Showing posts with label Makhanlal Chaturvedi National University of Journalism. Show all posts
Showing posts with label Makhanlal Chaturvedi National University of Journalism. Show all posts

Friday, October 25, 2013

भारतीय सिनेमाः विकृतियों का सुपर बाजार

-संजय द्विवेदी

  जब हर कोई बाजार का माल बनने पर आमादा है तो हिंदी सिनेमा से नैतिक अपेक्षाएं पालना शायद ठीक नहीं है। अपने खुलेपन के खोखलेपन से जूझता हिंदी सिनेमा दरअसल विश्व बाजार के बहुत बड़े साम्राज्यवादी दबावों से जूझ रहा है। जाहिर है कि यह वक्त नैतिक आख्यानों, संस्कृति और परंपरा की दुहाई देने का नहीं है। हिंदी सिनेमा अब आदर्शों के तनाव नहीं पालना चाहिता । वह अब सिर्फ विश्व बाजार का सांस्कृतिक एजेंट है। उसके ऊपर अब सिर्फ बाजार के नियम लागू होते हैं।मांग और आपूर्ति के इस सिद्धांत पर वह खरा उतरने को बेताब है।
कला सिनेमा को निगलने के बादः
 यह अकारण नहीं है कि कला सिनेमा की एक पूरी की पूरी धारा को यह बाजार निगल गया। कला या समानांतर सिनेमा से जुड़ा जागरुक तबका भी अब इसी बाजार की ताल से ताल मिलाकर मालबनाने में लगा है। ऐसे में सिनेमा के सामाजिक उत्तरदायित्व और उसके सरोकारों पर बातचीत बहुत जरूरी हो जाती है। ऐसे में समाज को सर्वाधिक प्रभावित करने वाले इस माध्यम का विचलन और उसके संदेशों को लेकर लंबी बहसें चलती रही हैं, लेकिन अब इसका दौर भी थम गया है। शायद इस सबने यह मान लिया है कि इस माध्यम से जन अपेक्षाएं पालना ही अनैतिक है। सिनेमा बनाने वाले भी यह कहकर हर प्रश्न का अंत कर देते हैं कि हम वहीं दिखते हैं जो समाज में घट रहा है।लेकिन यह बयान सत्य के कितना करीब है, सब जानते हैं। सच कहें तो आज का सिनेमा समाज में चल रही हलचलों का वास्तविक आईना कभी प्रस्तुत नहीं करता । वह उसे या तो अंतिरंजित करता है या चीजों को अतिसरलीकृत करके पेश करता है। 47 के पहले या 60 के दशक में दर्शक अपने नैतिक मूल्यों के लिए हीरो को लड़ते और बुरी ताकतों पर विजय प्राप्त करते हुए देखते थे। प्रेम और नैतिक आदर्श के लिए लड़ने वाला हीरो समाज में स्वीकारा जाता था। नेहरू युग के बाद लोगों की टूटती आस्था, आजादी के सपनों से छल की भावना बलवती हुई तो मुख्यधारा का सिनेमा अभिताभ बच्चन के रुप में एक में एक ऐसी व्यक्तिगत सत्ताके स्थापना का गवाह बना जो अपने बल और दुस्साहस सेल लोगों की लड़ाई लड़ता है।
कहां खो गया नायकः
    आज का सिनेमा जहां पहुंचा है, वहां नायक-खलनायक और जोकर का अंतर ही समाप्त हो गया है। इसके बीच में चले कला फिल्मों के आंदोलन को उनका सचऔर उनकीवस्तुनिष्ठ प्रस्तुतिही खा गई । यहां यह तथ्य उभरकर सामने आया कि बाजार में झूठ ही बिक सकता है, सच नहीं। इस एक सत्य की स्थापना ने हिंदी सिनेमा के मूल्य ही बदल दिए। दस्तक, अंकुर, मंथन, मोहन जोशी हाजिर हो, चक्र, अर्धसत्य, पार, आधारशिला, दामुल, अंकुश, धारावी जैसी फिल्में देने वाली धारा ही कहीं लुप्त हो गई। एक सामाजिक माध्यम के रूप में सिनेमा के इस्तेमाल की जिनमें समझ थी