Wednesday, September 9, 2009

आनेवाला समय एनीमेशन काः ईशान




जनसंचार विभाग में आयोजित एड-फिल्म मेकिंग, एनीमेशन पर केंद्रित कार्यशाला का समापन
युवा एड फिल्म निर्माता एवं मीडियाफ्रीक्स कंपनी के कम्प्यूटर ग्राफिक्स जर्नलिस्ट ईशान शुक्ला (सिंगापुर) का कहना है कि फिल्मों और विज्ञापनों में लगातार एनीमेशन का प्रयोग बढ़ रहा है। एनीमेशन आज ज्यादा प्रभावी हो रहे हैं और वे किसी भी संदेश को व्यक्त करने में समर्थ हैं। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग द्वारा आयोजित विज्ञापन फिल्मों और उसमें एनीमेशन के प्रयोगों पर केंद्रित तीन दिवसीय कार्यशाला के समापन समारोह में उन्होंने ये बातें कहीं।
उन्होंने कहा कि आनेवाला समय एनीमेशन फिल्मों का ही है। एनीमेशन प्रस्तुति को थ्री डी (3 D) के माध्यम से ज्यादा प्रभावी और वास्तविक बनाया जा सकता है। स्पेशल इफेक्ट्स भी एनीमेशन के द्वारा सरलतापूर्वक दिखाए जा सकते हैं। ईशान का कहना था कि आनेवाला समय एनीमेशन फिल्मों का ही है जिसमें युवा बड़ी संख्या में रोजगार पा सकते हैं। उन्होंने कहा कि तकनीक की लाख प्रगति के बावजूद क्रिएटिविटी और आइडियाज की अपनी जगह बनी ही रहेगी। तीन दिन चली कार्यशाला में दुनिया की तमाम पुरस्कृत एड फिल्मों के प्रदर्शन के माध्यम से विद्यार्थियों को इसकी तकनीक, प्रयोगों और लाभ से परिचित कराया गया।
कार्यक्रम की अध्यक्षता कम्प्युटर विभाग के अध्यक्ष प्रो. चैतन्य पुरूषोत्तम अग्रवाल ने की। कार्यक्रम के प्रारंभ में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने अतिथियों का स्वागत किया। इस मौके पर छात्रों की ओर से मृणाल झा, एनी अंकिता, नितिशा कश्यप और साकेत नारायण ने कार्यशाला को लेकर अपने अनुभव बताए। आभार प्रदर्शन विश्वविद्यालय के प्लेसमेंट आफीसर डा. अविनाश वाजपेयी ने किया।

Friday, September 4, 2009

“हिंदी वाला” फेमि‍नि‍ज्‍म से डरता क्‍यों है?


