Wednesday, December 29, 2010

बात तो साफ हुई कि मीडिया देवता नहीं है


-संजय द्विवेदी
यह अच्छा ही हुआ कि यह बात साफ हो गयी कि मीडिया देवता नहीं है। वह तमाम अन्य व्यवसायों की तरह ही उतना ही पवित्र व अपवित्र होने और हो सकने की संभावना से भरा है। 2010 का साल इसलिए हमें कई भ्रमों से निजात दिलाता है और यह आश्वासन भी देकर जा रहा है कि कम से कम अब मीडिया के बारे में आगे की बात होगी। यह बहस मिशन और प्रोफेशन से निकलकर बहुत आगे आ चुकी है।
इस मायने में 2010 एक मानक वर्ष है जहां मीडिया बहुत सारी बनी-बनाई मान्यताओं से आगे आकर खुद को एक अलग तरह से पारिभाषित कर रहा है। वह पत्रकारिता के मूल्यों, मानकों और परंपराओं का भंजन करके एक नई छवि गढ़ रहा है, जहां उससे बहुत नैतिक अपेक्षाएं नहीं पाली जा सकती हैं। कुछ अर्थों में अगर वह कोई सामाजिक काम गाहे-बगाहे कर भी गया तो वह कारपोरेट्स के सीएसआर (कारपोरेट सोशल रिस्पांस्बिलिटी) के शौक जैसा ही माना जाना चाहिए। मीडिया एक अलग चमकीली दुनिया है। जो इसी दशक का अविष्कार और अवतार है। उसकी जड़ें स्वतंत्रता आंदोलन के गर्भनाल में मत खोजिए, यह दरअसल बाजारवाद के नए अवतार का प्रवक्ता है। यह उत्तरबाजारवाद है। इसे मूल्यों, नैतिकताओं, परंपराओं की बेड़ियों में मत बांधिए। यह अश्वमेघ का धोड़ा है,जो दुनिया को जीतने के लिए निकला है। देश में इसकी जड़ें नहीं हैं। वह अब संचालित हो रहा है नई दुनिया के,नए मानकों से। इसलिए उसे पेडन्यूज के आरोपो से कोई उलझन, कोई हलचल नहीं है, वह सहज है। क्योंकि देने और लेने वालों दोनों के लक्ष्य इससे सध रहे हैं। लोकतंत्र की शुचिता की बात मत ही कीजिए। यह नया समय है,इसे समझिए। मीडिया अब अपने कथित ग्लैमर के पीछे भागना नहीं चाहता। वह लाभ देने वाला व्यवसाय बनना चाहता है। उसे प्रशस्तियां नहीं चाहिए, वह लोकतंत्र के तमाम खंभों की तरह सार्वजनिक या कारपोरेट लूट में बराबर का हिस्सेदार और पार्टनर बनने की योग्यता से युक्त है।
मीडिया का नया कुरूक्षेत्रः
मीडिया ने अपने कुरूक्षेत्र चुन लिए हैं। अब वह लोकतंत्र से, संवैधानिक संस्थाओं से, सरकार से टकराता है। उस पर सवाल उठाता है। उसे कारपोरेट से सवाल नहीं पूछने, उसे उन लोगों से सवाल नहीं पूछने जो मीडिया में बैठकर उसकी ताकत के व्यापारी बने हैं। वह सवाल खड़े कर रहा है बेचारे नेताओं पर,संसद पर जो हर पांच साल पर परीक्षा के लिए मजबूर हैं। वह मदद में खड़ा है उन लोगों के जो सार्वजनिक धन को निजी धन में बदलने की स्पर्धा में जुटे हैं। बस उसे अपना हिस्सा चाहिए। मीडिया अब इस बंदरबांट पर वाच डाग नहीं वह उसका पार्टनर है। उसने बिचौलिए की भूमिका से आगे बढ़कर नेतृत्व संभाल लिया है। उसे ड्राइविंग सीट चाहिए। अपने वैभव, पद और प्रभाव को बचाना है तो हमें भी साथ ले लो। यह चौथे खंभे की ताकत का विस्तार है। मीडिया ने तय किया है कि वह सिर्फ सरकारों का मानीटर है, उसकी संस्थाओं का वाच डाग है। आप इसे इस तरह से समझिए कि वह अपनी खबरों में भी अब कारपोरेट का संरक्षक है। उसके पास खबरें हैं पर किनकी सरकारी अस्पतालों की बदहाली की, वहां दम तोड़ते मरीजों की,क्योंकि निजी अस्पतालों में कुछ भी गड़ब़ड़ या अशुभ नहीं होता। याद करें कि बीएसएनएल और एमटीएनएल के खिलाफ खबरों को और यह भी बताएं कि क्या कभी आपने किसी निजी मोबाइल कंपनी के खिलाफ खबरें पढ़ी हैं। छपी भी तो इस अंदाज में कि एक निजी मोबाइल कंपनी ने ऐसा किया। शिक्षा के क्षेत्र में भी यही हाल है। सारे हुल्लड़-हंगामे सरकारी विश्वविद्यालयों, सरकारी कालेजों और सरकारी स्कूली में होते हैं- निजी स्कूल दूध के धुले हैं। निजी विश्वविद्यालयों में सारा कुछ बहुत न्यायसंगत है। यानि पूरा का पूरा तंत्र,मीडिया के साथ मिलकर अब हमारे जनतंत्र की नियामतों स्वास्थ्य, शिक्षा और सरकारी तंत्र को ध्वस्त करने पर आमादा है। साथ ही निजी तंत्र को मजबूत करने की सुनियोजित कोशिशें चल रही हैं। मीडिया इस तरह लोकतंत्र के प्रति, लोकतंत्र की संस्थाओं के प्रति अनास्था बढ़ाने में सहयोगी बन रहा है, क्योंकि उसके व्यावसायिक हित इसमें छिपे हैं। व्यवसाय के प्रति लालसा ने सारे मूल्यों को शीर्षासन करवा दिया है। मीडिया संस्थान,विचार के नकली आरोपण की कोशिशों में लगे हैं ।यह मामला सिर्फ चीजों को बेचने तक सीमित नहीं है वरन पूरे समाज के सोच को भी बदलने की सचेतन कोशिशें की जा रही हैं। शायद इसीलिए मीडिया की तरफ देखने का समाज का नजरिया इस साल में बदलता सा दिख रहा है।
यह नहीं हमारा मीडियाः
इस साल की सबसे बड़ी बात यह रही कि सूचनाओं ने, विचारों ने अपने नए मुकाम तलाश लिए हैं। अब आम जन और प्रतिरोध की ताकतें भी मानने लगी हैं मुख्यधारा का मीडिया उनकी उम्मीदों का मीडिया नहीं है। ब्लाग, इंटरनेट, ट्विटर और फेसबुक जैसी साइट्स के बहाने जनाकांक्षाओं का उबाल दिखता है। एक अनजानी सी वेबसाइट विकिलीक्स ने अमरीका जैसी राजसत्ता के समूचे इतिहास को एक नई नजर से देखने के लिए विवश कर दिया। जाहिर तौर पर सूचनाएं अब नए रास्तों की तलाश में हैं. इनके मूल में कहीं न कहीं परंपरागत संचार साधनों से उपजी निराशा भी है। शायद इसीलिए मुख्यधारा के अखबारों, चैनलों को भी सिटीजन जर्नलिज्म नाम की अवधारणा को स्वीकृति देनी पड़ी। यह समय एक ऐसा इतिहास रच रहा है जहां अब परंपरागत मूल्य, परंपरागत माध्यम, उनके तौर-तरीके हाशिए पर हैं। असांजे, नीरा राडिया, डाली बिंद्रा,, राखी सावंत, शशि थरूर, बाबा रामदेव, राजू श्रीवास्तव जैसे तमाम नायक हमें मीडिया के इसी नए पाठ ने दिए हैं। मीडिया के नए मंचों ने हमें तमाम तरह की परंपराओं से निजात दिलाई है। मिथकों को ध्वस्त कर दिया है। एक नई भाषा रची है। जिसे स्वीकृति भी मिल रही है। बिग बास, इमोशनल अत्याचार, और राखी का इंसाफ को याद कीजिए। जाहिर तौर पर यह समय मीडिया के पीछे मुड़कर देखने का समय नहीं है। यह समय विकृति को लोकस्वीकृति दिलाने का समय है। इसलिए मीडिया से बहुत अपेक्षाएं न पालिए। वह बाजार की बाधाएं हटाने में लगा है। तो आइए एक बार फिर से हम हमारे मीडिया के साथ नए साल के जश्न में शामिल हो जाएं।
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)

Wednesday, December 22, 2010

आज मां ने फिर याद किया

- अंकुर विजयवर्गीय
भूली बिसरी चितराई सी

कुछ यादें बाकी हैं अब भी

जाने कब मां को देखा था

जाने उसे कब महसूस किया

पर , हां आज मां ने फिर याद किया ।।।

बचपन में वो मां जैसी लगती थी

मैं कहता था पर वो न समझती थी

वो कहती की तू बच्चा है

जीवन को नहीं समझता है

ये जिंदगी पैसों से चलती है

तेरे लिए ये न रूकती है

मुझे तुझकों बडा बनाना है

सबसे आगे ले जाना है

पर मैं तो प्यार का भूखा था

पैसे की बात न सुनता था

वो कहता थी मैं लडता था

वो जाती थी मैं रोता था

मैं बडा हुआ और चेहरा भूल गया

मां की आंखों से दूर गया

सुनने को उसकी आवाज मै तरस गया

जाने क्यूं उसने मुझको अपने से दूर किया

पर, हां आज मां फिर ने याद किया ।।।

मैं बडा हुआ पैसे लाया

पर मां को पास न मैने पाया

सोचा पैसे से जिंदगी चलती है

वो मां के बिना न रूकती है

पर प्यार नहीं मैंने पाया

पैसे से जीवन न चला पाया

मैंने बोला मां को , अब तू साथ मेरे ही चल

पैसे के अपने जीवन को , थोडा मेरे लिए बदल

मैंने सोचा , अब बचपन का प्यार मुझे मिल जायेगा

पर मां तो मां जैसी ही थी

वो कैसे बदल ही सकती थी

उसको अब भी मेरी चिंता थी

उसने फिर से वही जवाब दिया

की तू अब भी बच्चा है

जीवन को नहीं समझता है

ये जिंदगी पैसों से चलती है

तेरे लिए ये न रूकती है

सोचा कि मैंने अब तो मां को खो ही दिया

पर, हां आज मां ने फिर याद किया ।।।

Saturday, December 4, 2010

सूचनाएं उड़ रही हैं इंटरनेट के पंखों पर


- संजय द्विवेदी
सूचनाएं अब मुक्त हैं। वे उड़ रही हैं इंटरनेट के पंखों। कई बार वे असंपादित भी हैं, पाठकों को आजादी है कि वे सूचनाएं लेकर उसका संपादित पाठ स्वयं पढ़ें। सूचना की यह ताकत अब महसूस होने लगी है। विकिलीक्स के संस्थापक जूलियन असांजे अब अकेले नहीं हैं, दुनिया के तमाम देशों में सैकड़ों असांजे काम कर रहे हैं। इस आजादी ने सूचनाओं की दुनिया को बदल दिया है। सूचना एक तीक्ष्ण और असरदायी हथियार बन गयी है। क्योंकि वह उसी रूप में प्रस्तुत है, जिस रूप में उसे पाया गया है। ऐसी असंपादित और तीखी सूचनाएं एक असांजे के इंतजार में हैं। ये दरअसल किसी भी राजसत्ता और निजी शक्ति के मायाजाल को तोड़कर उसका कचूमर निकाल सकती हैं। क्योंकि एक असांजे बनने के लिए आपको अब एक लैपटाप और नेट कनेक्शन की जरूरत है। याद करें विकिलीक्स के संस्थापक असांजे भी एक यायावर जीवन जीते हैं। उनके पास प्रायः एक लैपटाप और दो पिठ्ठू बैग ही रहते हैं।

इस समय, सूचना नहीं सूचना तंत्र की ताकत के आगे हम नतमस्तक खड़े हैं। यह बात हमने आज स्वीकारी है, पर कनाडा के मीडिया विशेषज्ञ मार्शल मैकुलहान को इसका अहसास साठ के दशक में ही हो गया था। तभी शायद उन्होंने कहा था कि ‘मीडियम इज द मैसेज’ यानी ‘माध्यम ही संदेश है।’ मार्शल का यह कथन सूचना तंत्र की महत्ता का बयान करता है। आज का दौर इस तंत्र के निरंतर बलशाली होते जाने का समय है। विकिलीक्स नाम की वेबसाइट इसका प्रमाण है जिसने पूरी दुनिया सहित सबसे मजबूत अमरीकी सत्ता को हिलाकर रख दिया है। एक लोकतंत्र होने के नाते अमरीकी कूटनीति के अपने तरीके हैं और वह दुनिया के भीतर अपनी साफ छवि बनाए रखने के लिए काफी जतन करता है। किंतु विकिलीक्स की विस्फोटक सूचनाएं उसके इस प्रयास को तार-तार कर देती हैं। हेलेरी क्लिंटन की बौखलाहट को इसी परिपेक्ष्य में देखा जाना चाहिए।