वे भी मुख्यधारा के साथ बहने लगे। यहां यह बात भी काबिले गौर है कि कला फिल्मों ने अपने सीमित दौर में भी अपनी सीमाओं के बावजूद व्यावसायिक सिनेमा की झूठी और मक्कार दुनिया की पोल खोल दी। यह सही बात है कि आज सिनेमा का माध्यम अपनी तकनीकगत श्रेष्ठताओं, प्रयोगों के चलते एक बेहद खर्चीला माध्यम बन गया है। ऐसे में सेक्स, हिंसा उनके अतिरिक्त हथियार बन गए हैं। पुराने जमाने में भी वी. शांताराम से लेकर गुरुदत्त, ख्वाजा अहमद अब्बास ने व्यावसायिक सिनेमा में सार्थक हस्तक्षेप किया, लेकिन आज का सिने-उद्योग सिर्फ मुनाफाखोरी तक ही सीमित नहीं है, उसके इरादे खतरनाक हैं। काले धन की माया, काले लोग इस बाजार को नियंत्रित कर रहे हैं। आज के मुख्यधारा का सिनेमा समाज के लिएनहीं बाजार के लिएहै। देशभक्ति, प्रेम, सामाजिक सरोकार सब कुछ यदि बेचने के काम आए तो ठीक वरना दरकिनार कर दिये जाते हैं। नकली इच्छाएं जगाने, मायालोक में घूमते इस सिनेमा का अपने आसपास के परिवेश से कोई लेना-देना नहीं है। इसीलिए आज उसके पास कोई नायकनहीं बचा है। पहले एकांत में नाचते नायक-नायिका इसलिए अब भीड़ में नाचते हैं । शोर का संगीत और शब्दों का अकाल इस सिनेमा की दयनीयता का बखान करते हैं । सच कहें तो भारतीय जीवन का अनिवार्य हिस्सा बने होने के बावजूद सिनेमा पर जनता का कोई बौद्धिक अंकुश नहीं रह गया है । परिणाम यह हुआ है कि हिंदी सिनेमा पागल हाथी की तरह व्यवहार कर रहा है।
मनोविकारी फिल्मों का समयः
   हिंदी सिनेमा तो वैसे ही हॉलीवुड की जूठन उठाने और खाने के लिए मशहूर है। इसीलिए प्रेम के कोमल और मोहक अंदाज की फिल्मों के साथ मनोविकारी प्रेम की फिल्में भी बालीवुड में खूब बनीं । एक दौर में शाहरूख खान ऐसी मनोविकारी प्रेम की फिल्मों के महानायक बन गए । सही अर्थों में मनोविकारों से ग्रस्त प्रेमी को पहली बार बालीवुड में शाहरूख खान ने ग्लैमराइज्डकिया । फिल्मबाजीगरसे प्रेम में हिंसा व उन्माद के जिस दौर की शुरूआत हुई, ‘डरऔरअंजाममें उसे और विस्तार मिला । फिल्म बाजीगरमें शिल्पा शेट्टी के प्रेम में दीवाना शाहरूख खान छत से धकेल कर उसकी हत्या कर देता है। डरमें जूही की दीवानगी में वह इस कदर पागल है कि वह जूही के पति सन्नी देओल की जान से पीछे पड़ जाता है। अंजाममें शाहरूख, शादीशुदा माधुरी दीक्षित की चाहत में उसके पति की हत्या कर डालता है। इस शाहरूख लहरकी सवारी नाना पाटेकर भी अग्निसाक्षीमें करते नजर आते हैं। इस फिल्म में नाना पाटेकर स्लीपिंग विद द एनमीके नायक सरीखा पति साबित होते हैं। पूरी फिल्म एक ऐसे सनकी इंसान की कथा है, जो यह बर्दाश्त नहीं कर सकता कि उसकी पत्नी किसी और से बात भी करे । दीवानगी की इस हिंसक हद से आतंकित उसकी पत्नी कहती है वह मुझे इतना प्यार करता है कि मुझको छूकर गुजरने वाली हवा से भी नफरत करने लगा है। नाना इस फिल्म में मुहब्बत के तानाशाह के रूप में नजर आते हैं। इसके बावजूद ये फिल्में सफल रहीं। बदलते जीवन मूल्यों की बानगी पेश करती ये फिल्म एक नए विषय से साक्षात्कार कराती हैं। प्रेम की उदात्त भावनाओं के प्रति आस्था दिखाने वाला समाज एक हिंसक एवं क्रूर प्रेमी को सिर क्यों चढ़ाने लगा है, यह सवाल वस्तुतः एक बड़े समाज शास्त्रीय अध्ययन का विषय थोड़े अलग जरूर है, लेकिन वह भी प्रेम के विकृत रूप का ही परिचय कराती है।
