह प्रकट करते थे कि इस वेबसाइट में दी गई सामग्री इन विषयों पर आधारित है। याहू और अन्य सर्च इंजनों के स्पाइडर या क्रॉलर (ऐसे सॉफ्टवेयर जो नियमित रूप से वेबसाइटों का भ्रमण कर उनमें दी गई सामग्री पर नजर रखते हैं) इन्हीं कीवड्र्स के आधार पर उन वेबसाइटों को श्रेणियों में विभाजित कर अपने डेटाबेस में डाल देते थे। बाद में पाठकों की तरफ से इन श्रेणियों में जानकारी मांगे जाने पर इन्हीं वेबसाइटों का ब्यौरा दे दिया जाता था। लेकिन समस्या यह थी कि कई वेबसाइटों में गलत कीवर्ड डाल दिए जाते थे और वहीं यह तकनीक मात खा जाती थी। यह एक सरल पद्धति थी जिसमें एल्गोरिद्म (कंप्यूटरीय गणनाएं) की भूमिका बहुत सीमित थी। गूगल के प्रवर्तकों में से एक लैरी पेज ने इस परंपरा से एकदम हटकर 'पेज रैंक' नामक क्रांतिकारी तकनीक विकसित की जिसमें की.वड्र्स की कोई भूमिका नहीं थी। इस तकनीक के तहत वेबसाइट के पूरे पेज में दिए गए शब्दों का विश्लेषण किया जाता था और उसकी लोकप्रियता (पेज रैंक) को भी ध्यान में रखते हुए इन्डेक्सिंग की जाती थी। किसी भी वेबसाइट की लोकप्रियता जांचने के लिए उसके बारे में अन्य वेबसाइटों में दिए गए लिंक्स को आधार बनाया गया था। इस तकनीक में मानवीय हस्तक्षेप की कोई आवश्यकता नहीं थी और इसके बावजूद न सिर्फ खोज के परिणाम सटीक आते थे बल्कि उन्हें उनके महत्व के अनुसार तरतीबवार पेश किया जाता था। गूगल के परिणाम इतने त्रुटिहीन और व्यापक थे कि इंटरनेट पर सर्च करने वालों के लिए यह एक तरह का वरदान प्रतीत हुआ।

गूगल की लोकप्रियता तेजी से बढ़ी और अन्य सर्च इंजनों की लोकप्रियता में उसी तेजी से गिरावट आई। हालांकि गूगल ने अपनी खोज.पद्धति का राज नहीं खोला लेकिन आज के तकनीकी युग में ऐसी चीजों को बहुत समय तक छिपाकर रखना संभव नहीं है। अंतत: याहू, एमएसएन, एल्टा विस्टा और अन्य सर्च इंजन भी पुराने कोड को छोड़कर गूगल जैसी ही रैंक आधारित तकनीक अपनाने पर मजबूर हुए। याहू ने तो अपना आकार बढ़ाने के लिए 'इंकटोमी' नामक सर्च इंजन कंपनी को खरीद भी लिया। फिर भी इंटरनेट खोज के क्षेत्र में गूगल अपनी सर्वोच्चता बनाए हुए है। इस वत्ति वर्ष की दूसरी तिमाही के नतीजों में इंटरनेट विज्ञापनों के जरिए गूगल को 1॰4 अरब डालर की रकम हासिल हुई जबकि इसी अवधि में याहू ने 1॰1 अरब डालर अर्जित किए।

याहू और माइक्रोसॉफ्ट जैसी कंपनियों की समस्या यह है कि गूगल अब सिर्फ सर्च इंजन तक ही सीमित नहीं रह गया है और नए क्षेत्रों में पांव पसार रहा है। पूरी तरह लीक से हटकर सोचने वाली इस कंपनी ने सेवाओं और उत्पादों का विस्फोट सा कर दिया है और सब के सब आश्चयर्जनक रूप से अपनी.अपनी श्रेणियों में श्रेष्ठतम या उच्च कोटि के हैं। कम महत्वपूर्ण क्षेत्रों को छोड़ दें तो याहू का कारोबार मुख्यत: चार क्षेत्रों में फैला हुआ है. सर्च इंजन, ईमेल, इंटरनेट मैसेंजर और इंटरनेट पोर्टल। माइक्रोसॉफ्ट, जो कि मूल रूप से एक सॉफ्टवेयर आधारित कंपनी है, भी इन सभी क्षेत्रों में सक्रिय है, हालांकि याहू की भांति उसके कारोबार का दारोमदार पूरी तरह से इन पर नहीं है। उसका अधिकांश कारोबार विंडोज और ऑफिस जैसे सॉटवेयर आधारित उत्पादों पर निर्भर है।

