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Friday, October 25, 2013

भारतीय सिनेमाः विकृतियों का सुपर बाजार

-संजय द्विवेदी

  जब हर कोई बाजार का माल बनने पर आमादा है तो हिंदी सिनेमा से नैतिक अपेक्षाएं पालना शायद ठीक नहीं है। अपने खुलेपन के खोखलेपन से जूझता हिंदी सिनेमा दरअसल विश्व बाजार के बहुत बड़े साम्राज्यवादी दबावों से जूझ रहा है। जाहिर है कि यह वक्त नैतिक आख्यानों, संस्कृति और परंपरा की दुहाई देने का नहीं है। हिंदी सिनेमा अब आदर्शों के तनाव नहीं पालना चाहिता । वह अब सिर्फ विश्व बाजार का सांस्कृतिक एजेंट है। उसके ऊपर अब सिर्फ बाजार के नियम लागू होते हैं।मांग और आपूर्ति के इस सिद्धांत पर वह खरा उतरने को बेताब है।
कला सिनेमा को निगलने के बादः
 यह अकारण नहीं है कि कला सिनेमा की एक पूरी की पूरी धारा को यह बाजार निगल गया। कला या समानांतर सिनेमा से जुड़ा जागरुक तबका भी अब इसी बाजार की ताल से ताल मिलाकर मालबनाने में लगा है। ऐसे में सिनेमा के सामाजिक उत्तरदायित्व और उसके सरोकारों पर बातचीत बहुत जरूरी हो जाती है। ऐसे में समाज को सर्वाधिक प्रभावित करने वाले इस माध्यम का विचलन और उसके संदेशों को लेकर लंबी बहसें चलती रही हैं, लेकिन अब इसका दौर भी थम गया है। शायद इस सबने यह मान लिया है कि इस माध्यम से जन अपेक्षाएं पालना ही अनैतिक है। सिनेमा बनाने वाले भी यह कहकर हर प्रश्न का अंत कर देते हैं कि हम वहीं दिखते हैं जो समाज में घट रहा है।लेकिन यह बयान सत्य के कितना करीब है, सब जानते हैं। सच कहें तो आज का सिनेमा समाज में चल रही हलचलों का वास्तविक आईना कभी प्रस्तुत नहीं करता । वह उसे या तो अंतिरंजित करता है या चीजों को अतिसरलीकृत करके पेश करता है। 47 के पहले या 60 के दशक में दर्शक अपने नैतिक मूल्यों के लिए हीरो को लड़ते और बुरी ताकतों पर विजय प्राप्त करते हुए देखते थे। प्रेम और नैतिक आदर्श के लिए लड़ने वाला हीरो समाज में स्वीकारा जाता था। नेहरू युग के बाद लोगों की टूटती आस्था, आजादी के सपनों से छल की भावना बलवती हुई तो मुख्यधारा का सिनेमा अभिताभ बच्चन के रुप में एक में एक ऐसी व्यक्तिगत सत्ताके स्थापना का गवाह बना जो अपने बल और दुस्साहस सेल लोगों की लड़ाई लड़ता है।
कहां खो गया नायकः
    आज का सिनेमा जहां पहुंचा है, वहां नायक-खलनायक और जोकर का अंतर ही समाप्त हो गया है। इसके बीच में चले कला फिल्मों के आंदोलन को उनका सचऔर उनकीवस्तुनिष्ठ प्रस्तुतिही खा गई । यहां यह तथ्य उभरकर सामने आया कि बाजार में झूठ ही बिक सकता है, सच नहीं। इस एक सत्य की स्थापना ने हिंदी सिनेमा के मूल्य ही बदल दिए। दस्तक, अंकुर, मंथन, मोहन जोशी हाजिर हो, चक्र, अर्धसत्य, पार, आधारशिला, दामुल, अंकुश, धारावी जैसी फिल्में देने वाली धारा ही कहीं लुप्त हो गई। एक सामाजिक माध्यम के रूप में सिनेमा के इस्तेमाल की जिनमें समझ थी वे भी मुख्यधारा के साथ बहने लगे। यहां यह बात भी काबिले गौर है कि कला फिल्मों ने अपने सीमित दौर में भी