प्रेम के चित्रण का इतिहासः
 आप हिंदी सिनेमा के 100 सालों का मूल्यांकन करें तो वह मूलतः प्रेम के चित्रण का इतिहास है। मानव सभ्यता के विकास के साथ-साथ दरअसल यौन सम्बन्धों की उन्मुक्ति एवं वर्जनाओं का भी रूप बदलता रहा है। सिनेमा की संपूर्ण यात्रा में प्रेम संबंधों की व्याख्या का दौर सबसे महत्वपूर्ण है। हिंदुस्तानी लोक चेतना में प्रेम के इस तत्व की जगह वैसे भी बहुत बड़ी है। दूसरे यौन संबंधों पर खुली बहस की कम गुंजाइश के कारण हम इसके अक्स एवं विकल्प परदे पर तलाशते रहे । दमित इच्छाओं एवं यौन कुंठाओं के इसी संदर्भ की समझ ने हिंदी सिनेमा व्यवसायियों को एक बेहतर मसाला दिया। गीत संगीत एवं प्रेम की इस चेतना का व्यवसाय फिल्म उद्योग की प्राथमिकता बन गई। इस सबके बावजूद हिंसा से लबरेज यह प्रेम, भारतीय दर्शकों के लिए बहुत अजनबी न था। हिंसाचार की शुरुआत और अंत अपने प्रेम को पाने या अनाचार से मुक्ति के लिए होती थी। पर प्रेम के आयातित संस्करण में अब अपनी मुहब्बत का ही गला घोंटने की तैयारियों पर जोर है। हिंसा प्रेमका यह दौर वास्तव में भारतीय सिने जगत की रेखांकित की जाने लायक परिघटना है, जो कहीं से भी प्रेम के परंपरागत चरित्र से मेंल नहीं खाती । हिंसा भारतीय सिनेमा की जानी पहचानी चीज है, पर नायक आम तौर पर खलनायक के अनाचार से मुक्ति के लिए हिंसा का सहारा लेता दिखता था। उसकी प्रमिका का ही उसके द्वारा उत्पीड़न, यह नया दौर है। जाहिर है समाज में ऐसी घटनाएं घट रही थीं और उनकी छाया रूपहले पर्दे पर भी दिखी। इस प्रकार की घटनाओं ने पर्दे पर भी हिंसक प्रेमकी थ्यौरीको जगह दी।
पलायनवादी नायकः
  शाहरूख खान की फिल्में इसी थ्यौरीका संदर्भ मानी जा सकती हैं। वह चुनौती को स्वीकारता नहीं, भागता है। मध्य वर्ग के नौजवान की चेतना एवं उसकी कुंठाओं का शाहरूख सच्चा प्रतिनिधि नजर आता है। वह प्यार करता है, किंतु स्वीकार का साहस उसमें नहीं हैं । उसे श्रम, रचनाशीलता एवं इंतजार नहीं है। सो वह पागलों सी हरकतें करता है, जिसमें प्रेमिका का उत्पीड़न भी शामिल है। इस प्रसंग पर मीडिया विशेषज्ञ सुधीश पचौरी की राय गौरतलब है। वे लिखते है- वह हमेशा लड़ता भिड़ता नजर आता है। किसी लड़की से छेड़छाड़ से लेकर मारपीट तकहिंसकऔर देहके रिश्ते बनाना ही उसका लक्ष्य है। उसके गीतों में भी सौंदर्य व कमनीयता के प्रतीक तलाशे नहीं मिलते। वह इंस्टेटिज्म’ (तुरंतवाद) का शिकार है। उसे जो भी कुछ चाहिए तुरंत चाहिए। इंस्टेट। अपने प्रेम को न पा सकने की स्थिति में उसे समाप्त कर देने की आकांक्षा उसके इसी पागलपन से उपजी है। आप इसे पूरे चित्र को पढ़ने की कोशिश करें तो यह भारतीय काव्य के धीरोदात्त नायक की विदाई का दौर है। इसमें लडके और लड़की के बीच कहीं प्यार या सामाजिक संबंध नहीं।