Tuesday, March 29, 2011

Ind vs Pak match is back with a BANG



Anushri Sahu
BAMC II SEM,
Bhopal, 29 march 2011



The house no more echoes with the sarcastic remarks of the saas to the bahu in the daily sops. The privilege of holding the remote in their hands is back to the male members of the family. Another 10 year old falling in a bore well hole or a new fictitious ghost story are no more the prime time stories of the news channels. From metro cities to slums, from airplanes to autorickshaws, from the policeman to the watchman, all pairs of eyes are now glued to the television sets.
Yes, the much awaited Ind vs Pak match is back with a BANG! Whatever may be the condition around the world, Indians surely have taken a break from their hustle and bustle filled life. Wait! Did I say Indians have taken a break? This seems to be the busiest time in their lives, not to forget the Gods too.
All the 33 crore Gods and Goddesses are busy collecting prayers. Even the western culture influenced youths who earlier remembered the Gods only during exams have started taking notice of the strength of the Almighty.”Please God! Just let Sachin complete his 100th century in Ind-Pak match. I’ll offer Prasad at your temple tomorrow, I promise.” The Babus, usually seen loading their pockets with bribe or taking occasional naps in some corner of the office are now busy chewing paan in front of the TV and predicting the possibility of a 4 or 6 in the next over. Bidders are struggling hard guessing and betting on a team’s loss or victory. Poor board exam  stricken students who were earlier busy spending their preparation leaves sleeping, are now juggling hard to catch a glimpse of the scores without being caught by their parents. Ramu chaiwala has found a new opportunity of enhancing business, and has shifted his tea-stall to a crowded location jam packed with people watching TV with folded hands, open mouth and hungry stomach.”Who wants a chai?” Just one sentence is enough to drag the crowd to his stall. Hmm...That’s called business management. Ravi paperwala too has started selling his newspaper with additional updates about the previous match scores. Radio Jockeys with scarcity of content to speak finally heave a sigh of relief. So when Raj of My FM has nothing left to say, he starts muttering out the score updates and the people are nothing but glad to hear them.
So, did I say India has taken a break from work? In a country where cricket is religion, Sachin and Dhoni are Gods and the opponent team holds the position of devils in the eyes of the common man, this is the right time to get back to work. If not now, then when are we supposed to preach the love for work to the countrymen? The cricket mania is powerful enough to bring the whole snoring nation back on their toes. This season is the perfect one to promote the notion of ‘work is worship.’ Let’s make the best use of this time. If cricket has played the alarm clock of the nation, why not make an effort to keep this alarm ringing so that the country doesn’t fall into another slumber? Team India is doing a pretty good and noble job. Hope they continue their breath-taking and motivating performance, at least for the welfare of their loving nation.

Tuesday, March 22, 2011

उर्दू पत्रकारिता के भविष्य पर केंद्रित होगा मीडिया विमर्श का अगला अंक

भोपाल, 22 मार्च। देश में उर्दू पत्रकारिता का एक महत्वपूर्ण स्थान रहा है। आजादी के आंदोलन से लेकर भारत के नवनिर्माण में उर्दू के पत्रकारों एवं उर्दू पत्रकारिता ने अपना योगदान देकर एक बड़ा मुकाम बनाया है। आज जबकि देश की तमाम भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता प्रगति कर रही है और अपने पाठक वर्ग का निरंतर विस्तार कर रही है किंतु उर्दू पत्रकारिता इस दौड़ में पिछड़ती दिख रही है।
नए जमाने की चुनौतियों और अपनी उपयोगिता के हिसाब से ही भाषाएं अपनी जगह बनाती हैं। ऐसे में उर्दू पत्रकारिता के सामने क्या चुनौतियां हैं, वह किस तरह स्वयं को संभालकर आज के समय को संबोधित करते हुए जनाकांक्षाओं की पूर्ति कर सकती है- इन प्रश्नों पर बातचीत बहुत प्रासंगिक है।
पिछले पांच सालों से सतत प्रकाशित देश की चर्चित मीडिया पत्रिका ‘मीडिया विमर्श’ अपना अगला अंक ‘उर्दू पत्रकारिता का भविष्य’ पर केंद्रित कर रही है। इस अंक के अतिथि संपादक प्रख्यात उर्दू पत्रकार एवं लेखक श्री तहसीन मुनव्वर होगें। उम्मीद है इस बहाने हम उर्दू पत्रकारिता के भविष्य और वर्तमान को सही तरीके से रेखांकित किया जा सकेगा। इस अंक के लिए लेखक अपनी रचनाएं 15 अप्रैल,2011 तक भेज सकते हैं। अंक से संबंधित किसी जानकारी के लिए पत्रिका के कार्यकारी संपादक संजय द्विवेदी के फोन नंबर-09893598888 अथवा उनके ई-मेल 123dwivedi@gmail.com पर बातचीत की जा सकती है। संजय द्विवेदी का पता है- संजय द्विवेदी, अध्यक्ष, जनसंचार विभाग, माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, प्रेस काम्पलेक्स, एमपी नगर, भोपाल-462011

