माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय ,भोपाल के जनसंचार विभाग के छात्रों द्वारा संचालित ब्लॉग ..ब्लाग पर व्यक्त विचार लेखकों के हैं। ब्लाग संचालकों की सहमति जरूरी नहीं। हम विचार स्वातंत्र्य का सम्मान करते हैं।
Friday, September 4, 2009
“हिंदी वाला” फेमिनिज्म से डरता क्यों है?
-जगदीश्वर चतुर्वेदी
हिंदी साहित्य में औरत है किंतु उसका शास्त्र नहीं है। स्त्री शास्त्र के बिना औरत निरस्त्र है। अनाथ है, पराश्रित है। साहित्य की प्रत्येक विधा में लिखने वाली औरतें हैं, साहित्यिक पत्रिकाओं में ‘हंस’ जैसी शानदार पत्रिका है, जिसके संपादक आये दिन स्त्री का महिमामंडन करते रहते हैं, छायावाद में स्त्री की महत्ता का उदघाटन करने वाले नामवर सिंह की इसी नाम से शानदार किताब है। इसके बावजूद ‘हिंदीवाला’ (यहां लेखकों, बुद्धिजीवियों, शिक्षकों से तात्पर्य है) स्त्रीवाद को लेकर भड़कता क्यों है?
हिंदी में स्त्री शास्त्र निर्मित क्यों नहीं हो पाया? हिंदी वाला ‘फेमिनिज्म’ अथवा ‘स्त्रीवाद’ पदबंध के प्रयोग से इतना भागता क्यों है? हिंदी में कोई फेमिनिस्ट पैदा क्यों नहीं हुआ? हिंदी विभागों में अरस्तू से लेकर मार्क्सवाद तक सभी सिद्धांत पढ़ाये जाएंगे लेकिन स्त्रीवाद नहीं पढ़ाया जाता। ऐसा क्या है जो स्त्रीवाद का नाम सुनते ही हिंदी वाले की हवा निकल जाती है। स्त्री के सवाल तब ही क्यों उठते हैं जब उस पर जुल्म होता है? हिंदी में स्त्री लेखिकाओं की लंबी परंपरा के बावजूद स्वतंत्र रूप से ‘स्त्री साहित्य’ पदबंध अभी भी लोकप्रिय नहीं है। आलोचना और इतिहास की किताबों से लेकर दैनंदिन साहित्य विमर्श में स्वतंत्र रूप से ‘स्त्री साहित्य’ की केटेगरी को अभी तक स्वीकृति नहीं मिली है। हमारी ज्यादातर साहित्यिक पत्रिकाएं ‘स्त्री साहित्य’ केटेगरी को स्वतंत्र रूप में महत्व नहीं देतीं बल्कि साहित्य की केटेगरी के तहत ‘स्त्री साहित्य’ को समाहित करके चर्चा करते हैं। और वे जब ऐसा करते हैं, तो सीधे स्त्री की स्वतंत्र पहचान का अपहरण करते हैं। जाने-अनजाने स्त्री साहित्य की प्रतिष्ठा की बजाय उसकी पहचान को लेकर विभ्रम पैदा करते हैं।
हिंदी की अधिकांश स्त्री लेखिकाएं महिला अंदोलन से दूर हैं और फेमिनिज्म को एक सिरे से अपने नजरिए का हिस्सा नहीं मानतीं। हिंदी के किसी भी प्रतिष्ठित आलोचक ने स्त्रीवादी साहित्यालोचना पर एक भी शब्द क्यों नहीं लिखा?