अपनी सीमाओं के बावजूद व्यावसायिक सिनेमा की झूठी और मक्कार दुनिया की पोल खोल दी। यह सही बात है कि आज सिनेमा का माध्यम अपनी तकनीकगत श्रेष्ठताओं, प्रयोगों के चलते एक बेहद खर्चीला माध्यम बन गया है। ऐसे में सेक्स, हिंसा उनके अतिरिक्त हथियार बन गए हैं। पुराने जमाने में भी वी. शांताराम से लेकर गुरुदत्त, ख्वाजा अहमद अब्बास ने व्यावसायिक सिनेमा में सार्थक हस्तक्षेप किया, लेकिन आज का सिने-उद्योग सिर्फ मुनाफाखोरी तक ही सीमित नहीं है, उसके इरादे खतरनाक हैं। काले धन की माया, काले लोग इस बाजार को नियंत्रित कर रहे हैं। आज के मुख्यधारा का सिनेमा समाज के लिएनहीं बाजार के लिएहै। देशभक्ति, प्रेम, सामाजिक सरोकार सब कुछ यदि बेचने के काम आए तो ठीक वरना दरकिनार कर दिये जाते हैं। नकली इच्छाएं जगाने, मायालोक में घूमते इस सिनेमा का अपने आसपास के परिवेश से कोई लेना-देना नहीं है। इसीलिए आज उसके पास कोई नायकनहीं बचा है। पहले एकांत में नाचते नायक-नायिका इसलिए अब भीड़ में नाचते हैं । शोर का संगीत और शब्दों का अकाल इस सिनेमा की दयनीयता का बखान करते हैं । सच कहें तो भारतीय जीवन का अनिवार्य हिस्सा बने होने के बावजूद सिनेमा पर जनता का कोई बौद्धिक अंकुश नहीं रह गया है । परिणाम यह हुआ है कि हिंदी सिनेमा पागल हाथी की तरह व्यवहार कर रहा है।
मनोविकारी फिल्मों का समयः
   हिंदी सिनेमा तो वैसे ही हॉलीवुड की जूठन उठाने और खाने के लिए मशहूर है। इसीलिए प्रेम के कोमल और मोहक अंदाज की फिल्मों के साथ मनोविकारी प्रेम की फिल्में भी बालीवुड में खूब बनीं । एक दौर में शाहरूख खान ऐसी मनोविकारी प्रेम की फिल्मों के महानायक बन गए । सही अर्थों में मनोविकारों से ग्रस्त प्रेमी को पहली बार बालीवुड में शाहरूख खान ने ग्लैमराइज्डकिया । फिल्मबाजीगरसे प्रेम में हिंसा व उन्माद के जिस दौर की शुरूआत हुई, ‘डरऔरअंजाममें उसे और विस्तार मिला । फिल्म बाजीगरमें शिल्पा शेट्टी के प्रेम में दीवाना शाहरूख खान छत से धकेल कर उसकी हत्या कर देता है। डरमें जूही की दीवानगी में वह इस कदर पागल है कि वह जूही के पति सन्नी देओल की जान से पीछे पड़ जाता है। अंजाममें शाहरूख, शादीशुदा माधुरी दीक्षित की चाहत में उसके पति की हत्या कर डालता है। इस शाहरूख लहरकी सवारी नाना पाटेकर भी अग्निसाक्षीमें करते नजर आते हैं। इस फिल्म में नाना पाटेकर स्लीपिंग विद द एनमीके नायक सरीखा पति साबित होते हैं। पूरी फिल्म एक ऐसे सनकी इंसान की कथा है, जो यह बर्दाश्त नहीं कर सकता कि उसकी पत्नी किसी और से बात भी करे । दीवानगी की इस हिंसक हद से आतंकित उसकी पत्नी कहती है वह मुझे इतना प्यार करता है कि मुझको छूकर गुजरने वाली हवा से भी नफरत करने लगा है। नाना इस फिल्म में मुहब्बत के तानाशाह के रूप में नजर आते हैं। इसके बावजूद ये फिल्में सफल रहीं। बदलते जीवन मूल्यों की बानगी पेश करती ये फिल्म एक नए विषय से साक्षात्कार कराती हैं। प्रेम की उदात्त भावनाओं के प्रति आस्था दिखाने वाला समाज एक हिंसक एवं क्रूर प्रेमी को सिर क्यों चढ़ाने लगा है, यह सवाल वस्तुतः एक बड़े समाज शास्त्रीय अध्ययन का विषय थोड़े अलग जरूर है, लेकिन वह भी प्रेम के विकृत रूप का ही परिचय कराती है।
