Saturday, June 23, 2012

जनजाति समाज का मूल्यबोध कायमः जुएल उरांव


जनजातीय समाज के विविध मुद्दों तीन दिवसीय विमर्श का समापन भोपाल, 20 जून। आदिवासी नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री जुएल उरांव का कहना है कि जनजाति समाज में आज भी पारंपरिक भारतीय मूल्यबोध कायम है, जबकि विकसित कहे जाने वाले वर्गों में यह तेजी से कम हो रहा है। आज जरूरत इस बात की है कि जनजाति समाज को समर्थ बनाने के लिए ईमानदार प्रयास किए जाएं, इसके बाद हम अपने सवालों के हल खुद तलाश लेंगें। वे यहां माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, वन्या,आदिम जाति अनुसंधान एवं विकास संस्थान और वन साहित्य अकादमी की ओर से “जनजाति समाज एवं जनसंचार माध्यमः प्रतिमा और वास्तविकता” विषय पर रवींद्र भवन में आयोजित तीन दिवसीय संगोष्ठी के समापन सत्र में मुख्यवक्ता की आसंदी से बोल रहे थे। इस आयोजन में 22 प्रांतों से आए जनजातीय समाज के लगभग 140 लोग सहभागी हैं। जिनमें लगभग 45 जनजातियों के प्रतिनिधि शामिल हैं। देश के पहले अनुसूचित जनजाति मंत्री रहे उरांव ने कहा कि आखिर ये आधुनिक विकास और मुख्यधारा से जोड़ने की बातें हमें कहां ले जाएंगीं। आज का सबसे बड़ा सवाल हमारी पहचान और मूल्यों को बचाने का है। जिस तरह जनजातीय समाज को भारतीयता से काटने के प्रयास चल रहे हैं वह खतरनाक हैं। उनका कहना था कि नक्सली आतंकवाद में जनजातियों के लोग दोनों तरफ से पिस रहे हैं। बावजूद इसके हमें अपनी एकता और संगठन शक्ति पर भरोसा कर एक होना होगा। तेजी से सकारात्मक परिवर्तन होते दिख रहे हैं। एक नई सामाजिक पुर्नरचना खड़ी होती दिखने लगी है। अनूसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आयोग के पूर्व अध्यक्ष दिलीप सिंह भूरिया ने कहा कि इस विमर्श ने जनजातियों के सवालों को चर्चा के केंद्र में ला दिया है। विस्थापन, जीवन, सांस्कृतिक मूल्यबोध, पहचान और नक्सलवाद के प्रश्नों से जनजाति समाज घिरा है हमें इनके हल ढूंढने होंगें। उन्होंने सवाल किया कि आखिर अंग्रेजों से हमारी लड़ाई क्या थी यही कि वे हमारी पहचान को नष्ट करने के लिए एक अलग संस्कृति-पंथ, हमारी भाषाओं की जगह दूसरी भाषा ला रहे थे और शोषण कर रहे थे। यही हालात आज फिर से पैदा हो गए हैं। इसीलिए जंगल फिर से अशांत हो उठे हैं। उन्होंने कहा कि वनवासियों ने मातृशक्ति का आदर करते हुए बेटियों को बचाया है ,इसलिए शेष समाज से यहां बेटियां ज्यादा हैं और सुरक्षित हैं। कार्यक्रम के मुख्यअतिथि प्रदेश के उच्चशिक्षा एवं जनसंपर्क मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा ने कहा कि विश्वविद्यालयों के द्वारा ऐसे विमर्शों के आयोजन से एक नई चेतना और समझ का विकास हो रहा है। जनजातीय समाज के समग्र विकास के लिए सामूहिक एवं ईमानदार प्रयासों की जरूरत है। उनका कहना था कि जनजातीय समाज के नेतृत्व और समाज के जागरूक लोगों को यह प्रयास करना होगा कि योजनाओं का वास्तविक लाभ कैसे आम लोगों तक पहुंचे। विकास की चाबी जिनके पास है उनकी ईमानदारी सबसे महत्वपूर्ण है। उन्होंने बताया कि राज्य शासन जनजातीय समाज की पहचान को संरक्षित करने के लिए भोपाल में एक जनजातीय संग्रहालय की स्थापना कर रहा है जिसमें देश भर की वनवासी संस्कृति के अक्स देखने को मिलेगें। कार्यक्रम का विषय प्रवर्तन करते हुए कुलपति प्रो.