माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय ,भोपाल के जनसंचार विभाग के छात्रों द्वारा संचालित ब्लॉग ..ब्लाग पर व्यक्त विचार लेखकों के हैं। ब्लाग संचालकों की सहमति जरूरी नहीं। हम विचार स्वातंत्र्य का सम्मान करते हैं।
Wednesday, July 29, 2009
बलात्कारियों का बलात्कार क्यों ना हो . चलो बेशर्मी की हद पार की जाये
-अतिका अहमद फारुकी
मैं सुबह उठती हूं तो अमूमन अच्छी बातें सुनना और देखना पसंद करती हूं . खुदा को याद करने के बाद मैं हमेशा टीवी खोल देती हूं क्योंकि ऑफिस पहुंचने के बाद टीवी जर्नलिस्ट होने के बावजूद टीवी देखना नसीब नहीं हो पाता. एक बड़ा चैनल दृश्य दिखा रहा था. एक औरत के जिसको पटना की सड़कों पर खुलेआम इधर उधर से छुआ जा रहा था औऱ कई सारे लड़के उसे हर तरफ से घेर कर बेइज्जत कर रहे थे और कपड़े खींच रहे थे . मैंने देखा कि दूर खड़े लोग हंस रहे थे औऱ नामर्दों की तरह तमाशा देख रहे थे . देख कर आखे फंटी रह गई औऱ कुछ सेकंड में ही आंसूं फूंटने लगे . हैरत हुई ये देखकर कि अहम मर चुका है , खून ठंडा हो चुका है औऱ बुजदिली छा गई है . ऐसा लगा जैसे किसी ने जोर से मेरे मुंह पर तमाचा मारकर मेरी औकात बताई हो क्योंकि मैं भी एक लड़की हूं . देख कर बहुत तकलीफ हुई और चिंता हुई कि जब तक हमारी औलादें होंगी औऱ बड़ी होंगी तब तक कहीं इससे भी बदतर हालात ना हो जायें .
मुंबई में कई साल रहने के बाद जब मैं दिल्ली ट्रांसफर हुई तो काफी परेशान रहती थी, ना तो ड्राइवर , ना सड़क पर चलने वाला आम आदमी, ना थाने के बाहर बैठा सिपाही औरतों की इजज्त करता था . मैं समझती हूं कि यहां की लड़कियां घूरती आखों की आदि हो गई है. शाम हो जाये तो सड़क पर चलते हुये हाथ अपने आपसे इस तरह चिपक जाते हैं जैसे अपनी हिफाजत करना चाह रही हों पर मालूम हो कि कहीं ना कहीं से कोई ना कोई हाथ लगा ही जायेगा . ये बेबसी मुझे अच्छी नहीं लगती. खौफ से मुझे सख्त नफरत है. औरत की ऐसी बेइज्जती क्यों वो भी दुर्गा के देश में.
मैं अगर पत्रकार नहीं होती तो आइएएस में होती या पुलिस में होती . या फिर 1947 से पहले पैदा हुई होती तो हर हालत में क्रांतिकारी होती और अंग्रेजों की 2 – 3 गोलियां खा चुकी होती, पर समझ में नहीं आता कि साल 2009 में कैसे क्रांति लाउं . किसी भी समाज की सभ्यता का अंदाजा इस बात से लगाया जाता है कि वो अपनी औरतों से कैसा बरताव करता है . पटना जैसा शहर पुरानी संस्कृतियों में से एक है, और मेरा ससुराल भी है . मेरे पति सय्यद फैसल अली एक मशहूर वॉर जर्नलिस्ट हैं . जान की बाजी लगा कर अपनी गाड़ी में ईराक वॉर के दौरान मिड्ल ईस्ट के कई देश घूम चुके है. लेकिन मानते हैं कि औरते दुनिया के किसी भी कोने में सुरक्षित नहीं रह गई हैं. एक दिन मैंने नॉयडा की सड़कों का हाल बताया तो परेशान होकर कहने लगे कि तुम्हे एक लायसेंसी पिस्तौल खरीद दूं .. मैं हंसने लगी औऱ बोला अरे नहीं . पटना मे कहीं जाते वक्त एक पिस्तौलधारी सिपाही साथ होता है पर दिल्ली में क्यों ... कुछ घंटों तक इसी बात पर सोचने के बाद समझ में आया कि वो सही कह रहे थे. औऱतें दुनिया के किसी भी कोने में सुरक्षित नहीं. क्या करूं. किस किस को गोली मारूं, कैसे क्रांति लाउं.