-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी
हिंदी साहि‍त्‍य में औरत है किंतु उसका शास्‍त्र नहीं है। स्‍त्री शास्‍त्र के बि‍ना औरत नि‍रस्‍त्र है। अनाथ है, पराश्रि‍त है। साहि‍त्‍य की प्रत्‍येक वि‍धा में लि‍खने वाली औरतें हैं, साहि‍त्‍यि‍क पत्रि‍काओं में ‘हंस’ जैसी शानदार पत्रि‍का है, जि‍सके संपादक आये दि‍न स्‍त्री का महि‍मामंडन करते रहते हैं, छायावाद में स्‍त्री की महत्ता का उदघाटन करने वाले नामवर सिंह की इसी नाम से शानदार कि‍ताब है। इसके बावजूद ‘हिंदीवाला’ (यहां लेखकों, बुद्धि‍जीवि‍यों, शि‍क्षकों से तात्‍पर्य है) स्‍त्रीवाद को लेकर भड़कता क्‍यों है?
हिंदी में स्‍त्री शास्‍त्र नि‍र्मित क्‍यों नहीं हो पाया? हिंदी वाला ‘फेमि‍नि‍ज्‍म’ अथवा ‘स्‍त्रीवाद’ पदबंध के प्रयोग से इतना भागता क्‍यों है? हिंदी में कोई फेमि‍नि‍स्‍ट पैदा क्‍यों नहीं हुआ? हिंदी वि‍भागों में अरस्‍तू से लेकर मार्क्‍सवाद तक सभी सि‍द्धांत पढ़ाये जाएंगे लेकि‍न स्‍त्रीवाद नहीं पढ़ाया जाता। ऐसा क्‍या है जो स्‍त्रीवाद का नाम सुनते ही हिंदी वाले की हवा नि‍कल जाती है। स्‍त्री के सवाल तब ही क्‍यों उठते हैं जब उस पर जुल्‍म होता है? हिंदी में स्‍त्री लेखि‍काओं की लंबी परंपरा के बावजूद स्‍वतंत्र रूप से ‘स्‍त्री साहि‍त्‍य’ पदबंध अभी भी लोकप्रि‍य नहीं है। आलोचना और इति‍हास की कि‍ताबों से लेकर दैनंदि‍न साहि‍त्‍य वि‍मर्श में स्‍वतंत्र रूप से ‘स्‍त्री साहि‍त्‍य’ की केटेगरी को अभी तक स्‍वीकृति‍ नहीं मि‍ली है। हमारी ज्‍यादातर साहि‍त्‍यि‍क पत्रि‍काएं ‘स्‍त्री साहि‍त्‍य’ केटेगरी को स्‍वतंत्र रूप में महत्‍व नहीं देतीं बल्‍कि‍ साहि‍त्‍य की केटेगरी के तहत ‘स्‍त्री साहि‍त्‍य’ को समाहि‍त करके चर्चा करते हैं। और वे जब ऐसा करते हैं, तो सीधे स्‍त्री की स्‍वतंत्र पहचान का अपहरण करते हैं। जाने-अनजाने स्‍त्री साहि‍त्‍य की प्रति‍ष्‍ठा की बजाय उसकी पहचान को लेकर वि‍भ्रम पैदा करते हैं।
हिंदी की अधि‍कांश स्‍त्री लेखि‍काएं महि‍ला अंदोलन से दूर हैं और फेमि‍नि‍ज्‍म को एक सि‍रे से अपने नजरि‍ए का हि‍स्‍सा नहीं मानतीं। हिंदी के कि‍सी भी प्रति‍ष्‍ठि‍त आलोचक ने स्‍त्रीवादी साहि‍त्‍यालोचना पर एक भी शब्‍द क्‍यों नहीं लि‍खा?
स्त्री साहित्य के सवाल हाशिये के सवाल नहीं हैं। स्‍त्री जीवन के केंद्रीय सवाल हैं। स्त्री-विमर्श खाली समय या आनंद के समय का विमर्श नहीं है। हिंदी में स्त्री साहित्य और उसकी सैद्धांतिकी अभी भी अकादमिक जगत में प्रवेश नहीं कर पायी है। साहित्यिक पत्रिकाओं के स्त्री विमर्श लेखक जाने-अनजाने मांग और पूर्ति के मायावी तर्कजाल में कैद हैं। स्त्री साहित्य या स्त्री विमर्श में प्रयुक्त धारणाओं का सही नाम और सही संदर्भ में इस्तेमाल नहीं हो रहा। स्त्री से जुड़ी धारणाओं की मनमानी व्‍याख्‍याएं पेश की जा रही हैं। स्त्री साहित्य के मूल्यांकन के संदर्भ में सबसे बड़ी चुनौती है अवधारणाओं की सही समझ की। हिंदी साहित्य विमर्श में अवधारणाओं में सोचने की परंपरा का निरंतर ह्रास हो रहा है।
अंग्रेजी साहित्य में स्त्रीवादी साहित्यालोचना बेहद जनप्रिय पदबंध है। किंतु हिंदी में यह उतना जनप्रिय नहीं है। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि हिंदी के समीक्षकों को इस पदबंध में कोई आकर्षण नज़र नहीं आता। इसके अलावा हिंदी में साहित्यिक पत्रिकाओं में जो संपादक स्त्री साहित्य के पक्षधर के रूप में नजर आते हैं, वे भी इस पदबंध का प्रयोग नहीं करते।