Saturday, March 19, 2011

होली की हार्दिक शुभकामनाएं



जनसंचार विभाग के सभी विद्यार्थियों, पूर्व विद्यार्थियों,कर्मचारियों और अध्यापकों की ओर से आप सबको होली की रंगारंग शुभकामनाएं।

Friday, March 18, 2011

सोशल नेटवर्किंग को संस्कारों का माध्यम बनाएं

पत्रकारिता विश्वविद्यालय में नए मीडिया की उपयोगिता पर हुआ विमर्श

भोपाल,17 मार्च।
माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में सोशल नेटवर्किगं पर आयोजित संवाद में सहभागियों ने फैसला किया है कि वे विश्वविद्यालय के मंच से नए मीडिया के लिए शब्दावली का विकास तो करेंगे ही साथ ही अंग्रेजी शब्दावली में भी सही अर्थ देने वाली शब्दावली का प्रस्ताव करेंगें। संवाद का यह भी फैसला है कि सोशल नेटवर्किंग को सूचनाओं के साथ संवाद, संस्कार और संबंध का माध्यम बनाने का प्रयास किया जाएगा। साथ ही इस माध्यम को अनुभवी लोगों के द्वारा एक अनौपचारिक कक्षा के रूप में भी स्थापित किया जाना चाहिए। कुछ प्रतिभागियों का कहना था कि विश्वविद्यालय को मीडिया के आनलाइन पाठ्यक्रमों की भी शुरूआत करनी चाहिए।
विश्वविद्यालय परिसर में आयोजित इस एक दिवसीय सेमीनार में देश के अनेक हिस्सों से आए लोगों ने दिन भर इस ज्वलंत विषय पर चर्चा करते हुए सोशल नेटवर्किंग के प्रभावों का जिक्र किया। कार्यक्रम का उदधाटन करते हुए विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने कहा कि आज टेक्नालाजी के माध्यम से जितने परिवर्तन पिछले एक दशक में हुए उतने शायद ही मानव जीवन में हुए हों। एक दशक के परिवर्तन पूरे मानव जीवन पर भारी है। उन्होंने जोर देते हुए कहा कि इंटरनेट की टेक्नालाजी ने मनुष्य के जीवन में बल्कि सृष्टि के अंतरसंबध में परिवर्तन कर दिया है जिसके नकारात्मक प्रभाव सामने आ रहे हैं। उन्होंने अपने विचार व्यक्त करते हुए आगे कहा कि इस नई टेक्नालाजी का प्रयोग मानवता के हित में होना चाहिए। भविष्य में इसका उपयोग क्या होगा, इसकी दशा व दिशा को तय करना होगा। आज दुनिया के एक छोटे से वर्ग ने प्रकृति द्वारा दिए गए संवाद पर एकाधिकार को कर लिया है जो उसकी व्यापकता को संकुचित कर लिया है।
सामाजिक कार्यकर्ता मनमोहन वैद्य ने कहा कि मनुष्य अपनों से दूर होता जा रहा है और उसे जोड़ने की जरूरत है। सोशल नेटवर्किंग का रचनात्मक इस्तेमाल किया जाए तो इसके लाभ पाए जा सकते हैं। प्रो. देवेश किशोर (दिल्ली) ने अपने संवाद व्यक्त करते हुए कहा कि आज हमें टेक्नालाजी का इतना अभ्यस्त नहीं हो जाना चाहिए कि समाज में संकुचित होकर जीवन यापन करें। जयपुर से आए संजय कुमार ने कहा कि नेटवर्किंग ने जहां लोगों को पास लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। वहीं इसने व्यक्ति के सामाजिक पहलू को जबरदस्त तरीके से प्रभावित किया है। वहीं रायपुर से आए डा. शाहिद अली ने कहा कि आज सूचना प्रौद्योगिकी में जो परिवर्तन हो रहे है उसमें व्यावासायिक लाभ निहित है। जो नए दौर की जो लहर चल रही है, वह हमारे सामाजिक दायित्वों को पीछे धकेल रही है।
वहीं संवाद में हिस्सा ले रहे पत्रकारिता विभाग के व्याख्याता लाल बहादुर ओझा ने कहा कि वर्तमान समय में लोग सोशल नेटवर्किंग साइट का प्रयोग टाइमपास करते हुए रोजमर्रा की बातें आपस में बॉट रहे है। वहीं उन्होंन सोशल नेटवर्क की सार्थकता पर बल देते हुए कहा कि इस नई टेक्नालाजी ने परम्परागत माध्यम के लिए नई जगह खोजी है जिसका बहुलता से इस्तेमाल किया जाना चाहिए। वहीं पत्रकार ओम प्रकाश गौड़ ने रोजमर्रा हो रहे इसके नकारात्मक प्रयोग का जिक्र करते हुए कहा कि सोशल नेटवर्किंग को नैतिकता से नहीं जोड़ा गया तो यह विनाशकारी भी हो सकती है। उन्होंने कहा कि आज वर्तमान समय में संवाद भी बाजार से अछूता ना रह सका यह बेहद दुख का विषय है।
इस अवसर पर डा. मानसिंह परमार (इंदौर), प्रशांत पोल (जबलपुर) रेक्टर प्रो. सीपी अग्रवाल, प्रो. आशीष जोशी, सुरेंद्र पाल, रविमोहन शर्मा, डा.मोनिका वर्मा, उर्वशी परमार, नरेंद्र जैन, डा. श्रीकांत सिंह, पुष्पेंद्रपाल सिंह, सुनीता द्विवेदी, डा. पवित्र श्रीवास्तव ने भी अपने विचार रखे। मंच का संचालन कार्यक्रम की संयोजक डा. पी. शशिकला ने किया।

