Sunday, December 20, 2009

जिम्मेदारियां बहुत बड़ी हैं।



मीडिया के छात्र समाज की बुराइयों को पहचान कर उनका निदान करने वाले भावी चिकित्सक हैं। ये विचार कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, रायपुर में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष डा. शाहिद अली ने व्यक्त किए। डा. अली में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग के छात्र-छात्राओं से एक संवाद में कहा कि जनसंचार के क्षेत्र में काम करने वालों की जिम्मेदारियां बहुत बड़ी हैं। जनसंचारकर्मी वास्तव में समाज की पहचान करता है और उसके आधार पर समस्याओं का निदान करते हैं। उन्होंने कहा कि आनेवाली पीढ़ी ही मीडिया जगत के अंदर आ गई विकृतियों का निदान भी खोजेगी और उसे जनोन्मुखी बनाने में मदद करेगी। उन्होंने कहा कि मीडिया पर पड़े रहे बाजार के प्रभावों से मिल रही चुनौतियों का सामना करने के लिए पत्रकारिता के मूल्यों की ओर लौटने की ओर लौटने की जरूरत है। समाज और राष्ट्र के निर्माण में संचार माध्यमों की जागरूकता जरूरी है। मीडिया का नया परिदृश्य गंभीर और चिंतनशील जनसंचार के शोधार्थियों का है जिसे आगे बढ़ाने की जरूरत है। वर्तमान को कोसने से नहीं उसका सामना करने और नए रास्ते बनाने से ही यह क्षेत्र पुनः एक नई उर्जा को प्राप्त कर सकेगा।

कार्यक्रम के प्रारंभ में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने डा.अली का स्वागत किया। आभार प्रदर्शन डा. मोनिका वर्मा ने किया। आयोजन में विभाग के छात्र-छात्राएं मौजूद रहे।



(संजय द्विवेदी)

Monday, November 23, 2009

अराजक राजनीति से जूझने का समय




- संजय द्विवेदी

लोकतंत्र को बचाना है तो शिवसेना और मनसे जैसे दलों पर पाबंदी जरूरी


मुंबई में एक टीवी चैनल के कार्यालय पर शिवसेना का हमला एक ऐसी घटना है जिसकी निंदा से आगे बढ़कर इस सिलसिले को रोकने के लिए पहल करने की जरूरत है। शिवसेना ने कुछ नया नहीं किया। वही किया जो वे अरसे से करते आ रहे हैं। टीवी चैनलों ने सारा कुछ इतना तुरंत और जीवंत बना दिया है कि ये चीजें अब दर्ज होने लगी हैं। शिवसेना के रास्ते पर ही चलकर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना और उसके मदांध नेता राज ठाकरे अपने परिवार की विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं। यानी कि बाजार में अब दो गुंडे हैं।

शिवसेना हो या महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना दोनों का डीएनए एक है। दोनों लोकतंत्र और संविधान को न मानने वाले दल हैं। हमारे लोकतंत्र की खामियों का फायदा उठाकर वे विधानसभा और संसद तक भले पहुंच जाएं पर वे कार्य और व्यवहार दोनो से अलोकतांत्रिक हैं। बाल ठाकरे के लोग सालों से पत्रकारों और अपने विरोधी विचारों से इसी तरह निपटते आए हैं। क्योंकि लोकतंत्र में भरोसा होता तो ये पार्टी या राजनीतिक दल बनाते, सेना नहीं। सही मायने में ये लोकतंत्र में बाहुबल और शक्ति को प्रतिष्ठित करने के लिए आए हैं। इन्हें तर्क, संवाद और बातचीत में आस्था नहीं है। ये तो शक्ति के आराधक हैं जो शिवाजी महाराज का नाम भी लेते हैं और महिलाओं पर भी हाथ उठाने से इन्हें गुरेज नहीं है। मराठा संस्कृति को आज ये जैसी पहचान दे रहे हैं उससे वह कलंकित ही हो रही है। सही मायने में यह हमारे राजनीतिक तंत्र की विफलता है कि हम ऐसे तत्वों पर लगाम लगाने में खुद को विफल पा रहे हैं। शिवसेना सही मायने में एक ऐसा दल है जिसके पास कोई वैचारिक और राजनीतिक दर्शन नहीं है। वह शिवाजी महाराज का नाम लेकर एक भावुक अपील पैदा करने की कोशिश तो करता है पर शिवाजी के आर्दशों से उसका कोई लेना देना नहीं है। आम मजदूर और मेहनतकश आदमी के खिलाफ अपनी ताकत दिखाने वाली शिवसेना और मनसे जैसे दल पूंजीपतियों से हफ्ता वसूली करके अपनी राजनीति को आधार देते रहे हैं। पैसा वसूली और भयादोहन के आधार पर अपनी राजनीति को चलाने वाले ये लोग बेहद डरे और धबराए हुए लोग हैं इसीलिए संवाद के बजाए ये हमेशा जोर आजमाइश पर उतर आते हैं।

कांग्रेस और भाजपा जैसे दलों की विफलता यही है कि वे ऐसी अराजक क्षेत्रीय ताकत के साथ खड़े नजर आते हैं। भाजपा जहां शिवसेना की साझीदार है वहीं कांग्रेस के ऊपर शिवसेना और अब मनसे को फलने- फूलने के अवसर देने के आरोप हैं। कभी कांग्रेस की राजनीति में कद्दावर रहे तमाम नेताओं के साथ शिवसेना प्रमुख के रिश्तों के चलते ही उसे महाराष्ट्र की राजनीति में बढ़त मिली। आज आरोप यह है कि कांग्रेस की सरकार के ढीलेपन के चलते ही महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना अपनी गुंडागर्दी जारी रखे हुए है। उनकी हिम्मत यह है कि वे विधानसभा में भी हाथापाई कर रहे हैं और विधायकों को पत्र लिखकर धमका भी रहे हैं। अब मनसे स्टेट बैंक आफ इंडिया के अफसरों और उसके परीक्षार्थियों को धमकाने का काम कर रहा है। राज्य की यह कमजोरी ही गांवों से लेकर शहर और जंगलों तक एक अशांति का वातावरण बनाने में मदद कर रही है। क्या हमारे शासक इतने कमजोर हैं कि कोई व्यक्ति कानून और संविधान को चुनौती देता हुआ कभी विधानसभा, कभी मीडिया के दफ्तरों और कभी सड़कों पर आतंक मचाता फिरे और हम अपनी वाचिक कुशलता से ही काम चला लें। क्या ये मामले सिर्फ निंदा या कड़ी भत्सर्ना से ही बंद हो सकते हैं। इन्हें भड़काने वाले लोंगों की जगह क्या जेल में नहीं है। बाल ठाकरे और राज ठाकरे जैसे लोग सही मायनों में इस देश के लोकतंत्र के लिए एक बड़ा खतरा हैं। उनसे कड़ाई से निपटना हमारे राष्ट्र-राज्य की जिम्मेदारी है। पर हमारी सरकारें निरूपाय दिखती हैं। बलवा करने वाले और करवाने वाले दोनों को दंडित करने का साहस हम क्यों नहीं पाल पा रहे हैं। मुंबई जैसा शहर यदि ऐसी अराजकता का केंद्र बना रहा तो हम क्या मुंह लेकर दुनिया के सामने जाएंगें। मुंबई में 26.11.2008 जैसी घटनाएं हो जाती हैं तो हम यह कहते हैं कि पड़ोसी देश ने साजिश की, यह जो सड़कों पर नंगा नाच हमारे अपने लोग ही भारतीय नागरिकों के खिलाफ कर रहे हैं उसका क्या। आस्ट्रेलिया में भारतवंशी छात्रों के उत्पीड़न पर हम रोज चिंता जता रहे हैं, आस्ट्रेलिया की सरकार को लांछित कर रहे हैं। यहां अपने ही देश में प्रतियोगी परिक्षाएं दे रहे छात्रों को लोग मारते हैं तो हम क्या कर पा रहे हैं। सही मायने में भारतीय राज्य अपने नागरिकों की रक्षा और उनके शांतिपूर्ण जीवन-यापन की स्थितियां भी पैदा नहीं कर पा रहा है। कुछ मुट्टी भर लोग कभी शिवसैनिक बनकर, कभी आतंकवादी बनकर, कभी नक्सलवादी बनकर, कभी मनसे कार्यकर्ता बनकर भारतीय जनता पर अत्याचार करते रहेगें और हम इसे देखते रहने को मजबूर हैं।

मीडिया को भी इन स्थितियों के खिलाफ सामने आना होगा। ये सारी चुनौतियां दरअसल हमारे लोकतंत्र के खिलाफ हैं। सो हमें लोकतंत्र और देश को बचाना है तो सारे विवाद भूलकर ऐसी ताकतों के खिलाफ एकजुट होना होगा जो संवाद के बजाए बाहुबल या बंदूकों से फैसला करना चाहती हैं। अभी जब महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के परिणाम आए थे तो यही मीडिया विधानसभा की तेरह सीटें जीतने वाले राज को हीरो बना रहा था। उन पर विशेष कार्यक्रम दिखाए जा रहे थे। आखिर ऐसी अराजक प्रवृत्तियों का महिमामंडन करने से हम कब बाज आएंगें। कारण यही है इनके बेलगाम हाथ अब मीडिया के गिरेबान तक जा पहुंचे हैं। आज हमें बहुत दर्द हो रहा है। लोकतंत्र का चौथा खंभा अब हिलने लगा है। गुंडों और अराजक राजनीति को महत्वपूर्ण बनाने का जो काम मीडिया और खासकर टीवी मीडिया जिस अंदाज में कर रहा है उसपर भी सोचने की जरूरत है। मीडिया को भी ऐसे अराजक तत्वों के महिमामंडन से बाज आना होगा क्योंकि इससे इनकी धृणा की राजनीति को ही विस्तार व समर्थन मिलता है। सही मायनों में हमें अपने लोकतंत्र को बचाना है तो शिवसेना और मनसे जैसे दलों पर तुरंत पाबंदी लगाई जानी चाहिए और इसके नेताओं को तुरंत राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत जेल में डाल देना चाहिए। इससे इस घातक प्रवृत्ति का विस्तार रोका जा सकेगा वरना भारतीय राज्य और लोकतंत्र दोनों को चुनौती देने वाली ऐसी ताकतें कई राज्यों में सिर उठा सकती हैं। क्योंकि क्षेत्रीयता और भाषा की गंदी राजनीति से देश वैसे भी काफी नुकसान उठा चुका है। हम आज भी नहीं चेते तो कल बहुत देर हो जाएगी।

( लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)


संपर्कः अध्यक्ष , जनसंचार विभाग, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्ववि

इस ‘राज’ नीति से देश को बचाइए

- कृष्णकुमार तिवारी

राजनीतिक लाभ के लिए क्या देश के साथ किसी भी प्रकार का खिलवाड़ किया जा सकता है? यदि उत्तर नहीं है तो फिर राज ठाकरे या उनकी पार्टी किस व्यवहार का परिचय दे रही है? राष्ट्रभाषा कही जाने वाली भाषा हिन्दी के साथ इतना घृणापूर्ण व्यवहार आखिर क्यों? भाषा एवं क्षेत्रीयता पर आधारित राजनीति कुएं में टर्राते मेंढक के समान है जो कुएं में रहकर खूब- उछलकूद करता है लेकिन वह केवल और केवल उसी कुएं भर में रह जाता है। इस बात की शिक्षा राज ठाकरे को अपने चाचा बाला साहेब ठाकरे से लेनी चाहिए।
हिंदी से इतनी घृणा कि फिल्म में मुबंई के स्थान पर बंबई बोलने पर कभी करण जौहर को राज से माफी मांगनी पड़ती है तो कभी उद्धव के कहने पर मराठी मानुष से माफी मांगनी पड़ती है। वैसे यह घटना पहली नहीं है इससे पहले मणिरत्नम की फिल्म बांबे के लिए उन्हें बाला साहेब ठाकरे के घर मातोश्री जाकर मांफी मांगनी पड़ी थी। उत्तर भारतीयों खिलाफ, फिर हिंदी के खिलाफ अभियान यह सारी ओछी राजनीति या कहें विभाजनकारी राजनीति है। क्योंकि आज जो महाराष्ट्र में हो रहा है यदि वह सारे देश में चालू हो जाए तो राज ठाकरे खुद कहां जायेंगें? क्योंकि दूसरे प्रदेशों में उत्तर भारतीयों की तरह अन्य भाषाभाषियों के खिलाफ भी प्रतिक्रिया हो सकती है। राज ठाकरे यह भूल रहे हैं यही हिंदी थी और यही उत्तर भारत था जिसके द्वारा कभी न डूबने वाले राज का सूरज डूबा दिया था। यहीं सारे बड़े-बड़े आंदोलन खड़े हुए जिनकी बदौलत आज देश आजाद है। लेकिन आजादी के 62 वर्ष के बाद भी देश को पुनः टुकड़ो में बांटने की कोशिश की जा रही है।
पिछले दो जनगणनाओं के अनुसार आबादी की वृद्धि दर महाराष्ट्र में 2.62, सूरत में 6.16, पटना में वृद्धि दर 4.40 तथा सबसे तेज बढ़ती दिल्ली जिसकी वृद्धि 4.18 है। ऐसे में देखा जाए तो पायेंगे कि महाराष्ट्र के दुगने की दर से पटना की जनसंख्या बढ़ रही है। मुंबई पर अपना हक जताने वाले शायद मुंबई के इतिहास से परिचित नहीं है। मुंबई का पुराना नाम बोम् बइया था जो कि पुर्तगालियों द्वारा रखा गया था। जिसका अर्थ था अच्छी घाटी। बंबई का विकास सात द्वीपों की दलदली भूमि से हुआ जिस पर 1654-1661 तक पुर्तगालियों का शासन था। यह बंबई इंग्लैंड़ के बादशाह चार्ल्स द्वितीय को दहेज के रुप में मिला था। बादशाह ने दस पौंड़ के वार्षिक कर पर ईस्ट इंडिया कंपनी को सन् 1669 में दे दिया। 1818 में पेशवा शासन के अंत के बाद अंग्रेजों ने सारे दक्षिणी पठार पर अधिकार कर बंबई का विकास किया बंबई के विकास में जिनका सबसे महत्वपूर्ण योगदान था उनमें जमशेद जी भाई, प्रेमचंद्र रायचंद्र, भाऊदाजी लाड़, दादा भाई नौरौजी इत्यादि थे। इनमें से केवल एक महाराष्ट्रियन जांभेकर को छोड़कर सभी अन्य भाषाभाषी थे। नाना शंकर जिनका विकास में विशेष योगदान था वह गुजराती थे।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नाना शंकर सेठ 12 साल तक अध्यक्ष रहे। इन्हीं के द्वारा 1845 में स्थापित एल.फिस्टन.कॉलेज और 1857 में बंबई विश्वविद्यालय की स्थापना की थी। शिवाजी और पेशवा मराठा साम्राज्य का उत्तराधिकारी होने का दावा करने वाली शिवसेना या मनसे यह भूल गयी हैं कि वे खुद उत्तर भारत के हैं। बाला साहेब ठाकरे के पिता जो बड़े लेखक और खोजी इतिहासकार थे यह बता गए कि ठाकरे यानि चंद्रसेन कायस्थ प्रभु बिहार से आए थे। चंद्रगुप्त मौर्य के पूर्वज पाटिलिपुत्र सम्राट महापदमनंद (शूद्र) के कुकृति से संतृप्त होकर वहां से भागे और महाराष्ट्र में आकर बसे। इस प्रकार से तो ये मूलतः बिहारी हैं । चर्चिल ने शायद इन्हीं परिस्थितयों को सोचकर कहा होगा कि भारतीय शासन करना नहीं जानते और इनकी आजादी होने में इनकी ही बरबादी है और इसी का उदाहरण है अबू आजमी को मनसे के विधायकों के द्वारा हिंदी में शपथ लेते समय चांटा मारा जाना। हकीकत तो यह कि बंटवारे की राजनीति आपको ही आपको ही अकेला छोड़ देगी और राज ठाकरे का भी वही हाल होगा जो बाला साहेब ठाकरे का हुआ है या हो रहा है। एक समय बाद जनता खुद जानेगी और इसका खुद प्रतीकात्मक उत्तर देगी।



( लेखक एमए – जनसंचार के पहले सेमेस्टर के छात्र हैं।)

Wednesday, October 28, 2009

अंगरेज़ी की श्रेष्ठ कविताएं हिन्दी में


समीक्षक- गिरीश पंकज



अंगरेज़ी साहित्य और उसकी प्रभावोत्पादकता से किसे इंकार हो सकता है। भारतीय समाज के ऊपर अगरेज़ी साहित्य एक दबाव की तरह भी विद्यमान रहा है। साहित्य न भी रहा हो, पर एक भाषा तो रही है। मजबूरी में ही सही, अंगरेज़ी जीवन का हिस्सा बनती चली गयी। भाषा या भाषा को हथियार बनाकर हमें गुलाम बनाने वाली प्रकृतियों की बात न भी करें तो अंगरेज़ी साहित्य का अपना मूल्य है। इस भाषा के साहित्य में कुछ बात तो है कि इसकी हस्ती अब तक नहीं मिट पायी है। हालत यह है कि धीरे-धीरे भारत में भी अंगरेज़ी साहित्य रचने वालों की तादाद बढ़ी है। हिंदी लेखकों में भी लिखने, छपने और अनूदित होने की ललक बढ़ी है। यह शायद वैश्विक होने के अहसास का ही एक हिस्सा है। अंगरेज़ी की श्रेष्ठ कविताएँ बरबस अपनी ओर खींचती है। यही कारण है कि हिंदी का अंगरेज़ी पढ़ा-लिखा लेखक समाज उससे बहुत जल्दी प्रभावित भी होता रहा है। अनेक हिंदी साहित्कारों की कविताएँ अंगरेज़ी के कवियों की छापाओं से ग्रस्त दीखती हैं। यह हिंदी कवियों की कमजोरी हो सकती है, लेकिन निर्विवाद रूप से अंगरेज़ी की श्रेष्ठता का प्रमाण तो है ही। ऐसी श्रेष्ठ कविताओं का एक संकलन प्रकाशित होकर हिंदी के पाठकों तक पहुँचा है। अनुवादक कुलदीप सलिल के संपादन में “अंगरेज़ी की श्रेष्ठ कवि और उनकी श्रेष्ठ कविताएँ” नामक इस पुस्तक में अगरेज़ी के महत्वपूर्ण कवियों की रचनाओं के अनुवाद प्रस्तुत किए गए हैं।