गूगल ने सर्च इंजन के क्षेत्र में याहू और एमएसएन को पछाड़ने के बाद अब 'जीमेल' के माध्यम से ईमेल के क्षेत्र में भी उन्हें जबरदस्त चुनौती दी है। जीमेल की शुरूआत ही एक धमाके से हुई। न सिर्फ यह तेजी से काम करने वाली और अधिक सुविधाजनक ईमेल सेवा थी बल्कि इसकी शुरूआत में ही एक गीगाबाइट मेल स्पेस मुत दिया जा रहा था। याहू और माइक्रोसॉफ्ट (हॉटमेल) की ईमेल सेवाओं में दिए जा रहे दस.दस मेगाबाइट स्पेस की तुलना में यह लगभग सौ गुना था। जीमेल आते ही लोकप्रिय हो गया और उसका अकाउंट पाना एक किस्म का क्रेज बन गया। गूगल ने जीमेल में भी विज्ञापन दिखाने शुरू किए और अथर्ोपार्जन का एक नया माध्यम खड़ा कर लिया। वह इतने पर ही नहीं रुका और लगभग हर एकाध महीने में एक नया उत्पाद लांच करता चला गया। उसकी प्रतिद्वंद्वी कंपनियों के होश तो सर्च इंजन और जीमेल ने ही उड़ा दिए थे अब ब्लोग, डेस्कटॉप सर्च, स्कॉलर, गूगल अर्थ, इमेज सर्च, न्यूज जैसे उपयोगी और नवीनतम उत्पादों ने रही सही कसर भी पूरी कर दी। धीरे-धीरे इंटरनेट कंपनियां गूगल की ही नकल करने में व्यस्त हो गईं और ठीक उसके जैसे उत्पाद लांच करने लगीं।

गूगल ने इंटरनेट कारोबार की दिशा बदल दी थी। दो उत्साही युवकों द्वारा स्थापित इस कंपनी ने आईटी के दिग्गजों को अपना अनुसरण करने पर मजबूर कर दिया था।

याहू और माइक्रोसॉफ्ट ने भी अंतत: अपने नए सर्च इंजन, इमेज सर्च सेवा और समाचार सेवाएं शुरू कीं। लेकिन वे थोड़ा सुस्ता सकें इससे पहले ही गूगल ने 'गूगल टॉक' के माध्यम से मैसेंजर कारोबार में कदम रख लिया और इंटरनेट पर संदेशों के आदान प्रदान का ऐसा सॉफ्टवेयर लांच कर दिया जिसमें फोन की ही तरह बात करने की सुविधा भी है! और तो और खबर है कि वह इंटरनेट पोर्टल भी लाने वाला है। यानी अब वह याहू के कारोबार वाले लगभग सभी क्षेत्रों में सक्रिय हो रहा है।

स्वाभाविक ही है कि एक बेहत मजबूत प्रतिद्वंद्वी के मुकाबले अपना कारोबार बचाने के लिए याहू के लिए कोई बड़ा कदम उठाना जरूरी था। माइक्रोसॉफ्ट के साथ समझौते के जरिए उसने यह कदम उठा लिया है। याहू का नजरिया गूगल के प्रति लगातार आक्रामक हो रहा है। इंकटोमी के अधिग्रहण के जरिए याहू ने गूगल पर पहला हमला किया था। पिछले दिनों याहू ने दावा किया कि उसकी इन्डेक्सिंग सर्विस (वेबपेजों के ब्यौरे का डेटाबेस) गूगल की तुलना में दोगुना है। फिर याहू के चेयरमैन टेरी सैमेम ने इंटरनेट संबंधी विषयों पर आयोजित एक सम्मेलन में गूगल की खिल्ली उड़ाते हुए कहा कि सर्च इंजन के क्षेत्र मंे हो सकता है, उसने काफी उपलब्धि अर्जित कर ली हो लेकिन अगर वह पोर्टल लेकर आता है तो वह चौथे नंबर का पोर्टल होगा। संयोगवश, याहू को इंटरनेट का नंबर वन पोर्टल माना जाता है। सैमेम के इस बयान से गूगल के प्रति उनका भय, निराशा और आक्रामकता तीनों प्रकट होते हैं। उन्होंने कहा कि गूगल याहू की नकल करने की कोशिश कर रहा है और उसके उत्पादों व सेवाओं पर नजर डालें तो यह सिद्ध हो जाता है। लेकिन ये सब हड़बड़ी में उठाए गए कदम ही दिखते हैं। गूगल पर इस दूसरे स्पष्ट हमले के बाद अब याहू ने माइक्रोसॉफ्ट के साथ आकर तीसरा और दूरगामी परिणामों वाला धावा बोल दिया है। (लेखक प्रभासाक्षी डाटकाम के संपादक हैं)