अमरीका कुछ भी कहे या स्थापित करने का प्रयास करे, किंतु पूरी दुनिया का नजरिया उसकी ओर देखने का अलग ही है। इन खुलासों में उसे बहुत नुकसान होगा यह तो नहीं कहा जा सकता क्योंकि उसके बारे में ऐसी सूचनाएं अब तक दबी जुबान से कही जाती रही हैं, विकिलीक्स ने उस पर मुहर लगा दी है। सही मायने में यह सूचनाओं की विलक्षण आजादी का समय है। इंटरनेट ने सीमाओं को तोड़कर संवाद को जिस तरह सहज बनाया है, उसने संचार को सही मायने में लोकतांत्रिक बना दिया है। इस स्पेस को मजबूत से मजबूत सत्ताएं भेद नहीं सकतीं। विकिलीक्स से लेकर हिंदुस्तान में तहलका जैसे प्रयोग इसके प्रमाण हैं। आज ये सूचनाएं जिस तरह सजकर सामने आ रही हैं कल तक ऐसा करने की हम सोच भी नहीं सकते थे। संचार क्रांति ने इसे संभव बनाया है। नई सदी की चुनौतियां इस परिप्रेक्ष्य में बेहद विलक्षण हैं। इस सदी में यह सूचना तंत्र या सूचना प्रौद्योगिकी ही हर युद्ध की नियामक है, जाहिर है नई सदी में लड़ाई हथियारों से नहीं सूचना की ताकत से होगी। जर्मनी को याद करें तो उसने पहले और दूसरे विश्वयुद्ध के पूर्व जो ऐतिहासिक जीतें दर्जे की वह उसकी चुस्त-दुरुस्त टेलीफोन व्यवस्था का ही कमाल था। सूचना आज एक तीक्ष्ण और असरदायी हथियार बन गई है।

सत्तर के दशक में तो पूंजीवादी एवं साम्यवादी व्यवस्था के बीच चल रही बहस और जंग इसी सूचना तंत्र पर लड़ी गई, एक-दूसरे के खिलाफ इस्तेमाल होता यह सूचना तंत्र आज अपने आप में एक निर्णायक बन गया है। समाज-जीवन के सारे फैसले यह तंत्र करवा रहा है। सच कहें तो इन्होंने अपनी एक अलग समानांतर सत्ता स्थापित कर ली है। रूस का मोर्चा टूट जाने के बाद अमरीका और उसके समर्थक देशों की बढ़ी ताकत ने सूचना तंत्र के एकतरफा प्रवाह को ही बल दिया है। सूचना तंत्र पर प्रभावी नियंत्रण ने अमरीकी राजसत्ता और उसके समर्थकों को एक कुशल व्यापारी के रूप में प्रतिष्ठित किया है। बाजार और सूचना के इस तालमेल में पैदा हुआ नया चित्र हतप्रभ करने वाला है। पूंजीवादी राजसत्ता इस खेल में सिंकदर बनी है। ये सूचना तंत्र एवं पूंजीवादी राजसत्ता का खेल आप खाड़ी युद्ध और उसके बाद हुई संचार क्रांति से समझ सकते हैं। आज तीसरी दुनिया को संचार क्रांति की जरूरतों बहुत महत्वपूर्ण बताई जा रही है। अस्सी के दशक तक जो चीज विकासशील देशों के लिए महत्व की न थी वह एकाएक महत्वपूर्ण क्यों हो गई । खतरे का बिंदू दरअसल यही है। मंदीग्रस्त अर्थव्यवस्था से ग्रस्त पश्चिमी देशों को बाजार की तलाश तथा तीसरी दुनिया को देशों में खड़ा हो रहा, क्रयशक्ति से लबरेज उपभोक्ता वर्ग वह कारण हैं जो इस दृश्य को बहुत साफ-साफ समझने में मदद करते हैं । पश्चिमी देशों की यही व्यावसायिक मजबूरी संचार क्रांति का उत्प्रेरक तत्व बनी है। हम देखें तो अमरीका ने लैटिन देशों को आर्थिक, सांस्कृतिक रूप से कब्जा कर उन्हें अपने ऊपर निर्भर बना लिया। अब पूरी दुनिया पर इसी प्रयोग को दोहराने का प्रयास जारी है। निर्भरता के इस तंत्र में अंतर्राट्रीय संवाद एजेंसियां, विज्ञापन एजेसियां, जनमत संस्थाएं, व्यावसायिक संस्थाए मुद्रित एवं दृश्य-श्रवण सामग्री, अंतर्राष्ट्रीय दूरसंचार कंपनियां, अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसियां सहायक बनी रही हैं।

लेकिन ध्यान दें कि सूचनाएं अब पश्चिम के ताकतवर देशों की बंधक नहीं रह सकती। उन्होंने अपना निजी गणतंत्र रच लिया है। वे उड़ रही हैं। ताकतवरों की असली कहानियां कह रही हैं। वे बता रही हैं- अमरीका किस तरह का जनतंत्र है। उसकी कथनी और करनी के अंतर क्या हैं। यह दरअसल सूचनाओं का लोकतंत्र है। इसका स्वागत कीजिए। क्योंकि किसी भी देश में अगर लोकतंत्र है तो उसे सूचनाओं के जनतंत्र का स्वागत करना ही पड़ेगा। अब सूचनाएं अमरीका और पश्चिमी मीडिया कंपनियों की बंधक नहीं रहीं, वे आकाश मार्ग से आ रही हैं हमको, आपको, सबको आईना दिखाने। वह बताने के लिए कि जो हम नहीं जानते। इसलिए विकिलीक्स के खुलासों पर चौंकिए मत, नीरा राडिया के फोन टेपों पर आश्चर्य मत कीजिए, अब यह सिलसिला बहुत आम होने वाला है। फेसबुक ब्लाग और ट्विटर ने जिस तरह सूचनाओं का लोकतंत्रीकरण किया है उससे प्रभुवर्गों के सारे रहस्य लोकों की लीलाएं बहुत जल्दी सरेआम होगीं। काले कारनामों की अंधेरी कोठरी से निकलकर बहुत सारे राज जल्दी ही तेज रौशनी में चौंधियाते नजर आएगें। बस हमें, थोड़े से जूलियन असांजे चाहिए।

Thursday, December 2, 2010

पत्रकार रोशन जनसंचार विभाग में

जनसंचार विभाग में पत्रकार रोशन का स्वागत



भोपाल। राष्ट्रीय सहारा के पत्रकार रोशन के आयोजन में उपस्थित श्री सौरभ मालवीय और विभागाध्यक्ष संजय द्विवेदी।

अखबारों में अभी अच्छा काम करने की गुंजाइश: रोशन


राष्ट्रीय सहारा के वरिष्ठ पत्रकार रोशन जनसंचार विभाग में
भोपाल। मीडिया में प्रतिस्पर्धा बहुत तेजी से बढ़ी है, अब पत्रकार के लिए रचनात्मकता दिखाने की गुंजाइश नाममात्र ही बची है। लेकिन अखबारों में अभी भी रचनात्मक कार्यों के लिए स्थान है। यह बात कही दैनिक राष्ट्रीय सहारा के दिल्ली ब्यूरो प्रमुख रोशन ने। वे माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय,भोपाल के जनसंचार विभाग में विद्यार्थियों को सम्बोधित कर रहे थे।
उन्होंने बताया कि पत्रकार के सामाजिक एवं निजी जीवन के बीच काफी महीन अंतर रह जाता है। क्योंकि जिस तरह का ये पेशा है उसमें काम करने वाले को काफी समर्पित रहने की आवश्यकता होती है। इस दौरान विद्यार्थियों ने उनसे प्रश्न भी पूछे। एक प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा कि जैसे-जैसे पत्रकारिता में व्ययवसायीकरण बढ़ा है, उतनी तेजी से भ्रष्टाचार भी बढ़ा है। अपनी कठिनाई के दिनों का अनुभव बांटते हुए उन्होंने कहा कि कठिन समय ही सबसे अच्छा शिक्षक साबित होता है। विद्यार्थियों को चाहिए कि वह शुरुआती दौर में निराश होने के बजाय सब्र और संयम से काम लें। इस दौरान विभागाध्यक्ष संजय द्विवेदी, डॉ.मोनिका वर्मा, सदीप भट्ट एवं विश्वविद्यालय के प्रकाशन अधिकारी सौरभ मालवीय मौजूद रहे। कार्यक्रम के प्रारंभ में छात्रा शालिनी ने श्री रोशन का स्वागत किया।

मनोज मनु से संवाद में मौजूद विद्यार्थी

श्री मनोज मनु के साथ संवाद में मौजूद विद्यार्थी

पत्रकार वीरेंद्र शर्मा का सम्मान


भोपाल। पत्रकार वीरेंद्र शर्मा का सम्मान का सम्मान करते हुए छात्र सद्दाम हुसैन मंसूरी।

जनसंचार के छात्रों के बीच एंकर मनोज मनु

चुनौतियां बहुत हैं इलेक्ट्रानिक मीडिया में


- मनोज मनु ने की जनसंचार के विद्यार्थियों से बातचीत
भोपाल। बेशक इलेक्ट्रानिक मीडिया में चुनौतियां तो बढ़ी हैं, पर अभी भी इस क्षेत्र में अच्छे लोगों की कमी है। मीडिया के विद्यार्थियों को चाहिए कि वह इस कमी को दूर करें। ये विचार प्रख्यात एंकर एवं सहारा समय-छत्तीसगढ़ -मध्य प्रदेश के चैनल प्रमुख मनोज मनु ने माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग के विद्यार्थियों को सम्बोधित करते हुए व्यक्त किए।
अपने संक्षिप्त भाषण में श्री मनु ने अपने कार्यक्षेत्र के अनुभव बांटे और विद्यार्थियों के प्रश्नों के भी उत्तर दिए। मीडिया की मौजूद स्थिति के बारे में पूछे गए प्रश्न का उत्तर देते हुए उन्होंने कहा कि इलेक्ट्रानिक मीडिया के कार्यक्रमों की रुपरेखा अभी टीआरपी के अनुसार तय हो रही है। लेकिन मीडिया प्रबंधक भी टीआरपी के इस गणित से संतुष्ट नहीं है और चैनल,कार्यक्रम की रेटिंग के अन्य विकल्पों की तलाश की जा रही है। कार्यक्रम की शुरुआत में बीएएमसी की छात्रा सोमैया युसुफ ने पुष्प-गुच्छ देकर श्री मनु का स्वागत किया। सहारा समय के ब्यूरो प्रमुख वीरेन्द्र शर्मा भी इस दौरान मौजूद रहे। उनका स्वागत बीएएमसी के छात्र सद्दाम हुसैन मंसूरी ने किया। इस दौरान विभागाध्यक्ष संजय द्विवेदी, डॉ.मोनिका वर्मा, सदीप भट्ट एवं प्रकाशन अधिकारी सौरभ मालवीय मौजूद रहे।

Wednesday, December 1, 2010

स्वागत भाषण करते हुए संजय द्विवेदी


भोपाल। प्रवक्ता डाट काम के संपादक संजीव सिन्हा और जयंतो खान के स्वागत में अपना वक्ततव्य देते विभागाध्यक्ष संजय द्विवेदी।

कार्यक्रम में शामिल छात्र


भोपाल। श्री जयंतो खान का कार्यक्रम में मौजूद विद्यार्थी।

श्री जयंतो खान का स्वागत


भोपाल। विभाग में पधारे पत्रकार जयंतो खान का स्वागत करते हुए एमएएमसी- पहले सेमेस्टर की छात्रा अमृता राज।

संजीव सिन्हा का स्वागत


भोपाल। विभाग में पधारे प्रवक्ता डाट काम के संपादक संजीव सिन्हा का स्वागत करते हुए एमएएमसी- तृतीय सेमेस्टर की छात्रा नितिशा कश्यप।

हर रंग की है अपनी कहानीः जयंतो खान


बदलते मीडिया और उसकी जरूरतों को समझना जरूरी
भोपाल, 29 नवंबर। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग में आयोजित एक कार्यक्रम में देश के दो ख्यातिनाम पत्रकारों ने विद्यार्थियों से अपने अनुभव बांटे। ये मेहमान थे बंगला पत्रिका ‘लेट्स गो’एवं ‘साइबर युग’के प्रधान सम्पादक जयंतो खान (कोलकाता) एवं प्रवक्ता डॉट काम के प्रधान सम्पादक संजीव सिन्हा ( दिल्ली)।
पत्रकार जयंतो खान ने विद्यार्थियों को अखबार व पत्र-पत्रिकाओं की साज-सज्जा के बारे में जानकारी दी। रंगों का विज्ञान समझाते हुए उन्होंने हर रंग की विशेष अपील एवं प्रभावों के बारे में बताया। पत्र-पत्रिकाओं और अखबारों में इस्तेमाल होने वाली छपाई तकनीक के राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य के बारे में भी जानकारी दी। इसके अलावा उन्होंने विजुअलाइजेशन, और ग्राफिक्स के बारे में भी छात्रों को जानकारी देते कहा कि बदलते मीडिया और उसकी जरूरतों को जानना बहुत जरूरी है।
प्रवक्ता डॉट काम के सम्पादक संजीव सिन्हा ने बेव पत्रकारिता के बारे में जानकारी दी। अपने अनुभव बांटते हुए उन्होंने कहा कि जो तेजी इस माध्यम में है वह मीडिया की अभी अन्य किसी विधा में नहीं है। यही तेजी इस माध्यम के लिए वरदान है। छात्रों ने बेव पत्रकारिता से जुडी जानकारियों के अलावा इससे जुड़े विभिन्न आयामों जैसे- विश्वसनीयता, सामग्री आदि के बारे में भी प्रश्न पूछे। उन्होंने कहा वेब पत्रकारिता सबसे नया किंतु सबसे प्रभावी माध्यम साबित होने जा रही है। इसने जहां परंपरागत समाचार माध्यमों को कड़ी चुनौती दी है वहीं अपनी बहुआयामी उपयोगिता से यह नई पीढ़ी का सबसे प्रिय माध्यम है। आज भले हमारे पुस्तकालय खाली हों किंतु साइबर कैफे युवाओं से भरे पड़े हैं। यह माध्यम बहुत जल्दी जिंदगी में भी एक खास जगह बना लेगा। कार्यक्रम के प्रारंभ में विभागाध्यक्ष संजय द्विवेदी ने अतिथियों का स्वागत किया। इस मौके पर विश्वविद्यालय के प्रकाशन अधिकारी सौरभ मालवीय, राकेश ठाकुर खासतौर पर मौजूद रहे। आरंभ में अतिथियों को पुष्पगुच्छ देकर विभाग की छात्राओं नीतिशा कश्यप और अमृता राज ने स्वागत किया।