कुलदीप सलिल की अनेक अनूदित कविताएँ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही है। वे दक्ष अनुवादक हैं। उनके अनुवाद अनुवाद जैसे नहीं लगते। समझ में आते हैं। (जबकि समकालीन हिंदी कविताएँ अनुवाद-सरीखी लगती हैं और समझ में भी नहीं आतीं) कुलदीप जी ने भूमिका में एक महत्वपूर्ण बात कही है कि “अनुवादक का कवि होना भी जरूरी है” सचमुच कवि ही मूल कविता की ध्वन्यात्मकता को, लयता को, उसकी समस्त प्रभविष्णुता को गहराई से समझ सकता है। कविता की ध्वनि, कविता का प्रवाह और कविता की आत्मा को एक कवि ही बेहतर समझ सकता है। अंगरेज़ी का जानकार कविता का मशीनी अनुवाद करेगा, मगर कवि उसी कविता का आत्मिक अनुवाद करेगा। अनुवाद अनुवाद न लगे, वह अनुरचना (यानी ट्रांस्क्रिएशन) लगे तभी उसकी सार्थकता है। तभी उसकी पठनीयता है। और उपादेयता भी। अनुवाद एक तरह से पुनर्सर्जना भी है। इसलिए कहा जा सकता है कि ये अनुवाद नहीं आसां, बस इतना समझ लीजे। भाव की गहराई है और डूब के जाना है। कुलदीप सलिल ने डूबकर अनुवाद किया है।



समीक्षा पुस्तक में जिन अठारह कवियों का चयन किया गया है उनमें विलियम शेक्सपियर, बेन जान्सन, जॉन मिल्टन, विलियम वर्डसवर्थ, पीबी शेली, जॉन कीट्स, राबर्ट ब्राउनिंग, विलियम बटलर गेट्स, राबर्ट फ्रॉस्ट, टी.एस.एलविट जैसे वैश्विक रूप से बेहद लोकप्रिय कवि शामिल हैं। जॉन डन, एलेक्जैंडर पोप, विलियम ब्लैक एस.टी.कॉलरिज, एल्फ्रेड टेनीसन, मैथ्यू अर्नाल्ड, एमिली डिकिन्सन और डब्ल्यू. एच. ऑडेन भी कम नहीं हैं। अनुवादक ने इन कवियों का सारगर्भित परिचय दिया है। कवियों की मूल रचनाएँ भी दी हैं। इन कविताओं को पढ़ते हुए साफ समझ में आता है कि उस दौर की अंगरेज़ी भाषा और वर्तमान दौर की अंगरेज़ी में कितने परिवर्तन हुए हैं। भाषा को हमारे यहाँ बहता नीर कहा गया है। नीर अपने साथ अनेक उपयोगी चीजें बहाकर लाता है। अनुवादक ने ठीक किया है कि उस वक्त जो भाषा थी, शब्द की जो स्पेलिंग प्रचलित थी, उसे जस का तस रख दिया है। इससे अंगरेज़ी साहित्य में रुचि रखने वाले पाठकों एवं विद्यार्थियों को भाषा के क्रमिक विकास एवं परिवर्तन होने की सहज प्रवृत्ति का पता चलेगा। मेरे जैसे पाठकों को भी अच्छा लगेगा जिन्होंने बहुत ज्यादा अंगरेज़ी कविताएँ नहीं पढ़ी हैं।



शेक्सपियर की मशहूर पंक्ति “दुनिया एक मंच है और हम सब कठपुतली” से हिंदी समाज भी परिचित है। बहुतों को पता भी नहीं कि यह कथन शेक्सपियर का है। अनुवादक ने शेक्सपियर के “आल द वर्ल्ड’स ए स्टेज” का हिंदी अनुवाद “सारी दुनिया एक मंच है” करते हुए कुछ इस तरह अनुवाद किया है कि “सारी दुनिया एक मंच है, नर नारी अभिनेता/ सात अवस्थाएँ जीवन की/ सात अंकों के नाटक में/ अपना-अपना खेल दिखा हर इनसान चला जाता है” इस भावभूमि पर एक फिल्मी गीत भी कभी लिखा गया था। अनुवाद से बेहतर था यह कि “रंगमंच है दुनिया सारी/ हर इंसां अभिनेता है/ अपना-अपना अभिनय करके/ हर कोई चल देता है”। कुलदीप सलिल ने भी अनुवाद में मेहनत की है, अगर वह इन्हें और करीने से छंदबद्ध कर सकते तो अनुवाद का लालित्य द्विगुणित हो जाता। फिर भी तमाम अनुवाद बाँधने की ताकत रखते हैं।



पंद्रहवीं शताब्दी के कवि हों या उन्नीसवीं शताब्दी के, मानवीय संवेदनाएँ विरासत के रूप में ही स्थानांतरित होती दिखती है। भाषा भले ही परिवर्तित होती गयी, भावनाएँ वहीं हैं। परिदृश्य बदला है, लेकिन प्रवृत्तियाँ जस की तस हैं। संग्रह की रचनाओं को पढ़ते हुए हम अंगरेज़ी कविता के क्रमिक विकास, उसके चिंतन से भी परिचित होते चलते हैं। कविताओं में प्रयुक्त मुहावरे बदलते हैं और दृश्य बंध भी। विषयवस्तु भी परिवर्तित होती चलती है। जॉन डन या जॉन मिल्टन अपने दौर में (यानी पाँच सौ साल पहले) अगर मौत या आँखों की ज्योति चले जाने पर ईश्वर से प्रश्न करते हैं तो बीसवीं शताब्दी के आते-आते डब्ल्यू.एच. ऑडेन का मनुष्य रेडियो, टेलीफोन, फ्रिज, कार के साथ आधुनिक आदमी बन जाता है। लेकिन वह प्रेम गीत जरूर गाता है।



संग्रह की कविताएँ पढ़कर हिंदी का पाठक सहज भाव से तुलनात्मक अध्ययन पर भी विवश हो जाता है। इस कृति के बहाने अंगरेज़ी और हिंदी कविता का तुलनात्मक अध्ययन का मौका भी मिलता है। समझ में आ जाता है कि अंगरेज़ी कविता किस भाव-भूमि पर खड़ी है और हिंदी का काव्यकौशल कहाँ है। हिंदी का पाठक महसूस करता है कि हिंदी की उस दौर की कविता अंगरेज़ी कविताओं से काफी आगे रही है। आज स्थिति उलट है। जो भी हो, कुलदीप सलिल के चयन की तारीफ करनी पड़ती है। चालीस-पैंतालीस साल से अनुवाद कर्म में रत कुलदीप जी ने हिंदी के पाठकों को अनमोल तोहफा दिया है। इस कृति के बहाने अंगरेज़ी साहित्य का सत्व सामने आ जाता है। और पता चलता है कि सोच का मानवीय चेहरा कितना भावुक है। उसके चिंतन के औजार क्या हैं। यह संग्रह अंगरेज़ी और श्रेष्ठ कविताओं की तलाश के लिए व्याकुल करता है।



कृति - अंगरेज़ी के श्रेष्ठ कवि

अनुवादक - कुलदीप सलिल

प्रकाशक - राजपाल एंड सन्स,

कश्मीरी गेट, दिल्ली मूल्य - 190/-

साभार सृजनगाथा

बाजार की चुनौतियों से बेजार हिन्दी पत्रकारिता



- संजय द्विवेदी
आज भूमंडलीकरण के दौर में हिन्दी पत्रकारिता की चुनौतियां न सिर्फ बढ़ गई हैं वरन उनके संदर्भ भी बदल गए हैं। पत्रकारिता के सामाजिक उत्तरदायित्व जैसी बातों पर सवालिया निशान हैं तो उसकी नैसर्गिक सैद्धांतिकता भी कठघरे में है। वैश्वीकरण और नई प्रौद्योगिकी के घालमेल से एक ऐसा वातावरण बना है जिससे कई सवाल पैदा हुए हैं। इनके वाजिब व ठोस उत्तरों की तलाश कई स्तरों पर जारी है। वैश्वीकरण व बाजारवाद की इन चुनौतियों ने हिन्दी पत्रकारिता को कैसे और कितना प्रभावित किया है इसका अध्ययन किया जाना अत्यंत महत्वपूर्ण है।
समूची भारतीय पत्रकारिता के संदर्भ में बात करने के पहले इसे तीन हिस्सों में समझने की जरूरत है। पहली अंग्रेजी पत्रकारिता, दूसरी हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं के बड़े अखबारों की पत्रकारिता और तीसरी नितांत क्षेत्रीय अखबारों की पत्रकारिता। पहली, अंग्रेजी की पत्रकारिता तो बाजारवाद की हवा को आंधी में बदलने में सहायक ही बनी है, और कमोवेश इसने सारे नैतिक मूल्यों व सामाजिक सरोकारों को शीर्षासन करा दिया है। दूसरी श्रेणी में आने वाले हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं के बहुसंस्करणीय अखबार हैं। वे भी बाजारवादी हो हल्ले में अंग्रेजी पत्रकारिता के ही अनुगामी बने हुए हैं। उनकी स्वयं की कोई पहचान नहीं है और वे इस संघर्ष में कहीं ‘लोक’ से जुड़े नहीं दिखते। तीसरी श्रेणी में आने वाले क्षेत्रीय अखबार हैं, जो अपनी दयनीयता के नाते न तो खास अपील रखते हैं न ही उनमें कोई आंदोलनकारी-परिवर्तनकारी भूमिका निभाने की इच्छा शेष है। यानि मुख्यधारा की पत्रकारिता ने चाहे-अनचाहे बाजार की ताकतों के आगे आत्मसमर्पण कर दिया है।
व्यावसायिक दृष्टि से देखें तो यह घाटे का सौदा नहीं है। अखबारों की छाप-छपाई, तकनीक-प्रौद्योगिकी के स्तर पर क्रांति दिखती है। वे ज्यादा कमाऊ उद्यम में तब्दील हो गए हैं। अपने कर्मचारियों को पहले से ज्यादा बेहतर वेतन, सुविधाएं दे पा रहे हैं। बात सिर्फ इतनी है कि उन सरोकारों का क्या होगा, उन सामाजिक जिम्मेदारियों का क्या होगा-जिन्हें निभाने और लोकमंगल की भावना से अनुप्राणित होकर काम करने के लिए हमने यह पथ चुना था? क्या अखबार को ‘प्रोडक्ट’ बनने और संपादक को ‘ब्रांड मैनेजर’ या ‘सीईओ’ बन जाने की अनुमति दे दी जाए? बाजार के आगे लाल कालीन बिछाने में लगी पत्रकारिता को ही सिर माथे बिठा लिया जाए? क्या यह पत्रकारिता भारत या इस जैसे विकासशील देशों की जरूरतों, आकांक्षाओं को तुष्ट कर पाएगी? यदि देश की सामाजिक आर्थिक जरूरतों, जनांदोलनों को स्वर देने के बजाए वह बाजार की भाषा बोलने लगे तो क्या किया जाए? यह चिंताएं आज हमें मथ रही हैं?

आप लाख कहें लेकिन ‘विश्वग्राम’ के पीछे जिस आर्थिक चिंतन और नई प्रौद्योगिकी पर जोर है क्या उसका मुकाबला हमारी पत्रकारिता कर सकती है? बाजारवाद के खिलाफ गूंजें तो अवश्य हैं, लेकिन वे बहुत बिखरी-बिखरी, बंटी-बंटी ही हैं। वह किसी आंदोलन की शक्ल लेती नहीं दिखतीं। बिना वेग, त्वरा और नैतिक बल के आज की हिन्दी या भाषाई पत्रकारिता कैसे उदारीकारण के अर्थचिंतन से दो-दो हाथ कर सकती है?
बढ़ती उपभोक्तावादी संस्कृति, चैनलों पर अपसंस्कृति परोसने की होड़, बढ़ती सौन्दर्य प्रतियोगिताएं, जीवन में हासिल करने के बजाए हथियाने का बढ़ता चिंतन, भाषा के रूप में अंग्रेजी का वर्चस्ववाद, असंतुलित विकास और असमान शिक्षा का ढांचा कुछ ऐसी चुनौतियां हैं जिनसे हम रोजाना टकरा रहे हैं और समाज में गैर बराबरी की खाई बढ़ती जा रही है। इसके साथ ही मूल्यहीनता के संकट अलग हैं। भारत की दुनिया के सात बड़े बाजारों में एक होना एक संकट को और बढ़ाता है। दुनिया की सारी कम्पनियां इस बाजार पर कब्जा जमाने कुछ भी करने पर आमादा हैं।
असंतुलित विकास भी इसी व्यवस्था की नई देन है। शायद इसलिए अर्थशास्त्री प्रो. ब्रम्हानंद मानते है कि आने वाले वर्षों में ‘स्टेट बनाम मार्केट’ (राज्य बनाम बाजार) का गंभीर टकराव होगा। सो विकसित राज्यों व बाजारवादी व्यवस्था से लाभान्वित हुए राज्यों औसे आंध्र, कनोटक, गुजरात, महाराष्ट्र के खिलाफ अविकसित राज्यों का एक स्वाभाविक संघर्ष शुरू हो गया है। प्रो. ब्रम्हानंद के मुताबिक ‘‘उदारीकरण के बाद स्वास्थ्य, पेयजल, सड़क, सार्वजनिक यातायात, शिक्षा हर जगह दोहरी व्यवस्था कायम हो गई है। एक व्यवस्था निजीकरण से जुड़ी है, जहां उपभोक्ताओं के पास समृद्धि है और ‘निजीकरण’ से लाभ लेने की क्षमता भी। दूसरी ओर व्यवस्था, सार्वजनिक क्षेत्र की सुविधाओं से जुड़ी हैं, जहां निवेश के लिए सरकार के पास जैसा नहीं है पर करोड़ों लोग इससे जुड़े हैं। केन्द्र की नीतियों से भी भेदभाव प्रायोजित हो रहा है। बीमारू राज्य और बीमारू होते जा रहे हैं।’’ ये संकट देश के भी हैं और पत्रकारिता के भी।
दुर्भाग्य है बीमारू राज्यों के अधिकांश क्षेत्रों में बोले जानी वाली भाषा हिन्दी है। अंग्रेजी के मुकाबले उसकी दयनीयता तो जाहिर है ही परन्तु सूचना की भाषा बनने की दिषा में भी हिन्दी बहुत पीछे है। साहित्य-संस्कृति, कविता-कहानी के क्षेत्रों में शिखर को छूने के बावजूद ज्ञान-विज्ञान के विविध अनुशासनों पर हिन्दी में बहुत कम काम हुआ है। विज्ञान, प्रबंधन, प्रौद्योगिकी, उच्च वाणिज्य, उद्योग आदि क्षेत्रों में हिन्दी बेचारी साबित हुई है, जबकि यह युग सत्य है कि आज के दौर में जब तक भाषा बहुआयामी अभिव्यक्ति व विशेष सूचना की भाषा न बने उसे सीमा से अधिक महत्व नहीं मिल सकता। वरिष्ठ पत्रकार हरिवंश की मानें तो - ‘‘हिन्दी को आज देश, काल, परिस्थितियों के अनुरूप सूचना की सम्पन्न भाषा बनाना जरूरी है। आज की हिन्दी पत्रकारिता के लिए यही सीमा ही सबसे बड़ी चुनौती है। बाजारवाद की चुनौतियों के खिलाफ हिन्दी पत्रकारिता का यह सृजनात्मक उत्तर होगा। आधुनिक राजसत्ता, तंत्र, बाजारवाद, विश्वग्राम की सही अंदरूनी तस्वीर लोगों तक पहुंचे, यह सायास कोशिश हो। इसके अंतर्विरोध-कुरूपता को हिन्दी या भाषाई पाठक जानें, यह प्रयास हो। यह काम अंग्रेजी प्रेस नहीं कर सकता। अंग्रेजी की नकल कर रहे भाषाई अखबार भी नहीं कर सकते, क्योंकि ये सभी माडर्न सिस्टम की उपज हैं। यही बाजारवाद इनका शक्तिस्रोत हैं।’’
अंग्रेजी के वर्चस्ववाद के खिलाफ हिन्दी एवं भारतीय भाषाओं की शक्ति को जगाए व पहचाने बिना अंधेरा और बढ़ता जाएगा। अंग्रेजी अखबार इस लूटतंत्र के हिस्सेदार बने हैं तो मुख्यधारा की हिन्दी-भाषाई पत्रकारिता उनकी छोड़ी जूठी पत्तलें चाट रही हैं। हिन्दी की ताकत सिर्फ सिनेमा में दिखती है, जबकि यह भी बाजार का हिस्सा है। सच कहें तो हिन्दी सिर्फ मनोरंजन और वोट मांगने की भाषा बनकर रह गयी है।
बाजारवाद में मुक्त बेचने वाले हाते हैं - खरीदने वाले नहीं। हमारा पाठक यहीं ठगा जा रहा है। उसे जो कुछ यह कहकर पढ़ाया जा रहा है कि यह तुम्हारी पंसद है - दरअसल वह उसकी पसंद नहीं होती। जिस तरह एक ओर बाजार इच्छा सृजन कर रहा है, आपकी जरूरतें बढ़ी हैं और नाजायज चीजें हमारी जिन्दगी में जगह बना रही हैं। अखबार भी बाजार के इस षडयंत्र का हिस्सा बन गया है। सो पाठक केन्द्र में नहीं है, विज्ञापनदाता को मदद करने वाला ‘संदेश’ केन्द्र में है। हमने कहा - ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ पूरा विश्व एक परिवार है। ‘विश्वग्राम’ कहता है - ‘पूरा विश्व एक बाजार है।’ जाहिर है चुनौती कठिन है। विज्ञापन दाता ‘कंटेंट’ को नियंत्रित करने की भूमिका में आ गया है - यह दुर्भाग्य का क्षण है। आज हालात यह है कि पाठक ही यह तय नहीं करते कि उन्हें कौन सा अखबार पढ़ना है, अखबार ही यह भी तय कर रहे हैं कि हमें किस पाठक के साथ रहना है। कई अंग्रेजी अखबार इसी भूमिका का काम कर रहे हैं।
हिन्दी व भारतीय भाषाओं के अखबारों के सामने यह चुनौती है कि वे अपनी भूमिका पर पुनर्विचार करें। वे यह सोचें कि क्या वे सूचना देने, शिक्षित करने और मनोरंजन करने के अपने बुनियादी धर्म का निर्वाह करते हुए कुछ ‘विशिष्ठ’ कर सकते हैं? क्या हमने अपने प्रस्थान बिन्दु से नाता तोड़ लिया है, क्या हम जनोन्मुखी और सरोकारी पत्रकारिता से हाथ जोड़ लेंगे। देह और भोग (बाडी एंड प्लेजर) की पत्रकारिता के पिछलग्गू बन जाएंगे? अपने समाज जीवन को प्रभावित करने वाले सवालों से मुंह चुराएंगे? उदारीकरण के नकारात्मक प्रभावों पर चर्चा तक नहीं करेंगे। अपने पाठकों तक सांस्कृतिक पतन की सूचनाएं नहीं देंगे? क्या हम यह नहीं बताएंगे कि मैक्सिकों का यह हाल क्यों हुआ? थाईलैंड की वेश्यावृत्ति का बाजावाद से क्या नाता है? पत्रकारिता सार्थक भूमिका के निर्वहन में हमारे आड़े कौन आ रहा है?
हमारे एकता-अखंडता क्या पश्चिमी सांचों की बुनावट पर कायम रह सकेगी? सुविधाओं एवं सुखों के नाम पर क्या हम आत्म-समर्पण कर देंगे? ऐसे तमाम सवाल पत्रकारिता के सामने खड़े हैं। उनके उत्तर भी हमें पता है लेकिन ‘बाजावाद’ की चकाचैंध में हमें कुछ सूझता नहीं। इसके बावजूद रास्ता यही है कि हम अपने कठघरों से बाहर आकर बुनियादी सवालों से जूझें। हवा के खिलाफ खड़े होने का साहस पालें। हिन्दी पत्रकारिता की ऐतिहासिक भावभूमि हमें यही प्रेरणा देती है। यही प्रस्थान बिन्दु हमें जड़ों से जोड़ेगा और ‘वैकल्पिक पत्रकारिता’ की राह भी बनाएगा।
( लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)
- संपर्कः अध्यक्ष , जनसंचार विभाग, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, प्रेस काम्पलेक्स, एमपी नगर, भोपाल (मप्र)

Tuesday, October 27, 2009

Tolstoy's words..







