Wednesday, July 29, 2009

बलूचिस्तान विलाप नहीं,ब्रम्हास्त्र है

-राजेश बादल
अगर आप समय की स्लेट पर लिखी इबारत को भूल जाएं तो उसके गभीर परिणाम भी देखने को मिलते हैं। बलूचिस्तान के मामले में कुछ ऐसा ही हुआ है। मैं इस समय याद करता हूँ 1971 को, जब सारा देस श्रीमती इंदिरा गाँधी, थलसेनाध्यक्ष मानेक शॉ और जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा की जय-जयकार कर रहा था तो बलूचिस्तान में भी यही जयकार गूंज रही थी। वहां भी इंदिरा गाँधी और जनरल अरोड़ा ज़िंदाबाद के नारे महीनों तक सुनाई देते रहे थे। अख़बारों में भी ये ख़बरें सुर्खिंयों में थीं। पाकिस्तान के लोग हैरान थे कि देश के दो टुकड़े होने के बाद उनके देशे में शत्रु-देश की ज़िदाबाद क्यों हो रही है। इसका उत्तर बहुत सीधा-सपाट नहीं है। अतीत के कुछ पन्नों को पलटना होगा। कभी बौद्ध धर्म की शिक्षाएं बलूचिस्तान में अपना व्यापक असर दिखाती थीं,मौर्य साम्राज्य का प्रभुत्व चरम पर था और कनिष्क की कथाएं आज भी बलूचिस्तान के गाँवों में सुनाई जाती हैं।
भारत को जब अँग्रेज़ों ने बांटा और चौदह अगस्त 1947 को पाकिस्तान बनाया,तब उन्होंने बलूचिस्तान पाकिस्तान को नहीं सौंपा था। उसके तीन दिन पहले 11 अगस्त को उन्होंने बलूचिस्तान को आज़ाद कर दिया था। बँटवारे से पहले ही बलूच-संसद अँगरेज़ों से हुई संधि रद्द कर चुकी थी और बलूचिस्तान स्वतंत्र देश ही था। पाकिस्तान ने अस्तित्व में आते ही फौजी कार्रवाई की और बलूचिस्तान पर कब्ज़ा कर लिया था। बेचारे बलूच स्वायत्तता-अखंडता का राग अलापते रह गए। उनकी संसद को मोतै जेलों में डाल दिए गए या मार दिए गए।स्वाभिमानी बलूचियों न इसे कभी मंज़ूर नहीं किया। भारत चाहता तो यही काम वह नेपाल या भूटान के साथ कर सकता था और वहाँ तब शायद वैसा विरोध भी न होता,जैसा बलूचिस्तान में लगातार होता आया है। पाकिस्तानी फौजों ने वहाँ वर्षों तक अभियान चलाए हैं। जनरल टिक्का ख़ाना को तो बलूचिस्तान का कसाई कहा जाता है। उन्होंने गाजर-मूली की तरह बलूचियों को काटा और हवाई हमलों से उनकी नींद हराम कर दी। यह सिलसिला आज भी जारी है। तब न वहाँ अलक़यादा था, न आतंकवाद, न ओसाम और न अमेरिका। भारत ने तो कभी काश्मीर में ऐसा नहीं किया।बलूचिस्तान के लोग पाकिस्तान से कब्ज़ा छोड़ने की माँग वैसे ही कर रहे हैं, जैसे हिंदुस्तान अँगरेज़ों से भारत छोड़ने की माँग कर रहा था।
अगर हम पाकिस्तान की तरफ से एक बार यह सोचें भी कि बलूचिस्तान उनका अटूट हिस्सा है तो सवाल यह है कि अपने नागरिकों पर हवाई हमलों और लगातार फौजी कार्रवाई के लिए पाकिस्तानी हुक्मरानों को किसने मजबूर किया था?क्या कोई देश अपने ही नागरिकों पर इस तरह की कार्रवाई करता है? और याद कीजिए 1970 को-पाकिस्तान ने ही अपने देश के एक टुकड़े पूर्वी पाकिस्तान(अब बांग्लादेश) में सिर्फ छह महीनों के दौरान सीधी फौजी कार्रवाई करते हुए तीन लाख से ज़्यादा लोगों को मार डाला था। यह आँकड़ा खुद पाकिस्तान के अपने जाँच अधिकारी हमीद उर रहमान की रिपोर्ट में दिया गया है। तब भी दुनिया भर के चौधरी चुप्पी साधे-सिवाय भारत के। आज मनमोहन सिंह के रवैये पर काँग्रेस पार्टी में छाती पीट-पीटकर विलाप किया जा रहा है। हाय! मनमोहन!तुमने ये क्या कर दिया?बलूचिस्तान का उल्लेख क्यों होने दिया?
हैरत की बात है कि कश्मीर में आतंकवाद को पाकिस्तान खुले-आम कश्मीरियों की आज़ादी की जंग बताता है और नैतिक समर्थन देता है। वह कश्मीर जो कल्हम की राजतरंगिणी की भूमि है, वह कश्मीर जो 1947 तक हिंदू राजा की रियासत था, वह कश्मीर जो 1947 से ही हमारे साथ विलय कर चुका था, अगर वह हिंदुस्तान का नहीं है तो बलूचिस्तान पाकिस्तान का कैसे है?एक स्वतंत्र देश पर फौज के दम पर कब्ज़ा कितना जायज़ है?उसका विलय तो कभी पाकिस्तान में हुआ ही नहीं। पाकिस्तान का कब्ज़े का यह देश क्षेत्रफल में पाकिस्तान के सभी राज्यों से बड़ा है, सबसे अमीर भी है। वहाँ के लोग बासठ साल से अपनी आज़ादी की लड़ाई लड़ रहे हैं। हमें बलूचिस्तान की आज़ादी के आंदोलन को खुला समर्थन क्यों नहीं देना चाहिए?कश्मीर के मसले पर पाक को इससे अच्छा उत्तर नहीं दिया जा सकता। भले ही मनमोहन सिंह या हमारे अफसरों से अनजाने में ही बलूचिस्तान का उल्लेख हुआ हो,लेकिन वास्तव में हमारे हाथ अब एक ऐसा हथियार है, जिसे हमें पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए इस्तेमाल करना ही होगा। पाकिस्तान की अखंडता अगर पाकिस्तान को प्यारी हो सकती है तो भारत को क्यों नहीं?अगर हिंदुस्तान के लोग एक बार पाकिस्तान की अखंडता अगर पाकिस्तान को प्यारी हो सकती है तो भारत को क्यों नहीं? अगर हिंदुस्तान के लोग एक बार पाकिस्तान की अखंडता को स्वीकार कर भी लें, तो यह देखना होगा कि उससे पहले हमें हमारी अखंडता प्रिय है। हमारी अखंडता की क़ीमत पर यदि पाकिस्तान बिखरता है तो किसी को इस पर ऐतराज़ क्यों होना चाहिए।
एक और उदाहरण सीमांत गाँधी ख़ान अब्दुल गफ्फार ख़ान और उनके खुदाई खिदमतगार भारत से अलग होना ही नहीं चाहते थे। उन्हें आत्म निर्णय का अधिकार ही नहीं दिया गया। अलग होने की सूरत में वे अपना देश चाहते थे। वे पाकिस्तान में विलय नहीं चाहते थे. जाने माने पत्रकार स्व.राजेंद्र माथुर ने करीब पचास साल पहले यह सवाल उठाया था कि पख्तून सूबे का ज़बरन विलय पाकिस्तान में अंतिम क्यों है और कश्मीर का भारत में विलय अंतिम क्यों नहीं है?
लब्वो-लुआब यह है कि भारत को मौजूदा हालात में अपनी विदेश नीति और पाकिस्तान नीति में बदलाव करना ही होगा। बलूचिस्तान की आज़ादी के लिए खुलकर सामने आना ही होगा। कमज़ोरी छोड़नी होगी और विलाप को विजय में बदलने का प्रयास करना होगा। दुनिया में कमज़ोर कभी नहीं जीतते। अब तक की नीति का अनुभव यही है कि भारत ने खोया ही खोया ही खोया है। पाया कुछ नहीं। 1947-48 में एक तिहाई कश्मीर पाकिस्तान ने छीन लिया। हम वापस नहीं ले पाए। 1962 में चीन हज़ारों किलोमीटर ज़मीन छीन ली। हम वापस नहीं ले पाए। 1965 में कच्छ की ज़मीन पाकिस्तान ने हड़प ली। और तो और 65और 71 में हमने चीती हुई ज़मीन भी वापस कर दी। चीन ने 1959 में तिब्बत हड़पा। दुनिया जानती है कि आध्यात्मिक सांस्कृतिक और सामाजिक नज़रिए से तिब्बत पर हमारी दावेदारी बनती थी। हम वह भी नहीं कर पाए। पाकिस्तान ने हमारे कश्मीर का एक हिस्सा चीन को तोहफे के तौर पर दे दिया। हम देखते रहे। तो अब बलूचिस्तान प्रसंग पर हम रक्षात्मक क्यों हैं? दुनिया के नक्शे पर भारत की आवाज़ अब सुनी जाती है। बलूचिस्तान की आज़ादी हमारी पाक-नीति का अस्त्र होना चाहिए। जान-बूझकर साहस हम शायद न दिखाते, लेकिन अनजाने में कुदरत ने बलूचिस्तान का ब्रम्हास्त्र भारत को दे दिया है।
( प्रख्यात पत्रकार राजेश बादल का यह लेख देशकाल डाट काम ने प्रकाशित किया है.)

