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Tuesday, November 16, 2010

शब्द-बाणों का राजनैतिक संग्राम




प्रो. बृज किशोर कुठियाला
कुलपति
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता,
एवं संचार विश्वविद्यालय,

भोपाल,16 नवंबर,2010


शब्द तो ब्रह्म ही है, परन्तु कुछ लोग शब्दों को भ्रम बना लेते हैं। हमारे देश के एक प्रतिष्ठित राजनेता ने पिछले दिनों एक अन्य उभरते हुए राजनेता को गंगा में फेंक देने की घोषणा की। वैसे तो भारतीय संस्कृति में गंगा मोक्ष का द्वार है और गंगा की शरण में जो भेजे उसे शुभचिंतक ही मानना चाहिए। परन्तु जिस संदर्भ में यह वाक्य कहा गया उसके आगे व पीछे नकारात्मकता ही थी, इसलिए गंगा में फेंक देने का अर्थ यह लगाया गया कि श्री राहुल गांधी को राजनीति से विदाई दे देनी चाहिए। सार्वजनिक संवाद में इस तरह की घोषणाएं उचित हैं या अनुचित यह तो श्रोता, पाठक व दर्शक स्वयं तय करेंगे। परन्तु विरोधियों के बीच में संवाद की मर्यादाएं तो राजनीतिज्ञ ही तय करेंगे।
कश्मीर के विषय पर एक सुप्रसिद्ध अंतरराष्ट्रीय सम्मान प्राप्त लेखिका एवं सामाजिक कार्यकर्ता का बयान आजकल आम चर्चा का विषय है। लगभग पूरा का पूरा सामाजिक संवाद बयान के विरोध में है। परन्तु उसी सभा में लेखिका ने अपने देश की जो व्याख्या की वह भी भ्रमित मस्तिष्क की द्योतक है। लेखिका ने अपने देश को ‘भूखे नंगों का देश’ कहा। एक अर्द्ध सदी से पूर्व भारत की ऐसी व्याख्या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रचलित थी। उस दौर में फ़िल्मकार पैसा फेंकते और जब ग़रीब उस पैसे को उठाने के लिये छीना झपटी करते थे तो उसकी फ़िल्म बनाकर देश विदेश में भारत की छवि का निर्माण करते थे, पर आज ऐसा नहीं है। भारतीय अर्थशास्त्रियों और कूटनीतिज्ञों से अधिक विदेशी विशेषज्ञों का मानना है कि भारत में जो पिछले 60 वर्षों में विकास किया है, वह अद्वितीय है, क्योंकि यह विकास प्रजातंत्र के वातावरण में हुआ है।
आज भारत के करोड़ों युवक-युवतियाँ पूरे विश्व में अनेक तरह के तकनीकी व सृजनात्मक कार्यों में लगे हैं। आम समृद्धि बढ़ी है, देश में नवसृजन का वातावरण चारों ओर है। कुछ भूख और नंगापन भी है, परन्तु हमारी दृष्टि कहाँ है ? क्या विकास की सकारात्मकता को प्रसारित करके सुख और प्रेरणा का वातावरण बनाना है या निर्धनता को असफलताओं के भ्रम के रूप में प्रस्तुत करना है। लेखिका में कहीं न कहीं दृष्टि-दोष है। पाक अधिकृत कश्मीर के लोगों पर फौजी अत्याचार और मानवाधिकारों का उल्लंघन उन्हें नहीं दिखता है और शहीद सैनिकों के शव उन्हें कुछ ही जातियों के दिखते हैं। वे चश्मा भी पहनती है, परन्तु खोजी पत्रकारिता का विषय यह होना चाहिए कि उनका चश्मा कहाँ बना है ? और उसके लैंस किस रंग के हैं ? उनका बचपन कैसा था ? और किस प्रकार से उन्हें ‘बुकर सम्मान’ मिला। यह भी सामान्य जन को पता लगाना चाहिए।