Leo Tolstoy (1828-1910)
Russian novelist, philosopher






Hypocrisy in anything whatever may deceive the cleverest and most penetrating man, but the least wide-awake of children recognizes it, and is revolted by it, however ingeniously it may be disguised.

हिन्दी की आर्थिक पत्रकारिता: पहचान बनाने की जद्दोजहद




- संजय द्विवेदी



वैश्वीकरण के इस दौर में ‘माया’ अब ‘महागठिनी’ नहीं रही। ऐसे में पूंजी, बाजार, व्यवसाय, शेयर मार्केट से लेकर कारपोरेट की विस्तार पाती दुनिया अब मीडिया में बड़ी जगह घेर रही है। हिन्दी के अखबार और न्यूज चैनल भी इन चीजों की अहमियत समझ रहे हैं। दुनिया के एक बड़े बाजार को जीतने की जंग में आर्थिक पत्रकारिता एक साधन बनी है। इससे जहां बाजार में उत्साह है वहीं उसके उपभोक्ता वर्ग में भी चेतना की संचार हुआ है। आम भारतीय में आर्थिक गतिविधियों के प्रति उदासीनता के भाव बहुत गहरे रहे हैं। देश के गुजराती समाज को इस दृष्टि से अलग करके देखा जा सकता है क्योंकि वे आर्थिक संदर्भों में गहरी रूचि लेते हैं। बाकी समुदाय अपनी व्यावसायिक गतिविधियों के बावजूद परंपरागत व्यवसायों में ही रहे हैं। ये चीजें अब बदलती दिख रही हैं। शायद यही कारण है कि आर्थिक संदर्भों पर सामग्री के लिए हम आज भी आर्थिक मुद्दों तथा बाजार की सूचनाओं को बहुत महत्व देते हैं। हिन्दी क्षेत्र में अभी यह क्रांति अब शुरू हो गयी है।



‘अमर उजाला’ समूह के ‘कारोबार’ तथा ‘नई दुनिया’ समूह के ‘भाव-ताव’ जैसे समाचार पत्रों की अकाल मृत्यु ने हिन्दी में आर्थिक पत्रों के भविष्य पर ग्रहण लगा दिए थे किंतु अब समय बदल रहा है इकोनामिक टाइम्स, बिजनेस स्टैंडर्ड और बिजनेस भास्कर का हिंदी में प्रकाशन यह साबित करता हैं कि हिंदी क्षेत्र में आर्थिक पत्रकारिता का एक नया युग प्रारंभ हो रहा है। जाहिर है हमारी निर्भरता अंग्रेजी के इकानामिक टाइम्स, बिजनेस लाइन, बिजनेस स्टैंडर्ड, फाइनेंसियल एक्सप्रेस जैसे अखबारों तथा बड़े पत्र समूहों द्वारा निकाली जा रही बिजनेस टुडे और मनी जैसे पत्रिकाओं पर उतनी नहीं रहेगी। देखें तो हिन्दी समाज आरंभ से ही अपने आर्थिक संदर्भों की पाठकीयता के मामले में अंग्रेजी पत्रों पर ही निर्भर रहा है, पर नया समय अच्छी खबरें लेकर आ रहा।



भारत में आर्थिक पत्रकारिता का आरंभ ब्रिटिश मैनेजिंग एजेंसियों की प्रेरणा से ही हुआ है। देश में पहली आर्थिक संदर्भों की पत्रिका ‘कैपिटल’ नाम से 1886 में कोलकाता से निकली। इसके बाद लगभग 50 वर्षों के अंतराल में मुंबई तेजी से आर्थिक गतिविधियों का केन्द्र बना। इस दौर में मुंबई से निकले ‘कामर्स’ साप्ताहिक ने अपनी खास पहचान बनाई। इस पत्रिका का 1910 में प्रकाशन कोलकाता से भी प्रारंभ हुआ। 1928 में कोलकाता से ‘इंडियन फाइनेंस’ का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। दिल्ली से 1943 में इस्टर्न इकानामिक्स और फाइनेंसियल एक्सप्रेस का प्रकाशन हुआ। आजादी के बाद भी गुजराती भाषा को छोड़कर हिंदी सहित अन्य भारतीय भाषाओं में आर्थिक पत्रकारिता के क्षेत्र में कोई बहुत महत्वपूर्ण प्रयास नहीं हुए। गुजराती में ‘व्यापार’ का प्रकाशन 1949 में मासिक पत्रिका के रूप में प्रारंभ हुआ। आज यह पत्र प्रादेशिक भाषा में छपने के बावजूद देश के आर्थिक जगत की समग्र गतिविधियों का आइना बना हुआ है। फिलहाल इसका संस्करण हिन्दी में भी साप्ताहिक के रूप में प्रकाशित हो रहा है। इसके साथ ही सभी प्रमुख चैनलों में अनिवार्यतः बिजनेस की खबरें तथा कार्यक्रम प्रस्तुत किए जा रहे हैं। इतना ही नहीं लगभग दर्जन भर बिजनेस चैनलों की शुरूआत को भी एक नई नजर से देखा जाना चाहिए। जी बिजनेस, सीएनबीसी आवाज, एनडीटीवी प्राफिट आदि।



वैश्वीकरण और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगमन से पैदा हुई स्पर्धा ने इस क्षेत्र में क्रांति-सी ला दी है। बड़े महानगरों में बिजनेस रिपोर्टर को बहुत सम्मान के साथ देखा जाता है। इसकी तरह हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं में वेबसाइट पर काफी सामग्री उपलब्ध है। अंग्रेजी में तमाम समृद्ध वेबसाइट्स हैं, जिनमें सिर्फ आर्थिक विषयों की इफरात सामग्री उपलब्ध हैं। हिन्दी क्षेत्र में आर्थिक पत्रकारिता की दयनीय स्थिति को देखकर ही वरिष्ट पत्रकार वासुदेव झा ने कभी कहा था कि हिन्दी पत्रों के आर्थिक पृष्ठ ‘हरिजन वर्गीय पृष्ट’ हैं। उनके शब्दों में - ‘भारतीय पत्रों के इस हरिजन वर्गीय पृष्ठ को अभी लंबा सफर तय करना है। हमारे बड़े-बड़े पत्र वाणिज्य समाचारों के बारे में एक प्रकार की हीन भावना से ग्रस्त दिखते हैं, अंग्रेजी पत्रों में पिछलग्गू होने के कारण हिन्दी पत्रों की मानसिकता दयनीय है। श्री झा की पीड़ा को समझा जा सकता है, लेकिन हालात अब बदल रहे हैं। बिजनेस रिपोर्टर तथा बिजनेस एडीटर की मान्यता और सम्मान हर पत्र में बढ़ा है। उन्हें बेहद सम्मान के साथ देखा जा रहा है। पत्र की व्यावसायिक गतिविधियों में भी उन्हें सहयोगी के रूप में स्वीकारा जा रहा है। समाचार पत्रों में जिस तरह पूंजी की आवश्यकता बढ़ी है, आर्थिक पत्रकारिता का प्रभाव भी बढ़ रहा है। व्यापारी वर्ग में ही नहीं समाज जीवन में आर्थिक मुद्दों पर जागरूकता बढ़ी है। खासकर शेयर मार्केट तथा निवेश संबंधी जानकारियों को लेकर लोगों में एक खास उत्सुकता रहती है।



ऐसे में हिन्दी क्षेत्र में आर्थिक पत्रकारिता की जिम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है, उसे न सिर्फ व्यापारिक नजरिए को पेश करना है, बल्कि विशाल उपभोक्ता वर्ग में भी चेतना जगानी है। उनके सामने बाजार के संदर्भों की सूचनाएं सही रूप में प्रस्तुत करने की चुनौती है। ताकि उपभोक्ता और व्यापारी वर्ग तमाम प्रलोभनों और आकर्षणों के बीच सही चुनाव कर सके। आर्थिक पत्रकारिता का एक सिरा सत्ता, प्रशासन और उत्पादक से जुड़ा है तो दूसरा विक्रेता और ग्राहक से। ऐसे में आर्थिक पत्रकारिता की जिम्मेदारी तथा दायरा बहुत बढ़ गया है। हिन्दी क्षेत्र में एक स्वस्थ औद्योगिक वातावरण, व्यावसायिक विमर्श, प्रकाशनिक सहकार और उपभोक्ता जागृति का माहौल बने तभी उसकी सार्थकता है। हिन्दी ज्ञान विज्ञान के हर अनुशासन के साथ व्यापार, वाणिज्य और कारर्पोरेट की भी भाषा बने। यह चुनौती आर्थिक क्षेत्र के पत्रकारों और चिंतकों को स्वीकारनी होगी। इससे भी भाषायी आर्थिक पत्रकारिता को मान-सम्मान और व्यापक पाठकीय समर्थन मिलेगा।

( लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)

- संपर्कः अध्यक्ष , जनसंचार विभाग, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, प्रेस काम्पलेक्स, एमपी नगर, भोपाल (मप्र)

मोबाइलः 098935-98888 e-mail- 123dwivedi@gmail.com

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Monday, October 26, 2009

यूटोपिया



नीलेश रघुवंशी

जन्म
04 अगस्त, 1969, गंज बासौद(म.प्र.)





यूटोपिया

उसने अपनी जेब में
इतने अहंकार से हाथ डाला कि
उस पल मुझे लगा
काश! किसी के पास जेब न होती
तो कितना अछ्छा होता
आख़िर क्यों हो किसी के पास जेब?
मैं एक यूटोपिया में प्रवेश करने जा रही हू`ं
बंजारा खानबदोश जिप्सी नो मेंस लैण्ड
कुछ भी कह लो मुझे
अपने इस यूटोपिया में
बिना जेब के हूँ मैं
खालीपन मुझे अच्छा लगता है
तिस पर
जेब के खालीपन के तो कहने ही क्या...
क्यों बढ़ा रही हूँ बात को इतना
कहना चाहिए कभी-कभी
कलेजे को चीरती
सीधी-सच्ची दो टूक बात
आख़िर क्यों हो किसी के पास जेब?

