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Saturday, March 17, 2012

आज भी ज़मीन से जुड़ी है साहित्यिक पत्रकारिता





पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति पत्रकारिता सम्मान से अलंकृत हुए डॉ. हेतु भारद्वाज
भोपाल। ‘मीडिया विमर्श परिवार’ द्वारा प्रतिवर्ष दिया जाने वाला पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति अखिल भारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान इस वर्ष ‘अक्सर’ (जयपुर) के सम्पादक एवं प्रख्यात साहित्यकार डॉ. हेतु भारद्वाज को प्रदान किया गया। भोपाल के भारत भवन में आयोजित इस समारोह में देश के जाने माने साहित्यकार डॉ. विजय बहादुर सिंह ने डॉ. हेतु भारद्वाज को इस पुरस्कार से सम्मानित किया। इस सम्मान के अंतर्गत एक स्मृति चिन्ह, प्रमाणपत्र, शॉल-श्रीफल एवं 11 हजार रुपये नगद राशि दी गयी।
गौरवमयी परंपरा का सम्मानः इस अवसर पर उपस्थित डॉ. हेतु भारद्वाज ने कहा कि यह पुरस्कार उनका व्यक्तिगत सम्मान नहीं अपितु उस गौरवमयी परंपरा का सम्मान है जो प्रेमचंद और महावीर प्रसाद द्विवेदी से प्रारंभ होकर ज्ञानरंजन तक आती है। साहित्यिक पत्रकारिता आज भी माखनलाल चतुर्वेदी और पराड़कर की परंपरागत नीतियों का निर्वाह निर्भयता से कर रही है जबकि मुख्यधारा की पत्रकारिता व्यावसायिक होकर अपने पथ से विचलित हुई है। उन्होंने कहा कि सम्पादक किसी भी समाचार पत्र और पत्रिका की धुरी होता है, जो स्वयं ही एक संस्था है। परंतु वर्तमान समय में सम्पादक, संस्था न होकर मात्र एक व्यक्ति रह गया है, क्योंकि संपादक नामक इस संस्था ने ग्लैमर और भौतिकता की चकाचौंध में पाठक के प्रति अपने उत्तरदायित्व से मुँह मोड़ लिया है। इसी का परिणाम है कि स्वयं के अंतर्विरोधों को भी चिन्हित करने का मूल अधिकार संपादक के पास अब नहीं रहा। साहित्यिक पत्रकारिता इस मामले में अभी तक स्वच्छंद और निर्भीक है। यही कारण है कि इस धारा की पत्रकारिता की जड़ें आज भी माखनलाल चतुर्वेदी, पराड़कर, गणेश शंकर विद्यार्थी और माधवराव सप्रे के विचारों की ज़मीन से जुड़ी है।
क्षेत्रीय भाषाओं से अंतरसंवाद जरूरीः आयोजन की अध्यक्षता करते हुए माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृज किशोर कुठियाला ने कहा कि हमारी नई पीढ़ी के समक्ष नई चुनौतियां एवं नई समस्याएं हैं। नई तकनीक ने जिस प्रकार मानवता को जोड़ने की संभावना जगाई है वह धर्म, जाति व भौगोलिक सीमाओं से परे है। इस पीढ़ी को सौभाग्य से अत्यंत विकसित तकनीक एवं संचार प्रणाली मिली है, जिसने मार्शल मैकलुहान की ‘ग्लोबल विलेज’ की अवधारणा को सार्थक कर दिया है। परंतु इस पीढ़ी को तकनीक का उपयोग नहीं, बल्कि विवेकपूर्ण सदुपयोग करना होगा, अन्यथा भविष्य में विज्ञान का चमत्कार हमारे लिए विनाश का समाचार बनकर रह जाएगा। उन्होंने युवाओं से अपील की कि वे अंग्रेजी भाषा के साथ-साथ अपनी राष्ट्रभाषा एवं क्षेत्रीय भाषाओं में भी अंतरसंवाद बनाए रखें। प्रो. कुठियाला ने कहा कि अब समय आ गया है कि साहित्य और पत्रकारिता दोनों को अपने आपसी मतभेदों को भुलाकर साथ मिलकर वही कार्य करना चाहिए जो दोनों ने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान किया था। दोनों एक ही सृजनात्मकता के दो पहलू हैं, इसलिए दोनों को देश के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित होना चाहिए।
अटूट रिश्ता है साहित्य व पत्रकारिता काः इस अवसर पर कार्यक्रम के विशेष अतिथि के रूप में उपस्थित हुए वरिष्ठ पत्रकार पद्मश्री विजयदत्त श्रीधर ने बताया कि साहित्य और पत्रकारिता तो बहुत बाद में एक-दूसरे से अलग हुए। एक समय था जब पत्रकारिता साहित्य से अलग नहीं थी और वही हिंदी साहित्य और पत्रकारिता का स्वर्णिम काल था। जहां एक तरफ हिंदी में सरस्वती, धर्मयुग और दिनमान जैसी पत्रिकाओं से नई परंपरा का प्रारंभ हुआ, वहीं पराड़कर जी जैसे पत्रकारों ने मुद्रास्फीति, राष्ट्रपति, श्री, सर्वश्री जैसे शब्द देकर हिंदी के शब्दकोष को और पुष्ट किया। श्री श्रीधर ने कहा कि ‘जर्नलिस्ट’ के लिए हम जिस ‘पत्रकार’ शब्द का प्रयोग करते हैं, वह स्वयं माखनलाल चतुर्वेदी जी द्वारा दिया गया। साथ ही साथ हिंदी साहित्यिक पत्रकारिता ने अन्य भारतीय भाषाओं के लेखकों को भारत के कोने-कोने तक पहुंचाया। शरतचंद्र, बंकिमचंद्र और रविन्द्रनाथ टैगोर जैसे श्रेष्ठ बांग्ला लेखकों की पहुंच हिंदी-भाषी पाठकों तक बनाने में साहित्यिक पत्रकारिता का महत्वपूर्ण योगदान रहा।
