Wednesday, June 16, 2010

भारतीय लोकतंत्र में नक्सली हिंसा पर व्याख्यान


पटना। बिहार की राजधानी पटना के बीआईए सभागार( सिन्हा लाइब्रेरी रोड) में संजय द्विवेदी ने भारतीय लोकतंत्र में नक्सली हिंसा विषय पर व्याख्यान दिया। वे कार्यक्रम के मुख्यवक्ता थे। समारोह की अध्यक्षता बिहार विधानसभा के सभापति श्री ताराकांत झा ने की।

जनसंचार विभागाध्यक्ष सम्मानित


जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी को सम्मानित करते हुए श्री ताराकांत झा।

संजय द्विवेदी का सम्मान


माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी का पटना के बीआईए सभागार में सम्मान करते हुए बिहार विधानपरिषद के सभापति श्री ताराकांत झा।

Saturday, June 12, 2010

आप वहां क्या कर रही हैं अरूंधती ?


-संजय द्विवेदी
मुझे पता था वे अपनी बात से मुकर जाएंगी। बीते 2 जून, 2010 को मुंबई में महान लेखिका अरूंधती राय ने जो कुछ कहा उससे वे मुकर गयी हैं। एक प्रमुख अखबार के 12 जून, 2010 के अंक में छपे अपने लेख में अरूधंती ने अपने कहे की नई व्याख्या दी है और ठीकरा मीडिया पर फोड़ दिया है। मीडिया के इस काम को उन्होंने खबरों का ग्रीनहंट नाम दिया है। जाहिर तौर पर अरूंधती को जो करना था वे कर चुकी हैं। वे एक हिंसक अभियान से जुड़े लोगों को संदेश दे चुकी हैं। 2 जून के वक्तव्य की 12 जून को सफाई देना यानि चीजें अपना काम कर चुकी हैं। अरूधंती भी अपने लक्ष्य पा चुकी हैं। पहला लक्ष्य था वह प्रचार जो गुनहगारों के पक्ष में वातावरण बनाता है, दूसरा लक्ष्य खुद को चर्चा में लाना और तीसरा लक्ष्य एक भ्रम का निर्माण।
यह सही मायने में मीडिया का ऐसा इस्तेमाल है जिसे राजनेता और प्रोपेगेंडा की राजनीति करने वाले अक्सर इस्तेमाल करते हैं। आप जो कहें उसे उसी रूप में छापना और दिखाना मीडिया की जिम्मेदारी है किंतु कुछ दिन बाद जब आप अपने कहे की अनोखी व्याख्याएं करते हैं तो मीडिया क्या कर सकता है। अरूंधती राय एक महान लेखिका हैं उनके पास शब्दजाल हैं। हर कहे गए वाक्य की नितांत उलझी हुयी व्याख्याएं हैं। जैसे 76 सीआरपीएफ जवानों की मौत पर वे “दंतेवाड़ा के लोगों को सलाम” भेजती हैं। आखिर यह सलाम किसके लिए है मारने वालों के लिए या मरनेवालों के लिए। अब अरूधंती ने अपने ताजा लेख में लिखा हैः “मैंने साफ कर दिया था कि सीआरपीएफ के जवानों की मौत को मैं एक त्रासदी के रूप में देखती हूं और मैं मानती हूं कि वे गरीबों के खिलाफ अमीरों की लड़ाई में सिर्फ मोहरा हैं। मैंने मुंबई की बैठक में कहा था कि जैसे-जैसे यह संघर्ष आगे बढ़ रहा है, दोनों ओर से की जाने वाली हिंसा से कोई भी नैतिक संदेश निकालना असंभव सा हो गया है। मैंने साफ कर दिया था कि मैं वहां न तो सरकार और न ही माओवादियों द्वारा निर्दोष लोगों की हत्या का बचाव करने के लिए आई हूं।”
नक्सली हिंसा, हिंसा न भवतिः
ऐसी बौद्धिक चालाकियां किसी हिंसक अभियान के लिए कैसी मददगार होती हैं। इसे वे बेहतर समझते हैं जो शब्दों से खेलते हैं। आज पूरे देश में इन्हीं तथाकथित बुद्धिजीवियों ने ऐसा भ्रम पैदा किया है कि जैसे नक्सली कोई महान काम कर रहे हों। ये तो वैसे ही है जैसे नक्सली हिंसा हिंसा न भवति। कभी हमारे देश में कहा जाता था वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति। सरकार ने एसपीओ बनाए, उन्हें हथियार दिए इसके खिलाफ गले फाड़े गए, लेख लिखे गए। कहा गया सरकार सीधे-साधे आदिवासियों का सैन्यीकरण कर रही। यही काम नक्सली कर रहे हैं, वे बच्चों के हाथ में हथियार दे रहे तो यही तर्क कहां चला जाता है। अरूंधती राय के आउटलुक में छपे लेख को पढ़िए और बताइए कि वे किसके साथ हैं। वे किसे गुमराह कर रही हैं।