शब्दों का ब्रह्म होना या भ्रम होना, बोलने व सुनने वालों पर तो निर्भर है ही परन्तु संदर्भ भी महत्वपूर्ण होता है। भारत के एकमात्र फ़ील्ड मार्शल ज. मानेक शा ने पाकिस्तानी सेना के लिए अँगरेज़ी के शब्द ‘बैन्डीक्यूट्स’ का प्रयोग किया था। उनसे पाकिस्तान सेना की बढ़ती हुई संख्या के बारे में पूछा गया था। यह शब्द अधिक प्रचलित नहीं है और अधिकतर लोगों ने इसे शब्द कोष में देखा। ‘बैन्डीक्यूट्स’ वो जंगली चूहे हैं जो खेतों में पाये जाते हैं। शब्द ने ब्रह्म होने को सिद्ध किया और भ्रम की कोई गुंज़ाइश नहीं है। इसी तरह से लाल बहादुर शास्त्री ने ‘जय जवान, जय किसान’ की घोषणा करके सारे देश को एक माला में पिरो दिया था। श्रीमती इंदिरा गांधी ने ‘ग़रीबी हटाओ’ का नारा देकर राष्ट्र के सम्मुख एक केन्द्रित उद्देश्य रखा था और कई वर्षों तक योजना बनाकर इस लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयास हुआ। परन्तु राजनीति के ही कुछ खिलाड़ियों ने ग़रीबी शब्द से आखरी ‘ई’ की मात्रा हटाकर शब्दों का भ्रम पैदा कर दिया।
हिटलर ने शब्द जाल बिछाकर ही उस समय की जर्मन जनता को इतना भ्रमित कर दिया था कि उन्हें हिटलर ही ब्रह्म है का भ्रम हो गया। उनके जनसम्पर्क मंत्री गोयबल्स तो शब्दों के भ्रम के विशेषज्ञ थे। बार-बार असत्य बोलने से भ्रम भी सत्य के रूप में स्थापित हो जाता है के सिद्धांत का उन्होंने बख़ूबी प्रयोग किया। आज भी इस सिद्धांत के प्रयोग के कई उदाहरण सामने आते हैं। गांधी की हत्या में एक विशेष संस्था का हाथ नहीं है, यह कई बार न्यायालयों में सिद्ध हो चुका है, परन्तु राजनीति के खेल में इस असत्य को भी कई बार दायित्ववान राजनीतिज्ञ प्रयोग करते रहे हैं। हमारी दृष्टि का रंग कोई भी हो परन्तु भगवा रंग को आंतकवाद से जोड़ना भी एक भ्रम जाल बुनने का ही प्रयास लगता है।
ऐसा नहीं है कि शब्दों का दुरूपयोग हर बार जानबूझकर ही होता हो, हाल ही में एक भारतीय उदघोषक ने अल्पज्ञानी होने के कारण अफ्रीका के एक देश के विषय में अपमानजनक टिप्पणी कर दी। परन्तु समय रहते उसने अपनी ग़लती को माना और देश के प्रतिष्ठित व्यक्ति को क्षमा मांगनी पड़ी। आस्ट्रेलिया के एक टेलीविजन उद्घोषक ने भारतीय खिलाड़ी के बारे में अपमानजनक शब्दों का प्रयोग किया और उसे अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा। एक भूतपूर्व मंत्री ने तो राष्ट्रमण्डल खेलों के असफल होने की कामना सार्वजनिक रूप से कर डाली। वह महानुभाव आज अपने ही शब्दों के घाव सहला रहे हैं।
आधुनिक मानव समाज में तो शब्दों का अंतरताना हर समय अधिक से अधिक गहन हो रहा है। पूरा का पूरा मीडिया शब्दों का ही खेल है। चित्र होने के बावजूद भी शब्दों के बिना संचार व संवाद की स्थिति नहीं बनती। छोटे समूहों में सार्वजनिक वार्ता भी मीडिया के द्वारा विश्वव्यापी हो जाती है और एक शब्द का बाण अनेकों घाव करता है। शब्द मरहम का भी काम करते हैं। स्वामी रामकृष्ण परमहंस के शब्दों ने बालक नरेन्द्र के उद्वेलित मन को शान्त किया और विवेकानन्द का जन्म हुआ। डॉक्टर व वैद्य के आशावादी शब्द ‘दवाई’ से अधिक प्रभावकारी हो जाते हैं। बुद्धिशील व्यक्ति शब्दों के द्वारा समाज में सुख, सहयोग और समरसता सजाता है और यदि बुद्धि कम हुई या भ्रमित हुई तो अपने ही साथी को गंगा में फेंकने का विचार आता है और अपना ही देश भूखा नंगा नजर आता है।
किसी भी समाज में शब्दों को तीखे चुभते और विध्वंशकारी बाणों के रूप में प्रयोग करने वाले लोग तो रहेंगे ही, परन्तु क्या इन शब्द बाणों को प्रचालित व प्रसारित कर उनकी घाव बनाने की क्षमता को कई गुणा वृद्धि करने का प्रयास मीडिया को करना चाहिए ? कहीं न कहीं मीडिया को समाज का ध्यान तो रखना ही पडेगा कि वह अधिक भ्रमित व्यक्तियों द्वारा प्रसारित जहरीले शब्दों को सम्पादित करे या उनका वितरण करे?

