Tuesday, June 1, 2010

भविष्य का मीडिया और सामाजिक- राष्ट्रीय सरोकार

कुंदन पाण्डेय, एमए-जनसंचार

आज का युग मीडिया क्रान्ति का युग है। समाचार पत्रों की प्रसार संख्या तो अनवरत बढ़ती ही जा रही है साथ ही 24 घन्टे के समाचार चैनलों ने मिनटों में किसी भी समाचार को दर्शकों तक पहुँचाने की महत्वपूर्ण व अद्वितीय क्षमता से लोकतंत्र के चौथे खम्भे के रूप में अपनी सार्थकता को मजबूती प्रदान कर रहा है। भारत विश्व के 5 बड़े मीडिया बाजारों में से एक है। पश्चिम में समाचार पत्रों के समाप्त होने की लगातार सम्भावानाएं जतायी जा रही हैं लेकिन भारत में आने वाले कुछ दशकों तक समाचार पत्रों का भविष्य नि:संदेह उज्जवल है।
वर्तमान में सबसे उज्जवल भविष्य की संभावना वाले इलेक्ट्रानिक मीडिया में लगभग 300 समाचार चैनल अभी भारत में कार्यरत हैं और 100 से अधिक चैनल के आवेदन स्वीकृति की प्रतिक्षा में हैं। रेडियो में निजी क्षेत्र को भागीदार बनाए जाने के पश्चात से एफ एम रेडियो की लोकप्रियता निरन्तर बढ़ती जा रही है। मीडिया के सबसे लोकप्रिय व मनोरंजक माध्यम चलचित्र में बालीवुड ने हिन्दी भाषा के प्रसार में अत्युत्तम योगदान दिया है। बेव मीडिया के भी उपभोक्ता लगातार बढ़ते जा रहे हैं। वेब मीडिया से मीडिया अभिसरण (कन्वर्जेन्स) व चिट्ठाकारिता (ब्लॉग) जैसे दो नये विकास की भरपूर संभावनाओं वाले माध्यम अस्तित्व में आये हैं। सबसे नया माध्यम सेलफोन मीडिया है जिसकी विकास की सबसे असीम संभावनायें हैं। अनेक समाचार चैनल अपने प्रमुख समाचार सेल फोन पर दे रहे हैं।
मीडिया के सामाजिक तथा राष्ट्रीय सरोकारों पर लगातार वैश्वीकरण व बाजार का नकारात्मक दबाव पड़ रहा है। समाज को बताने-दिखाने, गढ़ने-बनाने के उपक्रम में भारतीय मीडिया नित नये प्रयोग कर रहा है। मीडिया ने और कुछ किया हो या न किया हो एक खास किस्म की नैतिकता को समाज में जन्म दे दिया है। जैसे समाज में भ्रष्टाचार न हो, जवाबदेही हो, शिक्षा का अधिकार, सूचना का अधिकार, महिला आरक्षण, मनरेगा सहित सभी सरकारी योजनाओं का समुचित क्रियान्वयन हो। एक तरफ तो मीडिया मतदान अवश्य करने जैसे कर्तव्यों को करने के लिए मतदाताओं को निरन्तर जागरूक कर रहा है तो दूसरी तरफ मीडिया पर समाचारों की शक्ल में चुनाव चिह्न सहित विज्ञापन छापकर लोकतंत्र व मतदाताओं को गुमराह करने व धोखा देने जैसे संगीन आरोप 15वीं लोकसभा के गत चुनाव में लगे हैं। इसके अतिरिक्त मीडिया महँगाई, आतंकवाद, नक्सली हिंसा, बंग्लादेशी घुसपैठ, धारा 370, राम जन्म भूमि, मराठी मानुष जैसे क्षेत्रीय मुद्दे, तेलंगाना, गुजरात दंगा, ऑस्ट्रेलिया में भारतीयों से नस्ली भेदभाव, पाक, चीन, अमेरिका सहित सभी देशों से संबंधित विदेश नीति आदि विषयों पर मीडिया की भूमिका किसी मुद्दे पर नकारात्मक तो किसी पर विरोधाभासी, स्पष्ट रुप से परिलक्षित होता है।

