Wednesday, October 20, 2010

प्रियदर्शन फूहड़ कॉमेडी क्यों बनाते हैं?


-शिशिर सिंह
MAMC III SEM
भोपाल,20 अक्टूबर

प्रियदर्शन फूहड़ कॉमेडी क्यों बनाते हैं? ‘आक्रोश’ देखने के बाद सबसे पहला सवाल दिमाग में यही आया। ‘ऑनर किलिंग’ जैसे ज्वलंत एवं संवेदनशील विषय को उन्होंने जिस बेहतरीन तरीके से प्रस्तुत किया है, वह काबिल-ए-तारीफ है। कहा जाता है कि फिल्म को देखते वक्त हम खुद को पर्दे पर जीते हैं। रोमांटिक फिल्में इसीलिए लोगों को छू जाती है। फिल्मों में अभिनेताओं और अभिनेत्री को प्यार रोमांस करता देख व्यक्ति खुद जो रुमानियत महसूस करता है। आक्रोश देखते वक्त प्यार करने वालों को इससे पैदा हो सकने वाले सम्भावित खतरों का अहसास हो जाएगा। वह अहसास जिसे देखकर शायद वह एक बार घबरा भी जाएं।
सच बात यह है कि अखबार एवं पत्र-पत्रिकायों में ‘ऑनर किलिंग’ की खबरें पढ़कर इसकी भयावहता का पता नहीं चलता, उल्टा हम इसे टाल जाते हैं, पर फिल्म देखकर महसूस होता है कि कितनी भयानक समस्या है ‘ऑनर किलिंग’। मालूम चलता है क्या होता है एक ‘बन्द समाज’ में। ऐसे समाज में कानून की पुस्तक को ठीक उसी छुपाकर रखा जाता है, जैसे कोई लड़का अपने घर में अश्लील साहित्य छुपा कर रखता है। फिल्म की कहानी की बात की जाए तो कहानी कोई ज्यादा जटिल नहीं है। दिल्ली में मेडिकल की पढ़ाई करने वाले तीन छात्र अचानक गायब हो जाते हैं, वह बिहार के एक गाँव झांझण गए हुए थे। दिल्ली में बढ़ते राजनीतिक दबाब के कारण मामले की जाँच सीबीआई को सौंप दी जाती है। यह कमान दी जाती है, एक अनुभवी सीबीआई ऑफिसर सिद्धांत चतुर्वेदी (अक्षय खन्ना) और एक सेना के ऑफिसर प्रताप कुमार (अजय देवगन) को। फिर शुरू होती है इनकी और झाँझण ग्रामवासियों की समस्याओं की शुरुआत। ऑफिसर्स पर हमले, साथ देने वालों की हत्यायें आदि-आदि। इन सबके पीछे मास्टरमांइड है पुलिस आफिसर अजातशत्रु (परेश रावल)। फिल्म में बिपाशा बसु को छोड़कर सब पर उनके किरदार फबे हैं। बिपाशा बसु एक ऐसी औरत की भूमिका में बिल्कुल फिट नहीं बैठती है, जो घर में अपने पति से सबके सामने बेरहमी से मार खा सकती है।
सबसे ज्यादा तारीफ जिसके काम की करनी चाहिए वह है फिल्म के सिनमेटोग्राफर ‘थिरु’ का। थिरु ने कमाल का काम किया है।
फिल्म कहीं भी बोर नहीं करती है। कुछ जगहों पर दृश्यों में काफी अतिरेकता की गई है, खासकर एक्शन मार-धाड़ आदि के सन्दर्भ में। एक्शन की जिम्मेदारी सम्हाले आरपी यादव व त्याग राजन से भरपूर काम करवाया गया है। सीधी सरल बात यह है कि फिल्म देखने लायक है। खासकर मीडिया छात्रों को तो यह फिल्म देख ही लेनी चाहिए।

4 comments:

  1. मैं कमेन्ट की अपेक्षा एक दो बातें जोड़ना चाहूँगा.
    सिंह साहब की लेखनी के हम सब मुरीद हैं उनकी लेखन शैली का अगर स्वाद चखना हो तो वह यह अग्निपरीक्षा का युग है को ज़रुर पढ़ें.
    अब कुछ काम की बात हो जाये तो शायद हमारा लिखना सार्थक हो सकता है. फिल्म के बारे में सिंह साहब ने जो लिखा है ये उनकी अपनी व्यक्तिगत समझ है और हाँ होनी भी चाहिए. इस बीच जो बात जरुरी है उसमे फिल्म को जनसंचार एवं पत्रकारिता के छात्रों के लिए जो अपने अनुशंसा की है वह निराधार है और बचकानी भी. अगर ये सोच किया है की इसमें मीडिया को लेकर कई सीन हैं तो फिर ऐसी कई फिल्मे बन चुके है अभी तक. लिखना शुरू करे तो एक लम्बी फरेश्त होगी. फिल्म में बिपाशा बासु एक ग्रामीण पत्नी के रूप में दिखाई डी गयी है मुझे पता है की आपकी कोई ग्रामीण पृष्टभूमि की समझ नहीं है मेरी भी नहीं. लेकिन जहा आपने खुद लिखा है और कहीं न कही ये फिल्म ने भी दिखाया है की एक ऐसा समाज जो बंदूक और बम के इशारे पर चलता है वह एक नारी क्या करे. इस बीच भी उनके किरदार ने बुरे को मिटाने हेतु कदम उठाये है वो काबिले तारीफ है. फिल्म में सामंजस्य की कमी है जो आपको नहीं दिखाई दी. कही पर फिल्म के किरदार को दर्शक लगभग भूल से जाते हैं.
    कभी भी फ़ौज का अफ़सर इस कदर जज्बाती नहीं हो सकता वह भी जब किसी ख़ास मिशन पर हो..... इत्यादि .....
    अंततोगत्वा लगता है आपने प्रियदर्शन की कान्चिवरम नहीं देखि है इसीलिए आपने लेखन का यह शीर्षक दिया है.
    अच्छा प्रयास है लेकिन औचित्य कुछ कमजोर.

    जय हो.

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  2. गजब मुल्यांकन किया है, कम शब्दों प्रियदर्शन की औकात बता दी।

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