Wednesday, November 9, 2011

प्रकाश पर्व की शुभकामनाएं- संजय द्विवेदी


गुरू नानक देव की जयंती पूरे देश में 10 नवंबर को प्रकाश पर्व के रूप में मनाई जाएगी। आप सभी को इस विशिष्ठ दिन की बधाई और शुभकामनाएं। भारतीय संत परंपरा में गुरू नानक का स्थान बहुत ऊंचा है, उन्होंने पूरी दुनिया को प्रेम और मानवता का पाठ पढ़ाया। सद्भावना के तीन संत अपने तत्कालीन समय को बहुत प्रभावित करते हैं उनमें नानक, कबीर और रहीम का हम नाम ले सकते हैं। प्रकाश पर्व की पुनः शुभकामनाएं।

Monday, November 7, 2011

Eid ul azha mubarak to all my dear students


-Sanjay Dwivedi
Today is the day of sacrifice..let us sacrifice our anger,greed and envy for the sake of love for Allah and humanity...Eid ul azha mubarak to all my dear students...may Allah bless you all.......ईद की खुशियां लें और दूसरों को भी खुश करें। सद्भावना और मैत्री ही हर त्यौहार का संदेश है। आइए साथ आएं और खुशियां मनाएं। त्यौहार की खुशियां बांटें और उन्हें भी साथ लें जिनके पास मुस्कराने के मौके बहुत कम आते हैं। कुर्बानी और त्याग का पाठ पढ़ाने वाला यह त्यौहार हर हिंदुस्तानी के मन में ऐसी भावनाएं पैदा करे, जिससे हम अपने वतन और समाज के लिए अपना सर्वस्व निछावर करने का हौसला पा सकें।आप सबको ईदुज्जुहा की मुबारकबाद।

Sunday, November 6, 2011

पश्चिम की पत्रकारिता पूंजी की पत्रकारिताः सिन्हा





भोपाल,5 नवंबर।
इंडिया पालिसी फाउंडेशन के मानद निदेशक राकेश सिन्हा का कहना है कि पश्चिम की पत्रकारिता पूंजी की पत्रकारिता है जबकि भारतीय पत्रकारिता के मूल में पुरूषार्थ निहित है, क्योंकि भारतीय पत्रकारिता देश के स्वतंत्रता आंदोलन से प्रेरणा पाती है। वे यहां माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में प्रख्यात पत्रकार स्व. प्रभाष जोशी की द्वितीय पुण्यतिथि(5 नवंबर,2011) पर उनकी स्मृति में आयोजित ‘मीडया का समाजशास्त्र’ विषय पर व्याख्यान को संबोधित कर रहे थे। कार्यक्रम की अध्यक्षता विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने की।

दिल्ली विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर श्री सिन्हा ने कहा कि पश्चिमी संस्कृति हमारा आदर्श बन गयी है और हमने अपने गौरवशाली अतीत को बिसरा दिया है। उन्होंने कहा कि अब जरूरत इस बात की है कि वैकल्पिक पत्रकारिता के माध्यम से हम आज के ज्वलंत प्रश्नों के उत्तर तलाशें। यही पत्रकारिता देश के विकास का उद्यम बन सकती है। उनका कहना था कि स्थानीय संवाद को बढ़ाने का प्रयास इसी से सफल होगा और स्थानीय आकांक्षांएं मीडिया में अपनी जगह बना सकेंगीं।

श्री सिन्हा ने कहा कि नई पत्रकार पीढ़ी को चाहिए कि वह राष्ट्रीय प्रश्नों पर सामाजिक सरोकार पैदा करे तथा सामाजिक सरोकारों पर राष्ट्रीय दृष्टिकोण विकसित करना चाहिए। उनका कहना था कि आज के युग में भ्रम अधिक हैं, जिसके कारण आदर्श की बात करने वाले ज्यादा हैं किंतु आदर्श पर चलने वाले कम हो गए हैं।

