Wednesday, March 31, 2010

तिलक और उसके साथियों को सलाम


राजेश बादल
पच्चीस साल पहले की वो रात शायद ही कोई याद रखना चाहे। लेकिन यह मुमकिन नहीं। वो कयामत की रात थी , जिसे भूलना भी नामुमकिन हैं। मैं इंदौर में नई दुनिया के भोपाल संस्करण को अंतिम रुप देकर प्रेस में भेज चुका था। शायद मशीन ने कुछ हजा़र प्रतियॉ उगल दी थीं। तभी हमारे भोपाल ब्यूरो प्रमुख उमेश त्रिवेदी का फोन आया , ‘राजेश छपाई रोको। ’ इसके बाद उन्होने जो बयान किया ,सुनते ही होश उड़ गए। बोले , भोपाल मर गया। सब कुछ खत्म हो रहा हैं। चारों तरफ लाशें ही लाशें हैं। शहर भाग रहा हैं और मर रहा हैं । कारबाईड कारखाने से जहरीली गैस रिसी है। घंटे भर के अंदर हमारी बस नए बैनर के साथ अखबार लेकर भोपाल दौड रही थी- ‘भोपाल में हाहाकार ’। खबर का एक एक शब्द मैं फोन पर लिख रहा था ,लेकिन हाथों को जैसे किसी ने बांध दिया था। दिमाग सुन्न था । फिर भी जैसे तैसे अखबार निकाला। मन ही मन सोचता रहा , ईश्वरर कभी इस तरह का अखबार दोबारा न निकालना पडे। लेकिन अखबार तो निकालना ही था । रोज निकाला । हर रोज मातमी अखबार । रोता ,तकलीफ से बिलबिलाता और गुस्से से भरा।
दो और तीन दिंसबर की दरम्यानी रात और उसके बाद पूरा सप्ताह । भोपाल हर पल मरता था , हर पल जीता था। शुरु के दो दिन के भयावह और मौत के विकराल तांडव की मैं कल्पना ही कर सकता था। तीसरे दिन मैं उमेश त्रिवेदी े साथ गैस पीडित बस्तियों में भटक रहा था। गीला रुमाल नाक और मुंह पर रखे। कुछ गैस की बदबू और कुछ मौत की सडांध ने हिला दिया। गलियों से ,बंद कमरो सें , घरो से लाशें अभी भी निकल रही थीं। चारो तरफ गैस के शिकार अनगिनत परिवार। प्रशासन और पुलिस पूरी तरह नाकारा साबित हुए। छोटे - बडें अफसर अपने परिवारों को लेकर भाग खडे हुए। मंत्रियों की लाल बत्तियां एकदम गायब थीं और भोपाल को जैसे कुदरत ने उसके हाल पर मरने को छोड दिया था। लाशों के ढेर बगैर मजहबी फर्क के पडे थे। या। नहीं तो सबका एक साथ अंतिम संस्कार लोगों ने कर दिया। हां भोपाल के बड़े अस्पताल में जरुर डाक्टरों ने इंसानी फर्ज निभाया । जहरीली गैंस के खुद शिकार हो गए ,लेकिन पीड़ित मानवता की सेवा करते रहे।
मगर मेरे जे़हन में बार बार उभरता है तिलक तिवारी का मासूम और भोला चेहरा। कोई सत्रह - अठारह साल का किशोर । दाढ़ी -मूंछ भी नहीं आई थी । परिवार का इकलौता बेटा। मैं गलियों में भटकता रिपोंर्टिग कर रहा था , तभी तिलक टकरा गया। मैंने उससे दो मिनट बात की। बोला , ‘ परिवार के सारे लोग अस्पताल में हैं। मोहल्ले से करीब साठ लाशें निकाल चुका हूं और चार पाँच सौ को अस्पताल पहुंचा चुका हूं। उसके साथ कुछ और किशोर थे। उनके मुँह पर गीला रुमाल नहीं था । वे