Saturday, March 12, 2011

छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह से मिले संजय सर


रायपुर। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह को मीडिया विमर्श की प्रति भेंट करते हुए पत्रिका के कार्यकारी संपादक एवं माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विवि, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी। इस अंक की आवरण कथा है घोटालों का गणतंत्र। इस अंक में सर्वश्री विजयबहादुर सिंह, वर्तिका नंदा, श्रीकांत सिंह, गिरीश पंकज, प्रफुल्ल विदवई, संजय कुमार, कीर्ति सिंह, अरूंधती राय, सुशील त्रिवेदी, वीरेंद्र कुमार व्यास, आशुतोष मंडावी, प्रभु जोशी, कैलाश नाथ पाण्डेय, शाहिद अली, केसी मौली, रघुराज सिंह आदि के लेख प्रकाशित किए गए हैं।

Friday, March 11, 2011

सरकार में दृढ़ संकल्प का अभाव


नक्सलियों से निपटने की रणनीति अस्पष्ट

-कुन्दन पाण्डेय
उड़ीसा के मलकानगिरि जिले के जिलाधिकारी आर विनित कृष्णा और कनिष्ठ अभियंता पवित्र मांझी को नक्सलियों ने अंततोगत्वा सशर्त रिहा कर दिया। फरवरी 2011 के आखिरी सप्ताह में इन दोनों की सशर्त रिहाई से नक्सलियों के हौसलें दुस्साहसिक वारदात करने के लिए और बुलन्द हो गए हैं। बासदारा डिविजनल कमेटी (स्थानीय नक्सली) प्रमुख आजाद द्वारा जारी पोस्टरों में कोरापुट क्षेत्र में मंत्रियों, नेताओं व बीजद नेताओं के प्रवेश पर सजा-ए-मौत देने की घोषणा की गयी है। कोरापुट क्षेत्र में नवरंगपुर, रायगड़ा, मलकानगीरी व कोरापुट जिले आते हैं। अतिवादी सशस्त्र हिंसक नक्सली आन्दोलन सन् 1967 में पं. बंगाल के दार्जिलिंग जिला स्थित नक्सलबाड़ी गाँव से पनपा था। आज यह भारत के 640 जिलों में से 20 राज्यों के 232 जिलों के तकरीबन 2000 थाना क्षेत्रों तक फैल चुका है, जो कि देश का लगभग 40 प्रतिशत है।