पचौरी आगे लिखते शुद्ध रुप में फिजिकलरिश्ते पल रहे हैं। इसे हम फिल्मों के डांस सिक्वेंससे देख समझ सकते हैं नौजवान का 2 कैरेट खरा फिजिकल रूप ।यहां नायक और नायिका सिर्फ शरीरहैं। एक ऐसा शरीर, जिसमें मन, आत्मा, भावना, सुख व दुख सारे भाव तिरोहित हो चुके हैं। वह सिर्फ शरीरबनकर रह गया है। उसे खोज भी प्रेम के प्रतीक नहीं मिलते। इसीलिए गीतों में भी वह प्रेम की प्रतीक नहीं खोज पाता। एक गीत में नायक कहता है खंभे जैसी खड़ी है,/ लड़की है या छड़ी है। जाहिर है कोमल अनूभूतियों को व्यक्त करने वाले शब्दों व प्रतीकों के भी लाले हैं।
समाज में घट रही घटनाएं प्रेम के प्रति हिंसाचार इस संवेदनहीनता पर मुहर भी लगाती हैं। सिर्फ शरीरही बचा है, जिसमें से मन, आत्मा, भावना, सुखदुख, हर्ष-विषाद आदि सारे भाव तिरोहित हो चुके हैं। अपने अहंकार पर चोट आज के युवा को आहत करती है। वह घर, परिवार, समाज की बनी बनाई लीक को एक झटके में तोड़ डालने पर आमादा है। साहिर लुधियानवी की कुछ पंक्तियां इस संदर्भ को समझने में सहायक हो सकती हैं तुम अगर मुझको न चाहो तो / कोई बात नहीं,/ तुम किसी और को चाहोगी/तो मुश्किल होगी। साहिर की ये पंक्तियां इस घातक चाहत का बयान करती हैं। जहां प्रेम की प्राप्ति न होने पर उसे नष्ट कर डालने का संदेश फिल्मों में दिखता है। उपभोक्तावाद के ताजा दौर में भोगवादी संस्कृति के थपेड़ों में हमारा दार्शनिक आधार चरमरा गया है। इसी के चलते फिल्मों ने ऐसे नकारात्मक मूल्यों को सिर चढ़ाया है। पैसे की सनक और नवधनाढ्यों के उभार के बीच ये फिल्मी कथाएं वस्तुतः हमारे समाज के सच की गवाही हैं। समाचार पत्रों में आए दिन प्रेमी द्वारा प्रेमिका की हत्या, पत्नी की हत्या या पति की हत्या जैसे समाचार छपते हैं। दुर्भाग्य से सिनेमा और दूरदर्शन इस नकारात्मक प्रवृत्ति को एक आधार प्रदान करते हैं। फिल्मों की कथाएं देखकर छोटे कस्बे गांवों के नौजवान उससे गलत प्रेरणा ग्रहण करते हैं। कई बार वे पर्दे पर दिखाई घटना को जीवन में दोहराने की कोशिश करते हैं। निश्चित रूप से ताजा बाजारवादी अवधारणाओं में हमारा सिनेमा पाश्चात्य प्रभावों से तेजी से ग्रस्त हो रहा है। पश्चिमी जीवन की ज्यों की त्यों स्वीकार्यता हमारे समाज में संकट का सबब बनेगी। प्रेम के एक क्रूर चेहरे को भारतीय मन पर आरोपित करने की कोशिशें तेज हैं। दुर्भाग्य है कि यह सारा कुछ प्रेम के नाम पर हो रहा है।
सिनेमा पर गैरहाजिर विमर्शः
   किसी भी समाज में बौद्धिक और सांस्कृतिक अंकुश रखने का काम लेखक और विचारक ही करते हैं, कोई सरकार नहीं। फिल्मों पर हिंदी पत्रकारिता और टी. वी. चेनलों पर भी चल रही चर्चाएं एवं उन पर आधारित कार्यक्रम भी सतही और बचकाने होते हैं । हिंदी सिनेमा ने सही अर्थों में भारतीय समाज एवं उसके संघर्षों, उसकी चेतना को अपनी ही जमीन से बदखल कर दिया है। उसकी ताकत लगातार बढ़ी है, वह हमारा लोकाक्षर और दैन्दिन का व्यवहार तय करने लगा है। इतनी सशक्त माध्यम पर समूचे हिंदी क्षेत्र में ठोस विचार की शुरुआत के बजाए गाशिप बाजीचल रही है।