उपभोक्तावादी समय का संकटः कार्यक्रम के मुख्य अतिथि प्रख्यात साहित्यकार डॉ. विजय बहादुर सिंह ने कहा कि ‘मीडिया विमर्श’ द्वारा साहित्यिक पत्रकारिता को दिया जाने वाला यह पुरस्कार उन मूल्यों की माँग और पहचान का पुरस्कार है, जिनकी समाज को महती आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि साहित्य और पत्रकारिता में दूरी इसलिए आई है क्योंकि हम रिश्तों व मूल्यों की कद्र करने वाले समय से निकलकर उपभोगवादी समय में आ गये हैं। ‘मीडिया विमर्श’ के कार्यकारी संपादक संजय द्विवेदी ने इस अवसर पर कहा कि साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में डॉ. हेतु भारद्वाज जी को सम्मानित किए जाने से भारतेंदु हरिश्चंद, महावीर प्रसाद द्विवेदी, अज्ञेय, रघुवीर सहाय एवं धर्मवीर भारती जैसे मूर्धन्य साहित्यकारों की परंपरा का सम्मान हुआ है। उन्होंने कहा कि डॉ. श्याम सुंदर व्यास, डॉ. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी एवं श्री हरिनारायण जी जैसे श्रेष्ठ एवं स्तरीय साहित्यिक पत्रकारों की श्रृंखला में डॉ. हेतु भारद्वाज को यह पुरस्कार देते हुए समस्त ‘मीडिया विमर्श परिवार’ तथा वह स्वयं गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। श्री द्विवेदी ने कहा कि साहित्य एवं पत्रकारिता के बीच यदि हमारा सेतु बनने का यह प्रयास सफल रहा तो वह समझेंगे कि पत्रकारिता पर साहित्य का जो ऋण था, उसे चुकाने का प्रयास किया गया है।
इस अवसर पर साहित्यकार कैलाशचंद्र पंत, छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यसचिव ए.के. विजयवर्गीय, एडवोकेट एवं लेखक जी.के. छिब्बर, पत्रकार शिवअनुराग पटैरया, दीपक तिवारी, बृजेश राजपूत, राखी झंवर, दिनकर सबनीस, नरेंद्र जैन, अमरदीप मौर्य, विवेक सारंग, डा. आरती सारंग, प्रो. आशीष जोशी, डा. पवित्र श्रीवास्तव, डा. पी. शशिकला, प्रो. अमिताभ भटनागर, राघवेंद्र सिंह, साधना सिंह, डा. मोनिका वर्मा, सुरेंद्र पाल, लालबहादुर ओझा, डा. अविनाश वाजपेयी, अभिजीत वाजपेयी, सुरेंद्र बिरवा सहित मीडिया विमर्श के संपादक डॉ. श्रीकांत सिंह, प्रकाशक श्रीमती भूमिका द्विवेदी तथा नगर के मीडिया से जुड़े शिक्षक एवं विद्यार्थी भी उपस्थित थे।
भारत भवन में गूंजा भारती बंधु का कबीर रागः पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति अखिल भारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान की यह शाम कबीर के नाम रही। अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कबीर गायक भारती बंधु ने कबीर राग की ऐसी तान छेड़ी कि भारत भवन के ‘अंतरंग’ का वह समां दर्शकों के मानस पटल पर आजीवन संचित रहेगा। अपने चिर-परिचित अंदाज में भारती बंधु ने कबीर के दोहों और साखियों की ऐसी तान छेड़ी कि पूरा सभागार झूम उठा। भारती बंधु की शेरो-शायरी ने दर्शकों को कभी खूब हँसाया तो कभी सोचने के लिए मजबूर कर दिया। इस अवसर पर भारती बंधु ने युवाओं से कहा कि पाश्चात्य संगीत सुनकर भले ही आप पश्चिम के क्षणिक रंग में रंग जाएं, लेकिन अगर आपको मानसिक और आत्मिक शांति चाहिए तो भारतीय संगीत के अलावा आपके पास कोई विकल्प नहीं है। इस सत्र के मुख्यअतिथि साहित्यकार कैलाशचंद्र पंत ने कार्यक्रम के प्रारंभ में भारती बंधु और साथी कलाकारों का शाल श्रीफल से सम्मान किया और कहा कि भारती बंधु की प्रस्तुति सुनना एक विरल अनुभव है यूं लगता है जैसे कबीर स्वयं हमारे बीच उतर आए हों।
प्रस्तुतिः शालिनी एवं सुमित कुमार सिंह