Monday, November 1, 2010

मीडिया की आचार संहिता बनाएगा पत्रकारिता विश्वविद्यालय



माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल की महापरिषद की बैठक में कई महत्वपूर्ण फैसले


- डा. नंदकिशोर त्रिखा, प्रो. देवेश किशोर, रामजी त्रिपाठी और आशीष जोशी बने प्रोफेसर
भोपाल, 1 नवंबर, 2010।

माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल की पिछले दिनों सम्पन्न महापरिषद की बैठक में कई महत्वपूर्ण निर्णय लिए गए। महापरिषद के अध्यक्ष और प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की अध्यक्षता में हुयी इस बैठक का सबसे बड़ा फैसला है मीडिया के लिए एक आचार संहिता बनाने का। इसके तहत विश्वविद्यालय मीडिया और जनसंचार क्षेत्र के विशेषज्ञों के सहयोग से तीन माह में एक आचार संहिता का निर्माण करेगा और उसे मीडिया जगत के लिए प्रस्तुत करेगा। पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो.बीके कुठियाला के कार्यकाल की यह पहली बैठक है, जिसमें विश्वविद्यालय को राष्ट्रीय स्वरूप देने के लिए महापरिषद ने अपनी सहमति दी और कहा है कि इसे मीडिया, आईटी और शोध के राष्ट्रीय केंद्र के रूप में विकसित किया जाए।
नए विभाग- नई नियुक्तियां- विश्वविद्यालय में शोध और अनुसंधान के कार्यों को बढ़ावा देने के लिए संचार शोध विभाग की स्थापना की गयी है। जिसके लिए प्रोफेसर देवेश किशोर की संचार शोध विभाग में दो वर्ष के लिये प्रोफेसर के पद पर नियुक्ति का फैसला लिया गया है। इस विभाग में मौलिक शोध व व्यवहारिक शोध के कई प्रोजेक्ट डॉ. देवेश के मार्गदर्शन में चलेंगें। प्रोफेसर (डॉ.) नंदकिशोर त्रिखा की दो वर्ष के लिये सीनियर प्रोफेसर पद पर नियुक्ति की गयी है। अगले दो वर्ष में डॉ. त्रिखा के मार्गदर्शन में मीडिया की पाठ्यपुस्तकें हिन्दी व अंग्रेजी में लिखी जाएंगी। इस काम को अंजाम देने के लिए विश्वविद्यालय में अलग से पुस्तक लेखन विभाग की स्थापना होगी। इसी तरह विश्वविद्यालय में प्रकाशन विभाग की स्थापना की गयी है। जिसमें प्रभारी के रूप में वरिष्ठ पत्रकार एवं पीपुल्स समाचार के पूर्व स्थानीय संपादक राधवेंद्र सिंह की नियुक्ति की गयी है, विभाग में सौरभ मालवीय को प्रकाशन अधिकारी बनाया गया है। अल्पकालीन प्रशिक्षण विभाग की स्थापना की गयी है, जिसके तहत श्री रामजी त्रिपाठी, केन्द्रीय सूचना सेवा (सेवानिवृत्त), पूर्व अतिरिक्त महानिदेशक, प्रसार भारती (दूरदर्शन) की दो वर्ष के लिये प्रोफेसर के पद पर अल्पकालीन प्रशिक्षण विभाग में नियुक्ति की गयी है। श्री त्रिपाठी जिला और निचले स्तर के मीडिया कर्मियों के लिये प्रशासन में कार्यरत मीडिया कर्मियों के लिये व वरिष्ठ मीडिया कर्मियों के लिये प्रशिक्षण व कार्यशालाओं का आयोजन करेंगे। इसी तरह श्री आशीष जोशी, मुख्य विशेष संवाददाता, आजतक की इलेक्ट्रॉनिक मीडिया विभाग में प्रोफेसर के पद पर नियुक्ति की गयी है। श्री आशीष जोशी, भोपाल परिसर में टेलीविजन प्रसारण विभाग में कार्यरत रहेंगे।
टास्क कर्मचारियों को दीपावली का तोहफा- विश्वविद्यालय में कार्यरत दैनिक वेतन पाने वाले लगभग 85 कर्मचारियों के वेतन में 25 प्रतिशत वृद्धि करने का फैसला किया गया है। इसी तरह शिक्षकों के लिए ग्रीष्मकालीन व शीतकालीन अवकाश की व्यवस्था भी एक बड़ा फैसला है। अब तक विश्वविद्यालय में जाड़े और गर्मी की छुट्टी (अन्य विश्वविद्यालयों की तरह) नहीं होती थी। आपात स्थिति के लिये 10 करोड़ रूपये का कार्पस फंड बनाया गया है , जिसमें हर वर्ष वृद्धि होगी। शिक्षक कल्याण कोष की स्थापना भी की गयी है। इसके अलावा चार प्रोफेसर, आठ रीडर व आठ लेक्चरार (कुल 20) अतिरिक्त शैक्षणिक पदों का अनुमोदन किया गया है, जिसपर विश्वविद्यालय नियमानुसार नियुक्ति की प्रक्रिया शुरू करेगा।
बनेगा स्मार्ट परिसरः विश्वविद्यालय के लिये भोपाल में 50 एकड़ भूमि पर ‘‘ग्रीन’’ व ‘‘स्मार्ट’’ परिसर बनाने के कार्यक्रम की शुरूआत की जाएगी। जिसके लिए भवन निर्माण शाखा की स्थापना भी की गयी है।
आगामी दो वर्षों में टेलीविजन कार्यक्रम निर्माण, नवीन मीडिया, पर्यावरण संवाद, स्पेशल इफैक्ट्स व एनीमेशन में श्रेष्ठ सुविधाओं का निर्माण के लिए यह परिसर एक बड़े केंद्र के रूप में विकसित किया जाएगा। इसके साथ ही आगामी पांच वर्षों में आध्यात्मिक संचार, गेमिंग, स्पेशल इफैक्ट्स, एनीमेशन व प्रकृति से संवाद के क्षेत्रों में अंतरराष्ट्रीय पहचान बनाने की तैयारी है।इस बैठक में प्रबंध समिति के कार्यों व अधिकारों का स्पष्ट निर्धारण भी किया गया है। बैठक में महापरिषद के अध्यक्ष मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, जनसंपर्क मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा, कुलपति प्रो. बीके कुठियाला, रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर के कुलपति प्रो. रामराजेश मिश्र, वरिष्ठ पत्रकार राधेश्याम शर्मा (चंडीगढ़), साधना(गुजराती) के संपादक मुकेश शाह, विवेक (मराठी) के संपादक किरण शेलार, सन्मार्ग- भुवनेश्वर के संपादक गौरांग अग्रवाल, स्वदेश समाचार पत्र समूह के संपादक राजेंद्र शर्मा, काशी विद्यापीठ के प्रोफेसर राममोहन पाठक, दैनिक जागरण भोपाल के संपादक राजीवमोहन गुप्त, जनसंपर्क आयुक्त राकेश श्रीवास्तव, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के सलाहकार अशोक चतुर्वेदी, विश्वविद्यालयय के रेक्टर प्रो.चैतन्य पुरूषोत्तम अग्रवाल, नोयडा परिसर में प्रो. डा. बीर सिंह निगम शामिल थे।