स्त्री साहित्य के सवाल हाशिये के सवाल नहीं हैं। स्त्री जीवन के केंद्रीय सवाल हैं। स्त्री-विमर्श खाली समय या आनंद के समय का विमर्श नहीं है। हिंदी में स्त्री साहित्य और उसकी सैद्धांतिकी अभी भी अकादमिक जगत में प्रवेश नहीं कर पायी है। साहित्यिक पत्रिकाओं के स्त्री विमर्श लेखक जाने-अनजाने मांग और पूर्ति के मायावी तर्कजाल में कैद हैं। स्त्री साहित्य या स्त्री विमर्श में प्रयुक्त धारणाओं का सही नाम और सही संदर्भ में इस्तेमाल नहीं हो रहा। स्त्री से जुड़ी धारणाओं की मनमानी व्याख्याएं पेश की जा रही हैं। स्त्री साहित्य के मूल्यांकन के संदर्भ में सबसे बड़ी चुनौती है अवधारणाओं की सही समझ की। हिंदी साहित्य विमर्श में अवधारणाओं में सोचने की परंपरा का निरंतर ह्रास हो रहा है।
अंग्रेजी साहित्य में स्त्रीवादी साहित्यालोचना बेहद जनप्रिय पदबंध है। किंतु हिंदी में यह उतना जनप्रिय नहीं है। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि हिंदी के समीक्षकों को इस पदबंध में कोई आकर्षण नज़र नहीं आता। इसके अलावा हिंदी में साहित्यिक पत्रिकाओं में जो संपादक स्त्री साहित्य के पक्षधर के रूप में नजर आते हैं, वे भी इस पदबंध का प्रयोग नहीं करते।
साहित्यालोचना की परंपरा प्रत्येक समाज में बड़ी पुरानी है अत: स्त्रीवादी साहित्यालोचना हमेशा अन्य से ग्रहण करके ही अपना विकास करती है। इसमें अन्य के विचारों के प्रति तिरस्कार का भाव नहीं है। यह अन्य के विचारों को वहां तक आत्मसात करने के लिए तैयार है, जहां तक वे स्त्री के हितों, भावों, जीवन मूल्यों और यथार्थ को विकसित करने में सहायता करते हैं। स्त्रीवादी साहित्यालोचना की पूर्ववर्ती साहित्यालोचना के स्कूलों से इस अर्थ में भिन्नता है कि वे एकायामी थे। जबकि स्त्रीवादी साहित्यालोचना बहुआयामी है। वैविध्यपूर्ण है। यह समाज के किसी एक संस्थान को संबोधित करने के बजाय समाज के विभिन्न संस्थानों को संबोधित करती है। स्त्रीवादी साहित्यालोचना ने आलोचना के स्कूलों की गंभीर आलोचना के साथ साथ समाज और साहित्य के प्रति आलोचना में नये तत्वों, अवधारणाओं और समझ का भी विकास किया है।
स्त्रीवादी साहित्यालोचना का लक्ष्य है समाज में पुंसवादी प्रभुत्व की समाप्ति करना। पुंसवादी संस्कृति की संरचना को ध्वस्त करना। संस्कृति की संरचनाओं कलाएं, धर्म, कानून, एकल परिवार, पिता और राष्ट्र-राज्य के असीमित अधिकार आते हैं, वे सभी इमेज, संस्थाएं, संस्कार और आदतें आती हैं, जो यह बताती हैं कि औरत किसी काम की नहीं होती, अर्थहीन है, अदृश्य है। माया है।
स्त्रीवादी साहित्यालोचना के इस लक्ष्य को हासिल करने का हिंदुस्तान में क्या तरीका हो सकता है? इसके बारे में एक जैसी रणनीति अपनाना संभव नहीं है। हिंदुस्तान में सामाजिक वैविध्य और स्त्रीचेतना के अनेक स्तरों को मद्देनजर रखते हुए संवाद और संघर्ष के रास्ते पर साथ-साथ चलना होगा। इस क्रम में त्याग और ग्रहण की पद्धति अपनानी होगी।