    सिनेमा पर लगभग गैरहाजिर विमर्श को चर्चा के केंद्र में लाना और उस पर बौद्धिक-सामाजिक अंकुश लगाना समय की जरूरत है। 1939 में हिंदी के यशस्वी कथाकार-उपन्यासकार प्रेमचंद ने लिखा था मगर खेद है कि इसे कोरा व्यवसाय बनाकर हमने उसे कला के उच्च आसन से खींचकर ताड़ी की दूकान तक पहुंचा दिया है यह बात प्रेमचंद के दौर की है, जब देश के लोग आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे और आज तो हिंदी सिनेमा विकृतियों का सुपर बाजारबन गया है। ऐसे ही चित्रों पर हमारी नई पीढ़ी और बचपन झूम-झूम कर जवान हो रहा है। क्या हम समाज के इतने प्रभावकारी माध्यम को, यूं ही बेलगाम छोड़ दें ?

Monday, November 7, 2011

Eid ul azha mubarak to all my dear students


-Sanjay Dwivedi
Today is the day of sacrifice..let us sacrifice our anger,greed and envy for the sake of love for Allah and humanity...Eid ul azha mubarak to all my dear students...may Allah bless you all.......ईद की खुशियां लें और दूसरों को भी खुश करें। सद्भावना और मैत्री ही हर त्यौहार का संदेश है। आइए साथ आएं और खुशियां मनाएं। त्यौहार की खुशियां बांटें और उन्हें भी साथ लें जिनके पास मुस्कराने के मौके बहुत कम आते हैं। कुर्बानी और त्याग का पाठ पढ़ाने वाला यह त्यौहार हर हिंदुस्तानी के मन में ऐसी भावनाएं पैदा करे, जिससे हम अपने वतन और समाज के लिए अपना सर्वस्व निछावर करने का हौसला पा सकें।आप सबको ईदुज्जुहा की मुबारकबाद।

Sunday, November 6, 2011

पश्चिम की पत्रकारिता पूंजी की पत्रकारिताः सिन्हा





भोपाल,5 नवंबर।
इंडिया पालिसी फाउंडेशन के मानद निदेशक राकेश सिन्हा का कहना है कि पश्चिम की पत्रकारिता पूंजी की पत्रकारिता है जबकि भारतीय पत्रकारिता के मूल में पुरूषार्थ निहित है, क्योंकि भारतीय पत्रकारिता देश के स्वतंत्रता आंदोलन से प्रेरणा पाती है। वे यहां माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में प्रख्यात पत्रकार स्व. प्रभाष जोशी की द्वितीय पुण्यतिथि(5 नवंबर,2011) पर उनकी स्मृति में आयोजित ‘मीडया का समाजशास्त्र’ विषय पर व्याख्यान को संबोधित कर रहे थे। कार्यक्रम की अध्यक्षता विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने की।

दिल्ली विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर श्री सिन्हा ने कहा कि पश्चिमी संस्कृति हमारा आदर्श बन गयी है और हमने अपने गौरवशाली अतीत को बिसरा दिया है। उन्होंने कहा कि अब जरूरत इस बात की है कि वैकल्पिक पत्रकारिता के माध्यम से हम आज के ज्वलंत प्रश्नों के उत्तर तलाशें। यही पत्रकारिता देश के विकास का उद्यम बन सकती है। उनका कहना था कि स्थानीय संवाद को बढ़ाने का प्रयास इसी से सफल होगा और स्थानीय आकांक्षांएं मीडिया में अपनी जगह बना सकेंगीं।

श्री सिन्हा ने कहा कि नई पत्रकार पीढ़ी को चाहिए कि वह राष्ट्रीय प्रश्नों पर सामाजिक सरोकार पैदा करे तथा सामाजिक सरोकारों पर राष्ट्रीय दृष्टिकोण विकसित करना चाहिए। उनका कहना था कि आज के युग में भ्रम अधिक हैं, जिसके कारण आदर्श की बात करने वाले ज्यादा हैं किंतु आदर्श पर चलने वाले कम हो गए हैं।