Saturday, October 24, 2009

दोहे


यश मालवीय





कौन चतुर चालाक है और कौन मासूम,
सब कह देता आपका, अपना ड्राइंगरूम।।

साँसों का चुकने लगा, खाता और हिसाब,
पढी न पूरी जंदगी, पढते रहे किताब।।

पढते अपना नाम ही, लिखते अपना नाम,
हम अपने ही इस कदर, अब हो गए गुलाम।।

सुबह नहीं अपनी रही, रही न अपनी शाम,
ओवरटाइम जो मिला, किया काम, बस काम।।

सुबह सुबह माथा गरम, कंधे पर वैताल,
लहर उठाए किस तरह, उम्मीदों का ताल।।

थकने की क्या बात हो, जीना हमें जहान,
कंधे पर सामान है, पाँव पाँव प्रस्थान।।

दिल में है दरियादिली, पर खाली है जेब,
बिन घुँघरू कैसे बजे, खुशियों की पाजेब।।

मरहम पट्टी संग रखें, संग रखें रूमाल,
सपने ही अब आपको, करने लगे हलाल।।

है उडान की जद मगर, बिछा हुआ है जाल,
कैसे कोई हल करे, इतना बडा सवाल।।

झुलसा अपनी आग में, राहत का सामान,
बादल भागे छोडकर, जलता हुआ मकान।।

आने को आती नहीं, कभी साँच को आँच,
सपने है ताजा लहू, सपने टूटा काँच।।

साहित्य का भी गढ़ है छत्तीसगढ़

छत्तीसगढ़ राज्य के स्थापना दिवस ( 1 नवंबर पर विशेष)
-संजय द्विवेदी
छत्तीस गढ़ों से संगठित जनपद छत्तीसगढ़ । लोकधर्मी जीवन संस्कारों से अपनी ज़मीन और आसमान रचता छत्तीसगढ़। भले ही राजनैतिक भूगोल में उसकी अस्मितावान और गतिमान उपस्थिति को मात्र आठ वर्ष हुए हैं, पर सच तो यही है कि अपने सांस्कृतिक हस्तक्षेप की सुदीर्घ परंपरा से वह साहित्य के राष्ट्रीय क्षितिज में ध्रुवतारा की तरह स्थायी चमक के साथ जाना-पहचाना जाता है । यदि उत्तरप्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्यप्रदेश आदि से हिंदी संस्कृति के सूरज उगते रहे हैं तो छत्तीसगढ़ ने भी निरंतर ऐसे-ऐसे चाँद-सितारों की चमक दी है जिससे अपसंस्कृति के कृष्णपक्ष को मुँह चुराना पड़ा है ।जनपदीय भाषा- छत्तीसगढ़ी के प्रति तमाम श्रद्धाओं और संभ्रमों के बाद यदि हिंदी के व्यापक वृत में छत्तीसगढ़ धनवान बना रहा है तो इसमें उस छत्तीसगढ़िया संस्कार की भी भूमिका भी रेखांकित होती है जिसकी मनोवैज्ञानिक उत्प्रेरणा के बल पर आज छत्तीसगढ़ सांवैधानिक राज्य के रूप में है । कहने का आशय यही कि ब्रज, अवधी आदि लोकभाषाओं की तरह उसने भी हिंदी को संपुष्ट किया है । कहने का आशय यह भी कि लोकभाषाओं के विरोध में न तो राष्ट्रीय हिंदी रही है न ही छत्तीसगढ़ की हिंदी । इस वक्त यह कहना भी ज़रूरी होगा कि छत्तीसगढ़ की असली पहचान उसकी सांस्कृतिक अस्मिता है, जिसमें भाषायी तौर पर हिंदी और सहयोगी छत्तीसगढ़ी दोनों की सांस्कृतिक उद्यमों, सक्रियताओं, प्रभावों और संघर्षों को याद किया ही जाना चाहिए।
आज जब समूची दुनिया में (और विडम्बना यह भी कि भारतीय बौद्धिकी में भी) अपने इतिहास, अपने विरासत और अपने दिशाबोधों को बिसार देने का वैचारिक चिलम थमाया जा रहा है । पृथक किन्तु उज्ज्वल अस्मिताओं को लीलने के लिए वैश्वीकरण को खड़ा किया जा रहा है । अपनी सुदीर्घ उपस्थितियों को रेखांकित करते रहना ज़रूरी हो गया है ।
पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक वल्लभाचार्य ने पूर्व मीमांसा, भाषा उत्तर मीमांसा या ब्रज सूत्र भाषा, सुबोधिनी, सूक्ष्मटीका, तत्वदीप निबंध तथा सोलह प्रकरण की रचना की, जो रायपुर जिले के चम्पारण (राजिम के समीप) में पैदा हुए थे। अष्टछाप के संस्थापक विट्ठलाचार्य उनके पुत्र थे। मुक्तक काव्य परम्परा की बात करें तो राजा चक्रधर सिंह सबसे पहले नज़र आते हैं । वे छत्तीसगढ़ के गौरव पुरुष हैं। उनके जैसा संस्कृति संरक्षक राजा विरले ही हुए हैं । वे हिन्दी साहित्य के युग प्रणेता पं महावीर प्रसाद द्विवेदी का जीवनपर्यन्त नियमित आर्थिक सहयोग करते रहे। रम्यरास, जोश-ए-फरहत, बैरागढ़िया राजकुमार, अलकापुरी, रत्नहार, काव्यकानन, माया चक्र, निकारे-फरहत, प्रेम के तीर आदि उनकी ऐतिहासिक महत्व की कृतियां हैं। उनकी कई कृतियाँ 50 किलो से अधिक वजन की हैं ।
भारतेन्दु युग का जिक्र करते ही ठाकुर जगमोहन सिंह का नाम हमें चकित करता है, जिनकी कर्मभूमि छत्तीसगढ़ ही रहा और जिन्होंने श्यामा स्वपन जैसी नई भावभूमि की औपन्यासिक कृति हिन्दी संसार के लिए रचा। वे भारतेन्दु मंडल के अग्रगण्य सदस्य थे। जगन्नाथ भानु, मेदिनी प्रसाद पांडेय, अनंतराम पांडेय को इसी श्रृंखला मे याद किया जाना चाहिए । यहाँ सुखलाल प्रसाद पांडेय का विशेष उल्लेख करना समीचीन होगा कि उन्होंने शेक्सपियर के नाटक कॉमेडी ऑफ एरर्स का गद्यानुवाद किया, जिसे भूलभुलैया के नाम से जाना जाता है।
द्विवेदी युग में भी छत्तीसगढ़ की धरती ने अनेक साहित्य मनीषियों की लेखनी के चमत्कार से अपनी ओजस्विता को सिद्ध किया। इस ओजस्विता को चरितार्थ करने वालों में लोचन प्रसाद पांडेय का नाम अग्रिम पंक्ति में है। आपकी प्रमुख रचनाएं हैं – माधव मंजरी, मेवाड़गाथा, नीति कविता, कविता कुसुम माला, साहित्य सेवा, चरित माला, बाल विनोद, रघुवंश सार, कृषक बाल सखा, जंगली रानी, प्रवासी तथा जीवन ज्योति। दो मित्र आपका उपन्यास है। पंडित मुकुटधर पांडेय, लोचन प्रसाद के लघु भ्राता थे जिन्होंने छायावाद काव्यधारा का सूत्रपात किया। वे पद्मश्री से सम्मानित होने वाले छत्तीसगढ़ के प्रथम मनीषी हैं। पदुमलाल पन्नालाल बख्शी की झलमला को हिन्दी की पहली लघुकथा मानी जाती है। इन्होंने ग्राम गौरव, हिन्दी साहित्य विमर्श, प्रदीप आदि कृति रचकर हिन्दी साहित्य में अतुलनीय योगदान दिया। छत्तीसगढ़ के शलाका पुरुष बख्शी जी विषय में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि उन्होंने सरस्वती जैसी महत्वपूर्ण पत्रिका का सम्पादन किया। रामकाव्य के अमर रचनाकार डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र ने कौशल किशोर, साकेत संत, रामराज्य जैसे ग्रंथ लिखकर चमत्कृत किया। निबंधकार मावली प्रसाद श्रीवास्तव का कवित्व छत्तीसगढ़ की संचेतना को प्रमाणित करती है। इंग्लैंड का इतिहास और भारत का इतिहास उनकी चर्चित कृतियाँ हैं। उनकी रचनाएँ सरस्वती, विद्यार्थी, विश्वमित्र, मनोरमा, कल्याण, प्रभा, श्री शारदा जैसी महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में समादृत होती रही हैं । छत्तीसगढ़ का प्राचीन इतिहास निबंध सरस्वती के मार्च १९१९ में प्रकाशित हुआ था, जो छत्तीसगढ़ को राष्ट्रीय पहचान प्रदान करता है । प्यारेलाल गुप्त छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ रचनाकारों में एक हैं जिन्होंने सुधी कुटुम्ब (उपन्यास) आदि उल्लेखनीय कृतियाँ हमें सौंपी। द्वरिका प्रसाद तिवारी विप्र की किताब गांधी गीत, क्रांति प्रवेश, शिव स्मृति, सुराज गीत (छत्तीसगढ़ी) हमारा मार्ग आज भी प्रशस्त करती हैं। काशीनाथ पांडेय, धनसहाय विदेह, शेषनाथ शर्मा शील, यदुनंदन प्रसाद श्रीवास्तव, पंडित देवनारायण, महादेव प्रसाद अजीत, शुक्लाम्बर प्रसाद पांडेय, पंडित गंगाधर सामंत, गंभीरनाथ पाणिग्रही, रामकृष्ण अग्रवाल भी हमारे साहित्यिक पितृ-पुरुष हैं।
टोकरी भर मिट्टी का नाम लेते ही एक विशेषण याद आता है और वह है – हिन्दी की पहली कहानी। इस ऐतिहासिक रचना के सर्जक हैं – माधव राव सप्रे। पंडित रविशंकर शुक्ल मध्यप्रदेश के पहले मुख्यमंत्री मात्र नहीं थे, उन्होंने आयरलैण्ड का इतिहास भी लिखा था। पंडित राम दयाल तिवारी एक योग्य समीक्षक के रूप में प्रतिष्ठित होते हैं। शिवप्रसाद काशीनाथ पांडेय का कहानीकार आज भी छत्तीसगढ़ को याद आता है।
गजानन माधव मुक्तिबोध हिन्दी साहित्य में सर्वाधिक चर्चा के केन्द्र में रहने वाले कवि हैं। वे कहानीकार भी थे और समीक्षक भी। उनकी विश्व प्रसिद्ध कृतियाँ हैं – चांद का मुँह टेढा है, अंधेरे में, एक साहित्यिक की डायरी। इस कालक्रम के प्रमुख रचनाकार रहे - घनश्याम सिंह गुप्त, बैरिस्टर छेदीलाल । आधुनिक काल में श्रीकांत वर्मा राष्ट्रीय क्षितिज पर प्रतिष्ठित कवि की छवि रखते हैं, जिनकी प्रमुख कृतियाँ माया दर्पण, दिनारम्भ, छायालोक, संवाद, झाठी, जिरह, प्रसंग, अपोलो का रथ आदि हैं। हरि ठाकुर सच्चे मायनों में छत्तीसगढ़ के जन-जन के मन में बसने वाले कवियों में अपनी पृथक पहचान के साथ उभरते हैं। जिनका सम्मान वस्तुतः छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के संघर्ष का सम्मान है। उन्होंने कविता, जीवनी, शोध निबंध, गीत तथा इतिहास विषयक लगभग दो दर्जन कृतियों के माध्यम से इस प्रदेश की तंद्रालस गरिमा को जगाया है। उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं – गीतों के शिलालेख, लोहे का नगर, अंधेरे के खिलाफ, हँसी एक नाव सी। गुरुदेव काश्यप, बच्चू जांजगीरी, नारायणलाल परमार, हरि ठाकुर के समकालीन कवि हैं। प्रमोद वर्मा की तीक्ष्ण और मार्क्सवादी आलोचना दृष्टि का जिक्र न करना बेमानी होगा । हिंदी रंग चेतना में हबीब तनवीर की रंग चेतना की गंभीर हिस्सेदारी स्थायी जिक्र का विषय हो चुका है ।
छत्तीसगढ़ के रचनाकारों ने सिर्फ़ कविता, कहानी ही नहीं उन तमाम विधाओं में अपनी सार्थक उपस्थिति को रेखांकित किया है जिससे हिंदी भाषा और उसकी संस्कृति समृद्ध होती रही है । आज की लोकप्रिय विधा लघुकथा का जन्म यहीं हुआ । हिंदी की पहली लघुकथा इसी ज़मीन की उपज है । खास तौर पर उर्दू की समानान्तर धारा की बात करें तो जिन्होंने देवनागरी को आजमाकर अपनी हिंदी-भक्ति को चरितार्थ किया । इसमें ग़ज़लकार मौलाना अब्दुल रउफ महवी रायपुरी, लाला जगदलपुरी, स्व. बंदे अली फातमी, स्व. मुकीम भारती, स्व. मुस्तफा हुसैन मुश्फिक, शौक जालंधरी, रजा हैदरी, अमीर अली अमीर की शायरी को आम आदमी भुला नहीं सकता है । खैर.... हिन्दी के साथ हम छत्तीसगढ़ी भाषा के रचनाकारों का स्मरण न करें तो यह अस्पृश्य भावना का परिचायक होगा। कबीर दास के शिष्य और उनके समकालीन (संवत 1520) धनी धर्मदास को छत्तीसगढ़ी के आदि कवि का दर्जा प्राप्त है, छत्तीसगढ़ी के उत्कर्ष को नया आयाम दिया – पं. सुन्दरलाल शर्मा, लोचन प्रसाद पांडेय, मुकुटधर पांडेय, नरसिंह दास वैष्णव, बंशीधर पांडेय, शुकलाल पांडेय ने। कुंजबिहारी चौबे, गिरिवरदास वैष्णव ने राष्ट्रीय आंदोलन के दौर में अपनी कवितीओं की अग्नि को साबित कर दिखाया। इस क्रम में पुरुषोत्तम दास एवं कपिलनाथ मिश्र का उल्लेख भी आवश्यक होगा। वर्तमान में छत्तीसगढ़ी रचनात्मकता भी लगातार जारी है । पर उसे समय के शिला पर कसौटी में कसा जाना अभी प्रतीक्षित है ।
इसी तरह आज के दौर में हिंदी साहित्य में अपनी बड़ी जगह बना चुके नौकर की कमीज के लेखक विनोद कुमार शुक्ल, जया जादवानी, आनंद हषुर्ल, लोकबाबू, परितोष चक्रवर्ती, सतीश जायसवाल, राजेश्वर दयाल सक्सेना, रमेश चंद्र मेहरोत्रा, चित्तरंजन कर, जयप्रकाश, कनक तिवारी, ललित सुरजन, जयप्रकाश मानस, सुधीर शर्मा, विनोद कुमार शुक्ल, स्व. विभु कुमार डा.राजेंद्र सोनी, परदेशी राम वर्मा, लाला जगदलपुरी जैसे तमाम नाम गिनाए जा सकते हैं जिनपर समूचे हिंदी संसार को गर्व हो सकता है । सिर्फ इतना ही नहीं यहाँ ऐसे रचनाकार भी बैठे हुए हैं जिन्हें भले ही आज की कथित भारतीय रचनाकार बिरादरी नहीं जानती पर वे भी कई देश की सीमाओं को लाँघकर दर्जनों देशों के हजारों पाठकों के बीच जाने जाते हैं । ये सब के सब हमारे वर्तमान के ही संस्कृतिकर्मी नहीं बल्कि हमारे अतीत में पैठे हुए उन सभी नक्षत्रों की तरह हैं जो भावी समय के खरे होने की गारंटी देते हैं ।
- अध्यक्षः जनसंचार विभाग माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, प्रेस काम्पलेक्स, एमपी नगर, भोपाल (मप्र)
मोबाइलः 098935-98888 e-mail- 123dwivedi@gmail.com
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Friday, October 16, 2009

On Diwali







दीपावली की बहुत-बहुत शुभकामनाएं।
-संजय

हरिनारायण को बृजलाल द्विवेदी साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान

भोपाल। दिल्ली से प्रकशित साहित्यिक पत्रिका कथादेश के संपादक हरिनारायण को पं. बृजलाल द्विवेदी अखिल भारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान दिये जाने की घोषणा की गई है। वर्ष 2008 के सम्मान के लिए श्री हरिनारायण के नाम का चयन पांच सदस्यीय निर्णायक मंडल ने किया जिसमें नवनीत के संपादक विश्वनाथ सचदेव( मुंबई), सप्रे संग्रहालय, भोपाल के संस्थापक विजयदत्त श्रीधर( भोपाल ), छत्तीसगढ़ हिन्दी ग्रंथ अकादमी के संचालक रमेश नैयर, कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, रायपुर के कुलपति सच्चिदानंद जोशी, साहित्य अकादमी के सदस्य गिरीश पंकज (रायपुर) शामिल थे। पूर्व में यह सम्मान वीणा(इंदौर) के यशस्वी संपादक डा.श्यामसुंदर व्यास और दस्तावेज (गोरखपुर) के संपादक डा. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी को दिया जा चुका है।

सम्मान समिति के सदस्य संजय द्विवेदी ने बताया कि हिन्दी की स्वस्थ साहित्यिक पत्रकारिता को सम्मानित एवं रेखांकित करने के उद्देश्य से इस सम्मान की शुरूआत की गई है। इस सम्मान के तहत किसी साहित्यिक पत्रिका का श्रेष्ठ संपादन करने वाले संपादक को 11 हजार रूपये, शाल, श्रीफल, प्रतीक चिन्ह एवं सम्मान पत्र देकर सम्मानित किया जाता है। मार्च 1948 में जन्में श्री हरिनारायण 1980 से कथादेश का संपादन कर रहे हैं। वे हंस, विकासशील भारत, रूप कंचन के संपादन से भी जुड़े रहे हैं। उनके संपादन में कथादेष ने देश की चर्चित साहित्यिक पत्रिकाओं में अपनी जगह बना ली है।

आपका जीवन दूसरे न संभाले!

जोगिंदर सिंह
ज्यादातर लोग रोज जो काम करते हैं, उनकी सूची बनाकर रखते हैं और उम्मीद करते हैं कि ज्यादातर काम हो जाएंगे। बेशक, सूची बनाने में कोई हर्ज नहीं, बल्कि इससे तो आप अपने कार्यों की एक सीमा भी निर्धारित कर लेते हैं। पर इसमें इस बात का ध्यान रखें कि रोजमर्रा के रूटीन काम या फालतू के कामों के कारण इस लिस्ट की दुर्गति न हो। हर काम पूरा हो कर हमारा जीना आसान कर देता है। लेकिन कुछ काम ऐसे हैं, जैसे खरीदारी-जो कभी पूरे नहीं हो पाएंगे यदि आप उनकी लिस्ट बनाकर अपने सामने न रखें। खरीदारी के पूर्व पूरी लिस्ट बनाना जरूरी होता है नहीं तो चूक जाने पर आपको दोबारा भाग-दौड़ करनी पड़ेगी।
परंतु एक सत्य यह भी है कि जीवन में कोई असीमित समय उपलब्ध नहीं होता। हमें तय कर लेना चाहिए कि क्या करना जरूरी है और क्या जरूरी नहीं है तथा क्या काम हमें दूसरों के जरिए करवाना है। उदाहरण के लिए निमंत्रणों की बात को ही लीजिए। कुछ लोग निमंत्रण भेजने में बड़े पटु होते हैं, और जिससे कभी कदा मिले हो, उसको भी निमंत्रण भेज देते हैं। इस संदर्भ में यह जरूरी नहीं कि हर जगह आप जाएं ही। अपनी प्राथमिकताएं निश्चित करना आवश्यक है। यदि कहीं जाना जरूरी हो या कोई घनिष्ठ आपको बुलाएं तभी जाएं।

पिछले हफ्ते ही एक उद्योगपति के घर गार्डन पार्टी में जाने का मुझे निमंत्रण प्राप्त हुआ। उन श्रीमान जी से मैं दो तीन बार जरूर मिला था परंतु 'हैलो हाय!Ó से ज्यादा कभी कोई बात नहीं हुई, वहां पहुंचने में दो घंटे आने-जाने में, एक घंटा लंच से पूर्व पीने-पिलाने में लगते। मैंने तुरंत निर्णय किया कि वहां न जाने से न सिर्फ चार घंटों की ही बचत होगी, वरण इस समय को ज्यादा सकारात्मक रूप से इस्तेमाल किया जा सकता है। अत: मैंने यथोचित कारण के साथ एक विनम्र ई-मेल उनको भेज दिया। इससे न सिर्फ लगभग पूरा दिन बचा वरण दो घंटे की कार यात्रा से होने वाली थकान से भी मुक्ति मिली। इसी बचे हुए समय में मैं यह लेख लिख रहा हूं।

ज्यादातर लोगों में इतनी शराफत नहीं होती कि अपने न आ सकने का खेद समय रहते ही प्रकट कर दें, जिससे मेजबान को सहूलियत रहे। जब कुछ दिन पश्चात उन्हीं सज्जन से मुलाकात हुई तो उन्होंने मेरे दिन लंच पर न आ सकने की सूचना यथासमय देन के लिए मुझे धन्यवाद भी दिया। उन्होंने यह भी कहा कि सिर्फ मैं ही था जिसने यथासमय आने की मना कर दी वर्ना पच्चीस और संभावित मेहमान थे, जो न आए, न उन्होंने कोई नहीं आने की सूचना ही दी।

सिर्फ वे ही काम या वस्तुएं अपनी सूची में रखें, जिनका आपके जीवन और कार्यक्षेत्र में महत्व हो। आप चाहें, तो एक ऐसी सूची भी बना सकते हैं, जिसमें उन काम या चीजों के बारे में उल्लेख हो जो आपको नहीं करना है। वरन दूसरों को करना है- चाहे एक मंडल या समूह के रूप में या धन-भूगतान के आधार पर भी। यदि हर काम आप खुद ही करने की कोशिश करेंगे- जैसा कई लोग करते भी हैं- तो आप स्वंय को पागल कर लेंगे।

आप यदि दो सूची रखें, तो ज्यादा अच्छा रहे। एक करने वाले कामों की और दूसरी 'विजय तालिकाÓ इस दूसरी तालिका के काम जब आप पूरे करेंगे तब उपलब्धि की खुशी महसूस करेंगे। इस विजय तालिका के काम एक दो दिन के नहीं होंगे, वरन उनको लगातार करना पड़ेगा और रोज करना पड़ेगा। यही वह तालिका होगी, जो आपको सही माने में संतुष्टि देगी।

इस लिस्ट या सूची में उन उपलब्धियों का जरूर जिक्र करें, जो आपने बहुत ही परेशानियों के बावजूद प्राप्त की है। इससे आपको अपनी आंतरिक योग्यताओं पर भरोसा कायम होगा। जो आपके पास हैं। इसके बाद आप एक और लिस्ट बनाएं उन महत्वपूर्ण कार्यों की जो अभी पूरा होने से रह गए हैं।
यदि हम सफलता चाहते हैं, तो हमें वह तरीके अख्तियार करने होंगे, जिनके द्वारा आप शीघ्र निर्णय लेने की क्षमता प्राप्त कर सकें और समस्याओं को सुलझाने में निष्णात हो सकें। आपके ये गुण आप में नेतृत्व की क्षमता पैदा करेंगे। और दूसरों को प्रेरणा प्रदान करेंगे। आपमें इनसे नेतृत्व का गुण भी आएगा। इसके लिए सबसे अच्छा है कि आप दिमाग खुला रखें और दकियानूसी होने से बचें। सही निर्णय के लिए आपको उन सभी घटकों का ख्याल रखना चाहिए, जो परिवर्तनीय हैं। छोटी से छोटी चीजों से भी बड़ा फर्क पड़ सकता है।

विजय और पराजय को रेखांकित करने वाली रेखा बेहद सूक्ष्म होती है। सभी लोग एक से तो नहीं होते। उनके सोच विचार में काफी फर्क रहता है। एक ने कोई परियोजना प्रारंभ की और उनको वह पूरा करके ही चैन लेगा। जब कि कोई दूसरा उसको शुरू करने के बारे में सोच विचार ही करता रहेगा। हो सकता है कि उन दोनों के बीच समय का फर्क कुछ मिनटों का ही हो। परंतु जो आदमी अपना काम ठीक-ठाक खत्म कर लेता है, उसकी तीव्रता उस आदमी से थोड़ा अधिक ही रहेगी- चाहे दूसरा भी अपना काम पूरा कर ले। सर्वप्रथम आने वाले और दूसरे स्थान पर आने के अंको में बहुत कम फर्क रहता है। परंतु सारी मान्यता उसी को मिलती है, जो प्रथम आता है चाहे उसका एक अंक ही ज्यादा हो। घुड़दौड़ में यही होता है। जिसमें जीतने वाला घोड़ा दूसरे नंबर पर आने वाले घोड़े से दस पंद्रह गुणा ज्यादा कमाता है। जब हम अपना सर्वोत्तम प्रकट करेंगे तभी सर्वोत्तम रहेंगे।

हर सफलता के पीछे आपकी मेहनत ही रहती है। ईश्वर हर जीव-जन्तु के लिए भोजन उपलब्ध कराता है, पर उसको प्राप्त करने के लिए यत्न करना जरूरी है। ईश्वर किसी एक के घर में खाना फेंक कर नहीं जाता। आप यदि भाग्य पर विश्वास करते हैं, तो जरूर करें- पर यह याद रखिए कि आप उतने ही भाग्यशाली सिद्ध होंगे, जितना काम करेंगे। कई लोग अवसर गंवा बैठते हैं, क्योंकि अवसर कड़ी मेहनत की पोशाक में सामने आते हैं और इसके लिए कोई पतली गली वाला आसान रास्ता नहीं है।

(लेखक सी.बी.आई के पूर्व निदेशक हैं)


साभार : डायमंड बुक्स

TV Editors set up a new body

The editors of broadcast media announce the setting up of a body to strengthen the values of objective and fair broadcast journalism and to protect and promote the freedom of expression. The editors of television channels feel there is a need to evolve healthy norms, promote training of professional journalists at all levels, ensure dissemination of credible and constructive news content and to protect the right to freedom of expression, whenever threatened.

