Friday, July 24, 2009

हड़ताल पर भगवान


- अंकुर विजयवर्गीय

शीर्षक पढ़कर कहीं आप सोच में तो नहीं पड़ गए। अगर अभी तक नहीं सोच रहे हैं तो फिर सोचना शुरू कर दीजिये। क्यूंकि अगर अभी भी आपने नहीं सोचा तो आपके साथ भी वो हो सकता है जो मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और उत्तरप्रदेश के मरीजों के साथ हो रहा है। निशचित ही मरीज तो आप भी कभी न कभी रहें होंगे और आगे भी कभी रह सकते हैं। खैर भगवान न करे कि आप कभी मरीजों की श्रेणी में आयें क्योंकि अगर आप इस कैटेगरी में आ गए तो आप भी कहेंगे कि वाकई भगवान हड़ताल पर हैं।
मेरी इतनी लंबी बकवास के बाद तो आप शायद समझ गए होंगे कि मैं क्या कहना चाह रहा हूं। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ और उत्तरप्रदेश के जूनियर डॉक्टर पिछले कई दिनों से हड़ताल पर हैं। मरीजों के लिए भगवान का दूसरा रूप कहे जाने वाले डॉक्टर भी हड़ताल पर हो तो बेचारे मरीजों का क्या होगा। डॉक्टरों का कहना है कि उनकी मांगें उनके साथ-साथ मरीजों के हित में भी हैं। अब जरा मध्यप्रदेश में इन डॉक्टरों की मांगों पर भी थोड़ा गौर कर लीजिये। फीस में पचास प्रतिशत की कमी, प्रदेश के मेडिकल कॉलेजों की गैरमान्यता प्राप्त 74 सीटों को मान्यता देने की मांग और मेडिकल छात्रों को अस्पताल में ड्यूटी के दौरान इंशयोरेंस। इसके साथ एक खास मांग और भी सुनिये। स्टायपेंड बढ़ाने की मांग। फिलहाल मध्यप्रदेश में इंटर्न के दौरान 3000, पीजी प्रथम वर्ष को 16000, द्वितीय वर्ष को 16500 और तृतीय वर्ष को 17000 रूपये स्टायपेंड दिया जा रहा है। अब ये डॉक्टर इंटर्न को 8000 और पीजी के छात्रों को क्रमश: 28000, 29000 और 30000 स्टायपेंड दिये जाने की मांग कर रहे हैं। मरीजों की जान की परवाह किये बिना अपने पैसे बढ़ाने पर ज्यादा ध्यान देने वाले डॉक्टरों को आखिर क्यूं भगवान माना जाए। अपने केबिन में भगवान की फोटो लगाना और खुद को भगवान मानने में थोड़ा फर्क है। एक खास बात और। जिन मरीजों के हितों की बात ये डॉक्टर कर रहे हैं उनसे जरा ये पूछा जाये कि सरकारी अस्पतालों में इलाज कराने वाले कितने लोगों को 17000 रूपये स्टायपेंड मिलता है। लेकिन ये डॉक्टर है कि भगवान और धनवान में अंतर ही नहीं समझते।
हडताल के संबंध में एक खास बात और भी है। थोड़े समय पहले सर्वोच्च न्यायालय ने एक प्रकरण में स्थायी निर्देश दिए थे कि देश का कोई भी डॉक्टर अनुचित आधारों पर हड़ताल पर नहीं जायेगा। यदि डॉक्टर्स अपनी अनुचित मांगों को लेकर हड़ताल पर जाते हैं तो ये न केवल सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की अवमानना होगी, बल्कि शासन केनियमों का भी उल्लंघन होगा। इस बार डॉक्टरों की हडताल पर राज्य शासन भी निर्णयक स्थिति लाना चाहता है। शासन ने आवष्यक सेवा अधिनियम लागू करते हुए हड़ताल को गैर-कानूनी और सेवा को आवष्यक घोषित करते हुए राज्यभर में 1176 जूनियर डॉक्टरों को सेवा से निष्कासित कर दिया है। जिस तरह से कानून व्यवस्था कि स्थिति काबू से बाहर हो जाने पर सेना को बुलाया जाता है, उसी तर्ज पर सरकार सेना से डॉक्टर बुलाने पर विचार कर रही है। शासन ने स्वास्थ्य विभाग में कार्यरत अन्य डॉक्टरों को प्रदेश के पांचों मेडिकल कॉलेजों में व्यवस्था संभालने को कहा है। लेकिन इनकी संख्या ऊंट के मुंह में जीरे के समान है। एक हजार से ज्यादा जूनियर डॉक्टरों की जगह क्या मात्र 130 डॉक्टर व्यवस्था संभाल सकते है। और अगर ऐसा होता हैं तो मेरी नजर में उन सभी डॉक्टरों को वीरता पुरस्कार से सम्मानित किया जाना चाहिए।
ऐसा नहीं है कि मध्यप्रदेश में निजी अस्पताल नहीं है। लेकिन इन अस्पतालों में मरीजों का इलाज भारी खर्चे पर किया जाता है जो आम आदमी खासकर गरीब वर्ग के बूते से बाहर है। ऐसे लोग शासकीय अस्पतालों पर ही निर्भर रहते हैं। इसके अलावा निजी अस्पतालों में इतनी जांचें कराई जाती हैं जिनकी जरूरत ही नहीं होती। निजी अस्पतालों में जांच ज्यादा और इलाज कम होता है। जूनियर डॉक्टरों की इस हड़ताल के संबंध में ही सही लेकिन सरकार को निजी अस्पतालों के इस ‘‘जांच प्रेम‘‘ पर कार्यवाही करनी चाहिए।


