Friday, July 24, 2009

आइए सीखते हैं भाषा

भाषा सीखना एक निरंतर प्रक्रिया है। सब चाहते हैं वे बेहतर के जानकार बनें। बेहतर बोलें और लोकप्रिय हों। नीचे हैं बेहतर भाषा की खूबियां,अगर आपने इसे पूरा पढ़ा, तो ये आपके लिए ताउम्र एक ऐसी सौगात बनी रहेगी, जिसे आप दूसरों को देते समय खुशी महसूस करेंगे और फिर भी ये आपके पास ही रहेगी.




टेलीविजन हिंदी की ख़ूबियां –

वह ऐसी भाषा है जो आम लोगों की समझ में आती है, यानी आसान है. संस्कृतनिष्ठ या किताबी नहीं है.

•दूसरी बात, वह अपने कथ्य के साथ पूरा न्याय करती है. मतलब आप जो कहना चाहें, उसी बात को शब्द व्यक्त करते हैं.

•वाक्य छोटे होते हैं, सरल होते हैं.

•और सबसे बड़ी विशेषता यह है कि टेलीविजन की हिंदी भारत की गंगाजमुनी संस्कृति का प्रतीक है. आज भी हमारी हिंदी में हिंदी-उर्दू के शब्द गले में बाहें डाले साथ-साथ चलते हैं और ज़रुरत पड़ने पर अँगरेज़ी के शब्दों से भी हाथ मिला लेते हैं.



टेलीविजन की भाषा प्रकाशन और प्रसारण की भाषा में अंतर है. भारी भरकम लंबे शब्दों से हम बचते हैं, (जैसे, प्रकाशनार्थ, द्वंद्वात्मक, गवेषणात्मक, आनुषांगिक, अन्योन्याश्रित, प्रत्युत्पन्नमति, जाज्वल्यमान आदि. ऐसे शब्दों से भी बचने की कोशिश करते हैं जो सिर्फ़ हिंदी की पुरानी किताबों में ही मिलते हैं – जैसे अध्यवसायी, यथोचित, कतिपय, पुरातन, अधुनातन, पाणिग्रहण आदि.


एक बात और. बहुत से शब्दों या संस्थाओं के नामों के लघु रूप प्रचलित हो जाते हैं जैसे यू. एन., डब्लयू. एच. ओ. वग़ैरह. लेकिन हम ये भी याद रखते हैं कि हमारे प्रसारण को शायद कुछ लोग पहली बार सुन रहे हों और वे दुनिया की राजनीति के बारे में ज़्यादा नहीं जानते हों.


इसलिए, यह आवश्यक हो जाता है कि संक्षिप्त रूप के साथ उनके पूरे नाम का इस्तेमाल किया जाए. जहाँ संस्थाओं के नामों के हिंदी रूप प्रचलित हैं, वहाँ उन्हीं का प्रयोग करते हैं (संयुक्त राष्ट्र, विश्व स्वास्थ्य संगठन) लेकिन कुछ संगठनों के मूल अँग्रेज़ी रूप ही प्रचलित हैं जैसे एमनेस्टी इंटरनेशनल, ह्यूमन राइट्स वाच.


संगठनों-संस्थाओं के अलावा, नित्य नए समझौतों-संधियों के नाम भी आए दिन हमारी रिपोर्टों में शामिल होते रहते हैं. ऐसे नाम हैं- सीटीबीटी और आइएईए वग़ैरह. भले ही यह संक्षिप्त रूप प्रचलित हो चुके हैं मगर सुनने वाले की सहूलियत के लिए हम सीटीबीटी कहने के साथ-साथ यह भी स्पष्ट करते चलते हैं कि इसका संबंध परमाणु परीक्षण पर प्रतिबंध से है. या कहते हैं आइएईए यानी संयुक्त राष्ट्र की परमाणु ऊर्जा एजेंसी.


कई बार जल्दबाज़ी में या नए तरीक़े से न सोच पाने के कारण घिसे पिटे शब्दों, मुहावरों या वाक्यों का सहारा लेना आसान मालूम पड़ता है. लेकिन इससे भाषा बोझिल और बासी हो जाती है. ज्ञातव्य है, ध्यातव्य है, मद्देनज़र, उल्लेखनीय है या ग़ौरतलब है – ऐसे सभी प्रयोग बौद्धिक भाषा लिखे जाने की ग़लतफ़हमी तो पैदा कर सकते हैं पर ये ग़ैरज़रूरी हैं.