बृजकिशोर कुठियाला ने कहा कि एक बेहद समृद्ध मानव संस्कृति के विषय में शिक्षा परिसरों में तथा पाठ्यपुस्तकों में जो भ्रम फैलाया जा रहा है यह उसे तोड़ने का समय है। उन्होंने कहा कि जनजाति समाज में होने वाली त्रासदी से ही खबरें बनती हैं। जबकि जनजातियों के सही प्रश्न मीडिया में जगह नहीं पाते। उनका कहना था कि मीडिया ने अनेक अवसरों पर सार्थक अभियान हाथ में लिए है, यह समय है कि उसे जनजातियों के सवालों को जोरदार तरीके से अभिव्यक्ति देनी चाहिए। क्योंकि देश की इतनी बड़ी आबादी की उपेक्षा कर हम भारत को विश्वशक्ति नहीं बना सकते। मीडिया का दायित्व है कि वह जनजातियों की वास्तविक आकांक्षाओं के प्रगटीकरण का माध्यम बने। सत्र की अध्यक्षता करे हिमाचल प्रदेश के पूर्व राज्यपाल न्यायमूर्ति विष्णु सदाशिव कोकजे ने कहा कि समाज के बीच संवाद से सारी समस्याएं हल हो जाएंगी, क्योंकि ये सारे संकट संवादहीनता के चलते ही पैदा हुए हैं। उनका कहना था कि जनसंचार माध्यम इस दिशा में एक बड़ी भूमिका निभा सकते हैं। जनजातियों की वर्तमान स्थिति और आवश्यकता का चिंतन जरूरी है और उसके अनुरूप योजनाएं बनाने की आवश्यक्ता है। कार्यक्रम में राज्य अनूसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष रामलाल रौतेल, वन्या के संचालक श्रीराम तिवारी, वन साहित्य अकादमी के समन्वयक हर्ष चौहान ने भी अपने विचार व्यक्त किए। संचालन वरिष्ठ पत्रकार जगदीश उपासने ने किया। इसके पूर्व आर्यद्रविड़ संघर्ष और जीनोटोमी, जनजाति वैश्विक परिदृश्यःमूल निवासी एवं भारत, संविधान-न्यायिक निर्णय एवं जनगणना के सत्रों में सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता भूपेंद्र यादव, डा. जितेंद्र बजाज,श्याम परांडे, जलेश्वर ब्रम्ह, विराग पाचपोर, कल्याण भट्टाचार्य, अशोक घाटगे, लक्ष्मीनारायण पयोधि आदि ने अपने विचार व्यक्त किए। सत्रों का संचालन दीपक शर्मा, डा. आरती सारंग एवं डा. पी. शशिकला ने किया।

वेदों की संस्कृति को जीता है जनजाति समाजः नंदकुमार साय


राष्ट्रीय सेमीनार में जनजातीय समाज के विविध मुद्दों पर चर्चा जारी, पढ़े जा रहे शोधपत्र भोपाल, 19 जून। आदिवासी नेता और सांसद नंदकुमार साय का कहना है कि जनजाति समाज के लोग ही भारत की मूल संस्कृति, परंपराओं और धर्म के वाहक हैं। जनजाति समाज आज भी वेदों में वर्णित संस्कृति को ही जी रहा है। इसलिए यह कहना गलत है कि वे भारतीय परंपराओं से किसी भी प्रकार अलग हैं। वे यहां माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, वन्या,आदिम जाति अनुसंधान एवं विकास संस्थान और वन साहित्य अकादमी की ओर से “जनजाति समाज एवं जनसंचार माध्यमः प्रतिमा और