Monday, May 31, 2010

कैसे हो नेपाल का नव-निर्माण


-पवित्रा भंडारी

28 मई 2008 को नेपाल में 240 वर्षों से चली आ रही राजशाही समाप्त हो गई और देश की संविधान सभा ने वह प्रस्ताव पारित किया जिसमें देश को धर्मनिरपेक्ष, संघीय लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित किया गया। पिछले डेढ़ दशक से राजशाही के शिकंजे में बँधे नेपाल के लिए उसका गणतंत्र होना बहुत बड़ी उपलब्धि है। नेपाल में लोकतंत्र प्राप्ति की तैयारी तो 1990 से ही हो चुकी थी। कई सक्रिय संगठनों , जन आन्दोलनों और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल अर्थात् माओवादियों ने इस संघर्ष में विशेष भूमिका निभाई ।यह एक ऐसा समय था जिसमें लोकतंत्र के प्रति वहाँ के लोगों में जागरूकता बढ़ी। वर्ष 2001 के शाही हत्याकांड ने लोगों की सोच को बदल कर रख दिया। अब लोगों का राजशाही पर से विश्वास उठने लगा। नेपाल नरेश ज्ञानेंद्र ने भी लोगों के विश्वास को तोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी। वर्ष 2006 में हुए जनआंदोलन ने नेपाल नरेश ज्ञानेंद्र की निरंकुशता का दमन कर दिया ।इस प्रकार राजा के प्रति सामान्य नेपाली जनता का तो मोह भंग हुआ ही साथ ही साथ राजा व राजनीतिक दलों के बीच भी लगातार खाई बढ़ती गई।
इस प्रकार के कई उतार चढ़ाव के बाद माओवादियों ने दबाव की राजनीति अपनाकर नेपाल को संविधान सभा के चुनावों तक पहुँचा दिया। फलस्वरुप अप्रैल 2008 में नेपाल में संविधान सभा के चुनाव हुए । इस प्रकार 28 मई 2008 को नेपाल गणतंत्र घोषित हो गया। परंतु गणतंत्र घोषित करने से ज्यादा आवश्यक है गणतंत्रीय व्यवस्था को क्रियान्वित करना। लेकिन नेपाल का दुर्भाग्य यह है कि राजतंत्र के खात्मे के बाद शुरु हुआ लोकतांत्रिक प्रयोग सफलता और असफलता के बीच झुलता गया । नेपाली राजनेताओं ने सत्ता की भूख मिटाने के लिए गणतंत्र को गन-तंत्र में बदलने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। नेपाली राजनेताओं के बीच हो रही सत्ता की लड़ाई को देखकर तो यही अनुमान लगाया जा सकता है कि यदि इस आंतरिक उथल-पुथल का कोई हल नहीं निकला तो देश को गृहयुद्ध की स्थिति से जुझना पड़ सकता है। नेपाल सरकार को समझना होगा कि किसी भी देश की राजनीतिक अस्थिरता देश के विकास में बाधा पहुँचाती है। इस बात में कोई दो राय नहीं कि नेपाल की सरकार को शुरुआत से ही कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा है, सबसे पहले शांतिपूर्ण चुनाव ,फिर संविधान सभा का गठन और अब संविधान-निर्माण। लेकिन नेपाल सरकार के समक्ष आज जो सबसे बड़ी चुनौती है, नेपाल को गरीबी और हिंसा के दलदल से उबारना। नेपाल सरकार को इसे चुनौती के रूप में नहीं अपितु एक बड़ी जिम्मेदारी के रुप में स्वीकारना होगा।
नेपाल के विकास के लिए नेपाल सरकार को हर संभव प्रयास करने होगें जिससे कि देश अविकसित देशों की श्रेणी से बाहर निकल सके । वहाँ की 90 प्रतिशत जनसंख्या जो ग्रामीण क्षेत्रों में रहती हैं उनकी मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करना होगा । देश में शिक्षा एवं रोजगार का विकास करना होगा । लोग शिक्षित होगें तो जागरूक होगें और देश के विकास में परस्पर योगदान देंगे। देश में बाल मज़दूरी और वेश्यावृत्ति का कारण गरीबी है। लगभग 9 मिलियन लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं। इन लोगों को गरीबी के शिकंजे से बाहर निकालना नेपाल सरकार का पहला ध्येय होना चाहिए। विकास के क्षेत्र में आर्थिक व प्रशासनिक व्यवस्था को सुदृढ़ किया जाना एक महत्तवपूर्ण मुद्दा है।नेपाल के नव-निर्माण में आधारशिला का काम करेगा वहाँ का संविधान। एक बहुल समाज में संविधान एक बहुत बड़ी भूमिका निभाता है। नेपाल में लोकतंत्र की एक ठोस नींव रखने के लिए एक ऐसा संविधान लिखना होगा जो नेपाली जन मानस को एक सूत्र में बाँधता हो। ऐसा संविधान जो हर नेपाली नागरिक को नेपाली होने का गौरव प्रदान करता हो और अपने देश के प्रति देश-प्रेम की भावना को जागृत करे। ऐसे संविधान का निर्माण नेपाल के राजनीतिक दलों की एकता और प्रतिबद्धता पर निर्भर करती है। अत: नेपाल में स्थायी शांति और राजनीतिक स्थिरता की कामना करते हुए यही कहा जा सकता है कि नेपाल को इस समय ऐसे नेता की जरूरत है जो दूरदर्शी हो, जिसका ध्येय न सिर्फ सत्ता पाना हो अपितु सत्ता का संचालन सही ढंग से करते हुए देश का सर्वांगिण विकास करना हो।

Saturday, May 22, 2010

आ भी जाओ सावन


-अन्नी अंकिता

मन आज उदास है.....

आसमान की ओर देखकर कह रहा है....

सावन तुम कब आओगे..?

तुम्हारे इतंजार में तड़प रही है धरती

सूख गए हैं बगीचे

हरियाली को तरस रही आँखे

नदियों तालाबों पोखरों को जरूरत है तुम्हारी

निभाओं अपनी सच्ची दोस्ती, करो इनकी काया शीतल

आँखे सूझ गयी तुम्हारें इतंजार में

आस लगाएँ है सभी तुम्हारे झलक के लिए

लो मत इतनी परीक्षा अपनों की

इतनी भी क्या नाराजगी हमसे

तुम आना नहीं चाहते हमारे पास।


तुम्हारें मोतियों के एहसास याद आ रहे है

उन यादों में सिमटी है जिंदगी के प्यारे लम्हें

उन लम्हों को फिर से जीना चाहता है ये मन

लौटना चाहता है, उस पल में

जहाँ होते थे सिर्फ मैं और तुम

सिमटें रहते थे एक दूसरे के संग

मन उन पलों को याद करके बैचेन हो उठा है

तुम्हारी दूरी अब सही नहीं जाती


आ भी जाओ सावन

इतनी परीक्षा न लो अपने प्यार की...।

Hard to fly for Kites


-Saket Narayan

Come back of Hritik Roshan after two years, Barbara Mori, Rakesh Roshan, Anurag Basu, heavy promotion, little controversy and the ‘K’ factor even not seems to fulfill the intension of flying the kites high up in the sky. The movie has lots in it but everything seems to be incomplete.