Friday, April 9, 2010

कायर नक्सली और बहादुर सरकारें


लोकतंत्र विरोधी ताकतों से निर्णायक लड़ाई का समय आ गया है
-संजय द्विवेदी
छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले में नक्सलियों द्वारा लगभग 76 जवानों की हत्या के बाद कहने के लिए बचा क्या है। केंद्रीय गृहमंत्री नक्सलियों को कायर कह रहे हैं, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री नक्सलियों की कार्रवाई को कायराना कह रहे हैं पर देश की जनता को भारतीय राज्य की बहादुरी का इंतजार है। 12 जुलाई, 2009 छत्तीसगढ़ में ही राजनांदगांव के पुलिस अधीक्षक सहित 29 पुलिसकर्मियों को नक्सलियों ने ऐसी ही एक घटना में मौत के घाट उतार दिया था। राजनांदगांव, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री का गृहजिला भी है। चुनौती के इस अंदाज के बावजूद हमारी सरकारों का हाल वही है। केंद्रीय गृहमंत्री और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री हर घटना के बाद नक्सलियों को इस कदर कोसने लगते हैं जैसे इस जुबानी जमाखर्च से नक्सलियों का ह्रदय परिवर्तन हो जाएगा।
सुरक्षा बलों और आम आदिवासी जनों का तरह नक्सली सामूहिक नरसंहार कर रहे हैं यह सबसे बड़ी त्रासदी है। बावजूद इसके सरकारों का भ्रम कायम है। लोकतंत्र के सामने चुनौती बनकर खड़े नक्सलवाद के खिलाफ भी हमारी राजनीति का भ्रम अचरज में डालता है। क्या कारण है कि हमारी राजनीति इतने खूनी उदाहरणों के बावजूद लोकतंत्र के विरोधियों को ‘अपने बच्चे’ कहने का साहस पात लेती है। क्या ये इतनी आसानी से अर्जित लोकतंत्र है जिसे हम किसी हिंसक विचारधारा की भेंट चढ़ जाने दें। हिंसा से कराह रहे तमाम इलाके हमारे लोकतंत्र के सामने सवाल की तरह खड़े हैं। हमारी राजनीति के पास के विमर्श, बैठकें, आश्वासन और शब्दजाल ही हैं। अपने सुरक्षाबलों को हमने मौत के मुंह में झोंक रखा है जबकि हमें खुद ही नहीं पता कि हम चाहते क्या हैं। हम नक्सलियों को कोसने और उन्हें यह बताने में लगे हैं कि वे कितने अमानवीय हैं। इन शब्दजालों से क्या हासिल होने वाला है। हम नक्सलियों को कायर और अमानवीय बता रहे हैं। अमानवीय तो वे हैं यह साबित है पर कायर हैं यह साबित करने के लिए हमारे राज्य ने कौन से कदम उठाए हैं, जिससे हमारा राज्य बहादुर साबित हो सके। हमें देखना होगा कि हमारी सरकारें एक गहरे भ्रम का शिकार हैं। शक्ति के इस्तेमाल को लेकर एक गहरा भ्रम है।
नक्सलवाद को पूरा खारिज कीजिएः
कुछ रूमानी विचारक अपनी कल्पनाओं में नक्सलियों के महिमामंडन में लगे हैं। जैसे कि नक्सली कोई बहुत महान काम कर रहे हैं। अफसोस कि वे विचारक नक्सलियों के पक्ष में महात्मा गांधी को भी इस्तेमाल कर लेते हैं। भारतीय राज्य के सामने उपस्थित यह चुनौती बहुत विकट है किंतु इसे सही संदर्भ में समझा नहीं जा रहा है। शब्दजाल ऐसे की आज भी तमाम बुद्धिजीवी ‘नक्सली हिंसा’ की आलोचना कर रहे हैं, ‘नक्सलवाद’ की नहीं। आखिर विचार की आलोचना किए बिना, आधी-अधूरी आलोचना से क्या हासिल। सारा संकट इसी बुद्धिवाद का है। अगर हम नक्सलवाद के विचार से जरा सी भी सहानुभूति रखते हैं तो हम अपनी सोच में ईमानदार कैसे कहे जा सकते हैं। नक्सलवाद या माओवाद स्वयं में लोकतंत्र विरोधी विचार है। उसे किसी लोकतंत्र में शुभ कैसे माना जा सकता है। हमें देखना होगा कि रणनीति के मामले में हमारे विभ्रम ने ही हमारा ये हाल किया है। हम बिना सही रणनीति के अपने ही जवानों की बलि ले रहे हैं। ऐसी अधकचरी समझ से हम नक्सलवादियों की सामूहिक और चपल रणनीति से कैसे मुकाबला करेगें। आजतक के उदाहरणों से तो यही साबित होता है और नक्सली हमारी रणनीति को धता बताते आए हैं। राज्य की हिंसा के अरण्यरोदन से घबराई हमारी सरकारें, भारतीय नागरिकों और जवानों की मौत पर सिर्फ स्यापा कर रही हैं। हमारी सरकार कहती हैं कि नक्सली अमानवीय हरकतें कर रहे हैं। आखिर आप उनसे मानवीय गरिमा की अपेक्षा ही क्यों कर रहे हैं। नक्सलवाद कभी कैसा था, इसकी रूमानी कल्पना करना और उससे किसी भी प्रकार की नैतिक अपेक्षाएं पालना अंततः हमें इस समस्या को सही मायने में समझने से रोकना है। वह कैसा भी विचार हो यदि उसकी हमारे लोकतंत्र और संविधान में आस्था नहीं है तो उसका दमन करना किसी भी लोकतांत्रिक विचार की सरकार व जनता की जिम्मेदारी है। जिन देशों में लोकतंत्र नहीं है वे लोकतंत्र को पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं और हम अपने लोकतंत्र को नष्ट करने की साजिशों का महिमामंडन कर रहे हैं।
जवानों के लिए क्यों सूखे आंसूः
देश की महान लेखिका अरूंधती राय ने पिछले दिनों एक महत्वपूर्ण पत्रिका में एक लेख लिखकर अपनी बस्तर यात्रा और नक्सलियों के महान जनयुध्द पर रोचक जानकारियां दी हैं और पुलिस की हिंसा को बार-बार लांछित किया है। महान लेखिका क्या दंतेवाड़ा के शहीदों और उनके परिजनों की पीड़ा को भी स्वर देने का काम करेंगीं। जाहिर वे ऐसा नहीं करेंगीं। हमारे मानवाधिकार संगठन, जरा –जरा सी बातों पर आसमान सिर पर उठा लेते हैं, आज वे कहां हैं। संदीप पाण्डेय, मेधा पाटकर और महाश्वेता देवी की प्रतिक्रियाओं की देश प्रतीक्षा कर रहा है। मारे गए जवान निम्न मध्यवर्ग की पृष्ठभूमि के ही थे, इसी घरती के लाल। लेकिन लाल आतंक ने उन्हें भी डस लिया है। नक्सलवाद या माओवाद का विचार इसीलिए खारिज करने योग्य है कि ऐसे राज में अरूंधती को माओवाद के खिलाफ लिखने की, संदीप पाण्डेय को कथित नक्सलियों के पक्ष में धरना देने की आजादी नहीं होगी। तब राज्य की हिंसा को निंदित नहीं,पुरस्कृत किया जाएगा। ऐसे माओ का राज हमारे जिंदगीं के अंधेरों को कम करने के बजाए बढ़ाएगा ही।
जनतंत्र को असली लोकतंत्र में बदलने की जरूरतः
लोकतंत्र अपने आप में बेहद मोहक विचार है। दुनिया में कायम सभी व्यवस्थाओं में अपनी तमाम कमियों के बावजूद यह बेहद आत्मीय विचार है। हमें जरूरत है कि हम अपने लोकतंत्र को असली जनतंत्र में बदलने का काम करें। उसकी कमियों को कम करने या सुधारने का जतन करें न कि लोकतंत्र को ही खत्म करने मे लगी ताकतों का उत्साहवर्धन करें। लोकतांत्रिक रास्ता ही अंततः नक्सल समस्या का समाधान है। ऐसे तर्क न दिए जाएं कि आखिर इस व्यवस्था में चुनाव कौन लड़ सकता है। पूंजीपतियों, ठेकेदारों, नेताओं और अफसरों का अगर कोई काकस हमें बनता और लोकतंत्र की बुनियाद को खोखला करता दिख रहा है तो इसके खिलाफ लड़ने के लिए सारी सरंजाम इस लोकतंत्र में ही मौजूद हैं। अकेले सूचना के अधिकार के कानून ने लोकतंत्र को मजबूत करने में एक बड़ी भूमिका अदा की है। हमें ऐसी जनधर्मी व्यवस्था को बनाने और अभिव्यक्ति के तमाम माध्यमों से जनचेतना पैदा करने के काम करने चाहिए। सारी जंग आज इसी विचार पर टिकी है कि आपको गणतंत्र चाहिए गनतंत्र। लोकतंत्र चाहिए या माओवाद। जाहिर तौर पर हिंसा पर टिका कोई राज्य जनधर्म नहीं निभा सकता। भारत के खिलाफ माओवादियों की यह जंग किसी जनमुक्ति की लड़ाई नहीं वास्तव में यह लड़ाई हमारे जनतंत्र के खिलाफ है। इस बात को हम जितनी जल्दी समझ जाएं बेहतर, वरना हमारे पास सड़ांध मारती हिंसा और देश को तोड़ने वाले विचारों के अलावा कुछ नहीं बचेगा। उम्मीद है चिंदबरम साहब भी कुछ ऐसा ही सोच रहे होंगें। इतिहास की इस घड़ी में नक्सलप्रभावित सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों की भी जिम्मेदारी है कि वे अपने कर्तव्य के निवर्हन में किंतु-परंतु जैसे विचारों से इस जंग को कमजोर न होने दें।

