Thursday, October 7, 2010

अयोध्या की समस्या के मूल में संवादहीनता


- प्रो. बृज किशोर कुठियाला
इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खण्डपीठ ने राम जन्मभूमि का जो निर्णय दिया उससे पूरे देश की जनता ने राहत की सांस ली है। फैसले से पूर्व का तनाव सभी के चेहरों और व्यवहार में था। परन्तु इस राहत के बाधित होने की संभावनाएं बनती नज़र आ रही हैं। 60 वर्ष से अधिक की नासमझी और विवेकहीनता के कारण एक छोटा सा विवाद पहाड़ जैसी समस्या बन गया है। उसी तरह की विवेकहीनता यदि आज भी रही तो सुलझी हुई समस्या फिर से उलझ जाएगी। कारण अनेक हो सकते हैं, परन्तु एक मुख्य कारण हमारे राष्ट्रजीवन में बढ़ती हुई संवादहीनता है। उच्च न्यायालय के निर्णय से तीन मुख्य पक्ष उभर कर आये हैं। एक पक्ष ने उच्चतम न्यायालय जाने की घोषणा की है। देश से अनेक प्रतिक्रियाएं आई हैं। परन्तु एक भी प्रतिक्रिया में यह सुझाव नहीं है तीनों पक्ष आपस में वार्ता करे। प्रधानमंत्री, केन्द्रीय गृहमंत्री और प्रदेश के मुख्यमंत्री तीनों की मुख्य जिम्मेदारी बनती है, उनमें से किसी ने भी न तो संवाद बनाने का प्रयास किया न ही संवाद का सुझाव दिया।
प्रबंधन शास्त्र का एक मूलभूत सिद्धान्त है कि समुचित संवाद से संस्थाओं और समूहों का स्वास्थ्य सुन्दर बना रहता है। छोटी-बड़ी संस्थाओं के लिए न केवल मिशन और उद्देश्यों के निर्धारण में वार्ता के महत्व को बताया गया है परन्तु तत्कालीन उद्देश्य भी यदि चर्चाओं के कारण आम सहमति से बने तो संस्थाएं विकासोन्मुख होती है। राष्ट्र जैसी सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक व्यवस्था में भी संवाद की अनिवार्यता सर्वमान्य है। परन्तु दुर्भाग्य यह है कि हमारे देश में औपचारिक य अनौपचारिक संवाद शून्य से थोड़ा ही अधिक है। यही कारण है कि छोटी-छोटी समस्याएं विकराल रूप ले लेती हैं। उदाहरण के लिए कश्मीर घाटी के मुसलमानों और उसी घाटी से विस्थापित कश्मीरी पंडितों के बीच पूर्ण संवादहीनता है। माओवादियों और सरकार के बीच वार्ता के छूट-मुट प्रयासों में कोई गंभीरता नज़र नहीं आती। यहा तक की देश को चलाने वाली मुख्य राजनीतिक पार्टियों में अधिकतर संवाद संसद और विधानसभाओं में ही बनता है जहां कोशिश एक दूसरे के दोष ढूंढने की होती है, न की वार्ता के द्वारा समस्याओं का हल ढूंढने की।
अयोध्या का मसला भी संवादहीनता का ही परिणाम है। मुगलों के कार्यकाल में ढांचा बनाते समय स्थानीय लोगों से वार्ता नहीं की। अयोध्या के मुस्लिमों और हिन्दुओं में इस विषय पर वार्ता का कोई दृष्टान्त नहीं है। अग्रेंजों ने जो वार्ताएं की वे समस्या को सुलझाने की नहीं थी बल्कि एक पक्ष के मन में दूसरे के प्रति बैर-भाव को बढ़ाने की थी। 1949 में मूर्तियां रखने में कोई वार्ता नहीं हुई। ताला लगाने और ताला खोलने के समय संबंधित पक्षों से परामर्श नहीं हुआ। एक समय ऐसा भी आया जब सारा देश अयोध्या की बात कर रहा था परन्तु सभी अपना-अपना बिगुल बजा रहे थे। सरकारी तौर पर कुछ वार्ताओं के नाटक तो हुए परन्तु कुल मिलाकर ऐसा परामर्श जिससे उलझन को मिटाना ही है, कभी नहीं हुआ। ढांचा गिरने के बाद भी विषय संबंधित शोर बहुत हुआ परन्तु संवाद शून्य रहा।