अभिव्यक्ति के खतरे तो उठाइएः
अब वे अपने बयान से उठ सकने वाले संकटों से आशंकित हैं। उन्हें अज्ञात भय ने सता रखा वे लिखती है-“क्या यह ऑपरेशन ग्रीनहंट का शहरी अवतार है, जिसमें भारत की प्रमुख समाचार एजेंसी उन लोगों के खिलाफ मामले बनाने में सरकार की मदद करती है जिनके खिलाफ कोई सबूत नहीं होते? क्या वह हमारे जैसे कुछ लोगों को वहशी भीड़ के सुपुर्द कर देना चाहती है, ताकि हमें मारने या गिरफ्तार करने का कलंक सरकार के सिर पर न आए। या फिर यह समाज में ध्रुवीकरण पैदा करने की साजिश है कि यदि आप ‘हमारे’ साथ नहीं हैं, तो माओवादी हैं। ” आखिर अरूंधती यह करूणा भरे बयान क्यों जारी कर रही हैं। उन्हें किससे खतरा है। मुक्तिबोध ने भी लिखा है अभिव्यक्ति के खतरे तो उठाने ही होंगें। महान लेखिका अगर सच लिख और कह रही हैं तो उन्हें भयभीत होने की जरूरत नहीं हैं। नक्सलवाद के खिलाफ लिख रहे लोगों को भी यह खतरा हो सकता है। सो खतरे तो दोनों ओर से हैं। नक्सलवाद के खिलाफ लड़ रहे लोग अपनी जान गवां रहे हैं, खतरा उन्हें ज्यादा है। भारतीय सरकार जिनके हाथ अफजल गुरू और कसाब को भी फांसी देते हुए कांप रहे हैं वो अरूंधती राय या उनके समविचारी लोगों का क्या दमन करेंगी। हाल यह है कि नक्सलवाद के दमन के नाम पर आम आदिवासी तो जेल भेज दिया जाता है पर असली नक्सली को दबोचने की हिम्मत हममें कहां है। इसलिए अगर आप दिल से माओवादी हैं तो निश्चिंत रहिए आप पर कोई हाथ डालने की हिम्मत कहां करेगा। हमारी अब तक की अर्जित व्यवस्था में निर्दोष ही शिकार होते रहे हैं।
अरूंधती इसी लेख में लिख रही हैं- “26 जून को आपातकाल की 35वीं सालगिरह है। भारत के लोगों को शायद अब यह घोषणा कर ही देनी चाहिए कि देश आपातकाल की स्थिति में है (क्योंकि सरकार तो ऐसा करने से रही)। इस बार सेंसरशिप ही इकलौती दिक्कत नहीं है। खबरों का लिखा जाना उससे कहीं ज्यादा गंभीर समस्या है।” क्या भारत मे वास्तव में आपातकाल है, यदि आपातकाल के हालात हैं तो क्या अरूंधती राय आउटलुक जैसी महत्वपूर्ण पत्रिका में अपने इतने महान विचार लिखने के बाद मुंबई में हिंसा का समर्थन और गांधीवाद को खारिज कर पातीं। मीडिया को निशाना बनाना एक आसान शौक है क्योंकि मीडिया भी इस खेल में शामिल है। यह जाने बिना कि किस विचार को प्रकाशित करना, किसे नहीं, मीडिया उसे स्थान दे रहा है। यह लोकतंत्र का ही सौंदर्य है कि आप लोकतंत्र विरोधी अभियान भी इस व्यवस्था में चला सकते हैं। नक्सलियों के प्रति सहानुभूति रखते हुए नक्सली आंदोलन के महान जनयुद्ध पर पन्ने काले कर सकते हैं। मीडिया का विवेकहीनता और प्रचारप्रियता का इस्तेमाल करके ही अरूंधती राय जैसे लोग नायक बने हैं अब वही मीडिया उन्हें बुरा लग रहा है। अपने कहे पर संयम न हो तो मीडिया का इस्तेमाल करना सीखना चाहिए।
कारपोरेट की लेवी पर पलता नक्सलवादः
अरूंधती कह रही हैं कि “ मैंने कहा था कि जमीन की कॉरपोरेट लूट के खिलाफ लोगों का संघर्ष कई विचारधाराओं से संचालित आंदोलनों से बना है, जिनमें माओवादी सबसे ज्यादा मिलिटेंट हैं। मैंने कहा था कि सरकार हर किस्म के प्रतिरोध आंदोलन को, हर आंदोलनकारी को ‘माओवादी’ करार दे रही है ताकि उनसे दमनकारी तरीकों से निपटने को वैधता मिल सके।” अरूंधती के मुताबिक माओवादी कारपोरेट लूट के खिलाफ काम कर रहे हैं। अरूंधती जी पता कीजिए नक्सली कारपोरेट लाबी की लेवी पर ही गुजर-बसर कर रहे हैं। नक्सल इलाकों में आप अक्सर जाती हैं पर माओवादियों से ही मिलती हैं कभी वहां काम करने वाले तेंदुपत्ता ठेकेदारों, व्यापारियों, सड़क निर्माण से जुड़े ठेकेदारों, नेताओं और अधिकारियों से मिलिए- वे सब नक्सलियों को लेवी देते हुए चाहे जितना भी खाओ स्वाद से पचाओ के मंत्र पर काम कर रहे हैं। आदिवासियों के नाम पर लड़ी जा रही इस जंग में वे केवल मोहरा हैं। आप जैसे महान लेखकों की संवेदनाएं जाने कहां गुम हो जाती हैं जब ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस पर लाल आतंक के चलते सैकड़ों परिवार तबाह हो जाते हैं। राज्य की हिंसा का मंत्रजाप छोड़कर अपने मिलिंटेंट साथियो को समझाइए कि वे कुछ ऐसे काम भी करें जिससे जनता को राहत मिले। स्कूल में टीचर को पढ़ाने के लिए विवश करें न कि उसे दो हजार की लेवी लेकर मौज के लिए छोड़ दें। राशन दुकान की मानिटरिंग करें कि छत्तीसगढ में पहले पचीस पैसे किलो में अब फ्री में मिलने वाला नमक आदिवासियों को मिल रहा है या नहीं। वे इस बात की मानिटरिंग करें कि एक रूपए में मिलने वाला उनका चावल उन्हें मिल रहा है या उसे व्यापारी ब्लैक में बेच खा रहे हैं। किंतु वे ऐसा क्यों करेंगें। आदिवासियों के वास्तविक शोषक, लेवी देकर आज नक्सलियों की गोद में बैठ गए हैं। इसलिए तेंदुपत्ता का व्यापारी, नेता, अफसर, ठेकेदार सब नक्सलियों के वर्गशत्रु कहां रहे। जंगल में मंगल हो गया है। ये इलाके लूट के इलाके हैं। आप इस बात का भी अध्ययन करें नक्सलियों के आने के बाद आदिवासी कितना खुशहाल या बदहाल हुआ है। आप नक्सलियों के शिविरों पर मुग्ध हैं, कभी सलवा जुडूम के शिविरों में भी जाइए। आपकी बात सुनी,बताई और छापी जाएगी। क्योंकि आप एक सेलिब्रिटी हैं। मीडिया आपके पीछे भागता है। पर इन इलाकों में जाते समय किसी खास रंग का चश्मा पहन कर न जाएं। खुले दिल से, मुक्त मन से, उसी आदिवासी की तरह निर्दोष बनकर जाइएगा जो इस जंग में हर तरफ से पिट रहा है। सरकारें परम पवित्र नहीं होतीं। किंतु लोकतंत्र के खिलाफ अगर कोई जंग चल रही है तो आप उसके साथ कैसे हो सकते हैं। जो हमारे संविधान, लोकतंत्र को खारिज तक 2050 तक माओ का राज लाना चाहते हैं आप उनके साथ क्यों और कैसे खड़ी हैं अरूंधती। एक संवेदनशील लेखिका होने के नाते इतना तो आपको पता होगा साम्यवादी या माओवादी शासन में पहला शिकार कलम ही होती है। फिर आप वहां क्या रही हैं अरूंधती?