एक और शब्द है द्वारा. इसे रेडियो और अख़बार दोनों में धड़ल्ले से प्रयोग किया जाता है लेकिन ये भी भाषाई आलस्य का नमूना है. क्या आम बातचीत में कभी आप कहते हैं कि ये काम मेरे द्वारा किया गया है? या सरकार द्वारा नई नौकरियाँ देने की घोषणा की गई है? अगर द्वारा शब्द हटा दिया जाए तो बात सीधे सीधे समझ में आती है और कहने में भी आसान हैः (ये काम मैंने किया. या सरकार ने नई नौकरियाँ देने की घोषणा की है.)



टीवी की अच्छी स्क्रिप्ट के लिए दो बातें ज़रूरी हैं--आपके पास कहने के लिए कुछ होना चाहिए, दूसरे उसे बिल्कुल आसान भाषा में कहा जाए.


टीवी की भाषा मंज़िल नहीं, मंज़िल तक पहुँचने का रास्ता है. मंज़िल है- अपनी बात दूसरों तक पहुँचाना. इसलिए, सही मायने में भाषा ऐसी होनी चाहिए जो बातचीत की भाषा हो, आपसी संवाद की भाषा हो. उसमें गर्माहट हो जैसी दो दोस्तों के बीच होती है. यानी, टीवी की भाषा को क्लासरुम की भाषा बनने से बचाना बेहद ज़रुरी है.


याद रखने की बात यह भी है कि टीवी न अख़बार है न पत्रिका जिन्हें आप बार बार पढ़ सकें. और न ही दूसरी तरफ़ बैठा श्रोता आपका प्रसारण रिकॉर्ड करके सुनता है.


आप जो भी कहेंगे, एक ही बार कहेंगे. इसलिए जो कहें वह साफ-साफ समझ में आना चाहिए. इसलिए लिखते समय यह ध्यान में रखना ज़रूरी है कि वाक्य छोटे-छोटे हों, सीधे हों. जटिल वाक्यों से बचें.



साथ ही इस बात का ध्यान रखिए कि भाषा आसान ज़रूर हो लेकिन ग़लत न हो.



टीवी के श्रोता आम हिंदी पाठकों से इस मायने में थोड़े अलग हैं कि वे हमेशा विशुद्ध साहित्यिक रुचि रखने वाले पाठक नहीं हैं. वे टीवी देखते हैं तो उसके कई अलग-अलग कारण होते हैं.



•वे विदेशों में बसे हैं और अपनी पहचान नहीं खोना चाहते इसलिए अपनी भाषा से जुड़े रहना चाहते हैं.

•हिंदी पहली भाषा है और वे अंग्रेज़ी के मुक़ाबले हिंदी को सरल और सहज मानते हैं और समझते हैं.

•वे अंग्रेज़ी के चैनल देखते हैं और अक्सर हिंदी से उसकी तुलना करते हैं.



ये दर्शक चाहे जो भी हों लेकिन एक बात तय है कि वे भारी-भरकम शब्दों के प्रयोग या मुश्किल भाषा से उकता जाते हैं और जल्दी ही रिमोट का बटन दबा देते हैं।


उन्हें बाँधे रखने के लिए ज़रूरी है कि ख़बर का कलेवर आकर्षक हो, अपनी तरफ खींचने वाले विजुअल्स हों, छोटे-छोटे वाक्य हों, छोटे वीओ हों और भाषा वह हो जो उनकी बोलचाल की भाषा से मेल खाती हो.



टीवी की भाषा साहित्यिक भाषा से इस मायने में अलग है कि उसको सहज और सरल बनाने के लिए ज़रूरत पड़े तो अँग्रेज़ी के प्रचलित शब्दों का भी इस्तेमाल करना पड़ सकता है. जैसे कोर्ट, शॉर्टलिस्ट, अवॉर्ड, प्रोजेक्ट, सीबीआई, असेंबली आदि.


कोशिश रहती है कि उसी रिपोर्ट में कहीं न कहीं इनके हिंदी पर्यायवाची शब्द भी शामिल हों लेकिन लगातार न्यायालय, पुरस्कार, परियोजना, केंद्रीय जाँच ब्यूरो लिखना पाठक को क्लिष्टता का आभास दिला सकता है.


इसी तरह उर्दू के शब्द भी जहाँ-तहाँ इस्तेमाल हो ही जाते हैं. इनाम, अदालत, मुलाक़ात, सबक़, सिफ़ारिश, मंज़ूरी, हमला आदि ऐसे ही कुछ शब्द हैं. ख़बर के लिए कैसी भाषा का इस्तेमाल हो इसके लिए बस यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि पढ़ने वाले को डिक्शनरी खोलने की ज़रूरत न पड़े और पढ़ते समय उसे ऐसा महसूस हो जैसे यह उसकी अपनी, रोज़मर्रा इस्तेमाल होने वाली भाषा है.