स्त्रीवादी साहित्यालोचना को प्रचलित साहित्यालोचना में कुछ हेरफेर करने बाद निर्मित नहीं किया जा सकता। इसके लिए समाज के प्रति बुनियादी रवैयया बदलना होगा। परंपरागत दृष्टियों को ऊपरी फेरबदल के साथ स्त्रीवादी हितों के पक्ष में रूपांतरित नहीं किया जा सकता। स्त्रीवादी साहित्यालोचना क्रांतिकारी साहित्यालोचना है। उसका लक्ष्य है प्रचलित और प्रभुत्व बनाकर बैठे आलोचना स्कूलों को चुनौती देना, उन्हें अपदस्थ करना। प्रभुत्ववादी विमर्शों को चुनौती देना, उन्हें अपदस्थ करना। सभी किस्म के विमर्शों में स्त्रीवादी नजरिये से हस्तक्षेप करना। स्त्रीवादी साहित्यालोचना की हिमायत करना, उसे विस्तार देने का काम सिर्फ औरतों का ही नहीं है बल्कि इसमें पुरुषों को भी शामिल किया जाना चाहिए। स्त्री का संघर्ष सिर्फ स्त्री का नहीं उसमें पुरुषों की भी समान हिस्सेदारी होनी चाहिए।
स्त्रीवादी साहित्यालोचना में मर्दवादी नजरिये से यदि पुरुष समीक्षक दाखिल होते हैं तो वे स्त्रीवादी साहित्यालोचना का विकास नहीं कर सकते, ऐसे समीक्षकों को स्त्रीवादी समीक्षक कहना मुश्किल है। हिंदी में यह फैशन चल निकला है कि अब हरेक मर्दवादी समीक्षक स्त्री विषय पर हाथ भांज रहा है। हिंदी की साहित्यिक पत्रिकाओं में इस तरह के फैशनपरस्त या जिज्ञासु आलोचकों में अनेक मर्द संपादक और आलोचक हैं। स्त्रीवादी साहित्यालोचना का विकास मर्द समीक्षकों द्वारा फैशन, सहानुभूति या जिज्ञासा के आधार पर नहीं किया जा सकता। बल्कि इसके लिए क्रांतिकारी रवैये की ज़रूरत है। अभी तक जिन मर्दों ने स्त्रीवादी साहित्यालोचना में योगदान किया है, उनका किसी न किसी रूप में क्रांतिकारी संघर्षों, क्रांतिकारी विमर्श, आमूल परिवर्तनकामी आलोचना परंपरा से संबंध रहा है। ये लोग स्त्रीवादी नजरिये के परिवर्तनकामी रूझानों के पक्षधर रहे हैं। वे मानते हैं कि स्त्रीवादी नजरिया प्रत्येक किस्म के उत्पीड़न, शोषण, अन्याय आदि का सख्त विरोधी है। जिन पुरुषों ने स्त्रीवादी साहित्यालोचना के पक्ष में लिखा है, उनमें प्रतिबद्धता का गहरा भाव रहा है। उन्होंने जिज्ञासावश नहीं लिखा।
हिंदी में स्त्री आलोचना में जो मर्द दाखिल हो रहे हैं वे फैशन के नाम पर आ रहे हैं। उनका साहित्य के क्रांतिकारी विमर्श, समाज के क्रांतिकारी संघर्षों और विचारधाराओं से कोई संबंध नहीं है। ऐसे मर्द समीक्षकों को स्त्रीवादी विमर्श अपना अंग नहीं मानता। स्त्रीवादी साहित्यालोचना के अंदर स्त्रियां उन्हीं पुरुषों को स्वीकार करने को तैयार हैं, जो स्त्री के अधिकारों और स्त्रीवादी नजरिये के प्रति पूरी तरह प्रतिबद्ध हैं, आमूल सामाजिक परिवर्तन के पक्षधर हैं। स्त्रीवादी साहित्यालोचना को सैद्धांतिक तौर पर वे मर्द स्वीकार्य हैं, जो सिद्धांतत: लिंग को आधार बनाकर समीक्षा का विकास कर रहे हों। स्त्री के अनुभवों को स्त्री के नजरिये से देखते हैं।