मीडिया, राजनीति, नौकरशाही का काकटेल


-पुण्यप्रसून वाजपेयी
मीडिया को अपने होने पर संदेह है। उसकी मौजूदगी डराती है। उसका कहा-लिखा किसी भी कहे लिखे से आगे जाता नहीं। कोई भी मीडिया से उसी तरह डर जाता है जैसे नेता....गुंडे या बलवा करने वाले से कोई डरता हो। लेकिन राजनीति और मीडिया आमने-सामने हो तो मुश्किल हो जाता है कि किसे मान्यता दें या किसे खारिज करें। रोना-हंसना, दुत्काराना-पुचकारना, सहलाना-चिकोटी काटना ही मीडिया-राजनीति का नया सच है। मीडिया के भीतर राजनीति के चश्मे से या राजनीति के भीतर मीडिया के चश्मे से झांक कर देखने पर कोई अलग राग दोनों में नजर नहीं आयेगा। लेकिन दोनों प्रोडेक्ट का मिजाज अलग है, इसलिये बाजार में दोनों एक दूसरे की जरुरत बनाये रखने के लिये एक दूसरे को बेहतरीन प्रोडक्ट बताने से भी नहीं चूकते। यह यारी लोकतंत्र की धज्जिया उड़ाकर लोकतंत्र के कसीदे भी गढ़ती है और भष्ट्राचार में गोते लगाकर भष्ट्राचार को संस्थान में बदलने से भी नही हिचकती।
मौजूद राजनेताओं की फेरहिस्त में मीडिया से निकले लोगो की मौजूदगी कमोवेश हर राजनीतिक दलों में है। अस्सी के दशक तक नेता अपनी इमेज साफ करने के लिये एक बार पत्रकार होने की चादर को ओढ़ ही लेता था, जिससे नैतिक तौर पर उसे भी समाज का पहरुआ मान लिया जाये। जागरुक नेता के तौर पर ...बुद्धिजीवी होने का तमगा पाने के तौर पर, पढ़े-लिखों के बीच मान्यता मिलने के तौर पर नेता का पत्रकार होना उसके कैरियर का स्वर्णिम हथियार होता, जिसे बतौर नेता मीडिया के घेरे में फंसने पर बिना हिचक वह उसे भांजता हुआ निकल जाता। नेहरु से लेकर वाजपेयी तक के दौर में कई प्रधानमंत्रियों और वरिष्ठ नेताओं ने खुलकर कहा कि वह पत्रकार भी रह चुके हैं। आईके गुजराल और वीपी सिंह भी कई मौकों पर कहते थे कि एक वक्त पत्रकार तो वह भी रहे हैं। लेकिन नया सवाल एकदम उलट है। एक पत्रकार की पुण्यतिथि पर कबिना मंत्री मंच से खुलकर कहता है कि उन्हें मीडिया की फ्रिक्र नहीं है कि वह क्या लिखते हैं क्योकि पत्रकार और पत्रकारिता अब मुनाफा बनाने के लिये किसी भी स्तर तक जा पहुंची है। अखबार के एक ही पन्ने पर एक ही व्यक्ति से जुड़ी दो खबरें छपती हैं, जो एक दूसरे को काटती हैं। राजनेता की यह सोच ख्याली कह कर टाली नहीं जा सकती है। हकीकत है कि इस तरह की पत्रकारिता हो रही है।
लेकिन यहां सवाल उस राजनीति का है, जो खुद कटघरे में है। सत्ता तक पहुंचने के जिसके रास्ते में कई स्तर की पत्रकारिता की बलि भी वह खुद चढ़ाता है और जो खुद मुनाफे की अर्थव्यवस्था को ही लोकहित का बतलाती है। लेकिन लोकहित किस तरह राज्य ने हाशिये पर ढकेला है यह कोई दूर की गोटी नहीं है लेकिन यहां सवाल मीडिया का है। यानी उस पत्रकारिता का सवाल है, जिस पत्रकारिता को पहरुआ होना है, पर वह पहरुआ होने का कमीशन मांगने लगी है और जिस राजनीति को कल्य़ाणकारी होना है, वह मुनाफा कमा कर सत्ता पर बरकरार रहने की जोड़तोड़ को राष्ट्रीय नीति बनाने और बतलाने से नही चूक रही है। तो पत्रकार को याद करने के लिये मंच पर नेता चाहिये, यह सोच भी पत्रकारो की ही है और नेता अगर पत्रकारो के मंच से ही पत्रकारिता को जमीन दिखा दे तो यह भी बर्दाश्त नहीं किया जा सकता है। लेकिन पत्रकारिता के घालमेल का असल खेल यहीं से शुरू होता है। मीडिया को लेकर पिछले एक दशक में जितनी बहस मीडिया में ही हुई, उतनी आजादी के बाद से नहीं हुई है। पहली बार मीडिया को देखने, समझने या उसे परोसने को लेकर सही रास्ता बताने की होड़ मीडियाकर्मियों में ही जिस तेजी से बढ़ी है, उसका एक मतलब तो साफ है कि पत्रकारों में वर्तमान स्थिति को लेकर बैचैनी है। लेकिन बैचैनी किस तरह हर रास्ते को एक नये चौराहे पर ले जाकर ना सिर्फ छोड़ती है, बल्कि मीडिया का मूल कर्म ही बहस से गायब हो चला है, इसका एहसास उसी सभा में हुआ, जिसमें संपादक स्तर के पत्रकार जुटे थे।
उदयन शर्मा की पुण्यतिथि के मौके पर जो सवाल उस सभा में मंच या मंच के नीचे से उठे, वह गौर करने वाले इसलिये हैं, क्योंकि इससे हटकर व्यवसायिक मीडिया में कुछ होता नहीं और राजनीति भी कमोवेश अपने आत्ममंथन में इसी तरह के सवाल अपने घेरे में उठाती है और सत्ता मिलने के बाद उसी तरह खामोश हो जाती है, जैसे कोई पत्रकार संपादक का पद मिलने के बाद खुद को कॉरपोरेट का हिस्सा मान लेता है। मीडिया अगर प्रोडक्ट है तो पाठक उपभोक्ता हैं। और उपभोक्ता के भी कुछ अधिकार होते हैं। अगर वह माल खरीद रहा है तो उसे जो माल दिया जा रहा है उसकी क्वालिटी और माप में गड़बड़ी होने पर उपभोक्ता शिकायत कर भरपायी कर सकता है। लेकिन मीडिया अगर खबरों की जगहो पर मनोरंजन या सनसनाहट पैदा करने वाले तंत्र-मंत्र को दिखाये या छापे तो उपभोक्ता कहां शिकायत करें। यह मामला चारसौबीसी का बनता है। इस तरह के मापदंड मीडिया को पटरी पर लाने के लिये अपनाये जाने चाहिये। प्रिंट के पत्रकार की यह टिप्पणी खासी क्रांतिकारी लगती है।
लेकिन मीडिया को लेकर पत्रकारों के बीच की बहस बार-बार इसका एहसास कराने से नहीं चूकती कि पत्रकारिता और प्रोडक्ट में अंतर कुछ भी नही है। असल में खबरों को किसी प्रोडक्ट की तरह परखें तो इसमें न्यूज चैनल के पत्रकार की टिप्पणी भी जोड़ी जा सकती है, जिनके मुताबिक देश की नब्ज न पकड़ पाने की वजह कमरे में बैठकर रिपोर्टिग करना है। और आर्थिक मंदी ने न्यूज चैनलों के पत्रकारो को कमरे में बंद कर दिया है, ऐसे में स्पॉट पर जाकर नब्ज पकडने के बदले जब रिपोर्टर दिल्ली में बैठकर समूचे देश के चुनावी तापमान को मांपना चाहेगा तो गलती तो होगी ही। जाहिर है यह दो अलग अलग तथ्य मीडिया के उस सरोकार की तरफ अंगुली उठाते हैं जो प्रोडक्ट से हटकर पत्रकारिता को पैरों पर खड़ा करने की जद्दोजहद से निकली है । इसमें दो मत नहीं कि समाज की नब्ज पकड़ने के लिये समाज के बीच पत्रकार को रहना होगा लेकिन मीडिया में यह अपने तरह की अलग बहस है कि पत्रकारिता समाज से भी सरोकार तभी रखेगी, जब कोई घटना होगी या चुनाव होंगे या नब्ज पकडने की वास्तव में कोई जरुरत होगी। यानी मीडिया कोई प्रोडक्ट न होकर उसमें काम करने वाले पत्रकार प्रोडक्ट हो चुके हैं, जो किसी घटना को लेकर रिपोर्टिंग तभी कर पायेंगे जब मीडिया हाउस उसे भेजेगा।
अब सवाल पहले पत्रकार का जो उपभोक्ताओं को खबरें न परोस कर चारसौबीसी कर रहा है। तो पत्रकार के सामने तर्क है कि वह बताये कि आखिर शहर में दंगे के दिन वह किसी फिल्म का प्रीमियर देख रहा था तो खबर तो फिल्म की ही कवर करेगा। या फिर फिल्म करोड़ों लोगों तक पहुंचेगी और दंगे तो सिर्फ एक लाख लोगो को ही प्रभावित कर रहे हैं, तो वह अपना प्रोडक्ट ज्यादा बड़े बाजार के लिये बनायेगा। यानी देश में सांप्रदायिक दंगो को राजनीति हवा दे रही है और उसी दौर में फिल्म अवॉर्ड समारोह या कोई मनोरंजक बालीवुड का प्रोग्राम हो रहा है और कोई चैनल उसे ही दिखाये। य़ा फिर अवार्ड समारोह की ही खबर किसी अखबार के पन्ने पर चटकारे लेकर छपी रहे तो कोई उपभोक्ता क्या कर सकता है। जैसे ही पत्रकारिता प्रोडक्ट में तब्दील की जायेगी, उसे समाज की नहीं बाजार की जरूरत पड़ेगी। पत्रकारिता का संकट यह नहीं है कि वह खबरों से इतर चमकदमक को खबर बना कर परोसने लगी है।
मुश्किल है पत्रकारिता के बदलते परिवेश में मीडिया ने अपना पहला बाजार राजनीति को ही माना। संपादक से आगे क्या। यह सवाल पदों के आसरे पहचान बनाने वाले पत्रकारों से लेकर खांटी जमीन की पत्रकारिता करने वालो को भी राजनीति के उसी दायरे में ले गया, जिस पर पत्रकारिता को ही निगरानी रखते हुये जमीनी मुद्दों को उठाये रखना है। संयोग से उदयन की इस सभा में एनसीपी के नेता डीपी त्रिपाठी ने कहा कि राजनीति का यह सबसे मुश्किल भरा वक्त इसलिये है क्योकि वाम राजनीति इस लोकसभा चुनाव में चूक गयी। वाम राजनीति रहती तो सत्ता मनमानी नहीं कर सकती थी। वहीं कपिल सिब्बल ने कहा कि उदयन सरीखे पत्रकार होते तो पत्रकारिता चूकती नही, जो लगातार चूक रही है । लेकिन मंच के नीचे से यह सवाल भी उठा कि उदयन को भी आखिर राजनीति क्यों रास आयी । क्यो पत्रकारिता में इतना स्पेस नहीं है कि पत्रकार की जिजिविशा को जिलाये रख सके। उदयन जिस दौर में कांग्रेस में गये या कहें कांग्रेस की टिकट पर चुनाव लड़े, उस दौर में देश में सांप्रदायिकता तेजी से सर उठा रही थी । और उदयन की पहचान सांप्रदायिकता के खिलाफ पत्रकारिता को धार देने वाली रिपोर्ट करने में ही थी। सवाल सिर्फ उदयन का ही नहीं है। अरुण शौरी जिस संस्थान से निकले, उसे चलाने वाले गोयनका राजनीति में अरुण शौरी से मीलो आगे रहे। लेकिन गोयनका ने कभी किसी राजनीतिक दल के टिकट पर चुनाव लड़कर या पिछले दरवाजे से संसद पहुचने की मंशा नहीं जतायी। चाहते तो कोई रुकावट उनके रास्ते में आती नहीं । गोयनका को पॉलिटिकल एक्टिविस्ट के तौर पर देखा समझा जा सकता है। लेकिन उसी इंडियन एक्सप्रेस में जब कुलदीप नैयर का सवाल आता है और इंदिरा गांधी के दबाब में कुलदीप नैयर से और कोई नहीं गोयनका ही इस्तीफा लेते है तो पत्रकारिता के उस घेरे को अब के संपादक समझ सकते है कि मीडिया की ताकत क्या हो सकती है, अगर उसे बनाया जाये तो।
लेकिन कमजोर पड़ते मीडिया में अच्छे पत्रकारो के सामने क्या सिर्फ राजनीति इसीलिये रास्ता हो सकती है क्योंकि उनका पहला बाजार राजनीति ही रहा और खुद को बेचने वह दूसरी जगह कैसे जा सकते हैं। स्वप्न दास हो या पायोनियर के संपादक चंदन मित्रा या फिर एमजे अकबर। इनकी पत्रकारिता पर उस तरह सवाल उठ ही नहीं सकते हैं, जैसे अब के संपादक या पत्रकारों के राजनीति से रिश्ते को लेकर उठते हैं। लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि राजनीति में गये इन पत्रकारों की हैसियत राजनीतिक मंच पर क्या हो सकती है या क्या है, जरा इस स्थिति को भी समझना चाहिये। राजनीतिक गलियारे में माना जाता है कि उड़ीसा में नवीन पटनायक से बातचीत करने के लिये अगर चंदन मित्रा की जगह किसी भी नेता को भेजा जाता तो बीजू जनता दल और भाजपा में टूट नहीं होती। इसी तरह चुनाव के वक्त वरुण गांधी के समाज बांटने वाले तेवर को लेकर बलबीर पुंज ही भाजपा के लिये खेतवार बने। बलवीर पुंज भी एक वक्त पत्रकार ही थे और वह गर्व भी करते हैं कि पत्रकारिता के बेहतरीन दौर में बतौर पत्रकार उन्होंने काम किया है। लेकिन राजनीति के घेरे में इन पत्रकारो की हैसियत खुद को वाजपेयी-आडवाणी का हनुमान कहने वाले विनय कटियार से ज्यादा नहीं हो सकती है। तो क्या माना जा सकता है कि पत्रकारिय दौर में भी यह पत्रकार पत्रकारिता ना करके राजनीतिक मंशा को ही अंजाम देते रहे। और जैसे ही राजनीति में जाने की सौदेबाजी का मौका मिला यह तुरंत राजनीति के मैदान में कूद गये।
पत्रकार का नेता बनने का यह पिछले दरवाजे से घुसना कहा जा सकता है,क्योकि राजनीति जिस तरह का सार्वजनिक जीवन मांगती है, पत्रकार उसे चाहकर भी नहीं जी पाता। पॉलिटिक्स और मीडिया को लेकर यहां से एक समान लकीर भी खिंची जा सकती है। दोनों पेशे में समाज के बीच जीवन गुजरता है। यह अलग बात है कि पत्रकारों को राजनीतिज्ञो के बीच भी वक्त गुजारना पड़ता है और नेता भी मीडिया के जरीये समाज की नब्ज टटोलने की कोशिश करता रहता है। लेकिन संयोग से दोनो जिस संकट पर पहुचे है, उसका जबाब भी इन्ही दोनों पेशे की तरफ से उदयन को याद करने वाली सभा में उभरा। राष्ट्रीय हिन्दी दैनिक के एक ब्यूरो चीफ ने सभा में साफ कहा कि पत्रकारिता का सबसे बड़ा संकट तत्काल को जीना है। इसमें भी बड़ा संकट गहरा रहा है क्योंकि आने वाली पीढ़ी तो उस गलती को भी नहीं समझ पा रही है, जिसे अभी के संपादक किये जा रहे हैं। यानी जो मीडिया में सत्तासीन हैं, उन्हे तमाम गलतियों के बावजूद पद छोड़ना नहीं है या उन्हें हटाने की बात करना सही नहीं है क्योंकि उनके हटने के बाद जो पीढी आयेगी, वह तो और दिवालिया है।
जाहिर है यह समझ खुद को बचाने वाली भी हो सकती है और आने वाली पीढ़ी की हरकतों को देखकर वाकई का डर भी। लेकिन पत्रकारिता में संकट के दौर में यह एक अनूठी समझ भी है, जिसमें उस दौर को मान्यता दी जा रही है जो बाजार के जरीये मीडिया को पूरी तरह मुनाफापरस्त बना चुकी है। लेकिन इस मुनाफापरस्त वक्त की पीढी की पत्रकारिता को कोई बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है य़ा फिर उसके मिजाज को पत्रकारिय चिंतन से इतर देख रहा है। यह घालमेल राजनीति में किस हद तक समा चुका है, इसे सीपीएम नेता सीताराम येचुरी के ही वक्तव्य से समझा जा सकता है। संयोग से उदयन की सभा के दिन सीपीएम सेन्ट्रल कमेटी की बैठक भी दिल्ली में हो रही थी, जिसमें चुनाव में मिली हार की समीक्षा की जा रही थी। और सीताराम येचुरी दिये गये वादे के मुताबिक बैठक के बीच में उदयन की सभा में पहुंचे, जिसमें उन्होंने माना कि वामपंथियों की हार की बड़ी वजह उन आम वोटरों को अपनी भावनाओं से वाकिफ न करा पाना था, जिससे उन्हें वोट मिलते। यानी सीपीएम के दिमाग में जो राजनीति तमाम मुद्दों को लेकर चल रही थी, उसके उलट लोग सोच रहे होगे, इसलिये सीपीएम हार गयी। लेकिन क्या सिर्फ यही वजह रही होगी। हालाकि सीपीएम के मुखपत्र में कैडर में फैलते भष्ट्राचार से लेकर कैडर और आम वोटरो के बीच बढ़ती दूरियो का भी बच बचाकर जिक्र किया गया। लेकिन सीताराम येचुरी के कथन ने उस दिशा को हवा दी, जहा राजनीति अपने हिसाब से जोड़-तोड़ कर सत्ता में आने की रणनीति अपनाती है लेकिन जनता के दिमाग में कुछ और होता है।
यहां सवाल है कि राजनीति को जनता की जरुरतों को समझना है या फिर राजनीति अपने मुताबिक जनता को समझा कर जीत हासिल कर सकती है। भाजपा ने भी लोकसभा चुनाव में वहीं गलती कि जहां उसे लगा कि उसकी राजनीति को जनता समझ जायेगी और जो मुद्दे जनता से जुड़े हैं अगर उसमें आंतकवाद और सांप्रदायिकता का लेप चढ़ा दिया जाये तो भावनात्मक तौर पर उसके अनुकुल चुनावी परिणाम आ जायेगे। हालांकि भाजपा एक कदम और आगे बढ़ी और उसने हिन्दुत्व को भी मुद्दे सरीखा ही आडवाणी के चश्मे से देखना शुरु किया। हिन्दुत्व कांग्रेस के लिये मुद्दा हो सकता है लेकिन भाजपा की जो अपनी पूरी ट्रेनिंग है, उसमें हिन्दुत्व जीवनशैली होगी। चूंकि आरएसएस की यह पूरी समझ ही भाजपा के लिये एक वोट बैक बनाती है, इसलिये अपने आधार को खारिज कर भाजपा को कैसे चुनाव में जीत मिल सकती है, यह भाजपा को समझना है। यही समझ वामपंथियो में भी आयी, जहां वह वाम राजनीति से इतर सामाजिक-आर्थिक इंजिनियरिंग का ऐसा लेप तैयार करने में जुट गयी जिसमें वह काग्रेस का विकल्प बनने को भी तैयार हो गयी और जातीय राजनीति से निकले क्षेत्रिय दलों की अगुवाई करते हुये भी खुद को वाम राजनीति करने वाला मानने लगी। इस बैकल्पिक राजनीति की उसकी समझ को उसी की ट्रेनिग वाले वाम प्रदेश में ही उसे सबसे घातक झटका लगा क्योकि उसने अपने उन्हीं आधारो को छोड़ा, जिसके जरीये उसे राजनीतिक मान्यता मिली थी।
जाहिर है यहां सवाल मीडिया का भी उभरा कि क्या उसने भी अपने उन आधारों को छोड़ दिया है, जिसके आसरे पत्रकारिता की बात होती थी। या फिर वाकई वक्त इतना आगे निकल चुका है कि पत्रकारिता के पुराने मापदंडों से अब के मीडिया को आंकना भारी भूल होगी। लेकिन इसके सामानांतर बड़ा सवाल भी इसी सभा में उठा कि मीडिया का तकनीकि विस्तार तो खासा हुआ है लेकिन पत्रकारो का विस्तार उतना नहीं हो पाया है, जितना एक दशक पहले तक पत्रकारों का होता था और उसमें उदयन-एसपी सिंह या फिर राजेन्द्र माथुर या सर्वेश्वरदयाल सक्सेना सरीखों का हुआ। मीडिया को लेकर नौकरशाह चुनाव आयुक्त एस एम कुरैशी ने भी अपनी लताड़ जानते समझते हुये लगा दी कि चुनाव को लेकर जीत-हार का सिलसिला रोक कर चुनाव आयोग ने कितने कमाल का काम किया है। एक तरफ कुरैशी साहब यह बोलने से नहीं चूके की मीडिया सर्वे के जरीये राजनीतिक दलों को लाभ पहुंचा देती है क्योंकि सर्वे का कोई बड़ा आधार नहीं होता। दूसरी तरफ राजनीति के प्रति लोगो में अविश्वास न जागे, इसके लिये मीडिया को भी मदद करने की अपील भी यह कहते हुये कि राजनेता लोकतंत्र की सबसे बड़ी पहचान है। कुरैशी साहब के मुताबिक चुनाव आयोग जिस तरह चुनावों को इतने बड़े पैमाने पर सफल बनाता है, असल लोकतंत्र का रंग यही है। हालांकि मंच के नीचे से यह सवाल भी उठा कि सत्तर करोड़ मतदाताओं में से जब पैंतीस करोड़ वोट डालते ही नहीं तो लोकतंत्र का मतलब क्या होगा। 15 वीं लोकसभा चुनाव में भी तीस करोड़ से ज्यादा वोटरो ने वोट डालने में रुचि दिखायी ही नहीं और वोट ना डालने वालो की यह तादाद राष्ट्रीय पार्टियों को मिले कुल वोट से भी ज्यादा है या कहे कांग्रेस की अगुवाई में जो सरकार बनी है, उससे दुगुना वोट पड़ा ही नहीं।
लेकिन मीडिया का संकट इतना भर नहीं है कि पत्रकार शब्द समाज में किसी को भी डरा दे। राजनीति या नौकरशाही इसके सामने ताल ठोंककर उसे खारिज कर निकल भी सकती है। उस सभा के अध्यक्ष जनता दल यूनाइटेड के अध्यक्ष शरद यादव ने आखिर में जब अभी के सभी पत्रकारों को खारिज कर पुराने पत्रकारों को याद किया तो भी पत्रकारो की इस सभा में खामोशी ही रही। शरद यादव ने बड़े प्यार से प्रभाष जोशी को भी खारिज करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने कहा कि अभी के पत्रकारो में एकमात्र प्रभाष जोशी हैं, जो सबसे ज्यादा लिखते हैं लेकिन वह भी रौ में बह जाते हैं। जबकि शरद यादव जी के तीस मिनट के भाषण के बाद मंच के नीचे बैठे हास्य कवि सुरेन्द्र शर्मा ने टिप्पणी की- कोई समझा दे कि शरद जी ने कहा क्या तो उसे एक करोड़ का इनाम मिलेगा। असल में मीडिया की गत पत्रकारों ने क्या बना दी है, यह 11 जुलायी को उदयन की पुण्यतिथि पर रखी इस सभा में मंच पर बैठे एक मंत्री, चार नेता और एक नौकरशाह और मंच के नीचे बैठे पत्रकारों की फेरहिस्त में कुलदीप नैयर से लेकर एक दर्जन संपादकों से भी समझी जा सकती है। दरअसल, इस सभा में जो भी बहस हुई, इससे इतर मंच और मंच के बैठे नीचे लोगों से भी अंदाजा लगाया जा सकता है कि एक पत्रकार को याद करने के लिए पत्रकारों द्वारा आयोजित सभी में ही किसे ज्यादा तरजीह मिलेगी।



लेखक पुण्य प्रसून वाजपेयी मशहूर पत्रकार हैं। उनका यह लिखा उनके ब्लाग से साभार लिया गया है।

समाज, सरकार, संसद, सर्जना, सेंसर और रविशंकर प्रसाद


♦ रवि शंकर प्रसाद


पूर्व केंद्रीय मंत्री रवि शंकर प्रसाद ने टीआरपी के धंधे पर यह भाषण सोमवार, 27 जुलाई 2009 को राज्‍यसभा में दिया। भाषण में टीआरपी की आड़ में देश के बड़े हिस्‍से को चैनल स्‍क्रीन से बाहर रखने की राजनीति पर उन्‍होंने रोशनी डाली। दूसरे सदस्‍यों ने भी उनका समर्थन किया और सूचना एवं प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी ने भरोसा दिया कि हम इस दिशा में ज़रूर कुछ करेंगे। टीआरपी पर राज्‍यसभा में हुई इस बहस की रिपोर्टिंग अख़बारों में छपी, लेकिन हम रवि शंकर प्रसाद का पूरा भाषण यहां पब्लिश कर रहे हैं – ताकि पाठकों को यह पता चले कि टीआरपी को लेकर एक राजनीतिज्ञ का ग़ुस्‍सा कितने रचनात्‍मक तरीक़े से बाहर आता है-