साहित्यालोचना की परंपरा प्रत्येक समाज में बड़ी पुरानी है अत: स्त्रीवादी साहित्यालोचना हमेशा अन्य से ग्रहण करके ही अपना विकास करती है। इसमें अन्य के विचारों के प्रति तिरस्कार का भाव नहीं है। यह अन्य के विचारों को वहां तक आत्मसात करने के लिए तैयार है, जहां तक वे स्त्री के हितों, भावों, जीवन मूल्यों और यथार्थ को विकसित करने में सहायता करते हैं। स्त्रीवादी साहित्यालोचना की पूर्ववर्ती साहित्यालोचना के स्कूलों से इस अर्थ में भिन्नता है कि वे एकायामी थे। जबकि स्त्रीवादी साहित्यालोचना बहुआयामी है। वैविध्यपूर्ण है। यह समाज के किसी एक संस्थान को संबोधित करने के बजाय समाज के विभिन्न संस्थानों को संबोधित करती है। स्त्रीवादी साहित्यालोचना ने आलोचना के स्कूलों की गंभीर आलोचना के साथ साथ समाज और साहित्य के प्रति आलोचना में नये तत्वों, अवधारणाओं और समझ का भी विकास किया है।
स्त्रीवादी साहित्यालोचना का लक्ष्य है समाज में पुंसवादी प्रभुत्व की समाप्ति करना। पुंसवादी संस्कृति की संरचना को ध्वस्त करना। संस्‍कृति‍ की संरचनाओं कलाएं, धर्म, कानून, एकल परिवार, पिता और राष्ट्र-राज्य के असीमित अधिकार आते हैं, वे सभी इमेज, संस्थाएं, संस्कार और आदतें आती हैं, जो यह बताती हैं कि औरत किसी काम की नहीं होती, अर्थहीन है, अदृश्य है। माया है।
स्त्रीवादी साहित्यालोचना के इस लक्ष्य को हासिल करने का हिंदुस्तान में क्या तरीका हो सकता है? इसके बारे में एक जैसी रणनीति अपनाना संभव नहीं है। हिंदुस्तान में सामाजिक वैविध्य और स्त्रीचेतना के अनेक स्तरों को मद्देनजर रखते हुए संवाद और संघर्ष के रास्ते पर साथ-साथ चलना होगा। इस क्रम में त्याग और ग्रहण की पद्धति अपनानी होगी।
स्त्रीवादी साहित्यालोचना को प्रचलित साहित्यालोचना में कुछ हेरफेर करने बाद निर्मित नहीं किया जा सकता। इसके लिए समाज के प्रति बुनियादी रवैयया बदलना होगा। परंपरागत दृष्टियों को ऊपरी फेरबदल के साथ स्त्रीवादी हितों के पक्ष में रूपांतरित नहीं किया जा सकता। स्त्रीवादी साहित्यालोचना क्रांतिकारी साहित्यालोचना है। उसका लक्ष्य है प्रचलित और प्रभुत्व बनाकर बैठे आलोचना स्कूलों को चुनौती देना, उन्हें अपदस्थ करना। प्रभुत्ववादी विमर्शों को चुनौती देना, उन्हें अपदस्थ करना। सभी किस्म के विमर्शों में स्त्रीवादी नजरिये से हस्तक्षेप करना। स्त्रीवादी साहित्यालोचना की हिमायत करना, उसे विस्तार देने का काम सिर्फ औरतों का ही नहीं है बल्कि इसमें पुरुषों को भी शामिल किया जाना चाहिए। स्त्री का संघर्ष सिर्फ स्त्री का नहीं उसमें पुरुषों की भी समान हिस्सेदारी होनी चाहिए।
स्त्रीवादी साहित्यालोचना में मर्दवादी नजरिये से यदि पुरुष समीक्षक दाखिल होते हैं तो वे स्त्रीवादी साहित्यालोचना का विकास नहीं कर सकते, ऐसे समीक्षकों को स्त्रीवादी समीक्षक कहना मुश्किल है। हिंदी में यह फैशन चल निकला है कि अब हरेक मर्दवादी समीक्षक स्त्री विषय पर हाथ भांज रहा है। हिंदी की साहित्यिक पत्रिकाओं में इस तरह के फैशनपरस्त या जिज्ञासु आलोचकों में अनेक मर्द संपादक और आलोचक हैं। स्त्रीवादी साहित्यालोचना का विकास मर्द समीक्षकों द्वारा फैशन, सहानुभूति या जिज्ञासा के आधार पर नहीं किया जा सकता। बल्कि इसके लिए क्रांतिकारी रवैये की ज़रूरत है। अभी तक जिन मर्दों ने स्त्रीवादी साहित्यालोचना में योगदान किया है, उनका किसी न किसी रूप में क्रांतिकारी संघर्षों, क्रांतिकारी विमर्श, आमूल परिवर्तनकामी आलोचना परंपरा से संबंध रहा है। ये लोग स्त्रीवादी नजरिये के परिवर्तनकामी रूझानों के पक्षधर रहे हैं। वे मानते हैं कि स्त्रीवादी नजरिया प्रत्येक किस्म के उत्पीड़न, शोषण, अन्याय आदि का सख्त विरोधी है। जिन पुरुषों ने स्त्रीवादी साहित्यालोचना के पक्ष में लिखा है, उनमें प्रतिबद्धता का गहरा भाव रहा है। उन्होंने जिज्ञासावश नहीं लिखा।