Friday, June 11, 2010

वह लड़की और नरभक्षी नक्सली


-संजय द्विवेदी

ये ठंड के दिन थे, हम पूर्वी उत्तर प्रदेश की सर्दी से मुकाबिल थे। ससुराल में छुट्टियां बिताना और सालियों का साथ किसे नहीं भाएगा। वहीं मैंने पहली बार एक खूबसूरत सी लड़की प्रीति को देखा था। वह मेरी छोटी साली साहिबा की सहेली है। उससे देर तक बातें करना मुझे बहुत अच्छा लगा। फिर हमारी बातों का सिलसिला चलता रहा, उसने बताया कि उसकी शादी होने वाली है और उसकी शादी में मुझे रहना चाहिए। खैर मैं उसकी शादी में तो नहीं गया पर उसकी खबरें मिलती रहीं। अच्छा पति और परिवार पाकर वह खुश थी। उसके पति का दुर्गापुर में कारोबार था। उसकी एक बेटी भी हुयी। किंतु 28 मई,2010 की रात उसकी दुनिया उजड़ गयी।पश्चिम बंगाल के पास झारग्राम में ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस पर बरपे लाल आतंक में प्रीति के पति की मौत हो गयी। इस खबर ने हमें हिला सा दिया है। हमारे परिवार में प्रीति की बहुत सी यादें है। उसकी बोली, खनक और महक सब हमारे साथ है। किंतु उसके इस तरह अकेले हो जाने की सूचना हम बर्दाश्त नहीं कर पा रहे। नक्सली हिंसा का यह घिनौना रूप दुख को बढ़ाता है और उससे ज्यादा गुस्से से भर देता है। हम भारत के लोग हमारी सरकारों के कारनामों का फल भुगतने के लिए विवश हैं।
नक्सली हमले में हुयी यह पहली मौत नहीं है। ये एक सिलसिला है जो रूकने को नहीं है। बस खून...मांस के लोथड़े...कराहें.. आंसू....चीखें...और आर्तनाद। यही नक्सलवाद का असली चेहरा है। किंतु नक्सलवाद के नाम पर मारे जा रहे अनाम लोगों के प्रति उनके आंसू सूख गए हैं। क्या हिंसा,आतंक और खूनखराबे का भी कोई वाद हो सकता है। हिंदुस्तान के अनाम, निरीह लोग जो अपनी जिंदगी की जद्दोजहद में लगे हैं उनके परिवारों को उजाड़ कर आप कौन सी क्रांति कर रहे हैं। जिस जंग से आम आदमी की जिंदगी तबाह हो रही हो उसे जनयुद्ध आप किस मुंह से कह रहे हैं। यह एक ऐसी कायराना लड़ाई है जिसमें नक्सलवादी नरभक्षियों में बदल गए हैं। ट्रेन में यात्रा कर रहे आम लोग अगर आपके निशाने पर हैं तो आप कैसी जंग लड़ रहे हैं। आम आदमी का खून बहाकर वे कौन सा राज लाना चाहते हैं यह किसी से छिपा नहीं है।
क्या कह रही हो अरूंधतीः
न जाने किस दिल से देश की महान लेखिका और समाज सेविका अरूंधती राय और महाश्वेता देवी को नक्सलवादियों के प्रति सहानुभूति के शब्द मिल जाते हैं। नक्सलवाद को लेकर प्रख्यात लेखिका और बुकर पुरस्कार विजेता अरूंधती राय का बयान दरअसल आंखें खोलने वाला है। अब तो इस सच से पर्दा हट जाना चाहिए कि नक्सलवाद किस तरह से एक देशतोड़क आंदोलन है और इसे किस तरह से समर्थन मिल रहा है। नक्सलियों द्वारा की जा रही हत्याओं का समर्थन कर अरूंधती राय ने अपने समविचारी मानवाधिकारवादियों, कथित लेखकों और आखिरी आदमी के लिए लड़ने का दम भरने वाले संगठनों की पोल खोल दी है। उन्होंने अपना पक्ष जाहिर कर देश का बहुत भला किया है। उनके इस साहस की सराहना होनी चाहिए कि खूनी टोली का साथ तमाम किंतु-परंतु के साथ नहीं दे रही हैं और नाहक नाजायज तर्कों का सहारा लेकर नक्सलवाद को जायज नहीं ठहरा रही हैं। उनका बयान ऐसे समय में आया है जब भारत के महान लोकतंत्र व संविधान के प्रति आस्था रखनेवालों और उसमें आस्था न रखनेवालों के बीच साफ-साफ युद्ध छिड़ चुका है। ऐसे में अरूंधती के द्वारा अपना पक्ष तय कर लेना साहसिक ही है। वे दरअसल उन ढोंगी बुद्धिजीवियों से बेहतर है जो महात्मा गांधी का नाम लेते हुए भी नक्सल हिंसा को जायज ठहराते हैं। नक्सलियों की सीधी पैरवी के बजाए वे उन इलाकों के पिछड़ेपन और अविकास का बहाना लेकर हिंसा का समर्थन करते हैं। अरूंधती इस मायने में उन ढोंगियों से बेहतर हैं जो माओवाद, लेनिनवाद, समाजवाद, गांधीवाद की खाल ओढ़कर नक्सलियों को महिमामंडित कर रहे हैं।
तय करें आप किसके साथः
खुद को संवेदनशील और मानवता के लिए लड़ने वाले ये कथित बुद्धिजीवी कैसे किसी परिवार को उजड़ता हुआ देख पा रहे हैं। वे नक्सलियों के कथित जनयुद्ध में साथ रहें किंतु उन्हें मानवीय मूल्यों की शिक्षा तो दें। हत्यारों के गिरोह में परिणित हो चुका नक्सलवाद अब जो रूप अख्तियार कर चुका है उससे किसी सदाशयता की आस पालना बेमानी ही है। सरकारों के सामने विकल्प बहुत सीमित हैं। हिंसा के आधार पर 2050 में भारत की राजसत्ता पर कब्जा करने का सपना देखने वाले लोगों को उनकी भाषा में ही जवाब दिया जाना जरूरी है। सो इस मामले पर किसी किंतु पंरतु के बगैर भारत की आम जनता को भयमुक्त वातावरण में जीने की स्थितियां प्रदान करनी होंगी। हर नक्सली हमले के बाद हमारे नेता नक्सलियों की हरकत को कायराना बताते हैं जबकि भारतीय राज्य की बहादुरी के प्रमाण अभी तक नहीं देखे गए। जिस तरह के हालात है उसमें हमारे और राज्य के सामने विकल्प कहां हैं। इन हालात में या तो आप नक्सलवाद के साथ खड़े हों या उसके खिलाफ। यह बात बहुत तेजी से उठाने की जरूरत है कि आखिर हमारी सरकारें और राजनीति नक्सलवाद के खिलाफ इतनी विनीत क्यों है। क्या वे वास्तव में नक्सलवाद का खात्मा चाहती हैं। देश के बहुत से लोगों को शक है कि नक्सलवाद को समाप्त करने की ईमानदार कोशिशें नदारद हैं। देश के राजनेता, नौकरशाह, उद्योगपति, बुद्धिजीवियों और ठेकेदारों का एक ऐसा समन्वय दिखता है कि नक्सलवाद के खिलाफ हमारी हर लड़ाई भोथरी हो जाती है। अगर भारतीय राज्य चाह ले तो नक्सलियों से जंग जीतनी मुश्किल नहीं है।
हमारा भ्रष्ट तंत्र कैसे जीतेगा जंगः
सवाल यह है कि क्या कोई भ्रष्ट तंत्र नक्सलवादियों की संगठित और वैचारिक शक्ति का मुकाबला कर सकता है। विदेशों से हथियार और पैसे अगर जंगल के भीतर तक पहुंच रहे हैं, नक्सली हमारे ही लोगों से करोड़ों की लेवी वसूलकर अपने अभियान को आगे बढ़ा रहे हैं तो हम इतने विवश क्यों हैं। क्या कारण है कि हमारे अपने लोग ही नक्सलवाद और माओवाद की विदेशी विचारधारा और विदेशी पैसों के बल पर अपना अभियान चला रहे हैं और हम उन्हें खामोशी से देख रहे हैं। महानगरों में बैठे तमाम विचारक एवं जनसंगठन किस मुंह से नक्सली हिंसा को खारिज कर रहे हैं जबकि वे स्वयं इस आग को फैलाने के जिम्मेदार हैं। शब्द चातुर्य से आगे बढ़कर अब नक्सलवाद या माओवाद को पूरी तरह खारिज करने का समय है। किंतु हमारे चतुर सुजान विचारक नक्सलवाद के प्रति रहम रखते हैं और नक्सली हिंसा को खारिज करते हैं। यह कैसी चालाकी है। माओवाद का विचार ही संविधान और लोकतंत्र विरोधी है, उसके साथ खड़े लोग कैसे इस लोकतंत्र के शुभचिंतक हो सकते हैं। यह हमें समझना होगा। ऐसे शब्दजालों और भ्रमजालों में फंसी हमारी सरकारें कैसे कोई निर्णायक कदम उठा पाएंगीं। जो लोग नक्सलवाद को सामाजिक-आर्थिक समस्या बताकर मौतों पर गम कम करना चाहते हैं वो सावन के अंधे हैं। सवाल यह भी उठता है कि क्या हमारी सरकारें नक्सलवाद का समाधान चाहती हैं? अगर चाहती हैं तो उन्हें किसने रोक रखा है? कितनी प्रीतियों का घर उजाड़ने के बाद हमारी सरकारें जागेंगी यह सवाल आज पूरा देश पूछ रहा है। क्या इस सवाल का कोई जवाब भारतीय राज्य के पास है,,क्योंकि यह सवाल उन तमाम निर्दोष भारतीयों के परिवारों की ओर से भी है जो लाल आतंक की भेंट चढ़ गए हैं।

जनगणमन में लोकतंत्र कहाँ है?