नक्सल उन्मूलक आपरेशन ग्रीन हंट तो पहले से ही सुरक्षा बलों के मरने का आपरेशन बनता जा रहा है। छत्तीसगढ़ जिले में 76 जवानों का नरसंहार इसका ज्वलंत उदाहरण है। परन्तु उड़ीसा के इन 4 जिलों में तो माओवादियों ने मंत्रियों, विधायकों व नेताओं के प्रवेश पर पाबंदी लगाकर समानांतर सरकार चलाने की पूरी तैयारी कर ली है। केन्द्र व प्रदेश सरकारों का नक्सलियों की इन चुनौतियों पर जमीनी रुप से कोई स्पष्ट और गंभीर रुख नहीं है। सिवाय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह व गृहमंत्री पी चिदम्बरम के कई बार नक्सली हिंसा को देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा एवं गंभीर खतरा बताने के। नक्सलियों से ग्रस्त राज्यों में यदि आंध्रप्रदेश में इसके नियंत्रित होने को छोड़ दिया जाय तो अन्य किसी राज्यों में ये नियंत्रण में नहीं है। उड़ीसा सरकार तो 9 दिनी बंधक संकट में नक्सलियों के सामने पूरी तरह नतमस्तक नजर आयी। छत्तीसगढ़ सरकार की नयी जंगल ट्रेनिंग एवं कैम्प जैसी ठोस रणनीति का जमीनी क्रियान्वयन होना अभी शेष है, साथ ही भ्रष्टाचार व आदिवासियों पर हो रहे जुल्मों को भी रोकने में सरकार लगातार अक्षम साबित होती जा रही है।

नक्सली समस्या का समाधान नहीं होने का प्रमुख कारण यह है कि सभी राजनीतिक दल नक्सलियों को आदिवासियों व मजदूरों का वास्तविक व सच्चा प्रतिनिधि मानते हैं और उन्हें डर है कि नक्सलियों पर कार्रवाई करने से उनका वोटबैंक कम हो जायेगा और वे चुनाव हारने लगेंगे। लेकिन वास्तविकता यह है कि नक्सलियों का गरीबों, आदिवासियों व मजदूरों की लड़ाई से कोई लेना-देना नहीं है और न ही इन तबकों में नक्सलियों की कोई गहरी पैठ है। यह तथ्य इस बात से प्रमाणित होता है कि नक्सली वर्तमान में प्रत्येक परिवार से एक बच्चे को जबरन अपने काडर में भर्ती कर रहे हैं।

वास्तव में नक्सली देश की सत्ता, माओ दर्शन, “सत्ता बंदूक की नली से मिलती है ” की विचारधारा पर चलकर हथियाना चाहते हैं। लेकिन नक्सली यह भूल जाते हैं कि भारत में लोकतंत्र की जड़े उनकी समझ से परे बहुत व्यापक रुप से गहरी हैं। पिछले 60 सालों में भारतीय लोकत्रंत ने चार युद्धों और सन् 1975 में गृहयुद्ध सरीखे आपातकाल का सफलतापूर्वक सामना किया है। नक्सलियों ने विदेशी हथियारों व मदद के बल पर पं. बंगाल से कर्नाटक तक एक “रेड़ कॉरिड़ोर” बनाया है। जिसमें पूर्वोत्तर के विकास न कर पाये अलगाववादी हिंसा से ग्रस्त राज्य शामिल नहीं हैं।

क्या नक्सली तथाकथित रेड कॉरिडोर के बाहर के पूर्वोत्तर के राज्यों के विकास से संतुष्ट हैं ? नहीं, लेकिन ऐसी बात नहीं है। उन्हें विकास नहीं बल्कि बंदूक के दम पर भारत की सत्ता चाहिए। यदि बंदूक की क्षमता से ही सत्ता का फैसला करना माओवादियों को हर हाल में मंजूर है तो सरकार की बंदूक माओवादियों से कई गुना अधिक क्षमतावान है, जो उनकी बंदूकों को अत्यल्प समय में खामोश कर देगी। माओवादियों को हिंसा का रास्ता छोड़ कर अविलम्ब सरकार से बातचीत करना ही होगा अन्यथा सरकार उनको समाप्त कर देगी।

विकास से नक्सलियों का कोई लेना-देना नहीं है इसलिए नक्सली विकास के सभी आधारों स्कूल, कॉलेज, अस्पताल, पुल, सड़क तथा कानून व व्यवस्था को बनाये रखने के लिए अपरिहार्य पुलिस थानों तक को बम से उड़ाकर के कैसा विकास चाहते है? दरअसल नक्सलग्रस्त राज्यों में यदि विकास हो गया ,पर्याप्त रोजगार, स्कूल, कॉलेज, अस्पताल पुल व सड़क की सुविधा हो गयी तो नक्सली अपने काडर में किसकी भर्ती करेगें? इसलिए नक्सली विकास के सभी आधारों को नष्ट करके वंचित लोगों को दुःखी, जिल्लत, बेबस व लाचार बनाये रखने को कृतसंकल्पित हैं जिससे उन्हें लक्ष्य प्राप्ति तक मानव संसाधन पर्याप्त रुप से मिलता रहे।

