Monday, March 29, 2010

जाति प्रथा- एक अभिशाप


प्रस्तुतिःशिशिर सिंह
जनसंचार सेमेस्टर-II

आधुनिक भारत के इतिहास के आरंभ से ही समाजसुधारक, राजनेता और चिन्तक यहां तक की अब भारत का सर्वोच्च न्यायालय इस तथ्य को रेखांकित करता रहा है कि भारत के चौतरफा विकास के लिए जाति प्रथा का अंत होना जरूरी है। सर्वोच्च न्यायलय की इस मान्यता के पीछे यह कड़वी सच्चाई काम कर रही है कि, जाति प्रथा और जातिवादी चेतना ने भारतीयों के जीवन के हर क्षेत्र में विध्वंसकारी भूमिका अदा की है। आजादी के साठ वर्ष के बाद भी तथा देश के संविधान और कानून में उसके निराकरण के लिए किए गए प्रावाधानों के बावजूद यह व्यवस्था कमजोर पड़ने के बजाए और ढृढ ही होती दिखाई दे रही है। आज देश में एक भी जाति ऐसी नहीं है जो जातिवादी चेतना से ग्रस्ति न हो। एक आम रुझान यह देखने को मिलता है कि जातिवाद के सभी अभिव्यक्तियों को एक समान मानकर उनकी एक ढंग से निन्दा व आलोचना की जाती है। आवश्यकता इस बात की है कि जातिवादी चेतना के विभिन्न रंग रुपों में अंतर स्पष्ट किया जाए और उनके मूर्त सार तत्व को पकड़ा जाए।
जाति एक विभाजक शक्ति
जाति प्रथा और जातिवाद देश के अंदर एक विभाजनकारी शक्ति के रुप में काम कर रही हैं। इसमें इस व्यवस्था ने देश के अंदर की एकता को तोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आजादी के बाद से ही बिहार में गुजरात में, हाल ही में राजस्थान, दिल्ली, उत्तर प्रदेश आदि स्थानों पर आरक्षण के सवाल पर एक जाति के लोग दूसरी जाति के विरुद्ध खड़े हो गए हैं। आज बाह्मण हो या क्षत्रिय, वैश्य हो या दलित या पिछड़ी जातियां हों, कोई भी ऐसी जाति नहीं है जिसका अपना एक या एक से अधिक जाति संगठन मौजूद न हो। ब्राह्मण सभा, क्षत्रिय सभा, पाल समाज, खटीक समाज, आदि सभी समाजों के अपने संगठन है और सभी अपनी जाति के तंग दायरे में रहकर ही सोचते हैं।
जाति की विभाजनकारी भूमिका से प्रशासनिक सेवायें भी अछूती नहीं रही है। जाति के आधार पर गोलबंदी पुलिस और प्रशासन के अधिकारियों तथा कर्मचारियों के अंदर भी देखने को मिल जाती है। जातिवादी उभार ने जाति पंचायतों को विशेषकर उत्तर प्रदेश व हरियाणा में सक्रिय तथा मजबूत किया है। ये जाति पंचायतें देश के संविधान, कानून तथा मानवाधिकारों का उल्लंघन करते हुए व्यक्ति की स्वतंत्रता व जीवन के अधिकार पर हमला कर बर्बर युग की याद दिला देती है। वह युवक-युवतियों को अंतर्जातीय विवाह करने पर मौत की सजा सुना देती है। गोत्र नियमों के उल्लंघन के नाम पर वह पति-पत्नी को अपना रिश्ता तोड़कर भाई-बहन के रुप में रहने का तुगलकी फरमान जारी कर देती हैं। ऐसा करते समय वह देश के कानून और संविधान को मुंह चिढ़ा रही होती है। जाति पंचायतें जाति की विभाजनकारी भूमिका को और गहरा करने का काम करती है।
सवर्णों के अंदर पाई जाने वाली जाति चेतना