-कुन्दन पाण्डेय

भारत में लोकतंत्र कहाँ है ? कहीं नहीं लेकिन अराजकता हर कहीं हैं। संसद में, विधानसभाओं में, विधानसभाओं में होने वाली मारपीट में, केन्द्र सरकार में, राज्य सरकार में, मंत्रियों में, नेताओं में, राजनीतिक दलों में, सांसदों में, सांसदों द्वारा संसद में प्रश्न पूछने के लिए पैसा लेने में, विधायकों में, चुनावों में, चुनावी प्रत्याशियों में, केन्द्रीय विभागों व कर्मचारियों में, राज्य सरकार के विभागों व कर्मचारियों में, पुलिस में, सेना में, गरीबों के शोषण में, विदर्भ के कपास किसानों की आत्महत्याओं में, गन्ना किसानों को महीनों बाद मिलने वाले भुगतानों में, ठेकेदारों के मानकों के विपरीत निर्माणों में, अभियंताओं सहित सभी सरकारी कर्मचारियों के ऊपरी आमदनी में, उद्योगपतियों के करापवंचन में, आदिवासियों को उनकी जंगली जमीन से बेदखल करके नक्सलियों के रहमोकरम पर छोड़ने में, उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के हरैया में इंजिनियर मनोज गुप्ता, दिल्ली के बार में माडल जेसिका लाल, पत्रकार शिवानी भटनागर व निरुपमा पाठक, कवियित्रि मधुमिता शुक्ला, विधायक कृष्णानंद राय व राजू पाल तथा बह्मदत्त द्विवेदी आदि की हत्याओं में तो केवल अराजकता ही अराजकता है लोकतंत्र कहीं है ही नहीं।
कांग्रेस भाजपा दोनों के चुनावी चन्दों में, सभी राजनीतिक दलों की जाति व वोटबैंक की राजनीति में, मुस्लिमों का विकास के लिए नहीं बल्कि केवल वोटबैंक के लिए तुष्टिकरण में, बंग्लादेशी घुसपैठियों को भारत का नागरिक व मतदाता बनाने में, बोफोर्स तोप दलाली के अभियुक्तों के न पकड़े जाने में, संसद हमले के सजायाफ्ता अफजल की फाँसी की दया याचिका का निपटारा न होने में, इंदिरा गाँधी द्वारा 25 जून, सन् 1975 से लगभग 19 माह तक थोपे गये असंवैधानिक आपातकाल में, आपातकाल लागू होने के ठीक पहले तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ के इस कथन में कि “इंदिरा ही भारत है और भारत ही इंदिरा है” संजय गांधी के पं. जर्मनी के एक अखबार को दिए एक साक्षात्कार में कि “मुझे डिक्टेटरशिप पसंद है, लेकिन हिटलर जैसी नहीं।” क्या इस डिक्टेटरशिप में कहीं लोकतंत्र होगा ? ताज्जुब की बात यह है कि सिर्फ इंदिरा गाँधी के बेटे होने के कारण ऐसा आसानी से कहा गया। देश के लगभग सभी राज्यों में राजनीतिक प्रतिनिधित्व रखने वाली कांग्रेस पार्टी में इंदिरा गांधी के वंशजों के एकछत्र राज में । इन सभी तथ्यों में भी कहीं लोकतंत्र है ? नहीं है।
सातवें दशक के प्रारम्भ में संसद के अपने पहले भाषण में प्रखर समाजवादी डॉं. राममनोहर लोहिया ने कहा था कि “यह हमेशा याद रखा जाय कि 27 करोड़ आदमी 3 आने रोज के खर्च पर जिंदगी गुजर-बशर कर रहे हैं जबकि प्रधानमंत्री नेहरु के कुत्ते पर 3 रुपए रोज खर्च करना पड़ता है।” क्या नेहरु के इस कृत्य में लोकतंत्र है ? “अर्जुन सेन गुप्ता की रिपोर्ट के अनुसार देश की 70 प्रतिशत से अधिक जनता की दैनिक आमदनी 20 रुपए से कम है।” उसी लोकतांत्रिक भारत में तथाकथित (कांग्रेसी) युवराज राहुल गांधी हाल ही में डेढ़ दिवसीय यात्रा पर दक्षिण भारत गए थे। चेन्नई से प्रकाशित एक प्रतिष्ठित दैनिक में छपे ब्यौरे के मुताबिक “उनकी इस यात्रा पर मोटामोटी लगभग 2 करोड़ रुपए व्यय हुए।” सत्ताधारी दल के महासचिव की गैर सरकारी यात्रा पर 2 करोड़ खर्च करना कैसे लोकतांत्रिक हो सकता है?
सन् 2000 के एक आंकड़े के अनुसार उस वर्ष एक भारतीय नागरिक की औसत आमदनी केवल 29.50 रुपए थी, जबकि उसी समय राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री व केन्द्रीय मंत्रिमण्डल पर रोजाना 1000 करोड़ रुपए अर्थात् औसत आमदनी का लगभग 70,000 गुना रोजाना खर्च होता था आज तो यह बढ़कर कई गुना हो गया होगा। क्या उपरोक्त आंकड़ें स्वस्थ लोकतंत्र की गाथा बयान करते हैं? नहीं न।
पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन के शब्दों में लोकतंत्र की परिभाषा, “ लोकतंत्र जनता का, जनता द्वारा, जनता के लिए शासन है। ” अर्थात् लोकतंत्र की नींव उसका मतदाता होता है जबकि बहुमत का मतदाता अभी भी गाँवों में रहता है, जो लोकतंत्र में अपनी भूमिका से व्यापक रुप से असंतुष्ट है। यही हाल गरीबों, मजदूरों, आदिवासियों व भूमिहीन किसानों का भी है। ये सभी एक स्वर में कहते हैं “कोई नृप होऊ, हमें का हानि।” सामान्यत: भारतीय लोकतंत्र के बहुमत का मतदाता 5 वर्षो में एक बार बतौर चुनाव प्रत्याशी अपने सांसद या विधायक या जनप्रतिनिधि का द्वार पर आये भगवान सरीखा दर्शन करने की ही भागीदारी निभा पाता है। लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने एक बार कहा था कि “वे पाते है कि स्थानीय शासन कार्यो में उनका कोई हाथ नहीं है और छोटा से छोटा राजकर्मचारी भी उनके प्रति किसी रुप में उत्तरदायी नहीं है, उल्टे वही उन पर धौंस जमाता है और अंग्रेजों के गुलामी के समय की तरह ही उनसे रिश्वत वसूलता है। लोकनायक आगे कहते है कि इस सच्चाई का सामना करना होगा कि जनता को स्वराज्य-भावना की अनुभूति नहीं हो पायी है। हमारे लोकतांत्रिक क्रियाकलाप में केवल थोड़े से शिक्षित मध्यम वर्ग के लोग संलग्न है और उनमें भी वही हैं जो प्रत्यक्ष रुप से राजनीतिक कार्यों में लगे हुए है।” उपरोक्त कथनों से आशय स्पष्ट है कि 5 वर्ष में एक बार मत देकर जनप्रतिनिधियों व सरकार पर अंकुश नहीं रखा जा सकता। इंदिरा गाँधी की हत्या की प्रतिक्रिया में हुए सिखों के राष्ट्रव्यापी कत्लेआम के बारे में राजीव गाँधी ने कहा था कि “जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो जमीन काँपती ही है।” क्या भारतीय लोकतंत्र में प्रभावशाली लोगों द्वारा ऐसा बयान देना लोकतांत्रिक है ? गुजरात दंगे के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी ने कम से कम मोदी को राजधर्म निभाने की नसीहत दी थी। क्या भारतीय लोकतंत्र में गरीबों, बेबसों, लाचारों, वंचितों, अंत्योदयों, भूमिहीन किसानों, मजदूरों, आदिवासियों के जीवन का कोई महत्व नहीं ? क्या उपरोक्त तबकों के जीवन का एक छोटे पौधे के बराबर भी महत्व नहीं है ? प्रधानमंत्री रहते राजीव गाँधी ने भ्रष्ट सिस्टम को स्वीकारते हुए कहा था कि, “आज देश में सत्ता के दलाल इस तरह बढ़ गए हैं कि हम ऊपर से एक रुपया भेजते हैं तो लक्षित लोगों तक 15 पैसे ही पहुँच पाते हैं।” क्या ऐसी भ्रष्ट व्यवस्था ( सिस्टम) लोकतांत्रिक हैं ? क्या भारत के प्रधानमंत्री के अपने ही लोकतंत्र में भ्रष्टाचार के सामने इतने बेबस और लाचार होने में लोकतंत्र है ? यदि भारतीय प्रधानमंत्री भ्रष्टाचार से इतने बेबस, लाचार हैं, तो अनपढ़, ग्रामीण, दलित, पिछड़े, भूमिहीन किसान, मजदूर तथा आदिवासी इस भ्रष्ट व्यवस्था (सिस्टम) से कितने बेबस लाचार रहते होगें, इसकी आसानी से कल्पना की जा सकती है।
संविधान की मूल प्रति में राम और कृष्ण के चित्र हैं, पर नेताओं द्वारा काल्पनिक बताये जा रहे हैं। लोकतंत्र के सर्वोच्च मंदिर का हमलावर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मृत्यु दंडित राष्ट्रद्रोही है, तो भी उसके नाम पर एक मजहब को लुभाने के प्रयत्न हो रहे हैं। मतदान केवल भारतीय नागरिकों का संवैधानिक अधिकार है, लेकिन बंग्लादेशी घुसपैठिए भी मतदाता सूचियों में दर्ज हैं। जम्मू कश्मीर को विशेषाधिकार प्रदान करने वाली धारा 370, जिसे घिस-घिस कर समाप्त हो जाने की बात कही गयी थी, वो प्रतिदिन मजबूती प्राप्त करने वाला गिरि बनता जा रहा है। नीति निर्देशक तत्वों में उल्लिखित समान नागरिक संहिता बनाने का न्यायालय बारम्बार निर्देश दे रहा है, फिर भी केन्द्र सरकार इसे नहीं बना रही है। क्या इस अवतरण के किसी भी तथ्य में कहीं भी लोकतंत्र हैं ? नहीं।
वास्तव में बहुत से तंत्रों ने मिलकर लोकतंत्र के चारो ओर एक दुष्चक्र बना लिया है, जिससे निकलने के लोकतंत्र के सारे प्रयत्न व्यर्थ होते जा रहे हैं। भारत में लोकतंत्र कहीं है ही नहीं, है तो एक “सुविधाशुल्कतंत्र, घोटालातंत्र या घूसतंत्र” जो की अब व्यवस्था या सिस्टम का सभी लोगों द्वारा अंगीकृत किया जाने वाला सामान्यत: सबसे “शिष्टतंत्र” बन गया है, जिसके माध्यम से केन्द्र से चले 100 पैसे गाँव के अन्त्योदय तक पहुँचते-पहुँचते 15 पैसे ही रह जाते हैं। एक नेतातंत्र है, जिसमें नेता दो संवैधानिक पदों पर रह सके इस हेतु एक पद को लाभ का पद न मानने की व्यवस्था कर दी गयी। यह नेतातंत्र सभी लाभकारी कार्य करते हैं - यथा किसी न किसी खेल संस्था में वर्चस्व बनाते हैं, आईपीएल की टीम खरीदते हैं, शिक्षण संस्थायें पेट्रोल पम्प व गैस एजेंसी चलाते हैं, खुद व्यवसाय करते हैं, उद्यम चलाते हैं, एन. जी. ओ. इत्यादि चलाते हैं, कभी पत्नी के नाम से, कभी बेटे व अन्य रिश्तेदारों के नाम से।
एक अपराध तंत्र है, जिसमें अत्यधिक ईनाम व ऊँचे राजनीतिक आका तक पहुँच रखने वाले अपराधी बनिए, समाज में, पुलिस में आपका सम्मान बढ़ता जाएगा । एक पुलिस तंत्र है, जो राज्यों के मुख्यमंत्रियों के निजी नौकर की तरह भड़काऊ भाषण के आरोप में वरुण गाँधी पर रासुका लगाकर न्यायालय में पिट जाते हैं।
“कुल मिलाकर लब्बोलुआब यह है कि लोकतंत्र में एक सर्वशक्तिशाली भ्रष्टतंत्र है जिसमें ऊपर से नीचे तक एक ईमानदार आदमी पिसकर (जीवन जीने की जगह) या तो आत्महत्या कर लेगा या ईमानदारी का सदा सर्वदा के लिए परित्याग कर देगा ।”

