Wednesday, December 29, 2010

बात तो साफ हुई कि मीडिया देवता नहीं है


-संजय द्विवेदी
यह अच्छा ही हुआ कि यह बात साफ हो गयी कि मीडिया देवता नहीं है। वह तमाम अन्य व्यवसायों की तरह ही उतना ही पवित्र व अपवित्र होने और हो सकने की संभावना से भरा है। 2010 का साल इसलिए हमें कई भ्रमों से निजात दिलाता है और यह आश्वासन भी देकर जा रहा है कि कम से कम अब मीडिया के बारे में आगे की बात होगी। यह बहस मिशन और प्रोफेशन से निकलकर बहुत आगे आ चुकी है।
इस मायने में 2010 एक मानक वर्ष है जहां मीडिया बहुत सारी बनी-बनाई मान्यताओं से आगे आकर खुद को एक अलग तरह से पारिभाषित कर रहा है। वह पत्रकारिता के मूल्यों, मानकों और परंपराओं का भंजन करके एक नई छवि गढ़ रहा है, जहां उससे बहुत नैतिक अपेक्षाएं नहीं पाली जा सकती हैं। कुछ अर्थों में अगर वह कोई सामाजिक काम गाहे-बगाहे कर भी गया तो वह कारपोरेट्स के सीएसआर (कारपोरेट सोशल रिस्पांस्बिलिटी) के शौक जैसा ही माना जाना चाहिए। मीडिया एक अलग चमकीली दुनिया है। जो इसी दशक का अविष्कार और अवतार है। उसकी जड़ें स्वतंत्रता आंदोलन के गर्भनाल में मत खोजिए, यह दरअसल बाजारवाद के नए अवतार का प्रवक्ता है। यह उत्तरबाजारवाद है। इसे मूल्यों, नैतिकताओं, परंपराओं की बेड़ियों में मत बांधिए। यह अश्वमेघ का धोड़ा है,जो दुनिया को जीतने के लिए निकला है। देश में इसकी जड़ें नहीं हैं। वह अब संचालित हो रहा है नई दुनिया के,नए मानकों से। इसलिए उसे पेडन्यूज के आरोपो से कोई उलझन, कोई हलचल नहीं है, वह सहज है। क्योंकि देने और लेने वालों दोनों के लक्ष्य इससे सध रहे हैं। लोकतंत्र की शुचिता की बात मत ही कीजिए। यह नया समय है,इसे समझिए। मीडिया अब अपने कथित ग्लैमर के पीछे भागना नहीं चाहता। वह लाभ देने वाला व्यवसाय बनना चाहता है। उसे प्रशस्तियां नहीं चाहिए, वह लोकतंत्र के तमाम खंभों की तरह सार्वजनिक या कारपोरेट लूट में बराबर का हिस्सेदार और पार्टनर बनने की योग्यता से युक्त है।
मीडिया का नया कुरूक्षेत्रः
मीडिया ने अपने कुरूक्षेत्र चुन लिए हैं। अब वह लोकतंत्र से, संवैधानिक संस्थाओं से, सरकार से टकराता है। उस पर सवाल उठाता है। उसे कारपोरेट से सवाल नहीं पूछने, उसे उन लोगों से सवाल नहीं पूछने जो मीडिया में बैठकर उसकी ताकत के व्यापारी बने हैं। वह सवाल खड़े कर रहा है बेचारे नेताओं पर,संसद पर जो हर पांच साल पर परीक्षा के लिए मजबूर हैं। वह मदद में खड़ा है उन लोगों के जो सार्वजनिक धन को निजी धन में बदलने की स्पर्धा में जुटे हैं। बस उसे अपना हिस्सा चाहिए। मीडिया अब इस बंदरबांट पर वाच डाग नहीं वह उसका पार्टनर है। उसने बिचौलिए की भूमिका से आगे बढ़कर नेतृत्व संभाल लिया है। उसे ड्राइविंग सीट चाहिए। अपने वैभव, पद और प्रभाव को बचाना है तो हमें भी साथ ले लो। यह चौथे खंभे की ताकत का विस्तार है। मीडिया ने तय किया है कि वह सिर्फ सरकारों का मानीटर है, उसकी संस्थाओं का वाच डाग है। आप इसे इस तरह से समझिए कि वह अपनी खबरों में भी अब कारपोरेट का संरक्षक है। उसके पास खबरें हैं पर किनकी सरकारी अस्पतालों की बदहाली की, वहां दम तोड़ते मरीजों की,क्योंकि निजी अस्पतालों