उपसभाध्यक्ष जी, मैं अपने मन में एक सवाल पूछता हूं कि समाज, सरकार, संसद, सर्जना और सेंसर, इसके बीच में क्‍या रिश्ता हो ? यह सवाल एक लोकतंत्र में हमेशा उठता है। उपसभाध्यक्ष जी, मेरी समझ यह है कि सेंसर की सुई इस प्रकार से नहीं चलनी चाहिए कि सर्जना की सरिता सूख जाए। इसके साथ ही, इतना आवश्यक यह भी है कि सर्जना का अधिकार इतना उच्छृखंल नहीं होना चाहिए कि संस्कारों के सरोवर गंदे हो जाएं। यह basic bench-mark है। Censor should not kill creativity, and the Right of Creativity should not be so irresponsible that it pollutes the time-tested propriety. यह मौलिक बिंदु हमको समझना पड़ेगा, जो बहुत आवश्यक है। लेकिन कई बार लक्ष्‍मण रेखा का अतिक्रमण हो जाता है। उपसभाध्यक्ष जी, अब उसका निदान कौन करेगा, बात यहां पर आती है। मैं बहुत प्रमाणिकता से महसूस करता हूं कि सरकार की भूमिका इसमें बहुत कम होनी चाहिए। We need to respect the freedom of the media and the Right of Creativity, and the Government should have a minimum role. लेकिन समस्या तो है और जब हम संसद में हैं, अगर देश यह चिंता करता है, तो हमें इसका उत्तर ढूंढ़ना पड़ेगा, इसका क्‍या उत्तर होगा? इसके पीछे समस्या क्‍या है? मैं कुछ बातें आज खुलकर कहना चाहता हूं – मीडिया से भी, क्‍योंकि मीडिया के लोग हमारे मित्र हैं। आप ग़लतियों को ज़रूर निकालिए, लेकिन एक sting operation हुआ एक टीचर अरोड़ा के साथ। उस sting operation के बाद हमने उसको पिटते हुए देखा है। बाद में मालूम हुआ कि वह पूरा sting operation ग़लत था। क्‍या हम उसके सम्मान को रेस्टोर कर सके? यह सवाल कहीं न कहीं उठाना पड़ेगा? हम उसकी कितनी बड़ी क्षति कर गए, उसकी पूरी प्रतिष्ठा को, सम्मान को, His entire reputation stands completely destroyed before his pupils, before his students, and also before the society. उपसभाध्यक्ष जी, एक कार्यक्रम गुड़ि‍या का था। यह एक चैनल पर आया था। वह मुस्लिम समाज से आती थी। उसका पति शायद ग़ायब हो गया था। उसकी दूसरी शादी हो गयी थी। बाद में उसका पति वापिस आ गया। उसकी शादी का असर क्‍या है, यह चर्चा में आ गया। अब एक चैनल उसका इंटरव्यू ले रहा है और अब वह बड़ा विषय बन गया। मुझे मेरे पत्रकार मित्रों ने बताया कि बाक़ी चैनल वाले
उस चैनल के यहां पहुंच गये, कुछ लोग एफआईआर कर रहे हैं कि हमको भी गुड़‍िया मिलनी चाहिए, क्‍योंकि इस गुडि़या को हम भी दिखाएंगे। आप उस औरत की मानसिक परेशानी को समझ‍िए। How she feels? मुझे याद है कि पटना में हमारे कुछ मित्रों ने धरना-प्रदर्शन में बंद कर रखा था और दानापुर के पास, तारिक अनवर जी, आपने वह कहानी देखी होगी, एक महिला डिलिवरी के लिए जा रही थी और बंद के कारण उसकी डिलिवरी सड़क पर ही हो गयी। अब सुबह से शाम तक उस बेचारी महिला की तस्वीर, आपको कैसा लग रहा है, It was down right atrocious; I have not the slightest doubt in saying that. यह क्‍यों होना चाहिए, यह कब तक होना चाहिए ? ये बड़े सवाल हैं।
उपसभाध्यक्ष जी, जहां एक ओर मैं इस देश के टेलिविज़न के इंटरटेनमेंट और मीडिया की तारीफ करूंगा कि इसने देश में बहुत अच्छे काम किये हैं। आज लोग इंटरटेनमेंट को एप्रिसिएट करना सीख गये। मुझे याद है, मैं टेलिविज़न की डिबेट में जाता हूं। जयंती और अभिषेक हैं। हां, अभिषेक आज हैं। आज आपको मैं बहुत दिन के बाद देख रहा हूं। उपसभाध्यक्ष जी, पहले जब हम टीवी डिबेट के लिए जाया करते थे, आपको याद होगा, तो हम लोगों की कोशिश होती थी कि हम लोग दूसरे को बोलने नहीं दें। सिब्बल साहब भी हैं। He has also been an equally important face on television debates. लेकिन देश ने हमसे अपेक्षा की कि आप civilised debate करिए, अपनी पारी का इंतज़ार करिए और आहिस्ता-आहिस्ता आज देश में हर टेलिविज़न की डिबेट का स्तर बढ़ा है।
उसी प्रकार से जो प्रोग्राम्स के कंटेंट हैं, उनका भी असर बढ़ा है। अगर कोई प्रोग्राम पूअर होता है, लोग उसको लाइक नहीं करते हैं, लेकिन महोदय, दिक्‍कत कहां आ रही है, यह बहुत समझने की जरूरत है। दिक्‍कत यहां आती है कि क्‍या बिकता है, क्‍या चलता है, क्‍या लोग देखना चाहते हैं? अब सवाल पूछिए कि ऐसा क्‍यों होता है? मुझे याद है, मेरे एक बड़े अच्छे दोस्त थे, जो टेलीविजन के कॉरिस्पोंडेंट थे। वे पॉलिटिकल इस्यूज को कवर करते थे। उन्होंने मुझसे कहा कि रवि जी, मैं दो सपेरों को लेकर आगरा गया था, क्‍योंकि मुझे दो सांप खोजने थे, जो साथ-साथ नाचते थे। मैंने कहा कि आपको क्‍या हो गया है? उन्होंने कहा कि क्‍या बोलूं, आजकल यही बिकता है, इसलिए खोज कर रहा था। उपसभाध्यक्ष महोदय, सबसे बड़ी चिंता यही है और इससे बड़ा सवाल यह उठता है, लोग कहते हैं कि ये लोग देखना चाहते हैं। इसके साथ यह सवाल उठता है कि आप दिखाना क्‍या चाहते हैं? आपको किसने यह अधिकार दे दिया कि देश क्‍या देखना चाहता है, इसकी सही समझ आपको ही है। They are important issues. We need to understand them. महोदय, जो मैंने समझा है, वह यह है कि इस पूरे घालमेल के पीछे जो एक सबसे बड़ी परेशानी है, वह है TRP की राजनीति। the politics of Television Rating Points. जो आज सबसे अधिक अन-साइंटिफिक तरीके से हो रहा है। कोई कहता है कि हमारा चैनल सबसे बड़ा तेज़ चैनल है, तो कैसे है? आज की TRP में हमारा प्वाइंट ऊपर है, तो दूसरा कहता है कि उनकी TRP का प्वाइंट एक बजे तक ऊपर था, तीन बजे के बाद हम ऊपर चले गये हैं। उपसभाध्यक्ष महोदय, मैं आज इस हाउस को बड़ी नम्रता से यह बताना चाहता हूं कि The greatest fraud is being played on the country in the management of the TRP; and I say so with full sense of responsibility. यह देश कोई 110 या 112 करोड़ का है। यहां एक या दो प्राइवेट एजेंसीज हैं। उन्होंने कहां से यह अधिकार प्राप्त कर लिया और देश में कुछ हजार मीटर्स रख लिये तथा कुछ शहरों में रख दिये। बस, उनको यह मोनोपली मिल गयी कि हम यह तय करेंगे कि इनकी रेटिंग A है और इनकी रेटिंग B है। जब आपकी रेटिंग अच्छी होगी, तो आपको विज्ञापन मिलेगा। रेटिंग अच्छी करने के लिए आई बॉल चाहिए। आई बॉल करने के लिए बस, यही बिकता है। This is the whole unfortunate nexus. मुझे मालूम है कि हमारे टेलीविजन में काम करने वाले एक से एक अच्छे लोग हैं। हमारे न्यूज़ चैनल्स में एक से एक अच्छे लोग हैं, जो देश को यह बताना चाहते हैं कि देश कैसे आगे बढ़ रहा है तथा देश कहां उलझ रहा है? उनके पास इसकी एक से एक स्टोरी है, लेकिन उनसे कहा जाता है कि आपकी स्टोरी बिकती नहीं है, क्‍योंकि इसमें TRP नहीं है। That is the real problem.
उपसभाध्यक्ष महोदय, मुझे आज तक याद है कि एक चैनल का एक कार्यक्रम था कि इस देश के दलितों की स्थिति कैसी है? I remember that programme, a five day programme, on the rights of our oppressed people, one symbol. उत्तर प्रदेश के किसी गांव की कहानी थी कि वह दलित साइकिल से आ रहा था और एक घर के सामने वह साइकिल से उतर गया। He would ride on that cycle even after 60 years of independence. जब वह उस घर को पार कर जाएगा, फिर वह साइकिल
चलाएगा। यह एक इतना रचनात्मक शोर्ट था, हमने कहा कि यह उन्होंने देश की एक बहुत बड़ी समस्या को किस तरीके से उठाया है। मुझे मालूम है कि हर चैनल में बहुत अच्छा काम करने वाले लोग हैं, लेकिन बिकता नहीं है। सर, आज सबसे बड़ी बात इस देश को सोचनी है, संसद को सोचनी है और मंत्री जी मैं इस पर आपका उत्तर चाहूंगा कि What steps are you taking to undo this wholly non-transparent TRP business going on in this country? What is their accountability? Who has created it? What is their legal sanctity? All these things are required to be taken note of. मैं बिहार से आता हूं और कई लोग बंगाल से आते हैं तथा यहां पर असम से भी लोग हैं। वहां पर एक भी डिब्बा नहीं है। यदि पटना में दो-तीन मिल जाएं तो बड़ी ग़नीमत होगी।
(व्यवधान)
उत्तर प्रदेश का वही हाल है, काशी में नहीं है, असम में नहीं है और लखनऊ में नहीं है, लेकिन मुंबई में होगा, दिल्ली में होगा क्‍योंकि विज्ञापन का सारा केंद्र मुंबई है, दिल्ली है। यहां पर विज्ञापन बनते हैं। यदि विज्ञापन चलाना है तो आई बॉल चाहिए। यदि आई बॉल चाहिए तो दिखाना है।
यह वेस्टेड नेक्‍सेस बन गया है। मंत्री जी, मैं स्पष्ट करना चाहूंगा, मैंने साफ कहा है कि मैं किसी सरकारी हस्तक्षेप के पक्ष में नहीं हूं, But it is high time you should have a law, have an autonomous regulator to determine the TRP of all the channels in the country by a proper support of law and we are willing to support you. यह मैं आपसे कहना चाहता हूं। आज देश में हमें गर्व होना चाहिए कि हिंदुस्तान में इतने चैनल्स हैं। उनका रेट ऑफ ग्रॉथ फिफटीन परसेंट है। We are proud of that growth. आज हिंदुस्तान के टेलीविजन के अच्छे प्रोग्राम वर्ल्‍ड के बेस्ट प्रोग्राम्स में आते हैं। इसके बारे में ईमानदारी से सोचना पड़ेगा और देश को फैसला करना पड़ेगा कि एक ऑटोनॉमस रेग्युलेटर हो, उसमें मीडिया के भी लोग रहें, वे लोग न्याय हित में हों, वे टीआरपी तय करें। मैं सोचता हूं कि यह पूरी TRP मंथ टू मंथ तय होनी चाहिए। प्रोग्राम वाइज, डे वाइज और ऑवर वाइज नहीं तय होनी चाहिए। This creates the biggest vested interest. हम चाहेंगे कि आप इस दिशा में कुछ प्रामाणिकता से फैसला करें। एक और समस्या है..
(व्यवधान)
आप मुझे पांच मिनट का समय दीजिए, बड़ी कृपा होगी। मैं बहुत महत्वपूर्ण बात कहने जा रहा हूं। एक विज्ञापन की समस्या है। माननीय अंबिका सोनी जी, आपका जो रूल है, आपको याद होगा कि केबल कंडक्‍ट्स रूल के अंतर्गत आप एक घंटे में सिर्फ बारह मिनट का विज्ञापन दिखा सकते हैं। आपको पता है कि विज्ञापन कितनी देर दिखाया जाता है। अक्‍सर विज्ञापन का जो मामला है – मुझे याद है, मैं उन दिनों पद पर था, दो-तीन विज्ञापनों को लेकर बहुत चिंता हुई। वह मैंने नोटिस किया, उन्होंने कहा कि एडवरटाइजमेंट कौंसिल, उनकी एक अंदर की बॉडी है, वह इसे देखती है। जब यह विषय अख़बार में आया तो एडवरटाइजमेंट कौंसिल के एक अवकाशप्राप्त सचिव ने मुझे पत्र लिखा कि मंत्री जी, एडवरटाइजमेंट कौंसिल कुछ नहीं करती। जब तक वह नोटिस करती है, जवाब आता है, तब तक विज्ञापन का एक साल का कोर्स ख़त्म हो जाता है। Some of the advertisements are very good. जो मुझे सबसे ज्यादा भाता है, वह एक फोन कंपनी का विज्ञापन है, जिसमें एक छोटा कुत्ता, एक छोटी लड़की के साथ होता है, यह हाइट ऑफ क्रिएटिविटी है। उसके साथ ही साथ कितने भद्दे विज्ञापन आते हैं, जो भारतीय महिलाओं के प्रति कितना बड़ा अन्याय है, मैं उनके लिए शब्दों का प्रयोग नहीं कर सकता हूं। इन विज्ञापनों में कोई क्रिएटिविटी नहीं होती है। मंत्री जी आप जानती होंगी कि It is plain and simple commerce to promote good. इसलिए उसके बारे में जरूर विचार करना पड़ेगा।
उपसभाध्यक्ष जी, मुझे आपसे दो-तीन बातें और कहनी हैं। यह जो ऑब्सेनिटी की बात करते हैं, समय बदला है तो हमें समय के अनुसार बदलना पड़ेगा। जैसे इस देश में लगभग सिक्‍स्टी परसेंट से प्लस यूथ हैं। यूथ हैं तो उनके पांव थिरकेंगे और संसद में बैठ कर हम कभी यह न सोचें कि हम नौजवानों को उनके पांव थिरकने से रोकेंगे, लेकिन इससे बड़ा एक और विषय है कि यह देश क्‍या सोचता है।
मैं आपको एक उदाहरण देना चाहता हूं कि 1995-96 के दशक में हिंदी फिल्मों में डबल मीनिंग वाले गानों को लिखने का एक चलन हो गया था। वे गाने इतने फूहड़ हैं कि मैं उनको सदन के पटल पर रखने की हिम्मत नहीं कर सकता हूं। अच्छे-अच्छे गीतकार इंदीवर सरीखे गीतकार भी खटिया सरका रहे थे, ऐसे गाने लिख रहे थे। उसी समय जावेद अख्तर साहब ने 1942 ए लव स्टोरी में एक गाना लिखा, एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा, जैसे खिलता गुलाब। It was the height of romantic creativity. वह गाना देश में लोकप्रिय हो गया। यह इतना लोकप्रिय हुआ कि पूरे देश में लोग इसे गुनगुना रहे थे। मैं अपने मित्रों से कहूंगा कि यही हिंदुस्तान है। इस हिंदुस्तान के सही मर्म को समझना ज़रूरी है। मैं आजकल देखता हूं कि नये प्रोग्राम आते हैं, नये टीवी आते हैं, नया चैनल आता है तो कहते हैं कि आप हमारे यहां रामायण देखिए, दूसरा चैनल कहता है आप हमारे यहां कृष्ण देखिए, उनकी टीआरपी बढ़ती है। विज्ञापन भी मिलता है। एक चैनल अपने यहां मीराबाई को दिखाने की कोशिश कर रहा है, लोग देख रहे हैं। इतनी बड़ी संख्या में spiritual चैनल्स आये हैं, उनकी रेटिंग कितनी बढ़ी है। आज रामदेव बाबा योग दिखाते हैं, उनकी रेटिंग कितनी बढ़ी है। लेकिन होता क्‍या है कि टेलीविजन की पूरी डिबेट has gone haywire. आप कभी सार्थक चर्चा भी कीजिए, तो आप मीडिया के राइट को कंट्रोल कर रहे हैं, आप फ्रीडम ऑफ प्रैस को कंट्रोल कर रहे हैं। मेरे ख़याल से यह दृष्टिकोण ठीक नहीं है। मैं बहुत विनम्रता से अपने मीडिया के लोगों से कहना चाहूंगा कि हम उनके पूरे अधिकारों का सम्मान करते हैं, लेकिन जब हम संसद में बैठते हैं तो हमारी जवाबदेही देश के प्रति बनती है। हो सकता है कि आज मेरी कई टिप्पणियां तीखी लगी होंगी, हो सकता है कि शाम को कई चैनल्स पर मेरा चेहरा दिखाया जाएगा, लेकिन शायद मेरी जवाबदेही देश के प्रति भी बनती है और अगर हमारे मीडिया के मित्र, एंटरटेनमेंट के मित्र उस जवाबदेही को समझेंगे तो मैंने चिंतन के लिए जो बात

बलात्कारियों का बलात्कार क्यों ना हो . चलो बेशर्मी की हद पार की जाये


-अतिका अहमद फारुकी


मैं सुबह उठती हूं तो अमूमन अच्छी बातें सुनना और देखना पसंद करती हूं . खुदा को याद करने के बाद मैं हमेशा टीवी खोल देती हूं क्योंकि ऑफिस पहुंचने के बाद टीवी जर्नलिस्ट होने के बावजूद टीवी देखना नसीब नहीं हो पाता. एक बड़ा चैनल दृश्य दिखा रहा था. एक औरत के जिसको पटना की सड़कों पर खुलेआम इधर उधर से छुआ जा रहा था औऱ कई सारे लड़के उसे हर तरफ से घेर कर बेइज्जत कर रहे थे और कपड़े खींच रहे थे . मैंने देखा कि दूर खड़े लोग हंस रहे थे औऱ नामर्दों की तरह तमाशा देख रहे थे . देख कर आखे फंटी रह गई औऱ कुछ सेकंड में ही आंसूं फूंटने लगे . हैरत हुई ये देखकर कि अहम मर चुका है , खून ठंडा हो चुका है औऱ बुजदिली छा गई है . ऐसा लगा जैसे किसी ने जोर से मेरे मुंह पर तमाचा मारकर मेरी औकात बताई हो क्योंकि मैं भी एक लड़की हूं . देख कर बहुत तकलीफ हुई और चिंता हुई कि जब तक हमारी औलादें होंगी औऱ बड़ी होंगी तब तक कहीं इससे भी बदतर हालात ना हो जायें .

मुंबई में कई साल रहने के बाद जब मैं दिल्ली ट्रांसफर हुई तो काफी परेशान रहती थी, ना तो ड्राइवर , ना सड़क पर चलने वाला आम आदमी, ना थाने के बाहर बैठा सिपाही औरतों की इजज्त करता था . मैं समझती हूं कि यहां की लड़कियां घूरती आखों की आदि हो गई है. शाम हो जाये तो सड़क पर चलते हुये हाथ अपने आपसे इस तरह चिपक जाते हैं जैसे अपनी हिफाजत करना चाह रही हों पर मालूम हो कि कहीं ना कहीं से कोई ना कोई हाथ लगा ही जायेगा . ये बेबसी मुझे अच्छी नहीं लगती. खौफ से मुझे सख्त नफरत है. औरत की ऐसी बेइज्जती क्यों वो भी दुर्गा के देश में.