Monday, June 7, 2010

Full Majority To Rajneeti



-Saket Narayan

Call it Rajneeti of Prakash Jha or modern Mahabharata, it won’t make a big difference. But really what makes the difference is the way of presentation and the classy acting. Prakash Jha and his Rajneeti has everything to rule the box office.

The movie very nicely, manifestly and minimally justify its theme and the dirty politics of the nation. As during the making and promotion of the movie only it was being discussed that the quality of actors that are picked for the movie have set its path to be a big hit. Prakash Jha known for his serious theme and exceptional work has once again stood very firm on his reputation and image.

As the name only suggest that the movie is based on politics is very true. But it’s not just the politics, the politics is molded in the form of modern Mahabharata. It is the story of a political family in which as the young generation comes into power there is fight for the hold of the making and then for the C.M of the state. Manoj Bajpaye the son of the president of the party wants to get the authority of the party. While on the other side Arjun Rampal cousin of Manoj Bajpaye wants his father to be projected as the C.M. in this fight of power Arjun Rampal’s father is killed. Thus from here the main politics starts and the younger brother of Arjun Rampal, Ranbeer Kapoor along with is maternal uncle Nana Patekar gets into politics. At the same time Manoj Bajpaye gets a great power support of Ajay Devgan, which makes the movie’s resemblance very prominent with Mahabharata. From here the real struggle and the fight for the power of dirty politics begins and goes to its extreme.

The character of Ajay Devgan is very similar to that of Karana of Mahabharata while Ranbeer’s character resembles to that of Arjun and Nana Patekar is casted as the Lord Krishana. There is no point of talking about the acting, each and every actor have justified their role. Katrina Kaif looks very breathtaking in the traditional look. The music of the movie is really very melodious and instrumental. The movie is all set to bang the cinema hall. The raj of Rajneeti will rule the box office. It is more than just worth seeing. It’s really an awesome movie and seems that there is full majority for Rajneeti.