सवर्णों के अंदर पायी जानी वाली जातिवादी चेतना का एक रुप वह है जो उनकी सामंती-शोषक मनोवृत्ति का परिचायक है। एक समय था जब दबंग जातियों के रुप में सवर्ण जमीन के मालिक थे, सरकारी नौकरियों पर एक तरह से उनका एकाधिकार था। उद्योग व्यापार उनके हाथ में थे। सरकार पर उनका वर्चस्व था तथा सामाजिक क्षेत्र में वह विशेष अधिकार संपन्न समुदाय के रुप में थे। आजादी के बाद सीमित रुप में ही सही पर उनकी इस स्थिति में प्रतिकूल बदलाव आया। उनके वर्चस्व और विशेष अधिकरों को चुनौती मिलने लगी। इस परिस्थिति में सामंती-शोषक मनोवृत्ति से ग्रस्त सवर्णों का यह तबका हर कीमत पर अपने राजनीतिक आर्थिक एवं सामाजिक विशेष अधिकरों को बनाये रखने के लिए कृत संकल्प हो आक्रमक रुख अपना लेता है। बराबरी तथा न्याय के लिए दलितों की आवाज को वह बल प्रयोग द्वारा कुचल देना चाहता है। दलितों की ह्त्यायें, उनकी बस्तियों में लूट और आगजनी, उनकी महिलाओं के साथ बलात्कार आदि जघन्य अपराध इसी जातिवादी सोच से निकलते हैं।
दूसरा पहलू है सरकार की गलत नीतियां : आर्थिक तबाही के चलते आजकल अधिकांश सवर्ण नौजवानों के सामने शिक्षा एवं रोजगार की गंभीर समस्या पैदा हो गई है। शिक्षा पाने के अवसरों से वंचित होना और बेरोजगारी का शिकार होना यह वर्तमान सरकार और विकास के सत्यानाशी नीतियों का परिणाम है।
लेकिन जातिवादी नेताओं ने उसे यह कहकर गुमराह कर दिया कि उसे शिक्षा और रोजगार के अवसर से इसलिए वंचित होना पड़ा रहा है क्योंकि आरक्षण के व्यवस्था के चलते यह अवसर दलितों और पिछड़ो को आरक्षित कर दिये गये हैं। जातिवादी ताकतों के बहकावे में आकर यह नौजवान आरक्षण की नीति को अपनी बर्बादी का कारण मान लेता है और अपनी जाति के स्वार्थी नेताओं के द्वारा बहकाया जाकर जातीय दंगो व संघर्षों में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेने लगता है।
पिछड़ो के अंदर जातिगत चेतना
जहां तक पिछड़ो और दलितों का संबंध है यह याद रखना होगा कि वह जातियां तो है ही, लेकिन इसके साथ ही आजादी के साठ वर्ष के अंदर होने वाले सामाजिक, आर्थिक परिवर्तनों ने उनके अंदर भी वर्ग विभाजन को पैदा कर दिया है। आजादी के बाद के भू-सुधारों ने चाहे वह कितने ही अधूरे और सतही क्यों न रहे हो। ग्रामीण क्षेत्र में पिछड़ी जातियों की आर्थिक स्थिति में महत्वपूर्ण बदलाव किया है। आजादी से पूर्व इन पिछड़ी जातियों के पास कृषि भूमि का मात्र आठ प्रतिशत था। लेकिन आजादी के बाद के सुधारों के फलस्वरुप वह वर्तमान में लगभग चालीस फीसदी कृषि भूमि के मालिक हैं। ग्राम सभा, जंगल और नजूल की जमीन पर जो अवैध कब्जा किया हुआ है वह अलग। इसके फलस्वरुप हिन्दी भाषी क्षेत्र में जाट, यादव, कुर्मी आदि भू-स्वामी अर्थात् गांव में वर्चस्ववादी जाति के रुप में उभर कर सामने आये हैं। इन जातियों के इस भू-स्वामी तबके में वही शोषक सामंती जातिवादी सोच पैदा हो गयी है जो ग्रामीण सवर्णों में पाई जाती है।
जातिवाद और राजनीति
जातिप्रथा ने देश की संसदीय जनतांत्रिक पद्धति को प्रदूषित करने का ही काम किया है। उसने एकीकरण की चेतना को कमजोर बना करके उसके स्थान पर जाति आधारित राजनीतिक चेतना को स्थापित किया है। यह राजनीतिक जातिवादी चेतना कई रूपों में काम कर रही है। एक स्वस्थ राजनीति में राजनीतिक दलों की पहचान उनके राजनीतिक कार्यक्रम तथा राजनीतिक विचारधारा से होती है। लेकिन जातिवादी की मेहरबानी के कारण भारत में विशेषकर हिन्दी भाषी क्षेत्र में अधिकांश राजनीतिक दलों को उनके जातीय जनाधार के आधार पर चिन्हित करने और उसी रुप में उनके प्रति रुख अपनाने का रुझान बढ़ा है। इस तरह बहुजन समाज पार्टी मूलतः दलितों की पार्टी हो जाती है जो अपने राजनीतिक प्रभाव को बढ़ाने के लिए दूसरी जातियों के साथ समीकरण बैठाने