कार्यक्रम के अध्यक्ष प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने कहा कि वर्तमान पत्रकारिता के दोष और गुणों को देखते अपना ध्येय खुद तय करना होगा। ध्येयनिष्ठ पत्रकारिता के विकास से ही भारत विश्वशक्ति बनेगा। उनका कहना था कि स्व. प्रभाष जोशी एक ऐसे पत्रकार थे जिन्होंने ताजिंदगी ध्येयनिष्ट पत्रकारिता की, उनकी स्मृति आज के युवा पत्रकारों का संबल बन सकती है। कार्यक्रम का संचालन जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने किया। आरंभ में अतिथियों का स्वागत निदेशक-संबद्ध संस्थाएं दीपक शर्मा एवं मीता उज्जैन ने किया। कार्यक्रम में प्रो. आशीष जोशी, डा. पवित्र श्रीवास्तव, पुष्पेंद्रपाल सिंह, राघवेंद्र सिंह, डा. आरती सारंग मौजूद रहे।

Wednesday, October 26, 2011

एमसीयू में यूं मना दीवाली का उत्सव






भोपाल। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के विकास भवन परिसर में दीवाली मिलन समारोह का आयोजन किया गया,जिसमें कुलपति प्रो.बृजकिशोर कुठियाला सहित विश्वविद्यालय परिवार के कर्मचारी, अधिकारी एवं प्राध्यापक शामिल रहे। कार्यक्रम का संचालन सुश्री मीता उज्जैन ने किया।
कार्यक्रम में मां लक्ष्मी की पूजा अर्चना के बाद दीप जलाकर पटाखे चलाए गए। जिसमें सबने उत्साह से हिस्सा लिया। इस मौके पर कुलपति श्री कुठियाला ने अपने सारगर्भित भाषण में कहा कि दीपावली का त्यौहार सही मायने में प्रकाश को और ज्यादा बढ़ाने का त्यौहार है। हमें अपने आसपास, परिवेश में और वंचित जनों के जीवन में भी प्रकाश फैलाने का प्रयास करना चाहिए। यह चीज हमें हमारी परंपरा से मिली है जिसमें मनुष्य मात्र के सुख की कामना की गयी है और पूरे विश्व को एक परिवार माना गया है। यह त्यौहार हमें कई तरह की शिक्षा देता है जिसमें स्वच्छता से लेकर रामराज की कल्पनाएं भी शामिल हैं।

Friday, October 7, 2011

अस्मिताओं के सम्मान से ही एकात्मताः सहस्त्रबुद्धे



भोपाल, 7 अक्टूबर। विचारक एवं चिंतक विनय सहस्त्रबुद्धे का कहना है कि छोटी-छोटी अस्मिताओं का सम्मान करते हुए ही हम एक देश की एकात्मता को मजबूत कर सकते हैं। वे यहां माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल द्वारा आयोजित व्याख्यान ‘मीडिया में विविधता एवं बहुलताः समाज का प्रतिबिंबन’ विषय पर अपने विचार व्यक्त कर रहे थे। उन्होंने कहा कि अस्मिता का सवाल अतार्किक नहीं है, इसे समझने और सम्मान देने की जरूरत है। बहुलता का मतलब ही है विविधता का सम्मान, स्वीकार्यता और आदर है।
उन्होंने कहा कि इसके लिए संवाद बहुत जरूरी है और मीडिया इस संवाद को बहाल करने और प्रखर बनाने में एक खास भूमिका निभा सकता है। ऐसा हो पाया तो मणिपुर का दर्द पूरे देश का दर्द बनेगा। पूर्वोत्तर के राज्य मीडिया से गायब नहीं दिखेंगें। बहुलता के लिए विधिवत संवाद के अवसरों की बहाली जरूरी है। ताकि लोग सम्मान और संवाद की अहमियत को समझकर एक वृहत्तर अस्मिता से खुद को जोड़ सकें। आध्यात्मिक लोकतंत्र इसमें एक बड़ी भूमिका निभा सकता है। इससे समान चिंतन, समान भाव, समान स्वीकार्यता पैदा होती है। समाज के सब वर्गों को एकजुट होकर आगे जाने की बात मीडिया आसानी से कर सकता है। किंतु इसके लिए उसे ज्यादा मात्रा में बहुलता को अपनाना होगा। उपेक्षितों को आवाज देनी पड़ेगी। अगर ऐसा हो पाया तो विविधता एक त्यौहार बन जाएगी, वह जोड़ने का सूत्र बन सकती है।
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने कहा कि दूसरों को सम्मान देते हुए ही समाज आगे बढ़ सकता है। मैं को विलीन करके ही समाज का रास्ता सुगम बनता है। मीडिया संगठनों की रचना ही बहुलता में बाधक है। साथ ही समाचार संकलन पर घटता खर्च मीडिया की बहुलता को नियंत्रत कर रहा है। विविध विचारों को मिलाने से ही विचार परिशुद्ध होते हैं। वरना एक खास किस्म की जड़ता विचारों के क्षेत्र को भी आक्रांत करती है।
कार्यक्रम के प्रारंभ में विषय प्रवर्तन करते हुए जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने कहा कि समाज में मीडिया के बढ़ते प्रभाव के मद्देनजर यह जरूरी है कि समाज की बहुलताओं और विभिन्नताओं का अक्स मीडिया कवरेज में भी दिखे। इससे मीडिया ज्यादा सरोकारी, ज्यादा जवाबदेह, ज्यादा संवेदनशील, ज्यादा संतुलित और ज्यादा प्रभावी बनेगा। इसकी अभिव्यक्ति में शामिल व्यापक भावनाएं इसे प्रभावी बना सकेंगी। उन्होंने कहा कि विभिन्नताओं में सकात्मकता की तलाश जरूरी है क्योंकि सकारात्मकता से ही विकास संभव है जबकि नकारात्मकता से विनाश या विवाद ही पैदा होते हैं। कार्यक्रम का संचालन प्रो. आशीष जोशी ने किया। इस मौके पर रेक्टर सीपी अग्रवाल, डा. श्रीकांत सिंह ने अतिथियों का पुष्पगुच्छ देकर स्वागत किया।