मैं अगर पत्रकार नहीं होती तो आइएएस में होती या पुलिस में होती . या फिर 1947 से पहले पैदा हुई होती तो हर हालत में क्रांतिकारी होती और अंग्रेजों की 2 – 3 गोलियां खा चुकी होती, पर समझ में नहीं आता कि साल 2009 में कैसे क्रांति लाउं . किसी भी समाज की सभ्यता का अंदाजा इस बात से लगाया जाता है कि वो अपनी औरतों से कैसा बरताव करता है . पटना जैसा शहर पुरानी संस्कृतियों में से एक है, और मेरा ससुराल भी है . मेरे पति सय्यद फैसल अली एक मशहूर वॉर जर्नलिस्ट हैं . जान की बाजी लगा कर अपनी गाड़ी में ईराक वॉर के दौरान मिड्ल ईस्ट के कई देश घूम चुके है. लेकिन मानते हैं कि औरते दुनिया के किसी भी कोने में सुरक्षित नहीं रह गई हैं. एक दिन मैंने नॉयडा की सड़कों का हाल बताया तो परेशान होकर कहने लगे कि तुम्हे एक लायसेंसी पिस्तौल खरीद दूं .. मैं हंसने लगी औऱ बोला अरे नहीं . पटना मे कहीं जाते वक्त एक पिस्तौलधारी सिपाही साथ होता है पर दिल्ली में क्यों ... कुछ घंटों तक इसी बात पर सोचने के बाद समझ में आया कि वो सही कह रहे थे. औऱतें दुनिया के किसी भी कोने में सुरक्षित नहीं. क्या करूं. किस किस को गोली मारूं, कैसे क्रांति लाउं.

आजकल रेप की खबर ऐसी आम हो गई है जैसे बढ़ती कीमतें. पहले बलत्कार औऱ रेप लफ्ज ही अजीब लगता था पर अब बेशर्मी से हरदम बोला जाता है . सोचिये जिस औऱत का बलात्कार होता होगा उसके आत्मसम्मान की क्या हालत होती होगी. क्या हमारे समाज में मर्दों की कमी हो गई है, जो सरे आम सिर्फ तमाशबीन ही दिख रहे हैं. ऐ खुदा अब ऐसे मर्द ईजाद कर जिनके सिर्फ नाम में ही नहीं , सोच में भी मर्दानगी हो औऱ वो रिएक्ट करने की जगह ऐक्ट करने की भी कैफियत रखते हों. वक्त के हाथों मुड़ना ही नहीं वक्त को मोड़ना भी जानते हों.

इन दृश्यों को मैंने उस दिन कई बार देखा और बार बार तकलीफ होती रही. अब से बाहर साल पहले लिखी वो कविता याद आ गई जो मैने एक फिल्म में ऐसा ही एक द्रश्य देखकर स्कूल में लिखी थी.

उस खुदा ने जहां बनाया
अरमानों से उसे सजाया
फिर नीचें इंसा को लाया
देख उन्हें फिर वो मुस्काया

आदम हउआ थे कहलाते
मर्द और औरत जाने जाते
खुले आसमां में थे गाते
हमें खुदा ने एख बनाया

दिन बीते औऱ गया वो कहना
हम तुम इक दूजे का गहना
औऱत को पर्दे में रहना
घर का मालिक मर्द कहलाया


ख्वाहिशे आसूं में बहतीं
फिर भी औऱत कुछ ना कहती
जंजीरों में कैद थी रहती
उन्हें पर अपना सरता़ज बताया

सदियां बींती वही नजारा
कोने में औरत का गुजारा
कायम है पर आदम का नारा
खुदा जंमीं का हमें बनाया

औरत बोली मुझे रोको मत
आगे बढ़ना है टोको मत
जहन्नुम में मुझे झोंको मत
सदियों तुमने मुझे रुलाया


मर्द बोला इतराती क्यों हो
हमसे कदम मिलाती क्यों हो़
हो ज़र्रा , ये भूल जाती क्यों हो
और फिर अपना जोर जताया

कब तक ये जंग जारी रहेगी
कब तक औऱत बेचारी रहेगी
आदंम से कब तक हारी रहेगी
औरत ने है ये सवाल उठाया

(लेखिका हिंदी न्यूज़ चैनल न्यूज़24 / E 24 में सीनियर क्रिएटिव प्रोड्यूसर और एंकर हैं और नई दिल्ली में रहती हैं)

फायदे में है जी न्यूज

खेल टीआरपी का


सप्ताह 29वां, 12 से 18 जुलाई 09 तक : इस हफ्ते कोई खास उतार-चढ़ाव नहीं है। सबसे ज्यादा जी न्यूज को फायदा हुआ है। उसने 1.3 अंक जोड़े हैं। पिछले हफ्ते इतने ही अंक कम हुए थे। मतलब, टैम वालों ने इस हफ्ते जी न्यूज का हिसाब बराबर कर दिया। टाप थ्री में इंडिया टीवी और स्टार न्यूज गिरे हैं तो आज तक ने मामूली बढ़त हासिल की है। समय ने न्यूज24 से अपना फासला और बढ़ा लिया है। समय को 0.7 का फायदा हुआ है तो न्यूज24 को 0.7 का नुकसान। तेज अब न्यूज24 के बराबर हो चला है।
इस हफ्ते की रेटिंग इस प्रकार है--
आज तक- 17.5 (चढ़ा 0.2), इंडिया टीवी- 15.7 (गिरा 0.6), स्टार न्यूज- 14.9 (गिरा 0.7), जी न्यूज- 10.9 (चढ़ा 1.3), एनडीटीवी इंडिया- 9.4 (गिरा 0.2), आईबीएन7- 8.5 (यथावत), समय- 5.9 (चढ़ा 0.7), न्यूज24 - 4.2 (गिरा 0.7), तेज- 4.2 (चढ़ा 0.3), डीडी न्यूज- 3.6 (चढ़ा 0.2), लाइव इंडिया- 1.9 (गिरा 0.4), इंडिया न्यूज- 1.6 (चढ़ा 0.21), सीएनईबी- 1 (गिरा 0.2), पी7न्यूज- 0.5 (यथावत), जन संदेश- 0.3 (यथावत)

स्रोत : टैम, समयावधि : सप्ताह 29वां, 12 से 18 जुलाई 09 तक,
मार्केट- एचएसएम, टीजी- सीएस-15+

हरिंदर बवेजा के केसीके अवार्ड


पत्रकारिता के क्षेत्र में टीम भावना और उत्कृष्ट कार्य को बढ़ावा देने के लिए पत्रिका समूह का प्रतिष्ठित कर्पूरचन्द्र कुलिश (केसीके) इंटरनेशनल अवार्ड फोर एक्सीलेंस इन प्रिंट जर्नलिज्म इस बार वरिष्ठ पत्रकार हरिन्दर बवेजा और उनकी टीम को प्रदान किया जाएगा। "पत्रिका" के संस्थापक कर्पूरचन्द्र कुलिश की स्मृति में पिछले वर्ष शुरू किए गए इस अवार्ड का द्वितीय पुरस्कार समारोह 31 जुलाई को नई दिल्ली के होटल ताज पैलेस में होगा। पुरस्कार के तहत 11 हजार अमरीकी डॉलर और ट्रॉफी प्रदान की जाएगी। समारोह में लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार मुख्य अतिथि होंगी, अध्यक्षता राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत करेंगे।
पिछले साल हिन्दुस्तान टाइम्स पाकिस्तान के समाचार पत्र डॉन के साथ इस पुरस्कार का संयुक्त विजेता बना। इसके अलावा पत्रिका समूह पिछले एक दशक से सामाजिक क्षेत्र से जुड़े श्रेष्ठ विज्ञापनों के लिए देश का बहुप्रतिष्ठित कन्सन्र्ड कम्युनिकेटर पुरस्कार भी प्रदान कर रहा है। यह अवार्ड राशि भी अब 11000 अमरीकी डॉलर है। इस बार केसीके पुरस्कार की थीम "आतंक एवं समाज" रखी गई। इसके लिए 1 जनवरी से 31 दिसम्बर 2008 तक प्रकाशित खबरों को पुरस्कार चयन में शामिल किया गया। केसीके पुरस्कार के लिए "वेलकम टू द हेडक्वार्टर्स ऑफ लश्कर-ए-तोएबा" शीर्षक वाली न्यूज सीरिज को चुना गया है। ये खबरें तहलका मैग्जीन की वरिष्ठ पत्रकार हरिन्दर बवेजा एवं उनके सहयोगियों ने लिखी थीं। इनका प्रकाशन हिन्दुस्तान टाइम्स में दिसम्बर 2008 में हुआ। इस एक्सक्लूजिव सीरिज के जरिए पाकिस्तान में लश्कर-ए-तोएबा मुख्यालय की गतिविघियों एवं इसकी विचारधारा से वहां के लोगों के जुड़ाव तथा मुम्बई आतंककारी हमले के एकमात्र जीवित आरोपी कसाब के इस संगठन से सम्बंधो का खुलासा किया गया। किसी भारतीय पत्रकार को पहली बार लश्कर-ए-तोएबा मुख्यालय के भीतर जाने की अनुमति मिली थी। इस बार अमरीका, फ्रांस, सर्बिया, मॉरिशस, मिश्र, श्रीलंका, अफगानिस्तान और पाकिस्तान समेत दुनिया भर के मीडिया संस्थानों से 173 प्रविष्ठियां प्राप्त हुईं। इनमें देश के 48 समाचार पत्रों से 145 एवं अन्तरराष्ट्रीय मीडिया के 11 समाचार पत्रों से 28 प्रविष्ठियां आईं।
विजेता का चयन चार सदस्यीय चयन मण्डल की राय के आधार पर किया गया। चयन मण्डल में द हिन्दू के एडीटर इन चीफ एन. राम, आईआईएम इंदौर के निदेशक एन. रविचन्द्रन, प्रमुख समाजसेवी मेग्सेसे पुरस्कार विजेता अरूणा रॉय और पत्रिका समूह के प्रधान सम्पादक गुलाब कोठारी शामिल हैं। विजेता के अलावा दस श्रेष्ठ प्रविष्टियों को मेरिट पुरस्कार के लिए चुना गया है। इनमें हिन्दुस्तान टाइम्स, नई दिल्ली की रिपोर्ट "इण्डियाज पोरस बोर्डर्स", हिन्दुस्तान, लखनऊ की "इस आतंकवादी की खता क्या थी", अमर उजाला, वाराणासी की " अब शुरू हुआ ऑपरेशन आजमगढ़", दैनिक जागरण, नई दिल्ली की "आतंक का अर्थशास्त्र", न्यूयॉर्क टाइम्स, अमरीका की वायलेंस इन इण्डिया, इण्डियन एक्सप्रेस, चण्डीगढ़ की "मुम्बईज टेरर मेक्स मोहाली ब्लीड", द ट्रिब्यून, चण्डीगढ़ की " आजमगढ़: डिस्ट्रिक्ट इन डिस्कम्फर्ट", हिन्दुस्तान टाइम्स, नई दिल्ली/कोलकाता की "ही लव्ड हॉलीवुड कॉप वर्सेज बडीज मूवीज", द ट्रिब्यून की "लंच ऑवर्स, इवनिंग आर चूजन फॉर टेरर स्ट्राइक्स" और डेली मिरर, श्रीलंका की "वाट ब्रांचेज ग्रो इन दिस स्टोनी रबिश" खबरों को चुना गया है।
साभार : पत्रिका डाट

Saturday, July 25, 2009

प्रिंटिंग टेक्नालाजी पर 315 करोड़ रुपये निवेश कर रहा दैनिक भास्कर


देश के भीमकाय मीडिया हाउसों में से एक भास्कर समूह टेक्नालाजी के मामले में खुद को बड़े पैमाने पर अपग्रेड करने की योजना बना चुका है। खासकर प्रिंटिंग टेक्नालजी के मामले में वह भाषाई अखबारों में नंबर वन बनना चाहता है। इसके लिए पूरे 315 करोड़ रुपये खर्च किए जाएंगे। भास्कर ग्रुप के निदेशकों में से एक गिरीश अग्रवाल ने एक लिखित वक्तव्य जारी कर समूह की इस योजना का खुलासा किया है। सूत्रों का कहना है कि 315 करोड़ रुपये में से करीब दो तिहाई हिस्सा केबीए (Koenig & Bauer AG) प्रिंटिंग मशीनों की खरीद में व्यय होगा। हर घंटे अखबार की 85 हजार कापियां छापने वाली यह मशीन जर्मनी में निर्मित हैं। यह मशीन भास्कर समूह जयपुर में लगा चुका है और अब अहमदाबाद में लगाने की तैयारी है।
केबीए मशीनों की कीमत करीब 70 करोड़ रुपये है। इस मशीन की कई खासियत है। एक तो यह परंपरागत मशीनों से करीब 60 फीसदी ज्यादा रफ्तार से प्रिंटिंग करती है। नंबर दो- परंपरागत मशीनों की तुलना में करीब 80 फीसदी कम जगह में इसकी स्थापना हो जाती है। रद्दी निर्माण कार्य परंपरागत मशीनों की तुलना में 10 फीसदी कम करती है। और सबसे बड़ी बात कि बिजली व्यय में 58 फीसदी की बचत करती है। यह मशीन पैकिंग, फोल्डिंग व इनसर्ट करने के काम को भी बखूबी अंजाम देती है। इस काम को अभी तक बड़े-बड़े मीडिया हाउस मैनुवली कराते हैं लेकिन केबीए मशीनों में यह सुविधा आटोमेटेड है। केबीए मशीन करीब 64 पेज के टैबलायड अखबार को छापने की कूव्वत रखती है।
गिरीश अग्रवाल ने अपने वक्तव्य में कहा है कि भास्कर समूह हमेशा से इंफ्रास्ट्रक्चर और प्रौद्योगिकी में निवेश करने में यकीन रखता रहा है और यह भास्कर समूह के बिजनेस का अभिन्न अंग है। भास्कर समूह अपने पाठकों और विज्ञापनदाताओं को सर्वोत्तम देना चाहता है, इसीलिए उन्नत प्रौद्योगिकी को हमेशा वरीयता दी जाती है। ज्ञात हो कि भास्कर समूह के चीफ टेक्नालाजी आफिसर आरडी भटनागर हैं और उन्हीं की देखरेख में भास्कर समूह प्रिंटिंग टेक्नालजी को अपग्रेड कर रहा है। अपग्रेडेशन का काम अक्टूबर महीने तक पूरा होने के आसार हैं। सूत्रों का कहना है कि भास्कर समूह केबीए मशीनों के अलावा कई अन्य प्रतिष्ठित निर्माताओं की मशीनों को भी खरीद रहा है। इन मशीनों को भोपाल, ग्वालियर, उज्जैन, इंदौर, रायपुर आदि बड़े केंद्रों पर स्थापित किया जाएगा।

बंद न होगी पहल

-मुकेश कुमार

साहित्य और विचार-प्रेमियों के लिए एक खुशखबरी है। कुछ समय पहले स्थगित कर दी गयी सुप्रतिष्ठित पत्रिका पहल का प्रकाशन फिर से शुरू होने जा रहा है। लगभग पैंतीस साल तक पहल निकालने के बाद संपादक ज्ञानरंजन ने कुछ समय पहले इसे स्थगित कर दिया था। मगर अब ये पत्रिका फिर से शुरू हो रही है। अब यह पुस्तकाकार में प्रकाशित न होकर इंटरनेट पर उपलब्ध होगी। जल्दी ही इसे देशकाल.कॉम पर पढ़ा जा सकेगा।
आपको याद होगा कि कुछ समय पहले जब ज्ञानजी ने पहल के स्थगन की घोषणा की थी, तो साहित्य एवं बौद्धिक जगत में अच्छा-ख़ासा विवाद भी उठ खड़ा हुआ था। सवाल उठाये गये थे कि क्या किसी संपादक को इस तरह से पत्रिका बंद करने का अधिकार है या इस तरह से पहल जैसी पत्रिका को अचानक बंद करना पाठकों के साथ अन्याय नहीं है। इस बहाने और भी कई तरह से ज्ञानरंजनजी पर आरोप मढ़ने का सिलसिला शुरू हो गया था। जवाब में ज्ञानरंजन जी का इतना ही कहना था कि उनका स्वास्थ्य अब ऐसा नहीं रह गया है कि वे पहल को आगे बढ़ाने और उसे नया रूप देने के लिए ज़रूरी मशक्कत और चिंता कर सकें। ये सही भी था क्योंकि सब जानते हैं कि हाल में ही उनकी बाईपास सर्जरी हुई है।
पहल के चाहने वालों को भी पत्रिका का इस तरह अचानक बंद होना बेहद अखरा था। ये स्वाभाविक भी था क्योंकि पहल को पढ़ने वाले ही जानते हैं कि ये कितनी महत्वपूर्ण पत्रिका थी। 1973 में बहुत ही विषम परिस्थितियों में शुरू हुई इस पत्रिका ने पैंतीस वर्षों के लंबे अंतराल में बहुत ही स्तरीय और विविधतापूर्ण सामग्री अपने पाठकों को प्रदान की थी। ज्ञानजी बताते हैं कि पहल उस समय शुरू हुई थी, जब एक-एक करके पत्रिकाएं बंद हो रही थीं। लहर, ज्ञानोदय, बिंदु आदि बंद हो चुकी थीं और उन्हें भी यही सलाह दी जा रही थी कि वे पत्रिका शुरू करने की भूल कतई न करें। मगर उन्होंने ये काम ज़िदपूर्वक शुरू किया और लंबे अरसे तक अच्छे से निभाया भी। इस अभियान में उदयप्रकाश, नीलाभ, शंशांक जैसे बहुत से लोगों ने भरपूर साथ दिया।
जो लोग पहल को न जानते हों या कम जानते हों उन्हें बता दें कि पहल केवल कविता-कहानियों की पत्रिका नहीं थी, विचार-विमर्श और समाज विज्ञान उसका अभिन्न हिस्सा था। दूरगामी महत्व के तमाम सम-सामयिक मुद्दों मसलन, सांप्रदायिकता, भूमंडलीकरण, आर्थिक उदारवाद आदि पर उसने बहुत ही सारगर्भित सामग्री प्रकाशित की। इसके द्वारा निकाले गये इतिहास और मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र पर अंक तो संग्रहणीय रहे हैं।
साहित्य के क्षेत्र में तो पहल का योगदान बेहद उल्लेखनीय रहा है। पहल ही है, जिसने हिंदी के पाठकों का क्रांतिकारी कवि अवतार सिंह पाश से सबसे पहले परिचय करवाया। विश्व साहित्य के क्षेत्र में उसके जैसा काम शायद ही हिंदी की किसी पत्रिका ने किया होगा। पहल ने चीनी, अफ्रीकी, जर्मन और रूसी साहित्य का मूल भाषा से सीधा अनुवाद करवाकर विशेषांक प्रकाशित किये। उर्दू कलम के नाम से निकले विशेषांक में पाकिस्तान और बांग्लादेश के लेखकों को एक साथ प्रकाशित किया। कविता पर केंद्रित पहल के दो विशेष अंक भी प्रकाशित हुए थे।
अब खुशी की बात ये है कि पहल फिर से ज्ञानरंजनजी के संपादन में शुरू हो रही है। संपादक ज्ञानरंजन जानना चाहते हैं कि पहल के इस पुनर्प्रकाशन के बारे में क्या सोचते हैं। आप अपनी राय info@deshkaal.com पर दे सकते हैं।