वास्तविकता” विषय पर रवींद्र भवन में आयोजित तीन दिवसीय संगोष्ठी के खुला सत्र में अध्यक्ष की आसंदी से बोल रहे थे। इस आयोजन में 22 प्रांतों से आए जनजातीय समाज के लगभग 140 लोग सहभागी हैं तथा विविध विषयों पर संगोष्ठी में लगभग 105 शोध पत्र पढ़े जाएंगें। उन्होंने कहा कि राम के साथ वनवासी समाज ही था, जिसने रावण के आतंक से दण्डकारण्य को मुक्त कराया। देश के सभी स्वातंत्र्य समर में वनवासी बंधु ही आगे रहे। वनवासी सही मायने में सरल, भोले और वीर हैं। वे इस माटी के वरद पुत्र हैं और अपने कर्तव्य निर्वहन के लिए सदा प्राणों की आहुति देते आए हैं। उनका कहना था हमें अपने समाज से शराबखोरी जैसी की कमियों को दूर कर एकजुट होना होगा। क्योंकि इस देश की संस्कृति, सभ्यता और धर्म को बचाने की जिम्मेदारी हमारी ही है। श्री साय ने कहा कि देश के तमाम वनवासी क्षेत्र नक्सलवाद की चुनौती से जूझ रहे हैं, अगर वनवासी समाज के साथ मिलकर योजना बनाई जाए तो कुछ महीनों में ही इस संकट से निजात पाई जा सकती है। उन्होंने कहा कि नक्सलवाद एक संगठित आतंकवाद है इससे जंग जीतकर ही हम भारत को महान राष्ट्र बना सकते हैं। इस सत्र में प्रमुख रूप से शंभूनाथ कश्यप, संगीत वर्मा, इदै कौतुम, मधुकर मंडावी, कविराज मलिक ने अपने विचार व्यक्त किए। सत्र का संचालन विष्णुकांत ने किया। इसके पूर्व “जनजातियां, जीवन दर्शन, आस्थाएं, देवी देवता, जन्म से मृत्यु के संस्कार और सृष्टि की उत्पत्ति” के सत्र में डा. कृष्णगोपाल (गुवाहाटी) ने अपने संबोधन में कहा कि उत्तर पूर्व राज्यों में करीब 220 जनजातियां हैं। कभी किसी ने एक दूसरे की आस्था व परंपराओं का अतिक्रमण नहीं किया। जनजातियों की प्रकृति पूजा, सनातन धर्म का ही रूप है। अंग्रेजी लेखकों व इतिहासकारों ने इनको भारतीयता से काटने के लिए सारे भ्रम फैलाए। भारतीय जनजातियां सनातन धर्म की प्राचीन वाहक हैं, उनमें सबको स्वीकारने का भाव है। उनके इस पारंपरिक जुड़ाव को तोड़ने के लिए सचेतन प्रयास किए जा रहे हैं जिसे रोकना होगा। इस सत्र में डा. राजकिशोर हंसदा, सेर्लीन तरोन्पी, थुन्बुई जेलियाड, डपछिरिंड् लेपचा, डा.श्रीराम परिहार, आशुतोष मंडावी, डा. आजाद भगत, डा. नारायण लाल निनामा ने भी अपने पर्चे पढ़े। सत्र की अध्यक्षता डा. मनरुप मीणा ने की। जनजाति समाज और मीडिया पर केंद्रित सत्र में मीडिया और वनवासी समाज के रिश्तों पर चर्चा हुयी। इस सत्र की अध्यक्षता कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने की। अपने संबोधन में श्री कुठियाला ने कहा कि मीडिया हर जगह राजनीति की तलाश करता है। जीवनदर्शन, विस्थापन, समस्याएं आज इसके विषय नहीं बन रहे हैं। मीडिया के काम में समाज का सक्रिय हस्तक्षेप होना चाहिए क्योंकि इस हस्तक्षेप से ही उसमें जवाबदेही का विकास होगा। एक सक्रिय पाठक और दर्शक ही जिम्मेदार मीडिया का निर्माण कर सकते हैं। वरिष्ठ पत्रकार और नवदुनिया के संपादक गिरीश उपाध्याय ने कहा कि मीडिया नगरकेंद्रित होता जा रहा है और वह उपभोक्ताओं की तलाश में है। बावजूद इसके उसमें काफी कुछ बेहतर करने की संभावनाएं और शक्ति छिपी हुयी है। दिल्ली से आए वरिष्ठ पत्रकार राजकुमार भारद्वाज ने कहा कि किसानों और वनवासी खबरों में तब आते हैं जब वे आत्महत्या करें या भूख से मर जाएं। जनजातियों की रिपोर्टिंग को लेकर ज्यादा सजगता और अध्ययन की जरूरत है। डा. पवित्र श्रीवास्तव ने कहा कि जनजातियों के बारे में जो भी जैसी धारणा बनी है वह मीडिया के चलते ही बनी है। मीडिया ही इस भ्रम को दूर कर सकता है। सत्र का संचालन प्रो. आशीष जोशी ने किया।

Monday, June 18, 2012

जनजातियों की उपेक्षा कर विश्वशक्ति कैसे बनेगा भारतः प्रो. कुठियाला

जनजातियों के सामने अस्मिता व पहचान के सवाल सबसे अहम भोपाल,18 जून। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो.बृजकिशोर कुठियाला का कहना है कि देश की लगभग 10 करोड़ जनसंख्या वाला जनजातीय समाज भारत में स्वतंत्रता से पूर्व से उपेक्षित रहा है। परन्तु पिछले 65 वर्षों में भी इस समाज को मुख्यधारा से समरस करने में सफलता प्राप्त नहीं हुई है। वे यहां पत्रकारिता विश्वविद्यालय, वन्या,आदिम जाति अनुसंधान एवं विकास संस्थान और वन साहित्य अकादमी की ओर से “जनजाति समाज एवं जनसंचार माध्यमः प्रतिमा और वास्तविकता” विषय पर रवींद्र भवन में आयोजित तीन दिवसीय संगोष्ठी में अध्यक्ष की आसंदी से बोल रहे थे। इस आयोजन में 22 प्रांतों से आए जनजातीय समाज के लगभग 140 लोग सहभागी हैं तथा विविध विषयों पर संगोष्ठी में लगभग 105 शोध पत्र पढ़े जाएंगें। उन्होंने सवाल किया कि क्या भारत इस 10 प्रतिशत जनसंख्या की उपेक्षा करके विश्वशक्ति बन सकता है? प्रो. कुठियाला ने कहा कि पूरी दुनिया को एक रंग में रंग देने की अधिनायकवादी मानसिकता रखने वाली विचारधारा ने ही यह स्थापित करने का प्रयास किया कि ‘धर्म’ वही है जो उनका ‘धर्म’ है। ‘विश्वास’ वही है जो उनका ‘विश्वास’ है। इसी अवधारणा से उन्होंने अपनी आस्था से पहले व्यापारिक शक्ति बढ़ाई फिर राजनीतिक और प्रशासनिक शक्ति हासिल की। यह एक ऐसा षडयंत्र था जिसका पर्दाफाश होना जरूरी है। हमें अपनी संस्कृति को देखने के लिए पश्चिम की आंखें नहीं चाहिए बल्कि अपनी आंखों से हमें अपने गौरवशाली इतिहास को देखना होगा। जनजातीय समाज की जैसी छवि पश्चिम के बुद्धिजीवियों द्वारा बनाई गयी वह एक विकृत छवि है। जबकि हमें जनजातियों से शेष समाज के रिश्तों को पुनः पारिभाषित करने की जरूरत है। जब संवाद बनेगा तो बहुत सारे संकट स्वतः हल होते नजर आएंगें। उन्होंने कहा कि जनजातीय समाज को लेकर मीडिया को एक अभियान चलाना चाहिए जिसमें जनजातीय समाज के प्रश्नों पर सार्थक संवाद हो सके और उनकी समस्याओं व विशेषताओं पर विमर्श हो। उन्होंने कहा कि प्राचीन भारतीय समाज में जनजातीय समाज का बहुत आदर था, सहसंबंध थे, सुसंवाद था और वे शेष समाज से सदा समरस रहे हैं, लेकिन आधुनिक ज्ञान-विज्ञान व विदेशी विचारों ने हमें भटकाव भरे रास्ते पर डाल दिया है। कार्यक्रम के मुख्यअतिथि लेखक एवं मुख्यमंत्रीःमप्र सरकार के विशेष सचिव मनोज श्रीवास्तव ने कहा कि हमें यह याद करने की जरूरत है कि आजादी की पहली लड़ाईयां तो आदिवासी संतों ने लड़ीं। यह लड़ाईयां सही मायने में स्वाभिमान, पहचान, और आत्मछवि के लिए लड़ी गयीं। एक शांतिप्रिय समाज अपनी स्वायत्तता और पहचान के बचाए और बनाए रखने के लिए ही विद्रोह करता है। मिशनरियों द्वारा थोपे जा रहे विचारों के प्रतिरोध में ये सारे संधर्ष हुए। हम ध्यान से देखें तो पूरा उपनिवेशवाद मतांतरण की एक प्रक्रिया ही था जिसके नाते जगह-जगह आदिवासी संतों ने प्रतिरोध किया। क्योंकि उन्हें यह बताने की कोशिशें हो रहीं थीं कि तुम्हारा कोई धर्म नहीं है। भारत की विशेषता रही विविधताओं को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा किया गया और उनमें संघर्ष खड़ा करने की कोशिशें हुयीं। उनका कहना था कि हम संघर्ष के सबक व जरूरी पाठ भूल गए हैं। मनोज श्रीवास्तव ने कहा कि आज की मीडिया कवरेज से जनजातियां बाहर हैं, अगर हैं तो उन्हें कौतुक व कौतुहल जगाने के लिए ही दिखाया व बताया जाता है। सही मायने में वे हमारी प्राथमिकताओं से भी बाहर हैं क्योंकि मीडिया एक ‘नया जनजातिवाद’ रच रहा है जिसमें वास्तविक आदिवासी लगभग निर्वासित हो चुके हैं। कार्यक्रम के मुख्यवक्ता वनवासी कल्याण आश्रम के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष जगदेव राम उरांव ने कहा कि पुराने संदर्भों के आधार पर धारणाएं बनी हैं। भारतीय समाज आपस में जुड़ा हुआ है, उसकी एकांतिक पहचान नहीं बन सकती। संवाद व सहकार की धाराएं आपस में बनी हुयी हैं। जड़ों से कटना कठिन है। यही अस्मिताबोध है। बांटने की कोशिशों के खिलाफ खड़ा होना होगा। मुक्तिवादी चिंतन ठीक नहीं है, हम कहां-कहां तक मुक्त होंगें। उनका कहना था विविधताएं ही हमारी संस्कृति का आकर्षण हैं, इसे अलगाव मानना भारी भूल है। कार्यक्रम का विषय प्रवर्तन करते हुए सामाजिक कार्यकर्ता विष्णुकांत ने कहा कि जनजातियों की स्थापित छवि को बदलने की जरूरत है। मीडिया को उनकी वास्तविक छवि और समस्याओं को उठाना चाहिए। छवि निर्माण क्योंकि मीडिया का काम है इसलिए उसे जनजातियों की श्रेष्ठ परंपराओं, प्रकृति-पर्यावरण के साथ उनके रिश्तों को बताना चाहिए। जनजातियों को लेकर पुर्नलेखन,पुर्नव्याख्या, पुर्नमूल्यांकन की जरूरत है जो जनजातीय समाज के लोगों के साथ मिलकर होना चाहिए। हमें ध्यान देना होगा कि आज जनजातियों के सामने उनकी अस्मिता व पहचान के सवाल ही महत्वपूर्ण हैं। संचालन प्रो.रामदेव भारद्वाज ने किया तथा आभार दीपक शर्मा ने व्यक्त किया। कार्यक्रम के आरंभ में श्रीराम तिवारी,लक्ष्मीनारायण पयोधि ने अतिथियों का स्वागत किया। कार्यक्रम में हिमाचल प्रदेश के पूर्व राज्यपाल न्यायमूर्ति विष्णु सदाशिव कोकजे, अनुसूचित जाति एवं अनूसूचित जनजाति आयोग के पूर्व अध्यक्ष दिलीप सिंह भूरिया, मप्र भाजपा के पूर्व अध्यक्ष एवं राज्यसभा के सदस्य नंदकुमार साय, विवेकानंद केंद्र, कन्याकुमारी की उपाध्यक्ष निवेदिता भिड़े, पत्रकार जगदीश उपासने, राजकुमार भारद्वाज सहित अनेक प्रमुख लोग सहभागी हैं। आयोजन का समापन 20 जून को दोपहर 2.30 बजे होगा। समापन समारोह के मुख्यअतिथि प्रदेश के उच्चशिक्षा एवं जनसंपर्क मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा होंगें तथा मुख्यवक्ता के रूप में पूर्व केंद्रीय मंत्री जुएल उरांव उपस्थित रहेंगें।

Thursday, June 7, 2012

“वो जो बाजार के खिलाड़ी हैं तेरा हर ख्वाब बेच डालेंगें”

पत्रकारिता विश्वविद्यालय में गूंजी तहसीन मुनव्वर की शायरी भोपाल, 7 जून। देश के जाने माने शायर, वरिष्ठ पत्रकार एवं एंकर तहसीन मुनव्वर गुरूवार को माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में सुने गए। इस अवसर पर कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने तहसीन मुनव्वर को शाल-श्रीफल देकर उनका सम्मान भी किया। अपने अंदाजे बयां, शेरो-शायरी और गजलों से तहसीन ने ऐसा समां बांधा कि लोग वाह- वाह कर उठे। तहसीन मुनव्वर ने वर्तमान समय पर कुछ इस तरह टिप्पणी की- वो जो बाजार के खिलाड़ी हैं तेरा हर ख्वाब बेच डालेंगें। उन्होंने एक अन्य टिप्पणी इस तरह की- ये किसने आग सी भर दी है मेरे सीने में मैं कुछ भी लिखता हूं तहरीर जलने लगती है। अपनी रचना प्रक्रिया और लेखन के प्रति अपने नजरिये को जाहिर करते हुए उन्होंने पढ़ा- लोग तो सेब से गालों पे गजल लिखते हैं और हम सूखे निवालों पे गजल कहते हैं। इस अवसर पर उन्होंने युवा मन के प्रेम, मां, कृष्ण, देशभक्ति पर भी रोचक पंक्तियां पढ़कर श्रोताओं की दाद ली। अखबार और समाज से उसके रिश्तों पर उन्होंने कहा- अब क्या खबरें रोकेगा अब खुद ही अखबार हैं लोग। इस अवसर साहित्यकार डा. विजयबहादुर सिंह ने तहसीन की रचना प्रक्रिया पर टिप्पणी करते हुए कहा कि कोई भी शायर जाति, मजहब या किसी भी राजनीति से प्रेरित हो वह हमेशा मनुष्यता की बात करता है। उसकी शायरी लोगों के दर्द और इंसानियत के साथ खड़ी मिलती है। उनका कहना था आज संघर्ष आदमियत और राजनीति के बीच में है, जहां तहसीन की शायरी आम आदमी के साथ खडी दिखती है। उनकी शायरी में सादगी और गहराई है जो आदमी को आदमी के करीब लाती है। कार्यक्रम की अध्यक्षता विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो.बृजकिशोर कुठियाला ने की। आयोजन में मौलाना आजाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी के रीडर एहतेशाम अहमद, भारतीय जनसंचार संस्थान के पूर्व रजिस्ट्रार जेड् यू हक, वरिष्ठ पत्रकार रमेश शर्मा, रामभुवन सिंह कुशवाह, सुरेश शर्मा, डा. महेश परिमल, अजय त्रिपाठी, मनोज कुमार, अक्षत शर्मा, विजयमनोहर तिवारी, डा. मेहताब आलम, वेदव्रत गिरी, अजीत सिंह, राजू कुमार, अतुल पाठक, कला समीक्षक विनय उपाध्याय, सीके सरदाना, प्रकाश साकल्ले, जीके छिब्बर सहित पत्रकारिता विश्वविद्यालय के प्राध्यापक एवं विद्यार्थी मौजूद थे। अतिथियों का स्वागत रजिस्ट्रार डा. चंदर सोनाने ने किया। संचालन जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने किया।