Tuesday, June 1, 2010

भविष्य का मीडिया और सामाजिक- राष्ट्रीय सरोकार

कुंदन पाण्डेय, एमए-जनसंचार

आज का युग मीडिया क्रान्ति का युग है। समाचार पत्रों की प्रसार संख्या तो अनवरत बढ़ती ही जा रही है साथ ही 24 घन्टे के समाचार चैनलों ने मिनटों में किसी भी समाचार को दर्शकों तक पहुँचाने की महत्वपूर्ण व अद्वितीय क्षमता से लोकतंत्र के चौथे खम्भे के रूप में अपनी सार्थकता को मजबूती प्रदान कर रहा है। भारत विश्व के 5 बड़े मीडिया बाजारों में से एक है। पश्चिम में समाचार पत्रों के समाप्त होने की लगातार सम्भावानाएं जतायी जा रही हैं लेकिन भारत में आने वाले कुछ दशकों तक समाचार पत्रों का भविष्य नि:संदेह उज्जवल है।
वर्तमान में सबसे उज्जवल भविष्य की संभावना वाले इलेक्ट्रानिक मीडिया में लगभग 300 समाचार चैनल अभी भारत में कार्यरत हैं और 100 से अधिक चैनल के आवेदन स्वीकृति की प्रतिक्षा में हैं। रेडियो में निजी क्षेत्र को भागीदार बनाए जाने के पश्चात से एफ एम रेडियो की लोकप्रियता निरन्तर बढ़ती जा रही है। मीडिया के सबसे लोकप्रिय व मनोरंजक माध्यम चलचित्र में बालीवुड ने हिन्दी भाषा के प्रसार में अत्युत्तम योगदान दिया है। बेव मीडिया के भी उपभोक्ता लगातार बढ़ते जा रहे हैं। वेब मीडिया से मीडिया अभिसरण (कन्वर्जेन्स) व चिट्ठाकारिता (ब्लॉग) जैसे दो नये विकास की भरपूर संभावनाओं वाले माध्यम अस्तित्व में आये हैं। सबसे नया माध्यम सेलफोन मीडिया है जिसकी विकास की सबसे असीम संभावनायें हैं। अनेक समाचार चैनल अपने प्रमुख समाचार सेल फोन पर दे रहे हैं।
मीडिया के सामाजिक तथा राष्ट्रीय सरोकारों पर लगातार वैश्वीकरण व बाजार का नकारात्मक दबाव पड़ रहा है। समाज को बताने-दिखाने, गढ़ने-बनाने के उपक्रम में भारतीय मीडिया नित नये प्रयोग कर रहा है। मीडिया ने और कुछ किया हो या न किया हो एक खास किस्म की नैतिकता को समाज में जन्म दे दिया है। जैसे समाज में भ्रष्टाचार न हो, जवाबदेही हो, शिक्षा का अधिकार, सूचना का अधिकार, महिला आरक्षण, मनरेगा सहित सभी सरकारी योजनाओं का समुचित क्रियान्वयन हो। एक तरफ तो मीडिया मतदान अवश्य करने जैसे कर्तव्यों को करने के लिए मतदाताओं को निरन्तर जागरूक कर रहा है तो दूसरी तरफ मीडिया पर समाचारों की शक्ल में चुनाव चिह्न सहित विज्ञापन छापकर लोकतंत्र व मतदाताओं को गुमराह करने व धोखा देने जैसे संगीन आरोप 15वीं लोकसभा के गत चुनाव में लगे हैं। इसके अतिरिक्त मीडिया महँगाई, आतंकवाद, नक्सली हिंसा, बंग्लादेशी घुसपैठ, धारा 370, राम जन्म भूमि, मराठी मानुष जैसे क्षेत्रीय मुद्दे, तेलंगाना, गुजरात दंगा, ऑस्ट्रेलिया में भारतीयों से नस्ली भेदभाव, पाक, चीन, अमेरिका सहित सभी देशों से संबंधित विदेश नीति आदि विषयों पर मीडिया की भूमिका किसी मुद्दे पर नकारात्मक तो किसी पर विरोधाभासी, स्पष्ट रुप से परिलक्षित होता है।