प्रेम के चित्रण का इतिहासः
 आप हिंदी सिनेमा के 100 सालों का मूल्यांकन करें तो वह मूलतः प्रेम के चित्रण का इतिहास है। मानव सभ्यता के विकास के साथ-साथ दरअसल यौन सम्बन्धों की उन्मुक्ति एवं वर्जनाओं का भी रूप बदलता रहा है। सिनेमा की संपूर्ण यात्रा में प्रेम संबंधों की व्याख्या का दौर सबसे महत्वपूर्ण है। हिंदुस्तानी लोक चेतना में प्रेम के इस तत्व की जगह वैसे भी बहुत बड़ी है। दूसरे यौन संबंधों पर खुली बहस की कम गुंजाइश के कारण हम इसके अक्स एवं विकल्प परदे पर तलाशते रहे । दमित इच्छाओं एवं यौन कुंठाओं के इसी संदर्भ की समझ ने हिंदी सिनेमा व्यवसायियों को एक बेहतर मसाला दिया। गीत संगीत एवं प्रेम की इस चेतना का व्यवसाय फिल्म उद्योग की प्राथमिकता बन गई। इस सबके बावजूद हिंसा से लबरेज यह प्रेम, भारतीय दर्शकों के लिए बहुत अजनबी न था। हिंसाचार की शुरुआत और अंत अपने प्रेम को पाने या अनाचार से मुक्ति के लिए होती थी। पर प्रेम के आयातित संस्करण में अब अपनी मुहब्बत का ही गला घोंटने की तैयारियों पर जोर है। हिंसा प्रेमका यह दौर वास्तव में भारतीय सिने जगत की रेखांकित की जाने लायक परिघटना है, जो कहीं से भी प्रेम के परंपरागत चरित्र से मेंल नहीं खाती । हिंसा भारतीय सिनेमा की जानी पहचानी चीज है, पर नायक आम तौर पर खलनायक के अनाचार से मुक्ति के लिए हिंसा का सहारा लेता दिखता था। उसकी प्रमिका का ही उसके द्वारा उत्पीड़न, यह नया दौर है। जाहिर है समाज में ऐसी घटनाएं घट रही थीं और उनकी छाया रूपहले पर्दे पर भी दिखी। इस प्रकार की घटनाओं ने पर्दे पर भी हिंसक प्रेमकी थ्यौरीको जगह दी।
पलायनवादी नायकः
  शाहरूख खान की फिल्में इसी थ्यौरीका संदर्भ मानी जा सकती हैं। वह चुनौती को स्वीकारता नहीं, भागता है। मध्य वर्ग के नौजवान की चेतना एवं उसकी कुंठाओं का शाहरूख सच्चा प्रतिनिधि नजर आता है। वह प्यार करता है, किंतु स्वीकार का साहस उसमें नहीं हैं । उसे श्रम, रचनाशीलता एवं इंतजार नहीं है। सो वह पागलों सी हरकतें करता है, जिसमें प्रेमिका का उत्पीड़न भी शामिल है। इस प्रसंग पर मीडिया विशेषज्ञ सुधीश पचौरी की राय गौरतलब है। वे लिखते है- वह हमेशा लड़ता भिड़ता नजर आता है। किसी लड़की से छेड़छाड़ से लेकर मारपीट तकहिंसकऔर देहके रिश्ते बनाना ही उसका लक्ष्य है। उसके गीतों में भी सौंदर्य व कमनीयता के प्रतीक तलाशे नहीं मिलते। वह इंस्टेटिज्म’ (तुरंतवाद) का शिकार है। उसे जो भी कुछ चाहिए तुरंत चाहिए। इंस्टेट। अपने प्रेम को न पा सकने की स्थिति में उसे समाप्त कर देने की आकांक्षा उसके इसी पागलपन से उपजी है। आप इसे पूरे चित्र को पढ़ने की कोशिश करें तो यह भारतीय काव्य के धीरोदात्त नायक की विदाई का दौर है। इसमें लडके और लड़की के बीच कहीं प्यार या सामाजिक संबंध नहीं।