मीडिया के सामाजिक-राष्ट्रीय सरोकार
वैश्विक मंदी के कारण अखबारों के वैश्विक व्यापार में गत वर्ष लगभग 10 प्रतिशत की गिरावट का अनुमान है। अखबार जगत के संकट को अखबारी कागज की बढ़ती कीमत घटते विज्ञापन राजस्व गिरते प्रसार व कम होते पाठकों और कम समय में अधिकाधिक सूचना अंगीकृत करने की प्रतिद्वंद्विता से पाठक न्यू मीडिया माध्यमों की और तेजी से रूख कर रहे हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि 2013 तक प्रतिवर्ष 2 फीसदी की गिरावट अखबार के वैश्विक बाजार में जारी रहेगी । अमेरिकी अखबारों के विज्ञापन राजस्व में पिछले 3 सालों मे 20 अरब ड़ालर की गिरावट आयी है। वैश्विक मीडिया मुगल रुपर्ड मर्डोक ने बाजार में जमे हुए समाचार पत्रों से होने वाले फायदों के कारण “एक बार इन्हें सोने की नदी कहा था” किन्तु वर्तमान संकट के कारण उनको अपना कथन बदलकर कहना पड़ा कि “कभी-कभी नदी सूख भी जाती है।”
भारत में इंटरनेट की सीमित पहुँच भी अखबारों के विकासशील बने रहने का एक महत्वपूर्ण कारक है। भारत के लगभग 18 करोड़ अखबारी पाठकों के मुकाबले केवल 1.22 करोड़ इंटरनेट उपभोक्ता हैं। वर्ष 2008 में लगभग 1.15 करोड़ नए पाठक अखबारों से जुड़े।
फिलहाल भारत में समाचार पत्रों कि बुनियाद काफी मजबूत है और कोई सीधा खतरा इसके भविष्य पर अभी नहीं मंडरा रहा है, पर जब पूरी दुनिया के समाचार पत्र गंभीर संकट के दौर से गुजर रहे हैं तो इस वैश्विक परिदृश्य में हमें भी अखबारों की बदलती भूमिका और उत्तरदायित्व पर बाजार के पड़ रहे दुष्प्रभावों पर चैतन्य हो जाना चाहिए। भारतीय प्रेस परिषद् के अध्यक्ष न्यायमूर्ति जी.एन. रे ने प्रिंट मीडिया के भविष्य को सकरात्मक बताते हुए कहा कि वैश्विकरण और न्यू मीडिया के बढ़ते वर्चस्व व प्रतिद्वंद्विता से जूझते अखबार, जन सरोकारों से गहराई से जुड़कर भारतीय राष्ट्र व समाज में अपने चौथे स्तम्भ की भूमिका को सार्थकता प्रदान कर सकते हैं। इस हेतु अखबारों को स्वयं चिंतन-मनन, विवेचन-विश्लेषण की प्रक्रिया को अनवरत अपनाना होगा। वास्तव में यह युग सूचना और संचार का युग है जिसमें अखबार पत्रकारिता के आदर्शों से पतित हो रहे हैं। सामाजिक सरोकारों से लगातार विमुख होते जाने से पत्रकारिता का नैतिक पतन निश्चित रूप से हुआ है। आज के पत्रकारी युग का आदर्श खबरों को देना नहीं बल्कि ऐन-केन प्रकारेण खबरों को बेचना भर रह गया है। खबरों में न केवल मिलावट हो रही है बल्कि पेड न्यूज के तहत विज्ञापनों को खबरों के रूप में छाप कर पाठकों को धोखा भी दिया जा रहा है। आजादी से लेकर अब तक सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक सहित भारतीय मीडिया का स्वरुप भी काफी बदला है। जहाँ तक मीडिया और समाज के संबंधों की बात है, तो वो संबंध पहले से कहीं अधिक प्रगाढ़ हुए हैं, इसमें कोई दो राय नहीं है। पहले मीडिया का सामाजिक सरोकार तो होता था लेकिन जैसे संबंध आज है वो तो काल्पनिक ही था। आम आदमी की आवाज को राष्ट्रीय आवाज बनाने का एकमात्र श्रेय