-अंकुर विजयवर्गीय
पिछले दिनों मध्यप्रदेश के रायसेन जिले से एक खबर आई। एक पत्रकार होने के नाते मेरे लिए उस खबर पर अचंभित होना लाज़मी था। खबर थी कि एक मुर्गी ने इंसान के बच्चे को जन्म दिया। लगभग एक हाथ की लंबाई का वो बच्चा जन्म लेते ही मर गया। पता नहीं क्यूं मेरा मन ये मानने से इंकार कर रहा था कि ऐसा हो सकता है, क्यूंकि विज्ञान का विद्यार्थी रह चुके होने के नाते मुझे डार्विन का सिद्वांत याद आ रहा था कि शुरूआती तीन महीनों में इंसान और जानवर दोनों का विकास एक जैसा होता है। पर खबर थी तो करना भी जरूरी था। मुझे लगा हो सकता है कि कोई उस भ्रूण को वहां पर फेंक गया हो या फिर डार्विन भाई का सिद्वांत ही ठीक हो। खबर करने का मन न होने का एक कारण यह भी था कि उस बच्चे को पैदा होते किसी ने नहीं देखा। लेकिन उपर से आदेश था तो खबर करना भी जरूरी था लेकिन क्या करें दिल है कि मानता ही नहीं। पांच बजे तक हमने इंतजार किया और जब देखा कि सभी चैनलों ने उसे चलाना शुरू कर दिया तो मजबूरन मुझे भी ये खबर करनी पड़ी। हालांकि अगले दिन वित्त मंत्री देश का बजट लोकसभा के पटल पर रखने वाले थे लेकिन बजट को पीछे छोड़कर मुर्गी बाजी मार ले गई। खबर करते वक्त मैंने अपने एक वरिष्ठ साथी जो राष्ट्रीय चैनल के संवाददाता है उनसे जब बजट छोड़कर इस खबर को करने के बारे में पूछा तो उनका जवाब मेरे इस लेख का शीर्षक बन गया। उन्होंने साफ लहज़े में कहा ‘‘ सनसनी है बेटा... टीआरपी बढ़ेगी ।‘‘
निश्चित ही मीडिया का विस्तार सभी ओर तेजी से हो रहा है। अखबारों की संख्या और उनकी प्रसार संख्या में बहुमुखी बढ़ोत्तरी हुई है। रेडियों स्टेशनों की संख्या और उनके प्रभाव-क्षेत्रों के फैलाव के साथ-साथ एफ़एम रेडियो एवं अन्य प्रसारण फल-फूल रहे हैं। स्थानीय, प्रादेशिक और राष्ट्रीय चैनलों की संख्या भी बहुत बढ़ी है। यह सूचना क्रांति और संचार क्रांति का युग है, इसलिए विज्ञान और तकनीक के विकास के साथ इनका फैलाव भी स्वाभाविक है। क्योंकि जन-जन में नया जानने की उत्सुकता और और जागरूकता बढ़ी है।
यह सब अच्छी बात है, लेकिन चौंकाने वाली और सर्वाधिक चिंता की बात यह है कि टीवी चैनलों में आपसी प्रतिस्पर्धा अब एक खतरनाक मोड़ ले रही है। अपने अस्तित्व के लिए और अपना प्रभाव-क्षेत्र बढ़ाने के लिए चैनल खबरें गढ़ने और खबरों के उत्पादन में ही लगे हैं। अब यह प्रतिस्पर्धा और जोश एवं दूसरों को पछाड़ाने की मनोवृत्ति घृणित रूप लेने लगी है। अब टीवी चैनल के कुछ संवाददाता दूर की कौड़ी मारने और अनोखी खबर जुटाने की उतावली में लोगों को आत्महत्या करने तक के लिए उकसाने लगे हैं। आत्महत्या के लिए उकसाकर कैमरा लेकर घटनास्थल पर पहुंचने और उस दृश्य को चैनल पर दिखाने की जल्दबाजी तो पत्रकारिता नहीं है। इससे तो पत्रकारिता की विशवसनीयता ही समाप्त हो जाएगी, पर क्या करें बात तो सनसनी और टीआरपी की है। खबरों का उत्पादन अगर पत्रकार करें तो यह दौड़ कहां पहुंचेगी? सनसनीखेज खबरों के उत्पादन की यह प्रवृत्ति आजकल कुछ अति उत्साहित और शीघ्र चमकने की महत्वाकांक्षा वाले पत्रकारों में पैदा हुई है। प्रतिस्पर्धा करने के जोश में वे परिणामों की चिंता नहीं करते। ऐसे गुमराह पत्रकार कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं। पूरे परिवार को आत्महत्या के लिए उकसाना या रेहडीवालों को जहर खाने की सलाह देना अथवा भावुकता एवं निराशा के शिकार किसी व्यक्ति को बहुमंजिला इमारत से छलांग लगाने के लिए कहना और ऐसे हादसे दर्षाने के लिए कैमरा लेकर तैयार रहना स्वस्थ पत्रकारिता और इंसानियत के खिलाफ है।