संजय कटियार संपादक बने

सूचना है कि दैनिक हिंदुस्तान, मेरठ के डिप्टी रेजीडेंट एडिटर संजय कटियार को हिंदुस्तान समूह नई जिम्मेदारी देने जा रहा है। सूत्रों ने बताया कि उन्हें दैनिक हिंदुस्तान, मुजफ्फरपुर का स्थानीय संपादक बनाया गया है। वे महीने भर के भीतर मुजफ्फरपुर यूनिट का कार्यभार संभाल लेंगे। सूत्रों का कहना है कि हिंदुस्तान की मुजफ्फरपुर यूनिट के स्थानीय संपादक सुकांत नागार्जुन रिटायर होने जा रहे हैं, जिसके कारण यह पद रिक्त होगा। संजय कटियार इससे पहले हिंदुस्तान, कानपुर में एनई के रूप में कार्यरत थे। संजय का कानपुर से मेरठ तबादला लोकसभा चुनाव के चलते किया गया था।
इस बीच, दैनिक हिंदुस्तान, मेरठ के स्थानीय संपादक के रूप में दिनेश चंद्र मिश्र ने ज्वाइन कर लिया है। अभी तक मेरठ के स्थानीय संपादक के रूप में काम देख रहे राजीव मित्तल नए आरई को कार्यभार सौंप चुके हैं। राजीव के हिंदुस्तान की लखनऊ यूनिट में ज्वाइन करने के आसार हैं।

प्रभाष जोशी होने का मतलब


-संजय तिवारी

मिथक बन चुका वह पत्रकार अभी भी अथक दिखाई देता है. बंगाली किनारे वाली धोती पर मटके के माड़ीदार कुर्ते में गांधी शांति प्रतिष्ठान के पुरातन और सनातन व्यवस्था की अद्यतन मिसाल बन चुके इस स्रोतशाल में उस 73 साल के अदम्य उत्साही 'नौजवान' पत्रकार ने केक पर चाकू फेरा तो लगा कि उस नौजवान के मन में पैदाइश के 73 साल बाद आगे और 73 मील पत्थर पार करने की ललक शिशुवत हो चली है. वह केक काटनेवाले 'नौजवान' कोई और नहीं, भारतीय पत्रकारिता के एकमात्र जीवित स्तंभ पुरुष प्रभाष जोशी हैं.
बुधवार 15 जुलाई को उनका 73वां जन्मदिन था. यह आयोजन साल दर साल इसी तरह से इसी शांति प्रतिष्ठान के किसी कोने में होता है. कभी पूजा करनी हो तो बाहर बरामदे में व्यवस्था बन जाती है. खाने की व्यवस्था लान में हो जाती है और मिलना जुलना कहीं भी. तीन चार सालों से मैं भी लगातार जा रहा हूं. लोग आते हैं लेकिन मैंने कभी यह नहीं देखा कि कोई बधाई लेकर आया हो. प्रभाष जोशी के इस बेहद निजी कार्यक्रम में जो लोग भी आये हुए दिखते हैं वे सब कृतज्ञता ही जताते हैं. आखिर ऐसा क्या दिया है प्रभाष जोशी ने कि हर आगंतुक अपने आप को ऋणी महसूस करता है? ऐसे उल्लास और आनंद के दिन पर भी उनके सामने सिर्फ अपने होने का अहसास कराता है. इस व्यक्ति ने पिछले दौर में ऐसा क्या किया है कि इस दौर के धुरंधर और नामी पत्रकार ऋण उतारते से प्रतीत होते हैं?

पिछले दौर की तो देखी नहीं, जो सुनी उसमें किस्से कहानियां अधिक हैं. भारत किस्सागोई का देश है. और अगर पत्रकार हो तो फिर कहने ही क्या. पत्रकार किस्सों की किताब लिखता रहता है सुबह से शाम. आईएनएस से प्रेस क्लब और नोएडा के अट्टों चौहट्टों तक. जब मिलो एक नया किस्सा. आम आदमी को लगता है कि पत्रकार है तो जो बोलेगा वह सही बोलेगा लेकिन ऐसा हमेशा नहीं होता. कम से कम जब वह अपने लोगों के बारे में बात करता है तो शायद ही कभी सही और सटीक बात करे. इसे आप पत्रकारिता की त्रासदी भी मान सकते हैं कि पत्रकार भी किस्सागोई करता है, पर यही सच है. भारतीय पत्रकारिता के लिए प्रभाष जोशी भले ही न मिटनेवाली नाम पट्टी हो लेकिन हिन्दी पत्रकारों के िलए यह नाम किस्सागोई का दूसरा नाम है. न जाने कितनी कहानियां और न जाने कितने प्रसंग. अब तो पाठक भी पत्रकार को लेखनी से कम उनकी मिथकीय चर्चांओं से अधिक जानते हैं. किसी जमाने में एक अखबार निकला था जनसत्ता. वह आज भी निकल रहा है. उस जमाने में प्रभाष जोशी नामक एक आदमी ने इतिहास लिख दिया था. दिल्ली से बाहर पूरे देश में कालेज के हास्टल से लेकर गांव की पगडंडियों तक अखबार का दूसरा नाम जनसत्ता ही होता था. जैसे आजकल मुंबई के नौजवान अंग्रेजी का मिड-डे अखबार सिर्फ इसलिए खरीदते हैं ताकि वे अपने संगी साथियों के बीच साबित कर सकें कि वे मिड-डे पढ़ते हैं वैसे ही पिछले दौर में जनसत्ता ने अपना मुकाम हासिल किया था. ऐसा वक्त भी आया कि अखबार को लिखना पड़ा कि अब और नहीं छाप सकते.
अखबार की इस बुलंदी के पीछे बस यही एक नर्बदा का सपूत खड़ा था जिसने साहित्यकारों को बिना किनारे किये पत्रकारिता को स्थापित कर दिया. अस्सी और नब्बे के दशक ऐसे दशक थे जब हिन्दी पत्रकारिता का अर्थ ही होता था-साहित्यिक शुद्धि. आश्चर्य होता है कि पत्रकारिता के इतने लंबे अनुभव के बाद भी भारतीय पत्रकारिता में साहित्य के बिना पत्रकारिता की कल्पना नहीं की गयी थी. लेकिन प्रभाष जोशी ने कांकर पाथर का ऐसा प्रयोग किया कि नामवर सिंह उनके अजीज और अग्रज बने रहे लेकिन पत्रकारीय भाषा से लालित्य बोध का आग्रह समाप्त हो गया. जब जनसत्ता निकला तो तकनीकि का ऐसा व्यापक प्रभाव नहीं था जैसा आज है. इसलिए शब्द ब्रह्म और नाद की कोटि में विराजते थे. उन शब्दों को खड़खड़ करते किसी सांचे में उतारकर पान की दुकान और साहित्यकार के भवन में एक साथ स्थापित कर देने का काम प्रभाष जोशी ने ही किया. इन बातों का ज्यादा अर्थ तब समझ में नहीं आता जब आप सिर्फ सूचनाओं के लेन-देन में ही व्यस्त रहते हैं. लेकिन जैसे ही आपको यह आभास होता है कि सूचना सीधे तौर पर संवेदनाओं से जुड़ी हुई है तो भाषा का आग्रह पूर्वाग्रह होने लगता है. इन दो पाटों के बीच पत्रकारिता को सही सलामत अपनी मंजिल तक पहुंचा देना तब चुनौती थी, अब भी है बस संदर्भ और शब्द बदल गये हैं.

ऐसे प्रभाष जोशी के पिछले कई सारे जन्मदिन चुपचाप ही देखता रहा हूं. किस्से भी सुनता रहा हूं और कई अवसरों पर मिलता भी रहा हूं. अभी भी मेरा उनके साथ कोई प्रगाढ़ संबंध हो गया हो ऐसा नहीं है. प्रगाढ़ता की जरूरत भी नहीं है. प्रभाष जोशी ने भारतीय पत्रकारिता में हिन्दी को जनसत्ता के जरिए जो विश्वसनीयता दिलाई उसका कुछ तो फायदा हम जैसे नौसिखिए पत्रकारों को भी मिल रहा है. इतना ऋण तो कोई भी पत्रकार उनका मानेगा ही कि कहीं किसी प्रबाष जोशी नामक आदमी ने एक अखबार के जरिए कुछ प्रयोग किये जो आनेवाली कई पीढ़ीयों के लिए मशाल रूप में विद्यमान रही. भाषा के सामने जैसी चुनौती आगे दिखाई देती है उसमें प्रभाष जोशी का यह काम और भी महत्वपूर्ण हो जाता है. हमारी संपर्क भाषा का विस्तार किस ओर हो? नीचे जड़ की ओर या फिर ऊपर आसमान की ओर? हमारी संपर्क भाषा को पोषण हमारी लोकभाषाओं और बोलियों से मिले या फिर तकनीकि के प्रभाव में अचानक ही अबूझ शब्दों की बमबारी से शब्द उठाये जाएं? यह तय करना पत्रकारिता के लिए बहुत जरूरी होगा. क्योंकि इसी को तय करने के बाद हम तय कर पायेंगे कि हमें काम क्या करना है? पत्रकारिता करनी है तो किसकी, कैसे और किस रूप में? विदेशी शब्द हमारी जड़ों को वह आवाज नहीं दे सकते जो मुद्दा बन जाएं. जड़ों में दबे हुए शब्द जो पोषण दे रहे हैं हम न जाने क्यों उससे जानबूझकर कटना चाहते हैं. जवाब आपको भी तलाशना है.
ऐसे प्रबाष जोशी की किस्सागोईयों में जाने की जरूरत नहीं है. मिथकों की किंवदंतियां बनती ही हैं. उनके साथ भी ऐसा ही है. स्याह सफेद के अलौकिक आवरण में ब्रह्माण्ड लिपटा हुआ है. फिर यहां तो हम सब लौकिक जीवन जी रहे हैं. क्षण भर की चेतना लेकर आये हैं और अगले क्षण विदा हो जाएंगे. ब्रह्माण्ड के अनंत आकाशगंगाओं में जुगनुओं की कोई बिसात होती है क्या? पल में प्रकाश और पल में अंधेरा. लेकिन मनुष्य देह में यह पल प्रतिपल का खेल ब्रह्माण्ड की इस अद्भुद रचना धरती का इतिहास लिखती है. कलम की स्याही और शब्दों की साधना आनेवाले कल के अखबार और सूचना तंत्र को हमसे जोड़ती है. वेद कितेब तो रोज दरवाजे पर चलकर नहीं आते लेकिन अखबार आते हैं. उन अखबारों में वही शब्द लिखे होते हैं जिन्होंने बेद कितेब को कालजयी जीवनसूत्र का मार्गदर्शक बना दिया है. जब कोई अनहद को सुनता है तो वही शब्द वहां भी नाद रूप में प्रकट होते हैं. तब समझ में आता है कि कल के अखबार और परसों की पत्रिका में जिन शब्दों को सूचना प्रसारण के लिए इस्तेमाल किया गया है वह भी ध्वनियां उत्पन्न करेंगे. प्रभाव पैदा करेंगे और मनुष्य के मन में ही नहीं वातावरण में भी तरंगे उठायेंगे. उन तरंगो का समाज और जीवन पर प्रभाव होगा जिसके लिए आखिरकार शब्द ही जिम्मेदार होंगे. सूचना लेने देने के कठोर और नीरस कार्य में प्रभाष जोशी ने अनहद का जो प्रभाव पैदा किया है। यह कहना तो काल के नियम के खिलाफ होगा कि अगले तिहत्तर साल बाद भी प्रभाष जोशी रहेंगे ही. लेकिन तिहत्तर साल बाद भी बहुत कुछ रहेगा. दिल्ली की ये सड़कें रहेगीं, ईंट पत्थरों के ये भवन रहेंगे, अखबार रहेंगे और अखाबारों में काम करनेवाले पत्रकार भी रहेंगे. शायद उनमें से कोई कभी यह किस्सागोई छेड़ दे कि एक प्रभाष जोशी थे..........हिन्दी के पत्रकार.........तब शायद किस्सागोई भी पत्रकारिता का पाठ बन जाएगा. इस जुगनू का आकाशगंगाओं के बीच बस यही इतना योगदान है. क्या यह कम है।

(लेखक विस्फोट डाट काम के संपादक हैं।)

Friday, July 24, 2009

आइए सीखते हैं भाषा

भाषा सीखना एक निरंतर प्रक्रिया है। सब चाहते हैं वे बेहतर के जानकार बनें। बेहतर बोलें और लोकप्रिय हों। नीचे हैं बेहतर भाषा की खूबियां,अगर आपने इसे पूरा पढ़ा, तो ये आपके लिए ताउम्र एक ऐसी सौगात बनी रहेगी, जिसे आप दूसरों को देते समय खुशी महसूस करेंगे और फिर भी ये आपके पास ही रहेगी.




टेलीविजन हिंदी की ख़ूबियां –

वह ऐसी भाषा है जो आम लोगों की समझ में आती है, यानी आसान है. संस्कृतनिष्ठ या किताबी नहीं है.

•दूसरी बात, वह अपने कथ्य के साथ पूरा न्याय करती है. मतलब आप जो कहना चाहें, उसी बात को शब्द व्यक्त करते हैं.

•वाक्य छोटे होते हैं, सरल होते हैं.

•और सबसे बड़ी विशेषता यह है कि टेलीविजन की हिंदी भारत की गंगाजमुनी संस्कृति का प्रतीक है. आज भी हमारी हिंदी में हिंदी-उर्दू के शब्द गले में बाहें डाले साथ-साथ चलते हैं और ज़रुरत पड़ने पर अँगरेज़ी के शब्दों से भी हाथ मिला लेते हैं.



टेलीविजन की भाषा प्रकाशन और प्रसारण की भाषा में अंतर है. भारी भरकम लंबे शब्दों से हम बचते हैं, (जैसे, प्रकाशनार्थ, द्वंद्वात्मक, गवेषणात्मक, आनुषांगिक, अन्योन्याश्रित, प्रत्युत्पन्नमति, जाज्वल्यमान आदि. ऐसे शब्दों से भी बचने की कोशिश करते हैं जो सिर्फ़ हिंदी की पुरानी किताबों में ही मिलते हैं – जैसे अध्यवसायी, यथोचित, कतिपय, पुरातन, अधुनातन, पाणिग्रहण आदि.


एक बात और. बहुत से शब्दों या संस्थाओं के नामों के लघु रूप प्रचलित हो जाते हैं जैसे यू. एन., डब्लयू. एच. ओ. वग़ैरह. लेकिन हम ये भी याद रखते हैं कि हमारे प्रसारण को शायद कुछ लोग पहली बार सुन रहे हों और वे दुनिया की राजनीति के बारे में ज़्यादा नहीं जानते हों.


इसलिए, यह आवश्यक हो जाता है कि संक्षिप्त रूप के साथ उनके पूरे नाम का इस्तेमाल किया जाए. जहाँ संस्थाओं के नामों के हिंदी रूप प्रचलित हैं, वहाँ उन्हीं का प्रयोग करते हैं (संयुक्त राष्ट्र, विश्व स्वास्थ्य संगठन) लेकिन कुछ संगठनों के मूल अँग्रेज़ी रूप ही प्रचलित हैं जैसे एमनेस्टी इंटरनेशनल, ह्यूमन राइट्स वाच.


संगठनों-संस्थाओं के अलावा, नित्य नए समझौतों-संधियों के नाम भी आए दिन हमारी रिपोर्टों में शामिल होते रहते हैं. ऐसे नाम हैं- सीटीबीटी और आइएईए वग़ैरह. भले ही यह संक्षिप्त रूप प्रचलित हो चुके हैं मगर सुनने वाले की सहूलियत के लिए हम सीटीबीटी कहने के साथ-साथ यह भी स्पष्ट करते चलते हैं कि इसका संबंध परमाणु परीक्षण पर प्रतिबंध से है. या कहते हैं आइएईए यानी संयुक्त राष्ट्र की परमाणु ऊर्जा एजेंसी.


कई बार जल्दबाज़ी में या नए तरीक़े से न सोच पाने के कारण घिसे पिटे शब्दों, मुहावरों या वाक्यों का सहारा लेना आसान मालूम पड़ता है. लेकिन इससे भाषा बोझिल और बासी हो जाती है. ज्ञातव्य है, ध्यातव्य है, मद्देनज़र, उल्लेखनीय है या ग़ौरतलब है – ऐसे सभी प्रयोग बौद्धिक भाषा लिखे जाने की ग़लतफ़हमी तो पैदा कर सकते हैं पर ये ग़ैरज़रूरी हैं.



एक और शब्द है द्वारा. इसे रेडियो और अख़बार दोनों में धड़ल्ले से प्रयोग किया जाता है लेकिन ये भी भाषाई आलस्य का नमूना है. क्या आम बातचीत में कभी आप कहते हैं कि ये काम मेरे द्वारा किया गया है? या सरकार द्वारा नई नौकरियाँ देने की घोषणा की गई है? अगर द्वारा शब्द हटा दिया जाए तो बात सीधे सीधे समझ में आती है और कहने में भी आसान हैः (ये काम मैंने किया. या सरकार ने नई नौकरियाँ देने की घोषणा की है.)



टीवी की अच्छी स्क्रिप्ट के लिए दो बातें ज़रूरी हैं--आपके पास कहने के लिए कुछ होना चाहिए, दूसरे उसे बिल्कुल आसान भाषा में कहा जाए.