As a work it’s good one, for we should appreciate anyone’s hard work and we all know that film making is really a hard job. But when we look at the banner of the film and see its director and producer name the work seems to be quite diminutive. The movie is not a triangular love story but quadrant one. In the movie Hritik is a poor dance teacher and one of his students Kangana loves him but he is not interested. When he comes to know that Kangana is the daughter of the richest and most powerful person of the city, he thinks he has got an opportunity to become rich and there the love story starts. The twist in the movie comes when Hritik is invited in Kangana’s brother’s (tony) engagement party and see Barbara the fiancée of tony. Now he feels that he has really fallen in love and Barbara also gets attracted towards him, finally just before the day of marriage they both run away and from here the movie starts. Then what happen is to be seen on the silver screen.

In the movie they have tried to do a lot but after seeing the movie it seems that they were actually confused. Anurag Basu and Rakesh Roshan had a bollywood concept and tried to give hollywood treatment. But they exactly did not knew which one to give an edge. The acting in the movie is good and as an actor Hritik has left an impression. Even Barbara, tony and Kangana with small role have impressed. The music of the film is also good and Hritik’s dance is awesome. But as a movie of Rakesh Roshan, Anurag Basu and Hritik Roshan fame, it is not as per the expectation of viewers, it seems that the movie is missing something and at the end it can only be said that it looks hard for kites to fly at the box office.

Wednesday, May 19, 2010

माखनलाल चतुर्वेदी विवि में प्रवेश ले सकते हैं आप

भोपाल। देश के प्रतिष्ठित मीडिया शिक्षण संस्थान माखनलाल चतुर्वेदी रा. पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय ने कई नए पाठ्यक्रमों के साथ अपनी प्रवेश सूचना जारी की है। इसे 15.5.2010 के रोजगार समाचार एवं निम्न लिंक पर देखा जा सकता है-
http://www.mcu.ac.in

कब तक दहलेगा दंतेवाडा


-पवित्रा भंडारी

एक बार फिर नक्सलियों ने अपनी ताकत और उपस्थिती का एहसास करा दिया है । इस बार भी उन्होंने छत्तीसगढ़ के उसी दंतेवाडा जिले को अपना शिकार बनाया जिसको सुरक्षा के लिहाज से हाई अलर्ट घोषित किया गया था। इस बार नक्सलियों ने एक निज़ी यात्री बस को बारुदी सुरंग से उडाया जिसमें फोर्स और एसपीओ सहित 50 लोग मारे गए।
सवा महिने के भीतर यह तीसरी बडी घटना है, जिसमें नक्सलियों ने अपनी ताकत को दर्शाया है। इससे पहले नक्सलियों ने 76 जवानों को मौत के घाट उतार दिया और बीजापुर में 8 सीआरपीएफ के जवानों को भी मौत के मुहँ में धकेल दिया। दंतेवाडा में हुए इस नक्सली हमले से एक बार फिर सरकार और सुरक्षा की नाकामी की पुष्टि हो गई। नक्सलियों ने इस घटना को अंजाम देकर केन्द्र को चुनौती तो दे दी है पर प्रश्न यह उठता है कि क्या केन्द्र इस चुनौती से निपटने के लिए कोई कडे इंतजाम करती है या दंतेवाडा को नक्सली आग में दहकता छोड़ देती है।

Friday, May 14, 2010

इस औरत का रास्ता मत रोकिए


ऐसे फतवे से क्या हासिल होगा समाज को
-संजय द्विवेदी


इस बार फिर एक फतवा विवादों में हैं। मुस्लिम समाज की प्रमुख संस्था दारूल उलूम, देवबंद का ने हाल में ही एक फतवा जारी करते हुए मुस्लिम महिलाओं को सलाह दी है कि वे मर्दों के साथ आफिस में काम न करें और अगर उन्हें काम करना भी तो बुर्का भी पहनें और दूरियां बनाकर रखें। जाहिर तौर पर मुस्लिम समाज से ही इस फतवे के विरोध में आवाजें उठनी शुरू हो गयी हैं। देवबंद से जारी इस फतवे का पूरे देश में विरोध हो रहा है। महिला संगठनों ने भी देवबंद के इस फतवे को गलत बताया है।

ऐसे में सवाल यह उठता है कि समुदाय की बेहतरी के सवालों पर गौर करने के बजाए इस तरह के फतवों से क्या हासिल होना है। वैसे भी मुस्लिम समाज में महिलाओं की स्थिति बेहतर नहीं है। अन्य समाजों के मुकाबले मुस्लिम महिलाएं प्रत्येक क्षेत्र में पिछड़ रही हैं। औरत को कड़े पर्दे में रखने की हिमायत के अलावा तीन तलाक जैसे प्रावधान आखिर क्या संदेश देते हैं ? इस्लाम के जानकार कई विद्वान मानते हैं कि इस्लाम को सही रूप में न जानने और गलत व्यख्याओं के चलते महिलाएं उपेक्षा का शिकार हुई हैं, जबकि इस्लाम में स्त्री को अनेक अधिकार दिए गए हैं। एक इस्लामी विद्वान के मुताबिक ‘वास्तविकता तो यह है कि इस्लाम ने पहली बार यह महसूस किया था कि पुरुष व महिलाएं दोनों ही समाज के महत्वपूर्ण अंग हैं। इस्लाम संभवतः पहला मजहब था, जिसने अरब जगत में महिलाओं को अधिकार प्रदान करने का श्रीगणेश किया।’