Monday, March 22, 2010

गांव और विकास की खबरें- ढूंढते रह जाओगे


विभाग में छात्रों ने की चर्चा

भोपाल, 22 मार्च। गाँव और विकास से जुड़ी खबरों को आज के दौर में अख़बार कितना स्थान दे रहे हैं। इस विषय पर माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग के छात्र-छत्राओं ने प्रस्तुतिकरण दिया।
इसमें देश के विभिन्न प्रमुख हिन्दी तथा अंग्रेजी भाषाओं के अख़बारों को शामिल किया गया था। अख़बारों में विकास से जुड़ी ख़बरों का कम होना व विज्ञापनों के बढ़ते स्थान की चिंता व्यक्त की गयी। विकास से जुड़ी खबरों में भी किस विषय को, किस पृष्ठ पर कितनी जगह दी गयी है व इसके साथ ही भाषा सम्बन्धी त्रुटियों की भी चर्चा कार्यक्रम में की गयी। गाँवों से जुड़ी ख़बरों का कम होना व उनका सिर्फ अपराध से जुड़ा होना भी प्रस्तुतिकरण के दौरान प्रमुख तथ्य के रुप में सामने आया। दो सदस्यीय दल के रूप में गठित छात्र-छत्राओं के समूह में सबसे बेहतर प्रस्तुतिकरण देने के लिए श्रेया मोहन व कृष्ण मोहन तिवारी को प्रथम स्थान मिला।
इसके अलावा एनी अंकिता व साकेत नारायण को द्वितीय तथा नितिशा कश्यप व देवाशीष मिश्रा को तृतीय स्थान प्राप्त हुआ। कार्यक्रम के अंत में छात्र कुंदन पाण्डेय, कृष्णकुमार तिवारी और दीपक त्यागी ने प्रस्तुतिकरण पर अपनी टिप्पणी दी।