लेकिन हड़ताल के एक पहलू को समझने के बाद हमें इसके दूसरे पक्ष पर भी गौर करना होगा। यह सच है कि डाक्टरों का पेशा लोगों की जिंदगी तथा उनकी सेहत की देखभाल से जुड़ा हुआ है इसलिए उनसे यह अपेक्षा की जाती है कि वे अपने दायित्वों की गंभीरता को देखते हुए हड़ताल जैसे कदम नहीं उठाएंगे। यह बात सैद्धांतिक रूप से बिल्कुल सही है लेकिन हमें इस सिलसिले में इसके व्यवहारिक पक्ष पर गौर अवश्य करना चाहिए। हमें इन डाक्टरों की सेवाओं के साथ ही उनके वेतन तथा सुविधाओं पर भी विचार करके हड़ताल के औचित्य को लेकर कोई फैसले पर पहुंचना चाहिए। सच तो यह है कि जूनियर डाक्टरों के डयूटी के घंटे और उनकी थका देने वाली सेवाएं किसी भी व्यक्ति को आश्चर्यचकित कर देने के लिए काफी हैं। कई बार तो उन्हें 36- 36 घंटे तक लगातार काम करना पड़ता हैजो किसी भी पेशे से अधिक कष्ट साध्य होता है। चिकित्सा के इस पेशे में जो इज्जत मिलनी चाहिए, वह भी आजकल लुप्त हो रही है जिसके लिए हर छोटी बड़ी चूक या अनहोनी घटनाओं पर होने वाली मीडिया ट्रायल भी काफी हद तक जिम्मेदार है। कोई भी डाक्टर अपने मरीजों को बचाने अथवा स्वस्थ करने के अपनी ओर से भरसक प्रयास करता है लेकिन अंतिम सत्य यही है कि किसी की भी जिंदगी और मौत अंतत: ईश्र्वर के हाथ में ही होती है। मीडिया में इसे जिस तरह से सिर्फ लापरवाही करार देकर डाक्टरों की निष्ठा पर सवालिया निशान लगाने का फैशन चल पड़ा है उससे लोगों में भी डाक्टरों के प्रति भरोसा घटा है। इसका परिणाम यही होता है कि डाक्टर अपनी डयूटी निभाने के बावजूद जब तब कटघरे में खड़े नजर आते हैं। मानव सेवा के अपने फर्ज को निभाने के बावजूद उन पर सरकारी कार्रवाई की तलवार लटकती रहती है। सरकार का संवेदनहीन रवैया उनकी इस पीड़ा को दुगुना कर देता है। मध्यप्रदेश में भाजपा के कार्यकाल में जितने डाक्टरों को निलंबित किया गया है, वह अपने आप में एक रिकार्ड ही होगा। अपनी तमाम तकलीफों के बाद भी जूनियर डाक्टर जो वेतन पाते हैं, वह इस पेशे के लिए अपमानजनक ही माना जा सकता है। जूनियर डाक्टरों की हड़ताल इन तमाम हालात के प्रति उनके आक्रोश की परिचायक है। सरकार को इनसे मानवीय तरीके से निपटना चाहिए और उनकी मांगों पर सहानुभूतिपूर्ण रुख अपनाकर इस मामले का हल निकालना चाहिए। निष्कासन जैसी कार्रवाई को वापस लेकर राज्य सरकार को बातचीत का रास्ता अपनाना चाहिए ताकि डाक्टरों को न्याय मिल सके और सरकारी अस्पतालों में चिकित्सा व्यवस्था पूर्ववत कायम हो सके। सरकार के हठ और सख्त रुख से समस्या बिगड़ेगी ही, हल कतई नहीं होगी।
प्रारंभ से यह कार्रवाई गैर-लोकतांत्रिक भी है। भारत का संविधान देश के सभी नागरिकों को अधिकार देता है कि वे सरकार तक अपनी आवाज पहुंचाने के लिए अहिंसक आंदोलन का सहारा ले सकते हैं।यह सही है कि जूडा को अपनी मांगों की तुलना में अपने फर्ज को ज्यादा महत्व देना चाहिए। इसे सही नहीं ठहराया जा सकता कि अस्पतालों में मरीज इलाज के अभाव में तड़पते रहें और हड़ताली डॉक्टर इतने असंवेदनशील हो जायें कि मरीजों की करूण पुकार उन्हें द्रवित ही न कर सके। फिर भी इसका मतलब यह नहीं है कि जूनियर डॉक्टरों से अपनी आवाज सरकार तक पहुंचाने का संवैधानिक हक ही छीन लिया जाए। हड़ताल करना जूड़ा की गलती है, तो गलती सरकार की भी है कि हड़ताल पर जाने से पहले वह जूडा की समस्याओं का समाधान कर पाने में असफल रही। जूडा के खिलाफ कार्रवई शुरू हो जाने के बावजूद दोनों पक्षों को चाहिए कि वे बातचीत का दरवाजा पुनः खोलें। मीडिया को इस संबंध में चाहिए कि वह सिर्फ एक पक्ष की बात न करें। अपनी खबरों के उत्पादन के साथ आवशयक है कि मरीजों, डॉक्टरों और सरकार तीनों की बात सुनकर कोई खबर लोगों तक पहुंचाए। मीडिया की खबर ही लोगों का फैसला होती है, इसलिए मुद्दों पर सावधानी आवशयक है। यही सत्यता है और मीडिया की विशवसनीयता भी।

(अंकुर, जनसंचार विभाग के पूर्व छात्र तथा न्यूज चैनल जी 24 घंटे छत्तीसगढ़ के संवाददाता हैं)

ankurvijaivargiya@gmail.com, ankur.media01@gmail.com

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