यह वास्तविकता है कि मध्य युग में महिलाओं की स्थिति बहुत खराब थी। उन्हें पिता की संपत्ति में कोई अधिकार न था। विवाह के मामले में उनकी इच्छा या स्वीकृति का प्रश्न ही नहीं था। विधवा होने पर पुनर्विवाह की अनुमति नहीं थी। शादी के बाद छुटकारे का अधिकार न था। अपनी सम्पन्नता के आधार पर पुरुष सैकड़ों औरतों को हरम में रखते थे। उलेमा आज जैसी भी व्याख्याएं करें पर औरत के सामने खड़े इन प्रश्नों पर इस्लाम ने सोचा और उसे अधिकार सम्पन्न बनाया। इस्लाम ने समानता की बात कही । कुरान के मुताबिक ‘पुरुषों के लिए भी उस सम्पन्न बनाया। इस्लाम ने समानता की बात कही । कुरान के मुताबिक ‘पुरुषों के लिए भी उस सम्पत्ति में हिस्सा है, जिसे मां-बाप या निकट संबंधी छोड़ जाएं ।’ (अन-निसा 7) । यह निर्देश स्त्री-पुरुष में भेद नहीं करते। आगे कहा गया है ‘मर्दों ने जो कुछ कमाया है, उसके अनुसार उनका हिस्सा है।’(इन-निसा। 32) । पिता की संपत्ति में बेटी के हक की इस्लाम ने व्यवस्था की है। विवाह के मामले में भी इस्लाम ने औरतों को आजादी दी । विधवा का विवाह उसकी सलाह से और कुंवारी का विवाह उसकी रजामंदी के बाद करने का निर्देश दिया। यही नहीं यह भी कहा गया है कि विवाह उसकी रजामंदी के बाद करने का निर्देश दिया । यही नहीं यह भी कहा गया है कि विवाह के बाद यदि लड़की कहे तो शादी उसकी रजामंदी के बगैर हुई है तो निकाह टूट जाता है। लेकिन उलेमा उन्हीं आयतों को सामने लाते हैं, जहां औरत की पिटाई का हक पति को दिया गया है। मगर वे यह नहीं बताते कि पत्नी पर व्याभिचार का आरोप लगाकर पति तभी कार्यवाही कर सकता है, जब कम-से-कम 4 गवाह इस बात की गवाही दें कि पत्नी व्याभिचारिणी है। इसके अलावा तलाक के मामले की मनमानी व्याख्याओं के हालात और बुरे किए हैं। पति द्वारा पीड़ित किए जाने पर पत्नी को तलाक का हक देकर इस्लाम ने औरत को शक्ति दी थी । किंतु आज तलाक पुरुषों के हाथ का हथियार बन गया है । बहुविवाह और इस्लाम को लेकर भी खासे भ्रम और मनमानी व्याख्याएं जारी है।एक मुसलमान को चार शादियां करने का हक है, यह बात जोर से कही जाती है। इस अधिकार को लेकर मुस्लिम खासे संवेदनशील भी हैं, क्योंकि इससे प्रायः मुसलमान चार शादियां तो नहीं करते, लेकिन स्त्री पर मनोवैज्ञानिक दबाव व तनाव बनाए रखते हैं। पत्रकार डॉ. मेंहरुद्दीन खान ने अपने एक लेख में कहा है कि ‘विशेष परिस्थितियों में समाज में संतुलन बनाए रखने के लिए यह व्यवस्था की गई थी। इसमें दो बातें थीं एक तो नवाबों के हरम में असंख्य औरतें थीं, जो नारकीय जीवन बिताती थीं। दो-चार पत्नियां रखने की अनुमति का उद्देश्य हरमों से औरतों की संख्या कम हो गई थी। इस हालात में समाज में संतुलन बनाने के लिए यह उपाय लाजिमी था।’ आज देखा गया है कि विशेष परिस्थितियों में मिली छूट का लाभ उठाकर बूढ़े सम्पन्न लोग भी जवान व कुंवारी लड़कियों से विवाह कर खुद को गौरवान्वित महसूस करते हैं। ऐसे प्रसंग मुस्लिम समाज के समाने एक चुनौती की तरह खड़े हैं। इसी तरह पर्दा प्रथा भी है। इस्लाम ने उच्छृंखल होने, नंगेपन पर रोग लगाई तो उसे उलेमाओं ने औरत के खिलाफ एक और हथियार बना लिया।भारत में दहेज प्रथा अभिशाप बन गई है।
मुस्लिम समाज में इस प्रकार की किसी परंपरा का जिक्र नहीं मिलता, किंतु भारतीय प्रभावों से आज उनमें भी यह बीमारी घर कर गई है। अनेक मुस्लिम औरतों को जलाकर मार डालने की घटनाएं दहेज को लेकर हुई हैं। इसमें मुस्लिम समाज का दोहरापन भी सामने आता है। ‘मेहर’की रकम तय करते समय ये शरीयत की आड़ लेकर महर तय कराना चाहता है। किंतु दहेज लेते समय सब भूल जाते हैं। अरब देशों में कमाने गए लोगों ने भी दहेज को बढ़ावा दिया है। अनाप-शनाप आय से वे पैसा खर्च कर अपना रुतबा जमाना चाहते हैं। वहां ये भूल जाते हैं कि दहेज का प्रचलन न सिर्फ गैर इस्लामी है, बल्कि किसी भी समाज के लिए चाहे वे हिंदू हो या ईसाई, शुभ लक्षण नहीं है।

जाहिर है मुस्लिम महिलाओं को अपनी शक्ति और धर्म द्वारा दिए गए अधिकारों के प्रति जागरूकता पैदा कर अपनी लड़ाई को आगे बढ़ाना होगा । सामाजिक चेतना जगाकर ही इस प्रश्न पर सोचने के लिए लॉ बोर्ड संस्थाओं को जगाया जा सकता है । धार्मिक नेताओं को भी चाहिए कि वे इस तरह के फतवे जारी करके अपने आपको हास्यापद न बनाएं। क्योंकि मुस्लिम महिलाएं ही नहीं पूरे भारतीय समाज की महिलाएं हर क्षेत्र में अपना योगदान कर रही हैं और अपनी योग्यता से एक नया अध्याय लिख रही हैं। इस तेजी से आगे बढ़ती औरत को प्रोत्साहन देने की जरूरत है न कि उसका रास्ता रोकने की। ऐसे में बेटियों के हक और हकूक के लिए हमें अपना दिल बड़ा करना पड़ेगा क्योंकि वे हमारा परिवार बना सकती हैं तो हमारे समाज और देश को बनाने की जिम्मेदारी भी उन्हें दी जा सकती है। इंदिरा गांधी से लेकर बेनजीर भुट्टो तक हमारे पास हर समाज में ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं जिन्होंने अपने काम से औरत के वजूद को साबित किया है।औरत के हक और हुकूक का सवाल पूरी कौम की बेहतरी से जुड़ा है। यह बात मुस्लिम जगत के रहनुमा जितनी जल्दी समझ जाएंगी, मुस्लिम महिलाएं उतनी ही समर्थ होकर घर-परिवार एवं समाज के लिए अपना सार्थक योगदान दे सकेंगी।

Wednesday, May 12, 2010

Main phir se farishta banna chahta hoon ...


Nitisha Kashyap
MA MASS COMMUNICATION,SEM 2


Till graduation, when I was at my home, life was so much fun, no worries at all. Life was simply my books, my scooty and my friends. Life was no less than a princess’. Thought this is how life is enjoyed. Used to consider those a fool whose patent dialogue was “life’s a trouble”.

Now that I’m away from home I understand why life for few is no less than a trouble. My trouble is little different…I have to eat myself :( my maa saheb (I call my mother maa saheb) is not here to help me eat…don’t have papa with me, whose twinkling eyes used to encourage me for each and everything…can’t dictate my sweet sister now…Sunday’s scooty race is no more here which is also a trouble for me…no more can I chat with my friends on that famous “American street”…can’t make air in the castle which was our favourite time pass….so much trouble… but the biggest one off course is the one stated in the beginning….