टीवी की भाषा मंज़िल नहीं, मंज़िल तक पहुँचने का रास्ता है. मंज़िल है- अपनी बात दूसरों तक पहुँचाना. इसलिए, सही मायने में भाषा ऐसी होनी चाहिए जो बातचीत की भाषा हो, आपसी संवाद की भाषा हो. उसमें गर्माहट हो जैसी दो दोस्तों के बीच होती है. यानी, टीवी की भाषा को क्लासरुम की भाषा बनने से बचाना बेहद ज़रुरी है.


याद रखने की बात यह भी है कि टीवी न अख़बार है न पत्रिका जिन्हें आप बार बार पढ़ सकें. और न ही दूसरी तरफ़ बैठा श्रोता आपका प्रसारण रिकॉर्ड करके सुनता है.


आप जो भी कहेंगे, एक ही बार कहेंगे. इसलिए जो कहें वह साफ-साफ समझ में आना चाहिए. इसलिए लिखते समय यह ध्यान में रखना ज़रूरी है कि वाक्य छोटे-छोटे हों, सीधे हों. जटिल वाक्यों से बचें.



साथ ही इस बात का ध्यान रखिए कि भाषा आसान ज़रूर हो लेकिन ग़लत न हो.



टीवी के श्रोता आम हिंदी पाठकों से इस मायने में थोड़े अलग हैं कि वे हमेशा विशुद्ध साहित्यिक रुचि रखने वाले पाठक नहीं हैं. वे टीवी देखते हैं तो उसके कई अलग-अलग कारण होते हैं.



•वे विदेशों में बसे हैं और अपनी पहचान नहीं खोना चाहते इसलिए अपनी भाषा से जुड़े रहना चाहते हैं.

•हिंदी पहली भाषा है और वे अंग्रेज़ी के मुक़ाबले हिंदी को सरल और सहज मानते हैं और समझते हैं.

•वे अंग्रेज़ी के चैनल देखते हैं और अक्सर हिंदी से उसकी तुलना करते हैं.



ये दर्शक चाहे जो भी हों लेकिन एक बात तय है कि वे भारी-भरकम शब्दों के प्रयोग या मुश्किल भाषा से उकता जाते हैं और जल्दी ही रिमोट का बटन दबा देते हैं।


उन्हें बाँधे रखने के लिए ज़रूरी है कि ख़बर का कलेवर आकर्षक हो, अपनी तरफ खींचने वाले विजुअल्स हों, छोटे-छोटे वाक्य हों, छोटे वीओ हों और भाषा वह हो जो उनकी बोलचाल की भाषा से मेल खाती हो.



टीवी की भाषा साहित्यिक भाषा से इस मायने में अलग है कि उसको सहज और सरल बनाने के लिए ज़रूरत पड़े तो अँग्रेज़ी के प्रचलित शब्दों का भी इस्तेमाल करना पड़ सकता है. जैसे कोर्ट, शॉर्टलिस्ट, अवॉर्ड, प्रोजेक्ट, सीबीआई, असेंबली आदि.


कोशिश रहती है कि उसी रिपोर्ट में कहीं न कहीं इनके हिंदी पर्यायवाची शब्द भी शामिल हों लेकिन लगातार न्यायालय, पुरस्कार, परियोजना, केंद्रीय जाँच ब्यूरो लिखना पाठक को क्लिष्टता का आभास दिला सकता है.


इसी तरह उर्दू के शब्द भी जहाँ-तहाँ इस्तेमाल हो ही जाते हैं. इनाम, अदालत, मुलाक़ात, सबक़, सिफ़ारिश, मंज़ूरी, हमला आदि ऐसे ही कुछ शब्द हैं. ख़बर के लिए कैसी भाषा का इस्तेमाल हो इसके लिए बस यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि पढ़ने वाले को डिक्शनरी खोलने की ज़रूरत न पड़े और पढ़ते समय उसे ऐसा महसूस हो जैसे यह उसकी अपनी, रोज़मर्रा इस्तेमाल होने वाली भाषा है.



कम से कम अपने देश में टीवी न्यूज़ चैनल अख़बारों और पत्रिकाओं के मुकाबले एक नया और इंटरएक्टिव माध्यम है. यानी ये दोतरफ़ा संवाद का माध्यम भी बन सकता है।

दर्शकों को बाँधने के लिए ज़रूरी है कि भाषा ऐसी हो जो उन्हें अपनी लगे. वाक्य छोटे और आसान हों. शीर्षक यानी हेडलाइंस के कैच वर्ड आकर्षक हों और ख़बर का इशारा करते हों। अँगरेज़ी के आम शब्दों की छौंक से अगर बात और सहज होती हो तो कोई हर्ज नहीं.




भाषा और निष्पक्षता

ख़बर की निष्पक्षता को बनाए रखने के लिए सही शब्दों का चुनाव बेहद ज़रुरी है. मिसाल के तौर पर, आतंकवाद शब्द का इस्तेमाल हम वहीं करते हैं जहाँ वह किसी के कथन का हिस्सा हो.



जैसे, अमराकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने कहा है कि वे अल क़ायदा के आतंकवाद का मुँहतोड़ जवाब देंगे. अथवा वहाँ आतंकवाद शब्द का इस्तेमाल करने में कोई समस्या नहीं जहाँ बिना किसी व्यक्ति या संगठन की ओर उँगली उठाए उसका प्रयोग हो. जैसे- भारत सरकार आतंकवाद से निपटने में विफल रही है.

इसी तरह, जिहादी, शहीद, महान नेता, पूजनीय जैसे शब्दों का इस्तेमाल भी बहुत सोचसमझ कर किया जाना चाहिए.

एक और बात का ध्यान रखना ज़रूरी है, जब तक किसी का अपराध साबित नहीं होता, वह संदिग्ध भले हो, मगर दोषी नहीं होता. इसलिए किसी ऐसी घटना का ब्यौरा देते समय कथित (alleged) शब्द का बहुत महत्व है.

नाम से पहले श्री या श्रीमती के प्रयोग से भी बचने की ज़रुरत है इसलिए कि अगर आप एक व्यक्ति के नाम के साथ श्री या श्रीमती लगाएँ और दूसरे व्यक्ति के नाम के साथ लगाना भूल जाएँ तो इसे पक्षपात समझा जा सकता है. बेहतर है कि हर व्यक्ति के पदनाम का इस्तेमाल करें. जैसे—भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह.. या उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती..... विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी...


पत्रकार राष्ट्रीयता, सरहद, पक्ष-विपक्ष और विवादों से अलग हटकर जनता को सच बताने के कर्तव्य का पालन करता है. इसलिए, इस बात का ध्यान रखना बेहद ज़रूरी है कि हम अपनी पहचान को पत्रकारिता के धर्म से अलग रखें. समाचार देते समय हमारा देश, हमारी सेना, हमारे नेता जैसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए।


शब्दों का प्रयोग

टेलीविजन की हिंदी, अँग्रेज़ी के शब्दों से हाथ मिलाने में परहेज़ नहीं करती. पर सवाल यह उठता है कि किस हद तक. हिंदी में अँग्रेज़ी हो या अँग्रेज़ी में हिंदी.



यहाँ दो बातें समझने की हैं. पहली, इसमें कोई संदेह नहीं कि आधुनिक हिंदी में अँग्रेज़ी के बहुत से शब्द इस तरह घुल मिल गए हैं कि पराए नहीं लगते. जैसे स्कूल, बस और बस स्टॉप, ट्रक, कार्ड, टिकट. इस तरह के शब्दों को हिंदी से बाहर निकालने का तो कोई मतलब ही नहीं है. दूसरी ये कि बेवजह अँग्रेज़ी के शब्द ठूँसने का भी कोई अर्थ नहीं.


हिंदी एक समृद्ध भाषा है. अपनी विकास यात्रा में हिंदी ने अँग्रेज़ी ही नहीं, बहुत सी और भाषाओं के शब्दों को अपनाया है जैसे- उर्दू, अरबी, फारसी. यानी अभिव्यक्ति के लिए हिंदी भाषा में कई-कई विकल्प मौजूद हैं. फिर बिना ज़रूरत के अँग्रेज़ी की बैसाखी क्यों लें. (जैसे रंगों के लिए हिंदी में अपने अनगिनत शब्द हैं फिर इस तरह के वाक्य क्यों लिखे जाएँ कि ‘कार का एक्सीडेंट पिंक बिल्डिंग के पास हुआ’.)


तकनीकी और नए शब्द

कुछ साल पहले तक हमने लैपटॉप, इंटरनेट, वेबसाइट, सर्चइंजन, मोबाइल फ़ोन या सेलफ़ोन का नाम भी नहीं सुना था. अब वे ज़िंदगी का हिस्सा हैं. और जो चीज़ हमारी ज़िंदगी में शामिल हो जाती है, वह भाषा का हिस्सा भी बन जाती है. बहुत कोशिशें हुईं कि इनके हिंदी अनुवाद बनाए जाएँ लेकिन कोई ख़ास सफलता हाथ नहीं लगी, इसलिए ऐसे तमाम शब्द अब हिंदी का हिस्सा बन चुके हैं.



इसलिए हम सर्वमान्य और प्रचलित तकनीकी शब्दों का अनुवाद नहीं करते. हाँ, अगर हिंदी भाषा में ऐसे शब्दों के अनुवाद प्रचलित हो चुके हैं तो बिना खटके उनका इस्तेमाल करते हैं- जैसे परमाणु, ऊर्जा, संसद, विधानसभा आदि.



(बोलचाल की भाषा के नाम पर कुछ ऐसे भी प्रयोग प्रसारण में होने लगे हैं जो अशिक्षा नहीं तो भाषा के प्रति लापरवाही बरतने की निशानी ज़रूर हैं. ‘सोनू निगम ने अपना करियर दिल्ली में शुरू करा’, ‘पुलिस से पंगा न लेने की चेतावनी’ जैसे प्रयोग भाषा की धज्जियाँ तो उड़ाते ही हैं, इन्हें बरतने वाले के बारे में भी कोई अच्छी राय नहीं बनाते.)






उच्चारण

मीडिया का काम भले ही भाषा सिखाने का नहीं, मगर मीडिया के लोग, करोड़ों लोगों के लिए रोल मॉडल होते हैं.

साफ़ उच्चारण के लिए ज़ोर-ज़ोर से बोलकर अभ्यास करना बहुत काम आता है. तभी अक्षर और उनकी ध्वनि साफ़ सुनाई पड़ती है. यहाँ जल्दबाज़ी से काम बिगड़ जाता है.



बहुत सारे लोग युद्ध को युद, सुप्रभात को सूप्रभात, ख़ुफ़िया को खूफिया, प्रतिक्रिया को पर्तिकिरया कहते हैं जो कानों को बहुत खटकता है.


इसी तरह, शब्द हिंदी मूल का हो या उर्दू का, अगर आप बेवजह नुक़्ता लगाएँगे तो अनर्थ हो जाएगा जैसे फाटक, बेगम, जारी, जबरन, जंग, जुर्रत, जिस्म, फिर, फल आदि में नुक़्ता नहीं लगता.


मीडिया में रोज़मर्रा इस्तेमाल होने वाले कुछ शब्द ऐसे भी हैं जो नुक़्ते के बिना कानों को बहुत बुरे लगते हैं जैसे- ख़बर, सुर्ख़ी, ज़रुरत, ज़रा, अख़बार, ग़लत, ग़म, ज़बरदस्ती.


अच्छे से अच्छा आलेख, ग़लत उच्चारण या ख़राब उच्चारण की वजह से बर्बाद हो सकता है. और कभी कभी तो अर्थ का अनर्थ भी हो सकता है. टेलीविजन न तो अख़बार है, न ही पत्रिका. इसलिए, न सिर्फ़ यह ज़रूरी है कि इसकी भाषा स्पष्ट और सरल हो, बल्कि यह भी ज़रूरी है कि हर शब्द सही तरह से बोला जाए. शब्द किसी भी भाषा का हो, अगर आपका उच्चारण सही नहीं होगा तो सुनने वाले को बिल्कुल मज़ा नहीं आएगा.



अगर उर्दू के शब्दों का प्रयोग करें तो पहले यह जान लें कि उनमें नुक़्ता लगता है या नहीं. कुछ अति उत्साही लोग शायद यह समझते हैं कि किसी भी शब्द में नुक़्ता लगा देने भर से, वह उर्दू का शब्द बन जाता है. ज़रा सोचिए जलील शब्द को बोलते समय अगर ज के नीचे नुक़्ता लग गया तो वह बन जाएगा ज़लील. अर्थ का अनर्थ हो जाएगा.


हर व्यक्ति को अपनी भाषा अपनी क्षमता के अनुसार गढ़नी चाहिए. यानी अगर आप ख़बर शब्द साफ़ नहीं बोल सकते तो समाचार कहें, युद्ध शब्द का सही उच्चारण करना मुश्किल लगता है तो लड़ाई कह सकते हैं. प्रक्षेपास्त्र कहना कोई ज़रुरी नहीं. मिसाइल शब्द अब आम हो गया है. बात तो यह है कि हर व्यक्ति की भाषा का अपना अलग रंग होता है. और होना भी चाहिए.

प्रणव के शो में अर्नब गोस्वामी का नाम


नेता भी इंसान होते हैं और मानवीय गलतियां उनसे भी हो जाया करती हैं। पर रविशंकर प्रसाद से इस तरह की चूक की अपेक्षा नहीं थी। वो भी प्रणय राय को लेकर। उन्होंने प्रणय राय को अर्नब गोस्वामी बोल दिया। एनडीटीवी के कल रात 9 बजे के प्राइम टाइम शो 'इंडिया डिसाइड्स' को प्रणय राय होस्ट कर रहे थे। भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता रवि शंकर प्रसाद इसमें अतिथि के बतौर शामिल हुए। अमेरिका, परमाणु समझौता और भारत को लेकर किए गए एक सवाल का रविशंकर प्रसाद ने जवाब देने के लिए मुंह खोला तो कह बैठे- ''Let me tell you, Arnab Goswami..' इतना सुनते ही प्रणय राय ने तुरंत टोका और रविशंकर को दुरुस्त करने की कोशिश की- 'Arnab Goswami?'
पर रविशंकर प्रसाद रुके नहीं। भूल-चूक माफ कराने की बजाय आगे बढ़ते चले गए। बोलते गए और अपनी बात पूरी करके ही माने। एनडीटीवी का मंच और अर्नब गोस्वामी का नाम! एक ऐसे शख्स का नाम जिसने एनडीटीवी को नाको चने चबवा रखा है, टाइम्स नाऊ के जरिए, और जबर्दस्त प्रतिद्वंद्वी बनकर उभरा चुका है। यह तो उल्टी गंगा बह रही थी। एनडीटीवी के मंच का इस्तेमाल अर्नब के लिए। देश में टीवी इंडस्ट्री को इस्टैबलिश करने वाले दिग्गज प्रणय राय को उनके सामने, उन्हीं के चैनल में बच्चे की तरह सीखकर प्रतिद्वंद्वी चैनल में हेड बनकर जाने वाले अर्नब गोस्वामी का नाम लेकर संबोधित किया जाए, यह कोई कैसे गवारा कर सकता था। प्रणय राय के चेहरे पर कई तरह के भाव आए-गए। प्रणय राय इस चूक को यूं ही छोड़ देने के मूड में नहीं थे। भूल सुधार जरूरी था। जब रविशंकर प्रसाद बोलना बंद कर चुके थे तो प्रणय राय ने उन्हें अंग्रेजी में जो समझाया उसका हिंदी में भाव कुछ यूं रहा- हे भइया, मेरा जो बायोडाटा है उसमें मेरा नाम अर्नब गोस्वामी नहीं, प्रणय राय लिखा हुआ है।
रविशंकर प्रसाद ने तुरंत गल्ती मानी। माफी मांग ली। शांत और समझदार प्रणय राय ने हो चुकी गलती को नियंत्रित कर उसे सामान्य बनाने के लिए बोले- कोई बात नहीं, आप मुझे अर्नब गोस्वामी ही कह कर बुलाइए। अर्नब भी एनडीटीवी परिवार का हिस्सा है। वह हम लोगों के बीच का है। वह यहीं से पला-बढ़ा है।
मामला तो खत्म हो गया लेकिन लोग रविशंकर प्रसाद के बारे में सोचने लगे कि आखिर उनसे यह ब्लंडर हुआ कैसे? जानकार लोग बताते हैं कि रविशंकर प्रसाद टाइम्स नाऊ, आईबीएन और एनडीटीवी के प्राइम टाइम शो के लगभग परमानेंट व पसंदीदा गेस्ट हैं। इन चैनलों के प्राइम टाइम कार्यक्रमों के फेस अर्नब गोस्वामी, प्रणय राय और राजदीप सरदेसाई होते हैं। यहां यह उल्लेखनीय है कि प्रणय राय के ही एनडीटीवी से अर्नब गोस्वामी और राजदीप सरदेसाई प्रतिष्ठित होने के बाद नए-नए चैनलों के हेड बनकर विदा हुए। रविशंकर प्रसाद जिस चैनल के शो में होते हैं तो वहां पूछे जाने वाले सवालों के जवाब उस एंकर का नाम लेकर देते हैं। अब जब रोज-रोज उन्हें दर्जनों बार प्रणय राय, अर्नब गोस्वामी और राजदीप सरदेसाई बोलना हो तो कभी न कभी कनफ्यूजन तो पैदा हो ही सकता है। संभव है उन्हें एक क्षण को अवचेतन में लगा हो कि वे टाइम्स नाऊ के रात नौ बजे के प्राइम टाइम शो 'न्यूज आवर' में गेस्ट हैं और उनके अवचेतन मन ने उनसे अर्नब गोस्वामी का नाम बुलवा दिया हो।
दरअसल, कई बार रविशंकर प्रसाद व अन्य नेता अपने घर से ही एक-एक कर सभी चैनलों पर अवतरित होते हैं और सभी के कार्यक्रम में अपनी पार्टी का पक्ष रखते हैं। इसके लिए चैनलों की ओबी (आउटडोर ब्राडकास्टिंग) वैन नेताओं के घर के बाहर खड़ी रहती हैं। नेताओं को एक चैनल से दूसरे चैनल पर अवतरित होने में केवल क्षण भर का समय मिलता है। एक चैनल ने बाइट लेना बंद नहीं किया कि दूसरे चैनल की आईडी मुंह के सामने होती है। ऐसे में किसी का भी कनफ्यूज हो जाना स्वाभाविक है कि वो इस वक्त किस चैनल से बात कर रहा है। जो भी हो, यह नितांत मानवीय चूक है लेकिन इस चूक ने टीवी इंडस्ट्री के पितामह माने जाने वाले प्रणय राय के दिल को कितना दुखाया होगा, यह तो सिर्फ प्रणय राय जानते होंगे पर प्रणय राय ने बिना धीरज खोए जो बड़प्पन भरा व्यवहार पेश किया, वह भी बेमिसाल है।
( भड़ास4 मीडिया डाट काम से साभार)