आजकल रेप की खबर ऐसी आम हो गई है जैसे बढ़ती कीमतें. पहले बलत्कार औऱ रेप लफ्ज ही अजीब लगता था पर अब बेशर्मी से हरदम बोला जाता है . सोचिये जिस औऱत का बलात्कार होता होगा उसके आत्मसम्मान की क्या हालत होती होगी. क्या हमारे समाज में मर्दों की कमी हो गई है, जो सरे आम सिर्फ तमाशबीन ही दिख रहे हैं. ऐ खुदा अब ऐसे मर्द ईजाद कर जिनके सिर्फ नाम में ही नहीं , सोच में भी मर्दानगी हो औऱ वो रिएक्ट करने की जगह ऐक्ट करने की भी कैफियत रखते हों. वक्त के हाथों मुड़ना ही नहीं वक्त को मोड़ना भी जानते हों.
इन दृश्यों को मैंने उस दिन कई बार देखा और बार बार तकलीफ होती रही. अब से बाहर साल पहले लिखी वो कविता याद आ गई जो मैने एक फिल्म में ऐसा ही एक द्रश्य देखकर स्कूल में लिखी थी.
उस खुदा ने जहां बनाया
अरमानों से उसे सजाया
फिर नीचें इंसा को लाया
देख उन्हें फिर वो मुस्काया
आदम हउआ थे कहलाते
मर्द और औरत जाने जाते
खुले आसमां में थे गाते
हमें खुदा ने एख बनाया
दिन बीते औऱ गया वो कहना
हम तुम इक दूजे का गहना
औऱत को पर्दे में रहना
घर का मालिक मर्द कहलाया
ख्वाहिशे आसूं में बहतीं
फिर भी औऱत कुछ ना कहती
जंजीरों में कैद थी रहती
उन्हें पर अपना सरता़ज बताया
सदियां बींती वही नजारा
कोने में औरत का गुजारा
कायम है पर आदम का नारा
खुदा जंमीं का हमें बनाया
औरत बोली मुझे रोको मत
आगे बढ़ना है टोको मत
जहन्नुम में मुझे झोंको मत
सदियों तुमने मुझे रुलाया
मर्द बोला इतराती क्यों हो
हमसे कदम मिलाती क्यों हो़
हो ज़र्रा , ये भूल जाती क्यों हो
और फिर अपना जोर जताया
कब तक ये जंग जारी रहेगी
कब तक औऱत बेचारी रहेगी
आदंम से कब तक हारी रहेगी
औरत ने है ये सवाल उठाया
(लेखिका हिंदी न्यूज़ चैनल न्यूज़24 / E 24 में सीनियर क्रिएटिव प्रोड्यूसर और एंकर हैं और नई दिल्ली में रहती हैं)
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नज़्म का दर्द शायद हमेशा ऐसा न रहे जैसा आज के माहोल में है और हकीक़त जो आपने बयां की वो शायद उस वक़्त देखने वालों के भी समझ से परे थी की वो सिर्फ खबर देख रहे थे उसके पीछे उस लड़की के दर्द को महसूस आपने ने किया आपका एतराज़ जाइज़ है लेकिन ये भी सच है की अब वक़्त क्रांति का है आधी दुनिया के हक की बात है जो बुलंद होनी ही चाहिए चाहे क्रांति से या शांति से,
ReplyDeleteआपके लेख के लिए बधाई.
आपका हमवतन भाई....गुफरान...अवध पीपुल्स फोरम फैजाबाद.