मीडिया को ही जाता है। जेसिका लाल केस इसका जीता-जागता उदाहरण है। मीडिया ने ही इस केस को फिर से खुलवाया। जो काम सालों से हमारे प्रशासन, न्यायालय और पुलिस नहीं कर सके, उसे मीडिया ने कर दिखाया है। इस उदात्त कार्य के लिए मीडिया निश्चित रुप से साधुवाद का पात्र है। आज अगर हर व्यक्ति हर विषय के बारे में जागरुक है, तो उसका श्रेय भी मीडिया को ही जाता है। आज अगर एक मामूली आदमी को अपनी आवाज सरकार तक पहुँचानी होती है तो वो न तो प्रशासन से कोई आस लगाता है न ही पुलिस से कोई उम्मीद, लेकिन वह मीडिया का सहारा लेकर अपनी बात को सरकार तक पहुँचाता है। आज आम भारतीय न तो भ्रष्ट नेताओं पर भरोसा करता है और न ही घूसखोर पुलिस पर, लेकिन वो मीडिया पर भरोसा करता है।... एक आम आदमी बोलता है, तो सरकार न केवल उसे सुनती है, बल्कि उसके बारे में सोचती भी है और अब नौबत यह आ गयी है कि सरकार को कार्यवाही भी करनी पडती है। कोई समिति भी गठित करनी पड़ती है। अगर कोई सरकार ऐसा करती है, तो यह न सिर्फ आम आदमी की जीत है, बल्कि लोकतंत्र की भी सच्ची जीत यही है।आम जनता के लिए मीडिया में स्थान है, अखबारों में वह लेटर टू एडिटर लिखकर अपने विचारों को व्यक्त कर सकता है। बहुत ही कम खर्चे में आम आदमी अपनी वेबसाइट खोलकर या अपना समाचार पत्र या चैनल शुरु कर मीडिया का एक हिस्सा भी बन सकता है। जब इतनी ताकत हमारे मीडिया ने आम आदमी को दे दी है, तो यह सवाल ही नहीं उठता कि मीडिया जनहित में काम कर रहा है या नहीं। हमारा मीडिया लोकतांत्रिक है और हमारा समाज लोकतंत्र के अन्य तीन स्तम्भों से कहीं ज्यादा उस पर भरोसा करता है। मीडिया व समाज का यह रिश्ता भविष्य में निखर कर और मजबूत होगा।
वर्तमान में हमारी मीडिया ने कई रुढ़ियों को तोड़ा है और अंधविश्वास को भी कम करने का निरंतर प्रयत्न किया है। जब भगवान गणेश के दूध पीने की अफवाह चली थी तो आज तक ने ही उसका वैज्ञानिक पक्ष सबके सामने लाया था। भारत में आत्मसंतुष्टि के लिए 90 फीसदी से अधिक लोग भगवान में आस्था रखते हैं, तो मीडिया उस आस्था को क्षुण्ण क्यों करेगा ? या मीडिया उस आस्था को क्षुण्ण करने वाला कौन होता है ? लेकिन इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि हमारा मीडिया अंधविश्वासी है। वर्तमान में हमारा मीडिया अंधविश्वास और रुढ़ियों को तोड़ने में प्रसंशनीय भूमिका निभा रहा है।
जहाँ तक बाजार के दुष्प्रभाव की बात है, मुख्यधारा के मीडिया ने बाजार की ताकत को पहचान कर उसका अनुगामी बनना स्वीकार कर लिया है। आज के मुख्यधारा के मीडिया का एक ही मंत्र है – ‘जो बिकेगा, वही टिकेगा’ । अखबार अर्थव्यवस्था का एक ऐसा अनोखा उत्पाद है जो अपनी वास्तविक लागत 10-20 रूपए से अत्यन्त कम 1-5 रूपए पर बिकता है। मीडिया के लिए वास्तविक लागत से 1-19 रुपए से कम पर जीवनयापन करना असंभव है। जहां तक बाजार के दबाव की बात है, तो आज बाजार और विज्ञापन मीडिया का ऐसा अहम हिस्सा है, जिसके बिना अखबार या चैनल नहीं चल सकता। इस आवश्यक अंग पर कुछ लोगों को खोखली आपत्ति है।
