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शनिवार, 11 जुलाई 2009 को दिल्ली में पत्रकार उदयन शर्मा की पुण्यतिथि पर हुई पत्रकारीय महासभा में एक बहुत क़ायदे की एक बात उठायी आउटलुक हिंदी के संपादक नीलाभ मिश्र ने। उन्होंने कहा कि किसी भी उपभोक्ता सामग्री की गुणवत्ता के मानदंड होते हैं और कमी-बेशी होने पर उपभोक्ता को अपने अधिकारों को लेकर क़ानूनी लड़ाई का हक़ है। अगर तेल या दूध में मिलावट के खिलाफ़ वह दुकानदार या कंपनी के खिलाफ़ मुक़दमा कर सकता है और उनकी बैंड बजा सकता है, तो अख़बार या टीवी की ख़बरों से वह ठगा जाता है, तो कहां जाए? ख़बरों में मिलावट पाने पर उसके लिए क्या गुंजाइश है? क्यों नहीं यहां भी उपभोक्ता क़ानून होना चाहिए? पूरी सभा में एकमात्र नीलाभ जी की ही बात थी, जो बता रही थी कि बेमज़ा हो गयी पत्रकारिता को पटरी पर लाने का सॉल्यूशन एक ये हो सकता है। इस मुद्दे पर वेबसाइट http://mohallalive.com/ ने एक लंबी बहस छेड़ दी। इसमें हमारे विभागाध्यक्ष संजय द्विवेदी http://mohallalive.com/2009/07/19/saleem-radheshyam-sanjay-nkashif-views/ ने भी हस्तक्षेप किया। उन्होंने जो लिखा वह यह है-
मिलावट तो होगी ही
-संजय द्विवेदी
मीडिया में खबरों की मिलावट पर विमर्श तो ठीक है पर जिस तरह के समाधान बताए जा रहे हैं उससे सहमत नहीं हुआ जा सकता। मीडिया में मिलावट के बिना कौन सी खबर बन सकती है। आज तो ठीक है किंतु जिस आजादी के पहले की पत्रकारिता के नाम पर कीर्तन किया जा रहा है उसमें कौन सा स्वनामधन्य संपादक अपनी विचारधारा के बिना लेखन कर रहा था।
खबर की पवित्रता एक ऐसा स्वप्न है जो बेमानी है क्योंकि पत्रकार की विचारधारा और संवेदना भी तब मिलावट ही मान ली जाएगी। संवेदना और वैचारिकता की मिलावट को रोकने का उपाय क्या है, यह भी सोचना होगा। जो लोग साबुन, तेल की बात कह रहे हैं, या उन्हीं मिलावट रोकने के मानकों को लागू करने की बात कर रहे हैं उनकी बात समझ में नहीं आती। क्या हम लोग परचून की दुकान पर बैठे हुए लोग हैं, जो मसाले में घोड़े की लीद मिला रहे हैं। यह शब्दों की दुनिया है वह चाहे बोले जा रहे हैं या लिखे जा रहे हैं। शब्दों और वस्तुओं का फर्क हमें समझना होगा। हम शब्दों के साथ अंर्तक्रिया करते हैं फिर लिखते या बोलते हैं। इसमें संवेदना, विचारधारा और आपका परिवेश आएगा ही। किसी को स्लम पर हो रही कार्रवाई शहर का सौंदर्यीकरण लग सकती है तो किसी को आम आदमी पर जुल्म की इंतहा। ये उसके सोच के तरीके पर निर्भर करता है। खबरों को देखने का हमारा नजरिया ही हमें खास बनाता है। खबर कम्पयूटर का साफ्टवेयर नहीं है। जो आपकी मांग और सुविधा के लिए बनाया गया है। इसलिए किसी भी तरह का मानक खबरों की सच्चाई नापने का हो नहीं सकता। आत्मनियमन और आत्मअनुशासन ही इसके मार्ग हैं। पत्रकारिता में जिस तरह की पीढी आ रही है उसके सामने जिस तरह के मूल्य रखे जा रहे हैं उससे