I am fond of eating from my maa saheb’s hand…though she used to scold me saying “you are about to graduate still you are no less than a child“ but i knew even she used to love this act of mine..probably that’s why whenever i used to say ” maa saheb khana khila dijiye na” a smile used to run on her face…i miss that smile like anything…it was my daily act to get late for the classes and shout “ no i wont eat i’m getting late”..then suddenly she would appear from kitchen with plate in her hand saying “hum khila dete hain..tab to late nahi hogi tum”… now the situation is very different. Even if i’m getting late no one cares. But obvious…either miss classes or skip breakfast..choice is mine and i usually choose the second option….

Though i’m here at my own choice. No body forced me to come here and was also knowing my troubles…still i chose this place despite knowing maa saheb wont be here with me (definitely an insane decision, i guess).

“main phir se farishta banna chahta hoon maa k aanchal se lipat kar bachcha hona chaahta hoon”

miss you maa saheb ardently…

Monday, May 10, 2010

नक्सलवाद के खिलाफ अब किंतु-परंतु का समय नहीं


भारतीय लोकतंत्र बस्तर में एक कठिन लड़ाई लड़ रहा है जिसमें आमने-सामने उसके अपने लोग हैं। जाहिर तौर पर ऐसे में जंग कठिन हो जाती है जब मुकाबला अपने ही लोगों से हो किंतु देश के सम्मान और लोकतंत्र को खत्म करने में लगी ताकतों को समाप्त करना हमारी जरूरत है। छत्तीसगढ़ के गृहमंत्री ननकीराम कंवर ने हमले के बाद जिस तरह पूरे इलाके को सेना के हवाले करने की बात कही है, वह राज्य की विवशता का प्रकटीकरण ही है। खून की होली खेल रहे नक्सलियों के खिलाफ इसीलिए किसी किंतु-परंतु के बजाए उनके समूल नाश का संकल्प ही हमारे लोकतंत्र को बचा सकता है। सही मायने में नक्सलियों ने अपनी लड़ाई को जिस तरह का स्वरूप दे दिया है उसमें राज्य के पास भी विकल्प बहुत सीमित हैं। किंतु आश्चर्य की ऐसी खूनी जंग में लगे लोगों को भी कुछ बुद्धिजीवी समर्थन देते नजर आते हैं। नक्सल आंदोलन से सहानुभूति रखने वाले तत्वों, उन्हें आर्थिक और हथियारों की मदद पहुंचा रहे लोगों पर ध्यान देने की जरूरत है। क्योंकि नक्सलियों का समर्थन आधार तोड़े बिना हमारे जंगल इसी आग में सुलगते रहेंगें।

अब निर्णायक जंग की जरूरत


नक्सली जिस तरह एक के बाद एक हमले करके राजसत्ता को चुनौती दे रहे हैं ऐसे में सरकारों के सामने किंतु-परंतु और नाहक विमर्श का समय नहीं बचा है। आखिर हमने अपने नौजवानों को क्यों मौत के मुंह में डाल रखा है। खुफिया सूचनाओं और रेडअलर्ट के बावजूद हमारी सरकारें नक्सली हमलों से जवानों को बचा पाने में विफल साबित हो रही हैं। छत्तीसगढ़ में लगातार एक माह के भीतर दो बार सीआरपीएफ जवानों पर हुए हमले ने साबित किया है, हमने बिना किसी रणनीति के अपने जवानो को मौत के मुहाने पर झोंक दिया है।

एंटी लैडमाइन वाहन को उड़ाया


ये है माओवाद का असली चेहरा

यह हमला लोकतंत्र पर है


आखिर कब तक
नक्सलियों ने पिछले छः अप्रैल को सीआरपीएफ के 76 जवानों को मार डाला। महीने भर नहीं बीते उनका हमला फिर 8 मई, 2010 को हुआ जिसमें सीआरपीएफ के 7 जवान फिर शहीद हुए हैं। उनकी नृशंसता की कुछ तस्वीरे। आखिर कब तक हमारा राज्य ऐसे हमले झेलता और अपने जवानों का गंवाता रहेगा?

माँ


-अन्नी अंकिता

माँ तुम मुझे क्यों भेज रही हो...........

माँ , तुम वो हो, जिसने मुझे जन्म दिया ।

माँ , तुम वो हो, जिसने मुझे चलना सिखाया।

माँ , तुम वो हो, जिसने मुझे बड़ा किया।

तुमने ही कहा था, मैं

तुम्हारे दिल का टुकड़ा हूँ।

फिर ऐसा क्या हो गया माँ.....

तुम मुझे किसी और के पास

क्यों भेज रही हो....

क्या वो दूसरा मुझे तुम्हारे जितना प्यार देगा...

क्या तुम मुझसे दूर रह लोगी...

क्या मुझसे दूर होके तुम खुश रह पाओगी....

नही रह पाओगी न माँ...

तो समाज की इस प्रथा को तोड़ दो माँ..

मुझे अपने साथ रहने दो माँ....

चर्चा विकलांगता के मापदंड की


-साकेत नारायण

भारत एक गणतंत्र राष्ट्र है। यहाँ के संविधान में हर एक देशवासी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी गई है। इसके तहत भारतीयों को चर्चा करना बहुत पसंद है या यूँ कहें कि ये अब हमारी आदत बन चुकी है। हम अपनी आदत से लाचार फिर एक नया मुद्दा ढूंढ चुके हैं चर्चा के लिए।
इस बार चर्चा का विषय बहुत अलग है। इस बार चर्चा हो रही है विकलांगो की विकलांगता पर। 2011 के विकलांगो की जनगणना के लिए किन-किन सवालों का चयन किया जाए, अभी चर्चा का विषय बना हुआ है। हाल ही में माननीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने जब 2011 के विकलांगो के जनगणना की बात की तो बस हम भारतीयों को फिर एक नयी बहस का मुददा मिल गया। इस विषय पर चर्चा इस बात पर होने लगी की इन विकलांगो को अपनी विकलांगता साबित करने के लिए किन मापदंडों से गुजरना पड़ेगा। विकलांगो की विकलांगता पर सिर्फ हमारे देश में ही चर्चा नहीं हो रही है या होती है, यह एक सर्वव्यापी चर्चा का विषय है।
हम भारतीयो को सिर्फ विषय चाहिए और बस चर्चा शुरु। इस का प्रमाण बस इस बात से ही लगाया जा सकता है कि हम इस बात पर चर्चा कर रहे है कि विकलांगो को खुद को विकलांग साबित करने के लिए किन-किन सवालों का जवाब देना पड़ेगा। यह सवालों का प्रचलन 2001 की जनगणना से शुरु हुआ और इस जनगणना के बाद भारत में 2.5% विकलांग पाये गए। उस समय इस बात की आलोचना की गई कि यह तथ्य बहुत कम है। अब आप ही सोचिये कि हम भारतीय चर्चा के कितने बड़े दीवाने हैं कि इस बात पर भी चर्चा करने लगे। परंतु असली चर्चा तो इस समय हो रही है कि हम किन सवालों को पूछ कर यह तय करेंगे की कौन व्यक्ति विकलांग है और कौन नहीं।
विभिन्न एन.जी.ओ में इस बात पर चर्चा काफी तेज हो चुकी है। हर एन.जी.ओ का खुद का अपना मापदण्ड है। ये सारे संस्थान अपने खुद की अलग-अलग प्रश्नावली ले कर तैयार हैं। इन सब एन.जी.ओ के नजर में उनके खुद के प्रश्न बिल्कुल सही और सर्वश्रेष्ठ हैं। ये सब विकलांगो और उनके समस्या के बारे में नही सोच रहे है, परंतु सिर्फ अपनी सर्वश्रेष्ठता के बारे में सोच रहे हैं। ये तो पता नही की विकलांगो को कौन सी प्रश्नावली का उत्तर देना पड़ेगा? परंतु ये तो साफ है और होता भी जा रहा है कि हम भारतीयों को चर्चा करने में बहुत मज़ा आता है, बस हमें एक विषय नही मिला की हम शुरु हो गए।