गरीबों, आदिवासियों, मजदूरों, भूमिहीन ग्रामीणों के समर्थन का दम्भ भरने वाले नक्सली चुनावों में विजयी होकर, अपनी विचारधारा की सरकार बनाकर छत्तीसगढ़, झारखण्ड जैसे आदिवासी बहुल राज्यों का विकास क्यों नहीं करते? वास्तविकता व सच का सामना नक्सली चुनावों में इसलिए नहीं करना चाहते क्योंकि उन्हें भय है कि कहीं हमारी पोल न खुल जाय कि हमारी पैठ केवल बुलेट के भय से है, इंसानी दिलों में तो पैठ है ही नहीं। दूसरा कारण यह है कि एक किसी राज्य विशेष के चुनावों में करारी हार के बाद नक्सली उस राज्य में समाप्त ही हो जायेंगे।

नक्सली बौद्धिक रूप से दरिद्र प्रतीत हो रहे हैं क्योंकि श्रेष्ठतम उदात्त लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उसके साधन भी श्रेष्ठ होने चाहिए, यह महात्मा गाँधी का कथन है। नक्सलियों को इस लोकतंत्र को कृतज्ञता ज्ञापित करनी चाहिए कि लोकतांत्रित शासन प्रणाली के कारण ही लोग उसके पक्ष में लेख लिखते हैं, धरना-प्रदर्शन करते हैं। माओ विचारधारा वाले चीनी शासन ने अपने शिनझियांग प्रांत के विद्रोह को जैसे कुचल डाला, वह नक्सलियों और भारत सरकार दोनों के लिए स्मरणीय है। सरकार के लिए इस कारण कि वह उसी तरह से नक्सलियों का सफाया कर दे और नक्सलियों के लिए इस कारण कि वह या तो हिंसा का रास्ता छोड़कर बातचीत करके राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल हो जाय या तो सुरक्षा बलों द्वारा कुचले जाने को तैयार रहें।

एक बात शीशे की तरह एकदम साफ है कि भारतीय लोकतंत्र में हिंसा का कोई स्थान नहीं है। पिछले 60 वर्षों के लोकतांत्रिक इतिहास में भारत में एक भी सशस्त्र आन्दोलन सफल नहीं हुआ है। नक्सलियों को हिंसा का रास्ता छोड़ना ही होगा। भारत सरकार नक्सलियों के सामने घुटने टेकने से पूर्व भारतीय सेना का प्रयोग एक बार अवश्य करेगी जिसमें सारे नक्सली अवश्य ही मारे जायेंगे।

आज राजनीतिक दलों की रुचि “ग्रासरुट पॉलिटिक्स” में नहीं रही। किसी राजनीतिक दल के नेता और कार्यकर्ता अब सुदूर गाँवों, पिछड़े आदिवासी इलाकों में नहीं जाते। उनके बीच केवल नक्सली ही जाते हैं इसलिए बेरोजगार युवक नक्सली काडर बन रहे हैं। नक्सलियों की ताकत छुपी है वंचितों में, शोषितों में, गाँवों में, गरीबों में। व्यवस्थागत अन्याय और भ्रष्टाचार उनकी असीम ऊर्जा के अजस्र स्रोत हैं। उनके रहनुमा अपने कामकाज, दृष्टि और विचारधारा में न केवल आज के नेता-नौकरशाह-सरकारी नौकर से अधिक स्पष्ट है बल्कि कट्टर-बर्बर-हिंसक भी हैं। वे जानते है कि उनकी ताकत है – गहराती, फैलती सामाजिक आर्थिक विषमता। पर नक्सली सबसे बड़ी ऐतिहासिक भूल कर रहे हैं कि वे भारतीय लोकतंत्र में हिंसा से बदलाव चाहते है। वर्तमान भारतीय परिदृश्य में यह एकदम असम्भव है।

यह सही है कि आज की व्यवस्था में भ्रष्टाचार मुद्दा नहीं रहा, नैतिक सवाल नहीं रहा, यहाँ तक तो ठीक है परंतु भ्रष्टाचार आज की व्यवस्था में एक शिष्टाचार बनता जा रहा है, यह व्यवस्था की सबसे बड़ी खामी है। पर दुनिया भर के विशेषज्ञ एक सुर में कह रहे हैं कि विकास के रास्ते में भ्रष्टाचार सबसे बड़ा रोड़ा है। झारखंड में भ्रष्टाचार की स्थिति अत्यंत स्तब्धकारी है। नक्सली इस नाजुक मुद्दे को उठाते हैं।