कम से कम अपने देश में टीवी न्यूज़ चैनल अख़बारों और पत्रिकाओं के मुकाबले एक नया और इंटरएक्टिव माध्यम है. यानी ये दोतरफ़ा संवाद का माध्यम भी बन सकता है।

दर्शकों को बाँधने के लिए ज़रूरी है कि भाषा ऐसी हो जो उन्हें अपनी लगे. वाक्य छोटे और आसान हों. शीर्षक यानी हेडलाइंस के कैच वर्ड आकर्षक हों और ख़बर का इशारा करते हों। अँगरेज़ी के आम शब्दों की छौंक से अगर बात और सहज होती हो तो कोई हर्ज नहीं.




भाषा और निष्पक्षता

ख़बर की निष्पक्षता को बनाए रखने के लिए सही शब्दों का चुनाव बेहद ज़रुरी है. मिसाल के तौर पर, आतंकवाद शब्द का इस्तेमाल हम वहीं करते हैं जहाँ वह किसी के कथन का हिस्सा हो.



जैसे, अमराकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने कहा है कि वे अल क़ायदा के आतंकवाद का मुँहतोड़ जवाब देंगे. अथवा वहाँ आतंकवाद शब्द का इस्तेमाल करने में कोई समस्या नहीं जहाँ बिना किसी व्यक्ति या संगठन की ओर उँगली उठाए उसका प्रयोग हो. जैसे- भारत सरकार आतंकवाद से निपटने में विफल रही है.

इसी तरह, जिहादी, शहीद, महान नेता, पूजनीय जैसे शब्दों का इस्तेमाल भी बहुत सोचसमझ कर किया जाना चाहिए.

एक और बात का ध्यान रखना ज़रूरी है, जब तक किसी का अपराध साबित नहीं होता, वह संदिग्ध भले हो, मगर दोषी नहीं होता. इसलिए किसी ऐसी घटना का ब्यौरा देते समय कथित (alleged) शब्द का बहुत महत्व है.

नाम से पहले श्री या श्रीमती के प्रयोग से भी बचने की ज़रुरत है इसलिए कि अगर आप एक व्यक्ति के नाम के साथ श्री या श्रीमती लगाएँ और दूसरे व्यक्ति के नाम के साथ लगाना भूल जाएँ तो इसे पक्षपात समझा जा सकता है. बेहतर है कि हर व्यक्ति के पदनाम का इस्तेमाल करें. जैसे—भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह.. या उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती..... विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी...


पत्रकार राष्ट्रीयता, सरहद, पक्ष-विपक्ष और विवादों से अलग हटकर जनता को सच बताने के कर्तव्य का पालन करता है. इसलिए, इस बात का ध्यान रखना बेहद ज़रूरी है कि हम अपनी पहचान को पत्रकारिता के धर्म से अलग रखें. समाचार देते समय हमारा देश, हमारी सेना, हमारे नेता जैसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए।


शब्दों का प्रयोग

टेलीविजन की हिंदी, अँग्रेज़ी के शब्दों से हाथ मिलाने में परहेज़ नहीं करती. पर सवाल यह उठता है कि किस हद तक. हिंदी में अँग्रेज़ी हो या अँग्रेज़ी में हिंदी.



यहाँ दो बातें समझने की हैं. पहली, इसमें कोई संदेह नहीं कि आधुनिक हिंदी में अँग्रेज़ी के बहुत से शब्द इस तरह घुल मिल गए हैं कि पराए नहीं लगते. जैसे स्कूल, बस और बस स्टॉप, ट्रक, कार्ड, टिकट. इस तरह के शब्दों को हिंदी से बाहर निकालने का तो कोई मतलब ही नहीं है. दूसरी ये कि बेवजह अँग्रेज़ी के शब्द ठूँसने का भी कोई अर्थ नहीं.


हिंदी एक समृद्ध भाषा है. अपनी विकास यात्रा में हिंदी ने अँग्रेज़ी ही नहीं, बहुत सी और भाषाओं के शब्दों को अपनाया है जैसे- उर्दू, अरबी, फारसी. यानी अभिव्यक्ति के लिए हिंदी भाषा में कई-कई विकल्प मौजूद हैं. फिर बिना ज़रूरत के अँग्रेज़ी की बैसाखी क्यों लें. (जैसे रंगों के लिए हिंदी में अपने अनगिनत शब्द हैं फिर इस तरह के वाक्य क्यों लिखे जाएँ कि ‘कार का एक्सीडेंट पिंक बिल्डिंग के पास हुआ’.)