Sunday, November 28, 2010

आज भी जब मुम्बई को याद करता हूँ



ओम प्रकाश
BAMC I SEM
भोपाल, 28 नवम्बर 2010





कभी ओबेराय तो कभी,
नरीमन में हुए धमाके को याद करता हूँ।
कभी गोलिओं की बोछार तो कभी,
ताज में दहकती आग को याद करता हूँ।
आज भी जब मै उस मुंबई के दर्दनाक हमले को याद करता हूँ,
कभी खून की नदियाँ तो कभी,
आसुओं के सागर को याद करता हूँ।
कभी लोगो के ड़र तो कभी,
उनकी चीख को याद करता हूँ।
आज भी जब मै आतंकवाद से लडती मुंबई को याद करता हूँ,

कभी बेगुनाहों के ड़र तो कभी,
उनके दर्द को महसूस करता हूँ।
कभी भारतवासी के उमड़ते गुस्से को तो कभी,
लाचारी को महसूस करता हूँ।
आतंकवाद की इस गहरी चोट से अपने देश को कभी,
अपाहिज तो कभी मजबूर सा महसूस करता हूँ।

अपनी जान की बाजी लगाकर आतंकवाद के खिलाफ लड़ने वाले,
भारतीय को सलाम करता हूँ,
हिंसा के खिलाफ एकजुट होकर लड़ने वाले भारतीयों में आज भी छिपी एकता
को सलाम करता हूँ,

उनकी देश भक्ति को सलाम करता हूँ।

Tuesday, November 23, 2010

जनसंचार विभाग में नए व्याख्याता अभिजीत वाजपेयी का स्वागत समारोह


भोपाल, 23 नवंबर,2010। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विवि के जनसंचार विभाग में नवनियुक्त अस्सिटेंट प्रोफेसर अभिजीत वाजपेयी के स्वागत में आयोजित कार्यक्रम में श्री वाजपेयी का स्वागत करते हुए विभागाध्यक्ष संजय द्विवेदी। इस अवसर पर विभागाध्यक्ष ने श्री वाजपेयी के सुखद भविष्य की कामना की। कार्यक्रम में डा. मोनिका वर्मा, संदीप भट्ट, शलभ श्रीवास्तव विशेष रूप से मौजूद थे।

आपकी शान में पेश है ये गजल


भोपाल, 23 नवंबर,2010। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विवि के जनसंचार विभाग में नवनियुक्त अस्सिटेंट प्रोफेसर अभिजीत वाजपेयी के स्वागत में आयोजित कार्यक्रम में गजल गाते हुए बीए-मास काम की छात्रा योगिता राठौर।

मुझे कुछ कहना है


भोपाल, 23 नवंबर,2010। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विवि के जनसंचार विभाग में नवनियुक्त अस्सिटेंट प्रोफेसर अभिजीत वाजपेयी के स्वागत में आयोजित कार्यक्रम में अपना वक्तव्य देते हुए वाजपेयी सर।

अभिजीत वाजपेयी सर का स्वागत समारोह


भोपाल, 23 नवंबर,2010। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विवि के जनसंचार विभाग में नवनियुक्त अस्सिटेंट प्रोफेसर अभिजीत वाजपेयी के स्वागत में आयोजित कार्यक्रम में उपस्थिति डा. मोनिका वर्मा, विभागाध्यक्ष संजय द्विवेदी और अभिजीत वाजपेयी।

कार्यक्रम में उपस्थित विद्यार्थी


भोपाल, 23 नवंबर,2010। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विवि के जनसंचार विभाग में नवनियुक्त अस्सिटेंट प्रोफेसर अभिजीत वाजपेयी के स्वागत में आयोजित कार्यक्रम में उपस्थित विद्यार्थी।

हम साथ-साथ हैं


भोपाल, 23 नवंबर,2010। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विवि के जनसंचार विभाग में नवनियुक्त अस्सिटेंट प्रोफेसर अभिजीत वाजपेयी के स्वागत में आयोजित कार्यक्रम में उपस्थित विद्यार्थी।

सर आपको नमन


भोपाल। अभिजीत वाजपेयी सर के स्वागत समारोह में उनका स्वागत करते हुए दीपक त्यागी।

स्वागत है आपका



भोपाल, 23 नवंबर,2010। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विवि के जनसंचार विभाग में नवनियुक्त अस्सिटेंट प्रोफेसर अभिजीत वाजपेयी के स्वागत में आयोजित कार्यक्रम में स्वागत भाषण करते हुए एमएएमसी की छात्रा नीतिशा कश्यप।

Should prostitution be made legal?



NITISHA KASHYAP
MAMC III SEM
BHOPAL,23 NOVEMBER 2010


We all know that India has an oldest past of prostitution in the world. It was started by the kings and at that time they were called “nagar vadhu”. They exist even today and now they are called prostitutes or sex workers. The question is should their work be legalized or not.
Sonagachi in Kolkata and Malishahi in Orissa are quite famous red light areas. According to reputed English daily there were more than 10, 0000 sex workers, in the year 1990, in Mumbai, Kolkata, Bangalore, Hyderabad and Delhi. The major reason for women to join this field is poverty and lack of money. Other reasons being family dispute, trafficking, rape etc. Once they enter it becomes difficult and almost impossible for them to get out of that cobweb. In fact, finding no way out they actually start compromising in that situation and in the later stage they help in bringing more girls to this profession.
If we neglect the morality issue, the sex workers are doing nothing wrong. They are simply earning their livelihood. Obviously no woman willingly comes to this field. As they cannot find a way to earn they get into this business. For the survival purpose they start selling themselves. They give service for which they earn money, a means for surviving. It might be surprising to know that, though they come here for money, they are deprived of money. Their money is handled by the pimps and dalals. For a client they get Rs 8. (as told by a sex worker of Sonagachi in her interview. ) also they can earn till the age of 30 only, after that either they marry the pimps and get involved in this business or they buy a room and rent it to other prostitutes, or start selling betel leaves or cigarette in that red light area.
Just like any other work their work should also get recognition in the eyes of law. In India, the prostitution work is illegal. The sex workers face many problems. They can’t hold a bank account, can’t buy any property or a hospital card for checkups. Why? Literally they are a non-entity for the administration. Society neglects them. Ironically our society never neglects or looks down upon men who pay their visit to them. ( May be because we live in a patriarchal society).
Health happens to be one of the concerns. If this work is legalized they can have property, bank account, and can even file complaints against the harassment. The child prostitutions will get a hold. The workers would be provided a proper medication. At present maximum of them are suffering from AIDS. The NGOs provide them condoms but they are not able to control the increase in HIV positive cases. So if this work is made legal they would get a proper health facility, pimps will be curbed, trafficking will be controlled and the most important the child prostitution will stop.
But the question is will legalizing stop the flourishment of this business. No, what I think is “prostitution breeds prostitution”. Legalizing will not help. Even if it is legalized the social construct will not accept them. We may provide them rights (as we are in a democratic state it is unfair not to give them equal rights.) but we cannot change people’s perception nor can we ask society to give them respect as it becomes a personal matter whom to respect and whom to not. Secondly, even if it is legalized there is no guarantee that the clients will use condoms. As that interview red, though they are provided condoms manyatimes the clients refuse to use it and since they have to earn they agree. So there will be no curb on AIDS.
As far as owning a property is concerned they would not get out of that place or of that business. There is a place called Sukha, in Madhya Pradesh (few kilometers away from Sagar). It is a red light village. Each and every member of this village is involved in this business. Fathers, husbands and brothers get the client for the females in their house. The government under the Indra Awaas Yojna has allotted all of them a house to live. Shockingly they have rented them for the purpose of prostitution. The land given to them for farming have been sold out and alcoholic drinks were brought out. This means that they don’t want to get out of that business (Off course we cannot generalize). So legalizing their business will, instead of eradicating, make it more intense.
Thirdly, why cannot we teach those, who want to get out of that hell, how to make candles, handicraft works, pappad making or pickles etc. We can also educate them. If government can provide houses and lands for farming they can obviously provide funds for this noble cause. Also the NGOs fighting for their legalization can also help them by educating them and by making them learn.
Though it might sound little rude but in order to give them social respect (which we are not going to achieve in the near future) we cannot legalise the work and hence leave the business to grow like a quagmire.

Saturday, November 20, 2010

AND YOU SAY YOU LOVE ME



BHOPAL, 20 NOVEMBER 2010
NITISHA KASHYAP
MAMC III SEM






You say you love me but
You never gave me roses to hold
Nor, like Romeos, promises told.
You never took me to parks
Tryst for you was a concept dark.
And you say you love me.
I know, you have feelings true
At least you must feel free
To tell how much you love me.
But they are confined to your soul.
And you say you love me.
Why did you hurt me?
Not once but twice and thrice
Its reverie alone makes me shiver.
But I love you more than ever.
Just want to know
If you feel the same
Do say and let me know
If we share the feeling same

Tuesday, November 16, 2010

शब्द-बाणों का राजनैतिक संग्राम




प्रो. बृज किशोर कुठियाला
कुलपति
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता,
एवं संचार विश्वविद्यालय,

भोपाल,16 नवंबर,2010


शब्द तो ब्रह्म ही है, परन्तु कुछ लोग शब्दों को भ्रम बना लेते हैं। हमारे देश के एक प्रतिष्ठित राजनेता ने पिछले दिनों एक अन्य उभरते हुए राजनेता को गंगा में फेंक देने की घोषणा की। वैसे तो भारतीय संस्कृति में गंगा मोक्ष का द्वार है और गंगा की शरण में जो भेजे उसे शुभचिंतक ही मानना चाहिए। परन्तु जिस संदर्भ में यह वाक्य कहा गया उसके आगे व पीछे नकारात्मकता ही थी, इसलिए गंगा में फेंक देने का अर्थ यह लगाया गया कि श्री राहुल गांधी को राजनीति से विदाई दे देनी चाहिए। सार्वजनिक संवाद में इस तरह की घोषणाएं उचित हैं या अनुचित यह तो श्रोता, पाठक व दर्शक स्वयं तय करेंगे। परन्तु विरोधियों के बीच में संवाद की मर्यादाएं तो राजनीतिज्ञ ही तय करेंगे।
कश्मीर के विषय पर एक सुप्रसिद्ध अंतरराष्ट्रीय सम्मान प्राप्त लेखिका एवं सामाजिक कार्यकर्ता का बयान आजकल आम चर्चा का विषय है। लगभग पूरा का पूरा सामाजिक संवाद बयान के विरोध में है। परन्तु उसी सभा में लेखिका ने अपने देश की जो व्याख्या की वह भी भ्रमित मस्तिष्क की द्योतक है। लेखिका ने अपने देश को ‘भूखे नंगों का देश’ कहा। एक अर्द्ध सदी से पूर्व भारत की ऐसी व्याख्या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रचलित थी। उस दौर में फ़िल्मकार पैसा फेंकते और जब ग़रीब उस पैसे को उठाने के लिये छीना झपटी करते थे तो उसकी फ़िल्म बनाकर देश विदेश में भारत की छवि का निर्माण करते थे, पर आज ऐसा नहीं है। भारतीय अर्थशास्त्रियों और कूटनीतिज्ञों से अधिक विदेशी विशेषज्ञों का मानना है कि भारत में जो पिछले 60 वर्षों में विकास किया है, वह अद्वितीय है, क्योंकि यह विकास प्रजातंत्र के वातावरण में हुआ है।
आज भारत के करोड़ों युवक-युवतियाँ पूरे विश्व में अनेक तरह के तकनीकी व सृजनात्मक कार्यों में लगे हैं। आम समृद्धि बढ़ी है, देश में नवसृजन का वातावरण चारों ओर है। कुछ भूख और नंगापन भी है, परन्तु हमारी दृष्टि कहाँ है ? क्या विकास की सकारात्मकता को प्रसारित करके सुख और प्रेरणा का वातावरण बनाना है या निर्धनता को असफलताओं के भ्रम के रूप में प्रस्तुत करना है। लेखिका में कहीं न कहीं दृष्टि-दोष है। पाक अधिकृत कश्मीर के लोगों पर फौजी अत्याचार और मानवाधिकारों का उल्लंघन उन्हें नहीं दिखता है और शहीद सैनिकों के शव उन्हें कुछ ही जातियों के दिखते हैं। वे चश्मा भी पहनती है, परन्तु खोजी पत्रकारिता का विषय यह होना चाहिए कि उनका चश्मा कहाँ बना है ? और उसके लैंस किस रंग के हैं ? उनका बचपन कैसा था ? और किस प्रकार से उन्हें ‘बुकर सम्मान’ मिला। यह भी सामान्य जन को पता लगाना चाहिए।
शब्दों का ब्रह्म होना या भ्रम होना, बोलने व सुनने वालों पर तो निर्भर है ही परन्तु संदर्भ भी महत्वपूर्ण होता है। भारत के एकमात्र फ़ील्ड मार्शल ज. मानेक शा ने पाकिस्तानी सेना के लिए अँगरेज़ी के शब्द ‘बैन्डीक्यूट्स’ का प्रयोग किया था। उनसे पाकिस्तान सेना की बढ़ती हुई संख्या के बारे में पूछा गया था। यह शब्द अधिक प्रचलित नहीं है और अधिकतर लोगों ने इसे शब्द कोष में देखा। ‘बैन्डीक्यूट्स’ वो जंगली चूहे हैं जो खेतों में पाये जाते हैं। शब्द ने ब्रह्म होने को सिद्ध किया और भ्रम की कोई गुंज़ाइश नहीं है। इसी तरह से लाल बहादुर शास्त्री ने ‘जय जवान, जय किसान’ की घोषणा करके सारे देश को एक माला में पिरो दिया था। श्रीमती इंदिरा गांधी ने ‘ग़रीबी हटाओ’ का नारा देकर राष्ट्र के सम्मुख एक केन्द्रित उद्देश्य रखा था और कई वर्षों तक योजना बनाकर इस लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयास हुआ। परन्तु राजनीति के ही कुछ खिलाड़ियों ने ग़रीबी शब्द से आखरी ‘ई’ की मात्रा हटाकर शब्दों का भ्रम पैदा कर दिया।
हिटलर ने शब्द जाल बिछाकर ही उस समय की जर्मन जनता को इतना भ्रमित कर दिया था कि उन्हें हिटलर ही ब्रह्म है का भ्रम हो गया। उनके जनसम्पर्क मंत्री गोयबल्स तो शब्दों के भ्रम के विशेषज्ञ थे। बार-बार असत्य बोलने से भ्रम भी सत्य के रूप में स्थापित हो जाता है के सिद्धांत का उन्होंने बख़ूबी प्रयोग किया। आज भी इस सिद्धांत के प्रयोग के कई उदाहरण सामने आते हैं। गांधी की हत्या में एक विशेष संस्था का हाथ नहीं है, यह कई बार न्यायालयों में सिद्ध हो चुका है, परन्तु राजनीति के खेल में इस असत्य को भी कई बार दायित्ववान राजनीतिज्ञ प्रयोग करते रहे हैं। हमारी दृष्टि का रंग कोई भी हो परन्तु भगवा रंग को आंतकवाद से जोड़ना भी एक भ्रम जाल बुनने का ही प्रयास लगता है।
ऐसा नहीं है कि शब्दों का दुरूपयोग हर बार जानबूझकर ही होता हो, हाल ही में एक भारतीय उदघोषक ने अल्पज्ञानी होने के कारण अफ्रीका के एक देश के विषय में अपमानजनक टिप्पणी कर दी। परन्तु समय रहते उसने अपनी ग़लती को माना और देश के प्रतिष्ठित व्यक्ति को क्षमा मांगनी पड़ी। आस्ट्रेलिया के एक टेलीविजन उद्घोषक ने भारतीय खिलाड़ी के बारे में अपमानजनक शब्दों का प्रयोग किया और उसे अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा। एक भूतपूर्व मंत्री ने तो राष्ट्रमण्डल खेलों के असफल होने की कामना सार्वजनिक रूप से कर डाली। वह महानुभाव आज अपने ही शब्दों के घाव सहला रहे हैं।
आधुनिक मानव समाज में तो शब्दों का अंतरताना हर समय अधिक से अधिक गहन हो रहा है। पूरा का पूरा मीडिया शब्दों का ही खेल है। चित्र होने के बावजूद भी शब्दों के बिना संचार व संवाद की स्थिति नहीं बनती। छोटे समूहों में सार्वजनिक वार्ता भी मीडिया के द्वारा विश्वव्यापी हो जाती है और एक शब्द का बाण अनेकों घाव करता है। शब्द मरहम का भी काम करते हैं। स्वामी रामकृष्ण परमहंस के शब्दों ने बालक नरेन्द्र के उद्वेलित मन को शान्त किया और विवेकानन्द का जन्म हुआ। डॉक्टर व वैद्य के आशावादी शब्द ‘दवाई’ से अधिक प्रभावकारी हो जाते हैं। बुद्धिशील व्यक्ति शब्दों के द्वारा समाज में सुख, सहयोग और समरसता सजाता है और यदि बुद्धि कम हुई या भ्रमित हुई तो अपने ही साथी को गंगा में फेंकने का विचार आता है और अपना ही देश भूखा नंगा नजर आता है।
किसी भी समाज में शब्दों को तीखे चुभते और विध्वंशकारी बाणों के रूप में प्रयोग करने वाले लोग तो रहेंगे ही, परन्तु क्या इन शब्द बाणों को प्रचालित व प्रसारित कर उनकी घाव बनाने की क्षमता को कई गुणा वृद्धि करने का प्रयास मीडिया को करना चाहिए ? कहीं न कहीं मीडिया को समाज का ध्यान तो रखना ही पडेगा कि वह अधिक भ्रमित व्यक्तियों द्वारा प्रसारित जहरीले शब्दों को सम्पादित करे या उनका वितरण करे?