In pursuit of the above mentioned aims and objects we announce the setting up of a broadcast editors' organization under the name of Broadcast Editors' Association (BEA).

The office-bearers of the BEA are as follows:
Shazi Zaman (Star News) President
Arnab Goswami (Times Now) Vice-President
Pankaj Pachauri (NDTV) Vice-President
N K Singh (ETV) General Secretary
Sudhir Chaudhary (Live India) Treasurer
Members of Executive Committee:
Ashutosh (IBN-7), Vinay Tewari (CNN-IBN), Satish K Singh (ZEE TV), Ajit Anjum (News-24), Vinod Kapri (India TV), Sanjay Bragta (Sahara TV) and Pranjal Sharma (UTV).

The BEA will soon develop its own website so as to make direct media-public interaction possible. It will hold seminars and other modes of two-way interaction to receive feedback from civil society organizations and decision-makers in public domain.

Scriptwriter Hunt - P 7 News Channel

Mumbai : P 7 News is a Hindi news channel providing Mumbai : P 7 News is a Hindi news channel providing an excellent opportunity for the students who are passionate towards script writing and want to pursue their career in this discipline.
P 7 News Channel is inviting Mass Communication Colleges of Mumbai to participate and leverage their students to participate and count their strengths. The interested participants can send their entries to P 7 News at viewsp7@gmail.com This e-mail address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it . The Winner will be awarded with a certificate and 3 months of internship in the channel. We want your prestigious college to be a part of this event and make it memorable for the participants and channel too.
About P 7 News Channel
Pearl Broadcasting Corporation Pvt. Ltd. entered the world of entertainment and media in November 2008. The vision of the company is showcase itself has a credible and authentic News Channel. And with this visionary idea the company launched P7 Hindi News Channel to achieve and fulfill all the dreams which the company has set as a goal. The channel was launched by none other than the Bollywood Diva Sushmita Sen, with the Tag line Ek Umeed (The Ray of Hope).
Send entries at viewsp7@gmail.com This e-mail address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it

स‌ूचना मंत्रालय चैनल 'लॉक' के हक में

नईदिल्ली। सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय टीवी पर दिखाए जाने वाले एडल्ट कंटेंट वाले प्रोग्रामों के मद्देनजर पैरंटल लॉक जैसी व्यवस्था पर विचार कर रहा है। मुमकिन है कि ऐसे प्रोग्रामों के लिए अलग से वक्त भी तय कर दिया जाए। ऐसा टीवी पर प्रसारित होने वाली सामग्री के लिए अपनी आचार संहिता को मजबूत बनाने के लिहाज से किया जा रहा है।

बताया जा रहा है कि ये दोनों प्रस्ताव सूचना एवं प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी की इंडियन ब्रॉड कास्टिंग फाउंडेशन (आईबीएफ) और न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन (एनबीए) के प्रतिनिधियों के साथ ताजा मुलाकात के दौरान स‌ामने आए। अंबिका सोनी का मानना है कि ये मानदंड जब दुनिया भर में लागू हैं तो इन्हें भारत में भी लागू किया जाना चाहिए। इन प्रस्तावों को आखिरी रूप देने पर मंत्रालय और प्रसारकों के बीच अब भी विचार-विमर्श जारी है। विभिन्न पहलुओं पर दोनों पक्षों के बीच आम सहमति बनने में अभी कुछ वक्त लगेगा। मंत्रालय के एक सीनियर अफसर ने कहा कि ज्यादातर भारतीय परिवारों में अब भी एक ही टेलीविजन सेट है जहां बुजुर्ग सदस्य भी हैं। मंत्री का मानना है कि इस तरह का प्रावधान उनके लिए टेलीविजन देखने को सुखद अनुभव बनाने में मददगार होगा। मंत्रालय ने प्रसारकों को सुझाव दिया है कि इस तरह की व्यवस्था के तहत माता-पिता उन कुछ चैनलों को बंद करने में सक्षम हो सकेंगे जिसे वह किसी खास उम्र के अपने बच्चों के देखने के लायक नहीं मानते। मंत्री ने यह भी सुझाव दिया है कि एडल्ट टीवी प्रोग्रामों के लिए रात 11 बजे से सुबह 4 बजे तक का वक्त तय कर दिया जाए।

टीवी एंकरिंग के अगर मगर

पुण्यप्रसून वाजपेयी की किताब एंकर रिर्पोटर


जब कोई व्यक्ति टेलीविजन के परदे पर समाचार देख रहा होता है तो उसके जेहन में दो व्यक्ति अहम हो जाते हैं- एंकर और रिपोर्टर। एंकर टेलीविजन के परदे पर पहले-पहल किसी खबर की सूचना देता है। उसके बारे में बताता है। रिपोर्टर वह होता है जो घटनास्थल से यह बता रहा होता है कि घटनाक्रम किस प्रकार हुआ। वास्तव में किसी महत्वपूर्ण खबर के दौरान दर्शकों के लिए यह महत्वपूर्ण नहीं होता कि वे कौन-सा चैनल देख रहे हैं। वह महत्वपूर्ण खबर जिस भी चैनल पर आ रही होती है, दर्शकों का रिमोट उसी चैनल पर ठहर जाता है। ऐसे में किसी भी समाचार चैनल के लिए एंकर और रिपोर्टर बहुत महत्वपूर्ण होते हैं, क्योंकि दर्शकों को चैनल से जो़ड़ने का काम वही करते हैं।
वरिष्ठ पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी ने इन्हीं पहलुओं को विभिन्न कोणों से प्रस्तुत किया है अपनी पुस्तक 'एंकर-रिपोर्टर' में। यह पुस्तक टीवी पत्रकारिता सीखने वालों के लिए तो उपयोगी है ही, उनके लिए भी ब़ड़े काम की है, जो इन पेशों की चुनौतियों को जानना-समझना चाहते हैं। यह एक 'इनसाइडर' की 'इनसाइड स्टोरी' की तरह है। पुस्तक का राजकमल प्रकाशन, दिल्ली ने किया है। पेश हैं पुस्तक से कुछ अंश।
टेलीविजन पत्रकारिता में एंकरिंग की भूमिका को समझने की जरूरत है। सफल एंकर वही हो सकता है जो देश, समाज के सभी पहलुओं को न केवल जानता-समझता हो, बल्कि अवसरानुकूल उन पर टिप्पणी करने की क्षमता भी रखता हो।
आज के दौर में एंकरिंग पर तकनीक का प्रभाव बढ़ रहा है। इसका कारण है कि आज तकनीकी रूप से जानकार लोग तो खूब आ रहे हैं, लेकिन विषय को समझने, उसकी गहराई में जाने में उनकी दिलचस्पी नहीं है। आज काम के प्रति समर्पण तो बढ़ा है, लेकिन यह भी सचाई है कि एक प्रकार का पेशेवर भाव भी उनमें बढ़ा है। यानी जब तक काम करना है, तब तक चुस्त-चौकन्ने रहना है और उसके बाद तैयारी का काम डेस्क पर छो़ड़ दिया। याद रखिए एंकर में समाज अक्सर अपने प्रतिनिधि की तलाश करता रहता है। लेकिन इस तरह के पेशेवर एप्रोच से वह चैनल का प्रतिनिधि अधिक लगने लगता है। समाज की कोई छवि उसमें नहीं दिखाई देती।
तकनीकी जानकारी हर एंकर को जरूर होनी चाहिए। उसको ओबी वैन की संभावनाओं-सीमाओं की पूरी तौर पर जानकारी होनी चाहिए। उसको कैमरे से जु़ड़े़ पहलुओं की जानकारी होनी चाहिए। उसे साउंड की जानकारी होनी चाहिए। लाइट की जानकारी होनी चाहिए। लेकिन ये जानकारियां उसके लिए अतिरिक्त जानकारी भर ही हैं या हो सकती हैं। इसका कारण यह है कि इन सब पहलुओं के विशेषज्ञ आपके साथ होते हैं, जो आपसे बेहतर इन सब चीजों को जान-समझ रहे होते हैं।
जब दिल्ली के पहा़ड़गंज में विस्फोट हुए थे तो उसके तीन दिन बाद की बात है। दीपावली का दिन था। रात के 10 बजे से बुलेटिन पढ़ने के लिए मुझे बुलाया गया था। यों ही मेरे जेहन में खयाल आया कि आज पहा़ड़गंज से एंकरिंग करूंगा। कैमरामैन को बुलाया। उससे बात की। उसने कहा कि ओबी वैन तो ले चलते हैं, लेकिन वहां पतली-पतली गलियां हैं। प्रोड्यूसर ने कहा, मान लीजिए कुछ फेल हो गया तो। उस दिन संयोग से कोई वैकल्पिक एंकर नहीं था। इसलिए इस बात का भी डर था। लेकिन मैंने कहा कि ओबी वैन है तो सिस्टम फेल होने का सवाल नहीं उठता। अगर ऐसा हुआ तो 10 मिनट के लिए कुछ रिकार्डिंग चला दी जाएगी और इसी बीच मैं ऑफिस आ जाऊंगा। पहा़ड़गंज पास में ही है।
10 बजे जैसे ही मेरे कान में कैमरे के रोल-इन की आवाज आई, उसी के साथ पीछे से मेरे कान में फायर ब्रिगेड की आवाज आने लगी। अब कैमरे से उस माहौल की झूलती-भागती तस्वीरें स्क्रीन पर आ रही थीं और फायर ब्रिगेड की आवाज भी। शुरू के दो से तीन मिनट तक स्क्रीन पर कोई एंकर नहीं था। यही दृश्य चल रहा था और पीछे से मेरी कॉमेंट्री चल रही थी कि पहा़ड़गंज में आग लग गई है। इससे कुल मिलाकर एक ऐसा दृश्य बन रहा था कि जिसने भी 'आजतक' को ट्यून-इन किया, वह वहीं पर टिका रह गया। इस भौचक्केपन को समझने और उसे खबरों से जो़ड़ पाने का नतीजा यह रहा कि इससे खबरों में एक ऐसा पहलू जु़ड़ गया जिसने उस दिन के उस प्रोग्राम की टीआरपी बढ़ा दी।
इसलिए एंकर होने के लिए जो बात समझने की है, वह यही है कि खबरों और उसके पहलुओं को समझना और उसके अनुसार तत्काल कार्रवाई करना। अगर आप समाचार चैनल में एंकरिंग कर रहे हैं या करने की तैयारी कर रहे हैं तो मानकर चलिए कि आप इस तरह की स्थितियों से बच नहीं सकते। इसलिए आजकल के युवाओं को जिस तरह से तकनीकी पहलुओं की समझ होती है, उसी तरह से वे अगर समाचार और उसकी बारीकियों को भी समझ लें तो सचमुच समाचार प्रसारण में काफी बदलाव आ सकता है। उसमें काफी सुधार हो सकता है। इससे टीम वर्क को बढ़ावा मिलता है।
अब बात यह आती है कि हमारे नए लोग फील्ड में एंकरिंग करने, विपरीत परिस्थितियों को अनुकूल बना पाने में सक्षम हैं या नहीं। वैसे यहां सवाल सक्षम होने का नहीं है। यहां दबाव इस रूप में रहता है कि इस दिशा में जाना ही प़ड़ेगा, क्योंकि हमारे यहां का समाज बैलेंस नहीं है। हमारे राजनेता व्यवस्थित नहीं हैं।
योरोप की तरह ऐसा नहीं है कि वे एक खास जगह आकर अपना बयान देंगे। वे कहीं से कुछ भी बोल देंगे और वह देश की एक ब़ड़ी खबर बन जाएगी। हमारे नीति-निर्धारक भी जब इस रूप में आगे चलते हैं कि किसी को खबर दे देते हैं। कभी-कभी तो बोलते समय उनको भी इसका अंदाजा नहीं रहता कि खबर इतनी ब़ड़ी हो जाएगी या कि इस तरह से भी इस खबर को व्याख्यायित किया जा सकता है। ऐसे में एंकर-रिपोर्टर के रूप में आपको ही उस खबर का महत्व समझना होगा और उसके अनुरूप तत्काल निर्णय लेना होगा। अब अगर आप इस आकलन को नहीं कर पाते तो यह पत्रकारिता के लिहाज से कमी ही मानी जाएगी।
एंकर को इस बात को समझना होगा कि जिस समाज में, जिस देश में वह काम कर रहा है वह एक 'असंतुलित' समाज है। इसलिए उसमें हमेशा कुछ न कुछ अप्रत्याशित-असंभावित की संभावना मौजूद होती है। इसलिए एक एंकर के रूप में उन संभावनाओं पर नजर रखने, उनको तलाशने, उनकी खोज में जाने की बात न भी हो तो जब ऐसा मौका उपस्थित हो जाए तो तत्काल उसे समझ लेने की क्षमता का विकास करना ब़ड़ा जरूरी होता है।
समझने की बात है कि एंकर भी उसी समाज का हिस्सा होता है। वह भी उसी द्वंद्व, उसी असंतुलन को देख-समझ रहा होता है। इसलिए यह पहलू अगर उसके काम में भी दिखाई देने लगता है तो वह कुछ अधिक सहज दिखाई देने लगता है। बने-बनाए तरीके से, पूर्व तैयारी के आधार पर जो एंकरिंग की जाती है वह रोबोटिक लगती है। उसमें न तो प्रयोग की कोई संभावना होती है, न ही उसकी कोई खास गुंजाइश होती है। सब कुछ ढर्रे के मुताबिक लगने लगता है। इस तरह की एकरसता से निकलने की राह भी एंकर को ही तलाश करनी प़ड़ती है। प्रयोग करने ही प़ड़ेंगे। यह माध्यम संभावनाओं से आगे जाने का माध्यम है। इसलिए इसकी सीमाओं से भी आगे जाने की कोशिश की जानी चाहिए।
हमारे यहां टीवी अभी पूरी तौर पर प्रोफेशनल नहीं हुआ है। वह सीख रहा है। कहना चाहिए कि वह प्रोफेशनल होने की प्रक्रिया में है। अगर हम यह मान लें कि टेलीविजन वही होता है, जो दिखाई दे रहा होता है तो इसमें यह देखने की आवश्यकता है कि इससे सीधे तौर पर जु़ड़े हुए जो लोग हैं वे मैच्योर हैं कि नहीं।
सीधे तौर पर दिखाई देने वाली चीजें क्या होती हैं। सबसे पहले तो एंकर होता है। वह हमेशा दिखाई देता है। उसके बाद रिपोर्टर दिखाई देता है। इन दो से आप जैसी ही हटिएगा, आपको ग्राफिक्स दिखाई देने लगते हैं। इसके अलावा, 'सुपर्स' दिखाई देते हैं- सुपर्स यानी टीवी स्क्रीन पर नीचे पंक्ति के रूप में चलने वाली खबरें। हमारे टीवी में जो लोग सुपर लिखते हैं, वे सीनियर पत्रकार नहीं होते हैं। वहां गलतियां दिखाई देने लगती हैं। इनको प्रशिक्षण देने की दिशा में कुछ नहीं होता। एंकर्स, रिपोर्टर्स के स्तर पर इनमें किसी का भी प्रशिक्षण नहीं होता।
ऐसे में होता यह है कि इन चारों ऊपर से बताए गए हिस्सों में वह हिस्सा हमेशा भारी हो जाएगा जिस हिस्से के लोग चैनल में सीनियर स्तर पर अधिक होंगे। ऐसे वरिष्ठ लोग हमारे यहां बहुत कम हैं, जो स्क्रीन पर भी आते हों, कामकाज भी संभालते हों और जो सीनियर भी हों। जो ऐसे हैं, उनको आप देखिएगा कि वे ही थो़ड़े-बहुत प्रयोग कर भी रहे हैं। अन्यथा प्रयोग न के बराबर हो रहे हैं।
रिपोर्टिंग में भी यही है। मान लीजिए कि एक तबका ऐसा है, जो सीनियर भी है तो क्या वह टेलीविजन पत्रकारिता सीख रहा है या उसके मन में अभी भी प्रिंट बसा हुआ है। इसका कारण यह है कि समझने की जरूरत है, यह फर्क बहुत ज्यादा है। प्रिंट में जो बात आपकी खबर के आखिरी पैरे में आ रही होगी, वह यहां पहले पैरे में लानी होगी, पहले पैरे क्या, हो सकता है पहली पंक्ति में।
अब मान लीजिए कि अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश के भारतीय दौरे को लेकर किसी अखबार में आप खबर लिखते हैं और उसके विरोध के बारे में लिखते हुए आखिर में आप यह कहते हैं कि अलग-अलग प्रांतों से आए हुए लोग लाल किले में भरे हुए थे और उसमें पहली बार यह नजर आया कि वामपंथी काडर समूचे देश में अब भी मौजूद है, क्योंकि समूचे देश से लोग विरोध करने पहुंचे थे।
हाथों में लाल झंडा लिए हुए थे। हाथों में तख्तियां थीं। नारे लगा रहे थे और इनके जेहन में हो सकता है कि पश्चिम बंगाल का चुनाव हो। आप चाहकर भी इस मोटी बात को टीवी में छो़ड़ नहीं सकते हैं, क्योंकि उसमें आपका कैमरा शुरू यहीं से होता है, जब आपका कैमरा शुरू होगा तो आप कौन-सा शॉट पहला लेंगे।
आप शुरू ही इससे करेंगे कि देशभर का वामपंथी काडर आज बुश का विरोध करने लाल झंडे लिए लाल किले के मैदान में इकट्ठा हुआ। उसे इस बात का आक्रोश था कि सरकार ने अमेरिकी राष्ट्रपति के लिए रेड कार्पेट क्यों बिछा दिया है। लेकिन ऐसी खबरों को लेकर एंकर की भूमिका काफी ब़ड़ी हो जाती है। उसे पता होना चाहिए कि जब खबर का पैकेज पूरा होगा तो क्या-क्या विजुअल होंगे?
अगर ऐसा नहीं है तो एंकर महज सपाटबयानी कर देगा या विवेक-प्रदर्शन को लेकर समूची जानकारी अपने 'वक्तव्य' में दे देगा। जबकि एंकर की भूमिका को लेकर उसकी टिप्पणी करते हुए आगे की खबर को लेकर रोचकता जगाती है। साथ ही समूची जानकारी भी नहीं देनी है। तो वह कह सकता है कि 'मनमोहन सरकार गठबंधन की सरकार है। ऐसे में रेड कार्पेट और लाल झंडे का फर्क मिटता रहा है। लेकिन लाल झंडा कहीं रेड कार्पेट के नीचे खो ना जाए, इसलिए दिल्ली में ही रेड कार्पेट कहीं और बिछी और लाल झंडा कहीं और नजर आया।'