हिंदी में स्त्री आलोचना में जो मर्द दाखिल हो रहे हैं वे फैशन के नाम पर आ रहे हैं। उनका साहित्य के क्रांतिकारी विमर्श, समाज के क्रांतिकारी संघर्षों और विचारधाराओं से कोई संबंध नहीं है। ऐसे मर्द समीक्षकों को स्त्रीवादी विमर्श अपना अंग नहीं मानता। स्त्रीवादी साहित्यालोचना के अंदर स्त्रियां उन्हीं पुरुषों को स्वीकार करने को तैयार हैं, जो स्त्री के अधिकारों और स्त्रीवादी नजरिये के प्रति पूरी तरह प्रतिबद्ध हैं, आमूल सामाजिक परिवर्तन के पक्षधर हैं। स्त्रीवादी साहित्यालोचना को सैद्धांतिक तौर पर वे मर्द स्वीकार्य हैं, जो सिद्धांतत: लिंग को आधार बनाकर समीक्षा का विकास कर रहे हों। स्त्री के अनुभवों को स्त्री के नजरिये से देखते हैं।
हिंदी में स्त्री के सवालों, समस्याओं, अनुभूति आदि को आलोचक मर्दवादी नजरिये से देखते हैं, इस तरह के लेखन की इन दिनों हिंदी में बाढ़ आयी हुई है। आज सारी दुनिया में स्त्रीवादी साहित्यालोचना के योगदान की कोई अनदेखी नहीं कर सकता। किंतु हिंदी में साहित्य सैद्धांतिकी में स्त्रीवादी सैद्धांतिकी का अध्ययन नहीं कराया जाता। स्त्रीवादी साहित्यालोचना पर विचार करते समय बुनियादी तौर पर यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि लिंग के रूप में पुंसवादी नजरिये की आलोचना का यह अर्थ नहीं निकालना चाहिए कि मर्द को स्त्री का शत्रु घोषित कर दिया जाए। पुरुष को शत्रु घोषित करने वाली मानसिकता मूलत: मर्दवाद के प्रत्युत्तर में पैदा हुआ ‘स्त्रीवादी आतंकवाद’ है। इसके दृष्टिकोण से मर्द केंद्रीय समस्या है। अत: उसे बिना शर्त्त स्त्री के आगे आत्मसमर्पण कर देना चाहिए। आतंकवादी नजरिया लिंगाधारित ध्रुवीकरण करता है, यह दृष्टिकोण अंतत: ऐसी स्थिति पैदा करता है कि मर्द या तो स्त्रीवाद की उपेक्षा करे या स्त्रीवाद पर हमला करे। इस दृष्टिकोण के शिकार लोग एक-दूसरे पर हमला बोलते रहते हैं। इससे स्त्री को कोई लाभ नहीं मिलता। ‘हंस’ के संपादकीय इस तरह के नजरिये से भरे पड़े हैं।
असल में ‘स्त्रीवाद आतंकवाद’ मर्दवाद का विलोम है। यह विभाजनकारी नजरिया है। समग्रता में स्त्रीवादी आतंकवादी नजरिये से स्त्री को कोई लाभ नहीं मिलता, समाज में मर्द के प्रभुत्व में कोई कमी नहीं आती। उलटे स्त्रीवाद के प्रति संशय पैदा करता है, स्त्री के सामाजिक और बौद्ध‍िक स्पेस को संकुचित करता है।
स्त्रीवाद आस्था नही है, बल्कि स्त्री-सत्य की खोज का मार्ग है। अकादमिक जगत में स्त्रीवाद को जब तक पढ़ाया नहीं जाएगा, उसका ज्ञानात्मक प्रसार नहीं होगा। शिक्षकों का काम है स्त्रीवाद की शिक्षा देना, न कि स्त्रीवाद पैदा करना। स्त्रीवाद के पक्ष में जो लोग लिखते हैं, उन्हें अपने लिखे की आलोचना को विनम्रतापूर्वक ग्रहण करना चाहिए और उसकी रोशनी में अपने विचारों को और भी ज्यादा सुसंगत बनाने की कोशिश करनी चाहिए। यह देखा गया है कि जब भी किसी स्त्रीवादी विचारक की आलोचना हुई है, उसने इसे स्त्रीवाद पर हमला घोषित किया है। यह रवैया सही नहीं है। स्त्रीवाद के बारे में की गयी आलोचना वैचारिक विकास की प्रक्रिया का अंग है। उसे विनम्रतापूर्वक स्वीकार किया जाना चाहिए। स्त्रीवादी साहित्यालोचना का अकादमिक जगत में प्रवेश तब ही संभव है, जब उसे आस्था के रूप में पेश करने की बजाय नए परि‍वर्तनकामी विचार के रूप में पेश किया जाए। ( मोहल्ला लाइव से साभार)