बाजार का प्रेरक विज्ञापन का बाजार है। सन् 1960 में विज्ञापन का बाजार लगभग एक करोड़ रुपए का था, जो सन् 1997 तक 4,000 करोड़ तक जा पहुँचा और तो और सन् 2000 में यह 10,000 करोड़ के आंकड़े को पार कर गया। कुछ वर्षो में तो इसकी विकास दर सलाना 30-33 प्रतिशत तक रही। बिना बाजार के पत्रकार को तनख्वाह कहाँ से मिलेगी। अगर विज्ञापन नहीं होंगे तो ये खर्चा कौन उठाएगा। बिना इस खर्चे के अखबार निकालना संभव नहीं है। आज हर मीडिया हाउस यही चाहता है कि उसे अधिकाधिक विज्ञापन मिले, ताकि उसकी आमदनी बढ़े। पत्रकारिता के लिए बाजार बहुत जरूरी से बहुत अनिवार्य होते हुए ऑक्सीजन और संजीवनी बन गया है।
विज्ञापन का सबसे बड़ा बजट टीवी को फिर प्रिंट मीडिया को मिलने लगा। अखबार और चैनल्स को मिल रहे विज्ञापनों का ही परिणाम है कि मीडियाकर्मियों की आय में इजाफा हुआ है। आय में इजाफा ही वह कारण है, जिसके कारण एक बहुत बड़ा युवा वर्ग मीडिया में आना चाहता है। अतीत की मीडिया में रोजगार नहीं था, लेकिन आज का मीडिया लाखों लोगों को रोजगार मुहैया करा रहा है। अगर बाजार और विज्ञापन रोजगार को बढ़ा रहे हैं और हमारी बेरोजगारी कम हो रही है, तो बाजार हमारी आँख का काँटा क्यों बना हुआ है। बाजार ने तो हमारी मदद ही की है।
ज्यों-ज्यों मीडिया एक जनचौकीदार की भूमिका में आता जा रहा है, त्यों-त्यों उस पर दबाव बढ़ते नजर आ रहे हैं। यों हर किस्म का मीडिया बहुत से अंदरूनी दबावों के भीतर काम करता है। इस मायने में किसी भी मीडिया का पूरा तंत्र स्वतंत्र नहीं होता। भीड़, समुदाय, हित समूह, एनजीओ, हिंसक समूह, आतंकवाद इत्यादि का दबाव तो होता ही है, लेकिन दबाव प्रशासन के हों, तो सवाल जरा जटिल बन जाता है। बात निरंकुशता तक जा पहुँचती है।
आंध्र के इनाडु के रामोजी राव और उनके मीडिया हाउस को लेकर आंध्र सरकार का रवैया कमोबेश ऐसा नजर आता है। रामोजी राव का इनाडु मीडिया संजाल आंध्र में एक निर्णायक उपस्थिति रखता है। उसके अखबार हैं, टीवी चैनल हैं , कई भाषाओं में हैं। उन्होंने अपने प्रयोगों से साख कायम की है। उसे आंध्र की जनता की आवाज माना जाता है।
ईनाडु सरकार की नीतियों का आलोचक रहा। नाराज प्रशासन ने बाह मरोड़ी। एक चिट फंड कंपनी के आरोप में रामोजी राव को आरोपित करने का प्रयत्न किया गया। इसके लिए किसी कानूनी कार्रवाई के परिणाम का इंतजार करने की जगह प्रशासन ने आनन-फानन में उनके दफ्तर में छापा मारा। वे कागजात ढूँढ़ने का बहाना करके आए थे। दरअसल, वे डराना चाहते होंगे। अरसा पहले आउटलुक समूह के साथ भी ऐसा हो चुका है। पासा उल्टा पड़ गया । प्रशासन को थूक के चाटना पड़ा।
आंध्र में खलबली मच गई। मीडिया में हलचल हो गई। पत्रकार संगठन सक्रिय हो गए । संपादक बरसे । विधानसभा में हंगामा हुआ। सरकार ने घबराकर आदेश को रद्द किया, जिसमें कहा गया था कि मीडिया सरकार की आलोचना छापना-कहना बंद करे। अदा देखिए कि जब रद्द किया, तो कहा कि ऐसा आदेश सरकार ने नहीं दिया था।