Thursday, November 4, 2010

अंधकार को क्यों धिक्कारें, अच्छा है एक दीप जला लें।



रोशनी का त्यौहार दीपावली आपकी जिंदगी में भी ऐसा उजाला लाए जिसकी चमक कभी कम न हो। आप व आपके परिवार को भारतीय समाज के महापर्व दीपावली की बहुत-बहुत शुभकामनाएं।
-जनसंचार विभाग के छात्र, कर्मचारी एवं अध्यापक

Tuesday, November 2, 2010

शाबाश मध्य प्रदेश




रुपेन्द्र सिंह चौहान
BAMC I SEM
भोपाल,2 नवंबर,2010

सरकारों के लिए नई-नई योजनाएँ लाना कोई नई बात नहीं है पर पिछले दिनों मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की पहल पर लोकसेवा प्रदाय गारंटी अधिनियम लागू किया गया। यह मुख्यमंत्री की सराहनीय पहल है, क्योंकि यह बेहद महत्वपूर्ण और अपने प्रकार का एकमात्र अधिनियम है। जो भारत के किसी अन्य राज्य में अभी तक लागू नही है। यह अधिनियम आम जनता को सुनिश्चित करता है कि कोई भी सेवा जो सरकारी विभागों से सम्बन्धित हो निर्धारित किये गए समय में मिल पाए। हालांकि इसे अभी सिर्फ 9 विभागों की 26 सेवाओं के लिये किया गया है परन्तु उसे बाद में पूर्णरूप से सभी विभागों में सभी सेवाओं के लिए लागू किया जाएगा जिसके दायरें में हर मंत्री-अधिकारी आयेंगे। इससे कुछ हद तक तो जरूर भ्रष्टाचार, आम लोगों की तकलीफें और अधिकारियों की मनमानी है कम होगी। नागरिकों को बेवजह सरकरी दफ्तरों के चक्कर नही लगाना होगा, फिर शायद कोई किसान कलेक्टरेट पर आत्महत्या की कोशिश न करें, फिर शायद नागरकों के रिश्वत के पैसे बच जाएँ, फिर शायद वृद्ध जनों को पेंशन के लिए सालों तक चक्कर न काटनें पडे, फिर शायद बीपीएल कार्ड भी गारिबों को मिल जाएँ। पर अब अधिनियम के आने से न भी मिल पाएँ तो भी ज्यादा दिक्कत नहीं होगी क्योंकि इसी अधिनियम में एक विशेष प्रवधान के तहत अगर अधिकारी निश्चित समय पर सेवा नहीं दे पाता है, तो उसके प्रतिदिन के हिसाब से 250 रूपए काटे जाएँगे जो अधिकतम 5000 रूपए तक होंगे और यह राशि उस आवेदक को मिलेगी जिसका समय बर्बाद हुआ है । पर फिर भी एक डर है कि कहीं यह भी बाकी ढेरो कानूनों की तरह ही न निकले, जिनमें चार दिन की चाँदनी और फिर अँधेरी रात हो। पर यह केवल मेरा अनुमान मात्र है, मैं किसी नतीजे पर नहीं जाना चाहता पर हाँ इतना कहूँगा कि मध्यप्रदेश सरकार ने इस अधिनियम को लाकर बहुत साहसिक कदम उठाया है क्योंकि इसके दायरे में मंत्रियों के आने से भ्रष्ट तंत्र में सुधार आने की उम्मीद है। पर शुरू में तो तलवार अधिकारियों के सर ही लटकनी है और ये जरूरी भी थी क्योंकि वे कैसा भी काम करें उन्हें कोई हटा नहीं सकता और उनकी पदोन्नति भी नहीं रोकी जा सकती है। इतनी छूट तो सिर्फ हमारे देश में ही मिलती है । वहीं दूसरी ओर फ्राँस में पदोन्नति के लिए भी विशेष परिक्षा से गुजरना होता है । और चीन में भी जब पिछले साल एक सर्वे रिपोर्ट छपी जिसमें 90 प्रतिशत अधिकारियों को भ्रष्ट बताया गया के वहाँ की सरकार ने तुरंत एक अलग विभाग का गठन कर दिया । विभाग ने यह नियम बना दिया कि लगातार दो वार्षिक समिक्षाओं में अयोग्य साबित होने वाले अधिकारी को पद से हटा दिया जाएगा । पर हमें कम-से-कम लोकसेवा प्रदाय गारंटी अधिनियम से अफसरों की मनमानी कम होने का तो पूरा विश्वास है।
लेकिन अब केन्द्र सरकार को भी जाग जाना चाहिए और मध्यप्रदेश से सबक लेकर इस कानून को पूरे देश में लागू करवाना चाहिए जिसके दायरे में सभी प्रशासनिक अधिकारियों से लेकर नेता मंत्री आ जाए । और अगर ऐसा कानून नहीं आता है तो केन्द्र सरकार से निकला एक रूपया जनता के पास दस पैसे के रूप में ही पहुँचेगा, हम हमेशा विकास दर में चीन से पीछे ही रहेंगे , हम पिछले साल भ्रष्ट देशों की सूची में 74वें स्थान पर थे और आगे भी इसी आँकडे के आसपास झूलते रहेंगे, हम आगे भी कामनवैल्थ गेम्स की तैयारी में फिनीशिंग टच गेम्स शुरु होने के आखिरी दिन ही देंगे । पर हमारी सरकार की कोशिशें कई बदलाव ला सकती है। पिछलें दिनों अमेरिका की एक मैग्जीन का सर्वे छपा जिसमें भारत को 2025 तक दुनिया का अमेरिका और चीन के बाद तीसरा सबसे ताकतवर देश माना गया, जिससे हमारा सरकारी तंत्र खुशी से उछल पड़ा। पर हम अगर आज की अव्यवस्थाओं के बीच भी 2025 तक दुनिया की तीसरी सबसे बडी ताकत बनने का दम रखते है तो थोड़े बदलाव से सबसे बड़ी ताकत भी बन सकते है। आज जररूत सिर्फ एक पहल की है । ताकि हम बदलाव ला सके अपने आप में, फिर चीन क्या हम 2025 तक अमेरिका को भी पिछे छोड सकते है।

Monday, November 1, 2010

मीडिया की आचार संहिता बनाएगा पत्रकारिता विश्वविद्यालय



माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल की महापरिषद की बैठक में कई महत्वपूर्ण फैसले


- डा. नंदकिशोर त्रिखा, प्रो. देवेश किशोर, रामजी त्रिपाठी और आशीष जोशी बने प्रोफेसर
भोपाल, 1 नवंबर, 2010।

माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल की पिछले दिनों सम्पन्न महापरिषद की बैठक में कई महत्वपूर्ण निर्णय लिए गए। महापरिषद के अध्यक्ष और प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की अध्यक्षता में हुयी इस बैठक का सबसे बड़ा फैसला है मीडिया के लिए एक आचार संहिता बनाने का। इसके तहत विश्वविद्यालय मीडिया और जनसंचार क्षेत्र के विशेषज्ञों के सहयोग से तीन माह में एक आचार संहिता का निर्माण करेगा और उसे मीडिया जगत के लिए प्रस्तुत करेगा। पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो.बीके कुठियाला के कार्यकाल की यह पहली बैठक है, जिसमें विश्वविद्यालय को राष्ट्रीय स्वरूप देने के लिए महापरिषद ने अपनी सहमति दी और कहा है कि इसे मीडिया, आईटी और शोध के राष्ट्रीय केंद्र के रूप में विकसित किया जाए।
नए विभाग- नई नियुक्तियां- विश्वविद्यालय में शोध और अनुसंधान के कार्यों को बढ़ावा देने के लिए संचार शोध विभाग की स्थापना की गयी है। जिसके लिए प्रोफेसर देवेश किशोर की संचार शोध विभाग में दो वर्ष के लिये प्रोफेसर के पद पर नियुक्ति का फैसला लिया गया है। इस विभाग में मौलिक शोध व व्यवहारिक शोध के कई प्रोजेक्ट डॉ. देवेश के मार्गदर्शन में चलेंगें। प्रोफेसर (डॉ.) नंदकिशोर त्रिखा की दो वर्ष के लिये सीनियर प्रोफेसर पद पर नियुक्ति की गयी है। अगले दो वर्ष में डॉ. त्रिखा के मार्गदर्शन में मीडिया की पाठ्यपुस्तकें हिन्दी व अंग्रेजी में लिखी जाएंगी। इस काम को अंजाम देने के लिए विश्वविद्यालय में अलग से पुस्तक लेखन विभाग की स्थापना होगी। इसी तरह विश्वविद्यालय में प्रकाशन विभाग की स्थापना की गयी है। जिसमें प्रभारी के रूप में वरिष्ठ पत्रकार एवं पीपुल्स समाचार के पूर्व स्थानीय संपादक राधवेंद्र सिंह की नियुक्ति की गयी है, विभाग में सौरभ मालवीय को प्रकाशन अधिकारी बनाया गया है। अल्पकालीन प्रशिक्षण विभाग की स्थापना की गयी है, जिसके तहत श्री रामजी त्रिपाठी, केन्द्रीय सूचना सेवा (सेवानिवृत्त), पूर्व अतिरिक्त महानिदेशक, प्रसार भारती (दूरदर्शन) की दो वर्ष के लिये प्रोफेसर के पद पर अल्पकालीन प्रशिक्षण विभाग में नियुक्ति की गयी है। श्री त्रिपाठी जिला और निचले स्तर के मीडिया कर्मियों के लिये प्रशासन में कार्यरत मीडिया कर्मियों के लिये व वरिष्ठ मीडिया कर्मियों के लिये प्रशिक्षण व कार्यशालाओं का आयोजन करेंगे। इसी तरह श्री आशीष जोशी, मुख्य विशेष संवाददाता, आजतक की इलेक्ट्रॉनिक मीडिया विभाग में प्रोफेसर के पद पर नियुक्ति की गयी है। श्री आशीष जोशी, भोपाल परिसर में टेलीविजन प्रसारण विभाग में कार्यरत रहेंगे।
टास्क कर्मचारियों को दीपावली का तोहफा- विश्वविद्यालय में कार्यरत दैनिक वेतन पाने वाले लगभग 85 कर्मचारियों के वेतन में 25 प्रतिशत वृद्धि करने का फैसला किया गया है। इसी तरह शिक्षकों के लिए ग्रीष्मकालीन व शीतकालीन अवकाश की व्यवस्था भी एक बड़ा फैसला है। अब तक विश्वविद्यालय में जाड़े और गर्मी की छुट्टी (अन्य विश्वविद्यालयों की तरह) नहीं होती थी। आपात स्थिति के लिये 10 करोड़ रूपये का कार्पस फंड बनाया गया है , जिसमें हर वर्ष वृद्धि होगी। शिक्षक कल्याण कोष की स्थापना भी की गयी है। इसके अलावा चार प्रोफेसर, आठ रीडर व आठ लेक्चरार (कुल 20) अतिरिक्त शैक्षणिक पदों का अनुमोदन किया गया है, जिसपर विश्वविद्यालय नियमानुसार नियुक्ति की प्रक्रिया शुरू करेगा।
बनेगा स्मार्ट परिसरः विश्वविद्यालय के लिये भोपाल में 50 एकड़ भूमि पर ‘‘ग्रीन’’ व ‘‘स्मार्ट’’ परिसर बनाने के कार्यक्रम की शुरूआत की जाएगी। जिसके लिए भवन निर्माण शाखा की स्थापना भी की गयी है।
आगामी दो वर्षों में टेलीविजन कार्यक्रम निर्माण, नवीन मीडिया, पर्यावरण संवाद, स्पेशल इफैक्ट्स व एनीमेशन में श्रेष्ठ सुविधाओं का निर्माण के लिए यह परिसर एक बड़े केंद्र के रूप में विकसित किया जाएगा। इसके साथ ही आगामी पांच वर्षों में आध्यात्मिक संचार, गेमिंग, स्पेशल इफैक्ट्स, एनीमेशन व प्रकृति से संवाद के क्षेत्रों में अंतरराष्ट्रीय पहचान बनाने की तैयारी है।इस बैठक में प्रबंध समिति के कार्यों व अधिकारों का स्पष्ट निर्धारण भी किया गया है। बैठक में महापरिषद के अध्यक्ष मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, जनसंपर्क मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा, कुलपति प्रो. बीके कुठियाला, रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर के कुलपति प्रो. रामराजेश मिश्र, वरिष्ठ पत्रकार राधेश्याम शर्मा (चंडीगढ़), साधना(गुजराती) के संपादक मुकेश शाह, विवेक (मराठी) के संपादक किरण शेलार, सन्मार्ग- भुवनेश्वर के संपादक गौरांग अग्रवाल, स्वदेश समाचार पत्र समूह के संपादक राजेंद्र शर्मा, काशी विद्यापीठ के प्रोफेसर राममोहन पाठक, दैनिक जागरण भोपाल के संपादक राजीवमोहन गुप्त, जनसंपर्क आयुक्त राकेश श्रीवास्तव, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के सलाहकार अशोक चतुर्वेदी, विश्वविद्यालयय के रेक्टर प्रो.चैतन्य पुरूषोत्तम अग्रवाल, नोयडा परिसर में प्रो. डा. बीर सिंह निगम शामिल थे।