अमेरिकी पत्रकार पाक में ब्लैक लिस्टेड

इस्लामाबाद। पाकिस्तान ने कई अमेरिकी पत्रकारों और स्वयंसेवी संस्थाओं (एनजीओ) को काली सूची में डालकर उन्हें देश में प्रवेश से प्रतिबंधित कर दिया है। पाक का आरोप है कि ये राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में शामिल हैं।यह खुलासा अमेरिका में पाकिस्तान के राजदूत हुसैन हक्कानी की एक चिट्ठी स‌ेहुआ है। हक्कानी ने यह चिट्ठी पाक खुफिया एजेंसी आईएसआई के प्रमुख अहमद शुजा पाशा को भेजी है। 28 जुलाई, 2009 को लिखी गई इस चिट्ठी मेंकहा गया है कि सरकार के इस कदम से पाकिस्तान की छवि खराब हो रही है।
हक्कानी ने यह भी कहा है कि अमेरिकी पत्रकारों व एनजीओ को वीजा न देने, उन्हें परेशान करने या धमकाने पर अमेरिका की संसद पाकिस्तान से जवाब-तलब कर सकती है। उस पर आर्थिक और सैन्य पाबंदियां भी लगाई जा सकती हैं। हक्कानी ने इस मामले में आईएसआई प्रमुख से सफाई मांगी है।सार्वजनिक हो चुकी इस चिट्ठीमें अमेरिकी संस्थाओं या पत्रकारों को वीजा न देने, उन्हें परेशान करने या उन पर नजर रखने के कुछ मामलों का भी उल्लेख किया गया है। हक्कानी ने शुजा पाशा से प्रतिबंधित संस्थाओं और पत्रकारों की सूची पेश करने को भी कहा है।

इलेक्ट्रानिक मीडिया को धंधेबाजों से बचाइए



संजय द्विवेदी


मीडिया में आकर, कुछ पैसे लगाकर अपना रूतबा जमाने का शौक काफी पुराना है किंतु पिछले कुछ समय से टीवी चैनल खोलने का चलन जिस तरह चला है उसने एक अराजकता की स्थिति पैदा कर दी है। हर वह आदमी जिसके पास नाजायज तरीके से कुछ पैसे आ गए हैं वह टीवी चैनल खोलने या किसी बड़े टीवी चैनल की फ्रेंचाइजी लेने को आतुर है। पिछले कुछ महीनों में इन शौकीनों के चैनलों की जैसी गति हुयी है और उसके कर्मचारी- पत्रकार जैसी यातना भोगने को विवश हुए हैं, उससे सरकार ही नहीं सारा मीडिया जगत हैरत में है। एक टीवी चैनल में लगने वाली पूंजी और ताकत साधारण नहीं होती किंतु मीडिया में घुसने के आतुर नए सेठ कुछ भी करने को आमादा दिखते हैं।

अब इनकी हरकतों की पोल एक-एक कर खुल रही है। रंगीन चैनलों की काली कथाएं और करतूतें लोगों के सामने हैं, उनके कर्मचारी सड़क पर हैं। भारतीय टेलीविजन बाजार का यह अचानक उठाव कई तरह की चिंताएं साथ लिए आया है। जिसमें मीडिया की प्रामणिकता, विश्वसनीयता की चिंताएं तो हैं ही साथ ही उन पत्रकारों का जीवन भी एक अहम मुद्दा है जो अपना कैरियर इन नए-नवेले चैनलों के लिए दांव पर लगा देते हैं। चैनलों की बाढ़ ने न सिर्फ उनकी साख गिरायी है वरन मीडिया के क्षेत्र को एक अराजक कुरूक्षेत्र में बदल दिया है। ऐसे समय में केंद्र सरकार की यह चिंता बहुत स्वाभाविक है कि कैसे इस क्षेत्र में मचे धमाल को रोका जाए। दिसंबर,2008 तक देश में कुल 417 चैनल थे जिसमें 197 न्यूज चैनल काम कर रहे थे। सितंबर,2009 तक सरकार 498 चैनलों के लिए अनुमति दे चुकी है और 150 चैनलों के नए आवेदन विचाराधीन हैं। टीवी मीडिया के क्षेत्र में जाहिर तौर पर यह एक बड़ी छलांग है। कितु क्या इस देश को इतने सेटलाइट चैनलों की जरूरत है। क्या ये सिर्फ धाक बनाने और निहित स्वार्थों के चलते खड़ी हो रही भीड़ नहीं है। जिसका पत्रकार नाम के प्राणी के जीवन और पत्रकारिता के मूल्यों से कोई लेना-देना नहीं है। जिस दौर में दिल्ली जैसी जगह में हजारों पत्रकार अकारण बेरोजगार बना दिए गए हों और तमाम चैनलों में लोग अपनी तनख्वाह का इंतजार कर रहे हों इस अराजकता पर रोक लगनी ही चाहिए।

यह बहुत बेहतर है कि सरकार इस दिशा में कुछ नियमन करने के लिए सोच रही है। चैनल अनुमति नीति में बदलाव बहुत जरूरी हैं। यह सामयिक है कि सरकार अपने अनुमति देने के नियमों की समीक्षा करे और कड़े नियम बनाए जिसमें कर्मचारी का हित प्रधान हो। ताकि लूट-खसोट के इरादे से आ रहे चैनलों को हतोत्साहित किया जा सके। सरकार ने ट्राइ को लिखा है कि वह उसे इसके लिए सुझाव दे कि और कितने चैनलों की गुंजाइश इस देश में है और चैनलों की बढ़ती संख्या पर अंकुश कैसे लगाया जा सकता है। अपने पत्र में मंत्रालय की चिंता वास्तव में देश की भी चिंता है। पत्र में इस बात पर भी चिंता जताई गई है कि नए चैनल शुरू करने वालों में बिल्डर,ठेकेदार, शिक्षा क्षेत्र में व्यापार करने वाले, स्टील व्यापारी समेत तमाम ऐसे लोग हैं जिनका मीडिया उद्योग से कोई लेना देना या पूर्व अनुभव नहीं है। सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को यह भी शिकायत मिली है चैनल शुरू करवाने को लेकर दलाली का एक पूरा कारोबार जोर पकड़ चुका है। उल्लेखनीय है कि चैनल शुरू करने के लिए सूचना प्रसारण मंत्रालय के अलावा गृह मंत्रालय, विदेश मंत्रालय, वित्त मंत्रालय की अनुमति भी लेनी होती है।

हालांकि कुछ आलोचक यह कह कर इन कदमों की आलोचना कर सकते हैं कि यह कदम लोकतंत्र विरोधी होगा कि नए चैनल आने में अड़चनें लगाई जाएं। किंतु जिस तरह के हालात हैं और पत्रकारों व कर्मियों को मुसीबतों का सामना करना पड़ा रहा है उसमें नियमन जरूरी है। चैनल का लाइसेंस पाकर कभी भी चैनल पर ताला डालने का प्रवृत्ति से आम पत्रकारों को गहरा झटका लगता है। उनके परिवार सड़क पर आ जाते हैं। नौकरियों को लेकर कोई सुरक्षा न होना और पत्रकारों से अपने संपर्कों के आधार पर पैसै या व्यावसायिक मदद लेने की प्रवृत्ति भी उफान पर है। चैनल खोलने के शौकीनों से सरकार को यह जानने का हक है कि आखिर वे ऐसा क्या प्रमाण दे रहे हैं कि जिसके आधार पर यह माना जा सके कि आपके पास तीन या पांच साल तक चैनल चलाने की पूंजी मौजूद है। वित्तीय क्षमता के अभाव या मीडिया के दुरूपयोग से पैसे कमाने की रूचि से आने वालों को निश्चित ही रोका जाना चाहिए। चैनल में नियुक्त कर्मियों के रोजगार गारंटी के लिए कड़े नियमों के आघार पर ही नए नियोक्ताओं को इस क्षेत्र में आने की अनुमति मिलनी चाहिए। मीडिया जिस तरह के उद्योग में बदल रहा है उसे नियमों से बांधे बिना कर्मियों के हितों की रक्षा असंभव है। पैसे लेकर खबरें छापने या दिखाने के कलंकों के बाद अब मीडिया को और छूट नहीं मिलनी चाहिए। क्योंकि हर तरह की छूट दरअसल पत्रकारिता या मीडिया के लिए नहीं होती, ना ही वह उसके कर्मचारियों के लिए होती है, यह सारी छूट होती है मालिकों के लिए। सो नियम ऐसे हों जिससे मीडिया कर्मी निर्भय होकर, प्रतिबद्धता के साथ अपना काम कर सकें। केंद्र सरकार अगर चैनलों की भीड़ रोकने और उन्हें नियमों में बांधने के लिए आगे आ रही है तो उसका स्वागत होना चाहिए। ध्यान रहे यह मामला सेंसरशिप का नहीं हैं। पत्रकारों के कल्याण, उनके जीवन से भी जुड़ा है, सो इस मुद्दे पर एलर्जिक होना ठीक नहीं है।

( लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग

Wednesday, September 9, 2009

आनेवाला समय एनीमेशन काः ईशान




जनसंचार विभाग में आयोजित एड-फिल्म मेकिंग, एनीमेशन पर केंद्रित कार्यशाला का समापन
युवा एड फिल्म निर्माता एवं मीडियाफ्रीक्स कंपनी के कम्प्यूटर ग्राफिक्स जर्नलिस्ट ईशान शुक्ला (सिंगापुर) का कहना है कि फिल्मों और विज्ञापनों में लगातार एनीमेशन का प्रयोग बढ़ रहा है। एनीमेशन आज ज्यादा प्रभावी हो रहे हैं और वे किसी भी संदेश को व्यक्त करने में समर्थ हैं। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग द्वारा आयोजित विज्ञापन फिल्मों और उसमें एनीमेशन के प्रयोगों पर केंद्रित तीन दिवसीय कार्यशाला के समापन समारोह में उन्होंने ये बातें कहीं।
उन्होंने कहा कि आनेवाला समय एनीमेशन फिल्मों का ही है। एनीमेशन प्रस्तुति को थ्री डी (3 D) के माध्यम से ज्यादा प्रभावी और वास्तविक बनाया जा सकता है। स्पेशल इफेक्ट्स भी एनीमेशन के द्वारा सरलतापूर्वक दिखाए जा सकते हैं। ईशान का कहना था कि आनेवाला समय एनीमेशन फिल्मों का ही है जिसमें युवा बड़ी संख्या में रोजगार पा सकते हैं। उन्होंने कहा कि तकनीक की लाख प्रगति के बावजूद क्रिएटिविटी और आइडियाज की अपनी जगह बनी ही रहेगी। तीन दिन चली कार्यशाला में दुनिया की तमाम पुरस्कृत एड फिल्मों के प्रदर्शन के माध्यम से विद्यार्थियों को इसकी तकनीक, प्रयोगों और लाभ से परिचित कराया गया।
कार्यक्रम की अध्यक्षता कम्प्युटर विभाग के अध्यक्ष प्रो. चैतन्य पुरूषोत्तम अग्रवाल ने की। कार्यक्रम के प्रारंभ में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने अतिथियों का स्वागत किया। इस मौके पर छात्रों की ओर से मृणाल झा, एनी अंकिता, नितिशा कश्यप और साकेत नारायण ने कार्यशाला को लेकर अपने अनुभव बताए। आभार प्रदर्शन विश्वविद्यालय के प्लेसमेंट आफीसर डा. अविनाश वाजपेयी ने किया।

Friday, September 4, 2009

“हिंदी वाला” फेमि‍नि‍ज्‍म से डरता क्‍यों है?