अन्य समस्याओं की तरह अयोध्या विषयक समाचार, विश्लेषण, टिप्पणियां और चर्चाएं मीडिया में अनेक आईं परन्तु उनके कारण से समाज में कोई संवाद बना हो ऐसा नहीं हुआ। टेलीविजन पर हुई चर्चाएं एक ओर तो पक्षधर होती है दूसरी ओर वार्ताओं में मतप्रकटीकरण और विवाद बहुत होता है परन्तु ऐसी कोई चर्चा नहीं होती जिसके अन्त में सभी एक मत होकर समस्या के हल की ओर चलते हों। ऐसा एक भी उदाहरण नहीं मिलता है जब टेलीविजन की वार्ता में किसी ने माना हो कि वह गलत था और उस चर्चा के परिणामस्वरूप अपना मत परिवर्तन करेगा। प्रबंधन शास्त्र में दिये गये चर्चा के द्वारा आम सहमति बनाने के संभी सिद्धान्तों की मीडिया में अवेहलना होती है। शंकराचार्य के वर्गीकरण के अनुसार टेलीविजन की चर्चाएं न तो संवाद हैं, न ही वाद-विवाद वे तो वितण्डावाद का साक्षात उदाहरण हैं।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अत्यन्त विवेकपूर्ण व व्यावहारिक फैसला देकर यह सिद्ध किया है कि देश की न्यायापालिका कम से कम समस्याओं का समाधान सुझाने में तो सक्षम है। परन्तु दिए गए सुझावों का क्रियान्वयन तो मुख्यतः केन्द्र सरकार को और कुछ हद तक राज्य सरकार को और देखा जाए तो सभी राजनीतिक दलों को करना है। निर्णय के बाद की प्रतिक्रियाओं से स्पष्ट होता है कि ऐसा प्रयास होने वाला नहीं है। जैसे कबूतर बिल्ली को देखकर आंख मूंद लेता है मानों बिल्ली है ही नहीं वैसे ही केन्द्र सरकार ने यह मन बना लिया है कि उच्चतम न्यायालय की शरण में ही किसी न किसी पक्ष को जाना है और कोई भी कार्यवाही करने के लिए तुरन्त कुछ करना नहीं है। क्या राष्ट्र की चिति इतनी कमजोर है कि तीनों पक्षों को बिठाकर आम सहमति न बन सके। संवाद शास्त्र का भी सिद्धान्त है कि संवादहीनता अफवाहों व गलतफहमियों को जन्म देती है जिससे संबंध खराब होते हैं और परिणामस्वरूप नई समस्याएं जन्म लेती है और पुरानी और उलझती है। इसी सिद्धान्त का दूसरा पहलू यह भी है ऐसी कोई समस्या नहीं है जिसे संवाद से सुलझाया न जा सके। इसलिए न केवल संवाद होना चाहिये परन्तु संवाद में ईमानदारी और समाजहित भी निहित होना चाहिए।
आज देश में ऐसी अनेक प्रयास होने चाहिए जो विभिन्न वर्गों, पक्षों और समुदायों में लगातार संवाद बनाए रखें। संवादशील समाज में समस्याओं की कमी तो होगी परन्तु यदि समस्याएं बनती भी है तो गंभीर और ईमानदार संवाद से उनको अधिक उलझने से बचाया जा सकता है। व्यक्तिगत जीवन में हम संवाद की सहायता से जीवन को आगे बढ़ाते हैं तो राष्ट्रजीवन में भी ऐसा क्यों न करे, क्योंकि सुसंवादित समाज ही सुसंगठित समाज की रचना कर सकता है। देखना यह है कि रामलला, निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी वक्फ बोर्ड को एक मंच पर लाने की पहल कौन करता है।
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के कुलपति हैं)

1 comment:

  1. कुठियाला जी सही कहते हैं, संवाद से न केवल हल ढंढा जा सकता है. बल्कि अगर संवाद कायम रहता तो समस्या ही नहीं आती।

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