कॉमनवेल्थ में छाई स्वर्णिम शतकीय दबंगाई



संजय शर्मा
MAMC III SEM
भोपाल 1 नवंबर,2010

दिल्ली में चल रहा कॉमनवेल्थ फीवर रंगारंग समापन के साथ ख़त्म हुआ! २०१४ में होने वाले कॉमनवेल्थ के लिए ग्लासगो (स्कॉट्लैंड ) के प्रतिनिधियों को ध्वज प्रदान करके औपचारिक पूर्ति की गई! खेलों के इस अर्द्ध कुम्भ ने भारतीय खेल पटल पर एक नया अध्याय सकुशल पूरा किया! १९८२ में दिल्ली में हुए एशियाड के बाद २८ साल के बाद यह हमारे देश में खेलों का अब तक का सबसे बड़ा आयोजन था! कॉमनवेल्थ खेलों में हो रहे भ्रष्टाचार की परत खुल जाने से यह मुद्दा ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटिश मीडिया में लगातार छाया रहा! खेलों के दौरान अर्थात खेलों से पहले कलमाड़ी का भ्रष्टाचार में दबंग और खेलों के अंत तक हमारे देश के खिलाड़ी अपने सुनहरे पदकों का दबंग दिखाते नजर आए। हमारे देश के लिए यह पहला मौका था जब हम विश्व के ७१ देशों के ८००० से अधिक खिलाड़ियों के इस अर्द्ध कुम्भ का आयोजन करने में जुटे थे! खिलाड़ियों के ठहरने के लिए खेल गाँव को दुल्हन की तरह सजाया गया लेकिन फिर भी खेल शुरू होने से पहले हम खेलगांव की आलोचनाओं के शिकार
हुए! ब्रिटिश मीडिया ने तो इसे खेलों का सबसे नकारात्मक पहलु बताया जबकि ब्रिटिश मीडिया या अन्य देशों का मीडिया यह भूल गया की वर्ष २००२ में मेनचेस्टर कॉमनवेल्थ में हमारे देश की कई खेलों की टीमो को खेलगांव के दर्शन तक नही हुए! खैर यह खेलों की आलोचनात्मक दास्ताँ थी जो वक़्त के साथ गुजर चुकी है! दिल्ली कॉमनवेल्थ में हमे वो सब कुछ मिला जिसके लिए हम अब तक सोच रहे थे! इन खेलों में हमने ३८ स्वर्ण सहित १०१ पदक हासिल करके पदकों का शतक लगाया! २००६ मेलबोर्न में हुए कॉमनवेल्थ में हम चोथे स्थान पर थे लेकिन यहाँ हमने दूसरा स्थान पाया! यह पहला मौका था जब हमने पदकों का शतक लगाकर मेनचेस्टर कॉमनवेल्थ में जीते ६९ पदकों का रिकॉर्ड तोडा! भारोत्तोलक सोनिया चानू ने रजत पदक जीतकर अभियान की शुरुआत पहले दिन ही कर दी थी अब इस अभियान में सुनहरी चमक बिखरने का समय था जिसे पूरा किया ओलंपिक स्वर्ण विजेता अभिनव बिंद्रा और गगन नारंग की स्टार जोड़ी ने! जिन्होंने २५ मीटर युगल निशानेबाजी में भारत को पहला सोना दिला सुनहरी सफलता का अहसास कराया! बिंद्रा- नारंग के द्वारा जीते सोने की सुनहरी महक ने भारत के रणबांकुरों में सोना पाने की लालसा को दुगना कर दिया जिससे भारत कॉमनवेल्थ खेलों में अपनी छाप छोड़ने में कामयाब रहा! १९वें कॉमनवेल्थ खेलों में जहाँ हमारे देश के रणबांकुरों ने कई खेलों में रिकॉर्ड कायम किये वही कई खेलों ने हमें आशा के अनुरूप परिणाम नही दिए! डिस्कस थ्रोअर कृष्णा पुनिया ने ट्रेक एवं फिल्ड एथलीट प्रतिस्पर्धा में जहाँ हमे ५२ साल बाद स्वर्ण दिलाया वही बीजिंग ओलंपिक के कांस्य पदक विजेता विजेंद्र से स्वर्ण की आस लगाये प्रशंसकों को उस समय निराशा मिली
जब वो इन उम्मीदों पर खरा नही उतरे और मुकाबले से बाहर हो गए! क्रिकेट की लोकप्रियता के साए में जी रहे भारतीय दर्शकों को इन खेलों ने अपने साए में भरने की कोशिश तो भरपूर की लेकिन फिर भी कुश्ती, निशानेबाजी,
बोक्सिंग, हॉकी को छोड़ कर अधिकतर खेल दर्शकों के लिए तरसते रहे! १९वें कॉमनवेल्थ खेलों में कुल मिलाकर ७५ रिकॉर्ड नए बने जिनमे कुछ रिकॉर्ड भारतीय खिलाडियों के हिस्से में भी आये! तीरंदाजी में झारखंड के एक ऑटो चालक की लाडली बेटी ने व्यक्तिगत व टीम स्पर्धा में दोहरी स्वर्णिम कामयाबी हासिल की! १७ साल की दीपिका ने इतनी छोटी उम्र में स्वर्णिम निशाना लगा कर कॉमनवेल्थ खेलों में तीरंदाजी का स्वर्ण जीतने वाली पहली भारतीय महिला होने का गौरव हासिल किया! उनकी इस स्वर्णिम दास्ताँ ने उन्हें एक ही दिन में तीरंदाजी का नया स्टार बना दिया! कॉमनवेल्थ खेलों में हॉकी की चमक एक बार फिर देखने को मिली जब राजपाल सिंह के नेतृत्व में टीम इंडिया ने पाक को ७-४ से हराकर बाहर का रास्ता दिखाया! चक दे इंडिया की गूंज अब हर तरफ गूंजने लगी थी ऐसा लग रहा था मानो टीम इंडिया के स्वर्णिम दिन फिर लौट आये है! टीम इंडिया को सेमी फ़ाइनल का टिकट कटाने के लिए बस एक और जीत की दरकार थी लेकिन इस बार मुकाबला अंग्रेजों से होने वाला था मैच के शुरू होने से लेकर अंत तक दोनों ही टीमों के खिलाड़ी एक दूसरे पर हावी रहे नतीजा मैच ट्राई बेकर पर आ टिका और इस समय अंतिम गोल करने का दारोमदार टीम इंडिया के फॉरवर्ड खिलाड़ी शिवेंद्र सिंह पर था लेकिन शिवेंद्र ने भरोसे को हकीकत में तब्दील करके अपनी स्टिक से अंतिम समय में गोल करके फ़ाइनल में टीम इंडिया को प्रवेश कराया लेकिन जो चमक टीम इंडिया की हॉकी में अब तक नजर आ रही थी मानो ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ फ़ाइनल में वो चमक कही खो सी गई थी नतीजा हमे ८-० से अब तक की सबसे बड़ी हार झेलनी पड़ी! खैर गुमनामी के साए में डूब रहा हमारा राष्ट्रीय खेल कुछ चमक छोड़ने में तो कामयाब रहा ही साथ ही साथ हमे कॉमनवेल्थ में पहला पदक भी मिला! इन खेलों ने भारतीय नारी सब पर भारी जुमले को भी सच्चाई प्रदान की! महिलाओं ने अपनी शक्ति का परचम दिखाते हुए १०१ पदकों में से ३६ पदकों पर अपना दाव लगाया! खेलों के अंत तक एक खुली चुनौती भी देखने को मिली जब ऑस्ट्रेलिया की डिस्कस थ्रोअर में विश्व चैम्पियन रह चुकी डैनी सेमुअल्स ने कॉमनवेल्थ स्वर्ण पदक विजेता कृष्णा पुनिया को ये कहकर अपनी प्रतिक्रिया जताई की कृष्णा पुनिया ने मेरी अनुपस्थिति में स्वर्ण जीता है यदि मैं इन खेलों में प्रतियोगी होती तो मुकाबला टक्कर का होता! विश्व चैम्पियन ने कृष्णा को इस सम्बन्ध में ये कहकर पल्ला झाड दिया की मैं किसी कारणवश इन खेलों में नही आ सकी लेकिन हमारे पास अभी मौका है, कृष्णा अगर मेरी चुनौती को स्वीकार करती है तो ये मुकाबला फिर हो सकता है! खैर कृष्णा इस चुनौती का सामना करने के लिए पूरी तरह तैयार है और संभवत ये मुकाबला फरवरी में हो सकता है! डैनी सेमुअल्स और कृष्णा पहले भी कई बार आमने सामने हो चुकी है जिसमे कृष्णा ने विश्व चैम्पियन को एक बार हराया भी है! कॉमनवेल्थ में मिली इन उपलब्धियों ने एशियाड में हमारी पदक जीतने की सम्भवनाएं बढ़ाई है जो अगले माह चीन के ग्वागंझू शहर में होने वाला है।

Saturday, October 30, 2010

विद्या से आएगी समृद्धि: प्रो. कुठियाला



विद्यार्थियों ने मनाया दीपावली मिलन समारोह
भोपाल, 30 अक्तूबर 2010

लक्ष्मी और सरस्वती आपस में बहनें ही हैं। यदि विद्या है तो धन और समृद्धि अपने आप ही प्राप्त हो जाएंगी। पत्रकारिता में सरस्वती की अराधना से ही लक्ष्मी भी प्रसन्न होंगी। दीपावली का पर्व मर्यादा पुरुषोत्तम राम के आगमन को याद करने के साथ उनके आदर्शों को जीवन में अपनाने का संकल्प लेने का अवसर है। उक्त बातें माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने विवि के जनसंचार विभाग द्वारा आयोजित दीपावली मिलन सामारोह में कही।
प्रो. कुठियाला ने विश्वविद्यालय प्रशासन तथा स्वयं की ओर से विद्यार्थियों को दीपावली की शुभकामनाएँ देते हुए अपील की कि विद्यार्थी कोर्स समाप्त होने के बाद जब पत्रकारिता करें तो मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के आदर्शों को ध्यान में रखकर करें ताकि दीपावली की प्रासंगिकता युगों-युगों तक कायम रहे। वर्तमान में मीडिया जगत में पाँव पसार रहे सुपारी पत्रकारिता व पेड-न्यूज संस्कृति से पत्रकारिता को मुक्त करने की आवश्यकता है। उन्होंने हनुमान जी को विश्व का पहला खोजी पत्रकार बताया। जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने विद्यार्थियों को दीपावली की शुभकामनाएं देते हुए कहा कि पूरा विश्व आज भारत की ओर आशा भरी नजरों से देख रहा है। हमें उनकी आशाओं पर खरा उतरने के लिए रामराज्य को धरती पर उतारने की आवश्यता है। इसके लिए भारत में सुख, समृद्धि, एकता और अखंडता का वातावरण बनाना होगा। तभी, दीपावली का पर्व भी सार्थक होगा। शिक्षिका मोनिका वर्मा ने विद्यार्थियों को घर जाकर आनंद से दीपावली मनाने की शुभकामनाएँ दी और कहा कि जब वापस आएँ तो पूरी लगन से पढ़ाई करें ताकि सारा जीवन दीपावली की खुशियाँ मनाएँ।
समारोह में दीपावली की पौराणिक कथाओं के बारे में बताते हुए छात्र देवाशीष मिश्रा ने बताया कि यह बुराइयों पर अच्छाइयों की जीत की खुशी मनाने का पर्व है। छात्रा श्रेया मोहन ने दीपावली के बाद बिहार-झारखण्ड में विशेष रूप सें मनाए जाने वाल छठ-पर्व पर प्रकाश डाला। कार्यक्रम में विद्यार्थियों ने गीत-गायन व कविता पाठ भी किया। शाहीन बानो ने एक हास्य कविता का पाठ कर सबका मन मोह लिया वहीं संजय ने राजस्थानी लोकगीत पधारो म्हारो देश गाकर सबको राजस्थान आने का निमंत्रण दिया। छात्रा मीमांसा ने एक सुंदर कृष्ण-भजन का गायन किया। कार्यक्रम का संचालन अंशुतोष शर्मा व शिल्पा मेश्राम ने किया। इस अवसर पर विभाग के शिक्षक संदीप भट्ट, शलभ श्रीवास्तव, कर्मचारीगण तथा समस्त छात्र-छात्राएँ उपस्थित थे।