हड़ताल पर भगवान


- अंकुर विजयवर्गीय

शीर्षक पढ़कर कहीं आप सोच में तो नहीं पड़ गए। अगर अभी तक नहीं सोच रहे हैं तो फिर सोचना शुरू कर दीजिये। क्यूंकि अगर अभी भी आपने नहीं सोचा तो आपके साथ भी वो हो सकता है जो मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और उत्तरप्रदेश के मरीजों के साथ हो रहा है। निशचित ही मरीज तो आप भी कभी न कभी रहें होंगे और आगे भी कभी रह सकते हैं। खैर भगवान न करे कि आप कभी मरीजों की श्रेणी में आयें क्योंकि अगर आप इस कैटेगरी में आ गए तो आप भी कहेंगे कि वाकई भगवान हड़ताल पर हैं।
मेरी इतनी लंबी बकवास के बाद तो आप शायद समझ गए होंगे कि मैं क्या कहना चाह रहा हूं। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ और उत्तरप्रदेश के जूनियर डॉक्टर पिछले कई दिनों से हड़ताल पर हैं। मरीजों के लिए भगवान का दूसरा रूप कहे जाने वाले डॉक्टर भी हड़ताल पर हो तो बेचारे मरीजों का क्या होगा। डॉक्टरों का कहना है कि उनकी मांगें उनके साथ-साथ मरीजों के हित में भी हैं। अब जरा मध्यप्रदेश में इन डॉक्टरों की मांगों पर भी थोड़ा गौर कर लीजिये। फीस में पचास प्रतिशत की कमी, प्रदेश के मेडिकल कॉलेजों की गैरमान्यता प्राप्त 74 सीटों को मान्यता देने की मांग और मेडिकल छात्रों को अस्पताल में ड्यूटी के दौरान इंशयोरेंस। इसके साथ एक खास मांग और भी सुनिये। स्टायपेंड बढ़ाने की मांग। फिलहाल मध्यप्रदेश में इंटर्न के दौरान 3000, पीजी प्रथम वर्ष को 16000, द्वितीय वर्ष को 16500 और तृतीय वर्ष को 17000 रूपये स्टायपेंड दिया जा रहा है। अब ये डॉक्टर इंटर्न को 8000 और पीजी के छात्रों को क्रमश: 28000, 29000 और 30000 स्टायपेंड दिये जाने की मांग कर रहे हैं। मरीजों की जान की परवाह किये बिना अपने पैसे बढ़ाने पर ज्यादा ध्यान देने वाले डॉक्टरों को आखिर क्यूं भगवान माना जाए। अपने केबिन में भगवान की फोटो लगाना और खुद को भगवान मानने में थोड़ा फर्क है। एक खास बात और। जिन मरीजों के हितों की बात ये डॉक्टर कर रहे हैं उनसे जरा ये पूछा जाये कि सरकारी अस्पतालों में इलाज कराने वाले कितने लोगों को 17000 रूपये स्टायपेंड मिलता है। लेकिन ये डॉक्टर है कि भगवान और धनवान में अंतर ही नहीं समझते।
हडताल के संबंध में एक खास बात और भी है। थोड़े समय पहले सर्वोच्च न्यायालय ने एक प्रकरण में स्थायी निर्देश दिए थे कि देश का कोई भी डॉक्टर अनुचित आधारों पर हड़ताल पर नहीं जायेगा। यदि डॉक्टर्स अपनी अनुचित मांगों को लेकर हड़ताल पर जाते हैं तो ये न केवल सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की अवमानना होगी, बल्कि शासन केनियमों का भी उल्लंघन होगा। इस बार डॉक्टरों की हडताल पर राज्य शासन भी निर्णयक स्थिति लाना चाहता है। शासन ने आवष्यक सेवा अधिनियम लागू करते हुए हड़ताल को गैर-कानूनी और सेवा को आवष्यक घोषित करते हुए राज्यभर में 1176 जूनियर डॉक्टरों को सेवा से निष्कासित कर दिया है। जिस तरह से कानून व्यवस्था कि स्थिति काबू से बाहर हो जाने पर सेना को बुलाया जाता है, उसी तर्ज पर सरकार सेना से डॉक्टर बुलाने पर विचार कर रही है। शासन ने स्वास्थ्य विभाग में कार्यरत अन्य डॉक्टरों को प्रदेश के पांचों मेडिकल कॉलेजों में व्यवस्था संभालने को कहा है। लेकिन इनकी संख्या ऊंट के मुंह में जीरे के समान है। एक हजार से ज्यादा जूनियर डॉक्टरों की जगह क्या मात्र 130 डॉक्टर व्यवस्था संभाल सकते है। और अगर ऐसा होता हैं तो मेरी नजर में उन सभी डॉक्टरों को वीरता पुरस्कार से सम्मानित किया जाना चाहिए।
ऐसा नहीं है कि मध्यप्रदेश में निजी अस्पताल नहीं है। लेकिन इन अस्पतालों में मरीजों का इलाज भारी खर्चे पर किया जाता है जो आम आदमी खासकर गरीब वर्ग के बूते से बाहर है। ऐसे लोग शासकीय अस्पतालों पर ही निर्भर रहते हैं। इसके अलावा निजी अस्पतालों में इतनी जांचें कराई जाती हैं जिनकी जरूरत ही नहीं होती। निजी अस्पतालों में जांच ज्यादा और इलाज कम होता है। जूनियर डॉक्टरों की इस हड़ताल के संबंध में ही सही लेकिन सरकार को निजी अस्पतालों के इस ‘‘जांच प्रेम‘‘ पर कार्यवाही करनी चाहिए।


लेकिन हड़ताल के एक पहलू को समझने के बाद हमें इसके दूसरे पक्ष पर भी गौर करना होगा। यह सच है कि डाक्टरों का पेशा लोगों की जिंदगी तथा उनकी सेहत की देखभाल से जुड़ा हुआ है इसलिए उनसे यह अपेक्षा की जाती है कि वे अपने दायित्वों की गंभीरता को देखते हुए हड़ताल जैसे कदम नहीं उठाएंगे। यह बात सैद्धांतिक रूप से बिल्कुल सही है लेकिन हमें इस सिलसिले में इसके व्यवहारिक पक्ष पर गौर अवश्य करना चाहिए। हमें इन डाक्टरों की सेवाओं के साथ ही उनके वेतन तथा सुविधाओं पर भी विचार करके हड़ताल के औचित्य को लेकर कोई फैसले पर पहुंचना चाहिए। सच तो यह है कि जूनियर डाक्टरों के डयूटी के घंटे और उनकी थका देने वाली सेवाएं किसी भी व्यक्ति को आश्चर्यचकित कर देने के लिए काफी हैं। कई बार तो उन्हें 36- 36 घंटे तक लगातार काम करना पड़ता हैजो किसी भी पेशे से अधिक कष्ट साध्य होता है। चिकित्सा के इस पेशे में जो इज्जत मिलनी चाहिए, वह भी आजकल लुप्त हो रही है जिसके लिए हर छोटी बड़ी चूक या अनहोनी घटनाओं पर होने वाली मीडिया ट्रायल भी काफी हद तक जिम्मेदार है। कोई भी डाक्टर अपने मरीजों को बचाने अथवा स्वस्थ करने के अपनी ओर से भरसक प्रयास करता है लेकिन अंतिम सत्य यही है कि किसी की भी जिंदगी और मौत अंतत: ईश्र्वर के हाथ में ही होती है। मीडिया में इसे जिस तरह से सिर्फ लापरवाही करार देकर डाक्टरों की निष्ठा पर सवालिया निशान लगाने का फैशन चल पड़ा है उससे लोगों में भी डाक्टरों के प्रति भरोसा घटा है। इसका परिणाम यही होता है कि डाक्टर अपनी डयूटी निभाने के बावजूद जब तब कटघरे में खड़े नजर आते हैं। मानव सेवा के अपने फर्ज को निभाने के बावजूद उन पर सरकारी कार्रवाई की तलवार लटकती रहती है। सरकार का संवेदनहीन रवैया उनकी इस पीड़ा को दुगुना कर देता है। मध्यप्रदेश में भाजपा के कार्यकाल में जितने डाक्टरों को निलंबित किया गया है, वह अपने आप में एक रिकार्ड ही होगा। अपनी तमाम तकलीफों के बाद भी जूनियर डाक्टर जो वेतन पाते हैं, वह इस पेशे के लिए अपमानजनक ही माना जा सकता है। जूनियर डाक्टरों की हड़ताल इन तमाम हालात के प्रति उनके आक्रोश की परिचायक है। सरकार को इनसे मानवीय तरीके से निपटना चाहिए और उनकी मांगों पर सहानुभूतिपूर्ण रुख अपनाकर इस मामले का हल निकालना चाहिए। निष्कासन जैसी कार्रवाई को वापस लेकर राज्य सरकार को बातचीत का रास्ता अपनाना चाहिए ताकि डाक्टरों को न्याय मिल सके और सरकारी अस्पतालों में चिकित्सा व्यवस्था पूर्ववत कायम हो सके। सरकार के हठ और सख्त रुख से समस्या बिगड़ेगी ही, हल कतई नहीं होगी।
प्रारंभ से यह कार्रवाई गैर-लोकतांत्रिक भी है। भारत का संविधान देश के सभी नागरिकों को अधिकार देता है कि वे सरकार तक अपनी आवाज पहुंचाने के लिए अहिंसक आंदोलन का सहारा ले सकते हैं।यह सही है कि जूडा को अपनी मांगों की तुलना में अपने फर्ज को ज्यादा महत्व देना चाहिए। इसे सही नहीं ठहराया जा सकता कि अस्पतालों में मरीज इलाज के अभाव में तड़पते रहें और हड़ताली डॉक्टर इतने असंवेदनशील हो जायें कि मरीजों की करूण पुकार उन्हें द्रवित ही न कर सके। फिर भी इसका मतलब यह नहीं है कि जूनियर डॉक्टरों से अपनी आवाज सरकार तक पहुंचाने का संवैधानिक हक ही छीन लिया जाए। हड़ताल करना जूड़ा की गलती है, तो गलती सरकार की भी है कि हड़ताल पर जाने से पहले वह जूडा की समस्याओं का समाधान कर पाने में असफल रही। जूडा के खिलाफ कार्रवई शुरू हो जाने के बावजूद दोनों पक्षों को चाहिए कि वे बातचीत का दरवाजा पुनः खोलें। मीडिया को इस संबंध में चाहिए कि वह सिर्फ एक पक्ष की बात न करें। अपनी खबरों के उत्पादन के साथ आवशयक है कि मरीजों, डॉक्टरों और सरकार तीनों की बात सुनकर कोई खबर लोगों तक पहुंचाए। मीडिया की खबर ही लोगों का फैसला होती है, इसलिए मुद्दों पर सावधानी आवशयक है। यही सत्यता है और मीडिया की विशवसनीयता भी।

(अंकुर, जनसंचार विभाग के पूर्व छात्र तथा न्यूज चैनल जी 24 घंटे छत्तीसगढ़ के संवाददाता हैं)

ankurvijaivargiya@gmail.com, ankur.media01@gmail.com

Thursday, July 23, 2009

सच का सामना या पतन की पराकाष्टा


- अन्शुतोष शर्मा


भारत में टीवी का चलन काफी पुराना है। पहले केवल एक ही चैनल हुआ करता था दूरदर्शन, किंतु आज ना जाने कितने चैनल बाज़ार में आ गए हैं और अपनी साख के लिए दिन रात वो खबरें दे रहे हैं,जो समाज को भ्रमित कर रही है इन दिनों टीवी चैनलों में टीआरपी बढ़ाने के लिए जिस तरह से आपाधापी हो रही है, वह पहले कभी नहीं थी। इसके चलते ये टीवी चैनल इस तरह के फूहड़ और अश्लील कार्यक्रम परोस रहे हैं जिनका न कोई सिर होता है न पैर। बस अगर होता है तो दर्शकों को उत्तेजित या खौफजदा करना ताकि वे आधा घंटा, एक घंटा या चौबीस घंटा उनकी उस बेहूदगी को झेलते और अपना सिर धुनते रहें। कोई भूत-प्रेत का सहारा ले रहा है, तो कोई साक्षात् शंकर जी को ही परदे पर ले आता है जो कहते हैं किसी भक्त के सपने में आये होते हैं। वह भक्त उनका वीडियो भी बना लेता है। यानी चैनल की इस कपोल कल्पना पर यकीन करें तो कलियुग में कितने सुलभ और सस्ते हो गये हैं भगवान। हर चैनल कोई भी खबर देते समय यह दावा करता है कि ये उसकी ख़बर है,ऐसे में दूसरा पीछे नहीं रहता। यकीन मानिए चैनल घुमा कर देखिए वह खबर दूसरे कई चैनलों में भी दिखेगी और वह भी यही कह रहे होंगे कि खबर हमने ब्रेक की, आप हमारे ही चैनल पर इसे पहली बार खास तौर पर देख रहे हैं। अब आप किस पर यकीन करेंगे कि किस चैनल का दावा सही है। आजकल टीआरपी बढ़ाने के नाम पर न जाने कैसे कैसे शो दिखायें जा रहे कभी किसी को साँप के बीच लेटाया जा रहा है तो कही पर विवाह जैसे पवित्र रिश्तों का मज़ाक बना रखा है।

हाल ही में स्टार प्लस पर श्रीमान बसु ने सच का सामना नया शो चालू किया है जिस का फॉर्मेट कुछ इस तरह का है कि इस में अगर कोई महिला या पुरुष सच-सच साफ-साफ खुलेआम बयान कर सके तो एक करोड़ रुपये उसके हो जायेंगे। यह कार्यक्रम कुछ ऐसा है कि प्रतियोगी से सारे प्रश्न पहले अलग से पूछ लिये जाते हैं। ऐसा करते वक्त पोलीग्राफी टेस्ट के जरिये उसका झूठ पकड़ा जाता है। कई बार उसके दिमाग में कुछ और चल रहा होता है और वह उसे खुलेआम कहने का साहस नहीं करता और झूठ बोल जाता है, लेकिन उसे पता नहीं होता कि पोलीग्राफी मशीन उसका झूठ पकड़ चुकी है। कई लोगो ने इस शो को पसंद किया है पर इस शो का क्या मतलब है,क्या ये शो कोई नया विचार लाया है या सिर्फ़ किसी के जीवन का हर वो हिस्सा जो वो नही बताना चाहता पर बता रहा हैराज्यसभा में को इस शो को बंद करने कि मांग भी उठाई गई है।

इस शो के कारण कई प्रसिद्ध लोंगो के घर में तो बवाल ही मच गया है। किसी की निजता उसके अपने नितांत निजी व्यक्तित्व के साथ शाब्दिक बलात्कार और उसके जीवन में विष घोलने की चेष्टा है। इस शो में कई ऐसे लोंगो को शामिल किया है जो अपनी अलग पहचान बनाये हुए हैं और इस शो में आने के बाद ना तो खुद से नज़र मिला पा रहे और न ही समाज में आ पा रहे हैं। होट सीट पर एंकर ने तो इस शो में शामिल होने से मना ही कर किया है।

इस शो में आई हुई एक महिला से पूछा गया सवाल किसी भी भारतीय नारी के लिए बहुत ही मुश्किल सवाल हो सकता है और उसका जवाब देने में उसे पसीने आ सकते हैं। मैं भारतीय नारी इसलिए कह रहा हूं क्योंकि यहां परिवार अब भी जिंदा हैं। पति-पत्नी के बीच का सामंजस्य भले ही क्षीज रहा हो पर मरा नहीं है। उसे प्रोत्साहित करने की कोशिश हो तो बेहतर, खत्म करने या मारने की चेष्ठा उचित नहीं। फिर से सच का सामना के मंच पर आते हैं। एंकर भद्र महिला से जिसका पति, मां और दूसरे संबंधी उसकी आंखं के सामने बैठे हैं पूछता है-`क्या आपने कभी अपने पति को कत्ल करने की बात सोची है।'इस प्रश्न से उस महिला के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगती है। उसका कलेजा मुंह को आने को होता है। वह एक बार पति की ओर देखती है, खुद को संभालती है और कहती है-हां। एंकर मशीन से पूछता है, मशीन का जवाब होता है -हां। कैमरे पति पर पैन होता है जिसकी आंखों में गुस्से के अंगारे होते हैं जैसे सोच रहा हो -घर चल बताता हूं कौन किसका कत्ल करता है। और कई सवाल तो ऐसे थे जो ना लिखू तो सही ही है।

ऐसा ही सवाल एक टीवी अदाकारा से पूछा गया जो उनकी निजी जीवन का वो अनछुआ हिस्सा है जो वो भूल गई थी इस तरह से न केवल उनका निजी हरण हो रहा है अपितु समाज में भी निंदा हो रही है और साथ ही साथ रिश्तों में भी दरार आ रही है मेरा सवाल है यह कैसा सच है जिसका सामना टीवी चैनल कराना चाहता है। महिला के सामने तो करोड़ रुपये के नोटों की हरियाली है जिसने उसके सारे संबंधों को गौण कर दिया है। पैसा जीतना है चाहे इसके लिए कुछ भी कहना पड़े। इसके बाद का सवाल तो टुच्चई और बेहूदगी की पराकाष्ठा था। एंकर पूछता है-`क्या कभी आपने अपने पति के अलावा और किसी मर्द के साथ सोने की इच्छा की है?' सच कहूं इस सवाल का जवाब मैं देखने की हिम्मत नहीं जुटा और इस सवाल का जो जवाब था वो ग़लत था यानि उस महिला किसी और के साथ सोना कि इच्छा है ये जवाब अपने पति के सामने देना मतलब तो समझे कुछ लोग कह सकते हैं कि इसमें बुरा क्या है, समाज खुल रहा, सब कुछ खुलना चाहिए।उनकी अवधारणा उन्हें मुबारक, वे अपनी तरह जीने को आजाद हैं लेकिन यह भारत उन तक ही सीमित नहीं है। कोई कार्यक्रम तैयार करते वक्त व्यापक जनसमूह का ध्यान रखना चाहिए।