पचौरी आगे लिखते शुद्ध रुप में फिजिकलरिश्ते पल रहे हैं। इसे हम फिल्मों के डांस सिक्वेंससे देख समझ सकते हैं नौजवान का 2 कैरेट खरा फिजिकल रूप ।यहां नायक और नायिका सिर्फ शरीरहैं। एक ऐसा शरीर, जिसमें मन, आत्मा, भावना, सुख व दुख सारे भाव तिरोहित हो चुके हैं। वह सिर्फ शरीरबनकर रह गया है। उसे खोज भी प्रेम के प्रतीक नहीं मिलते। इसीलिए गीतों में भी वह प्रेम की प्रतीक नहीं खोज पाता। एक गीत में नायक कहता है खंभे जैसी खड़ी है,/ लड़की है या छड़ी है। जाहिर है कोमल अनूभूतियों को व्यक्त करने वाले शब्दों व प्रतीकों के भी लाले हैं।
समाज में घट रही घटनाएं प्रेम के प्रति हिंसाचार इस संवेदनहीनता पर मुहर भी लगाती हैं। सिर्फ शरीरही बचा है, जिसमें से मन, आत्मा, भावना, सुखदुख, हर्ष-विषाद आदि सारे भाव तिरोहित हो चुके हैं। अपने अहंकार पर चोट आज के युवा को आहत करती है। वह घर, परिवार, समाज की बनी बनाई लीक को एक झटके में तोड़ डालने पर आमादा है। साहिर लुधियानवी की कुछ पंक्तियां इस संदर्भ को समझने में सहायक हो सकती हैं तुम अगर मुझको न चाहो तो / कोई बात नहीं,/ तुम किसी और को चाहोगी/तो मुश्किल होगी। साहिर की ये पंक्तियां इस घातक चाहत का बयान करती हैं। जहां प्रेम की प्राप्ति न होने पर उसे नष्ट कर डालने का संदेश फिल्मों में दिखता है। उपभोक्तावाद के ताजा दौर में भोगवादी संस्कृति के थपेड़ों में हमारा दार्शनिक आधार चरमरा गया है। इसी के चलते फिल्मों ने ऐसे नकारात्मक मूल्यों को सिर चढ़ाया है। पैसे की सनक और नवधनाढ्यों के उभार के बीच ये फिल्मी कथाएं वस्तुतः हमारे समाज के सच की गवाही हैं। समाचार पत्रों में आए दिन प्रेमी द्वारा प्रेमिका की हत्या, पत्नी की हत्या या पति की हत्या जैसे समाचार छपते हैं। दुर्भाग्य से सिनेमा और दूरदर्शन इस नकारात्मक प्रवृत्ति को एक आधार प्रदान करते हैं। फिल्मों की कथाएं देखकर छोटे कस्बे गांवों के नौजवान उससे गलत प्रेरणा ग्रहण करते हैं। कई बार वे पर्दे पर दिखाई घटना को जीवन में दोहराने की कोशिश करते हैं। निश्चित रूप से ताजा बाजारवादी अवधारणाओं में हमारा सिनेमा पाश्चात्य प्रभावों से तेजी से ग्रस्त हो रहा है। पश्चिमी जीवन की ज्यों की त्यों स्वीकार्यता हमारे समाज में संकट का सबब बनेगी। प्रेम के एक क्रूर चेहरे को भारतीय मन पर आरोपित करने की कोशिशें तेज हैं। दुर्भाग्य है कि यह सारा कुछ प्रेम के नाम पर हो रहा है।
सिनेमा पर गैरहाजिर विमर्शः
   किसी भी समाज में बौद्धिक और सांस्कृतिक अंकुश रखने का काम लेखक और विचारक ही करते हैं, कोई सरकार नहीं। फिल्मों पर हिंदी पत्रकारिता और टी. वी. चेनलों पर भी चल रही चर्चाएं एवं उन पर आधारित कार्यक्रम भी सतही और बचकाने होते हैं । हिंदी सिनेमा ने सही अर्थों में भारतीय समाज एवं उसके संघर्षों, उसकी चेतना को अपनी ही जमीन से बदखल कर दिया है। उसकी ताकत लगातार बढ़ी है, वह हमारा लोकाक्षर और दैन्दिन का व्यवहार तय करने लगा है। इतनी सशक्त माध्यम पर समूचे हिंदी क्षेत्र में ठोस विचार की शुरुआत के बजाए गाशिप बाजीचल रही है।