Wednesday, March 17, 2010

खबर की कीमत


ओम थानवी
हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेंद्रसिंह हुड्डा ने राज्य की बागडोर फिर संभाल ली है। मगर यह प्रसंग उनके पिछले कार्यकाल का है। चंडीगढ़ में उनके निवास के पिछवाड़े की बगिया में हम धूप में बैठे थे। चौटाला के लोकदल और भारतीय जनता पार्टी के सफाये की खुशी माहौल पर तारी थी। पर इधर-उधर की बातों के बीच एक बात से वे आहत जान पड़े। अखबार वाले से मुखातिब थे, शायद इसलिए भीतर की टीस छलक आयी होगी। बोले अखबारों की तादाद (हरियाणा में) बहुत बढ़ गयी है, लेकिन पता नहीं किस दिशा में जा रहे हैं!
इसरार पर बगैर झिझक उन्होंने बताया : रोहतक में विरोधी दल की छोटी-सी सभा थी। उसकी खबर एक हिंदी दैनिक में पहले पेज पर छपी, जिसमें सभा की भीड़ की तादाद कई गुना बढ़ाकर बतायी गयी थी। मैंने अखबार के मालिक को फोन किया। उन्होंने जवाब दिया कि वह तो विज्ञापन था। जिसने पैसा दिया, उसका मजमून छप गया। यह जवाब सुनकर हुड्डा हैरान हुए और पूछा कि पैसा देकर क्या कोई कुछ भी छपवा सकता है? जवाब मिला – बिलकुल, सामग्री का जिम्मा उसी का होता है। मैं सकते में आ गया – हुड्डा बता रहे थे – और उनसे कहा, कल के अंक में पहला पूरा पृष्ठ हमारे लिए बुक कीजिए और एक पंक्ति बड़े-बड़े हर्फों में हमारे खर्च पर छापिए: ‘यह अखबार झूठा है’। छापेंगे न? अखबार के मालिक बोले, आप कैसी बात कर रहे हैं?
हुड्डा के मुताबिक उन्हें मालिक को यह सुनाते देर नहीं लगी कि पैसा देकर जब कोई भी झूठ छप सकता है, तो यह इबारत क्यों नहीं? इसे भी हमारे जिम्मे पर छापिए!
हुड्डा विनम्र स्वभाव के हैं, आसानी से खीझ जाहिर नहीं करते। मगर मुझे जरा संदेह नहीं हुआ कि चुनावी जद्दोजहद के बीच अखबारी गलतबयानी पर उन्होंने अपनी प्रतिक्रिया इसी तल्खी में जाहिर की होगी।
तब यही लगा कि यह इक्के-दुक्के अखबार की कारगुजारी होगी। ज्यादातर अखबारों पर ऐसी तोहमत शायद नहीं लगायी जा सकती थी। मगर आगे बिहार-उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों और फिर लोकसभा और महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में ऐसी शिकायतें आम हो गयीं। देखते-देखते ‘पेड न्यूज’ का सिलसिला एक ओढ़ी गयी बीमारी की तरह छोटे-मोटे अनेकानेक अखबारों को घेरता दिखाई देने लगा।सब जानते हैं, बरसों से हर चुनाव में प्रादेशिक अखबार उम्मीदवारों से कैसे प्रचार या समर्थन के इजहार वाले इश्तहार दबाव से हासिल करते थे। बदले में उनकी चुनावी रैलियों का बेहतर कवरेज मुहैया करवाया जाता था। हाल के चुनावों में बड़ा फर्क यह आया कि उम्मीदवारों से मनचाहे बयान और सभाओं के ब्योरे कीमत लेकर जस-के-तस छापे गये। इश्तहार के साथ छपे बयान का ज्यादा असर नहीं होता। यह बयानबाजी असरदार साबित हुई। जिसने ज्यादा रकम देकर प्रचार पाया, उसका झूठ विरोधियों को तिलमिला गया। वसूली चौड़े में आ गयी। लेकिन क्या उसे शह भी नेताओं ने नहीं दी?कहने का यह मतलब न निकालें कि यह पत्रकार बिरादरी की तरफदारी करते हुए नेताओं को कसूरवार ठहराने की कोशिश है। लेकिन ताली एक हाथ से नहीं बजती। आयोग के हर कायदे को धता बताते हुए हमारे उम्मीदवार चुनाव लड़ते हैं। पैसा पानी की तरह बहता है। सोचते होंगे, थोड़ा पानी अखबारों की तरफ बह जाए तो हर्ज क्या है। इससे दोनों की प्यास बुझती है। एक ही शर्त कि भरपाई इश्तहार की शक्ल में न हो। इसका उनको दोहरा लाभ है। एक तो यह चुनावी खर्च, खर्च नहीं ठहराया जाएगा। दूसरा, ज्यादा बड़ा, फायदा यह कि खबर की शक्ल में प्रचार अधपढ़ समुदाय को ज्यादा प्रभावित करेगा, बनिस्बत इश्तहारी प्रचार के।हुड्डा तो खैर उस चुनाव से पहले सत्ता में नहीं थे। जो सत्ता में रहते हैं, उनके अखबारों से राग-विराग के अपने रिश्ते बनते हैं। ऐसे रागियों की प्रतिक्रियाएं बड़ी दिलचस्प रहीं। बताते हैं, उत्तर प्रदेश के भाजपा नेता लालजी टंडन ने एक अखबार को कोसते हुए कहा कि कानपुर में उनके दल ने अखबार के दिवंगत मालिक के नाम पर पुल का नाम रखवाया, जमीनें दिलवायीं। उसी अखबार ने खबरों के लिए पैसे मांगे, ‘ऐसी निर्लज्जता?’
कोई पूछे कि भाजपा ने पुल का नामकरण पत्र के मालिक के नाम पर किस मकसद से किया होगा? किस भाव से नेता अखबारों को सस्ती जमीनें देते हैं?कुछ रोज पहले मुंबई में पी साईनाथ के साथ एक संगोष्ठी में शरीक था। उन्होंने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के विधानसभा क्षेत्र में बेनामी इश्तहारों की पोल कई अखबारों के पन्ने दिखाते हुए खोली। मजे की बात यह थी कि संगोष्ठी के अगले दौर में मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण खुद आने वाले थे। वे आये। पर संभवत: शिष्टाचार में किसी पत्रकार ने उनसे जिरह नहीं की। एक ने सवाल पूछ लिया : जवाब मिला – मामला चुनाव आयोग के सामने विचाराधीन है, अभी इस पर बात करना मुनासिब न होगा। कब होगा?पिछले साल आम चुनाव में बिहार में प्रभाषजी जब पूर्व विदेश राज्यमंत्री दिग्विजय सिंह के चुनाव क्षेत्र में थे, उन्हें प्रायोजित चुनावी कवरेज के लिए नामी अखबारों के रेट-कार्ड मिले। मेरे मित्र अनुराग चतुर्वेदी ने उन्हें मनचाही खबरें और तस्वीरें छपवाने के लिए तय दरों के ‘पैकेज’ और ‘रीचार्ज पैकेज’ की पुख्ता जानकारी दी। दिल्ली लौट कर उन्होंने इस भ्रष्टाचार के खिलाफ जिहाद बोला। धुआंधार लिखा, प्रेस काउंसिल गये, सरकार से भिड़े। हृदय ने असमय दगा न किया होता तो मुहिम को वे किसी तार्किक परिणति के करीब पहुंचता देखते।