Saturday, May 8, 2010

शाबाश‍….!! ललित मोदी

- कुंदन पाण्डेय
ललित मोदी ने ट्विटर से आईपीएल की गंदगी को साफ किया। इस गंदगी को साफ करते हुए मोदी खुद साफ सुथरे होते हुए गंदे हो गए और अपने क्रिकेट कैरियर को कुर्बान कर दिया । दूसरे शब्दों में अपने क्रिकेट कैरियर में वीरगति को प्राप्त हुए। ललित मोदी इसके लिए बधाई और साधुवाद के पात्र हैं। ऐसा पढ़कर आप को बहुत अटपटा लग रहा होगा। प्रस्तुत हैं अभी तक दोषी सिद्ध न हुए मोदी के पक्ष में कुछ तर्क। यदि मोदी ने यह रहस्योदघाटन न किया होता तो कि शशि थरुर की महिला मित्र सुनंदा पुष्कर को कोच्ची फ्रेंचाइजी में कुछ प्रतिशत हिस्सेदारी मिली है तो आईपीएल में तथाकथित भष्टाचार का खुलासा नहीं हुआ होता।
मोदी के खुलासे से पूर्व बीसीसीआई व केन्द्र सरकार ने इस पर कभी भी गंभीरता से ध्यान नहीं दिया कि आईपीएल के 3 सत्रों का आयोजन ठाक-ठाक बिना भ्रष्टाचार के हुए हैं कि नहीं। भारत सरकार ने हमेशा के लिए ठोकर लगने पर ही सम्हलकर चलने की आदत सी बना ली है, जैसे मुम्बई हमले के उपरांत समुद्री सीमा की रक्षा के कड़े उपाय किये गये ,संगठित अपराधों व आतंकवाद से निपटने के लिए राष्ट्रीय जाँच एजेंसी बनाई गई। उससे पहले सरकार ने इस तरह का कोई ठोस उपाय ही नहीं किया कि समुद्री सीमा से हमले न हो सके और कमांड़ों फोर्स भारत के किसी भी बड़े शहर में शीघ्रतिशीघ्र पहुँच सके।
आईपीएल की फ्रेंचाइजी टीमों को बड़े पैमाने पर अनुबंध राशि देकर कौन-कौन खरीद रहा है, एक टीम में कितने लोगों के मालिकाना शेयर हैं। इन लोगों के पास इतना धन कहाँ से आ रहा है से ज्यादा महत्वपूर्ण है यह लोग आईपीएल में इतना निवेश क्यों कर रहे हैं। इस बात की प्रबल संभावना है जताई जा रही है कि केन्द्र सरकार के प्रमुख सहयोगी राकांपा के दोनों शीर्ष नेता शरद पवार व प्रफुल्ल पटेल इस आईपीएल गड़बड़ी में अवश्य फँसेगें। केन्द्र सरकार बार-बार कमजोर, नकारा और स्तरहीन विपक्ष के हाथ में ऐसे मुद्दे थमाती जा रही है जिस पर वह बुरी तरह फँसी हुई प्रतीत हो रही है।
सरकार ने आईपीएल विवाद से पूर्व फ्रेंचाईजी मालिकों के यहाँ आयकर व प्रवर्तन निदेशालय के छापे ड़ालने की आज्ञा क्यों नहीं दी….??

Hang him till death………….


-Saket Narayan.
To you it will sound like a film’s dialogue but it is real that an Indian cannot resist two things first to lose a cricket match and second much more important one attack on the country. This statement was again proved to be true when on Thursday 6th may Azmal Amir Kasab accused for 26/11 Mumbai terrorist attack was ordered death sentence.
The craze among the countrymen regarding the decision of the case and the celebration done after the decision is the example of this fact. No doubt this shows the patriotism of the people towards the nation and it is very obvious also. The Indians are always and all over the world are known for their patriotism. The decision making in this case also set a record for the fastest hearing of any case in the country. In the case whole nation was involved and it was a much-much awaited decision to be made by the court. Altogether it is really good to get a decision so quickly and also when the interest of whole country is connected to it.
But isn’t it like punishing the puppet of the show. Even today we don’t have the real culprit and the main planner of the incident in our custody. We are celebrating the death sentence of Kasab to what extent it is correct and even the way we are reacting on this decision, do it make any sense? If we thing for a minute then we will realize that what exactly we are doing. We are rejoicing a death sentence. No doubt he is the culprit and he should be punished but to celebrate it and also in such a way is correct by no means. This decision is the first step of our victory we still have to go a long distance. We have to reach till the main culprit, it is just a beginning.
If we really want to pay homage to the people who died in the 26/11 Mumbai terrorist attack then we need to continue our work on this case. We should not stop till the end, till when the main culprit of the case is in our custody. Till then no doubt it is a big achievement to give death sentence for Kasab but along with this we even need to control our emotion and way of expression and celebration. With the hanging of Azmal Amir Kasab till death, we should also not hang our human nature and our humanity which makes us different from them.