    सिनेमा पर लगभग गैरहाजिर विमर्श को चर्चा के केंद्र में लाना और उस पर बौद्धिक-सामाजिक अंकुश लगाना समय की जरूरत है। 1939 में हिंदी के यशस्वी कथाकार-उपन्यासकार प्रेमचंद ने लिखा था मगर खेद है कि इसे कोरा व्यवसाय बनाकर हमने उसे कला के उच्च आसन से खींचकर ताड़ी की दूकान तक पहुंचा दिया है यह बात प्रेमचंद के दौर की है, जब देश के लोग आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे और आज तो हिंदी सिनेमा विकृतियों का सुपर बाजारबन गया है। ऐसे ही चित्रों पर हमारी नई पीढ़ी और बचपन झूम-झूम कर जवान हो रहा है। क्या हम समाज के इतने प्रभावकारी माध्यम को, यूं ही बेलगाम छोड़ दें ?

Monday, August 8, 2011

लोकतांत्रिक चेतना का देश है भारतः विजयबहादुर सिंह


स्थानीय विविधताएं ही करेंगी पश्चिमी संस्कृति के हमलों का मुकाबला
भोपाल, 8 जुलाई 2011। हिंदी साहित्य के प्रख्यात आलोचक एवं विचारक डा.विजयबहादुर सिंह का कहना है कि भारत एक लोकतांत्रिक चेतना का देश है। इसकी स्थानीय विविधताएं ही बहुराष्ट्रीय निगमों और पश्चिमी संस्कृति के साझा हमलों का मुकाबला कर सकती हैं। वे यहां माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग द्वारा ‘भारत का सांस्कृतिक का अवचेतन ’ विषय पर आयोजित व्याख्यान को संबोधित कर रहे थे।
उन्होंने कहा कि ज्ञान और संस्कृति अगर अलग-अलग चलेंगें तो यह मनुष्य के खिलाफ होगा। प्रख्यात विचारक धर्मपाल का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि उनके द्वारा उठाया गया यह सवाल कि “ हम किसके संसार में रहने लगे हैं”, आज बहुत प्रासंगिक हो उठा है। हिंदुस्तान के लोग आज दोहरे दिमाग से काम कर रहे हैं, यह एक बड़ी चिंता है। सभ्यता में हम पश्चिम की नकल कर रहे हैं और धर्म के पालन में हम अपने समाज में लौट आते हैं। डा. सिंह ने कहा कि 1947 के पहले स्वदेशी, सत्याग्रह और अहिंसा हमारे मूल्य थे किंतु आजादी के बाद हमने परदेशीपन, मिथ्याग्रह और हिंसा को अपना लिया है। यह दासता का दिमाग लेकर हम अपनी पंचवर्षीय योजनाएं बनाते रहे, संविधान रचते रहे और नौकरशाही भी उसी दिशा में काम करती रही। ऐसे में सोच वा आदर्श में फासले बहुत बढ़ गए हैं। हमारा पूरा तंत्र आम आदमी के नहीं ,सरकार के पक्ष में खड़ा दिखता है। हमारा सामाजिक जीवन और लोकजीवन दोनों अलग-अलग दिशा में चल रहे हैं। जबकि हिंदुस्तान समाजों का देश नहीं ‘लोक’ है।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की पुस्तक ‘हिंद स्वराज’ का उल्लेख करते हुए विजय बहादुर सिंह ने कहा कि पश्चिम कभी भी हमारा आदर्श नहीं हो सकता, क्योंकि यह सभ्यता अपने को स्वामी और बाकी को दास समझती है। उनका कहना था कि कोई भी क्रांति तभी सार्थक है, जब उससे होने वाले परिवर्तन मनुष्यता के पक्ष में हों। आजादी के बाद जो भी बदलाव किए जा रहे हैं वे वास्तव में हमारी परंपरा और संस्कृति से मेल नहीं खाते। भारत की सांस्कृतिक चेतना त्याग में विश्वास करती है, क्योंकि वह एक आदमी को इंसान में रूपांतरित करती है। शायद इसीलिए गालिब ने लिखा कि “आदमी को मयस्सर नहीं इंशा होना”। भारत की संस्कृति इंसान बनाने वाली संस्कृति है पर हम अपना रास्ता भूलकर उस पश्चिम का अंधानुकरण कर रहे हैं, जिसे गांधी ने कभी शैतानी सभ्यता कहकर संबोधित किया था। इस अवसर पर डा. श्रीकांत सिंह, पुष्पेंद्रपाल सिंह, डा. संजीव गुप्ता, पूर्णेंदु शुक्ल, शलभ श्रीवास्तव, प्रशांत पाराशर और जनसंचार विभाग के विद्यार्थी मौजूद रहे। कार्यक्रम का संचालन विभागाध्यक्ष संजय द्विवेदी ने किया।