में कुछ भी गड़ब़ड़ या अशुभ नहीं होता। याद करें कि बीएसएनएल और एमटीएनएल के खिलाफ खबरों को और यह भी बताएं कि क्या कभी आपने किसी निजी मोबाइल कंपनी के खिलाफ खबरें पढ़ी हैं। छपी भी तो इस अंदाज में कि एक निजी मोबाइल कंपनी ने ऐसा किया। शिक्षा के क्षेत्र में भी यही हाल है। सारे हुल्लड़-हंगामे सरकारी विश्वविद्यालयों, सरकारी कालेजों और सरकारी स्कूली में होते हैं- निजी स्कूल दूध के धुले हैं। निजी विश्वविद्यालयों में सारा कुछ बहुत न्यायसंगत है। यानि पूरा का पूरा तंत्र,मीडिया के साथ मिलकर अब हमारे जनतंत्र की नियामतों स्वास्थ्य, शिक्षा और सरकारी तंत्र को ध्वस्त करने पर आमादा है। साथ ही निजी तंत्र को मजबूत करने की सुनियोजित कोशिशें चल रही हैं। मीडिया इस तरह लोकतंत्र के प्रति, लोकतंत्र की संस्थाओं के प्रति अनास्था बढ़ाने में सहयोगी बन रहा है, क्योंकि उसके व्यावसायिक हित इसमें छिपे हैं। व्यवसाय के प्रति लालसा ने सारे मूल्यों को शीर्षासन करवा दिया है। मीडिया संस्थान,विचार के नकली आरोपण की कोशिशों में लगे हैं ।यह मामला सिर्फ चीजों को बेचने तक सीमित नहीं है वरन पूरे समाज के सोच को भी बदलने की सचेतन कोशिशें की जा रही हैं। शायद इसीलिए मीडिया की तरफ देखने का समाज का नजरिया इस साल में बदलता सा दिख रहा है।
यह नहीं हमारा मीडियाः
इस साल की सबसे बड़ी बात यह रही कि सूचनाओं ने, विचारों ने अपने नए मुकाम तलाश लिए हैं। अब आम जन और प्रतिरोध की ताकतें भी मानने लगी हैं मुख्यधारा का मीडिया उनकी उम्मीदों का मीडिया नहीं है। ब्लाग, इंटरनेट, ट्विटर और फेसबुक जैसी साइट्स के बहाने जनाकांक्षाओं का उबाल दिखता है। एक अनजानी सी वेबसाइट विकिलीक्स ने अमरीका जैसी राजसत्ता के समूचे इतिहास को एक नई नजर से देखने के लिए विवश कर दिया। जाहिर तौर पर सूचनाएं अब नए रास्तों की तलाश में हैं. इनके मूल में कहीं न कहीं परंपरागत संचार साधनों से उपजी निराशा भी है। शायद इसीलिए मुख्यधारा के अखबारों, चैनलों को भी सिटीजन जर्नलिज्म नाम की अवधारणा को स्वीकृति देनी पड़ी। यह समय एक ऐसा इतिहास रच रहा है जहां अब परंपरागत मूल्य, परंपरागत माध्यम, उनके तौर-तरीके हाशिए पर हैं। असांजे, नीरा राडिया, डाली बिंद्रा,, राखी सावंत, शशि थरूर, बाबा रामदेव, राजू श्रीवास्तव जैसे तमाम नायक हमें मीडिया के इसी नए पाठ ने दिए हैं। मीडिया के नए मंचों ने हमें तमाम तरह की परंपराओं से निजात दिलाई है। मिथकों को ध्वस्त कर दिया है। एक नई भाषा रची है। जिसे स्वीकृति भी मिल रही है। बिग बास, इमोशनल अत्याचार, और राखी का इंसाफ को याद कीजिए। जाहिर तौर पर यह समय मीडिया के पीछे मुड़कर देखने का समय नहीं है। यह समय विकृति को लोकस्वीकृति दिलाने का समय है। इसलिए मीडिया से बहुत अपेक्षाएं न पालिए। वह बाजार की बाधाएं हटाने में लगा है। तो आइए एक बार फिर से हम हमारे मीडिया के साथ नए साल के जश्न में शामिल हो जाएं।
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)

1 comment:

  1. ... baajaarvaad ... kab va kaise girgit kee tarah rang badalnaa hai, mahaarat !!

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