पर प्रभाषजी और साईनाथ आदि जुझारू पत्रकारों की कोशिशें अब रंग ला रही हैं। पैसे लेकर खबरें छापने की प्रवृत्ति के खिलाफ विवेकशील पत्रकार और संगठन एकजुट हो गये हैं। प्रेस काउंसिल, एडीटर्स गिल्ड, सूचना-प्रसारण मंत्रालय, सार्वजनिक और स्वैच्छिक संगठन अपनी दो टूक राय रख रहे हैं। हर दूसरे दिन किसी संगोष्ठी की सूचना देखने में आती है। उम्मीद बंधती है कि इसका असर होगा।लेकिन ‘पेड न्यूज’ अकेली बीमारी नहीं है। नयी और ज्यादा मुखर जरूर है। कुछ चीजें और हैं, जिन्हें लगे हाथ निराकरण प्रयासों के दायरे में ले आना चाहिए। जैसे राजनीतिक दलों और व्यापारिक प्रतिष्ठानों के हाथों मीडिया के जाने-अनजाने इस्तेमाल होने का कुचक्र। मीडिया को कीमत मिलती है और समाज के सामने प्रायोजित सामग्री परोस दी जाती है। यह काम इतनी चतुराई से होता है कि उसे आसानी से नहीं पकड़ा जा सकता। हालांकि पकड़ना नामुमकिन नहीं है।एक पूरा तंत्र विकसित है, जो पेशेवराना तौर पर मीडिया को ‘मैनेज’ करता है। निजीकरण के दौर में भी नेहरू जी की रूसी प्रेतछाया सरकारी प्रचार तंत्र पर कायम है। अपने रेडियो स्टेशन, टीवी चैनल और पत्रिकाओं के बावजूद ‘मीडिया मैनेजमेंट’ के लिए जिला प्रशासन से लेकर प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति कार्यालय तक प्रचार अधिकारी तैनात हैं। राजनीतिक दलों और सार्वजनिक व व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के पास अपने प्रचार प्रबंधक हैं। उन पर होने वाले खर्च का जोड़ लगाएंगे तो अरबों का हिसाब बैठेगा। उनका काम क्या है? डायरी-कैलेंडर से लेकर शराब, मकान, जमीन, देश-परदेस के सैर-सपाटे जैसे लालच भुगता कर मनमाफिक चीजें शाया करवाने के प्रयास करना। प्रयासों की सफलता पाठक, दर्शक या श्रोता के कितने हक में काम करती है, कितने खिलाफ – इसकी हकीकत समझने की कोशिश होनी चाहिए।चुनाव के दौरान संपादकों और संवाददाताओं के अपने आग्रह-दुराग्रह अपनी जगह होते हैं, उन्हें मिलने वाली सामग्री हमेशा क्या जरूरी खोजबीन के बाद छपती है? मसलन कुछ दल अपने पसंदीदा सर्वेकार से चुनावी सर्वे कराते हैं और उसे ठीक मतदान से पहले जारी करवाते हैं। कुछ संपादक उसे नजरअंदाज कर देते हैं, कुछ प्रमुखता से प्रकाशित करते हैं। चतुरसुजान जानते हैं कि कौन अखबार किस चीज को छापेंगे, किसको नहीं।बड़ा मुद्दा समाज को झूठी या कच्ची खबरों से गुमराह न होने देना है। ‘पेड न्यूज’ उसका एक साफ दिखने वाला रूप है, जिससे टीवी भी बचा नहीं है। अखबार ‘जगह’ बेचते हैं, टीवी ‘वक्त’। यहां तक कि इंटरनेट भी इसकी गिरफ्त में आ चुका है। टीवी पर मतदान से पहले सर्वेक्षण और नमूने के नतीजे भी खूब प्रसारित होते रहे हैं। इतने बड़े देश में चुनाव एक साथ नहीं हो पाते। एक जगह के नतीजे से दूसरी जगह हवा बन या बिगड़ सकती है। मगर सिर्फ ‘वैज्ञानिक’ अंदाजे वाले नतीजे जिज्ञासा के मारे हुए दर्शकों को परोसने का क्या सबब हो सकता है? लोग हार-जीत और सरकार बनने गिरने के फैसलाकुन अनुमानों – जिन्हें भरोसेमंद लोग पेश करते हैं – को देखने-सुनने को उमड़ पड़ते हैं। उनके साथ उमड़े आते हैं बेतहाशा इश्तहार। मानो व्यवसाय जगत की सब थैलियां इसी तरफ खुल गयी हों।‘पेड न्यूज’ न सही, धन का लोभ टीवी को भी अपनी ओर कम नहीं खींचता। चुनावी सर्वे और उनके आकलन का सिलसिला पहले पत्र-पत्रिकाओं ने शुरू किया था। इससे उन्हें ज्यादा पाठक मिलते थे। टीवी को दर्शक और विज्ञापन दोनों का फायदा है। लेकिन दर्शकों को गुमराह करने की कीमत पर। उचित ही है कि चुनाव आयोग ने मतदान को प्रभावित करने वाली सभी गतिविधियों पर तो नहीं, मगर ‘एग्जिट पोल’ पर बंदिश लागू कर दी है।मीडिया का काम जानकारी देना माना जाता है। पाठक या दर्शक-श्रोता की समझ बढ़ाना भी उसका काम है। धन लेकर प्रायोजित सामग्री में भागीदार बनने से भ्रमित करने वाली जानकारी का प्रसार होता है तो इसे भी समस्या मानकर सरोकारों में शामिल करना चाहिए। ऐसे ही उठाने-गिराने वाली राजनीतिक खबरों और बाजार को हवा देने वाली व्यापारिक खबरों के निहितार्थ और प्रयोजन पकड़े जाने चाहिए।खुशी की बात है कि एडीटर्स गिल्ड ने ‘पेड न्यूज’ के मामले को बहुत गंभीरता से लिया है। ‘खबरों के भेस में राजनीतिक विज्ञापनों’ को लेकर गिल्ड का प्रतिनिधिमंडल चुनाव आयोग से भी मिला है। मेरे खयाल में इन कोशिशों का दायरा बढ़ाना चाहिए। चुनावों के अलावा आम दिनों में भी ‘पेड न्यूज’ छपती हैं। एक उदाहरण लीजिए। पिछले महीने – 4 फरवरी को दिल्ली के एक नये हिंदी दैनिक में विश्व पुस्तक मेले पर एक पूरा पृष्ठ निकला। पुस्तक प्रेमियों ने उसे चाव से पढ़ा होगा। सामग्री क्या थी? पहले कॉलम में पहला आलेख : ‘पुस्तकों की दुनिया में बदलाव आना स्वाभाविक है। ये बदलाव अब लाएगा पेजिस बुक स्टोर। नोएडा सेक्टर 18 के रायल पैलेस में स्थित पेजिस बुक स्टोर…’। दूसरे आलेख का शीर्षक : ‘शैक्षिक पुस्तकों का उच्च प्रकाशन: वृंदा पब्लिकेशन’। तीसरा : ‘सफलता का पर्याय है उपकार प्रकाशन’। चौथा : ‘आकार बुक्स: पुस्तक प्रकाशन में नया आयाम’।शीर्षक देखकर ही समझ में आ गया कि पैसे के बदले छापी गयी सामग्री है। इसका सबूत भी पृष्ठ पर मौजूद था – उन्हीं प्रकाशकों के इश्तहार जिनकी दुकानों के बारे में आलेख या चित्र खबर की शक्ल में, बगैर किसी हवाले या स्रोत के, प्रकाशित किये गये थे।चुनावी खबर हो तो शोर भी मच सकता है, मगर क्या कोई पुस्तक-प्रेमी ऐसी सामग्री से गुमराह नहीं हुआ होगा? वह कैसे जानेगा कि किसी प्रकाशक या किताब को महान बताना महज एक सौदा है? माना जा सकता है कि शायद विज्ञापन विभाग खबरों-लेखों को इश्तहार बताना भूल गया हो। लेकिन यह भी सच है कि इश्तहार को खबर की शक्ल में छपवाने के ज्यादा दाम मिलते हैं। इसे ही कहते हैं – इस हाथ ले, उस हाथ दे!