Monday, March 22, 2010

संदीप भट्ट का जन्मदिन मनाया छात्र-छात्राओं ने


भोपाल,22मार्च। जनसंचार विभाग के व्याख्याता संदीप भट्ट का जन्मदिन विभाग के छात्र-छात्राओं ने उत्साह से मनाया। इस मौके पर सभी ने श्री भट्ट के सुखद जीवन की कामना की। श्री भट्ट ने इस मौके पर सबकी शुभकामनाएं स्वीकारते हुए छात्र- छात्राओं के सफल जीवन की आशा जताई। इस अवसर पर विभागाध्यक्ष संजय द्विवेदी, व्याख्याता मीता उज्जैन, शलभ श्रीवास्तव खास तौर पर मौजूद रहे।

गांव और विकास की खबरें- ढूंढते रह जाओगे


विभाग में छात्रों ने की चर्चा

भोपाल, 22 मार्च। गाँव और विकास से जुड़ी खबरों को आज के दौर में अख़बार कितना स्थान दे रहे हैं। इस विषय पर माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग के छात्र-छत्राओं ने प्रस्तुतिकरण दिया।
इसमें देश के विभिन्न प्रमुख हिन्दी तथा अंग्रेजी भाषाओं के अख़बारों को शामिल किया गया था। अख़बारों में विकास से जुड़ी ख़बरों का कम होना व विज्ञापनों के बढ़ते स्थान की चिंता व्यक्त की गयी। विकास से जुड़ी खबरों में भी किस विषय को, किस पृष्ठ पर कितनी जगह दी गयी है व इसके साथ ही भाषा सम्बन्धी त्रुटियों की भी चर्चा कार्यक्रम में की गयी। गाँवों से जुड़ी ख़बरों का कम होना व उनका सिर्फ अपराध से जुड़ा होना भी प्रस्तुतिकरण के दौरान प्रमुख तथ्य के रुप में सामने आया। दो सदस्यीय दल के रूप में गठित छात्र-छत्राओं के समूह में सबसे बेहतर प्रस्तुतिकरण देने के लिए श्रेया मोहन व कृष्ण मोहन तिवारी को प्रथम स्थान मिला।
इसके अलावा एनी अंकिता व साकेत नारायण को द्वितीय तथा नितिशा कश्यप व देवाशीष मिश्रा को तृतीय स्थान प्राप्त हुआ। कार्यक्रम के अंत में छात्र कुंदन पाण्डेय, कृष्णकुमार तिवारी और दीपक त्यागी ने प्रस्तुतिकरण पर अपनी टिप्पणी दी।