घर का भेदी लंका ढाए

-पंकज साव
गत सप्ताह घटित हुई दो बड़ी घटनाओं ने वाकई हमारी आंतरिक और साथ ही साथ बाह्य सुरक्षा-व्यवस्था पर सवालिया निशान खड़ा कर दिया है। इसमें एक बड़ी घटना है पाकिस्तान में पदस्थापित राजनयिक माधुरी गुप्ता की गिरफ्तारी। माधुरी गुप्ता कितनी दोषी हैं, यह तो अदालत तय करेगी पर इस गिरफ्तारी ने आम भारतीयों की नज़र में जो दुराग्रह पैदा किया है, वह खतरनाक है। देश का हर नागरिक चाहे लाख बुरा हो, सुरक्षा के मामले में एक हो जाता है। अब जब हमारे उच्चायोगों में बैठे विदेश-सेवा के अधिकारियों की ऐसी दागदार छवि बनेगी तो इसका सीधा असर आम आदमी की राष्ट्रीय निष्ठा पर पड़ेगा।
इसका एक बुरा असर भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि और साख पर भी पड़ेगा। हम लाख अपनी देशभक्ति की डींगें हाँक लें। ऐसी एक घटना सारे किए कराए पर पानी फेर देगी। अब हम किस मुँह से दुश्मन देशों पर आरोप लगाएंगे जब अपने ही रखवालों का दामन ही दागदार हो गया। चाहे पाकिस्तान में लोग भूखों मरें पर वह द्वेष में इतना पागल है कि भारत के विरुद्ध साम, दाम, दण्ड, भेद सब उपायों का इस्तेमाल करने से बाज नहीं आने वाला। हमारी विदेश-सेवा तक उसकी पहूँच उसकी भेद की नीति का ही परिणाम है। एक दूसरी बड़ी घटना है उत्तर प्रदेश में नक्सलियों को हथियार सप्लाई करने वाले रैकेट का खुलासा। यहाँ भी हमारे रक्षक ही भक्षक की भूमिका में हैं। इस मामले में पकड़े गए सारे अभियुक्त सीआरपीफ और पुलीस के जवान निकले। हो न हो पिछले दिनों दंतेवाड़ा में मारे गए जवानों पर चलने वाले हथियार उसी सीआरपीएफ के कुछ गद्दार जवानों की सप्लाई की हुई हो।
कुल मिलाकर स्थिति बड़ी ही विकट है। ऐसे अपराध कहीं से क्षम्य नहीं हैं। माधुरी गुप्ता जिस तरह झूठी दलीलें दे रही हैं, उनमें दम नहीं है। कोई व्यक्ति सिर्फ इसलिए खुफिया सूचनाएँ लीक कर दे कि उसका बॉस उसका प्रमोशन नहीं दे रहा है, सही नहीं है। इधर अगर दोंषी जवानों के मामले में भी ढील दी गई तो ऐसे लोगों का मनोबल ही बढेगा। दोनों ही प्रकरणों की गंभीरता को देखते हुए सटीक जाँच कर जल्द से जल्द दोषियों को कड़ी सजा मिलनी चाहिए ताकि इस तरह के अपराध आम घटना का रूप न ले सके।

Friday, May 7, 2010

झगड़ा क्या है उर्दू और हिंदी का


दोनों इसी जमीन की खुशबू से बनी भाषाएं हैं
- संजय द्विवेदी
ज्ञान की नगरी बनारस से एक अच्छी खबर आयी है। भाषाओं की जंग में फंसे देश में ऐसी खबरें राहत भी देती हैं और समाधान भी सुझाती हैं। काशी हिंदू विश्वविद्यालय के एमए हिंदी के छात्र-छात्राएं अब गालिब की शायरी, मीर तकी मीर जैसे उर्दू के लेखकों को भी पढ़ेंगे। जाहिर तौर इससे हिंदी की ताकत तो बढ़ेगी ही, विद्यार्थी नए अनुभवों से युक्त होंगे और उर्दू के विशाल काव्य संसार से रूबरू होने का उन्हें मौका भी मिलेगा। यह एक अवसर और संदेश दोनों है कि भारतीय भाषाएं अपनी ताकत को पहचानें और साथ मिलकर अंग्रेजी के आतंक के सामने अपनी सार्थकता साबित करें।
सच तो यह है कि देश के बंटवारे ने सिर्फ हिंदुस्तान का भूगोल भर नहीं बदला, उसने इस विशाल भू-भाग पर पलने और धड़कने वाली गंगा-जमुनी संस्कृति को भी चोट पहुंचाई। हमारी संवेदनाओं, भावनाओं, बोलियों और भाषाओं को भी तंगनज़री का शिकार बना दिया । उर्दू 1947 में घटे इस अप्राकृतिक विभाजन का दंश आज तक झेल रही है। जब वह एक सभ्यता को स्वर देने वाली भाषा नहीं रही । बल्कि एक ‘कौम’ की भाषा बनकर रह गई। तब से आज तक वह सियासतदानों के लिए ‘फुटबाल’ बनकर रह गई है।
भारतीय उपमहाद्वीप में जन्मी-पली और बढ़ी यह भाषा जो यहां की तहजीब और सभ्यता को स्वर देती रही, विवादों का केंद्र बन गई। गैर भाषाई और गैर सांस्कृतिक सवालों की बिना पर उर्दू को अनेक स्तरों पर विवाद झेलने पड़े और इसमें जहां एक ओर उग्र उर्दू भाषियों की हठधर्मिता रही तो दूसरी ओर उर्दू विरोधियों के संकुचित दृष्टिकोण ने भी उर्दू की उपेक्षा के वातावरण की सृजन किया। हमारे समाज के बदलते रंग-रूप उसकी सभ्यता की विकासयात्रा में उर्दू साहित्य ने कई आयाम जोड़े हैं। अमीर खुसरो, मीर तकी मीर, गालिब की परंपरा से होती हुई जो उर्दू फैज अहमद ‘फैज’, अली सरदार जाफरी, कैफी आजमी या बशीर बद्र तक पहुची है, वह एक दिन की यात्रा नहीं है। एक लंबे कालखंड में एक देश और उसके समाज से सतत संवाद के सिलसिले ने उर्दू को इस मकाम पर पहुंचाया है। इस योगदान के ऊपर अकेले 1947 के विभाजन ने पानी फेर दिया। सामाजिक जनजीवन में भी यही घटना घट रही थी। मुस्लिम मुहल्ले-हिंदू मुहल्ले अलग-अलग सांस ले रहे थे, पूरे अविश्वास के साथ । दोनों वर्गों को जोड़ने वाले चीजें नदारद थीं। भाषा (उर्दू) तो पहले ही ‘शहीद’ हो चुकी थी। ऐसे में जब संवेदनाओं का श्रोत सूख रहा हो। हमने अपने-अपने ‘कठघरे’ बना रखे हों-जहां हम व्यक्तिगत सुख-दुख तक की बातें एक-दूसरे से नहीं बांट पा रहे हों-तो भाषा व लिपि को लेकर समझदारी कहां से आती ?