Monday, March 15, 2010

हर्षोल्लास से मना भारतीय नववर्ष


भोपाल,15 मार्च। सोमवार को माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय,भोपाल के जनसंचार विभाग में भारतीय नववर्ष की पूर्व संध्या पर एक कार्यक्रम आयोजित किया गया। कार्यक्रम में जनसंचार विभाग के विद्यार्थियों ने भारतीय नववर्ष से जुड़े ऐतिहासिक, पौराणिक व वैज्ञानिक तथ्यों के बारे में चर्चा की।
इस अवसर पर विश्वविद्यालय के कुलपति बृजकिशोर कुठियाला ने विभिन्न उदाहरणों के माध्यम से भारतीय संस्कृति के गौरवमय इतिहास को बताया और कहा कि हमें गर्व होना चाहिए कि हम भारतीय हैं। उन्होंने इसकी व्यवहारिकता एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी छात्रों को अवगत कराया। योग व आयुर्वेद के वैश्विक प्रसार का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि हमें अपनी श्रेष्ठ चीजें को विश्व को देने का कोशिश करनी चाहिए। श्री कुठियाला ने कहा कि हमें अपनी सांस्कृतिक वैभव से जुड़ी जानकारियों का वैश्वीकरण करना होगा तथा विदेशी ज्ञान-विज्ञान का भारतीयकरण करना होगा।
जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने कहा कि ये काफी दुःखद है कि नयी पीढ़ी भारतीय नववर्ष के बारे में कम जानती है। उन्होंने कहा कि हमें अपनी तरफ से इसको प्रोत्साहित करने की कोशिश करनी चाहिए फिर तो बाजार इसका अपने आप ही वैश्वीकरण कर देगा। इस मौके पर छात्र-छात्राओं ने नववर्ष पर स्वनिर्मित शुभकामना पत्र कुलपति श्री कुठियाला को भेंटकर उन्हें नए साल की शुभकामनाएं दीं। कार्यक्रम में पवित्रा भंडारी और एन्नी अंकिता ने कविताएं प्रस्तुत कीं तो बिकास कुमार शर्मा एवं पंकज साव ने गीत प्रस्तुत कर माहौल को सरस बना दिया।
कार्यक्रम की अध्यक्षता जनसंपर्क विभाग के अध्यक्ष डॉ पवित्र श्रीवास्तव ने की। इस अवसर पर सर्वश्री संदीप भट्ट, पूर्णेदु शुकल, शलभ श्रीवास्तव, देवेशनारायण राय, साकेत नारायण, कुंदन पाण्डेय सहित विभाग के छात्र मौजूद रहे। कार्यक्रम का संचालन शिशिर सिंह व आभार प्रदर्शन सोनम झा ने किया।