जब दिया ही नहीं था, तो रद्द क्यों किया महाराज

आउटलुक के बाद के इतिहास में यह घटना शायद पहली ऐसी बड़ी घटना है जो मीडिया पर आपात्कालीन-पूर्व और आपात्कालीन-पश्चात मनमाने हमलों की याद दिलाती है। तब सत्ता मद में मदमाती सरकार और प्रशासन ने उचित कानूनी आज्ञाओं के बिना बहुत से मीडिया हाउसों के कान मरोड़े, छापे तक मारे। वह इंदिराजी संजय गाँधीजी का जाना रहा। लगता है, आंध्र सरकार उसी नक्शेकदम पर चल रही है।
विवादित स्टिंग ऑपरेशन्स के बावजूद इसको मान्यता प्रदान करते हुए लोकसभा की एक समिति ने कहा है कि खोजी पत्रकारिता की उचित तकनीकों का प्रयोग करने वाला स्वतंत्र प्रेस हमारे लोकतंत्र का एक अनिवार्य हिस्सा है।
मीडिया ने पिछले कई सालों से हो रहे बंग्लादेशी घुसपैठ को नाममात्र स्थान दिया है। राजनीति की निकृष्टतम विकृत अवस्था में होने के कारण बंग्लादेशी घुसपैठिए भारत की नागरिकता प्राप्त कर मतदाता बन रहे हैं। परन्तु मीडिया की इस मामले में बरती गई उदासीनता उसके राष्ट्रीय सरोकारों से विमुख होने का ज्वलंत प्रमाण है।
मीडिया में आतंकियों व उनके मानवाधिकारों को ज्यादा स्थान दिया है बनिस्बत आतंकियों द्वारा निर्दोष परिवारों के एकल कमाऊ व्यक्तियों की हत्याओं को स्थान देने के। पीड़ित परिवारों को घटना के कुछ दिनों बाद से कोई मीडिया कवरेज नहीं दिया जाता।
गुजरात दंगे मामले में मीडिया ने एक पक्ष विशेष नरेन्द्र मोदी व विहिप को न्यायाधीस बनते हुए दोषी ठहरा दिया। जबकि कश्मीर से आतंकियों के खौफ से लाखों कश्मीरी पंडित अपने ही देश की राजधानी दिल्ली में पिछले लगभग दो दशकों से शरणार्थियों के रुप में शिविरों में रह रहे हैं। इन कश्मीरी पंडितों की मीडिया कहीं भूले से भी चर्चा नहीं करता।
मीडिया में कुछ बुद्धिजीवियों द्वारा लोकतंत्र में नक्सलियों द्वारा व्यापक पैमाने पर सुरक्षा बलों व निर्दोष नागरिकों की, की जाने वाली हत्याओं को राज्य द्वारा की जा रही हिंसा का प्रतिउत्तर बताया जा रहा है। प्रकारांतर से कुछ बुद्धिजीवी भारतीय लोकतंत्र में तथाकथित अत्याचारों का विरोध करने के लिए हिंसा को कानूनी वैधता प्रदान कराना चाहते हैं जो कतई समीचीन नहीं है। धारा 370 के अन्तर्गत विशेष राज्य का दर्जा प्राप्त जम्मू-कश्मीर आज तक भारतीय संघ का सामान्य व अभिन्न अंग वाला राज्य नहीं बन पाया। पूर्वोत्तर के लगभग सभी अलगाववादी संगठन धारा 370 जैसे विशेष राज्य का दर्जा व स्वायत्तता चाहते हैं। मीडिया ने धारा 370 को राष्ट्र हित में समाप्त कराने कभी प्रयत्न ही नहीं किया। देश के 80 करोड़ हिन्दुओं की आस्था के प्रतीक राम जन्म भूमि मामले को न्यायालय द्वारा सुलझाने के प्रयत्न पर मीडिया की चुप्पी राष्ट्रीय सरोकारों के सर्वथा विपरीत है।

