Saturday, March 13, 2010

विकासमूलक संचार की तलाश


- जगदीश्वर चतुर्वेदी
विकासमूलक सम्प्रेषण का लक्ष्य है शोषण से मुक्ति दिलाना। व्यक्तिगत और सामुदायिक सशक्तिकरण। इस अर्थ में विकासमूलक सम्प्रेषण सिर्फ संदेश देने का काम नहीं करता बल्कि ‘मुक्तिकामी सम्प्रेषण’ है। आम लोगों में यह भाव पैदा करता है कि वे स्वयं भविष्य निर्माता बनें। इस प्रक्रिया में सभी शामिल हों। न कि सिर्फ लक्ष्यीभूत ऑडिएंस। इस परिप्रेक्ष्य की समझ यह है कि जब लोग शोषण और शक्ति को जान जाते हैं तो अपने आप समाधान खोज लेते हैं।
मुक्तिकामी विकासमूलक सम्प्रेषण की प्रकृति सब जगह एक जैसी नहीं होती। बल्कि इसमें अंतर भी हो सकता है। विकासमूलक सम्प्रेषण में मास कम्युनिकेशन और सूचना तकनीकी रूपों का कनवर्जन या समावेशन होता रहता है। कुछ लोग यह भी मानते हैं कि विकासमूलक सम्प्रेषण रणनीति में धार्मिक और आध्यात्मिक रणनीति मददगार साबित हो सकती है। विकासमूलक सम्प्रेषण में सभी किस्म के सवाल शामिल किए जा सकते हैं।
के.बालिस ने ”डिसपोजेविल पीपुल’ न्यू स्लेवरी इन दि ग्लोबल इकोनॉमी” में विभिन्न अनुसंधान निष्कर्षों को आधार बनाकर लिखा है कि सारी दुनिया में अभी दो करोड़ सत्तर लाख लोग गुलामी में जी रहे हैं। इनमें बच्चे और औरतें शामिल हैं जिन्हें हिंसा या हिंसा की धमकी के आधार पर गुलाम बनाया हुआ है। इनमें ऐसे लोग भी हैं जो वस्तु पाने के दले गुलामी में जी रहे हैं।
बालिस ने अपनी पुस्तक में एक अध्याय में बताया है कि थाईलैण्ड में जबरिया जिस्म की तिजारत हो रही है। पुस्तक में इसका शीर्षक ही रखा है ‘वन डॉटर इक्वल्स वन टेलीविजन। ‘यदि 21वीं शताब्दी में दुनिया का अभी भी यह हाल है तो हमें गंभीरता से भारत के संदर्भ में विकासमूलक सम्प्रेषण के मुक्तिकामी परिप्रेक्ष्य का निर्माण करना होगा। हमें यह तय करना होगा कि भारत के लिए विकासमूलक सम्प्रेषण धार्मिक मुक्ति का नजरिया प्रासंगिक है या मुक्ति का मार्क्सवादी नजरिया प्रासंगिक है।
विकासमूलक सम्प्रेषण के मुक्तिकामी धार्मिक नजरिए की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि इसमें सामाजिक इकाईयों को धार्मिक इकाईयों के रूप में देखा जाता है। वैषम्य को समाधानरहित मान लिया गया है। विकास की सफलता का श्रेय ईश्वर को दिया जाता है। विकास की सफलता के लिए ईश्वरोपासना को महत्वपूर्ण करार दिया जाता है। भारत में विकास के लिए धर्म का इस तरह का इस्तेमाल कारपोरेट घरानों से लेकर तमाम धार्मिक स्वैच्छिक संगठनों की आम रणनीति का हिस्सा है। वे इसे मनोबल बढ़ानेवाली रणनीति के रूप में व्याख्यायित करते हैं। साथ ही विकास के केन्द्र में मनुष्य की केन्द्रीय भूमिका की बजाए ईश्वर या ईश्वरोपासना को प्रतिष्ठित करते हैं।
नए कारपोरेट जगत के साथ पैदा हुए कारपोरेट धर्म की उत्पत्ति का यही रहस्य है। यह रणनीति अंतत: साम्प्रदायिक सामाजिक विभाजन और तनावों को जन्म देती है। यहां व्यक्ति का महत्व है। वह एक अनैतिहासिक कोटि के रूप में सामने आता है। इस मॉडल पर आधारित संचार संकीर्णताओं और अविवेकपूर्ण मानसिकता में इजाफा करता है। ग्राम्शी ने इटली में प्रेस में इसी तरह की प्रवृत्तियों का जिक्र करते हुए लिखा कि ‘लोकप्रिय प्रेस पाठक की संस्कृति को नियंत्रित करने के लिए भूत-प्रेत की कहानियों,अंधविश्वास आदि पर केन्द्रित कथाएं छापते रहते हैं;परिणामत: ये पत्र मौजूदा राष्ट्र का गैर-प्रान्तीकरण करते हैं। इसे रोकने के लिए विज्ञान की खबरें बेहद जरूरी हैं। ”