का काम करती है। समाजवादी पार्टी का मूल जातीय जानाधार पिछड़ों में यादव जाति है। उत्तर प्रदेश में अपना दल कुर्मियों की राजनीतिक पार्टी है। राजनीति में इस क्षेत्र में जाति का आधार कोई नयी बात नहीं है। न केवल हिन्दी भाषी क्षेत्र में बल्कि देश के पैमाने पर सत्ता में अपनी इजारेदारी को कांग्रेस ने जो एक राष्ट्रीय दल कहा जाता है, ब्राह्मण, दलित जातियों के गठजोड़ के साथ अल्पसंख्यकों को लेकर स्थापित किया था। चौधरी चरण सिंह जब कांग्रेस से अलग हुए तो उन्होंने ग्रामीण क्षेत्र में वर्चस्व रखने वाली जातियों अहीर, जाट, गुर्जर तथा राजपूतों को साथ लेकर अपने राजनीतिक दल का गठन किया था। हिन्दुत्व के एजेंडे को लेकर चलने वाली भारतीय जनता पार्टी और उसका आदि रुप जनसंघ पार्टी स्वाभाविक तौर पर सवर्ण जातियों की पार्टी के रुप में पहचान रखती है। जाति आधारित राजनीतिक दल केवल हिन्दी भाषी क्षेत्र की ही विशिष्टता नहीं है। सुदूर दक्षिण में तमिलनाड़ु में पीएमके तथा एनडीएमके पार्टियां भी जातिवादी पार्टिय़ां होने के अलावा और कुछ भी नहीं है। आंध्र प्रदेश हो या कर्नाटक, गुजरात हो या महाराष्ट्र इन सभी स्थानों पर अधिकांश राजनीतिक दल (केवल वामदलों को अपवाद के रुप में छोड़कर) जातिवादी के चश्मे से देखने, संगठित होने और काम करने की बीमारी के शिकार है।
जब राजनीतिक दल ही जाति के विषाणु से ग्रस्त है तो फिर राजनीतिक चुनाव पद्धति कैसे उससे बच सकती है। चुनाव के दौरान, वह चुनाव चाहे लोकसभा का हो या विधानसभा का हो अथवा स्थानीय संस्थाओं का हो, जाति की अहम भूमिका हो जाती है। राजनीतिक दलों के लिए जातियां वोट बैंक में तब्दील हो जाती है। जिनको अपने कब्जे में लेने के लिए वह किसी भी तरह के अवसरवादी कदम उठाने से नहीं हिचकिचाते हैं। उदाहरण के लिए राजस्थान में विधानसभा चुनाव जीतने के लिए एक आम चुनाव के दौरान भारतीय जनता पार्टी ने जाटों को आरक्षण का लाभ देने के लिए उन्हें ‘पिछड़ा’ घोषित कर दिया, इसका लाभ उन्हें चुनाव में मिला। अगले अर्थात आगामी चुनाव में इसी कार्यनीति पर अमल करते हुए गुर्जरों को ‘अनुसूचित जाति’ घोषित करने का वायदा किया गया। इस वायदे के पूरा न होने से राजस्थान में सरकार और गुर्जरों के बीच में तो टकराव हुआ ही इसने गुर्जर और मीणा जाति को भी जातियुद्ध में आमने सामने खड़ा कर दिया। समानता पर विश्वास रखने वाले ‘समाजवाद’ में आस्था रखने वाली समाजवादी पार्टी जाति प्रथा को नष्ट करने के लिए संघर्ष न चलाकर, वोट बैंक के खातिर विभिन्न जातियों के ‘समाजवादी’ संगठन बना रही है। इस तरह समाजवादी क्षत्रिय सभा आदि जातिवादी संगठन अस्तित्व में आकर सक्रिय हो जाते हैं। विभिन्न पार्टियां चुनाव के लिए अपने प्रत्याशियों का चयन करते समय उनकी योग्यता से पहले जाति को देखती हैं। यह देखा जाता है कि उस क्षेत्र के मतदाताओं से वह कितने जाति वोट पा सकता है। चुनाव प्रचार के समय चुनाव घोषणा पत्र हाथी के दिखाने के दांत की तरह होते हैं। असली प्रचार स्थानीय स्तर के जाति नेताओं को मोलतोल कर अपने पक्ष में करने का होता है ताकि उनके माध्यम से एकमुश्त जाति वोट प्राप्त हो सके। इसलिए एक चुनाव विश्लेषक ने टिप्पणी की थी भारत में लोग वोट नहीं करते हैं अपितु अपनी जाति के लिए वोट करते हैं (Do Not Caste vote but vote their caste).