आंतरिक सुरक्षा पर मीडिया में ऊहापोह




कुन्दन पाण्डेय
MAMC III SEM
भोपाल 30 अक्टूबर,2010



आज का युग मीडिया क्रांति का युग है। आज मीडिया की प्रभावकता इतनी अधिक बढ़ गयी है कि मीडिया किसी घटना, विषय या व्यक्ति को अत्यल्प समय में अंतर्राष्ट्रीय सुर्खियां बना सकता है और अंतरराष्ट्रीय सुर्खियां रूपी अर्श से फर्श पर भी पटक सकता है। परन्तु, ताज्जुब की बात यह है कि आंतरिक सुरक्षा जैसे गंभीर व संवेदनशील राष्ट्रीय विषय पर मीडिया अपनी सकारात्मक भूमिका की जगह लगातार ऊहापोह की स्थिति में नजर आ रहा है।
आज देश की आंतरिक सुरक्षा अत्यंत नाजुक दौर से गुजर रही है। एक ओर जेहादी आतंकवादियों का देश भर में फैलता हुआ संजाल तो दूसरी ओर नक्सली, पूर्वोत्तर के अलगाववादी संगठन, भारत माता के मष्तक कश्मीर को शाश्वत रणभूमि बना देने में संलग्न पाकिस्तानी आतंकी, अदृश्य रुप में चोरी, ड़कैती, तोड़फोड़ करने वाले लगभग 4 करोड़ बंग्लादेशी घुसपैठिए, देश के रोम रोम में अगणित वर्षों से समाये आईएसआई एजेन्टों और प्रशिक्षित दहशतगर्दों द्वारा अत्याधुनिक संचार साधनों तथा अरब देशों से प्राप्त बेहिसाब पैसे के बल पर जबरर्दस्त कहर ढाया जा रहा है।
इस संजाल को तोड़ने में सरकार, पुलिस एवं गुप्तचर एजेंसियाँ तो हमेशा साँप निकल जाने पर लाठी पीटने जैसा कार्य कर रही हैं, क्योंकि इन सभी में कुछ देशद्रोही घुसे हुए हैं, परन्तु मीडिया में तो इस तरह की कोई बात नहीं है। तो फिर मीडिया स्वयं से अपनी भूमिका सार्वजनिक कर जनता जनार्दन को यह बताये कि उसका आंतरिक सुरक्षा से कोई सरोकार है या नहीं? यदि है तो इस सरोकार के लिए मीडिया अब तक क्या-क्या कर चुका है?
कश्मीर के मामले में मीडिया सरकार के एजेंट की तरह कार्य करती हुई प्रतीत हो रही है। कश्मीर में पिछले वर्ष तक लगभग सबकुछ ठीक रहने पर केन्द्र सरकार विशेष सशस्त्र बल अधिनियम हटाने व पाक अधिकृत कश्मीर गये आतंकवादियों के घर वापसी व पुनर्वास की व्यवस्था करने की कवायद कर रही थी तो मीडिया ने सरकार से यह मुखरित होकर क्यों नहीं कहा कि कश्मीर अंदर ही अंदर शांति से सुलग रहा है। आखिरकार एक दिन यह सुलग रही आग व्यापक रुप से सबके सामने आ ही गयी।
जब कश्मीर में हालात अचानक विस्फोटक हो गये, तब सरकार की पुरजोर आलोचना, जब 26/11 को मुम्बई हमला हुआ तब सरकार की मुखर आलोचना, जब संसद पर हमला हुआ तब सरकार की चौतरफा आलोचना और 26/11 के बाद जब तक विस्फोट नहीं हुए तब तक तत्कालीन गृहमंत्री पी. चिदम्बरम की मुक्तकण्ठ से मीडिया में होने वाली सारी प्रशंसायें विस्फोट के फौरन बाद कठोर आलोचनाओं में तब्दील हो गयी।
पूर्वोत्तर के राज्यों में भारत से स्वतंत्र राज्य बनाने की माँग करने का एक प्रमुख आधार कश्मीर को मिला विशेष राज्य का दर्जा भी रहा है। पूर्वोत्तर के प्रमुख पृथकतावादी संगठनों में से प्रमुख ‘यूनाईटेड लिबरेशन फ्रन्ट ऑफ असम’ अर्थात् उल्फा, नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रन्ट ऑफ बोडोलैन्ड, नेशनल लिबरेशन फ्रन्ट ऑफ त्रिपुरा, मणिपुर में पीपुल्स लिबरेशन आर्मी, मिजो नेशनल फ्रन्ट, नेशनल सोशलिस्ट कौंसिल ऑफ नागालैन्ड-आईजक मूईवा (एन एस सी एन- आई एम) आदि प्रमुख हैं परन्तु मीडिया में इनकी गंभीरता से चर्चा कम ही हो पाती है जबकि पूर्वोत्तर के अधिकांश राज्य अशांति से ग्रस्त ही रहते हैं।
गत लोकसभा चुनावों के पेड न्यूज व मुम्बई के 26/11 हमले के कवरेज से मीडिया विश्वसनीयता के मामले में सबसे अविश्वसनीय हो गया है। विश्वसनीयता कभी खरीदी-बेची, बनाई-बिगाड़ी नहीं जा सकती, यह गणितबाजी-चालबाजी से निर्मित नहीं की जा सकती। यह कच्चे धागे की तरह अत्यंत नाजुक होती है जो काल के कपाल पर मीडिया या व्यक्ति अपने मन-वचन, कर्म और आचरण से धीरे-धीरे अर्जित ही कर सकते हैं निर्मित नहीं कर सकते।
मीडिया अगर आंतरिक सुरक्षा जैसे किसी राष्ट्रीय मसले पर ठोस कवायद कर दे तो वह अपनी अविश्वसनीयता को कुछ हद तक विश्वसनीयता में तब्दील कर पायेगा। पीपली लाईव फिल्म ने तो इलेक्ट्रानिक मीडिया की सारी कलई खोल कर रख दी है। दरअसल मीडिया का अब एक ही इष्ट देव है वह है लाभ-लाभ, बस लाभ, केवल लाभ। मीडिया लोक कल्याण के ध्येय को तिरोहित करने पर आमादा तो है लेकिन मजबूरी में, क्योंकि इष्टदेव की आराधना बंद करने पर वह कुपित भी हो सकते हैं। वैसे यदि देश गुलामी के दौर की तकनीक और सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक व नैतिक स्थिति व स्तर में नहीं जा सकता तो, मीडिया क्यों और कैसे चला जाय।
आंतरिक सुरक्षा की गंभीर स्थिति देश के आर्थिक विकास के लिए विकराल चुनौती है। आंतरिक सुरक्षा को नष्ट करने वाले दुर्जनों के विरुद्ध जब भी कारगर कार्रवाई की बात की जाती है, तब छद्म मानवाधिकारवादी हत्यारों के मानवाधिकार की बात करते नहीं अघाते। मानव अधिकार किसके मरने वाले के या मारने वाले के, लेकिन मीडिया छद्म मानवाधिकारवादियों के चेहरे से नकाब को नहीं उतारती क्योंकि मीडिया द्वारा इस विषय में किए गए प्रयत्न बिकाऊ या टी आर पी बढ़ाने वाले साबित नहीं होंगे।
राष्ट्र के संप्रभुता के सर्वोच्च प्रतीक संसद पर हमले के जुर्म में उच्चतम न्यायालय द्वारा मृत्युदंडित अफजल गुरू को कई वर्षों से छद्म सेकुरलवाद के कारण सजा नहीं दी जा पा रही है। भारत की मीडिया अफजल जैसे आतंकवादियों को क्या यह संदेश देना चाहती है कि राष्ट्र ऐसे आतंकियों को सजा देने के मसले पर एक मत नहीं है। इस विषय पर कोई प्रयत्न नहीं करने से तो यही साबित होता है कि मीडिया आंतरिक सुरक्षा के मसले पर केवल हमले के बाद की सख्त रिपोर्टिंग तक सीमित रहता है। हमले के बाद आंतरिक सुरक्षा को अभेद्य बनाने हेतु मीडिया कुछ नहीं करना चाहता।
मीडिया की आलोचना इतनी सतही और स्तरहीन है कि वह सुरक्षा व्यवस्था की कठोरता, मजबूती या अभेद्यता पर आधारित ना होकर हमले या बम विस्फोट पर आधारित है। जिस सुरक्षा-व्यवस्था की प्रशंसा हमले या विस्फोट नहीं होने पर मुक्त कंठ से होती है उसी व्यवस्था की विस्फोट के बाद चौतरफा अतिशय आलोचना होती है। मीडिया इस व्यवस्था का सूक्ष्म विश्लेषण करके आलोचना इसलिए नहीं करता, क्योंकि ऐसा करके मीडिया अपनी टीआरपी या पाठक संख्या को नहीं बढ़ा पायेगा।
मीडिया का आर्थिक जीवनचक्र पूर्णतया बाजार-आधारित है, मिशन-आधारित नहीं। वर्तमान मीडिया को संतुलित और पौष्टिक आहार देकर पेट भरने का काम केवल बाजार ही कर सकता है, सामाजिक राष्ट्रीय मिशन नहीं।
आंतरिक सुरक्षा के लिए व्यवस्थापिका व कार्यपालिका अपनी-अपनी भूमिकाओं में मुस्तैद है कि नहीं, इसकी कड़ी निगरानी करके जनता-जनार्दन को अवगत कराने का काम मीडिया का ही है। अगर सत्ता अपनी सुविधा हेतु सामान्य जनजीवन के लिए अपरिहार्य सुरक्षा के विषय को हाशिए पर धकेल रहा है तो मीडिया को इस विषय को चर्चा के केन्द्र में लाकर सत्ताधीशों पर दबाव बनाये क्योंकि ऐसा काम केवल मीडिया ही कर सकता है।
यदि मीडिया आंतरिक सुरक्षा पर अपना कर्तव्य निभाने के मामले में पुलिस, गुप्तचर एजेन्सियों तथा सरकार जैसे ही असफल है तो उसे अन्य तीनों लोकतांत्रिक स्तम्भों को कठघरे में खड़ा करने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है। यदि मीडिया लोकतंत्र में तीनों स्तम्भों के बराबर की (लम्बाई व मजबूती का) भागीदार है तो उसकी लोकतंत्र के हर मसले पर बराबर की जिम्मेदारी भी है।
भारत जैसे सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक, सांस्कृतिक-धार्मिक-पारम्पिरक वैविध्य वाले देश में आंतरिक सुरक्षा को राष्ट्रव्यापी स्वरूप में अक्षुण्ण बनाए रखना वोट बैंक को दृष्टिगत रखकर हर फैसला करने वाली सरकार के लिए अत्यधिक दुरूह कार्य है। मीडिया आंतरिक सुरक्षा को अभेद्य बनाने के लिए ना तो सरकार के समानांतर कार्य कर सकता है, न ही खुद सरकार बन सकता है। वह अपनी सीमा में रहकर केवल प्रचंड व बाध्यकारी जनमत का निर्माण कर सकता है। जब मीडिया सामाजिक राष्ट्रीय सरोकारों के तहत आंतरिक सुरक्षा के लिए जबरदस्त अभियान चलाएगा तो उससे उसका व्यवसायिक हित जरूर प्रभावित होगा। मसलन मीडिया को यदि सामाजिक राष्ट्रीय सरोकार व व्यवसायिक हित में से किसी एक को प्राथमिकता देनी हो, तो वह निश्चित रूप से व्यवसायिकता को पहली प्राथमिकता देगा।
आदर्श कहता है कि मीडिया जनगणमन को वह न दे, जो की वह मीडिया से चाहता है, बल्कि मीडिया जनगणमन को वह दे जो की मीडिया को उसे देना चाहिए। परन्तु वैश्वीकरण का वर्तमान वैश्विक परिदृश्य मीडिया से यह चीख-चीख कर कह रहा है कि वैश्वीकरण के विरोध से मीडिया का विकास एकांगी होगा,े जो वैश्विक प्रतिस्पर्द्धा में शायद ही टिक पाये।
वर्तमान बहुमत शासित वैश्विक व भारतीय परिदृश्य में मीडिया पाठक-दर्शक-श्रोता किसी गंभीर विषय को पढ़ना-देखना-सुनना नहीं चाहते हैं। बहुमत का दबाव है कि हल्की, मनोरंजक, चटपटी, गॉशिप वाली फिचरिस्टिक खबरें मीडिया में बहुतायत से रहे, तो मीडिया जनमत की अवहेलना कैसे करे। जनमत आदर्श, औसत, उत्कृष्ट या निकृष्ट कुछ भी हो सकता है, परन्तु पहले वह जनमत है, उसकी अवहेलना खबरपालिका सहित चारों स्तम्भों के लिए लगभग नामुमकिन ही है।