Monday, November 1, 2010

मीडिया की आचार संहिता बनाएगा पत्रकारिता विश्वविद्यालय



माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल की महापरिषद की बैठक में कई महत्वपूर्ण फैसले


- डा. नंदकिशोर त्रिखा, प्रो. देवेश किशोर, रामजी त्रिपाठी और आशीष जोशी बने प्रोफेसर
भोपाल, 1 नवंबर, 2010।

माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल की पिछले दिनों सम्पन्न महापरिषद की बैठक में कई महत्वपूर्ण निर्णय लिए गए। महापरिषद के अध्यक्ष और प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की अध्यक्षता में हुयी इस बैठक का सबसे बड़ा फैसला है मीडिया के लिए एक आचार संहिता बनाने का। इसके तहत विश्वविद्यालय मीडिया और जनसंचार क्षेत्र के विशेषज्ञों के सहयोग से तीन माह में एक आचार संहिता का निर्माण करेगा और उसे मीडिया जगत के लिए प्रस्तुत करेगा। पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो.बीके कुठियाला के कार्यकाल की यह पहली बैठक है, जिसमें विश्वविद्यालय को राष्ट्रीय स्वरूप देने के लिए महापरिषद ने अपनी सहमति दी और कहा है कि इसे मीडिया, आईटी और शोध के राष्ट्रीय केंद्र के रूप में विकसित किया जाए।
नए विभाग- नई नियुक्तियां- विश्वविद्यालय में शोध और अनुसंधान के कार्यों को बढ़ावा देने के लिए संचार शोध विभाग की स्थापना की गयी है। जिसके लिए प्रोफेसर देवेश किशोर की संचार शोध विभाग में दो वर्ष के लिये प्रोफेसर के पद पर नियुक्ति का फैसला लिया गया है। इस विभाग में मौलिक शोध व व्यवहारिक शोध के कई प्रोजेक्ट डॉ. देवेश के मार्गदर्शन में चलेंगें। प्रोफेसर (डॉ.) नंदकिशोर त्रिखा की दो वर्ष के लिये सीनियर प्रोफेसर पद पर नियुक्ति की गयी है। अगले दो वर्ष में डॉ. त्रिखा के मार्गदर्शन में मीडिया की पाठ्यपुस्तकें हिन्दी व अंग्रेजी में लिखी जाएंगी। इस काम को अंजाम देने के लिए विश्वविद्यालय में अलग से पुस्तक लेखन विभाग की स्थापना होगी। इसी तरह विश्वविद्यालय में प्रकाशन विभाग की स्थापना की गयी है। जिसमें प्रभारी के रूप में वरिष्ठ पत्रकार एवं पीपुल्स समाचार के पूर्व स्थानीय संपादक राधवेंद्र सिंह की नियुक्ति की गयी है, विभाग में सौरभ मालवीय को प्रकाशन अधिकारी बनाया गया है। अल्पकालीन प्रशिक्षण विभाग की स्थापना की गयी है, जिसके तहत श्री रामजी त्रिपाठी, केन्द्रीय सूचना सेवा (सेवानिवृत्त), पूर्व अतिरिक्त महानिदेशक, प्रसार भारती (दूरदर्शन) की दो वर्ष के लिये प्रोफेसर के पद पर अल्पकालीन प्रशिक्षण विभाग में नियुक्ति की गयी है। श्री त्रिपाठी जिला और निचले स्तर के मीडिया कर्मियों के लिये प्रशासन में कार्यरत मीडिया कर्मियों के लिये व वरिष्ठ मीडिया कर्मियों के लिये प्रशिक्षण व कार्यशालाओं का आयोजन करेंगे। इसी तरह श्री आशीष जोशी, मुख्य विशेष संवाददाता, आजतक की इलेक्ट्रॉनिक मीडिया विभाग में प्रोफेसर के पद पर नियुक्ति की गयी है। श्री आशीष जोशी, भोपाल परिसर में टेलीविजन प्रसारण विभाग में कार्यरत रहेंगे।