Saturday, October 30, 2010

विद्या से आएगी समृद्धि: प्रो. कुठियाला



विद्यार्थियों ने मनाया दीपावली मिलन समारोह
भोपाल, 30 अक्तूबर 2010

लक्ष्मी और सरस्वती आपस में बहनें ही हैं। यदि विद्या है तो धन और समृद्धि अपने आप ही प्राप्त हो जाएंगी। पत्रकारिता में सरस्वती की अराधना से ही लक्ष्मी भी प्रसन्न होंगी। दीपावली का पर्व मर्यादा पुरुषोत्तम राम के आगमन को याद करने के साथ उनके आदर्शों को जीवन में अपनाने का संकल्प लेने का अवसर है। उक्त बातें माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने विवि के जनसंचार विभाग द्वारा आयोजित दीपावली मिलन सामारोह में कही।
प्रो. कुठियाला ने विश्वविद्यालय प्रशासन तथा स्वयं की ओर से विद्यार्थियों को दीपावली की शुभकामनाएँ देते हुए अपील की कि विद्यार्थी कोर्स समाप्त होने के बाद जब पत्रकारिता करें तो मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के आदर्शों को ध्यान में रखकर करें ताकि दीपावली की प्रासंगिकता युगों-युगों तक कायम रहे। वर्तमान में मीडिया जगत में पाँव पसार रहे सुपारी पत्रकारिता व पेड-न्यूज संस्कृति से पत्रकारिता को मुक्त करने की आवश्यकता है। उन्होंने हनुमान जी को विश्व का पहला खोजी पत्रकार बताया। जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने विद्यार्थियों को दीपावली की शुभकामनाएं देते हुए कहा कि पूरा विश्व आज भारत की ओर आशा भरी नजरों से देख रहा है। हमें उनकी आशाओं पर खरा उतरने के लिए रामराज्य को धरती पर उतारने की आवश्यता है। इसके लिए भारत में सुख, समृद्धि, एकता और अखंडता का वातावरण बनाना होगा। तभी, दीपावली का पर्व भी सार्थक होगा। शिक्षिका मोनिका वर्मा ने विद्यार्थियों को घर जाकर आनंद से दीपावली मनाने की शुभकामनाएँ दी और कहा कि जब वापस आएँ तो पूरी लगन से पढ़ाई करें ताकि सारा जीवन दीपावली की खुशियाँ मनाएँ।
समारोह में दीपावली की पौराणिक कथाओं के बारे में बताते हुए छात्र देवाशीष मिश्रा ने बताया कि यह बुराइयों पर अच्छाइयों की जीत की खुशी मनाने का पर्व है। छात्रा श्रेया मोहन ने दीपावली के बाद बिहार-झारखण्ड में विशेष रूप सें मनाए जाने वाल छठ-पर्व पर प्रकाश डाला। कार्यक्रम में विद्यार्थियों ने गीत-गायन व कविता पाठ भी किया। शाहीन बानो ने एक हास्य कविता का पाठ कर सबका मन मोह लिया वहीं संजय ने राजस्थानी लोकगीत पधारो म्हारो देश गाकर सबको राजस्थान आने का निमंत्रण दिया। छात्रा मीमांसा ने एक सुंदर कृष्ण-भजन का गायन किया। कार्यक्रम का संचालन अंशुतोष शर्मा व शिल्पा मेश्राम ने किया। इस अवसर पर विभाग के शिक्षक संदीप भट्ट, शलभ श्रीवास्तव, कर्मचारीगण तथा समस्त छात्र-छात्राएँ उपस्थित थे।

Wednesday, October 20, 2010

सामाजिक बदलाव के माध्यम बन सकते हैं हमारे उत्सव




-प्रो. बृजकिशोर कुठियाला
भोपाल, 20 अक्टूबर 2010

अक्टूबर का महीना त्यौहारों व उल्लास का समय है। चारों तरफ आस्था- पूजा संबंधी आयोजन हो रहे हैं और पूरा समाज भक्तिभाव में डूबा हुआ है। न केवल मंदिरों में बाजारों और मोहल्लों में भी स्थान-स्थान पर नवरात्रों के उपलक्ष्य में दुर्गा, लक्ष्मी व सरस्वती की आराधना से वातावरण चौबीसों घंटे गूंजता है। समाज का लगभग हर व्यक्ति, कुछ कम कुछ ज्यादा इन कार्यक्रमों में हिस्सा लेता है। सामाजिक उल्लास व सार्वजनिक सहभागिता का ऐसा उदाहरण और कहीं मिलता नहीं है। बच्चे, किशोर, युवा, वृद्ध, स्त्री, पुरूष, मजदूर, किसान, व्यापारी, व्यवसायी सभी इन सामाजिक व धार्मिक कार्यों में स्वयं प्रेरणा से जुड़े हैं। इन कार्यक्रमों के आयोजन के लिए और लोगों की सहभागिता के लिए कोई बहुत बड़े विज्ञापन अभियान नहीं चलते, छोटे या बड़े समूह इनका आयोजन करते है और स्वयं ही व्यक्ति और परिवार दर्शन -पूजन के लिए आगे आते हैं। कहीं भी न तो सरकारी हस्तक्षेप है और ना ही प्रशासन का सहयोग। उत्तर से दक्षिण, पूर्व से पश्चिम सभी महानगरों, नगरों और गांवों में धार्मिक अनुष्ठानों की गूंज है।
केवल यह अक्टूबर में होता है ऐसा नहीं है, पूरे वर्ष छोटे या बड़े अंतराल से कुछ न कुछ आस्था व पूजा संबंधी कार्यक्रम पूरे देश में चलते रहते हैं। वर्ष में दो बार तो रोजों का ही चलन है, दो बार नवरात्रों में 20 दिन के लिए समारोह होते हैं। अक्टूबर के नवरात्रों का अन्त दशहरे के विशाल आयोजन से होता है और दिवाली के 20 दिनों की गिनती प्रारंभ हो जाती है। ईदज्जुहा पर भी सामूहिकता का परिचय होता है। बीच में करवा चौथ का त्यौहार पड़ता है जो कहने के लिए तो महिलाओं के लिए है परन्तु पूरा परिवार ही उसमें उत्साहित होता है। हर पति करवा चौथ के दिन सामान्य से अधिक प्रेम व महत्व प्राप्त करता है, जिससे पारिवारिक संबंध दृढ़ होते हैं। दिसम्बर में क्रिसमस, जनवरी में लोहड़ी, फरवरी में शिवरात्रि, मार्च में फिर से नवरात्र व होली, अप्रैल में वर्ष प्रतिप्रदा, गुड फ्रायडे व बाद में जन्माष्टमी, रक्षाबंधन और इसी तरह सिलसिला चलता रहता है। संक्रांति, अमावस्या, पूर्णिमा यह सभी हमारे समाज में कुछ न कुछ महत्व रखते हैं और अनुष्ठान, सरोवरों में नहाने आदि की अपेक्षा रखते है।
इन पारंपरिक उत्सवों का रूप और भव्यता दिन पर दिन बढ़ती जा रही है और विशेष कर युवा वर्ग तो इनका आनंद सर्वाधिक लेता है। इसकी तुलना में स्वतंत्रता के बाद तीन राष्ट्रीय पर्वों में जनता की सहभागिता लगभग नगण्य है। गणतंत्र दिवस ( 26 जनवरी) तो केवल सरकारी कार्यक्रम बनकर रह गया है। स्वतंत्रता के प्रारंभिक वर्षों में दिल्ली व अन्य प्रान्तों की राजधानियों में झांकियों आदि के कार्यक्रम होते थे और उसमें लोग उत्साह से जाते थे परन्तु वह उत्साह लगभग समाप्त हो गया है और ये कार्यक्रम केवल प्रशासनिक स्तर पर मनाये जाते हैं और जिनको उनमें होना आवश्यक है वही जाते है। इनमें आम जनता की उपस्थिति कम होती जा रही है। स्वतंत्रता दिवस यानि 15 अगस्त का भी यही हाल है। गणतंत्र दिवस और 15 अगस्त के दिन राष्ट्रीय ध्वज यदि घर-घर पर दिखता, तो कह सकते थे कि आम व्यक्ति की भावना इन उत्सवों से जुड़ी है परन्तु ये दोनों दिन एक अवकाश के रूप में तो स्वागत योग्य होते है, परन्तु इनके महत्व को जानकर सामूहिक कार्यक्रमों का ना होना चिन्ता का विषय है। इसी प्रकार गांधी जयन्ती के दिन औपचारिक कार्यक्रम तो गांधी जी से संबंधित संस्थानों में हो जाते हैं परन्तु आम व्यक्ति गांधी को स्मरण कर उनके प्रति श्रद्धा भाव प्रकट करे ऐसा होता नहीं है। 30 जनवरी को प्रातः 11.00 बजे सायरन तो बजता है परन्तु कितने लोग उस समय मौन होकर गांधीजी को श्रृद्धांजलि देते हैं, यह सब जानते ही हैं। राष्ट्रीय उत्सवों में सहभागिता नहीं होने का अर्थ यह नहीं है कि समाज में राष्ट्रभाव की कमी है, परन्तु इन उत्सवों का सामाजिक चेतना से सम्बन्ध नहीं बन पाया है। इनके कारण एकता और समरसता का वातावरण नहीं हुआ है।
हमारे समाज के पारंपरिक उत्सवों में भी बहुत परिवर्तन आये हैं, झांकियों में आधुनिक प्रौद्योगिकी का प्रयोग करके उनको अधिक आकर्षक बनाया जाता है, कलाकार मूर्तियों को गढ़ने में नित नए-नए प्रयोग करते हैं, गीतकार नए शब्दों, भावों व धुनों से खेलते हैं, गायक गीतों को आम आदमी के गुनगुनाने वाले गानों में बदलते हैं। अब तो इवेन्ट प्रबंधन के कई व्यवसायी संस्थान इन कार्यक्रमों का दायित्व लेते हैं। दांडियां व गरबा जिस प्रकार गुजरात से निकलकर पूरे देश में प्रचलित हो रहा है यह इस बात का द्योतक है कि आम भारतीय उत्सव प्रिय है व समारोहों में स्वप्रेरणा से सहभागिता करने का उसे शौक है। ऐसा इसलिए है कि हर त्यौहार व पूजन का कहीं न कहीं आम आदमी से जीवन की अपेक्षाओं से संबंध है। हर त्यौहार का कोई न कोई सामाजिक उद्देश्य भी है जो कहीं न कहीं इतिहास और परम्पराओं से भी जुड़ता है। जहां होली पूरे समाज को एक रस करती है उसमें सत्य की विजय का भी भाव है। दशहरा समाज की विध्वंसकारी शक्तियों के नाश का द्योतक है और दिवाली परिवारों में वापसी का त्यौहार।
इन सभी त्यौहारों का संबंध भूतकाल में होते हुए भी इनकी प्रासंगिकता वर्तमान की परिस्थितियों से भी है। हजारों या सैकड़ों वर्ष पूर्व समाज में जो घटा उससे मिलता जुलता आज के समाज में भी हो रहा है। दशरथ के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए रावण ने वनों में आश्रमों पर आक्रमण करने के लिए अपने साथियों को भेजा, जिससे दशरथ के राज्य का संबंध उन ऋषि- मुनियों से टूट जाए जहां से राज्य की नीतियों का निर्धारण होता था। आज का आतंकवाद और माओवाद भी इसी श्रेणी में आते हैं। विश्वामित्र सरीखे न तो बुद्धिजीवी आज हैं और न ही अपने प्रिय पुत्रों को राक्षसों के संहार के लिए भेजने का का साहस करने वाले प्रशासक। वास्तव में तो संकल्प शक्ति ही नहीं है। विजयादशमी को आतंक के विरोध में दृढ़ संकल्प का रूप दिया जा सकता है। ऐसा करने से समाज का सहयोग देश के अंदर की अराष्ट्रीय शक्तियों से निपटने के लिए किया जा सकता है। केवल भावनात्मक संवेदनाओं को पुनः परिभाषित करने की आवश्यकता है।इसी प्रकार होली को सामाजिक समरसता के उत्सव के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास होना चाहिए जिससे कि जाति, वर्ण व गरीबी अमीरी का भेद मिटकर समाज राष्ट्र बोध के रंग में ही रंग जाए। पश्चिम व कई अन्य प्रभावों के कारण आज देश में परिवारों का विघटन हो रहा है और सामाजिक भीड़ में व्यक्ति अकेला होता जा रहा है। सर्वमान्य है कि यह समाज के लिए घातक है। करवाचौथ, रक्षाबंधन व भाईदूज जैसे त्यौहार है जिनको फिर से परिवार, विशेषकर संयुक्त, परिवार की स्थापना के लिए प्रयोग किया जा सकता है। रोजे व नवरात्र व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास के साधन हैं, उन्हें इस रूप में और प्रचारित करने की भी आवश्यकता है। स्वतंत्रता दिवस व गणतंत्र दिवस राष्ट्र के प्रति बार-बार समर्पण के त्यौहार होने चाहिए जहां व्यक्ति प्रान्त और क्षेत्र से ऊपर उठकर राष्ट्र की सोच से जुड़े। गांधी जयंती के दिन समाज अहिंसा का पाठ तो पढ़े ही, परन्तु गांधी द्वारा स्वदेशी के आग्रह को वैश्वीकरण के संदर्भ में व्यवहारिक रूप में लाने की प्रेरणा भी ले। त्यौहारों के इस देश में उत्सव न केवल सामाजिक परिवर्तन के द्योतक है परन्तु वे सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक विकास के साधन भी हैं। करोड़ों के विज्ञापनों के द्वारा जो मानसिक परिवर्तन नहीं हो पाता है वह इन त्यौहारों के माध्यम से सहज ही होगा। इस बात के प्रमाण भी हैं, देश के पश्चिमी भाग में गणेश पूजन के कारण सामाजिक क्रांति लाई गई थी। राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय मार्केटिंग के प्रयास इन त्यौहारों में बखूबी होते है और वस्तुओं व सेवाओं को बेचने का काम प्रभावी रूप से होता है। यदि ये व्यापारिक कार्य हो सकता है तो सामाजिक कार्य इन त्यौहारों के माध्यम से अवश्य ही हो सकता है। केवल मन बनाकर योजनाबद्ध प्रयास करने की आवश्यकता है।
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के कुलपति हैं)

संपर्कः कुलपति, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, प्रेस काम्पलेक्स, एमपी नगर, भोपाल (मप्र)

Thursday, October 14, 2010

बेहतर शासन के लिए जरूरी है सकारात्मक संचार : प्रो. कुठियाला


एमआईटी स्कूल आफ गर्वमेंट के छात्रों ने किया पत्रकारिता विश्वविद्यालय का भ्रमण

भोपाल 14 अक्टूबर। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला का कहना है कि समाज को अगर सकारात्मक दिशा देनी है तो जरुरी है कि शासन और संचार दोनों की प्रकृति भी सकारात्मक हो। मीडिया और शासन समाज के दिशावाहकों में से एक हैं। इसलिए इनको अपने व्यवहार और कार्यप्रणाली में सकारत्मकता रखना बेहद जरुरी है।
वे यहां विश्वविद्यालय परिसर में शैक्षणिक भ्रमण के अन्तर्गत भोपाल आए पुणे स्थित एमआईटी स्कूल ऑफ गर्वमेंट के विद्यार्थियों को सम्बोधित कर रहे थे। प्रो. कुठियाला ने छात्रों को मीडिया की मूलभूत जानकारी देते हुए कहा कि दोनों संस्थानों का मूल उद्देश्य समान है, जहाँ एमआईटी का उद्देश्य बेहतर शासन प्रणाली के लिए अच्छे राजनेता पैदा करना है, वहीं पत्रकारिता विश्वविद्यालय का उद्देश्य केवल पत्रकार बनाना नहीं बल्कि विद्यार्थियों को अच्छा संचारक बनाना भी है। ताकि वे समाज के मेलजोल और सदभाव के लिए काम करें। प्रो. कुठियाला ने विश्वविद्यालय की कार्यप्रणाली, उद्देश्य एवं लक्ष्यों के बारे में भी विद्यार्थियों को अवगत कराया। एक प्रश्न के जबाब में उन्होंने कहा व्यवसायीकरण और व्यापारीकरण में अन्तर पहचानना बेहद जरूरी है। किसी भी वस्तु या सेवा के व्यवसायीकरण में बुराई नहीं है, समस्या तब शुरू होती है जब उसका व्यापारीकरण होने लगता है। वर्तमान मीडिया, इसी स्थिति का शिकार है। संवाद पर आधारित इस क्षेत्र का इतना व्यापारीकरण कर दिया गया है कि सूचना अब भ्रमित करने लगी है, उकसाने लगी है। उन्होंने कहा कि वर्तमान समय में मीडिया की जिम्मेदारी केवल मीडिया के लोगों पर छोड़ना ज्यादती होगी, इसलिए जरूरी है कि समाज के अन्य वर्ग भी मीडिया से जुड़ी अपनी जिम्मेदारी समझे एवं निभाएं। कार्यक्रम के प्रारंभ में एमआईटी, पुणे के छात्रों ने अंगवस्त्रम और प्रतीक चिन्ह देकर प्रो. कुठियाला का स्वागत किया। इस अवसर पर विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी , जनसंपर्क विभाग के अध्यक्ष डॉ. पवित्र श्रीवास्तव, डा. जया सुरजानी, गरिमा पटेल एवं कई शिक्षक उपस्थित रहे। संचालन एमआईटी संस्थान की शिक्षिका सीमा गुंजाल एवं आभार प्रदर्शन एमआईटी के ओएसडी संकल्प सिंघई ने व्यक्त किया।
(डा. पवित्र श्रीवास्तव)

Thursday, October 7, 2010

अयोध्या की समस्या के मूल में संवादहीनता


- प्रो. बृज किशोर कुठियाला
इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खण्डपीठ ने राम जन्मभूमि का जो निर्णय दिया उससे पूरे देश की जनता ने राहत की सांस ली है। फैसले से पूर्व का तनाव सभी के चेहरों और व्यवहार में था। परन्तु इस राहत के बाधित होने की संभावनाएं बनती नज़र आ रही हैं। 60 वर्ष से अधिक की नासमझी और विवेकहीनता के कारण एक छोटा सा विवाद पहाड़ जैसी समस्या बन गया है। उसी तरह की विवेकहीनता यदि आज भी रही तो सुलझी हुई समस्या फिर से उलझ जाएगी। कारण अनेक हो सकते हैं, परन्तु एक मुख्य कारण हमारे राष्ट्रजीवन में बढ़ती हुई संवादहीनता है। उच्च न्यायालय के निर्णय से तीन मुख्य पक्ष उभर कर आये हैं। एक पक्ष ने उच्चतम न्यायालय जाने की घोषणा की है। देश से अनेक प्रतिक्रियाएं आई हैं। परन्तु एक भी प्रतिक्रिया में यह सुझाव नहीं है तीनों पक्ष आपस में वार्ता करे। प्रधानमंत्री, केन्द्रीय गृहमंत्री और प्रदेश के मुख्यमंत्री तीनों की मुख्य जिम्मेदारी बनती है, उनमें से किसी ने भी न तो संवाद बनाने का प्रयास किया न ही संवाद का सुझाव दिया।
प्रबंधन शास्त्र का एक मूलभूत सिद्धान्त है कि समुचित संवाद से संस्थाओं और समूहों का स्वास्थ्य सुन्दर बना रहता है। छोटी-बड़ी संस्थाओं के लिए न केवल मिशन और उद्देश्यों के निर्धारण में वार्ता के महत्व को बताया गया है परन्तु तत्कालीन उद्देश्य भी यदि चर्चाओं के कारण आम सहमति से बने तो संस्थाएं विकासोन्मुख होती है। राष्ट्र जैसी सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक व्यवस्था में भी संवाद की अनिवार्यता सर्वमान्य है। परन्तु दुर्भाग्य यह है कि हमारे देश में औपचारिक य अनौपचारिक संवाद शून्य से थोड़ा ही अधिक है। यही कारण है कि छोटी-छोटी समस्याएं विकराल रूप ले लेती हैं। उदाहरण के लिए कश्मीर घाटी के मुसलमानों और उसी घाटी से विस्थापित कश्मीरी पंडितों के बीच पूर्ण संवादहीनता है। माओवादियों और सरकार के बीच वार्ता के छूट-मुट प्रयासों में कोई गंभीरता नज़र नहीं आती। यहा तक की देश को चलाने वाली मुख्य राजनीतिक पार्टियों में अधिकतर संवाद संसद और विधानसभाओं में ही बनता है जहां कोशिश एक दूसरे के दोष ढूंढने की होती है, न की वार्ता के द्वारा समस्याओं का हल ढूंढने की।
अयोध्या का मसला भी संवादहीनता का ही परिणाम है। मुगलों के कार्यकाल में ढांचा बनाते समय स्थानीय लोगों से वार्ता नहीं की। अयोध्या के मुस्लिमों और हिन्दुओं में इस विषय पर वार्ता का कोई दृष्टान्त नहीं है। अग्रेंजों ने जो वार्ताएं की वे समस्या को सुलझाने की नहीं थी बल्कि एक पक्ष के मन में दूसरे के प्रति बैर-भाव को बढ़ाने की थी। 1949 में मूर्तियां रखने में कोई वार्ता नहीं हुई। ताला लगाने और ताला खोलने के समय संबंधित पक्षों से परामर्श नहीं हुआ। एक समय ऐसा भी आया जब सारा देश अयोध्या की बात कर रहा था परन्तु सभी अपना-अपना बिगुल बजा रहे थे। सरकारी तौर पर कुछ वार्ताओं के नाटक तो हुए परन्तु कुल मिलाकर ऐसा परामर्श जिससे उलझन को मिटाना ही है, कभी नहीं हुआ। ढांचा गिरने के बाद भी विषय संबंधित शोर बहुत हुआ परन्तु संवाद शून्य रहा।
अन्य समस्याओं की तरह अयोध्या विषयक समाचार, विश्लेषण, टिप्पणियां और चर्चाएं मीडिया में अनेक आईं परन्तु उनके कारण से समाज में कोई संवाद बना हो ऐसा नहीं हुआ। टेलीविजन पर हुई चर्चाएं एक ओर तो पक्षधर होती है दूसरी ओर वार्ताओं में मतप्रकटीकरण और विवाद बहुत होता है परन्तु ऐसी कोई चर्चा नहीं होती जिसके अन्त में सभी एक मत होकर समस्या के हल की ओर चलते हों। ऐसा एक भी उदाहरण नहीं मिलता है जब टेलीविजन की वार्ता में किसी ने माना हो कि वह गलत था और उस चर्चा के परिणामस्वरूप अपना मत परिवर्तन करेगा। प्रबंधन शास्त्र में दिये गये चर्चा के द्वारा आम सहमति बनाने के संभी सिद्धान्तों की मीडिया में अवेहलना होती है। शंकराचार्य के वर्गीकरण के अनुसार टेलीविजन की चर्चाएं न तो संवाद हैं, न ही वाद-विवाद वे तो वितण्डावाद का साक्षात उदाहरण हैं।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अत्यन्त विवेकपूर्ण व व्यावहारिक फैसला देकर यह सिद्ध किया है कि देश की न्यायापालिका कम से कम समस्याओं का समाधान सुझाने में तो सक्षम है। परन्तु दिए गए सुझावों का क्रियान्वयन तो मुख्यतः केन्द्र सरकार को और कुछ हद तक राज्य सरकार को और देखा जाए तो सभी राजनीतिक दलों को करना है। निर्णय के बाद की प्रतिक्रियाओं से स्पष्ट होता है कि ऐसा प्रयास होने वाला नहीं है। जैसे कबूतर बिल्ली को देखकर आंख मूंद लेता है मानों बिल्ली है ही नहीं वैसे ही केन्द्र सरकार ने यह मन बना लिया है कि उच्चतम न्यायालय की शरण में ही किसी न किसी पक्ष को जाना है और कोई भी कार्यवाही करने के लिए तुरन्त कुछ करना नहीं है। क्या राष्ट्र की चिति इतनी कमजोर है कि तीनों पक्षों को बिठाकर आम सहमति न बन सके। संवाद शास्त्र का भी सिद्धान्त है कि संवादहीनता अफवाहों व गलतफहमियों को जन्म देती है जिससे संबंध खराब होते हैं और परिणामस्वरूप नई समस्याएं जन्म लेती है और पुरानी और उलझती है। इसी सिद्धान्त का दूसरा पहलू यह भी है ऐसी कोई समस्या नहीं है जिसे संवाद से सुलझाया न जा सके। इसलिए न केवल संवाद होना चाहिये परन्तु संवाद में ईमानदारी और समाजहित भी निहित होना चाहिए।
आज देश में ऐसी अनेक प्रयास होने चाहिए जो विभिन्न वर्गों, पक्षों और समुदायों में लगातार संवाद बनाए रखें। संवादशील समाज में समस्याओं की कमी तो होगी परन्तु यदि समस्याएं बनती भी है तो गंभीर और ईमानदार संवाद से उनको अधिक उलझने से बचाया जा सकता है। व्यक्तिगत जीवन में हम संवाद की सहायता से जीवन को आगे बढ़ाते हैं तो राष्ट्रजीवन में भी ऐसा क्यों न करे, क्योंकि सुसंवादित समाज ही सुसंगठित समाज की रचना कर सकता है। देखना यह है कि रामलला, निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी वक्फ बोर्ड को एक मंच पर लाने की पहल कौन करता है।
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के कुलपति हैं)

Monday, March 15, 2010

भारतीय नववर्ष पर जनसंचार विभाग का आयोजन


जनसंचार विभाग द्वारा आयोजित बेहद गरिमामय आयोजन को संबोधित करते हुए विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृज किशोर कुठियाला। नए साल का महत्व बताते हुए कुलपति महोदय ने छात्र-छात्राओं के सुखद भविष्य की शुभकामनाएं दीं।

नए साल की बधाई सर


जनसंचार विभाग की छात्रा नितिशा कश्यप शायद कुलपति सर से यही कह रही हैं। आयोजन में नए साल को मनाने का उत्साह देखते ही बन रहा था।

नए साल की शुभकामनाएं देते छात्र


कुलपति श्री कुठियाला को अनेक छात्र-छात्राओं ने अपनी ओर से स्वनिर्मित शुभकामना पत्र देकर उनका आर्शीवाद प्राप्त किया। कुलपति महोदय को कार्ड देते हुए जनसंचार सेकेंड सेमेस्टर के छात्र साकेत नारायण।