-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी
हिंदी साहि‍त्‍य में औरत है किंतु उसका शास्‍त्र नहीं है। स्‍त्री शास्‍त्र के बि‍ना औरत नि‍रस्‍त्र है। अनाथ है, पराश्रि‍त है। साहि‍त्‍य की प्रत्‍येक वि‍धा में लि‍खने वाली औरतें हैं, साहि‍त्‍यि‍क पत्रि‍काओं में ‘हंस’ जैसी शानदार पत्रि‍का है, जि‍सके संपादक आये दि‍न स्‍त्री का महि‍मामंडन करते रहते हैं, छायावाद में स्‍त्री की महत्ता का उदघाटन करने वाले नामवर सिंह की इसी नाम से शानदार कि‍ताब है। इसके बावजूद ‘हिंदीवाला’ (यहां लेखकों, बुद्धि‍जीवि‍यों, शि‍क्षकों से तात्‍पर्य है) स्‍त्रीवाद को लेकर भड़कता क्‍यों है?
हिंदी में स्‍त्री शास्‍त्र नि‍र्मित क्‍यों नहीं हो पाया? हिंदी वाला ‘फेमि‍नि‍ज्‍म’ अथवा ‘स्‍त्रीवाद’ पदबंध के प्रयोग से इतना भागता क्‍यों है? हिंदी में कोई फेमि‍नि‍स्‍ट पैदा क्‍यों नहीं हुआ? हिंदी वि‍भागों में अरस्‍तू से लेकर मार्क्‍सवाद तक सभी सि‍द्धांत पढ़ाये जाएंगे लेकि‍न स्‍त्रीवाद नहीं पढ़ाया जाता। ऐसा क्‍या है जो स्‍त्रीवाद का नाम सुनते ही हिंदी वाले की हवा नि‍कल जाती है। स्‍त्री के सवाल तब ही क्‍यों उठते हैं जब उस पर जुल्‍म होता है? हिंदी में स्‍त्री लेखि‍काओं की लंबी परंपरा के बावजूद स्‍वतंत्र रूप से ‘स्‍त्री साहि‍त्‍य’ पदबंध अभी भी लोकप्रि‍य नहीं है। आलोचना और इति‍हास की कि‍ताबों से लेकर दैनंदि‍न साहि‍त्‍य वि‍मर्श में स्‍वतंत्र रूप से ‘स्‍त्री साहि‍त्‍य’ की केटेगरी को अभी तक स्‍वीकृति‍ नहीं मि‍ली है। हमारी ज्‍यादातर साहि‍त्‍यि‍क पत्रि‍काएं ‘स्‍त्री साहि‍त्‍य’ केटेगरी को स्‍वतंत्र रूप में महत्‍व नहीं देतीं बल्‍कि‍ साहि‍त्‍य की केटेगरी के तहत ‘स्‍त्री साहि‍त्‍य’ को समाहि‍त करके चर्चा करते हैं। और वे जब ऐसा करते हैं, तो सीधे स्‍त्री की स्‍वतंत्र पहचान का अपहरण करते हैं। जाने-अनजाने स्‍त्री साहि‍त्‍य की प्रति‍ष्‍ठा की बजाय उसकी पहचान को लेकर वि‍भ्रम पैदा करते हैं।
हिंदी की अधि‍कांश स्‍त्री लेखि‍काएं महि‍ला अंदोलन से दूर हैं और फेमि‍नि‍ज्‍म को एक सि‍रे से अपने नजरि‍ए का हि‍स्‍सा नहीं मानतीं। हिंदी के कि‍सी भी प्रति‍ष्‍ठि‍त आलोचक ने स्‍त्रीवादी साहि‍त्‍यालोचना पर एक भी शब्‍द क्‍यों नहीं लि‍खा?
स्त्री साहित्य के सवाल हाशिये के सवाल नहीं हैं। स्‍त्री जीवन के केंद्रीय सवाल हैं। स्त्री-विमर्श खाली समय या आनंद के समय का विमर्श नहीं है। हिंदी में स्त्री साहित्य और उसकी सैद्धांतिकी अभी भी अकादमिक जगत में प्रवेश नहीं कर पायी है। साहित्यिक पत्रिकाओं के स्त्री विमर्श लेखक जाने-अनजाने मांग और पूर्ति के मायावी तर्कजाल में कैद हैं। स्त्री साहित्य या स्त्री विमर्श में प्रयुक्त धारणाओं का सही नाम और सही संदर्भ में इस्तेमाल नहीं हो रहा। स्त्री से जुड़ी धारणाओं की मनमानी व्‍याख्‍याएं पेश की जा रही हैं। स्त्री साहित्य के मूल्यांकन के संदर्भ में सबसे बड़ी चुनौती है अवधारणाओं की सही समझ की। हिंदी साहित्य विमर्श में अवधारणाओं में सोचने की परंपरा का निरंतर ह्रास हो रहा है।
अंग्रेजी साहित्य में स्त्रीवादी साहित्यालोचना बेहद जनप्रिय पदबंध है। किंतु हिंदी में यह उतना जनप्रिय नहीं है। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि हिंदी के समीक्षकों को इस पदबंध में कोई आकर्षण नज़र नहीं आता। इसके अलावा हिंदी में साहित्यिक पत्रिकाओं में जो संपादक स्त्री साहित्य के पक्षधर के रूप में नजर आते हैं, वे भी इस पदबंध का प्रयोग नहीं करते।
साहित्यालोचना की परंपरा प्रत्येक समाज में बड़ी पुरानी है अत: स्त्रीवादी साहित्यालोचना हमेशा अन्य से ग्रहण करके ही अपना विकास करती है। इसमें अन्य के विचारों के प्रति तिरस्कार का भाव नहीं है। यह अन्य के विचारों को वहां तक आत्मसात करने के लिए तैयार है, जहां तक वे स्त्री के हितों, भावों, जीवन मूल्यों और यथार्थ को विकसित करने में सहायता करते हैं। स्त्रीवादी साहित्यालोचना की पूर्ववर्ती साहित्यालोचना के स्कूलों से इस अर्थ में भिन्नता है कि वे एकायामी थे। जबकि स्त्रीवादी साहित्यालोचना बहुआयामी है। वैविध्यपूर्ण है। यह समाज के किसी एक संस्थान को संबोधित करने के बजाय समाज के विभिन्न संस्थानों को संबोधित करती है। स्त्रीवादी साहित्यालोचना ने आलोचना के स्कूलों की गंभीर आलोचना के साथ साथ समाज और साहित्य के प्रति आलोचना में नये तत्वों, अवधारणाओं और समझ का भी विकास किया है।
स्त्रीवादी साहित्यालोचना का लक्ष्य है समाज में पुंसवादी प्रभुत्व की समाप्ति करना। पुंसवादी संस्कृति की संरचना को ध्वस्त करना। संस्‍कृति‍ की संरचनाओं कलाएं, धर्म, कानून, एकल परिवार, पिता और राष्ट्र-राज्य के असीमित अधिकार आते हैं, वे सभी इमेज, संस्थाएं, संस्कार और आदतें आती हैं, जो यह बताती हैं कि औरत किसी काम की नहीं होती, अर्थहीन है, अदृश्य है। माया है।
स्त्रीवादी साहित्यालोचना के इस लक्ष्य को हासिल करने का हिंदुस्तान में क्या तरीका हो सकता है? इसके बारे में एक जैसी रणनीति अपनाना संभव नहीं है। हिंदुस्तान में सामाजिक वैविध्य और स्त्रीचेतना के अनेक स्तरों को मद्देनजर रखते हुए संवाद और संघर्ष के रास्ते पर साथ-साथ चलना होगा। इस क्रम में त्याग और ग्रहण की पद्धति अपनानी होगी।
स्त्रीवादी साहित्यालोचना को प्रचलित साहित्यालोचना में कुछ हेरफेर करने बाद निर्मित नहीं किया जा सकता। इसके लिए समाज के प्रति बुनियादी रवैयया बदलना होगा। परंपरागत दृष्टियों को ऊपरी फेरबदल के साथ स्त्रीवादी हितों के पक्ष में रूपांतरित नहीं किया जा सकता। स्त्रीवादी साहित्यालोचना क्रांतिकारी साहित्यालोचना है। उसका लक्ष्य है प्रचलित और प्रभुत्व बनाकर बैठे आलोचना स्कूलों को चुनौती देना, उन्हें अपदस्थ करना। प्रभुत्ववादी विमर्शों को चुनौती देना, उन्हें अपदस्थ करना। सभी किस्म के विमर्शों में स्त्रीवादी नजरिये से हस्तक्षेप करना। स्त्रीवादी साहित्यालोचना की हिमायत करना, उसे विस्तार देने का काम सिर्फ औरतों का ही नहीं है बल्कि इसमें पुरुषों को भी शामिल किया जाना चाहिए। स्त्री का संघर्ष सिर्फ स्त्री का नहीं उसमें पुरुषों की भी समान हिस्सेदारी होनी चाहिए।
स्त्रीवादी साहित्यालोचना में मर्दवादी नजरिये से यदि पुरुष समीक्षक दाखिल होते हैं तो वे स्त्रीवादी साहित्यालोचना का विकास नहीं कर सकते, ऐसे समीक्षकों को स्त्रीवादी समीक्षक कहना मुश्किल है। हिंदी में यह फैशन चल निकला है कि अब हरेक मर्दवादी समीक्षक स्त्री विषय पर हाथ भांज रहा है। हिंदी की साहित्यिक पत्रिकाओं में इस तरह के फैशनपरस्त या जिज्ञासु आलोचकों में अनेक मर्द संपादक और आलोचक हैं। स्त्रीवादी साहित्यालोचना का विकास मर्द समीक्षकों द्वारा फैशन, सहानुभूति या जिज्ञासा के आधार पर नहीं किया जा सकता। बल्कि इसके लिए क्रांतिकारी रवैये की ज़रूरत है। अभी तक जिन मर्दों ने स्त्रीवादी साहित्यालोचना में योगदान किया है, उनका किसी न किसी रूप में क्रांतिकारी संघर्षों, क्रांतिकारी विमर्श, आमूल परिवर्तनकामी आलोचना परंपरा से संबंध रहा है। ये लोग स्त्रीवादी नजरिये के परिवर्तनकामी रूझानों के पक्षधर रहे हैं। वे मानते हैं कि स्त्रीवादी नजरिया प्रत्येक किस्म के उत्पीड़न, शोषण, अन्याय आदि का सख्त विरोधी है। जिन पुरुषों ने स्त्रीवादी साहित्यालोचना के पक्ष में लिखा है, उनमें प्रतिबद्धता का गहरा भाव रहा है। उन्होंने जिज्ञासावश नहीं लिखा।
हिंदी में स्त्री आलोचना में जो मर्द दाखिल हो रहे हैं वे फैशन के नाम पर आ रहे हैं। उनका साहित्य के क्रांतिकारी विमर्श, समाज के क्रांतिकारी संघर्षों और विचारधाराओं से कोई संबंध नहीं है। ऐसे मर्द समीक्षकों को स्त्रीवादी विमर्श अपना अंग नहीं मानता। स्त्रीवादी साहित्यालोचना के अंदर स्त्रियां उन्हीं पुरुषों को स्वीकार करने को तैयार हैं, जो स्त्री के अधिकारों और स्त्रीवादी नजरिये के प्रति पूरी तरह प्रतिबद्ध हैं, आमूल सामाजिक परिवर्तन के पक्षधर हैं। स्त्रीवादी साहित्यालोचना को सैद्धांतिक तौर पर वे मर्द स्वीकार्य हैं, जो सिद्धांतत: लिंग को आधार बनाकर समीक्षा का विकास कर रहे हों। स्त्री के अनुभवों को स्त्री के नजरिये से देखते हैं।
हिंदी में स्त्री के सवालों, समस्याओं, अनुभूति आदि को आलोचक मर्दवादी नजरिये से देखते हैं, इस तरह के लेखन की इन दिनों हिंदी में बाढ़ आयी हुई है। आज सारी दुनिया में स्त्रीवादी साहित्यालोचना के योगदान की कोई अनदेखी नहीं कर सकता। किंतु हिंदी में साहित्य सैद्धांतिकी में स्त्रीवादी सैद्धांतिकी का अध्ययन नहीं कराया जाता। स्त्रीवादी साहित्यालोचना पर विचार करते समय बुनियादी तौर पर यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि लिंग के रूप में पुंसवादी नजरिये की आलोचना का यह अर्थ नहीं निकालना चाहिए कि मर्द को स्त्री का शत्रु घोषित कर दिया जाए। पुरुष को शत्रु घोषित करने वाली मानसिकता मूलत: मर्दवाद के प्रत्युत्तर में पैदा हुआ ‘स्त्रीवादी आतंकवाद’ है। इसके दृष्टिकोण से मर्द केंद्रीय समस्या है। अत: उसे बिना शर्त्त स्त्री के आगे आत्मसमर्पण कर देना चाहिए। आतंकवादी नजरिया लिंगाधारित ध्रुवीकरण करता है, यह दृष्टिकोण अंतत: ऐसी स्थिति पैदा करता है कि मर्द या तो स्त्रीवाद की उपेक्षा करे या स्त्रीवाद पर हमला करे। इस दृष्टिकोण के शिकार लोग एक-दूसरे पर हमला बोलते रहते हैं। इससे स्त्री को कोई लाभ नहीं मिलता। ‘हंस’ के संपादकीय इस तरह के नजरिये से भरे पड़े हैं।
असल में ‘स्त्रीवाद आतंकवाद’ मर्दवाद का विलोम है। यह विभाजनकारी नजरिया है। समग्रता में स्त्रीवादी आतंकवादी नजरिये से स्त्री को कोई लाभ नहीं मिलता, समाज में मर्द के प्रभुत्व में कोई कमी नहीं आती। उलटे स्त्रीवाद के प्रति संशय पैदा करता है, स्त्री के सामाजिक और बौद्ध‍िक स्पेस को संकुचित करता है।
स्त्रीवाद आस्था नही है, बल्कि स्त्री-सत्य की खोज का मार्ग है। अकादमिक जगत में स्त्रीवाद को जब तक पढ़ाया नहीं जाएगा, उसका ज्ञानात्मक प्रसार नहीं होगा। शिक्षकों का काम है स्त्रीवाद की शिक्षा देना, न कि स्त्रीवाद पैदा करना। स्त्रीवाद के पक्ष में जो लोग लिखते हैं, उन्हें अपने लिखे की आलोचना को विनम्रतापूर्वक ग्रहण करना चाहिए और उसकी रोशनी में अपने विचारों को और भी ज्यादा सुसंगत बनाने की कोशिश करनी चाहिए। यह देखा गया है कि जब भी किसी स्त्रीवादी विचारक की आलोचना हुई है, उसने इसे स्त्रीवाद पर हमला घोषित किया है। यह रवैया सही नहीं है। स्त्रीवाद के बारे में की गयी आलोचना वैचारिक विकास की प्रक्रिया का अंग है। उसे विनम्रतापूर्वक स्वीकार किया जाना चाहिए। स्त्रीवादी साहित्यालोचना का अकादमिक जगत में प्रवेश तब ही संभव है, जब उसे आस्था के रूप में पेश करने की बजाय नए परि‍वर्तनकामी विचार के रूप में पेश किया जाए। ( मोहल्ला लाइव से साभार)

Wednesday, September 2, 2009

इस बदलाव से क्या हासिल


-संजय द्विवेदी

केंद्रीय मानवसंसाधन मंत्री कपिल सिब्बल केंद्र के उन भाग्यशाली मंत्रियों में हैं जिनके पास कहने के लिए कुछ है। वे शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाने का बिल पास करवाकर 100 दिन के सरकार के एजेंडें में एक बड़ी जगह तो ले ही चुके हैं और अब दसवीं बोर्ड को वैकल्पिक बनवाकर वे एक और कदम आगे बढ़े हैं। शिक्षा के क्षेत्र में इसे एक बड़ा सुधार माना जा रहा है और छात्रों पर एक और बोर्ड का दबाव कम होने की संभावना भी इस फैसले से नजर आ रही है। सीबीएसई में जहां इस साल से ही ग्रेडिंग प्रणाली लागू हो जाएगी वहीं अगले साल दसवीं बोर्ड का वैकल्पिक हो जाना नई राहें खोलेगा।

हालांकि इन फैसलों से शिक्षा के क्षेत्र में कोई बहुत क्रांतिकारी परिवर्तन आ जाएंगें ऐसा मानना तो जल्दबाजी होगी किंतु इससे सोच और बदलाव के नए संकेत तो नजर आ ही रहे हैं। सिब्बल अंततः तो यह मान गए हैं कि उनका इरादा अभी देश के लिए एक बोर्ड बनाने का नहीं है। शायद यही एक बात थी जिसपर प्रायः कई राज्यों ने अपनी तीखी प्रतिक्रिया जताई थी। बावजूद इसके मानवसंसाधन मंत्री यह मानते हैं कि छात्रों में प्रतिस्पर्धा की भावना को विकसित किया जाना जरूरी है। जाहिर तौर शिक्षा और प्राथमिक शिक्षा का क्षेत्र हमारे देश में एक ऐसी प्रयोगशाला बनकर रह गया है जिसपर लगातार प्रयोग होते रहे हैं। इन प्रयोगों ने शिक्षा के क्षेत्र को एक ऐसे अराजक कुरूक्षेत्र में बदल दिया है जहां सिर्फ प्रयोग हो रहे हैं और नयी पीढी उसका खामियाजा भुगत रही है।

प्राथमिक शिक्षा में अलग-अलग बोर्ड और पाठ्यक्रमों का संकट अलग है। इनमें एकरूपता लाने के प्रयासों में राज्यों और केंद्र के अपने तर्क हैं। किंतु 10वीं बोर्ड को वैकल्पिक बनाने से एक सुधारवादी रास्ता तो खुला ही है जिसके चलते छात्र नाहक तनाव से बच सकेंगें और परीक्षा के तनाव, उसमें मिली विफलता के चलते होने वाली दुर्घटनाओं को भी रोका जा सकेगा। शायद परीक्षा के परिणामों के बाद जैसी बुरी खबरें मिलती थीं जिसमें आत्महत्या के तमाम किस्से होते थे उनमें कमी आएगी। बोर्ड परीक्षा के नाम होने वाले तनाव से मुक्ति भी इसका एक सुखद पक्ष है। देखना है कि इस फैसले को शिक्षा क्षेत्र में किस तरह से लिया जाता है। यह भी देखना रोचक होगा कि ग्रेडिंग सिस्टम और वैकल्पिक बोर्ड की व्यवस्थाओं को राज्य के शिक्षा मंत्रालय किस नजर से देखते हैं। इस व्यवस्था के तहत अब जिन स्कूलों में बारहवीं तक की पढ़ाई होती है वहां 10वीं बोर्ड खत्म हो जाएगा। सरकार मानती है जब सारे स्कूल बारहवीं तक हो जाएंगें तो दसवीं बोर्ड की व्यवस्था अपने आप खत्म हो जाएगी। माना जा रहा है धीरे-धीरे राज्य भी इस व्यवस्था को स्वीकार कर लेंगें और छात्रों पर सिर्फ बारहवीं बोर्ड का दबाव बचेगा। सरकार इस दिशा में अधिकतम सहमति बनाने के प्रयासों में लगी है। इस बारे में श्री सिब्बल कहना है कि हमारे विभिन्न राज्यों में 41 शिक्षा बोर्ड हैं। अभी हम सीबीएसई के स्कूलों के लिए यह विचार-विमर्श कर रहे हैं। अगले चरण में हम राज्यों के बोर्ड को भी विश्वास में लेने का प्रयास करेंगे। उधर सीबीएसई के सचिव विनीत जोशी ने कहा कि जिन स्कूलों में केवल दसवीं तक पढ़ाई होती है, वहाँ दसवीं का बोर्ड तो रहेगा, पर जिन स्कूलों में 12वीं तक पढ़ाई होती है, वहाँ दसवीं के बोर्ड को खत्म करने का प्रस्ताव है।

शिक्षा में सुधार के लिए कोशिशें तो अपनी जगह ठीक हैं पर हमें यह मान लेना पड़ेगा कि हमने इन सालों में अपने सरकारी स्कूलों का लगभग सर्वनाश ही किया है। पूरी व्यवस्था निजी स्कूलों को प्रोत्साहित करने वाली है जिसमें आम आदमी भी आज अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में भेजने के लिए तैयार नहीं है। यह एक ऐसी चुनौती है जिसका सामना हमें आज नहीं तो कल बड़े सवाल के रूप में करना होगा। यह समस्या कल एक बड़े सामाजिक संर्घष का कारण बन सकती है। दिल्ली और राज्यों की राजधानियों में बैठकर नीतियां बनाने वाले भी इस बात से अनजान नहीं है पर क्या कारण है कि सरकार खुद अपने स्कूलों को ध्वस्त करने में लगी है। यह सवाल गहरा है पर इसके उत्तर नदारद हैं। सरकारें कुछ भी दावा करें, भले नित नए प्रयोग करें पर इतना तय है कि प्राथमिक शिक्षा के ढांचे को हम इतना खोखला बना चुके हैं कि अब उम्मीद की किरणें भी नहीं दिखतीं। ऐसे में ये प्रयोग क्या आशा जगा पाएंगें कहा नहीं जा सकता। बदलती दुनिया के मद्देनजर हमें जिस तरह के मानवसंसाधन और नए विचारों की जरूरत है उसमें हमारी शिक्षा कितनी उपयोगी है इस पर भी सोचना होगा। एक लोककल्याणकारी राज्य भी यदि शिक्षा को बाजार की चीज बनने दे रहा है तो उससे बहुत उम्मीदें लगाना एक धोखे के सिवा क्या हो सकता है। सच तो यह है कि समान शिक्षा प्रणाली के बिना इस देश के सवाल हल नहीं किए जा सकते और गैरबराबरी बढ़ती चली जाएगी। हमने इस मुद्दे पर सोचना शुरू न किया तो कल बहुत देर हो जाएगी।

( माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विवि, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)

अध्यक्षः जनसंचार विभाग माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, प्रेस काम्पलेक्स, एमपी नगर, भोपाल (मप्र)
मोबाइलः 098935-98888 e-mail- 123dwivedi@gmail.com

Web-site- www.sanjaydwivedi.com

Monday, August 24, 2009

पत्रकारिता की कक्षा से

शिशिर सिंह जनसंचार सेमेस्टर-I

पत्रकारिता की कक्षाओं को शुरु हुए एक महीने हो चुका है। पत्रकारिता की कक्षाओं में एक बहुत ही सामान्य प्रश्न पूछा जाता है कि आप ने पत्रकारिता को क्यों चुना? यह प्रश्न दिखने में जितना सहज और सरल दिखता है इसका उत्तर देना उतना ही कठिन है खासकर विकासशील पत्रकारों के लिए। विकासशील पत्रकार, पत्रकारों की वह प्रजाति है जो आने वाले समय के लिए तैयार की जाती है। एक तो यह प्रश्न इसलिए भी कठिन है क्योंकि हमारे दिमाग अभी इतने विकसित नही हुए हैं कि हम इनके साथ किए जाने वाले तर्कों (कभी-कभी कुतर्कों) के भी उत्तर दे पायें। उदाहरण के लिए अगर हमारे किसी साथी ने कहा कि वह इस क्षेत्र में इसलिए आया क्योंकि वह औरों से कुछ हटकर काम करना चाहता था तो उससे यह पूछा जाता है कि तुम सेना में क्यों नहीं गए?