माना कि हमारी नयी पीढ़ी पश्चिमी रंग-ढंग में रंग गयी है उसके लिए आज सेक्स टैबू नहीं है लेकिन भारत का समाज इतना भी नहीं खुला कि वह पश्चिमी देशों की तरह उन्मुक्त और उन्मत्त हो जाये। इसलिए चैनल के भाइयों और बहनों मैं तो यही कहंगा कि खुला खेल फरुर्खावादी मत दिखाइए-रहने दे अभी थोड़ा सा भरम। सच का सामना ही दिखाना है तो यह दिखाइए किसी ने किसी विकट परिस्थिति का मुकाबला कैसे किया या किसी ने किसी की जान कैसे बचायी। सच बोल कर किसी ने किसी मामले में बेगुनाह को कैसे बचाया। वह सच समाज के लिए कल्याणकारी होगा और वैसा पुनीत कार्य करने को औरों को प्रोत्साहित करेगा। जो फूहड़ कार्यक्रम आप दिखा रहे हैं वे तो किसी की निजता में सेंध लगायेंगे। संभव है वह करोड़पति बन जाये पर अपनी पारिवारिक जिंदगी तबाह कर बैठेगा। आपकी घर-घर के ड्राइंगरूम में पैठ है, आप हर भारतीय परिवार का हिस्सा बन गये हैं ऐसे में आपकी जिम्मेदारी भी बढ़ जाती है। वही दिखाइए जो सबजन हिताय, सर्वजन सुखाय हो। माना कि आपकी व्यावसायिका मजबूरी है लेकिन इसके चलते आप किसी समाज को दूषित करने के दोषी तो मत बनिए। और आप लोग भी ऐसे शो का जो आप कि निजी जीवन में तनाव लाये उसके विरूद आवाज़ बुलंद करे अब बारी है आपकी|



(अन्शुतोश ,जनसंचार विभाग के प्रथम सेमेस्टर के छात्र है)

anshutosh.sharma63@gmail.com

Wednesday, July 22, 2009

दिलीप पडगांवकर फिर टाइम्स के साथ


टाइम्स आफ इंडिया के पूर्व एक्जीक्यूटिव एडिटर रहे मशहूर पत्रकार दिलीप पडगांवकर के बारे में पता चला है कि उन्होंने फिर से टीओआई का दामन थाम लिया है। अबकी कनसल्टिंग एडिटर के रूप में नई पारी शुरू कर रहे हैं। कहा जा रहा है कि दिलीप हफ्ते में एक या दो दिन टीओआई के एडिट पेज को देंगे। एशिया पैसिफिक कम्युनिकेशंस एसोसिएट्स नामक कंपनी चलाने वाले दिलीप पडगांवकर टीओआई के साथ पहली बार 1968 में जुड़े थे। तब उन्होंने पेरिस में विदेश संवाददाता के रूप में काम किया। 1988 में उन्हें टीओआई का एडिटर बना दिया गया।
दिलीप पडगांवकर के बारे में मशहूर है कि वे टीओआई के संपादक को 'नेक्स्ट टू प्राइम मिनिस्टर' कहा करते थे। गौतम अधिकारी के जाने के बाद एडिटर के रूप में एडिट पेज देख रहे स्वागतो गांगुली अपने पद पर बने रहेंगे। इस पेज के लिए दिलीप पडगांवकर की भूमिका सलाहकार के रूप में रहेगी।

Monday, July 20, 2009

एस-1 न्यूज चैनल में कई पदों पर आवेदन आमंत्रित

कड़ी प्रतिस्पर्धा और ग्लोबल मंदी के बावजूद टीवी जर्नलिज्म के मानकों पर हर रोज खरा उतर रहे हिंदी न्यूज चैनल एस-1 के विस्तार के लिए जरूरत है योग्य-कर्मठ और समर्पित कर्मयोगियों की। इच्छुक अभ्यर्थी अपना बायोडाटा s1newsjobs@gmail.com पर भेज दें। एक अभ्यर्थी एक ही पद के लिए आवेदन करें। पद और योग्यताएं इस प्रकार हैं-


SECTION-‘A’
Input Head (One) working experience of 6 to 8 yrs in TV news channel. Strong leadership quality having good contacts with in political and social arena. familiar with octopus. Good personality and good communication skill.
Output Head (One) working experience of 6 to 8 yrs in TV news channel. Fast analytical mindset, familiar to octopus and editorial content; producer focus on the quality of what goes on air/ An OE has a lot of editorial responsibilities, of course in tandem with a couple of other key people on shift.
Programming Head (One) working experience of 6 to 8 yrs in Electronic media. Candidate should be entrepreneurial, creative, story oriented, and with discriminating taste. experience in having developed own character design & production designing for creating original concept and stories Manage and lead a Creative team & guide them towards creating original concepts & maintain a fine balance between creative, fiscal & current market trends. Think out of the box.Having knowledge of writing material for scripts, and links. Basic computer skills and proficiency in Hindi and English also. language.
Anchors (Five) Male/Female Graduate with diploma/degree in journalism and excellent communication skill in English and Hindi. Please send your application in hard copy only. Assistant Producers/ Copy Editor (Three) Graduate/Post graduate with minimum 3 years of experience in electronic media and with an analytical bent of mind and good writing skill. Experience and exposure to copy writing could be an added advantage Researcher (Two) Graduate/Post graduate with 2-5 year experience of research work and good knowledge of internet.


SECTION-‘B’
Human Resources Head (Two) with experience of 8 to 10yrs working in electronic media.
Human Resources executive (One) with experience of minimum Two yrs working in electronic media.
Marketing Head (One) with experience of minimum 8 to 10 yrs working of national marketing for the TV News or entertainment Channel. Having good Contacts with Coporates. DEALING WITH CABLE OPERATORS, INSTIITUTIONAL SALES, DISTRIBUTOR MANAGEMENTS, CO- ORDINATION WITH SALES TEAMS
Assistant Marketing (Two) with experience of minimum 5 to 8 yrs working of national marketing for the TV News Channel or entertainment Channel.
Marketing executive (Fifteen) Female/Male Hindi-English fluent Bi-lingual with experience of minimum 2 to 4 yrs working of marketing for the TV News Channel or entertainment or any TV Channel. MBA fresher can also apply.
Manager Account (One) Male/Female with experience of minimum 5 to 8 yrs working TV News Channel.
Accountant (Two) with experience of minimum 3 to 5 yrs working of national TV News Channel.
Manager PR (One) Female/Male must have a degree or diploma in PR and have a good experience and communication skill.
SECTION-‘C’
Technical Manager (One) having experience of 5 to 8 yrs in Broadcast Technology and IT.
RF Technician (One) Electronic Graduate with technical know-how of broadcast technology related to satellite transmission.
Audio-Video Technician (Two) Electronic Graduate with technical know-how and working exposure of day to day trouble shooting of audio-video equipment used in broadcast media.
SECTION-‘D’
Maintenance Manager (Two) with experience of minimum 3 to 5 yrs working of national TV News Channel or production house.
Guest coordinator/Hospitality service (One) Female/Male Graduate with 2-5 year experience of working in a TV channel or production house.
Assistant Guest coordinator/Hospitality service (Two) Female/Male Graduate with 2-5 year experience of working in a TV channel or production house.
SECTION-‘E’
Secretaries (Two) Female/Male for CM and CEO. Proficiency in English & Hindi language. Should have Good experience of secretarial job also. Experience in media will be preferred.
Receptionists (Two) female- pleasant look, good communication skill. Experience in media or corporate office will be preferred.
Make-up Artists (Two) female with good experience of out door/in door male/female make up and hair styling-dressing.
SECTION-‘F’
Manager Administration (Two) Male- with experience of minimum 5 to 8 yrs working TV News Channel. MBA preferred.
Transport coordinator (Two) Male Graduate with 2-5 year experience of working in a TV channel.
Store Keeper (One) Male Graduate with 2-5 year experience of working in a TV channel.
Drivers (Two) for OB Van, having good experience of driving and handling of OB Van.
Drivers (Three) for car and other LMV’s having good experience of driving and handling of car and other LMV’s.
Security Guards (Four) Ex–Army personals. With licensed Gun preferred.
Peon (Two) Smart, well behaved, hard working and obedient, not less then High school. Experience of working in media will be preferred.

जी न्यूज में कई बड़े बदलाव

जी न्यूज़ में बड़े स्तर पर कई बड़े बदलाव होने की सूचना मिली है. बदलाव के तहत जी न्यूज के डिप्टी एक्जीक्यूटिव प्रोडयूसर दीप उपाध्याय को आउटपुट हेड बना दिया है. अभी तक आउटपुट हेड के तौर पर विष्णु शंकर काम कर रहे थे. अब उन्हें एडिटर - रिसर्च बना दिया गया है. आउटपुट हेड बने दीप उपाध्याय जी न्यूज में कई सालों से हैं. जी न्यूज से ही उन्होंने करियर शुरू किया था । बीच में कुछ महीनों के लिए एनडीटीवी इंडिया चले गए थे.जी न्यूज के आउटपुट में डिप्टी एक्जीक्यूटिव प्रोडयूसर अतुल सिन्हा को यूपी चैनल में आउटपुट का जिम्मा सौंप दिया गया है । जी न्यूज के सीनियर स्पेशल कारेस्पांडेंट दिलीप तिवारी को नेशनल ब्यूरो का हेड बना दिया गया है । इससे पहले काफी दिनों तक मुकेश कुमार ने भी नेशनल ब्यूरो के इंचार्ज के तौर पर काम किया था । पिछले कुछ हफ्तों से दिलीप तिवारी ही काम काज संभाल रहे थे । दिलीप तिवारी भी काफी मंझे हुए रिपोर्टर हैं । कई सालों से जी न्यूज में है और राजनीति में उनकी जबरदस्त पकड़ है । उल्लेखनीय है कि दिलीप, माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विवि, भोपाल के छात्र भी रहे हैं।जी न्यूज के आउटपुट से यूपी चैनल में भेजे गए अतुल सिन्हा करीब एक साल से जी न्यूज में हैं , उससे पहले इंडिया टीवी में लंबे समय काम करने का उनका अनुभव है ।

बीच बहस में


शनिवार, 11 जुलाई 2009 को दिल्ली में पत्रकार उदयन शर्मा की पुण्‍यतिथि पर हुई पत्रकारीय महासभा में एक बहुत क़ायदे की एक बात उठायी आउटलुक हिंदी के संपादक नीलाभ मिश्र ने। उन्‍होंने कहा कि किसी भी उपभोक्‍ता सामग्री की गुणवत्ता के मानदंड होते हैं और कमी-बेशी होने पर उपभोक्‍ता को अपने अधिकारों को लेकर क़ानूनी लड़ाई का हक़ है। अगर तेल या दूध में मिलावट के खिलाफ़ वह दुकानदार या कंपनी के खिलाफ़ मुक़दमा कर सकता है और उनकी बैंड बजा सकता है, तो अख़बार या टीवी की ख़बरों से वह ठगा जाता है, तो कहां जाए? ख़बरों में मिलावट पाने पर उसके लिए क्‍या गुंजाइश है? क्‍यों नहीं यहां भी उपभोक्‍ता क़ानून होना चाहिए? पूरी सभा में एकमात्र नीलाभ जी की ही बात थी, जो बता रही थी कि बेमज़ा हो गयी पत्रकारिता को पटरी पर लाने का सॉल्‍यूशन एक ये हो सकता है। इस मुद्दे पर वेबसाइट http://mohallalive.com/ ने एक लंबी बहस छेड़ दी। इसमें हमारे विभागाध्यक्ष संजय द्विवेदी http://mohallalive.com/2009/07/19/saleem-radheshyam-sanjay-nkashif-views/ ने भी हस्तक्षेप किया। उन्होंने जो लिखा वह यह है-

मिलावट तो होगी ही
-संजय द्विवेदी

मीडिया में खबरों की मिलावट पर विमर्श तो ठीक है पर जिस तरह के समाधान बताए जा रहे हैं उससे सहमत नहीं हुआ जा सकता। मीडिया में मिलावट के बिना कौन सी खबर बन सकती है। आज तो ठीक है किंतु जिस आजादी के पहले की पत्रकारिता के नाम पर कीर्तन किया जा रहा है उसमें कौन सा स्वनामधन्य संपादक अपनी विचारधारा के बिना लेखन कर रहा था।
खबर की पवित्रता एक ऐसा स्वप्न है जो बेमानी है क्योंकि पत्रकार की विचारधारा और संवेदना भी तब मिलावट ही मान ली जाएगी। संवेदना और वैचारिकता की मिलावट को रोकने का उपाय क्या है, यह भी सोचना होगा। जो लोग साबुन, तेल की बात कह रहे हैं, या उन्हीं मिलावट रोकने के मानकों को लागू करने की बात कर रहे हैं उनकी बात समझ में नहीं आती। क्या हम लोग परचून की दुकान पर बैठे हुए लोग हैं, जो मसाले में घोड़े की लीद मिला रहे हैं। यह शब्दों की दुनिया है वह चाहे बोले जा रहे हैं या लिखे जा रहे हैं। शब्दों और वस्तुओं का फर्क हमें समझना होगा। हम शब्दों के साथ अंर्तक्रिया करते हैं फिर लिखते या बोलते हैं। इसमें संवेदना, विचारधारा और आपका परिवेश आएगा ही। किसी को स्लम पर हो रही कार्रवाई शहर का सौंदर्यीकरण लग सकती है तो किसी को आम आदमी पर जुल्म की इंतहा। ये उसके सोच के तरीके पर निर्भर करता है। खबरों को देखने का हमारा नजरिया ही हमें खास बनाता है। खबर कम्पयूटर का साफ्टवेयर नहीं है। जो आपकी मांग और सुविधा के लिए बनाया गया है। इसलिए किसी भी तरह का मानक खबरों की सच्चाई नापने का हो नहीं सकता। आत्मनियमन और आत्मअनुशासन ही इसके मार्ग हैं। पत्रकारिता में जिस तरह की पीढी आ रही है उसके सामने जिस तरह के मूल्य रखे जा रहे हैं उससे वे हतप्रभ हैं। सिर्फ आलोचना और अपने आपको हीन और कलंकित समझने की चर्चाएं कहां तक उचित हैं। चुनावों में जो कुछ हुआ उसमें पत्रकारों की मंशा या हिस्सेदारी कितनी है। यह सारा कुछ तो मैनेजमेंट के ईशारों पर हुआ। प्रबंधन खुद बाजार में जाकर अपनी बोली लगा रहा हो तो पत्रकार की कलम को कौन सा प्रतिबंध रोक सकता है। नौकरी करने की भी अपनी जरूरतें और मजबूरियां हैं। पहले मंदी के नाम पर प्रबंधन ने हकाला, प्रताड़ित किया और चुनाव में वसूली पर उतर आया इसमें पत्रकारों का दोष क्या है,वह तो सिर्फ प्रताड़ित ही हो रहा है हर तरफ से। प्रबंधन की गलत नीतियों के खिलाफ कौन खड़ा होगा। जो अखबार वेज बोर्ड के हिसाब से तनख्वाह भी नहीं दे रहे हैं वे भी सरकारी विज्ञापनों का एक बड़ा हिस्सा ले रहे हैं। हर बार कर्मचारी नुमा पत्रकार को निशाने पर रखा जाता है उसे निशाना बनाया जाता है। खबरों की मिलावट को रोकने का यंत्र अविष्कृत होने के बाद क्या पत्रकार अपना दिल दिमाग और विचारधारा सबकुछ छोड़कर आफिस आएंगें। इस तरह की बहस के मायने क्या हैं।
पत्रकारिता य़ा मीडिया की दुनिया हमें जितनी भी बेरहम बना दे इसमें आए ज्यादातर लोग एक आर्दशवादी सोच, एक अपनी ऐसी दुनिया बनाने के सपने से ही आते हैं जहां शब्दों की सत्ता होगी और लोगों को न्याय मिल पाएगा। बहुत कम लोग ऐसे होंगें जो लूटपाट करने के इरादे से यहां आते हैं। कुछ रास्ते में आदर्शों से तौबा कर लेते हैं, रास्ता बदल लेते हैं लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि रास्ता गलत है। एक ऐसी पीढ़ी भी मालिकों में आयी है जिनके लिए पैसा सबकुछ है पर कुछ अच्छे लोग भी हैं। उनका भी जिक्र कीजिए। अमर उजाला और प्रभात खबर ने इसी लूट के दौर में कहा कि वे चुनावी खबरों का पैसा नहीं लेंगें उनका भी जिक्र कीजिए। मिलावट कहां थी- चुनावी खबरें तो विज्ञापन थीं। विज्ञापन को लेकर क्या रोना। पाठक को भी सब समझ में आता है। वह इतना भोला नहीं है। राजनीति के भ्रष्टाचार में हिस्सेदारी की कामना गलत है पर इसे रोका नहीं जा सकता। वे कौन से दूध के धुले लोग हैं, जो जितना भ्रष्ट हो उसे उतना अधिक मीडिया को देना पड़ा। वे सामने क्यों नहीं आए। हिंदुस्तान के कानून में बहुत से प्रावधान हैं, आप मीडिया को कठघरे में खड़ा करें, किसने रोका है। भाजपा नेता लालजी टंडन ने उप्र के सबसे बड़े अखबार दैनिक जागरण को पैसा नहीं दिया सार्वजनिक आलोचना की पर लखनऊ से चुनाव जीते, ऐसे प्रतिवाद राजनीति भी कर सकती है। संकट यह है कि राजनीति और मीडिया दोनों एक ही गटर में हैं। सो किसी भी तरह का नियमन संभव नहीं है। कानून, सरकार या आयोग जैसी चीजें जो खतरा आज का है उससे बड़ा घोटाला करेंगी। सो मैं ऐसे किसी भी प्रतिबंध के खिलाफ हूं जो शब्दों की सत्ता को चुनौती देता नजर आए।
( लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं।