राष्ट्रीय सेमीनार में जनजातीय समाज के विविध मुद्दों पर चर्चा जारी, पढ़े जा रहे शोधपत्र
भोपाल, 19 जून। आदिवासी नेता और सांसद नंदकुमार साय का कहना है कि जनजाति समाज के लोग ही भारत की मूल संस्कृति, परंपराओं और धर्म के वाहक हैं। जनजाति समाज आज भी वेदों में वर्णित संस्कृति को ही जी रहा है। इसलिए यह कहना गलत है कि वे भारतीय परंपराओं से किसी भी प्रकार अलग हैं। वे यहां माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, वन्या,आदिम जाति अनुसंधान एवं विकास संस्थान और वन साहित्य अकादमी की ओर से “जनजाति समाज एवं जनसंचार माध्यमः प्रतिमा और वास्तविकता” विषय पर रवींद्र भवन में आयोजित तीन दिवसीय संगोष्ठी के खुला सत्र में अध्यक्ष की आसंदी से बोल रहे थे। इस आयोजन में 22 प्रांतों से आए जनजातीय समाज के लगभग 140 लोग सहभागी हैं तथा विविध विषयों पर संगोष्ठी में लगभग 105 शोध पत्र पढ़े जाएंगें।
उन्होंने कहा कि राम के साथ वनवासी समाज ही था, जिसने रावण के आतंक से दण्डकारण्य को मुक्त कराया। देश के सभी स्वातंत्र्य समर में वनवासी बंधु ही आगे रहे। वनवासी सही मायने में सरल, भोले और वीर हैं। वे इस माटी के वरद पुत्र हैं और अपने कर्तव्य निर्वहन के लिए सदा प्राणों की आहुति देते आए हैं। उनका कहना था हमें अपने समाज से शराबखोरी जैसी की कमियों को दूर कर एकजुट होना होगा। क्योंकि इस देश की संस्कृति, सभ्यता और धर्म को बचाने की जिम्मेदारी हमारी ही है। श्री साय ने कहा कि देश के तमाम वनवासी क्षेत्र नक्सलवाद की चुनौती से जूझ रहे हैं, अगर वनवासी समाज के साथ मिलकर योजना बनाई जाए तो कुछ महीनों में ही इस संकट से निजात पाई जा सकती है। उन्होंने कहा कि नक्सलवाद एक संगठित आतंकवाद है इससे जंग जीतकर ही हम भारत को महान राष्ट्र बना सकते हैं। इस सत्र में प्रमुख रूप से शंभूनाथ कश्यप, संगीत वर्मा, इदै कौतुम, मधुकर मंडावी, कविराज मलिक ने अपने विचार व्यक्त किए। सत्र का संचालन विष्णुकांत ने किया।
इसके पूर्व “जनजातियां, जीवन दर्शन, आस्थाएं, देवी देवता, जन्म से मृत्यु के संस्कार और सृष्टि की उत्पत्ति” के सत्र में
डा. कृष्णगोपाल (गुवाहाटी) ने अपने संबोधन में कहा कि उत्तर पूर्व राज्यों में करीब 220 जनजातियां हैं। कभी किसी ने एक दूसरे की आस्था व परंपराओं का अतिक्रमण नहीं किया। जनजातियों की प्रकृति पूजा, सनातन धर्म का ही रूप है। अंग्रेजी लेखकों व इतिहासकारों ने इनको भारतीयता से काटने के लिए सारे भ्रम फैलाए। भारतीय जनजातियां सनातन धर्म की प्राचीन वाहक हैं, उनमें सबको स्वीकारने का भाव है। उनके इस पारंपरिक जुड़ाव को तोड़ने के लिए सचेतन प्रयास किए जा रहे हैं जिसे रोकना होगा। इस सत्र में डा. राजकिशोर हंसदा, सेर्लीन तरोन्पी, थुन्बुई जेलियाड, डपछिरिंड् लेपचा, डा.श्रीराम परिहार, आशुतोष मंडावी, डा. आजाद भगत, डा. नारायण लाल निनामा ने भी अपने पर्चे पढ़े। सत्र की अध्यक्षता डा. मनरुप मीणा ने की।
जनजाति समाज और मीडिया पर केंद्रित सत्र में मीडिया और वनवासी समाज के रिश्तों पर चर्चा हुयी। इस सत्र की अध्यक्षता कुलपति
प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने की। अपने संबोधन में श्री कुठियाला ने कहा कि मीडिया हर जगह राजनीति की तलाश करता है। जीवनदर्शन, विस्थापन, समस्याएं आज इसके विषय नहीं बन रहे हैं। मीडिया के काम में समाज का सक्रिय हस्तक्षेप होना चाहिए क्योंकि इस हस्तक्षेप से ही उसमें जवाबदेही का विकास होगा। एक सक्रिय पाठक और दर्शक ही जिम्मेदार मीडिया का निर्माण कर सकते हैं। वरिष्ठ पत्रकार और नवदुनिया के संपादक
गिरीश उपाध्याय ने कहा कि मीडिया नगरकेंद्रित होता जा रहा है और वह उपभोक्ताओं की तलाश में है। बावजूद इसके उसमें काफी कुछ बेहतर करने की संभावनाएं और शक्ति छिपी हुयी है। दिल्ली से आए वरिष्ठ पत्रकार
राजकुमार भारद्वाज ने कहा कि किसानों और वनवासी खबरों में तब आते हैं जब वे आत्महत्या करें या भूख से मर जाएं। जनजातियों की रिपोर्टिंग को लेकर ज्यादा सजगता और अध्ययन की जरूरत है।
डा. पवित्र श्रीवास्तव
ने कहा कि जनजातियों के बारे में जो भी जैसी धारणा बनी है वह मीडिया के चलते ही बनी है। मीडिया ही इस भ्रम को दूर कर सकता है। सत्र का संचालन प्रो. आशीष जोशी ने किया।
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