मीडिया के सामाजिक-राष्ट्रीय सरोकार
वैश्विक मंदी के कारण अखबारों के वैश्विक व्यापार में गत वर्ष लगभग 10 प्रतिशत की गिरावट का अनुमान है। अखबार जगत के संकट को अखबारी कागज की बढ़ती कीमत घटते विज्ञापन राजस्व गिरते प्रसार व कम होते पाठकों और कम समय में अधिकाधिक सूचना अंगीकृत करने की प्रतिद्वंद्विता से पाठक न्यू मीडिया माध्यमों की और तेजी से रूख कर रहे हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि 2013 तक प्रतिवर्ष 2 फीसदी की गिरावट अखबार के वैश्विक बाजार में जारी रहेगी । अमेरिकी अखबारों के विज्ञापन राजस्व में पिछले 3 सालों मे 20 अरब ड़ालर की गिरावट आयी है। वैश्विक मीडिया मुगल रुपर्ड मर्डोक ने बाजार में जमे हुए समाचार पत्रों से होने वाले फायदों के कारण “एक बार इन्हें सोने की नदी कहा था” किन्तु वर्तमान संकट के कारण उनको अपना कथन बदलकर कहना पड़ा कि “कभी-कभी नदी सूख भी जाती है।”
भारत में इंटरनेट की सीमित पहुँच भी अखबारों के विकासशील बने रहने का एक महत्वपूर्ण कारक है। भारत के लगभग 18 करोड़ अखबारी पाठकों के मुकाबले केवल 1.22 करोड़ इंटरनेट उपभोक्ता हैं। वर्ष 2008 में लगभग 1.15 करोड़ नए पाठक अखबारों से जुड़े।
फिलहाल भारत में समाचार पत्रों कि बुनियाद काफी मजबूत है और कोई सीधा खतरा इसके भविष्य पर अभी नहीं मंडरा रहा है, पर जब पूरी दुनिया के समाचार पत्र गंभीर संकट के दौर से गुजर रहे हैं तो इस वैश्विक परिदृश्य में हमें भी अखबारों की बदलती भूमिका और उत्तरदायित्व पर बाजार के पड़ रहे दुष्प्रभावों पर चैतन्य हो जाना चाहिए। भारतीय प्रेस परिषद् के अध्यक्ष न्यायमूर्ति जी.एन. रे ने प्रिंट मीडिया के भविष्य को सकरात्मक बताते हुए कहा कि वैश्विकरण और न्यू मीडिया के बढ़ते वर्चस्व व प्रतिद्वंद्विता से जूझते अखबार, जन सरोकारों से गहराई से जुड़कर भारतीय राष्ट्र व समाज में अपने चौथे स्तम्भ की भूमिका को सार्थकता प्रदान कर सकते हैं। इस हेतु अखबारों को स्वयं चिंतन-मनन, विवेचन-विश्लेषण की प्रक्रिया को अनवरत अपनाना होगा। वास्तव में यह युग सूचना और संचार का युग है जिसमें अखबार पत्रकारिता के आदर्शों से पतित हो रहे हैं। सामाजिक सरोकारों से लगातार विमुख होते जाने से पत्रकारिता का नैतिक पतन निश्चित रूप से हुआ है। आज के पत्रकारी युग का आदर्श खबरों को देना नहीं बल्कि ऐन-केन प्रकारेण खबरों को बेचना भर रह गया है। खबरों में न केवल मिलावट हो रही है बल्कि पेड न्यूज के तहत विज्ञापनों को खबरों के रूप में छाप कर पाठकों को धोखा भी दिया जा रहा है। आजादी से लेकर अब तक सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक सहित भारतीय मीडिया का स्वरुप भी काफी बदला है। जहाँ तक मीडिया और समाज के संबंधों की बात है, तो वो संबंध पहले से कहीं अधिक प्रगाढ़ हुए हैं, इसमें कोई दो राय नहीं है। पहले मीडिया का सामाजिक सरोकार तो होता था लेकिन जैसे संबंध आज है वो तो काल्पनिक ही था। आम आदमी की आवाज को राष्ट्रीय आवाज बनाने का एकमात्र श्रेय मीडिया को ही जाता है। जेसिका लाल केस इसका जीता-जागता उदाहरण है। मीडिया ने ही इस केस को फिर से खुलवाया। जो काम सालों से हमारे प्रशासन, न्यायालय और पुलिस नहीं कर सके, उसे मीडिया ने कर दिखाया है। इस उदात्त कार्य के लिए मीडिया निश्चित रुप से साधुवाद का पात्र है। आज अगर हर व्यक्ति हर विषय के बारे में जागरुक है, तो उसका श्रेय भी मीडिया को ही जाता है। आज अगर एक मामूली आदमी को अपनी आवाज सरकार तक पहुँचानी होती है तो वो न तो प्रशासन से कोई आस लगाता है न ही पुलिस से कोई उम्मीद, लेकिन वह मीडिया का सहारा लेकर अपनी बात को सरकार तक पहुँचाता है। आज आम भारतीय न तो भ्रष्ट नेताओं पर भरोसा करता है और न ही घूसखोर पुलिस पर, लेकिन वो मीडिया पर भरोसा करता है।... एक आम आदमी बोलता है, तो सरकार न केवल उसे सुनती है, बल्कि उसके बारे में सोचती भी है और अब नौबत यह आ गयी है कि सरकार को कार्यवाही भी करनी पडती है। कोई समिति भी गठित करनी पड़ती है। अगर कोई सरकार ऐसा करती है, तो यह न सिर्फ आम आदमी की जीत है, बल्कि लोकतंत्र की भी सच्ची जीत यही है।आम जनता के लिए मीडिया में स्थान है, अखबारों में वह लेटर टू एडिटर लिखकर अपने विचारों को व्यक्त कर सकता है। बहुत ही कम खर्चे में आम आदमी अपनी वेबसाइट खोलकर या अपना समाचार पत्र या चैनल शुरु कर मीडिया का एक हिस्सा भी बन सकता है। जब इतनी ताकत हमारे मीडिया ने आम आदमी को दे दी है, तो यह सवाल ही नहीं उठता कि मीडिया जनहित में काम कर रहा है या नहीं। हमारा मीडिया लोकतांत्रिक है और हमारा समाज लोकतंत्र के अन्य तीन स्तम्भों से कहीं ज्यादा उस पर भरोसा करता है। मीडिया व समाज का यह रिश्ता भविष्य में निखर कर और मजबूत होगा।
वर्तमान में हमारी मीडिया ने कई रुढ़ियों को तोड़ा है और अंधविश्वास को भी कम करने का निरंतर प्रयत्न किया है। जब भगवान गणेश के दूध पीने की अफवाह चली थी तो आज तक ने ही उसका वैज्ञानिक पक्ष सबके सामने लाया था। भारत में आत्मसंतुष्टि के लिए 90 फीसदी से अधिक लोग भगवान में आस्था रखते हैं, तो मीडिया उस आस्था को क्षुण्ण क्यों करेगा ? या मीडिया उस आस्था को क्षुण्ण करने वाला कौन होता है ? लेकिन इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि हमारा मीडिया अंधविश्वासी है। वर्तमान में हमारा मीडिया अंधविश्वास और रुढ़ियों को तोड़ने में प्रसंशनीय भूमिका निभा रहा है।
जहाँ तक बाजार के दुष्प्रभाव की बात है, मुख्यधारा के मीडिया ने बाजार की ताकत को पहचान कर उसका अनुगामी बनना स्वीकार कर लिया है। आज के मुख्यधारा के मीडिया का एक ही मंत्र है – ‘जो बिकेगा, वही टिकेगा’ । अखबार अर्थव्यवस्था का एक ऐसा अनोखा उत्पाद है जो अपनी वास्तविक लागत 10-20 रूपए से अत्यन्त कम 1-5 रूपए पर बिकता है। मीडिया के लिए वास्तविक लागत से 1-19 रुपए से कम पर जीवनयापन करना असंभव है। जहां तक बाजार के दबाव की बात है, तो आज बाजार और विज्ञापन मीडिया का ऐसा अहम हिस्सा है, जिसके बिना अखबार या चैनल नहीं चल सकता। इस आवश्यक अंग पर कुछ लोगों को खोखली आपत्ति है।
बाजार का प्रेरक विज्ञापन का बाजार है। सन् 1960 में विज्ञापन का बाजार लगभग एक करोड़ रुपए का था, जो सन् 1997 तक 4,000 करोड़ तक जा पहुँचा और तो और सन् 2000 में यह 10,000 करोड़ के आंकड़े को पार कर गया। कुछ वर्षो में तो इसकी विकास दर सलाना 30-33 प्रतिशत तक रही। बिना बाजार के पत्रकार को तनख्वाह कहाँ से मिलेगी। अगर विज्ञापन नहीं होंगे तो ये खर्चा कौन उठाएगा। बिना इस खर्चे के अखबार निकालना संभव नहीं है। आज हर मीडिया हाउस यही चाहता है कि उसे अधिकाधिक विज्ञापन मिले, ताकि उसकी आमदनी बढ़े। पत्रकारिता के लिए बाजार बहुत जरूरी से बहुत अनिवार्य होते हुए ऑक्सीजन और संजीवनी बन गया है।
विज्ञापन का सबसे बड़ा बजट टीवी को फिर प्रिंट मीडिया को मिलने लगा। अखबार और चैनल्स को मिल रहे विज्ञापनों का ही परिणाम है कि मीडियाकर्मियों की आय में इजाफा हुआ है। आय में इजाफा ही वह कारण है, जिसके कारण एक बहुत बड़ा युवा वर्ग मीडिया में आना चाहता है। अतीत की मीडिया में रोजगार नहीं था, लेकिन आज का मीडिया लाखों लोगों को रोजगार मुहैया करा रहा है। अगर बाजार और विज्ञापन रोजगार को बढ़ा रहे हैं और हमारी बेरोजगारी कम हो रही है, तो बाजार हमारी आँख का काँटा क्यों बना हुआ है। बाजार ने तो हमारी मदद ही की है।
ज्यों-ज्यों मीडिया एक जनचौकीदार की भूमिका में आता जा रहा है, त्यों-त्यों उस पर दबाव बढ़ते नजर आ रहे हैं। यों हर किस्म का मीडिया बहुत से अंदरूनी दबावों के भीतर काम करता है। इस मायने में किसी भी मीडिया का पूरा तंत्र स्वतंत्र नहीं होता। भीड़, समुदाय, हित समूह, एनजीओ, हिंसक समूह, आतंकवाद इत्यादि का दबाव तो होता ही है, लेकिन दबाव प्रशासन के हों, तो सवाल जरा जटिल बन जाता है। बात निरंकुशता तक जा पहुँचती है।
आंध्र के इनाडु के रामोजी राव और उनके मीडिया हाउस को लेकर आंध्र सरकार का रवैया कमोबेश ऐसा नजर आता है। रामोजी राव का इनाडु मीडिया संजाल आंध्र में एक निर्णायक उपस्थिति रखता है। उसके अखबार हैं, टीवी चैनल हैं , कई भाषाओं में हैं। उन्होंने अपने प्रयोगों से साख कायम की है। उसे आंध्र की जनता की आवाज माना जाता है।
ईनाडु सरकार की नीतियों का आलोचक रहा। नाराज प्रशासन ने बाह मरोड़ी। एक चिट फंड कंपनी के आरोप में रामोजी राव को आरोपित करने का प्रयत्न किया गया। इसके लिए किसी कानूनी कार्रवाई के परिणाम का इंतजार करने की जगह प्रशासन ने आनन-फानन में उनके दफ्तर में छापा मारा। वे कागजात ढूँढ़ने का बहाना करके आए थे। दरअसल, वे डराना चाहते होंगे। अरसा पहले आउटलुक समूह के साथ भी ऐसा हो चुका है। पासा उल्टा पड़ गया । प्रशासन को थूक के चाटना पड़ा।
आंध्र में खलबली मच गई। मीडिया में हलचल हो गई। पत्रकार संगठन सक्रिय हो गए । संपादक बरसे । विधानसभा में हंगामा हुआ। सरकार ने घबराकर आदेश को रद्द किया, जिसमें कहा गया था कि मीडिया सरकार की आलोचना छापना-कहना बंद करे। अदा देखिए कि जब रद्द किया, तो कहा कि ऐसा आदेश सरकार ने नहीं दिया था।