Wednesday, September 2, 2009

इस बदलाव से क्या हासिल


-संजय द्विवेदी

केंद्रीय मानवसंसाधन मंत्री कपिल सिब्बल केंद्र के उन भाग्यशाली मंत्रियों में हैं जिनके पास कहने के लिए कुछ है। वे शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाने का बिल पास करवाकर 100 दिन के सरकार के एजेंडें में एक बड़ी जगह तो ले ही चुके हैं और अब दसवीं बोर्ड को वैकल्पिक बनवाकर वे एक और कदम आगे बढ़े हैं। शिक्षा के क्षेत्र में इसे एक बड़ा सुधार माना जा रहा है और छात्रों पर एक और बोर्ड का दबाव कम होने की संभावना भी इस फैसले से नजर आ रही है। सीबीएसई में जहां इस साल से ही ग्रेडिंग प्रणाली लागू हो जाएगी वहीं अगले साल दसवीं बोर्ड का वैकल्पिक हो जाना नई राहें खोलेगा।

हालांकि इन फैसलों से शिक्षा के क्षेत्र में कोई बहुत क्रांतिकारी परिवर्तन आ जाएंगें ऐसा मानना तो जल्दबाजी होगी किंतु इससे सोच और बदलाव के नए संकेत तो नजर आ ही रहे हैं। सिब्बल अंततः तो यह मान गए हैं कि उनका इरादा अभी देश के लिए एक बोर्ड बनाने का नहीं है। शायद यही एक बात थी जिसपर प्रायः कई राज्यों ने अपनी तीखी प्रतिक्रिया जताई थी। बावजूद इसके मानवसंसाधन मंत्री यह मानते हैं कि छात्रों में प्रतिस्पर्धा की भावना को विकसित किया जाना जरूरी है। जाहिर तौर शिक्षा और प्राथमिक शिक्षा का क्षेत्र हमारे देश में एक ऐसी प्रयोगशाला बनकर रह गया है जिसपर लगातार प्रयोग होते रहे हैं। इन प्रयोगों ने शिक्षा के क्षेत्र को एक ऐसे अराजक कुरूक्षेत्र में बदल दिया है जहां सिर्फ प्रयोग हो रहे हैं और नयी पीढी उसका खामियाजा भुगत रही है।