इसी तरह स्टिंग आपरेशन के प्रयोग भी होते हैं। निश्चित ही स्टिंग आपरेशन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मीडिया द्वारा स्वीकृत पत्रकारिता है। हां, वह किस मकसद से हो रही है यह विचारणीय मुद्दा है। स्टिंग आपरेशन गलत चीजों के प्रति लोगों को आगाह करता है। ऐसे में चंद स्वार्थ प्रेरित आपरेशन न सिर्फ स्टिंग आपरेशन के मकसद, बल्कि उसकी महत्ता को ही खत्म कर देंगे। सबसे बड़ी बात कि सरकार को इसकी आड़ में इलैक्ट्रानिक चैनलों की आवाज दबाने का मौका मिल जाएगा। यह जिम्मेदारी चैनल की ही बनती है कि वह स्टिंग आपरेशन की पवित्रता और मकसद से भटके नहीं। टीआरपी की दौड़ में अपनी विश्वसनीयता नहीं खोए। ब्रेकिंग न्यूज के नाम पर भी एक खेल सा चल रहा है। मैं व्यक्तिगत स्तर पर इस बारे में यही कहना चाहूंगा कि चैनल को गंभीरता के साथ सोचना होगा और फिर दिखाना होगा कि ब्रेकिंग न्यूज वास्तव में है क्या।
इन दिनों कुछ खबरिया चैनल मिथक कथाओं को ऐसे पेश करते नजर आते हैं जैसे वे सच हों। वे उसे आस्था और विशवास का मामला बनाकर पेश करते हैं। खबर को आस्था बना ड़ालना प्रस्तुति का वही सनसनीवादी तरीका है। सच को मिथक और मिथक को सच में मिक्स करने के आदी मीडिया को विजुअल की सुविधा है। दृष्य को वे संरचना न कहकर सच कहने के आदी हैं। यही जनता को बताया जाता है कि जो दिखता है वही सच है। सच के निर्माण की ऐसी सरल प्रविधियां पापुलर कल्चर की प्रचलित परिचित थियोरीज के सीमांत तक जाती हैं जिनमें सच बनते-बनते मिथक बन जाता है। मिथक को सच बनाने की एक कला अब बन चली है। अक्सर दृष्य दिखाते हुए कहा जाता है कि यह ऐसा है, वैसा है। हमने जाके देखा है। आपको दिखा रहे हैं। प्रस्तुति देने वाला उसमें अपनी कमेंटरी का छोंक लगाता चलता है कि अब हम आगे आपको दिखाने जा रहे हैं... पूरे आत्मविष्वास से एक मीडिया आर्कियोलॉजी गढ़ी जाती है, जिसका परिचित आर्कियोलॉजी अनुशासन से कुछ लेना-देना नहीं है। इस बार मिथक निर्माण का यह काम प्रिंट में कम हुआ है, इलैक्ट्रानिक मीडिया में ज्यादा हुआ है। प्रस्तुति ऐसी बना दी जा रही है कि जो कुछ पब्लिक देखे उसके होने को सच माने।
जबसे चैनल स्पर्धात्मक जगत में आए हैं तबसे मीडिया के खबर निर्माण का काम कवरेज में बदल गया है। चैनलों में, अखबारों में स्पर्धा में आगे रहने की होड़ और अपने मुहावरे को जोरदार बोली से बेचने की होड़ रहती है। ऐसे में मीडिया प्रायः ऐसी घटना ही ज्यादा चुनता है जिनमें एक्शन होता है। विजुअल मीडिया और अखबारों ने खबर देने की अपनी शैली को ज्यादा भड़कदार बनाया है। उनकी भाषा मजमे की भाषा बनी है ताकि वे ध्यान खींच सकें। हर वक्त दर्षकों को खींचने की कवायद ने खबरों की प्रस्तुति पर सबसे ज्यादा असर डाला है। प्रस्तुति असल बन गई है। खबर चार शब्दों की होती है, प्रस्तुति आधे घंटे की, दिनभर की भी हो सकती है।
लोकतांत्रिक समाज में मीडिया वास्तव में एक सकारात्मक मंच होता है जहां सबकी आवाजें सुनी जाती हैं। ऐसे में मीडिया का भी कर्तव्य बन जाता है वह माध्यम का काम मुस्तैदी से करे। खबरों को खबर ही रहने दे, उस मत-ग्रस्त या रायपूर्ण न बनाये। ध्यान रखना होगा कि समाचार उद्योग, उद्योग जरूर है लेकिन सिर्फ उद्योग ही नहीं है। खबरें प्रोडक्ट हो सकती हैं, पर वे सिर्फ प्रोडक्ट ही नहीं हैं और पाठक या दर्षक खबरों का सिर्फ ग्राहक भर नहीं है। कुहासे में भटकती न्यूज वैल्यू का मार्ग प्रशस्त करके और उसके साथ न्याय करके ही वह सब किया जा सकता है जो भारत जैसे विकासशील देश में मीडिया द्वारा सकारात्मक रूप से अपेक्षित है। तब भारत शायद साक्षरता की बाकायदा फलदायी यात्रा करने में कामयाब हो जाए और साक्षरता की सीढ़ी कूदकर छलांग लगाने की उसे जरूरत ही न पड़े। लेकिन पहले न्यूज वैल्यू के सामने खड़े गहरे सनसनीखेज खबरों के धुंधलके को चीरने की पहल तो हो।
( लेखक जनसंचार विभाग के पूर्व छात्र हैं और जी 24 घंटे छत्तीसगढ़ के भोपाल संवाददाता हैं।)
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