Saturday, March 13, 2010

विकासमूलक संचार की तलाश


- जगदीश्वर चतुर्वेदी
विकासमूलक सम्प्रेषण का लक्ष्य है शोषण से मुक्ति दिलाना। व्यक्तिगत और सामुदायिक सशक्तिकरण। इस अर्थ में विकासमूलक सम्प्रेषण सिर्फ संदेश देने का काम नहीं करता बल्कि ‘मुक्तिकामी सम्प्रेषण’ है। आम लोगों में यह भाव पैदा करता है कि वे स्वयं भविष्य निर्माता बनें। इस प्रक्रिया में सभी शामिल हों। न कि सिर्फ लक्ष्यीभूत ऑडिएंस। इस परिप्रेक्ष्य की समझ यह है कि जब लोग शोषण और शक्ति को जान जाते हैं तो अपने आप समाधान खोज लेते हैं।
मुक्तिकामी विकासमूलक सम्प्रेषण की प्रकृति सब जगह एक जैसी नहीं होती। बल्कि इसमें अंतर भी हो सकता है। विकासमूलक सम्प्रेषण में मास कम्युनिकेशन और सूचना तकनीकी रूपों का कनवर्जन या समावेशन होता रहता है। कुछ लोग यह भी मानते हैं कि विकासमूलक सम्प्रेषण रणनीति में धार्मिक और आध्यात्मिक रणनीति मददगार साबित हो सकती है। विकासमूलक सम्प्रेषण में सभी किस्म के सवाल शामिल किए जा सकते हैं।
के.बालिस ने ”डिसपोजेविल पीपुल’ न्यू स्लेवरी इन दि ग्लोबल इकोनॉमी” में विभिन्न अनुसंधान निष्कर्षों को आधार बनाकर लिखा है कि सारी दुनिया में अभी दो करोड़ सत्तर लाख लोग गुलामी में जी रहे हैं। इनमें बच्चे और औरतें शामिल हैं जिन्हें हिंसा या हिंसा की धमकी के आधार पर गुलाम बनाया हुआ है। इनमें ऐसे लोग भी हैं जो वस्तु पाने के दले गुलामी में जी रहे हैं।
बालिस ने अपनी पुस्तक में एक अध्याय में बताया है कि थाईलैण्ड में जबरिया जिस्म की तिजारत हो रही है। पुस्तक में इसका शीर्षक ही रखा है ‘वन डॉटर इक्वल्स वन टेलीविजन। ‘यदि 21वीं शताब्दी में दुनिया का अभी भी यह हाल है तो हमें गंभीरता से भारत के संदर्भ में विकासमूलक सम्प्रेषण के मुक्तिकामी परिप्रेक्ष्य का निर्माण करना होगा। हमें यह तय करना होगा कि भारत के लिए विकासमूलक सम्प्रेषण धार्मिक मुक्ति का नजरिया प्रासंगिक है या मुक्ति का मार्क्सवादी नजरिया प्रासंगिक है।
विकासमूलक सम्प्रेषण के मुक्तिकामी धार्मिक नजरिए की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि इसमें सामाजिक इकाईयों को धार्मिक इकाईयों के रूप में देखा जाता है। वैषम्य को समाधानरहित मान लिया गया है। विकास की सफलता का श्रेय ईश्वर को दिया जाता है। विकास की सफलता के लिए ईश्वरोपासना को महत्वपूर्ण करार दिया जाता है। भारत में विकास के लिए धर्म का इस तरह का इस्तेमाल कारपोरेट घरानों से लेकर तमाम धार्मिक स्वैच्छिक संगठनों की आम रणनीति का हिस्सा है। वे इसे मनोबल बढ़ानेवाली रणनीति के रूप में व्याख्यायित करते हैं। साथ ही विकास के केन्द्र में मनुष्य की केन्द्रीय भूमिका की बजाए ईश्वर या ईश्वरोपासना को प्रतिष्ठित करते हैं।
नए कारपोरेट जगत के साथ पैदा हुए कारपोरेट धर्म की उत्पत्ति का यही रहस्य है। यह रणनीति अंतत: साम्प्रदायिक सामाजिक विभाजन और तनावों को जन्म देती है। यहां व्यक्ति का महत्व है। वह एक अनैतिहासिक कोटि के रूप में सामने आता है। इस मॉडल पर आधारित संचार संकीर्णताओं और अविवेकपूर्ण मानसिकता में इजाफा करता है। ग्राम्शी ने इटली में प्रेस में इसी तरह की प्रवृत्तियों का जिक्र करते हुए लिखा कि ‘लोकप्रिय प्रेस पाठक की संस्कृति को नियंत्रित करने के लिए भूत-प्रेत की कहानियों,अंधविश्वास आदि पर केन्द्रित कथाएं छापते रहते हैं;परिणामत: ये पत्र मौजूदा राष्ट्र का गैर-प्रान्तीकरण करते हैं। इसे रोकने के लिए विज्ञान की खबरें बेहद जरूरी हैं। ”
विकासमूलक मीडिया का नजरिया मनोरंजन के व्यवसायीकरण अथवा मनोरंजन प्राप्ति के अधिकार को लेकर उतना चिन्तित नहीं है। क्योंकि यह दोनों तत्व- व्यवसाय और मनोरंजन- पहले के समाजों में भी थे। विकासमूलक संचार मॉडल की चिन्ता है उच्च कला का वर्तमान आम जनता से अलगाव और दुराव कैसे दूर हो। लम्बे समय से पूंजीवादी समाज में उच्च कलाओं की मौजूदगी सिर्फ कलाकारों के लिए रह गई है। आज हममीडिया में जो कला रूप देख रहे हैं उनमें जनता के प्रति सम्मान का दिखावटी भाव है।
मजेदार बात यह है कि हमारे समाज में दो तरह के आलोचक हैं पहली कोटि ऐसे आलोचकों की है जो मीडिया की आदर्श भूमिका की बातें करते हैं। समाज में घटित प्रत्येक अच्छी-बुरी चीज के लिए मीडिया को कोसते रहते हैं। असल में ये ऐसे लोग हैं जो सामाजिक अलगाव के शिकार हैं। वे ऐसी भाषा और तर्क का इस्तेमाल करते हैं जो किसी के गले नहीं उतरता। इन्हें आदर्शवादी माध्यम विशेषज्ञ कह सकते हैं। दूसरी ओर ऐसे भी आलोचक हैं जो मीडिया को गरियाते हुए कलाओं के अतीत में जीते हैं। इन्हें अतीतजीवी माध्यम विशेषज्ञ कह सकते हैं। ये दोनों ही नजरिए मीडिया के वस्तुगत अध्ययन,समझ और अंतर्वस्तु के मूल्यांकन से वंचित हैं। इन दोनों ही रूझानों से बचा जाना चाहिए।
आमतौर पर मीडिया के मालिक या उत्पादक के खिलाफ यह आरोप लगाया जाता है कि वे तो वही दिखाते हैं जो जनता मांग करती है। साथ ही यह भी आरोप लगाया जाता है कि मीडिया नई तरह की चीजों के लिए नकली मांग पैदा कर रहा है। अर्थात उपभोग में वृद्धि के लिए मांग पैदा कर रहा है। प्रसिध्द कला सिद्धान्तकार गेओर्ग जीम्मल ने लिखा है ‘ऐसा नहीं है कि चीजें पहले पैदा हों फिर फैशन में आएं; चीजें पैदा ही फैशन चालू करने के लिए की जाती हैं। ‘
अर्नाल्ड हाउजर ने लिखा कि ”जिन तथ्यों पर ध्यान देना है,जिन मुद्दों पर निर्णय लेना है,जन समाधानों को स्वीकार करना है -ये सब जनता के सामने इस रूप में परोसे जाते हैं कि वह इन्हें पूरी तरह निगल ले। सामान्य तौर पर उसके समक्ष चुनाव का कोई अवसर नहीं है और वह इससे संतुष्ट भी है। ”
”भीड़ संस्कृति के उत्पाद केवल यही नहीं करते कि लोगों की रूचि बरबाद कर दें,उन्हें स्वयं के बारे में सोचने न दें,समरूपता की शिक्षा दें;वे बहुसंख्यक लोगों की आंखों के सामने पहलीबार जीवन के उन क्षेत्रों को भी खोल देते हैं जिनके सम्पर्क में वे पहले कभी नहीं आए थे। अकसर उनके पूर्वाग्रहों का अनुमोदन होता है। फिर भी आलोचना और विरोध का एक रास्ता तो खुलता ही है। जब कभी कला के उपभोक्ताओं का घेरा विस्तृत हुआ है,उसका तात्कालिक परिणाम कला उत्पादन के स्तर में गिरावट ही निकला है। ”
आम तौर पर मीडिया के बारे में जिस कॉमनसेंस का हमारा हिन्दी बुद्धिजीवीवर्ग शिकार है और मीडिया के मूल्यांकन के नाम पर गैर-मीडिया सैध्दान्तिकी के रास्ते पर चल रहा है वह विकास का सही लक्षण नहीं कहा जा सकता। मीडिया मूल्यांकन के नाम पर साहित्यिक पत्रिकाओं में जिस तरह का दृष्टिकोण परोसा जा रहा है वह मीडिया समीक्षा का घटिया नमूना है। ये लोग मीडिया को षडयंत्रकारी और शैतान के रूप में चित्रित कर रहे हैं। ऐसी आलोचना का मीडिया की सही समझ से कोई लेना-देना नहीं है।
(लेखक प्रख्यात संचार चिंतक एवं कोलकाता वि‍श्‍ववि‍द्यालय के हि‍न्‍दी वि‍भाग में प्रोफेसर हैं)