वे हतप्रभ हैं। सिर्फ आलोचना और अपने आपको हीन और कलंकित समझने की चर्चाएं कहां तक उचित हैं। चुनावों में जो कुछ हुआ उसमें पत्रकारों की मंशा या हिस्सेदारी कितनी है। यह सारा कुछ तो मैनेजमेंट के ईशारों पर हुआ। प्रबंधन खुद बाजार में जाकर अपनी बोली लगा रहा हो तो पत्रकार की कलम को कौन सा प्रतिबंध रोक सकता है। नौकरी करने की भी अपनी जरूरतें और मजबूरियां हैं। पहले मंदी के नाम पर प्रबंधन ने हकाला, प्रताड़ित किया और चुनाव में वसूली पर उतर आया इसमें पत्रकारों का दोष क्या है,वह तो सिर्फ प्रताड़ित ही हो रहा है हर तरफ से। प्रबंधन की गलत नीतियों के खिलाफ कौन खड़ा होगा। जो अखबार वेज बोर्ड के हिसाब से तनख्वाह भी नहीं दे रहे हैं वे भी सरकारी विज्ञापनों का एक बड़ा हिस्सा ले रहे हैं। हर बार कर्मचारी नुमा पत्रकार को निशाने पर रखा जाता है उसे निशाना बनाया जाता है। खबरों की मिलावट को रोकने का यंत्र अविष्कृत होने के बाद क्या पत्रकार अपना दिल दिमाग और विचारधारा सबकुछ छोड़कर आफिस आएंगें। इस तरह की बहस के मायने क्या हैं।
पत्रकारिता य़ा मीडिया की दुनिया हमें जितनी भी बेरहम बना दे इसमें आए ज्यादातर लोग एक आर्दशवादी सोच, एक अपनी ऐसी दुनिया बनाने के सपने से ही आते हैं जहां शब्दों की सत्ता होगी और लोगों को न्याय मिल पाएगा। बहुत कम लोग ऐसे होंगें जो लूटपाट करने के इरादे से यहां आते हैं। कुछ रास्ते में आदर्शों से तौबा कर लेते हैं, रास्ता बदल लेते हैं लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि रास्ता गलत है। एक ऐसी पीढ़ी भी मालिकों में आयी है जिनके लिए पैसा सबकुछ है पर कुछ अच्छे लोग भी हैं। उनका भी जिक्र कीजिए। अमर उजाला और प्रभात खबर ने इसी लूट के दौर में कहा कि वे चुनावी खबरों का पैसा नहीं लेंगें उनका भी जिक्र कीजिए। मिलावट कहां थी- चुनावी खबरें तो विज्ञापन थीं। विज्ञापन को लेकर क्या रोना। पाठक को भी सब समझ में आता है। वह इतना भोला नहीं है। राजनीति के भ्रष्टाचार में हिस्सेदारी की कामना गलत है पर इसे रोका नहीं जा सकता। वे कौन से दूध के धुले लोग हैं, जो जितना भ्रष्ट हो उसे उतना अधिक मीडिया को देना पड़ा। वे सामने क्यों नहीं आए। हिंदुस्तान के कानून में बहुत से प्रावधान हैं, आप मीडिया को कठघरे में खड़ा करें, किसने रोका है। भाजपा नेता लालजी टंडन ने उप्र के सबसे बड़े अखबार दैनिक जागरण को पैसा नहीं दिया सार्वजनिक आलोचना की पर लखनऊ से चुनाव जीते, ऐसे प्रतिवाद राजनीति भी कर सकती है। संकट यह है कि राजनीति और मीडिया दोनों एक ही गटर में हैं। सो किसी भी तरह का नियमन संभव नहीं है। कानून, सरकार या आयोग जैसी चीजें जो खतरा आज का है उससे बड़ा घोटाला करेंगी। सो मैं ऐसे किसी भी प्रतिबंध के खिलाफ हूं जो शब्दों की सत्ता को चुनौती देता नजर आए।
( लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं।
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