Monday, October 25, 2010

WOMEN EMPOWERMENT



Vikas Mishra
MAMC I SEM
25 october,2010
Our religious scriptures enjoin upon us the duty to accord due respect to women. God live where women are worshipped. The need to incorporate the injunction into the constitution of India arose due to the prevailing atmosphere in which women are denied the rightful place in society and are subjected to humiliations, galore which reduce them to a position inferior to men.
The average women have always led a life not better than that of a slave. At all the stages of life, right from childhood to the old age, she have been in a subordinate position to man. She has never been recognized as an independent entity free to select a course of her life at her own choice. Her good has always been said to be associated with the good of the husband whose service alone has been recognized as a way for deliverance. For wife the only God worth worshipping is her husband regardless of the fact that he treats her well or not. The irony is that “man is born of woman and yet the latter is dominated by the former“. Women have been enslaved, degraded and subjected to various types of atrocities and tyrannies at the hand of men and the men have dominated society. Even the modern times have not brought liberation of them. The gift of democracy which we have received from our generation is denied to women. Not to speak of the women of India, their counterparts in some advanced countries too were never treated on a footing of equality with their men folk - for example the united kingdom adult franchise to women was as late in coming as 1928 . Women in France were enfranchised as late as 1956.
Education has always been regarded as the sole preserve of men. All this is highly derogatory for women. Most parents treats a girl as an inferior being and consider them an unwanted burden. There is a clear discrimination in favour of boys and against the girls in their upbringing. In matter of education again girls are blatantly discriminated. That is why women’s education in India as well as in other countries lag behind men’s education. Women are subjected to various kinds of harassments and atrocities if they dare to come out of the four walls of their household.
But certain measures for the empowerment of women are being taken like reservation for women in jobs and in legislative assemblies and other democratic institutions right from the parliament down to the village panchayats is round the corner. Steps are being taken in government services to allow out of turn promotion to women. Girl’s education is receiving top priority with a number of Indian already having made female education up to intermediate level free. Thinking is also a foot to make degree and university education also free for women. Measures are also being taken to make women self- reliant economically in the rural India. Excellence in every field of life is no longer a man’s preserve. Women power is asserting itself surely.
To conclude I would say, “Women are the maker and moulder for the destiny of every society “.

Wednesday, October 20, 2010

मैं नक्सली हूँ......!!



साकेत नारायण
MAMC III SEM
भोपाल,20अक्टूबर 2010
आज नही पर काफी दिनों से मुझे ये सवाल परेशान कर रहा है कि क्युँ मै नक्सली हूँ? मै नही जानता पर ऐसा हैं। मै सोचता हूँ क्या मै एक नक्सली जन्मा था? पता नहीं पर मेरी माँ ने तो मुझे अपने जिगर के टुकड़े के तरह ही पाला और हमेशा अपने आँखों का तारा बना कर रखा तो क्युँ मै आज एक नक्सली हूँ?
लोग मुझे नक्सली कहते हैं, परंतु मैनें इसकी कोई शिक्षा नहीं ली हैं। आज मैं स्कूलो के भवन गिराता हूँ पर मेरे अध्यापको ने मुझे कभी ऐसी शिक्षा नही दी। मैने भी अपने भविष्य के लिए सपना देखा था, परंतु आज मै दूसरो के सपने उजाड़ता हूँ। मै क्युँ एक नक्सली हूँ, कोई क्युँ नक्सली बनता है? मै हमेशा ये सोचता हूँ की आखिर ऐसा क्युँ है और मै निरतंर इन प्रश्नों के उत्तर ढूँढ़ने का प्रयास करता हूँ। आज देश ही नहीं पूरा विश्व मुझे नक्सली कहता है, पर न कोई ये जानना चाहता है और न ही इस बारे में चर्चा करना चाहता है की आख़िर मैं और मुझ जैसे अनेक नक्सली क्युँ बने?
एक लड़ाई या यूँ कहे विरोध करने का तरीका जिसे कानु सान्याल ने शुरु किया था, मै उस लड़ाई का ही एक सिपाही हूँ। अब हूँ नहीं था, क्योंकि अब मै एक नक्सली हूँ। हाँ मै बुरा हूँ पर क्या मै अपने नेताओं और सिस्टम के आगे बौना नहीं लगता? मै ये तर्क इस लिए नहीं दे रहा हूँ क्योंकि मुझें खुद को सही और दूसरों को गलत साबित करना है। मै तो बस ये बताना चाहता हूँ की मुझ मे और मेरे जैसे दूसरों में भी कोई बात हैं, बहुत कम लोग ही खुद से नक्सली बनते हैं ज्य़ादातर तो परिस्थिती के कारण मजबूरी में इस राह पर चलते हैं। मै ये मानता हूँ कि मै कमजोर हूँ, मुझ मे सहन शक्ति कम है, मुझ मे परिस्थिती से लड़ने की ताकत नही है इसलिए तो मै नक्सली हूँ।
मेरी राय में............
मैंने इस विषय पर इसलिए नही लिखा की मै नक्सलवाद का समर्थक हूँ या ये विचारधारा मुझे पसंद हैं। वैसे कोई विचारधारा सही और गलत नही होती है, हम उसके अनुशरण करने वाले उसे सही और गलत का स्वरुप देते हैं। मैने तो इस विषय पर बस इस लिएलिखा क्योंकि मुझे लगता है कि हमे एक बार इस पहलु पर भी सोचना चाहिए..........

सामाजिक बदलाव के माध्यम बन सकते हैं हमारे उत्सव




-प्रो. बृजकिशोर कुठियाला
भोपाल, 20 अक्टूबर 2010

अक्टूबर का महीना त्यौहारों व उल्लास का समय है। चारों तरफ आस्था- पूजा संबंधी आयोजन हो रहे हैं और पूरा समाज भक्तिभाव में डूबा हुआ है। न केवल मंदिरों में बाजारों और मोहल्लों में भी स्थान-स्थान पर नवरात्रों के उपलक्ष्य में दुर्गा, लक्ष्मी व सरस्वती की आराधना से वातावरण चौबीसों घंटे गूंजता है। समाज का लगभग हर व्यक्ति, कुछ कम कुछ ज्यादा इन कार्यक्रमों में हिस्सा लेता है। सामाजिक उल्लास व सार्वजनिक सहभागिता का ऐसा उदाहरण और कहीं मिलता नहीं है। बच्चे, किशोर, युवा, वृद्ध, स्त्री, पुरूष, मजदूर, किसान, व्यापारी, व्यवसायी सभी इन सामाजिक व धार्मिक कार्यों में स्वयं प्रेरणा से जुड़े हैं। इन कार्यक्रमों के आयोजन के लिए और लोगों की सहभागिता के लिए कोई बहुत बड़े विज्ञापन अभियान नहीं चलते, छोटे या बड़े समूह इनका आयोजन करते है और स्वयं ही व्यक्ति और परिवार दर्शन -पूजन के लिए आगे आते हैं। कहीं भी न तो सरकारी हस्तक्षेप है और ना ही प्रशासन का सहयोग। उत्तर से दक्षिण, पूर्व से पश्चिम सभी महानगरों, नगरों और गांवों में धार्मिक अनुष्ठानों की गूंज है।
केवल यह अक्टूबर में होता है ऐसा नहीं है, पूरे वर्ष छोटे या बड़े अंतराल से कुछ न कुछ आस्था व पूजा संबंधी कार्यक्रम पूरे देश में चलते रहते हैं। वर्ष में दो बार तो रोजों का ही चलन है, दो बार नवरात्रों में 20 दिन के लिए समारोह होते हैं। अक्टूबर के नवरात्रों का अन्त दशहरे के विशाल आयोजन से होता है और दिवाली के 20 दिनों की गिनती प्रारंभ हो जाती है। ईदज्जुहा पर भी सामूहिकता का परिचय होता है। बीच में करवा चौथ का त्यौहार पड़ता है जो कहने के लिए तो महिलाओं के लिए है परन्तु पूरा परिवार ही उसमें उत्साहित होता है। हर पति करवा चौथ के दिन सामान्य से अधिक प्रेम व महत्व प्राप्त करता है, जिससे पारिवारिक संबंध दृढ़ होते हैं। दिसम्बर में क्रिसमस, जनवरी में लोहड़ी, फरवरी में शिवरात्रि, मार्च में फिर से नवरात्र व होली, अप्रैल में वर्ष प्रतिप्रदा, गुड फ्रायडे व बाद में जन्माष्टमी, रक्षाबंधन और इसी तरह सिलसिला चलता रहता है। संक्रांति, अमावस्या, पूर्णिमा यह सभी हमारे समाज में कुछ न कुछ महत्व रखते हैं और अनुष्ठान, सरोवरों में नहाने आदि की अपेक्षा रखते है।
इन पारंपरिक उत्सवों का रूप और भव्यता दिन पर दिन बढ़ती जा रही है और विशेष कर युवा वर्ग तो इनका आनंद सर्वाधिक लेता है। इसकी तुलना में स्वतंत्रता के बाद तीन राष्ट्रीय पर्वों में जनता की सहभागिता लगभग नगण्य है। गणतंत्र दिवस ( 26 जनवरी) तो केवल सरकारी कार्यक्रम बनकर रह गया है। स्वतंत्रता के प्रारंभिक वर्षों में दिल्ली व अन्य प्रान्तों की राजधानियों में झांकियों आदि के कार्यक्रम होते थे और उसमें लोग उत्साह से जाते थे परन्तु वह उत्साह लगभग समाप्त हो गया है और ये कार्यक्रम केवल प्रशासनिक स्तर पर मनाये जाते हैं और जिनको उनमें होना आवश्यक है वही जाते है। इनमें आम जनता की उपस्थिति कम होती जा रही है। स्वतंत्रता दिवस यानि 15 अगस्त का भी यही हाल है। गणतंत्र दिवस और 15 अगस्त के दिन राष्ट्रीय ध्वज यदि घर-घर पर दिखता, तो कह सकते थे कि आम व्यक्ति की भावना इन उत्सवों से जुड़ी है परन्तु ये दोनों दिन एक अवकाश के रूप में तो स्वागत योग्य होते है, परन्तु इनके महत्व को जानकर सामूहिक कार्यक्रमों का ना होना चिन्ता का विषय है। इसी प्रकार गांधी जयन्ती के दिन औपचारिक कार्यक्रम तो गांधी जी से संबंधित संस्थानों में हो जाते हैं परन्तु आम व्यक्ति गांधी को स्मरण कर उनके प्रति श्रद्धा भाव प्रकट करे ऐसा होता नहीं है। 30 जनवरी को प्रातः 11.00 बजे सायरन तो बजता है परन्तु कितने लोग उस समय मौन होकर गांधीजी को श्रृद्धांजलि देते हैं, यह सब जानते ही हैं। राष्ट्रीय उत्सवों में सहभागिता नहीं होने का अर्थ यह नहीं है कि समाज में राष्ट्रभाव की कमी है, परन्तु इन उत्सवों का सामाजिक चेतना से सम्बन्ध नहीं बन पाया है। इनके कारण एकता और समरसता का वातावरण नहीं हुआ है।
हमारे समाज के पारंपरिक उत्सवों में भी बहुत परिवर्तन आये हैं, झांकियों में आधुनिक प्रौद्योगिकी का प्रयोग करके उनको अधिक आकर्षक बनाया जाता है, कलाकार मूर्तियों को गढ़ने में नित नए-नए प्रयोग करते हैं, गीतकार नए शब्दों, भावों व धुनों से खेलते हैं, गायक गीतों को आम आदमी के गुनगुनाने वाले गानों में बदलते हैं। अब तो इवेन्ट प्रबंधन के कई व्यवसायी संस्थान इन कार्यक्रमों का दायित्व लेते हैं। दांडियां व गरबा जिस प्रकार गुजरात से निकलकर पूरे देश में प्रचलित हो रहा है यह इस बात का द्योतक है कि आम भारतीय उत्सव प्रिय है व समारोहों में स्वप्रेरणा से सहभागिता करने का उसे शौक है। ऐसा इसलिए है कि हर त्यौहार व पूजन का कहीं न कहीं आम आदमी से जीवन की अपेक्षाओं से संबंध है। हर त्यौहार का कोई न कोई सामाजिक उद्देश्य भी है जो कहीं न कहीं इतिहास और परम्पराओं से भी जुड़ता है। जहां होली पूरे समाज को एक रस करती है उसमें सत्य की विजय का भी भाव है। दशहरा समाज की विध्वंसकारी शक्तियों के नाश का द्योतक है और दिवाली परिवारों में वापसी का त्यौहार।
इन सभी त्यौहारों का संबंध भूतकाल में होते हुए भी इनकी प्रासंगिकता वर्तमान की परिस्थितियों से भी है। हजारों या सैकड़ों वर्ष पूर्व समाज में जो घटा उससे मिलता जुलता आज के समाज में भी हो रहा है। दशरथ के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए रावण ने वनों में आश्रमों पर आक्रमण करने के लिए अपने साथियों को भेजा, जिससे दशरथ के राज्य का संबंध उन ऋषि- मुनियों से टूट जाए जहां से राज्य की नीतियों का निर्धारण होता था। आज का आतंकवाद और माओवाद भी इसी श्रेणी में आते हैं। विश्वामित्र सरीखे न तो बुद्धिजीवी आज हैं और न ही अपने प्रिय पुत्रों को राक्षसों के संहार के लिए भेजने का का साहस करने वाले प्रशासक। वास्तव में तो संकल्प शक्ति ही नहीं है। विजयादशमी को आतंक के विरोध में दृढ़ संकल्प का रूप दिया जा सकता है। ऐसा करने से समाज का सहयोग देश के अंदर की अराष्ट्रीय शक्तियों से निपटने के लिए किया जा सकता है। केवल भावनात्मक संवेदनाओं को पुनः परिभाषित करने की आवश्यकता है।इसी प्रकार होली को सामाजिक समरसता के उत्सव के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास होना चाहिए जिससे कि जाति, वर्ण व गरीबी अमीरी का भेद मिटकर समाज राष्ट्र बोध के रंग में ही रंग जाए। पश्चिम व कई अन्य प्रभावों के कारण आज देश में परिवारों का विघटन हो रहा है और सामाजिक भीड़ में व्यक्ति अकेला होता जा रहा है। सर्वमान्य है कि यह समाज के लिए घातक है। करवाचौथ, रक्षाबंधन व भाईदूज जैसे त्यौहार है जिनको फिर से परिवार, विशेषकर संयुक्त, परिवार की स्थापना के लिए प्रयोग किया जा सकता है। रोजे व नवरात्र व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास के साधन हैं, उन्हें इस रूप में और प्रचारित करने की भी आवश्यकता है। स्वतंत्रता दिवस व गणतंत्र दिवस राष्ट्र के प्रति बार-बार समर्पण के त्यौहार होने चाहिए जहां व्यक्ति प्रान्त और क्षेत्र से ऊपर उठकर राष्ट्र की सोच से जुड़े। गांधी जयंती के दिन समाज अहिंसा का पाठ तो पढ़े ही, परन्तु गांधी द्वारा स्वदेशी के आग्रह को वैश्वीकरण के संदर्भ में व्यवहारिक रूप में लाने की प्रेरणा भी ले। त्यौहारों के इस देश में उत्सव न केवल सामाजिक परिवर्तन के द्योतक है परन्तु वे सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक विकास के साधन भी हैं। करोड़ों के विज्ञापनों के द्वारा जो मानसिक परिवर्तन नहीं हो पाता है वह इन त्यौहारों के माध्यम से सहज ही होगा। इस बात के प्रमाण भी हैं, देश के पश्चिमी भाग में गणेश पूजन के कारण सामाजिक क्रांति लाई गई थी। राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय मार्केटिंग के प्रयास इन त्यौहारों में बखूबी होते है और वस्तुओं व सेवाओं को बेचने का काम प्रभावी रूप से होता है। यदि ये व्यापारिक कार्य हो सकता है तो सामाजिक कार्य इन त्यौहारों के माध्यम से अवश्य ही हो सकता है। केवल मन बनाकर योजनाबद्ध प्रयास करने की आवश्यकता है।
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के कुलपति हैं)