विकासमूलक मीडिया का नजरिया मनोरंजन के व्यवसायीकरण अथवा मनोरंजन प्राप्ति के अधिकार को लेकर उतना चिन्तित नहीं है। क्योंकि यह दोनों तत्व- व्यवसाय और मनोरंजन- पहले के समाजों में भी थे। विकासमूलक संचार मॉडल की चिन्ता है उच्च कला का वर्तमान आम जनता से अलगाव और दुराव कैसे दूर हो। लम्बे समय से पूंजीवादी समाज में उच्च कलाओं की मौजूदगी सिर्फ कलाकारों के लिए रह गई है। आज हममीडिया में जो कला रूप देख रहे हैं उनमें जनता के प्रति सम्मान का दिखावटी भाव है।
मजेदार बात यह है कि हमारे समाज में दो तरह के आलोचक हैं पहली कोटि ऐसे आलोचकों की है जो मीडिया की आदर्श भूमिका की बातें करते हैं। समाज में घटित प्रत्येक अच्छी-बुरी चीज के लिए मीडिया को कोसते रहते हैं। असल में ये ऐसे लोग हैं जो सामाजिक अलगाव के शिकार हैं। वे ऐसी भाषा और तर्क का इस्तेमाल करते हैं जो किसी के गले नहीं उतरता। इन्हें आदर्शवादी माध्यम विशेषज्ञ कह सकते हैं। दूसरी ओर ऐसे भी आलोचक हैं जो मीडिया को गरियाते हुए कलाओं के अतीत में जीते हैं। इन्हें अतीतजीवी माध्यम विशेषज्ञ कह सकते हैं। ये दोनों ही नजरिए मीडिया के वस्तुगत अध्ययन,समझ और अंतर्वस्तु के मूल्यांकन से वंचित हैं। इन दोनों ही रूझानों से बचा जाना चाहिए।
आमतौर पर मीडिया के मालिक या उत्पादक के खिलाफ यह आरोप लगाया जाता है कि वे तो वही दिखाते हैं जो जनता मांग करती है। साथ ही यह भी आरोप लगाया जाता है कि मीडिया नई तरह की चीजों के लिए नकली मांग पैदा कर रहा है। अर्थात उपभोग में वृद्धि के लिए मांग पैदा कर रहा है। प्रसिध्द कला सिद्धान्तकार गेओर्ग जीम्मल ने लिखा है ‘ऐसा नहीं है कि चीजें पहले पैदा हों फिर फैशन में आएं; चीजें पैदा ही फैशन चालू करने के लिए की जाती हैं। ‘
अर्नाल्ड हाउजर ने लिखा कि ”जिन तथ्यों पर ध्यान देना है,जिन मुद्दों पर निर्णय लेना है,जन समाधानों को स्वीकार करना है -ये सब जनता के सामने इस रूप में परोसे जाते हैं कि वह इन्हें पूरी तरह निगल ले। सामान्य तौर पर उसके समक्ष चुनाव का कोई अवसर नहीं है और वह इससे संतुष्ट भी है। ”
”भीड़ संस्कृति के उत्पाद केवल यही नहीं करते कि लोगों की रूचि बरबाद कर दें,उन्हें स्वयं के बारे में सोचने न दें,समरूपता की शिक्षा दें;वे बहुसंख्यक लोगों की आंखों के सामने पहलीबार जीवन के उन क्षेत्रों को भी खोल देते हैं जिनके सम्पर्क में वे पहले कभी नहीं आए थे। अकसर उनके पूर्वाग्रहों का अनुमोदन होता है। फिर भी आलोचना और विरोध का एक रास्ता तो खुलता ही है। जब कभी कला के उपभोक्ताओं का घेरा विस्तृत हुआ है,उसका तात्कालिक परिणाम कला उत्पादन के स्तर में गिरावट ही निकला है। ”
आम तौर पर मीडिया के बारे में जिस कॉमनसेंस का हमारा हिन्दी बुद्धिजीवीवर्ग शिकार है और मीडिया के मूल्यांकन के नाम पर गैर-मीडिया सैध्दान्तिकी के रास्ते पर चल रहा है वह विकास का सही लक्षण नहीं कहा जा सकता। मीडिया मूल्यांकन के नाम पर साहित्यिक पत्रिकाओं में जिस तरह का दृष्टिकोण परोसा जा रहा है वह मीडिया समीक्षा का घटिया नमूना है। ये लोग मीडिया को षडयंत्रकारी और शैतान के रूप में चित्रित कर रहे हैं। ऐसी आलोचना का मीडिया की सही समझ से कोई लेना-देना नहीं है।
(लेखक प्रख्यात संचार चिंतक एवं कोलकाता वि‍श्‍ववि‍द्यालय के हि‍न्‍दी वि‍भाग में प्रोफेसर हैं)

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