निष्कर्ष
राजनीतिक दलों व औद्योगिक कंपनियों के मीडिया प्रकोष्ठ और पी आर एजेंसियाँ मिलकर समाचार की अंर्तवस्तु को प्रभावित कर रहे हैं, उसे अपने अनुसार तोड़- मरोड़ रहे हैं, घुमा (स्पिन) रहे हैं, अनुकूल अर्थ दे रहे हैं, और यहाँ तक कि जरूरत पड़ने पर अपने प्रतिकूल की खबरों को दबाने तक की पुरजोर कोशिशें कर रहे हैं। इसमें करोड़ों रूपए की डील हो रही है। लेकिन मीडिया प्रबंधन के बढ़ते दबदबे और दबाव ने मीडिया की स्वतंत्रता, निष्पक्षता, संतुलन और तथ्यपरकता तथा सामाजिक व राष्ट्रीय सरोकारों को न सिर्फ कमजोर करके गहरा धक्का पहुँचाया है बल्कि उसकी साख और विश्वसनीयता को भी अपूर्णनीय क्षति पहुँचायी है।
अगर लोकतंत्र के तीनों स्तम्भों को येन-केन प्रकारेण कानूनी या कभी-कभी गैरकानूनी तरीके से अधिकाधिक धन चाहिए तो चौथे स्तम्भ को कानूनी तरीके से धन कमाने से किसी को समस्या क्यों ? यह दोहरा मापदंड क्यों ?
नैतिकता जीवन समाज के किसी भी क्षेत्र में गाँधीयुग की तरह नहीं रही है तो फिर मीडिया में ही क्यों रहे? लोकतंत्र के अन्य स्तम्भों पर अंकुशपरक नजर रखने की जिम्मेदारी मीडिया पर है जब तीनों स्तम्भ अनैतिकता और भ्रष्टाचार के दीमक से एकदम खोखलें हो गए हैं तब चौथे स्तम्भ खबरपालिका में 60 साल तक नैतिक रूप से श्रेष्ठ रहने के बाद वैश्विकरण व बाजार के कुछ दीमक लग गए तो इतनी हाय-तौबा, शोर-शराबा क्यों? जब जीवन व समाज में कहीं आदर्श नहीं तो एक मात्र क्षेत्र मीडिया के लिए इतने कड़े आदर्श क्यों ?

1 comment:

  1. no close substitute to Kundan jee,
    He has got immence potential and content to express himself .He is one of the finest writer amongst students of mass comm dept. sem -2

    Do keep write on current issues so that one could get a lot of informations and skills.
    JAI HO.......

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