हिंदी में स्त्री के सवालों, समस्याओं, अनुभूति आदि को आलोचक मर्दवादी नजरिये से देखते हैं, इस तरह के लेखन की इन दिनों हिंदी में बाढ़ आयी हुई है। आज सारी दुनिया में स्त्रीवादी साहित्यालोचना के योगदान की कोई अनदेखी नहीं कर सकता। किंतु हिंदी में साहित्य सैद्धांतिकी में स्त्रीवादी सैद्धांतिकी का अध्ययन नहीं कराया जाता। स्त्रीवादी साहित्यालोचना पर विचार करते समय बुनियादी तौर पर यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि लिंग के रूप में पुंसवादी नजरिये की आलोचना का यह अर्थ नहीं निकालना चाहिए कि मर्द को स्त्री का शत्रु घोषित कर दिया जाए। पुरुष को शत्रु घोषित करने वाली मानसिकता मूलत: मर्दवाद के प्रत्युत्तर में पैदा हुआ ‘स्त्रीवादी आतंकवाद’ है। इसके दृष्टिकोण से मर्द केंद्रीय समस्या है। अत: उसे बिना शर्त्त स्त्री के आगे आत्मसमर्पण कर देना चाहिए। आतंकवादी नजरिया लिंगाधारित ध्रुवीकरण करता है, यह दृष्टिकोण अंतत: ऐसी स्थिति पैदा करता है कि मर्द या तो स्त्रीवाद की उपेक्षा करे या स्त्रीवाद पर हमला करे। इस दृष्टिकोण के शिकार लोग एक-दूसरे पर हमला बोलते रहते हैं। इससे स्त्री को कोई लाभ नहीं मिलता। ‘हंस’ के संपादकीय इस तरह के नजरिये से भरे पड़े हैं।
असल में ‘स्त्रीवाद आतंकवाद’ मर्दवाद का विलोम है। यह विभाजनकारी नजरिया है। समग्रता में स्त्रीवादी आतंकवादी नजरिये से स्त्री को कोई लाभ नहीं मिलता, समाज में मर्द के प्रभुत्व में कोई कमी नहीं आती। उलटे स्त्रीवाद के प्रति संशय पैदा करता है, स्त्री के सामाजिक और बौद्धिक स्पेस को संकुचित करता है।
स्त्रीवाद आस्था नही है, बल्कि स्त्री-सत्य की खोज का मार्ग है। अकादमिक जगत में स्त्रीवाद को जब तक पढ़ाया नहीं जाएगा, उसका ज्ञानात्मक प्रसार नहीं होगा। शिक्षकों का काम है स्त्रीवाद की शिक्षा देना, न कि स्त्रीवाद पैदा करना। स्त्रीवाद के पक्ष में जो लोग लिखते हैं, उन्हें अपने लिखे की आलोचना को विनम्रतापूर्वक ग्रहण करना चाहिए और उसकी रोशनी में अपने विचारों को और भी ज्यादा सुसंगत बनाने की कोशिश करनी चाहिए। यह देखा गया है कि जब भी किसी स्त्रीवादी विचारक की आलोचना हुई है, उसने इसे स्त्रीवाद पर हमला घोषित किया है। यह रवैया सही नहीं है। स्त्रीवाद के बारे में की गयी आलोचना वैचारिक विकास की प्रक्रिया का अंग है। उसे विनम्रतापूर्वक स्वीकार किया जाना चाहिए। स्त्रीवादी साहित्यालोचना का अकादमिक जगत में प्रवेश तब ही संभव है, जब उसे आस्था के रूप में पेश करने की बजाय नए परिवर्तनकामी विचार के रूप में पेश किया जाए। ( मोहल्ला लाइव से साभार)
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