टास्क कर्मचारियों को दीपावली का तोहफा- विश्वविद्यालय में कार्यरत दैनिक वेतन पाने वाले लगभग 85 कर्मचारियों के वेतन में 25 प्रतिशत वृद्धि करने का फैसला किया गया है। इसी तरह शिक्षकों के लिए ग्रीष्मकालीन व शीतकालीन अवकाश की व्यवस्था भी एक बड़ा फैसला है। अब तक विश्वविद्यालय में जाड़े और गर्मी की छुट्टी (अन्य विश्वविद्यालयों की तरह) नहीं होती थी। आपात स्थिति के लिये 10 करोड़ रूपये का कार्पस फंड बनाया गया है , जिसमें हर वर्ष वृद्धि होगी। शिक्षक कल्याण कोष की स्थापना भी की गयी है। इसके अलावा चार प्रोफेसर, आठ रीडर व आठ लेक्चरार (कुल 20) अतिरिक्त शैक्षणिक पदों का अनुमोदन किया गया है, जिसपर विश्वविद्यालय नियमानुसार नियुक्ति की प्रक्रिया शुरू करेगा।
बनेगा स्मार्ट परिसरः विश्वविद्यालय के लिये भोपाल में 50 एकड़ भूमि पर ‘‘ग्रीन’’ व ‘‘स्मार्ट’’ परिसर बनाने के कार्यक्रम की शुरूआत की जाएगी। जिसके लिए भवन निर्माण शाखा की स्थापना भी की गयी है।
आगामी दो वर्षों में टेलीविजन कार्यक्रम निर्माण, नवीन मीडिया, पर्यावरण संवाद, स्पेशल इफैक्ट्स व एनीमेशन में श्रेष्ठ सुविधाओं का निर्माण के लिए यह परिसर एक बड़े केंद्र के रूप में विकसित किया जाएगा। इसके साथ ही आगामी पांच वर्षों में आध्यात्मिक संचार, गेमिंग, स्पेशल इफैक्ट्स, एनीमेशन व प्रकृति से संवाद के क्षेत्रों में अंतरराष्ट्रीय पहचान बनाने की तैयारी है।इस बैठक में प्रबंध समिति के कार्यों व अधिकारों का स्पष्ट निर्धारण भी किया गया है। बैठक में महापरिषद के अध्यक्ष मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, जनसंपर्क मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा, कुलपति प्रो. बीके कुठियाला, रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर के कुलपति प्रो. रामराजेश मिश्र, वरिष्ठ पत्रकार राधेश्याम शर्मा (चंडीगढ़), साधना(गुजराती) के संपादक मुकेश शाह, विवेक (मराठी) के संपादक किरण शेलार, सन्मार्ग- भुवनेश्वर के संपादक गौरांग अग्रवाल, स्वदेश समाचार पत्र समूह के संपादक राजेंद्र शर्मा, काशी विद्यापीठ के प्रोफेसर राममोहन पाठक, दैनिक जागरण भोपाल के संपादक राजीवमोहन गुप्त, जनसंपर्क आयुक्त राकेश श्रीवास्तव, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के सलाहकार अशोक चतुर्वेदी, विश्वविद्यालयय के रेक्टर प्रो.चैतन्य पुरूषोत्तम अग्रवाल, नोयडा परिसर में प्रो. डा. बीर सिंह निगम शामिल थे।