समाज सेवा कहता है तो उसे फिर यह पूछा जाता है कि तुमने एनजीओ क्यों नहीं ज्वांइन किया आदि-आदि। इस तरह के सवाल जबाबों और तर्कों कि सूची काफी लम्बी है।

यह देखने में आता है कि पत्रकारिता में आने वाले अधिकतर छात्रों की प्रथम वरीयता पत्रकारिता नहीं रहती।

सच्चाई की बात की जाए तो पत्रकारिता विशेषकर हिंदी पत्रकारिता अभी भी उस धब्बे से पूरी तरह मुक्त नहीं हुई है जिसके बारे में कहा जाता है कि कोई व्यक्ति अगर कोई काम नहीं कर सकता तो उसके लिए पत्रकारिता ही उपयुक्त है। बस समय के साथ थोड़े कारण बदल गए हैं। जिन्हें कुछ करने को नहीं मिला वह या जिन्हें अपने भविष्य के बारे में कुछ समझ नहीं आया उन्होंने पत्रकारिता का कोर्स कर लिया।

भारतीय जनसंचार संस्थान में पढ़ने वाले मेरे एक साथी ने बताया कि संस्थान में आने वाले अधिकतरह छात्रों का ध्येय पत्रकारिता में आना नहीं बल्कि मात्र उसकी डिग्री हासिल करनी है। इनमें से अधिकतर वह छात्र रहते हैं जो पीसीएस या अन्य किसी प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करते हैं। कहने का सार यह है कि पत्रकरिता के स्तरीय संस्थानों को इस की तरफ ध्यान देना चाहिए कि वह संस्थानों में आने वाले छात्रों की योग्यता के साथ-साथ उनकी जर्नलस्टिक अप्रोच भी जांचे ताकि बेहतर पत्रकार सामने आये।


कुछ हल्का फुल्का....

पत्रकारिता के नए छात्रों के लिए एक नए गाने की कुछ लाइनें जो उम्मीद है कि हम पर आने वाले समय में सटीक बैठें ...

“रास्ते वहीं राही नये, रातें वहीं सपने नए, जो चल पड़े चलते गए यारों छू लेंगे हम आसमां”

Wednesday, August 19, 2009

आजाद अभिव्यक्ति का माध्यम है ब्लागः रतलामी


ब्लाग की दसवीं सालगिरह पर माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग में एक समारोह का आयोजन किया गया। इस मौके पर प्रख्यात ब्लागर रवि रतलामी के मुख्यआतिथ्य़ में केक काटकर कार्यक्रम का शुभारंभ किया गया।
कार्यक्रम को संबोधित करते हुए श्री रतलामी ने कहा कि ब्लाग आजाद अभिव्यक्ति का एक ऐसा माध्यम है। ब्लागर इसके जरिए न सिर्फ अपनी बात कह सकते हैं वरन इसे पूर्णकालिक रोजगार के रूप में भी अपना सकते हैं। उन्होंने कहा कि यह ऐसा माध्यम है जिसके मालिक आप खुद हैं और इससे आप अपनी बात को न सिर्फ लोगों तक पहुंचा सकते हैं वरन त्वरित फीडबैक भी पा सकते हैं।

समारोह के अध्यक्ष पत्रकारिता विभाग के अध्यक्ष पुष्पेंद्रपाल सिंह ने कहा कि आज भले ही इस माध्यम में कई कमजोरियां नजर आ रही हैं पर समय के साथ यह अभिव्यक्ति के गंभीर माध्यम में बदल जाएगा। कार्यक्रम के प्रारंभ में अतिथियों का स्वागत जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने किया। संचालन कृष्णकुमार तिवारी ने तथा आभार प्रदर्शन देवाशीष मिश्रा ने किया। इस मौके पर प्रवक्ता मोनिका वर्मा, शलभ श्रीवास्तव एवं विभाग के छात्र- छात्राएं मौजूद थे।

मूल्यहीनता का सबसे बेहतर समय

-संजय द्विवेदी
आज का समय बीती हुई तमाम सदियों के सबसे कठिन समय में से है। जहाँ मनुष्य की सनातन परंपराएँ, उसके मूल्य और उसका अपना जीवन ऐसे संघर्षों के बीच घिरा है, जहाँ से निकल पाने की कोई राह आसान नहीं दिखती। भारत जैसे बेहद परंपरावादी, सांस्कृतिक वैभव से भरे-पूरे और जीवंत समाज के सामने भी आज का यह समय बहत कठिन चुनौतियों के साथ खड़ा है। आज के समय में शत्रु और मित्र पकड़ में नहीं आते। बहुत चमकती हुई चीज़े सिर्फ धोखा साबित होती हैं। बाजार और उसके उपादानों ने मनुष्य के शाश्वत विवेक का अपहरण कर लिया है। जीवन कभी जो बहुत सहज हुआ करता था, आज के समय में अगर बहुत जटिल नज़र आ रहा है, तो इसके पीछे आज के युग का बदला हुआ दर्शन है।

भारतीय परंपराएं आज के समय में बेहद सकुचाई हुई सी नज़र आती हैं। हमारी उज्ज्वल परंपरा, जीवन मूल्य, विविध विषयों पर लिखा गया बेहद श्रेष्ठ साहित्य, आदर्श, सब कुछ होने के बावजूद हम अपने आपको कहीं न कहीं कमजोर पाते हैं। यह समय हमारी आत्मविश्वासहीनता का भी समय है। इस समय ने हमे प्रगति के अनेक अवसर दिए हैं, अनेक ग्रहों को नापतीं मनुष्य की आकांक्षाएं चाँद पर घर बक्सा, विशाल होते भवन, कारों के नए माडल, ये सारी चीज़े भी हमे कोई ताकत नहीं दे पातीं। विकास के पथ पर दौड़ती नई पीढ़ी जैसे जड़ों से उखड़ती जा रही है। इक्कीसवीं सदी में घुस आई यह जमात जल्दी और ज़्यादा पाना चाहती है और इसके लिए उसे किसी भी मूल्य को शीर्षासन कराना पड़े, तो कोई हिचक नहीं । यह समय इसीलिए मूल्यहीनता के सबसे बेहतर समय के लिए जाना जाएगा । यह समय सपनों के टूटने और बिखरने का भी समय है। यह समय उन सपनों के गढऩे का समय है, जो सपने पूरे तो होते हैं, लेकिन उसके पीछ तमाम लोगों के सपने दफ़्न हो जाते हैं। ये समय सेज का समय है, निवेश का समय है, लोगों को उनके गाँवों, जंगलों, घरों और पहाड़ों से भगाने का समय है। ये भागे हुए लोग शहर आकर नौकर बन जाते हैं। इनकी अपनी दुनिया जहाँ ये ‘मालिक’ की तरह रहते थे, आज के समय को रास नहीं आती। ये समय उजड़ते लोगों का समय है। गाँव के गाँव लुप्त हो जाने का समय है। ये समय ऐसा समय है, जिसने बांधों के बनते समय हजारों गाँवों को डूब में जाते हुए देखा है। यह समय ‘हरसूद’ को रचने का समय है । खाली होते गाँव,ठूँठ होते पेड़, उदास होती चिड़िया, पालीथिन के ग्रास खाती गाय, फार्म हाउस में बदलते खेत, बिकती हुई नदी, धुँआ उगलती चिमनियाँ, काला होता धान ये कुछ ऐसे प्रतीक हैं, जो हमे इसी समय ने दिए हैं। यह समय इसीलिए बहुत बर्बर हैं। बहुत निर्मम और कई अर्थों में बहुत असभ्य भी।

यह समय आँसुओं के सूख जाने का समय है । यह समय पड़ोसी से रूठ जाने का समय है। यह समय परमाणु बम बनाने का समय है। यह समय हिरोशिमा और नागासाकी रचने का समय है। यह समय गांधी को भूल जाने का समय है। यह समय राम को भूल जाने का समय है। यह समय रामसेतु को तोड़ने का समय है। उन प्रतीकों से मुँह मोड़ लेने का समय है, जो हमें हमारी जड़ों से जोड़ते हैं। यह जड़ों से उखड़े लोग का समय है और हमारे परोकारों को भोथरा बना देने का समय है। यह समय प्रेमपत्र लिखने का नहीं, चैटिंग करने का समय है। इस समय ने हमें प्रेम के पाठ नहीं, वेलेंटाइन के मंत्र दिए हैं। यह समय मेगा मॉल्स में अपनी गाढ़ी कमाई को फूँक देने का समय है। यह समय पीकर परमहंस होने का समय है।

इस समय ने हमें ऐसे युवा के दर्शन कराए हैं, जो बदहवास है। वह एक ऐसी दौड़ में है, जिसकी कोई मंज़िल नहीं है। उसकी प्रेरणा और आदर्श बदल गए हैं। नए ज़माने के धनपतियों और धनकुबेरों ने यह जगह ले ली है। शिकागों के विवेकानंद, दक्षिम अफ्रीका के महात्मा गांधी अब उनकी प्रेरणा नहीं रहे। उनकी जगह बिल गेट्स, लक्ष्मीनिवास मित्तल और अनिक अंबानी ने ले ली है। समय ने अपने नायकों को कभी इतना बेबस नहीं देखा। नायक प्रेरणा भरते थे और ज़माना उनके पीछे चलता था। आज का समय नायकविहीनता का समय है। डिस्कों थेक, पब, साइबर कैफ़े में मौजूद नौजवानी के लक्ष्य पकड़ में नहीं आते । उनकी दिशा भी पहचानी नहीं जाती । यह रास्ता आज के समय से और बदतर समय की तरफ जाता है। बेहतर करने की आकांक्षाएं इस चमकीली दुनिया में दम तोड़ देती हैं। ‘हर चमकती चीज़ सोना नहीं’ होती लेकिन दौड़ इस चमकीली चीज़ तक पहुँचने की है। आज की शिक्षा ने नई पीढ़ी को सरोकार, संस्कार और समय किसी की समझ नहीं दी है। यह शिक्षा मूल्यहीनता को बढ़ाने वाली साबित हुई है। अपनी चीज़ों को कमतर कर देखना और बाहर सुखों की तलाश करना इस समय को और विकृत करता है। परिवार और उसके दायित्व से टूटता सरोकार भी आज के ही समय का मूल्य है। सामूहिक परिवारों की ध्वस्त होती अवधारणा, फ्लैट्स में सिकुड़ते परिवार, प्यार को तरसते बच्चे, अनाथ माता-पिता, नौकरों, बाइयों और ड्राइवरों के सहारे जवान होती नई पीढ़ी । यह समय बिखरते परिवारों का भी समय है। इस समय ने अपनी नई पीढ़ी को अकेला होते और बुजुर्गों को अकेला करते भी देखा। यह ऐसा जादूगर समय है, जो सबको अकेला करता है। यह समय पड़ोसियों से मुँह मोड़ने, परिवार से रिश्ते तोड़ने और ‘साइबर फ्रेंड’ बनाने का समय है। यह समय व्यक्ति को समाज से तोड़ने, सरोकारों से अलग करने और ‘विश्व मानव’ बनाने का समय है।

यह समय भाषाओं और बोलियों की मृत्यु का समय है। दुनिया को एक रंग में रंग देने का समय है। यह समय अपनी भाषा को अँग्रेज़ी में बोलने का समय है। यह समय पिताओं से मुक्ति का समय है। यह समय माताओं से मुक्ति का समय है। इस समय ने हजारों हजार शब्द, हजारों हजार बोलियाँ निगल जाने की ठानी है। यह समय भाषाओं को एक भाषा में मिला देने का समय है। यह समय चमकीले विज्ञापनों का समय है। इस समय ने हमारे साहित्य को, हमारी कविताओं को, हमारे धार्मिक ग्रंथों को पुस्तकालयों में अकेला छोड़ दिया है, जहाँ ये किताबें अपने पाठकों के इंतजार में समय को कोस रही हैं। इस समय ने साहित्य की चर्चा को, रंगमंच के नाद को, संगीत की सरसता को, धर्म की सहिष्णुता को निगल लेने की ठानी है। यह समय शायद इसलिए भी अब तक देखे गए सभी समयों में सबसे कठिन है, क्योंकि शब्द किसी भी दौर में इतने बेचारे नहीं हुए नहीं थे। शब्द की हत्या इस समय का एक सबसे बड़ा सच है। यह समय शब्द को सत्ता की हिंसा से बचाने का भी समय है। यहि शब्द नहीं बचेंगे, तो मनुष्य की मुक्ति कैसे होगी ? उसका आर्तनाद, उसकी संवेदनाएं, उसका विलाप, उसका संघर्ष उसका दैन्य, उसके जीवन की विद्रूपदाएं, उसकी खुशियाँ, उसकी हँसी उसका गान, उसका सौंदर्यबोध कौन व्यक्त करेगा। शायद इसीलिए हमें इस समय की चुनौती को स्वीकारना होगा। यह समय हमारी मनुष्यता को पराजित करने के लिए आया है। हर दौर में हर समय से मनुष्यता को पराजित करने के लिए आया है। हर दौर में हर समय से मनुष्यता जीतती आई है। हर समय ने अपने नायक तलाशे हैं और उन नायकों ने हमारी मानवता को मुक्ति दिलाई है। यह समय भी अपने नायक से पराजित होगा। यह समय भी मनुष्य की मुक्ति में अवरोधक नहीं बन सकता। हमारे आसपास खड़े बौने, आदमकद की तलाश को रोक नहीं सकते। वह आदमकद कौन होगा वह विचार भी हो सकता है और विचारों का अनुगामी कोई व्यक्ति भी। कोई भी समाज अपने समय के सवालों से मुठभेड़ करता हुआ ही आगे बढ़ता है। सवालों से मुँह चुराने वाला समाज कभी भी मुक्तिकामी नहीं हो सकता। यह समय हमें चुनौती दे रहा है कि हम अपनी जड़ों पर खड़े होकर एक बार फिर भारत को विश्वगुरू बनाने का स्वप्न देखें। हमारे युवा एक बार फिर विवेकानंद के संकल्पों को साध लेने की हिम्मत जुटाएं। भारतीयता के पास आज भी आज के समय के सभी सवालों का जवाब है। हम इस कठिन सदी के, कठिन समय की हर पीड़ा का समाधान पा सकते हैं। हम इस कठिन सदी के, कठिन समय की हर पीड़ा का समाधान पा सकते हैं, बशर्तें आत्मविश्वास से भरकर हमें उन बीते हुए समयों की तरफ देखना होगा जब भारतीयता ने पूरे विश्व को अपने दर्शन से एक नई चेतना दी थी। वह चेतना भारतीय जीवन मूल्यों के आधार पर एक नया समाज गढ़ने की चेतना है । वह भारतीय मनीषा के महान चिंतकों, संतों और साधकों के जीवन का निकष है। वह चेतना हर समय में मनुष्य को जीवंत रखने, हौसला न हारने, नए-नए अवसरों को प्राप्त करने, आधुनिकता के साथ परंपरा के तालमेल की एक ऐसी विधा है, जिसके आधार पर हम अपने देश का भविष्य गढ़ सकते हैं।

आज का विश्वग्राम, भारतीय परंपरा के वसुधैव कुटुंबकम् का विकल्प नहीं है। आज का विश्वग्राम पूरे विश्व को एक बाजार में बदलने की पूँजीवादी कवायद है, तो ‘वसुधैव कुटुंबकम’ का मंत्र पूरे विश्व को एक परिवार मानने की भारतीय मनीषा की उपज है। दोनों के लक्ष्य और संधान अलग-अलग हैं। भारतीय मनीषा हमारे समय को सहज बनाकर हमारी जीवनशैली को सहज बनाते हुए मुक्ति के लिए प्रेरित करती है, जबकि पाश्चात्य की चेतना मनुष्य को देने की बजाय उलझाती ज़्यादा है। ‘देह और भोग’ के सिद्धांतों पर चलकर मुक्ति की तलाश भी बेमानी है। भारतीय चेतना में मनुष्य अपने समय से संवाद करता हुआ आने वाले समय को बेहतर बनाने की चेष्टा करता है। वह पीढ़ियों का चिंतन करता है, आने वाले समय को बेहतर बनाने के लिए सचेतन प्रयास करता है। जबकि बाजार का चिंतन सिर्फ आज का विचार करता है। इसके चलते आने वाला समय बेहद कठिन और दुरूह नज़र आने लगता है। कोई भी समाज अपने समय के सरोकारों के साथ ही जीवंत होता है। भारतीय मनीषा इसी चेतना का नाम है, जो हमें अपने समाज से सरोकारी बनाते हुए हमारे समय को सहज बनाती है। क्या आप और हम इसके लिए तैयार हैं ?

अध्य़क्षः जनसंचार विभाग माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, प्रेस काम्पलेक्स, एमपी नगर, भोपाल (मप्र)
मोबाइलः 098935-98888 e-mail- 123dwivedi@gmail.com