कार्यक्रम के अध्यक्ष प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने कहा कि वर्तमान पत्रकारिता के दोष और गुणों को देखते अपना ध्येय खुद तय करना होगा। ध्येयनिष्ठ पत्रकारिता के विकास से ही भारत विश्वशक्ति बनेगा। उनका कहना था कि स्व. प्रभाष जोशी एक ऐसे पत्रकार थे जिन्होंने ताजिंदगी ध्येयनिष्ट पत्रकारिता की, उनकी स्मृति आज के युवा पत्रकारों का संबल बन सकती है। कार्यक्रम का संचालन जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने किया। आरंभ में अतिथियों का स्वागत निदेशक-संबद्ध संस्थाएं दीपक शर्मा एवं मीता उज्जैन ने किया। कार्यक्रम में प्रो. आशीष जोशी, डा. पवित्र श्रीवास्तव, पुष्पेंद्रपाल सिंह, राघवेंद्र सिंह, डा. आरती सारंग मौजूद रहे।

Friday, November 4, 2011

डा.राकेश सिन्हा का व्याख्यान 5को


भोपाल,4 नवंबर।
प्रभाष जोशी स्मृति व्याख्यान कल
प्रख्यात पत्रकार स्व. प्रभाष जोशी की द्वितीय पुण्यतिथि(5 नवंबर,2011) पर उनकी स्मृति में एक व्याख्यान का आयोजन माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में किया गया है। इंडिया पालिसी फाउंडेशन के मानद निदेशक डा. राकेश सिन्हा 5 नवंबर,2011 को दिन में 11 बजे विश्वविद्यालय में ‘मीडया का समाजशास्त्र’ विषय पर व्याख्यान देंगे। कार्यक्रम की अध्यक्षता विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला करेंगें।
दिल्ली विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर डा. सिन्हा प्रख्यात स्तंभलेखक हैं और उनकी राजनीतिक संदर्भों पर कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। ‘राजनीतिक पत्रकारिता’ शीर्षक से भी उनकी एक महत्वपूर्ण किताब पत्रकारिता विश्वविद्यालय की शोध परियोजना के तहत प्रकाशित हो चुकी है।

Wednesday, November 2, 2011

वेब की नई भाषा पर उभरती चिंताएं

-बालेन्दु शर्मा दाधीच
इन दिनों तकनीकी दुनिया में वेब डेवलपमेंट की भाषा एचटीएमएल के ताजातरीन संस्करण (एचटीएमएल 5) के चर्चे जोरों पर है। कहा जा रहा है कि इसके प्रचलन में आने के बाद वेबसाइटों, पोर्टलों और वेब आधारित सेवाओं की शक्ल बदल जाएगी। वे ज्यादा उपयोगी, तेज.तर्रार और आकर्षक रूप ले लेंगी। एचटीएमएल 5 का एक दिलचस्प पहलू यह है कि इसमें बनी कई सेवाओं को हम इंटरनेट कनेक्शन बंद होने के बाद भी इस्तेमाल कर सकेंगे। जैसे गूगल एप्स के तहत इंटरनेट के जरिए इस्तेमाल किए जाने वाले कुछ एप्लीकेशंस (गूगल डॉक्स, जीमेल, गूगल वीडियो आदि)। क्या यह आश्चयर्जनक नहीं लगता कि इंटरनेट कनेक्शन के बिना भी आप जीमेल का इस्तेमाल कर सकें? माना कि नई ईमेल बिना इंटरनेट कनेक्शन के नहीं आ सकती, लेकिन अब तक आई हुई सारी ईमेल को तो आप देख.पढ़ सकेंगे! साल भर पुराने किसी ईमेल संदेश के साथ आए अटैचमेंट की जरूरत पड़ गई? कोई बात नहीं इंटरनेट कनेक्शन के बिना ही डाउनलोड कर लीजिए!