Monday, March 15, 2010

भारतीय नववर्ष पर जनसंचार विभाग का आयोजन


जनसंचार विभाग द्वारा आयोजित बेहद गरिमामय आयोजन को संबोधित करते हुए विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृज किशोर कुठियाला। नए साल का महत्व बताते हुए कुलपति महोदय ने छात्र-छात्राओं के सुखद भविष्य की शुभकामनाएं दीं।

कुछ गाना भी जरूरी है नववर्ष पर


पंकज साव ने नए साल में नया रंग भरने के लिए एक सुरीला गीत गाया और सबकी तारीफ पायी। वैसे पंकज गाते बहुत अच्छा हैं। इस मौके पर विकास शर्मा ने भी एक बेहतरीन गीत सुनाया।

नए साल की क्लास


विभागाध्यक्ष संजय द्विवेदी ने भारतीय नववर्ष के पारंपरिक महत्व को बताते हुए विद्यार्थियों के उत्साह को स्वागतयोग्य बताया। उन्होंने कहा जो अपना है उसे हेय दृष्टि से देखने के बजाए, अपनी सही चीजों को आदर देने की जरूरत है। हमें अपनी जड़ों को याद रखना है।

नए साल की बधाई सर


जनसंचार विभाग की छात्रा नितिशा कश्यप शायद कुलपति सर से यही कह रही हैं। आयोजन में नए साल को मनाने का उत्साह देखते ही बन रहा था।

हर्षोल्लास से मना भारतीय नववर्ष


भोपाल,15 मार्च। सोमवार को माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय,भोपाल के जनसंचार विभाग में भारतीय नववर्ष की पूर्व संध्या पर एक कार्यक्रम आयोजित किया गया। कार्यक्रम में जनसंचार विभाग के विद्यार्थियों ने भारतीय नववर्ष से जुड़े ऐतिहासिक, पौराणिक व वैज्ञानिक तथ्यों के बारे में चर्चा की।
इस अवसर पर विश्वविद्यालय के कुलपति बृजकिशोर कुठियाला ने विभिन्न उदाहरणों के माध्यम से भारतीय संस्कृति के गौरवमय इतिहास को बताया और कहा कि हमें गर्व होना चाहिए कि हम भारतीय हैं। उन्होंने इसकी व्यवहारिकता एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी छात्रों को अवगत कराया। योग व आयुर्वेद के वैश्विक प्रसार का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि हमें अपनी श्रेष्ठ चीजें को विश्व को देने का कोशिश करनी चाहिए। श्री कुठियाला ने कहा कि हमें अपनी सांस्कृतिक वैभव से जुड़ी जानकारियों का वैश्वीकरण करना होगा तथा विदेशी ज्ञान-विज्ञान का भारतीयकरण करना होगा।
जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने कहा कि ये काफी दुःखद है कि नयी पीढ़ी भारतीय नववर्ष के बारे में कम जानती है। उन्होंने कहा कि हमें अपनी तरफ से इसको प्रोत्साहित करने की कोशिश करनी चाहिए फिर तो बाजार इसका अपने आप ही वैश्वीकरण कर देगा। इस मौके पर छात्र-छात्राओं ने नववर्ष पर स्वनिर्मित शुभकामना पत्र कुलपति श्री कुठियाला को भेंटकर उन्हें नए साल की शुभकामनाएं दीं। कार्यक्रम में पवित्रा भंडारी और एन्नी अंकिता ने कविताएं प्रस्तुत कीं तो बिकास कुमार शर्मा एवं पंकज साव ने गीत प्रस्तुत कर माहौल को सरस बना दिया।
कार्यक्रम की अध्यक्षता जनसंपर्क विभाग के अध्यक्ष डॉ पवित्र श्रीवास्तव ने की। इस अवसर पर सर्वश्री संदीप भट्ट, पूर्णेदु शुकल, शलभ श्रीवास्तव, देवेशनारायण राय, साकेत नारायण, कुंदन पाण्डेय सहित विभाग के छात्र मौजूद रहे। कार्यक्रम का संचालन शिशिर सिंह व आभार प्रदर्शन सोनम झा ने किया।