जब दिया ही नहीं था, तो रद्द क्यों किया महाराज

आउटलुक के बाद के इतिहास में यह घटना शायद पहली ऐसी बड़ी घटना है जो मीडिया पर आपात्कालीन-पूर्व और आपात्कालीन-पश्चात मनमाने हमलों की याद दिलाती है। तब सत्ता मद में मदमाती सरकार और प्रशासन ने उचित कानूनी आज्ञाओं के बिना बहुत से मीडिया हाउसों के कान मरोड़े, छापे तक मारे। वह इंदिराजी संजय गाँधीजी का जाना रहा। लगता है, आंध्र सरकार उसी नक्शेकदम पर चल रही है।
विवादित स्टिंग ऑपरेशन्स के बावजूद इसको मान्यता प्रदान करते हुए लोकसभा की एक समिति ने कहा है कि खोजी पत्रकारिता की उचित तकनीकों का प्रयोग करने वाला स्वतंत्र प्रेस हमारे लोकतंत्र का एक अनिवार्य हिस्सा है।
मीडिया ने पिछले कई सालों से हो रहे बंग्लादेशी घुसपैठ को नाममात्र स्थान दिया है। राजनीति की निकृष्टतम विकृत अवस्था में होने के कारण बंग्लादेशी घुसपैठिए भारत की नागरिकता प्राप्त कर मतदाता बन रहे हैं। परन्तु मीडिया की इस मामले में बरती गई उदासीनता उसके राष्ट्रीय सरोकारों से विमुख होने का ज्वलंत प्रमाण है।
मीडिया में आतंकियों व उनके मानवाधिकारों को ज्यादा स्थान दिया है बनिस्बत आतंकियों द्वारा निर्दोष परिवारों के एकल कमाऊ व्यक्तियों की हत्याओं को स्थान देने के। पीड़ित परिवारों को घटना के कुछ दिनों बाद से कोई मीडिया कवरेज नहीं दिया जाता।
गुजरात दंगे मामले में मीडिया ने एक पक्ष विशेष नरेन्द्र मोदी व विहिप को न्यायाधीस बनते हुए दोषी ठहरा दिया। जबकि कश्मीर से आतंकियों के खौफ से लाखों कश्मीरी पंडित अपने ही देश की राजधानी दिल्ली में पिछले लगभग दो दशकों से शरणार्थियों के रुप में शिविरों में रह रहे हैं। इन कश्मीरी पंडितों की मीडिया कहीं भूले से भी चर्चा नहीं करता।
मीडिया में कुछ बुद्धिजीवियों द्वारा लोकतंत्र में नक्सलियों द्वारा व्यापक पैमाने पर सुरक्षा बलों व निर्दोष नागरिकों की, की जाने वाली हत्याओं को राज्य द्वारा की जा रही हिंसा का प्रतिउत्तर बताया जा रहा है। प्रकारांतर से कुछ बुद्धिजीवी भारतीय लोकतंत्र में तथाकथित अत्याचारों का विरोध करने के लिए हिंसा को कानूनी वैधता प्रदान कराना चाहते हैं जो कतई समीचीन नहीं है। धारा 370 के अन्तर्गत विशेष राज्य का दर्जा प्राप्त जम्मू-कश्मीर आज तक भारतीय संघ का सामान्य व अभिन्न अंग वाला राज्य नहीं बन पाया। पूर्वोत्तर के लगभग सभी अलगाववादी संगठन धारा 370 जैसे विशेष राज्य का दर्जा व स्वायत्तता चाहते हैं। मीडिया ने धारा 370 को राष्ट्र हित में समाप्त कराने कभी प्रयत्न ही नहीं किया। देश के 80 करोड़ हिन्दुओं की आस्था के प्रतीक राम जन्म भूमि मामले को न्यायालय द्वारा सुलझाने के प्रयत्न पर मीडिया की चुप्पी राष्ट्रीय सरोकारों के सर्वथा विपरीत है।

निष्कर्ष
राजनीतिक दलों व औद्योगिक कंपनियों के मीडिया प्रकोष्ठ और पी आर एजेंसियाँ मिलकर समाचार की अंर्तवस्तु को प्रभावित कर रहे हैं, उसे अपने अनुसार तोड़- मरोड़ रहे हैं, घुमा (स्पिन) रहे हैं, अनुकूल अर्थ दे रहे हैं, और यहाँ तक कि जरूरत पड़ने पर अपने प्रतिकूल की खबरों को दबाने तक की पुरजोर कोशिशें कर रहे हैं। इसमें करोड़ों रूपए की डील हो रही है। लेकिन मीडिया प्रबंधन के बढ़ते दबदबे और दबाव ने मीडिया की स्वतंत्रता, निष्पक्षता, संतुलन और तथ्यपरकता तथा सामाजिक व राष्ट्रीय सरोकारों को न सिर्फ कमजोर करके गहरा धक्का पहुँचाया है बल्कि उसकी साख और विश्वसनीयता को भी अपूर्णनीय क्षति पहुँचायी है।
अगर लोकतंत्र के तीनों स्तम्भों को येन-केन प्रकारेण कानूनी या कभी-कभी गैरकानूनी तरीके से अधिकाधिक धन चाहिए तो चौथे स्तम्भ को कानूनी तरीके से धन कमाने से किसी को समस्या क्यों ? यह दोहरा मापदंड क्यों ?
नैतिकता जीवन समाज के किसी भी क्षेत्र में गाँधीयुग की तरह नहीं रही है तो फिर मीडिया में ही क्यों रहे? लोकतंत्र के अन्य स्तम्भों पर अंकुशपरक नजर रखने की जिम्मेदारी मीडिया पर है जब तीनों स्तम्भ अनैतिकता और भ्रष्टाचार के दीमक से एकदम खोखलें हो गए हैं तब चौथे स्तम्भ खबरपालिका में 60 साल तक नैतिक रूप से श्रेष्ठ रहने के बाद वैश्विकरण व बाजार के कुछ दीमक लग गए तो इतनी हाय-तौबा, शोर-शराबा क्यों? जब जीवन व समाज में कहीं आदर्श नहीं तो एक मात्र क्षेत्र मीडिया के लिए इतने कड़े आदर्श क्यों ?