उर्दू को लेकर काम कर रहे लोग भी बंटे दिखे। तंगनजरी का आलम यह कि हिंदू उर्दू, मुस्लिम उर्दू तक के विभाजन साफ नजर आने लगे। दिल्ली व पंजाब के जिन उर्दू अखबारों के मालिक हिंदू थे, जैसे हिंद समाचार, प्रताप, मिलाप आदि उन्हें देख कर ही पता चल जाता था कि यह हिंदू अखबार है। जबकि मुस्लिम मालिक-संपादक के अखबार बता देते हैं कि वह मुस्लिम अखबार है। यह कट्टरपन अब साहित्यिक क्षेत्रों (शायरी व कहानी) में भी देखने लगा है।
जाहिर है ये बातें ‘उर्दू समाज’ बनाने में बाधक हैं। उर्दू के सुनहरे अतीत पर गौर करें तो रघुपति सहाय फिराक, कृश्नचंदर, सआदत हसन मंटो, राजेंद्र सिंह बेदी, प्रेमचंद, कुरतुल एन हैदर, ख्वाजा अहमद अब्बास, अहमद नदीम का सभी ने जो साहित्य रचा है-वह भारतीय समाज के गांवों एवं शहरों की धड़कनों का गवाह है। वहीं उर्दूं शायरी ने अपने महान शायरों की जुबान से जिंदगी के हर शै का बयान किया है। यह परंपरा एक ठहराव का शिकार हो गई है। नए जमाने के साथ तालमेंल मिलाने में उर्दू के साहित्यकार एवं लेखक शायद खुद को असफल पा रहे हैं। उर्दू एक मंझी हुई संस्कृति का नाम है। हालत बताते हैं कि उसे आज सहारा न दिया गया तो वह अतीत की चीज बनकर रह जाएगी। आज अहम सवाल यह है कि किसी मुसलमान या हिंदू को उर्दू सीखकर क्या मिलेगा ? हर चीज रोजगार एवं लाभ के नजरिए से देखी जाने लगी है। ऐसे में उर्दू आंदोलन को सही रास्तों की तलाश करनी होगी। सिर्फ मदरसों एवं कौमी साहित्य की पढ़ाई के बजाए उर्दू को नए जमाने की तकनीक एवं साईंस की भी भाषा बनना होगा। साहित्य में वह अपनी सिद्धता जाहिर कर चुकी है-उसे आगे अभी हिंदुस्तान की कौम का इतिहास लिखना है। ये बातें अब दफन कर दी जानी चाहिए की उर्दू का किसी खास मजहब से कोई रिश्ता है। यदि ऐसा होता तो बंगलादेश- ‘बंगला’ भाषा की बात पर अलग न होता और पाकिस्तान के ही कई इलाकों में उर्दू का विरोध न होता । इसके नाते उर्दू को किसी धर्म के साथ नत्थी करना बेमानी है। उर्दू सही अर्थों में ‘हिन्दुस्तानी कौम’ की जबान है और हिंदुस्तान की सरजमी पर पैदा हुई भाषा है। आज तमाम तरफ से उर्दू को देवरागरी में लिखने की बातें हो रही हैं-और इस पर लंबी बहसें भी चली हैं। लोग मानते हैं कि इससे उर्दू का व्यापक प्रसार होगा और सीखने में लिपि के नाते आने वाली बाधाएं समाप्त होंगी । लेकिन कुछ विद्वान मानते कि रस्मुलखत (लिपि) को बदलना मुमकिन नहीं है । क्योंकि लिपि ही भाषा की रूह होती है। वे मानते हैं कि देवनागरी में उर्दू को लिखना खासा मुश्किल होगा, क्योंकि आप जे, जल, जाय, ज्वाद के लिए भी हिंदी में ‘ज’लिखेंगे । जबकि सीन, से, स्वाद के लिए ‘स’ लिखेंगे। ऐसे में उनका सही उच्चारण (तफज्जुल) मुमकिन न होगा और उर्दू की आत्मा नष्ट हो जाएगी । ऐसे विवादों-बहसों के बीच भी उर्दू की हिंदुस्तानी सरजमीं पर एक खास जगह है । भारत की ढेर-सी भाषाओं एवं उसके विशाल भाषा परिवार की वह बेहद लाडली भाषा है । गीत-संगीत, सिनेमा-साहित्य हर जगह उर्दू का बढ़ता इस्तेमाल बताता है कि उर्दू की जगह और इज्जत अभी और बढ़ेगी है। बनारस ने उर्दू को सलाम भेजा है और वहां के हिंदी विभाग ने उसे जगह दी है। इस तरह के फैसले निश्चय ही हिंदी परिवार की ताकत को बढ़ाने वाले साबित होंगें। आज जब हिंदी की बोलियां भी उसके खिलाफ खड़ी की जा रही हैं तो हिंदी का उर्दू के लिए प्यार और स्वीकार एक नई नजीर बन सकता है।

Tuesday, May 4, 2010

राजनैतिक स्वार्थ की लड़ाई

-कृष्ण मोहन तिवारी
हाल ही में लोकसभा के बजट के दूसरे सत्र के दौरान विपक्ष के द्वारा लाया गया अविश्वास प्रस्ताव औंधें मुँह गिर गया। भले ही यह प्रस्ताव औंधें मुँह गिर गया परंतु सियासी राजनीतिक गलियारों में इसका असर दूरगामी, परिवर्तनशील होने के साथ ही भारतीय राजनीति में बनने वाले नए समीकरण और ध्रुवीकरण की ओर भी साफ संकेत करने वाला है, जिसके कि द्रुतगामी परिणाम निकलकर सामने आ सकते हैं।
जहाँ झारखंड में भाजपा के सहयोग से मुख्यमंत्री बने शिबू सोरेन को अविश्वास प्रस्ताव पर संप्रग गठबंधन के पक्ष पर वोट करने पर दो नाँव की सवारी करना महँगा पड़ा और भाजपा द्वारा समर्थन वापसी के रूप में सोरेन के मुख्यमंत्री पद पर घने बादल छा गए है, जिससे कि झारखंड में सियासी सरगर्मियां तेज हो गई है।
इस अविश्वास प्रस्ताव के साथ ही राजनीतिक पार्टियों के दोहरे मुखौटे भी जनता के सामने उजागर होने लगे है। जहाँ एक और तीसरे मोर्चे के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी एवं राजद ने महँगाई के खिलाफ देश बंद के आह्वान को सफल बनाने के लिए जबरन ट्रेन के आवागमन को बाधित करने के साथ सरकारी बसों को आग के हवाले कर दिया । यह राजनीतिक पार्टियाँ यह भूल गई कि इन ट्रेनों और बसों पर सरकार के कोई नुमाइंदे यात्रा नहीं कर रहे थे बल्कि महँगाई के बोझ से दबी बेबस जनता यात्रा कर रही थी, जिनको इस तरह के हिंसक आंदोलन से भारी मशक्कत झेलनी पड़ी। यह तो शायद ही याद रहा होगा कि जिस लोकतंत्र की ये नेता हमेशा दुहाई देते रहते हैं, उसी लोकतंत्र मे यह भी है कि किसी भी आंदोलन में हिंसा का प्रयोग कतई वर्जित है। जिसमें शान्तिपूर्व आंदोलन एवं चुनावी प्रक्रिया को अपनाया गया है।
वही दूसरी ओर राजद और सपा ने कटौती प्रस्ताव में सदन का वाकआउट कर संप्रग गठबंधन को राहत की साँस देकर जनता को गुमराह करने का भी प्रयास किया। कांग्रेस के खिलाफ हर मोर्चे पर मोर्चा खोलने वाली बसपा सुप्रीमों मायावती को आय से अधिक मामले में सुप्रीम कोर्ट से क्लीन चिट मिलने के बाद कटौती प्रस्ताव पर सरकार के पक्ष में वोट करके महँगाई के मुद्दे पर केन्द्र सरकार को भी क्लीन चिट दे दी। इन सारें घटनाक्रम के बाद तो एक बात बिल्कुल स्पष्ट हो गई कि बिखरा हुआ विपक्ष जनता के हितों के मुद्दे पर सरकार पर कैसे दबाव बना सकता है? खुद को जनता का अपना सच्चा हितैषी बताने वाली यह पार्टियां जनता के प्रति कितनी संजीदा है? इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है ।
अविश्वास प्रस्ताव पर सरकार को राहत पहुचाने के पीछे इन राजनीतिक पार्टियों की मंशा बिल्कुल स्पष्ट है जिसका मुख्य कारण इन पार्टियों की अपनी राजनीतिक कमजोरी और अस्थिरता है।
राजनीति में एक जुमला खासा लोकप्रिय है कि “दुश्मनी जमकर करो लेकिन इतनी गुंजाइश रहे कि फिर कभी दोस्त बने तो फिर कभी शर्मिंदा ना होना पड़े”।
इस गुंजाइश के पीछे ठोस वजह यह है कि आगामी समय में बिहार और उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव नजदीक आ रहे है। बिहार में राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव अपने दम पर अपनी पार्टी का बेड़ा पार नहीं लगा सकते जिसके लिए उन्हें कही ना कही कांग्रेस की जरूरत पड़ेगी। वही दूसरी ओर यूपी में भी कांग्रेस तेजी के साथ अपना जनाधार को बढ़ा रही है। जिसके आधार पर कांग्रेस के करिश्माई प्रदर्शन की उम्मीद सभी राजनैतिक दलों को है। इस लिहाज से यदि यूपी के विधानसभा चुनाव में त्रिशंकु जनाधार की स्थिति पैदा होती है।तो कांग्रेस उसमें बड़ी भूमिका निभा सकती है। इस कारण जल में रहकर मगर से बैर कौन करना चाहेगा?
अत प्रश्न यह उठता है कि कब तक ऐसी मानसिकता वाली राजनीतिक पार्टियाँ अपनी गोटियाँ बिछाने के लिए जनता के हितो की तिलांजलि देती रहेगी?