जाति आधारित उत्पीड़न और अपराध
जाति प्रथा के बढ़ते कुप्रभाव ने समाजिक न्याय के प्रश्न को एक महत्वपूर्ण प्रश्न बना दिया है। संविधान के प्रावधानों तथा देश के कानूनों को मुंह चिढ़ाते हुए दलितों के प्रति अत्याचार, अपराध और भेदभाव कम होने के स्थान पर बढ़ ही रहे हैं। गृह मंत्रालय द्वारा जारी किए गए आंकडे इस कड़वी सच्चाई को सामने लाते हैं। 2006 के लिए गृह मंत्रालय द्वारा जारी किए गए आंकडे दलितों पर अपराधों की एक भयावह तस्वीर पेश करते हैं। इस वर्ष उत्तर प्रदेश में अनसूचित जातियों के खिलाफ दर्ज अपराधों की संख्या 4960 थी, जो देश में सबसे अधिक थी। दूसरे स्थान पर मध्यप्रदेश था जहां 4214 अपराध दर्ज किए गए। पूरे देश में दर्ज किए गए अपराधों में से आधे से अधिक हिन्दी भाषी क्षेत्र में ही थे। दक्षिण और पश्चिम भारत भी कोई अपवाद नहीं रहे। दक्षिण भारत में सबसे ज्यादा अपराध आंध्र प्रदेश में हुए जहां इनकी संख्या 3891 थी। चिन्ता की बात यह है कि अपराधों की यह संख्या साल-दर-साल कम होने के बजाए बढ़ती ही जा रही है। उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश में 2004 में यह संख्या 3785 थी, 2005 में बढ़कर 4397 हो गयी और जैसा कि उल्लेख किया जा चुका है 2006 में 4960 पहुंच गयी है।
उ.प्र. में इटावा के एक गांव में पूरे दलित परिवार की हत्या करने की, फतेहपुर में ग्राम प्रधान दलित महिला की हत्या की घटना चर्चा में रही तो आगरा में दलित बस्ती में आग लगाये जाने का काम हुआ। उत्तर प्रदेश के बाहर महाराष्ट्र के खेरालांजी में दलित हत्याकांड़ ने पूरे देश को ही एक तरह से हिलाकर रख दिया था।
इन अपराधों का सबसे क्रूर पहलू दलित महिलाओं के प्रति अपनायी गयी विकृत मानसिक सोच है। भारतीय समाज में महिला को जाति और परिवार की प्रतिष्ठा का प्रतीक माना जाता है। अतः दलितों पर हमले करते समय उनकी मान प्रतिष्ठा को धूल-धूसारित करने के लिए महिलाओं को खासतौर पर निशाना बनाया जाता है। दलित महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनायें हिन्दी भाषी क्षेत्र में आए दिन की बात है। पश्चिम उत्तर प्रदेश और उससे सटे हुए इलाके में दलित महिलाओं के प्रति प्रचलित वाक्य ‘बकरी को कभी भी दुहा जा सकता है और दलित महिला के साथ कहीं भी और कभी भी सोया जा सकता है’ इस इलाके की दलित और महिला विरोधी विकृत रुग्ण मानसिकता को उजागर करने के लिए पर्याप्त है। दलितों को सिर्फ अत्याचार, उत्पीड़न और अनाचार का ही सामना नहीं करना पड़ रहा है। छूआछूत निवारक कानून के बावजूद वह आज भी समाजिक भेदभाव और असमानता के शिकार है। यह भेदभाव कई रुपों में देखने को मिलता है। आज भी उन्हें कई स्थानों पर मंदिरों में प्रवेश करने की अनुमति नहीं है। यदि कानून की शक्ति के बल पर एक कद्दावर राष्ट्रीय नेता जगजीवन राम बनारस में विश्वनाथ के मंदिर में प्रवेश कर भी जाते हैं तो उस मंदिर को धार्मिक अनुष्ठानों के द्वारा पुनः पवित्र किया जाता है। तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश में सार्वजनिक ढाबों और चाय की दुकानों में दो ग्लास की परंपरा(दलितों के लिए अलग ग्लास, उच्च जातियों के लिए अलग ग्लास) का आज भी पालन होता है। राजस्थान के अंदरुनी ग्रामीण इलाकों के स्कूलों में दलित बच्चों को आज भी घड़े से सीधे पानी निकालकर पीने की अनुमति नहीं है। हिन्दी भाषी क्षेत्र के लगभग सभी प्रदेशों में यह देखने को मिला है कि जहां भी स्कूलों में ‘मिड़ डे मील’ योजना के अंतर्गत दलित महिला के द्वारा