एचटीएमएल 5 (हाइपर टेक्स्ट मार्कअप लैंग्वेज) वह बुनियादी भाषा है जिसे इंटरनेट एक्सप्लोरर, फायरफॉक्स और क्रोम जैसे ब्राउज़र समझ पाते हैं। वे इस तकनीकी भाषा में लिखी हुई इबारतों को इंसानों के समझने लायक वेब पेजों के रूप में दिखाते हैं। आपने पीएचपी, एएसपी॰नेट, जेएसपी, कोल्ड यूज़न और इनसे मिलती.जुलती कुछ और आधुनिक भाषाओं के बारे में सुना या पढ़ा होगा। ये भाषाएं सवर्र साइड भाषाएं कहलाती हैं और हमारा ब्राउज़र इन्हें नहीं समझता। जब इन भाषाओं में लिखे हुए कोड को वेब सवर्र द्वारा एचटीएमएल में बदलकर पेश किया जाता है, तभी वे इंटरनेट एक्सप्लोरर पर वेब पेजों की शक्ल में दिखाई देते हैं। चूंकि आप.हम अप्रत्यक्ष रूप से एचटीएमएल कोड को ही एक्सेस करते हैं इसलिए इस कोड की कमियां और अच्छाइयां सामान्य वेब उपयोक्ता को प्रभावित करती हैं।

वेब की यह नई भाषा वेबसाइटों में ड्रैग एंड ड्रॉप और वीडियो प्लेबैक जैसी सुविधाएं शामिल करना आसान बना देगी। आईफोन पर इसी तकनीक के जरिए ऑफलाइन जीमेल सुविधा की शुरूआत हो चुकी है।

एचटीएमएल 5 की जिस अच्छाई का हमने ऊपर जिक्र किया (ऑफलाइन ब्राउजि़ंग), वह इसलिए संभव हुई क्योंकि एचटीएमएल 5 उपयोक्ता के कंप्यूटर पर बड़ी मात्रा में डेटा स्टोर करके रखने में सक्षम है। इसके लिए लोकल डेटाबेस स्टोरेज नामक नई तकनीक की शुरूआत हुई है। इंटरनेट कनेक्शन बंद होने पर वही डेटा हमें उपलब्ध हो जाता है। लेकिन उसकी इसी 'अच्छाई' ने प्राइवेसी और सिक्यूरिटी के पंडितों की नींद हराम कर दी है क्योंकि आपके कंप्यूटर पर रखे गए डेटा को गलत तत्व भी एक्सेस कर सकते हैं। एचटीएमएल 5 से पहले भी वेबसाइटें आपके कंप्यूटर में 'कुकीज' के रूप में सीमित मात्रा में कुछ सूचनाएं स्टोर करके रखने में सक्षम थीं। लेकिन नई वेब भाषा की बात अलग है। इसमें 'एवरकुकी' भी शामिल है, जिसमें रखी हुई सूचनाओं को डिलीट करना बहुत मुश्किल है। इंटरनेट पर सक्रिय हैकरों और अपराधी तत्वों के लिए यह आपकी निजी सूचनाओं का खजाना सिद्ध हो सकता है।

ये सूचनाएं कैसी हो सकती हैं? बानगी देखिए. आपके द्वारा वेबसाइटों पर डाली गई जानकारी, आपके शहर या कस्बे संबंधी सूचनाएं, फोटो, इंटरनेट पर खरीदी गई वस्तुओं की जानकारी, आपके ईमेल संदेश और पिछले कई महीनों के दौरान आप जिस.जिस वेबसाइट पर गए उसकी जानकारी। सिद्धहस्त हैकर यही सूचनाएं पाने के लिए वायरसों और स्पाईवेयर का इस्तेमाल किया करते थे। क्या एचटीएमएल 5 उनका काम और आसान नहीं बना देगी? आज हम इंटरनेट ब्राउज़रों द्वारा स्टोर की गई सूचनाओं को बहुत आसानी से डिलीट कर सकते हैं। लेकिन 'एवरकुकी' जैसे कुकीज के मामले में यह आसान नहीं होगा क्योंकि वे इन सूचनाओं को चित्रों, लैश फाइलों या दूसरे फॉरमैट में भी रख सकते हैं। यहां तक कि डिलीट कर दिए गए डेटा को भी दोबारा पैदा करने में सक्षम हैं।

एचटीएमएल 5 का प्रायोगिक इस्तेमाल शुरू हो चुका है। बहुत जल्दी सभी वेब ब्राउज़र इसका समर्थन करने लगेंगे। इंटरनेट आपके लिए पहले से ज्यादा लुभावना हो जाएगा, मगर प्राइवेसी? अगर जरूरी संशोधन नहीं किए गए तो वेब की नई भाषा हम सबके लिए नई समस्याएं पैदा कर सकती है।
(लेखक प्रभासाक्षी डाट काम के संपादक हैं)