तकनीकी और नए शब्द

कुछ साल पहले तक हमने लैपटॉप, इंटरनेट, वेबसाइट, सर्चइंजन, मोबाइल फ़ोन या सेलफ़ोन का नाम भी नहीं सुना था. अब वे ज़िंदगी का हिस्सा हैं. और जो चीज़ हमारी ज़िंदगी में शामिल हो जाती है, वह भाषा का हिस्सा भी बन जाती है. बहुत कोशिशें हुईं कि इनके हिंदी अनुवाद बनाए जाएँ लेकिन कोई ख़ास सफलता हाथ नहीं लगी, इसलिए ऐसे तमाम शब्द अब हिंदी का हिस्सा बन चुके हैं.



इसलिए हम सर्वमान्य और प्रचलित तकनीकी शब्दों का अनुवाद नहीं करते. हाँ, अगर हिंदी भाषा में ऐसे शब्दों के अनुवाद प्रचलित हो चुके हैं तो बिना खटके उनका इस्तेमाल करते हैं- जैसे परमाणु, ऊर्जा, संसद, विधानसभा आदि.



(बोलचाल की भाषा के नाम पर कुछ ऐसे भी प्रयोग प्रसारण में होने लगे हैं जो अशिक्षा नहीं तो भाषा के प्रति लापरवाही बरतने की निशानी ज़रूर हैं. ‘सोनू निगम ने अपना करियर दिल्ली में शुरू करा’, ‘पुलिस से पंगा न लेने की चेतावनी’ जैसे प्रयोग भाषा की धज्जियाँ तो उड़ाते ही हैं, इन्हें बरतने वाले के बारे में भी कोई अच्छी राय नहीं बनाते.)






उच्चारण

मीडिया का काम भले ही भाषा सिखाने का नहीं, मगर मीडिया के लोग, करोड़ों लोगों के लिए रोल मॉडल होते हैं.

साफ़ उच्चारण के लिए ज़ोर-ज़ोर से बोलकर अभ्यास करना बहुत काम आता है. तभी अक्षर और उनकी ध्वनि साफ़ सुनाई पड़ती है. यहाँ जल्दबाज़ी से काम बिगड़ जाता है.



बहुत सारे लोग युद्ध को युद, सुप्रभात को सूप्रभात, ख़ुफ़िया को खूफिया, प्रतिक्रिया को पर्तिकिरया कहते हैं जो कानों को बहुत खटकता है.


इसी तरह, शब्द हिंदी मूल का हो या उर्दू का, अगर आप बेवजह नुक़्ता लगाएँगे तो अनर्थ हो जाएगा जैसे फाटक, बेगम, जारी, जबरन, जंग, जुर्रत, जिस्म, फिर, फल आदि में नुक़्ता नहीं लगता.


मीडिया में रोज़मर्रा इस्तेमाल होने वाले कुछ शब्द ऐसे भी हैं जो नुक़्ते के बिना कानों को बहुत बुरे लगते हैं जैसे- ख़बर, सुर्ख़ी, ज़रुरत, ज़रा, अख़बार, ग़लत, ग़म, ज़बरदस्ती.


अच्छे से अच्छा आलेख, ग़लत उच्चारण या ख़राब उच्चारण की वजह से बर्बाद हो सकता है. और कभी कभी तो अर्थ का अनर्थ भी हो सकता है. टेलीविजन न तो अख़बार है, न ही पत्रिका. इसलिए, न सिर्फ़ यह ज़रूरी है कि इसकी भाषा स्पष्ट और सरल हो, बल्कि यह भी ज़रूरी है कि हर शब्द सही तरह से बोला जाए. शब्द किसी भी भाषा का हो, अगर आपका उच्चारण सही नहीं होगा तो सुनने वाले को बिल्कुल मज़ा नहीं आएगा.



अगर उर्दू के शब्दों का प्रयोग करें तो पहले यह जान लें कि उनमें नुक़्ता लगता है या नहीं. कुछ अति उत्साही लोग शायद यह समझते हैं कि किसी भी शब्द में नुक़्ता लगा देने भर से, वह उर्दू का शब्द बन जाता है. ज़रा सोचिए जलील शब्द को बोलते समय अगर ज के नीचे नुक़्ता लग गया तो वह बन जाएगा ज़लील. अर्थ का अनर्थ हो जाएगा.


हर व्यक्ति को अपनी भाषा अपनी क्षमता के अनुसार गढ़नी चाहिए. यानी अगर आप ख़बर शब्द साफ़ नहीं बोल सकते तो समाचार कहें, युद्ध शब्द का सही उच्चारण करना मुश्किल लगता है तो लड़ाई कह सकते हैं. प्रक्षेपास्त्र कहना कोई ज़रुरी नहीं. मिसाइल शब्द अब आम हो गया है. बात तो यह है कि हर व्यक्ति की भाषा का अपना अलग रंग होता है. और होना भी चाहिए.

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