संपर्कः कुलपति, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, प्रेस काम्पलेक्स, एमपी नगर, भोपाल (मप्र)

प्रियदर्शन फूहड़ कॉमेडी क्यों बनाते हैं?


-शिशिर सिंह
MAMC III SEM
भोपाल,20 अक्टूबर

प्रियदर्शन फूहड़ कॉमेडी क्यों बनाते हैं? ‘आक्रोश’ देखने के बाद सबसे पहला सवाल दिमाग में यही आया। ‘ऑनर किलिंग’ जैसे ज्वलंत एवं संवेदनशील विषय को उन्होंने जिस बेहतरीन तरीके से प्रस्तुत किया है, वह काबिल-ए-तारीफ है। कहा जाता है कि फिल्म को देखते वक्त हम खुद को पर्दे पर जीते हैं। रोमांटिक फिल्में इसीलिए लोगों को छू जाती है। फिल्मों में अभिनेताओं और अभिनेत्री को प्यार रोमांस करता देख व्यक्ति खुद जो रुमानियत महसूस करता है। आक्रोश देखते वक्त प्यार करने वालों को इससे पैदा हो सकने वाले सम्भावित खतरों का अहसास हो जाएगा। वह अहसास जिसे देखकर शायद वह एक बार घबरा भी जाएं।
सच बात यह है कि अखबार एवं पत्र-पत्रिकायों में ‘ऑनर किलिंग’ की खबरें पढ़कर इसकी भयावहता का पता नहीं चलता, उल्टा हम इसे टाल जाते हैं, पर फिल्म देखकर महसूस होता है कि कितनी भयानक समस्या है ‘ऑनर किलिंग’। मालूम चलता है क्या होता है एक ‘बन्द समाज’ में। ऐसे समाज में कानून की पुस्तक को ठीक उसी छुपाकर रखा जाता है, जैसे कोई लड़का अपने घर में अश्लील साहित्य छुपा कर रखता है। फिल्म की कहानी की बात की जाए तो कहानी कोई ज्यादा जटिल नहीं है। दिल्ली में मेडिकल की पढ़ाई करने वाले तीन छात्र अचानक गायब हो जाते हैं, वह बिहार के एक गाँव झांझण गए हुए थे। दिल्ली में बढ़ते राजनीतिक दबाब के कारण मामले की जाँच सीबीआई को सौंप दी जाती है। यह कमान दी जाती है, एक अनुभवी सीबीआई ऑफिसर सिद्धांत चतुर्वेदी (अक्षय खन्ना) और एक सेना के ऑफिसर प्रताप कुमार (अजय देवगन) को। फिर शुरू होती है इनकी और झाँझण ग्रामवासियों की समस्याओं की शुरुआत। ऑफिसर्स पर हमले, साथ देने वालों की हत्यायें आदि-आदि। इन सबके पीछे मास्टरमांइड है पुलिस आफिसर अजातशत्रु (परेश रावल)। फिल्म में बिपाशा बसु को छोड़कर सब पर उनके किरदार फबे हैं। बिपाशा बसु एक ऐसी औरत की भूमिका में बिल्कुल फिट नहीं बैठती है, जो घर में अपने पति से सबके सामने बेरहमी से मार खा सकती है।
सबसे ज्यादा तारीफ जिसके काम की करनी चाहिए वह है फिल्म के सिनमेटोग्राफर ‘थिरु’ का। थिरु ने कमाल का काम किया है।
फिल्म कहीं भी बोर नहीं करती है। कुछ जगहों पर दृश्यों में काफी अतिरेकता की गई है, खासकर एक्शन मार-धाड़ आदि के सन्दर्भ में। एक्शन की जिम्मेदारी सम्हाले आरपी यादव व त्याग राजन से भरपूर काम करवाया गया है। सीधी सरल बात यह है कि फिल्म देखने लायक है। खासकर मीडिया छात्रों को तो यह फिल्म देख ही लेनी चाहिए।

Friday, October 15, 2010

क्या हूँ मैं…….



Annie Ankita
MAMC III SEM
15 अक्टूबर

क्या हूँ मैं ..........
मैं भी नहीं जानती
हूँ मैं मोम की गुड़िया
पल में पिघल जाती हूँ...
कभी लगता है....
चट्टान सी हूँ मैं कठोर....
जिसे कोई हिला नहीं सकता..
आखिर क्या हूँ मैं....
मैं भी नही जानती..

दुनिया से लड़ने की ताकत रखती हूँ मैं
कभी दुनिया की कुछ बातों से ही डर जाती हूँ...
चाँदनी की तरह हूँ मैं शीतल या....
सूरज की किरणों की तरह तेज
आखिर क्या हूँ मैं....
मैं भी नही जानती..

Thursday, October 14, 2010

बेहतर शासन के लिए जरूरी है सकारात्मक संचार : प्रो. कुठियाला


एमआईटी स्कूल आफ गर्वमेंट के छात्रों ने किया पत्रकारिता विश्वविद्यालय का भ्रमण

भोपाल 14 अक्टूबर। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला का कहना है कि समाज को अगर सकारात्मक दिशा देनी है तो जरुरी है कि शासन और संचार दोनों की प्रकृति भी सकारात्मक हो। मीडिया और शासन समाज के दिशावाहकों में से एक हैं। इसलिए इनको अपने व्यवहार और कार्यप्रणाली में सकारत्मकता रखना बेहद जरुरी है।
वे यहां विश्वविद्यालय परिसर में शैक्षणिक भ्रमण के अन्तर्गत भोपाल आए पुणे स्थित एमआईटी स्कूल ऑफ गर्वमेंट के विद्यार्थियों को सम्बोधित कर रहे थे। प्रो. कुठियाला ने छात्रों को मीडिया की मूलभूत जानकारी देते हुए कहा कि दोनों संस्थानों का मूल उद्देश्य समान है, जहाँ एमआईटी का उद्देश्य बेहतर शासन प्रणाली के लिए अच्छे राजनेता पैदा करना है, वहीं पत्रकारिता विश्वविद्यालय का उद्देश्य केवल पत्रकार बनाना नहीं बल्कि विद्यार्थियों को अच्छा संचारक बनाना भी है। ताकि वे समाज के मेलजोल और सदभाव के लिए काम करें। प्रो. कुठियाला ने विश्वविद्यालय की कार्यप्रणाली, उद्देश्य एवं लक्ष्यों के बारे में भी विद्यार्थियों को अवगत कराया। एक प्रश्न के जबाब में उन्होंने कहा व्यवसायीकरण और व्यापारीकरण में अन्तर पहचानना बेहद जरूरी है। किसी भी वस्तु या सेवा के व्यवसायीकरण में बुराई नहीं है, समस्या तब शुरू होती है जब उसका व्यापारीकरण होने लगता है। वर्तमान मीडिया, इसी स्थिति का शिकार है। संवाद पर आधारित इस क्षेत्र का इतना व्यापारीकरण कर दिया गया है कि सूचना अब भ्रमित करने लगी है, उकसाने लगी है। उन्होंने कहा कि वर्तमान समय में मीडिया की जिम्मेदारी केवल मीडिया के लोगों पर छोड़ना ज्यादती होगी, इसलिए जरूरी है कि समाज के अन्य वर्ग भी मीडिया से जुड़ी अपनी जिम्मेदारी समझे एवं निभाएं। कार्यक्रम के प्रारंभ में एमआईटी, पुणे के छात्रों ने अंगवस्त्रम और प्रतीक चिन्ह देकर प्रो. कुठियाला का स्वागत किया। इस अवसर पर विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी , जनसंपर्क विभाग के अध्यक्ष डॉ. पवित्र श्रीवास्तव, डा. जया सुरजानी, गरिमा पटेल एवं कई शिक्षक उपस्थित रहे। संचालन एमआईटी संस्थान की शिक्षिका सीमा गुंजाल एवं आभार प्रदर्शन एमआईटी के ओएसडी संकल्प सिंघई ने व्यक्त किया।
(डा. पवित्र श्रीवास्तव)

अमेरिका की कृपा मंहगी पड़ेगी


पंकज साव
MAMC III SEM

भोपाल,14 अक्टूबर
संयुक्त राज्य अमेरिका के एक शीर्ष सैन्य अधिकारी के अनुसार, अगर पाकिस्तान ने आतंकी ठिकाने नष्ट नहीं किए तो अमेरिकी सेना पाकिस्तान की ही सेना की मदद लेकर उन ठिकानों पर हमला कर देगी। अब तक तो सिर्फ हवाई हमले हो रहे हैं, जमीनी लड़ाई भी शुरू की जा सकती है। किसी एशियाई देश को इतनी धमकी दे देना अमेरिका के लिए कोई नई बात नहीं है, लेकिन इसे हल्के में लेना पाक की भूल होगी। इसके खिलाफ कोई तर्क देने से पहले हमें ईराक और अफगानिस्तान की मौजूदा हालत की ओर एक बार देख लेना चाहिए।

इस मामले में पाक विदेश मंत्री रहमान मलिक का पिछले दिनों दिया गया बयान उल्लेखनीय है। रहमान ने कहा था- “नाटो बलों की हमारे भूभाग में हवाई हमले जैसी कार्रवाई संयुक्त राष्ट्र की उन दिशानिर्देशों का स्पष्ट उलंघन है जिनके तहत अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा सहायता बल काम करता है।” पूरी दुनिया जानती है कि अमेरिका अंतरराष्ट्रीय नियमों को कितना मानता है। ये अलग बात है कि उसने प्रोटोकॉल को मानने का वादा भी कर दिया है अमेरिका ने, इस शर्त के साथ कि सेना को आत्मरक्षा का अधिकार है।


दोनों तरफ की बयानबाजी को देखकर एक बात साफ हो जाती है कि ईराक और अफगानिस्तान के बाद अब अमेरिका की हिटलिस्ट में पाकिस्तान का नंबर है। तेल के पीछे पागल अमेरिका ने सद्दाम हुसैन के बहाने ईराक पर हमले किए। उसी तरह 9/11 के हमलों नें उसे अफगानिस्तान पर हमले के लिए तर्क तैयार किए और अब आर्थिक मदद दे देकर पाक को इतना कमजोर और परनिर्भर बना दिया है कि आज वह कोई फैसला खुद से लेने के काबिल नहीं रहा। जहाँ तक बात आतंकवाद के खात्मे की है तो यूएस ने ही लादेन और सद्दाम को पाला था जो आस्तीन के साँप की तरह उसी पर झपटे थे। इसके बाद पाकिस्तान में पल रहे आतंकियों को भी अप्रत्यक्ष रूप से उसने सह ही दी। शायद, इसके पीछे उसकी मंशा भारत और पाक के बीच शक्ति-संतुलन की थी ताकि अपना उल्लू सीधा किया जा सके। समय- समय पर उसने खुले हथियार भी मुहैया कराए। अमेरिकी जैसे धुर्त देश से भोलेपन की आशा की करना बेवकूफी है। उससे प्राप्त हो रही हर प्रकार की सहायता का मनमाना दुरुपयोग पाकिस्तान भारत के खिलाफ करता रहा और आतंकिवादियों की नर्सरी की अपनी भूमिका पर कायम रहा। यह उसकी दूरदर्शिता की कमी उसे इस मोड़ पर ले आई है कि उसके पड़ोसी देश भी उसके साथ नहीं हैं और अमेरिका की धमकियों के आगे उसे नतमस्तक होना पड़ रहा। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी जब अमेरिका सच में वहाँ जमीनी लड़ाई पर उतर आएगा और वहाँ की आम जनता भी पाक सरकार के साथ खड़ी नहीं होगी। अपने निर्माण के समय से ही वहाँ की जनता अराजकता झेलती आ रही है। कुल मिलाकर एक और इस्लामिक देश एक खतरे में फँसता जा रहा है जहाँ न वो विरोध कर सकेगा और न ही अंतरराष्ट्रीय समुदाय की सहानुभूति ही हासिल कर पाएगा। विश्व में इसकी छवि एक आतंकी देश के रूप में बहुत पहले ही बन चुकी है।