प्राथमिक शिक्षा में अलग-अलग बोर्ड और पाठ्यक्रमों का संकट अलग है। इनमें एकरूपता लाने के प्रयासों में राज्यों और केंद्र के अपने तर्क हैं। किंतु 10वीं बोर्ड को वैकल्पिक बनाने से एक सुधारवादी रास्ता तो खुला ही है जिसके चलते छात्र नाहक तनाव से बच सकेंगें और परीक्षा के तनाव, उसमें मिली विफलता के चलते होने वाली दुर्घटनाओं को भी रोका जा सकेगा। शायद परीक्षा के परिणामों के बाद जैसी बुरी खबरें मिलती थीं जिसमें आत्महत्या के तमाम किस्से होते थे उनमें कमी आएगी। बोर्ड परीक्षा के नाम होने वाले तनाव से मुक्ति भी इसका एक सुखद पक्ष है। देखना है कि इस फैसले को शिक्षा क्षेत्र में किस तरह से लिया जाता है। यह भी देखना रोचक होगा कि ग्रेडिंग सिस्टम और वैकल्पिक बोर्ड की व्यवस्थाओं को राज्य के शिक्षा मंत्रालय किस नजर से देखते हैं। इस व्यवस्था के तहत अब जिन स्कूलों में बारहवीं तक की पढ़ाई होती है वहां 10वीं बोर्ड खत्म हो जाएगा। सरकार मानती है जब सारे स्कूल बारहवीं तक हो जाएंगें तो दसवीं बोर्ड की व्यवस्था अपने आप खत्म हो जाएगी। माना जा रहा है धीरे-धीरे राज्य भी इस व्यवस्था को स्वीकार कर लेंगें और छात्रों पर सिर्फ बारहवीं बोर्ड का दबाव बचेगा। सरकार इस दिशा में अधिकतम सहमति बनाने के प्रयासों में लगी है। इस बारे में श्री सिब्बल कहना है कि हमारे विभिन्न राज्यों में 41 शिक्षा बोर्ड हैं। अभी हम सीबीएसई के स्कूलों के लिए यह विचार-विमर्श कर रहे हैं। अगले चरण में हम राज्यों के बोर्ड को भी विश्वास में लेने का प्रयास करेंगे। उधर सीबीएसई के सचिव विनीत जोशी ने कहा कि जिन स्कूलों में केवल दसवीं तक पढ़ाई होती है, वहाँ दसवीं का बोर्ड तो रहेगा, पर जिन स्कूलों में 12वीं तक पढ़ाई होती है, वहाँ दसवीं के बोर्ड को खत्म करने का प्रस्ताव है।

शिक्षा में सुधार के लिए कोशिशें तो अपनी जगह ठीक हैं पर हमें यह मान लेना पड़ेगा कि हमने इन सालों में अपने सरकारी स्कूलों का लगभग सर्वनाश ही किया है। पूरी व्यवस्था निजी स्कूलों को प्रोत्साहित करने वाली है जिसमें आम आदमी भी आज अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में भेजने के लिए तैयार नहीं है। यह एक ऐसी चुनौती है जिसका सामना हमें आज नहीं तो कल बड़े सवाल के रूप में करना होगा। यह समस्या कल एक बड़े सामाजिक संर्घष का कारण बन सकती है। दिल्ली और राज्यों की राजधानियों में बैठकर नीतियां बनाने वाले भी इस बात से अनजान नहीं है पर क्या कारण है कि सरकार खुद अपने स्कूलों को ध्वस्त करने में लगी है। यह सवाल गहरा है पर इसके उत्तर नदारद हैं। सरकारें कुछ भी दावा करें, भले नित नए प्रयोग करें पर इतना तय है कि प्राथमिक शिक्षा के ढांचे को हम इतना खोखला बना चुके हैं कि अब उम्मीद की किरणें भी नहीं दिखतीं। ऐसे में ये प्रयोग क्या आशा जगा पाएंगें कहा नहीं जा सकता। बदलती दुनिया के मद्देनजर हमें जिस तरह के मानवसंसाधन और नए विचारों की जरूरत है उसमें हमारी शिक्षा कितनी उपयोगी है इस पर भी सोचना होगा। एक लोककल्याणकारी राज्य भी यदि शिक्षा को बाजार की चीज बनने दे रहा है तो उससे बहुत उम्मीदें लगाना एक धोखे के सिवा क्या हो सकता है। सच तो यह है कि समान शिक्षा प्रणाली के बिना इस देश के सवाल हल नहीं किए जा सकते और गैरबराबरी बढ़ती चली जाएगी। हमने इस मुद्दे पर सोचना शुरू न किया तो कल बहुत देर हो जाएगी।

( माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विवि, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)

अध्यक्षः जनसंचार विभाग माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, प्रेस काम्पलेक्स, एमपी नगर, भोपाल (मप्र)
मोबाइलः 098935-98888 e-mail- 123dwivedi@gmail.com

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