हर पल मौत की हवा खा रहे थे , लेकिन भिडे थे। दो दिन मे तिलक तिवारी अनगिनत लोगों की जिंदगी मे देवदूत बन गया । लेकिन अकेला वो कब तक लडता । तीसरे - चैथे दिन खबर मिली तिलक तिवारी भी मिथाइल आइसो सायनेट का शिकार बन गया। उस समय संभवतया उसके परिवार के सारे लोगो को उसने बचाया था। तिलक का वह चेहरा और अंत में उसका एक वाक्य अभी भी जेहन में गूंजता हैं-‘‘ अंकल। जल्दी है । बाद में सब बताउंगा। अभी देर हो गई, तो कई लोग उपर चले जाएगें ’’मै उसे जाते देखता रहा । यही मेरी तिलक से आ़खिरी मुलाक़ात थी। तिलक को आज कोई याद नहीं करता । उसके जैसे कुछ और भी लोग थे , जो बस्तियों में लोगो को बचाते दम तोड गए। उन बाकी शहीदों को भी कोई याद नहीं करता न ही मरणोंपरांत उन्हें कोई सम्मान या सलाम देने की किसी ने जरुरत समझी । तिलक तुम्हें और तुम्हारे साथियों को मेरा सलाम।
तब दो ढा़ई हजार लोग मरे थे , लेकिन अब तक चालीस हजार से ज्यादा लोग गैस का शिकार होकर अकाल मौत मारे जा चुके हैं। लाखो लोग आज भी जिंदा लाशों की तरह जी रहे हैं। जो बच गए , उनकी शादियां नहीं हुई , जिनकी शादियां हुई उनमें से ज्यादतर मां या पिता बनने की क्षमता खो चुके थे। जो किसी तरह मां या पिता बन गए उनके बच्चे ऐसी बीमारियाँ लेकर बडे हुंए , जो उनकी मौत के साथ ही जाएंगी। न जाने कितनी पीढ़िंयो तक यह सिलसिला चलेगा।
गैस पीडितो की तकलीफ अपनी जगह हैं, उसे कोई मुआवजा या राहत दूर नहीं कर सकता पर उनका गुस्सा ज़रुर शांत किया जा सकता था। अब तो यह भी संभव नहीं। उस समय गैस कांड के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार यूनियन कारबाइड के चेयरमैन वारेन एंडरसन को आज तक पकड़ा नहीं गया। आज भी वो खीसें निपोरता अमेरिका में रह रहा हैं। एक बार वो भोपाल आया। हादसे के तुंरत बाद । भोपाल कलेक्टर और एसपी उसे लेने एयरपोर्ट पहुंचे । उसे बाकायदा गेस्ट हाउस ले जाया गया। वहां उसे गिरफतार करने की ख़बर दी गई । इसके बाद उसने अमेरिकी दूतावास में बात की। भारत सरकार फौरन हरकत में आई और उसे दामाद की तरह वापस उसके मुल्क के लिए विदा कर दिया गया। दुनिया के महान लोकतंत्र में तंत्र ने लोक का गला घोंट दिया । एंडरसन ने अमेरिका जाते ही टाइम मेग्जीन को दिए इंटरव्यू में कहा था , ‘मुझे किसी ने गिरफतार नहीं किया। मैं वहां मेहमान की तरह था । पुलिस ने मुझे कहा था कि आपको सुरक्षा की जरुरत है। बाद में उन्होंने मुझे विमान से भेज दिया। ’-ठेंगा। यह है वारेन एंडरसन । पच्चीस साल में हमारी अदालतों के आदेशों का मखौल उड़ा रहा हैं एंडरसन। मध्यप्रदेश और भारत सरकार संयुक्त रुप से सार्वजनिक माफी भी मांगे तो शायद गैस पीडित उन्हें माफ न करें।

No comments:

Post a Comment