अगर नक्सलियों के खिलाफ सरकार वास्तव में निर्णायक अभियान चलाना चाहती है तो उसे अपनी सोच, नीति, कार्यान्वयन, चाल-चरित्र आदि में गुणात्मक परिवर्तन अवश्य करना होगा। दरअसल नक्सली समस्या से निपटने के लिए एक उत्कृष्ट लोकतांत्रिक राजनीति चाहिए, जो जनता के प्रति प्रतिबद्ध, नैतिक, पारदर्शी व ईमानदार हो। यह काम सरकार और राजनीतिक दल ही कर सकते हैं, परंतु वर्तमान टरकाउ-प्रधान कार्यप्रणाली से यह कतई संभव नहीं लगता।

Wednesday, March 9, 2011

‘छत्तीसगढ़ के विकास में मीडिया की भूमिका’ विषय पर संगोष्ठी


मीडिया विमर्श के आयोजन में बोले दिग्गज पत्रकार और राजनेता
राज्य गठन के बाद अपनी भूमिका से चूकी पत्रकारिताः तिवारी

रायपुर। वरिष्ठ पत्रकार बसंतकुमार तिवारी का कहना है कि छत्तीसगढ़ जैसे पिछड़े इलाके में जागरूकता और विकास के काम दरअसल पत्रकारिता के सक्रिय हस्तक्षेप से ही संभव हो पाए। यहां तक कि राज्य निर्माण के लिए कोई प्रभावी आंदोलन न होने के बावजूद भी यह राज्य बना तो इसका श्रेय भी यहां के स्थानीय पत्रकारों और अखबारों को है। वे मीडिया विमर्श (जनसंचार के सरोकारों पर केंद्रित त्रैमासिक पत्रिका) द्वारा आयोजित संगोष्ठी ‘छत्तीसगढ़ के विकास में मीडिया की भूमिका’ विषय पर अपने विचार व्यक्त कर रहे थे। कार्यक्रम का आयोजन रायपुर प्रेस क्लब के सभागार में किया गया था।
श्री तिवारी ने कहा कि मैने अपने जीवन में पत्रकारिता के साठ साल पूरे कर लिए हैं और उस अनुभव के आधार पर यह कह सकता हूं कि जब मैने पत्रकारिता शुरू की तब रायपुर में अकेला दैनिक महाकौशल निकलता था। वे काफी संघर्ष के दिन थे, किंतु इससे होकर ही छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता ने एक मुकाम हासिल किया है। पत्रकारिता और छत्तीसगढ़ क्षेत्र दोनों का विकास एक दूसरे से जुड़ा हुआ है।
उन्होंने कहा छत्तीसगढ़ की आरंभिक पत्रकारिता ने मुद्दों को पहचानने, जानने और जनाकांक्षाओं को स्वर देने का काम किया था। उन्होंने साफ कहा कि छत्तीसगढ़ राज्य किसी आंदोलन से नहीं बना, जैसा कि झारखंड या उत्तराखंड में हुआ। इस राज्य के गठन का श्रेय सबसे ज्यादा किसी को है तो यहां की पत्रकारिता को, जिसने इस भूगोल के सवालों को यहां की अस्मिता और विकास से जोड़ दिया। किंतु राज्य के गठन के बाद पत्रकारिता को जैसी भूमिका इस राज्य के निर्माण में अदा करनी चाहिए, उसे वह नहीं निभा पा रही है।
कृषि और उद्योग का संतुलन जरूरीः
देशबंधु के संपादक रहे वयोवृद्ध पत्रकार श्री तिवारी ने कहा कि छत्तीसगढ़ आदर्श राज्य तभी बनेगा जब कृषि और उद्योग का संतुलन बनेगा। खनिजों और वनसंपदा का नियंत्रित दोहन होगा और भूमि विकास के लिए तेज काम होगा। उनका सुझाव था कि अब राज्य में निजी उद्योगों को आने से रोका जाना चाहिए और केवल सार्वजनिक उद्योगों को ही राज्य में आने की अनुमति दी जानी चाहिए। मीडिया को संतुलित विकास के लिए शासन और उद्योगों पर दबाव बनाना होगा। वरना आने वाली पीढ़ियां हमें माफ नहीं करेंगीं।
संसाधनों का हो सही इस्तेमालः
कार्यक्रम के मुख्यवक्ता बख्शी सृजनपीठ के अध्यक्ष बबनप्रसाद मिश्र ने कहा कि भ्रष्टाचार से ही हर योजना असफल होती है। विकास, नेतृत्व की मानसिकता और कर्तव्यनिष्ठा से जुड़ा सवाल है। संसाधनों का सही इस्तेमाल और नियोजन समय की आवश्यक्ता है। इन दस सालों में बहुत कुछ होना था जो नहीं हो पाया। आज भी छत्तीसगढ़ में दो-तीन फसलें लेने की परंपरा नहीं बन पा रही है। लोग बीमारियों से मर रहे हैं। उनका सुझाव था देश का 42 प्रतिशत वन क्षेत्र हमारे पास है, इसे देखते हुए वनोपजों पर आधारित लघु उद्योगों का विकास होना चाहिए। जिससे स्थानीय जनों को काम मिल सके। कोसा से लेकर आदिवासी शिल्प, बस्तर आर्ट और कलाओं का एक वैश्विक बाजार है जिसे इस तरह से विकसित किया जाए कि सीधा लाभ आम आदमी को मिले। नवभारत के प्रबंध संपादक रहे श्री मिश्र ने साफ कहा कि पत्रकारिता पुलिस का रोजनामचा नहीं है। जनता के दुख-दर्द की अभिव्यक्ति बनने में ही उसकी मुक्ति है। कलम की शक्ति का रचनात्मक उपयोग जरूरी है। उन्होंने कहा कि छत्तीसगढ़ पावर हब तो बन गया है, परंतु जलसंरक्षण के लिए हमारा कर्तव्य शेष है। श्री मिश्र ने कहा कि तेजी से खुलती शराब दुकानें नौजवानों को नष्ट कर रही हैं। जो क्षेत्र वनौषधियों का क्षेत्र होने के कारण आयुर्वेदिक दवाओं के निर्माण का केंद्र बन सकता है वह नकली दवाओं के लिए मशहूर हो रहा है।
आज भी मीडिया पर भरोसा कायमः
कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि छत्तीसगढ़ बालअधिकार आयोग के अध्यक्ष यशवंत जैन का कहना था कि राज्य को बनाने और इस क्षेत्र को विकसित बनाने की आकाक्षाएं निश्चित ही मीडिया ने जगाई हैं। अब जरूरत इस बात की है मीडिया राज्य के विकास और नवनिर्माण में एक सजग प्रहरी की तरह काम करे। समय का सच लोगों के सामने आना चाहिए। युवा इस राज्य की ताकत हैं पर वे नशाखोरी से खराब हो रहे हैं। मीडिया के सामाजिक सरोकार ही इस राज्य को एक आदर्श राज्य बना सकते हैं। क्योंकि राज्य में आज भी लोग मीडिया पर भरोसा करते हैं।
विकास में मीडिया की भूमिका स्वयंसिद्धः
संगोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे छत्तीसगढ़ बीज एवं कृषि विकास निगम के अध्यक्ष श्याम बैस ने कहा कि किसी भी क्षेत्र के विकास में मीडिया की भूमिका स्वयंसिद्ध है। वह जनता और शासन दोनों के बीच सेतु ही नहीं बल्कि मार्गदर्शक की भूमिका में है। सकारात्मक और प्रेरणा देने वाले तमाम काम भी समाज जीवन में हो रहे हैं, मीडिया के द्वारा उन्हें सामने लाया जा सकता है। इससे समाज में एक सही वातावरण बनेगा। सब कुछ खत्म नहीं हुआ है यह भाव भी लोगों में पैदा होगा। समाज की शक्ति के जागरण से ही छत्तीसगढ़ की तकदीर और तस्वीर बदली जा सकती है।
शासन की कमियां बताए मीडियाः
मुख्यअतिथि छत्तीसगढ़ शासन में वनमंत्री और आदिवासी नेता विक्रम उसेंडी ने कहा कि यह जरूरी है मीडिया शासन की कमियों की तरफ इशारा करे। इससे सुधार और विकास की संभावनाएं बढ़ती हैं। नए बने तीनों राज्यों (झारखंड, उत्तराखंड और छत्तीसगढ़) में छत्तीसगढ़ सबसे आगे है। यह आशाएं जगाता है। बावजूद इसके बहुत कुछ करने की जरूरत है। राज्य के तमाम दूरस्थ इलाकों की खबरें मीडिया के माध्यम से ही सामने आती हैं। तमाम इलाकों से जब ये खबरें आती हैं तो शासन भी सक्रिय होता है और समस्या का समाधान भी होता है। उन्होंने कहा कि वामपंथी उग्रवाद एक बड़ी समस्या है उसके समाधान के बाद छत्तीसगढ निश्चय ही सबसे शांत, सुंदर और समृध्द राज्य बन जाएगा।
पत्रकारों का सम्मानः
इस अवसर पर छत्तीसगढ़ के तीन वरिष्ठ पत्रकारों सर्वश्री बसंतकुमार तिवारी, बबनप्रसाद मिश्र और उदंती पत्रिका की संपादक डा. रत्ना वर्मा का शाल, श्रीफल और प्रतीक चिन्ह देकर वनमंत्री विक्रम उसेंडी ने सम्मान किया। साथ ही मीडिया विमर्श के ताजा अंक (घोटालों का गणतंत्र) का विमोचन भी किया गया।
अर्जुन सिंह को श्रद्धांजलिः
संगोष्ठी प्रारंभ करने से पूर्व मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री एवं दिग्गज कांग्रेस नेता अर्जुन सिंह, शिवकुमार शास्त्री, बिलासपुर के पत्रकार सुशील पाठक और महासमुंद के पत्रकार उमेश राजपूत को दो मिनट मौन रहकर भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की गयी।
आरंभ में स्वागत भाषण पत्रिका के प्रबंध संपादक प्रभात मिश्र ने किया एवं आभार प्रदर्शन हेमंत पाणिग्राही ने किया। संचालन छत्तीसगगढ़ कालेज में हिंदी की प्रोफेसर डा. सुभद्रा राठौर ने किया। कार्यक्रम के अंत में अतिथियों को स्मृति चिन्ह प्रख्यात लेखिका जया जादवानी ने भेंट किए।
कार्यक्रम में रायपुर के अनेक प्रबुद्ध नागरिक, साहित्यकार एवं पत्रकार उपस्थित थे जिनमें प्रमुख रूप से छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक-कवि विश्वरंजन, मीडिया विमर्श के कार्यकारी संपादक संजय द्विवेदी, छत्तीसगढ़ हज कमेटी के अध्यक्ष डा. सलीम राज, छत्तीसगढ़ हिंदी ग्रंथ अकादमी के निदेशक रमेश नैयर, दीपकमल के संपादक पंकज झा, सृजनगाथा डाटकाम के संपादक जयप्रकाश मानस, फिल्मकार तपेश जैन, महानदी वार्ता के संपादक अनुराग जैन, कार्टून वाच के संपादक त्र्यंबक शर्मा, भाजपा नेता और पार्षद सुभाष तिवारी, वरिष्ठ पत्रकार जागेश्वर साहू, डा. राजेश दुबे, नागेंद्र दुबे, शास्वत शुक्ला, अनिल तिवारी, सुनील पाल, बबलू तिवारी, प्रदीप साहू, किशन लोखंडे के नाम उल्लेखनीय हैं।

Thursday, March 3, 2011

साहित्य और पत्रकारिता में निकट का नाता : प्रो. सारस्वत

भोपाल, 3 मार्च। साहित्य और पत्रकारिता में गहरा संबंध है। देश में पत्रकारिता का आरंभ भी साहित्य के उद्देश्यों को ही नए माध्यम और नए रूप में प्रस्तुत करने के लिए हुआ था। पत्रकारिता का धर्म वास्तव में संस्कृति की रक्षा करना है। उक्त बातें सुविख्यात साहित्यकार प्रो. ओमप्रकाश सारस्वत ( शिमला) ने माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग में आयोजित व्याख्यान में कहीं।
उन्होंने कहा कि दुर्भाग्य से आज की पत्रकारिता साहित्य के पवित्र उद्देश्यों को छोड़कर गलत रास्तों पर चल पड़ी है। अर्थ प्रमुख हो गया है और बाकी सारे आदर्श व्यर्थ हो गए हैं। भारतीय संस्कृति की वैश्विक दृष्टि पर बाजार हावी हो गया है। खबर वस्तु बन गई है। इसे बेचा व खरीदा जा रहा है। प्रो. सारस्वत ने कहा कि पत्रकारिता में विदुर नीति चलनी चाहिए थी जबकि शकुनि की नीति चल रही थी। ऐसी पत्रकारिता सनसनीखेज तो हो सकती है पर वह हमारे देश और समाज के लिए घातक है। आज संस्कारवान पत्रकारिता की आवश्यता है जो देश की वास्तविक समस्याओं को उजागर करे उसके आदर्श समाधान बताए। आज बाढ़ के समय सेक्स स्टोरी छापने वाले पत्र- पत्रिकाओं पर नियंत्रण की आवश्यकता है। इसे बाजारवाद की अंधी दौड़ से बाहर निकालने की जरुरत है। उन्होंने यह भी कहा कि पत्रकारिता के पाठ्यक्रमों में सांस्कृतिक मूल्यों को सम्मिलित करने की जरूरत है। सब कुछ बुरा नहीं हो रहा बल्कि कुछ अच्छा हो रहा है उसे प्रेरित करना आवश्यक है। कार्यक्रम का संचालन विभाग के व्याख्याता सुरेंद्र पॉल ने किया। इस अवसर पर दूरदर्शन के समाचार संपादक मनीष गौतम, पीएन द्विवेदी, डा. मोनिका वर्मा, अभिजीत वाजपेयी सहित विभाग के शिक्षक व छात्र-छात्राएं उपस्थित रहे।