Saturday, May 1, 2010

मजबूरियां मजदूर की

-देवेश नारायण राय

हमारे भारतीय सभ्यता में मजदूरों को एक सम्मान दिया जाता था। भगवान शंकर स्वयं सेवक के रुप में हनुमान बनकर अवतार लिया और आजीवन राम की सेवा की, महात्मा गांधी भी अपने आप को जनता का सेवक कहते थे। सेवा-भाव और सेवक को हमारे यहां बहुत सम्मान दिया जाता था। पर आज परिदृश्य बदल चुका है। मजदूरों-सेवकों को आज उस दृष्टि से नहीं देखा जा रहा है। एक मई को पूरा विश्व मजदूर दिवस के रूप में मनाता है।
मजदूरों को सामाजिक आर्थिक न्याय दिलवाने के लिए पूरे विश्व ने इसे संघर्ष दिवस के रूप में मान्यता दी। सर्वप्रथम न्यूजीलैड में 28 अक्टूबर 1890 को मनाया गया था। सयुक्त राष्ट्र संघ और विश्व के कई मुल्को के तमाम प्रयासो के बावज़ूद मजदूरो को उनका हक नहीं मिल पा रहा है। अगर बात भारत की करे तो देश के कुल आबादी का 40% श्रमिक वर्ग मतलब करीब 40 करोड़ लोग आते हैं। भारत में श्रमिक को दो वर्गों में बांटा गया है। पहला- संगठित क्षेत्र के श्रमिक और दूसरा असंगठित क्षेत्र के श्रमिक। संगठित क्षेत्र के श्रमिकों की संख्या कुल श्रमिक संख्या के 3.5 प्रतिशत है और असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों की संख्या 96.5 प्रतिशत है। संगठित क्षेत्र के श्रमिक वह श्रमिक होते हैं जो किसी बड़े कंपनी फर्म या सरकारी संस्था में कागजों पर दर्ज मजदूर हैं और बाकी सभी असंगठित क्षेत्र के मजदूर हैं। दुर्भाग्य इस बात का है भारत के जितने भी श्रम कानून हैं इसी 3.5 प्रतिशत संगठित क्षेत्र के श्रमिकों के लिए है। इन्हीं को महंगाई, आवास व अन्य प्रकार के भत्ते और सुविधायें दी जाती हैं। असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के आर्थिक, सामाजिक अधिकारों के लिए सरकार के पास कोई कारगर योजना नहीं है। करीब 36.5 करोड़ वो हाथ जो भारत को संवारने में लगे हैं अपने दो जून की रोटी के लिए मुहाल है और कोई इस तरफ ध्यान भी नहीं देता। सन् 2002 में द्वितीय श्रम आयोग ने इनके लिए कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाने की बात कही पर मौजूदा यूपीए सरकार ने इस आयोग की रिपोर्ट को ठंड़े बस्ते में डाल रखा है। यूपीए सरकार की महात्वकांक्षी योजना मनरेगा भी असंगठित मजदूरों की समस्या का निदान करती प्रतीत नहीं होती। एक तो इस कार्यक्रम के क्रियान्वन में भष्ट्राचार की घातक बीमारी लग चुकी है। दूसरे यह कानून सिर्फ सौ दिन का ही रोजगार उपलब्ध कराती है मतलब साल के बाकी 265 दिन बेरोजगार ही रहना पडेगा या ठेकेदार के यहाँ औने पौने दाम कमरतोड़ मेहनत करनी पडेगी। सरकार असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के लिए अभिशाप साबित होने वाली ठेकेदारी प्रथा को बढ़ावा दे रही है। छठे वेतन आयोग के अनुसार चत्तुर्थ श्रेणी के कर्मचारी को अब तृतीय श्रेणी में डाल दिया जायेगा। मतलब अब सरकार चतुर्थ श्रेणी के कार्य को ठेके पर ठेकेदारों से करवायेगी। वहीं दूसरी ओर मजदूरों के हित पर कुठाराघात करने वाले “नए आर्थिक क्षेत्र कानून” को लागू कर दिया गया है। जिसके तहत पूंजीपतियों को किसी भी समय मजदूरों की छंटनी का अधिकार मिल गया है।
सरकार ने बाल श्रम को प्रतिबंधित तो कर दिया है पर बालश्रम आज भी हमें देखने को मिल रहा है। सबसे ज्यादा शोषण बाल श्रमिकों का ही होता है। पर सरकार इसके नियंत्रण के लिए कोई कारगर प्रयास नहीं कर रही है। कुछ ऐसा ही हाल महिला श्रमिकों की भी है। सबसे ज्यादा महिला श्रमिक कृषि क्षेत्र से जुड़ी हुई हैं। कृषि के साथ समस्या ये है कि कृषि कार्य कुछ विशेष महीनों में ही होते हैं बाकी समय उन्हें अर्धबेरोजगारी झेलनी पड़ती है। उद्योगों में भी महिलाओं का शोषण होता है। उन्हें पुरुषों के बराबर काम करना पड़ता है और वेतन भी कम मिलता है। आज के वर्तमान परिवेश को देखते हुए लगता नहीं मजदूर दिवस को मनाने के उद्देश्य पूर्ण हो पा रहे हैं।