भोजन पकाया गया तो उसे ऊंची जाति के छात्रों ने खाने से इंकार कर दिया। उड़ीसा में एक दलित छात्रा को साइकिल पर सवार होकर स्कूल जाने की अनुमति उच्च जाति के लोगों ने नहीं दी। पुलिस के संरक्षण में ही लड़की साइकिल से यात्रा कर सकी। दलितों के साथ भेदभाव यहीं तक सीमित नहीं है। नौकरियों के मामले में भी उनके साथ भेदभाव हो रहा है। अकसर यह तर्क दिया जाता है कि नौकरियां योग्यता के आधार पर होती है और भेदभाव योग्यता उन्नमुख होता है जाति उन्नमुख नहीं। इस ढकोसले का पर्दाफाश हाल ही में किए गए एक शोध से हो जाता है। इस शोध में एक ही योग्यता को दर्शाने वाले आवेदन पत्र दलित, अल्पसंख्यक और सवर्ण आवेदनकर्ता के रुप में भेजे गए। साक्षात्कार के लिए अधिकांश जगह से केवल सवर्णों को बुलाया गया । उसी योग्यता के होने के बावजूद दलित को साक्षात्कर के लिए भी नहीं बुलाया गया। यह समाज में मौजूद भेदभाव पर आधारित दलित विरोधी चेतना का परिचायक है। यही चेतना है जसके चलते आरक्षण की व्यवस्था के बावजूद आज भी सरकारी और सार्वजनिक संस्थाओं में दलितों को जितनी नौकरियां प्राप्त होना चाहिए थी उसकी आधी भी प्राप्त नहीं हुई है।
जातिवादी उभार का लाभ उठाकर दलितों एवं पिछड़ो के अंदर के बुर्जुआ सामंती शोषक तत्व अपनी जनता के अधिकांश को अपने पीछे लामबंद करने में सफल हो जाते हैं, इस शोषित जनता के वास्तविक हितों और संघर्षों की उपेक्षा करते हुए सामाजिक न्याय के नारे से भ्रमित कर अपने पीछे गोल बंद कर लेते हैं। देश में सामाजिक न्याय तथा समानता पर आधारित समाज की स्थापना की कल्पना भी जाति प्रथा के रहते नहीं की जा सकती ह। जातिप्रथा अपने जन्म से ही शोषण का हथियार रही है। जातिप्रथा का इतिहास इसका गवाह है ।
जातिवाद से लड़ने का रास्ता
जातिप्रथा और जातिवाद के विरुद्ध प्राचीनकाल से ही आवाज उठती रही है। प्राचीन भारत में गौतम बुद्ध और महावीर मध्यकाल में कबीर और नानक जैसे संत तथा आधुनिक भारत में 19वीं सदी के समाजसुधारक एवं 20वीं सदी में अम्बेडकर जैसे योद्धा जातिप्रथा के विरुद्ध संघर्ष करते आये हैं। किन्तु इन सभी संघर्षों के बावजूद जातिप्रथा आज भी बनी हुई है। यह बताता है इन सुधारकों के प्रयास निष्फल रहे। इन प्रयासों की निष्फलता का कारण यह था कि वह जाति प्रथा की वास्तविकता की पूर्णरुप से ग्रहण नहीं कर सके। उन्होंने इसे केवल विकृत चेतना के रुप में देखा और यह माना कि उसके विरुद्ध मात्र वैचारिक संघर्ष चलाकर उसे समाप्त किया जा सकता है। यह मानते समय वह यह भूल गए कि जातिप्रथा की जड़े शोषणमूलक समाज में मौजूद संपत्ति के संबंधों पर आधारित है तथा संपत्ति के इन संबंधों को समाप्त किए बगैर जाति प्रथा को समाप्त नहीं किया जा सकता। वैचारिक संघर्ष जाति प्रथा को कुछ सीमा तक उदार और कमजोर भर बना सकता है उसे समाप्त नहीं कर सकता।
यह भी मानना कि जाति प्रथा को समाप्त करने के लिए संपत्ति के संबंधों पर चोट करना ही पर्याप्त है यह एक संकीर्णतावादी रुख होगा। जाति प्रथा सामाजिक आर्थिक संरचना का हिस्सा होने के साथ-साथ उससे पैदा होने वाली ऐसी वैचारिक चेतना है जो हजारों वर्षों से लोगों को मिलती रही है और इस तरह वह अपने आप में एक मजबूत शक्ति के रुप में स्थापित हो गयी है। अतःएक स्वस्थ शिक्षा ही इस बुराई को खत्म करने में सहायक हो सकती है।
Biblography:-
Loksambaad fortnightly Newspaper
Caste: A social evil, Author: S.R.TOPPO; Rajat publication

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