Saturday, March 13, 2010

रोड टू संगम : एक अच्‍छी फिल्‍म की अकाल मौत


मधुकर पांडेय

अभी कुछ दिनों पहले “रोड टू संगम” नामक फिल्म आयी थी, आजकल वह रिलायंस के डीटीएच में दिखायी जा रही है।

मैंने यह फिल्म कुछ ही हफ्तों पहले मुंबई के एक सिनेमाघर में देखी। इस फिल्म को देखने के दो मुख्य कारण थे, जिन्‍होंने मुझे इस मंहगाई के दौर में भी नजदीक के एक मल्टीप्लेक्स में देखने को विवश किया। एक इसलिए कि यह फिल्म मेरे प्रिय शहर इलाहाबाद में ही फिल्मायी गयी थी और इसके पोस्टर में वहां यमुना नदी के ऊपर बने नये पुल का चित्र था, जो बहुचर्चित एवं बहुगर्वित “बांद्रा-वर्ली सी लिंक” के बरसों पहले उसी तकनीक से वहां बना था। दूसरा कारण था कि इस फिल्म के पोस्टर पर बहुत सारे पुरस्कारों की सूचना भी छपी थी। मुझे इस फिल्म के बारे में ज़रा भी जानकारी नहीं थी कि यह फिल्म किस विषय पर आधारित है लेकिन ओमपुरी एवं परेश रावल को देख कर समझा कि कुछ अच्छा ही होगा।

फिल्म देखने के बाद मैं धन्यवाद देना चाहता हूं इस फिल्म के लेखक एवं निर्देशक “अमित राय” को, जिन्होंने इस असंवेदनशील और पूरी तरह व्यावसायिक मानसिकता वाले फिल्म उद्योग में अपनी पहली फिल्म के लिए इस सशक्त एवं बहुप्रतीक्षित विषय को चुना एवं धन्यवाद उस निर्माता को भी देना चाहूंगा जिन्‍होंने बिना किसी भी लाभ-हानि की परवाह करते हुए इस तरह की असाधारण फिल्म बनाने का जोखिम लिया।

विषय बहुत ही संवेदनशील, आज के मुस्लिम समाज के अपने धर्म एवं राष्ट्र के अंतर्द्वंद्व एवं राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से संबंधित है। परेश रावल ने जिस तरह से एक मुस्लिम मैकेनिक की भूमिका में राष्ट्र एवं अपने मुस्लिम भाई बंधुओं के बीच फंसे एवं साफ-सपाट बात कहने वाले व्यक्ति की भूमिका की है, वह अविस्मरणीय है। साधारणत: किसी भी फिल्म में मुस्लिम समाज के उन संवेदनशील आंतरिक मामलों, खास तौर से जब वह कौम से एवं मस्जिद से संबंधित हों, को कभी नहीं दिखलाया गया है। लेकिन इस फिल्म में लेखक निर्देशक अमित राय ने जिस सावधानी से, आत्मा की गहराइयों तक इस अंतर्द्वंद्व को दिखाया है, वह किसी भी फिल्मकार के लिए एक बड़ी चुनौती से कम नहीं था और इस चुनौती को अमित ने बहुत ही धीरता, गहराई एवं संतुलन से निभाया है। मस्जिद के अंदर की बातचीतों, रणनीतियों एवं धर्म के नाम पर साधारण मुस्लिमों की भावनाओं से होने वाले खेल को भी पहली बार बेबाकी से दर्शाया गया।

पूरी फिल्म में यह कहीं भी एहसास नहीं होता है कि किसी भी धर्म के आंतरिक एवं नाज़ुक मसलों हम कुठाराघात कर रहे हैं, उस भी पर महात्मा गांधी एवं राष्ट्र को इसमें जोड़कर।

फिल्म देखते हुए ऐसा लगता है कि हम स्वयं (दर्शक) ही उन परिस्थितियों में, अंतर्द्वंद्व में फंसा हुआ एक सामान्य मुस्लिम हैं जो धर्म के ठेकेदारों एवं राष्ट्र के बीच छटपटा रहा है। संवाद बेहद सीधे, स्पष्ट एवं तीखे भी हैं, जो किसी भी व्यक्ति के अंतरतम को झकझोर देते हैं। संवाद, आज के मुस्लिम समाज के अंतर्द्वंद्व एवं उनके कारणों तथा निवारण पर एक बेहद स्वीकार्य वातावरण बनाते हैं।

फिल्म का तकनीकी पक्ष बेहद अच्छा है। गीत फिल्म की गरिमा के अनुसार तथा स्तरीय है। फिल्म में एक और अहम किरदार है फिल्म की सच्ची लोकेशन, जो कि इलाहाबाद के उन मोहल्लों की है, जहां मुस्लिम समुदाय बहुतायत में न केवल रहते हैं बल्कि वहां अपना व्यवसाय भी करते हैं। लोकेशन ने फिल्म के विषय एवं अनुभूति को बेहद सजीव बनाया है। इसका भी श्रेय निर्देशक एवं निर्माता को जाता है कि उन्होंने फिल्म को सच्चाई के समीप लाने में किसी भी प्रकार का परहेज नहीं किया।

अब हम बात करते हैं इस फिल्म के प्रति हुए गंभीर दुर्व्यवहार की। मेरे आकलन के अनुसार इस फिल्म को सारे देश में मनोरंजन कर से मुक्त कर देना चाहिए था। लेकिन न तो उत्तर प्रदेश में ऐसा हुआ और न ही महात्मा गांधी को अपनी व्यक्तिगत विरासत मानने एवं मुस्लिम समुदाय के हितचिंतन का दम भरने वाली कांग्रेस ने उसके द्वारा शासित किसी भी राज्य में इसे मनोरंजन कर मुक्ति की सुविधा प्रदान की।

बेसिरपैर एवं वाहियात फिल्मों के दौर में इस फिल्म का विषय सोचना तथा इसका बनना एक बहुत बड़ी सुखद घटना है। अफ़सोस है कि लोग विदेशों में अपने को “खान” एवं अमेरिकी राष्ट्र भक्त नागरिक साबित करने वाली फिल्मों पर 80-90 करोड़ खर्च कर देते हैं लेकिन अपने ही देश में इस संवेदनशील फिल्म का वो शायद नाम भी नहीं जानते होंगे।

आश्चर्य है कि तमाम मुद्दों पर काम करने वाले एनजीओ ने भी इस फिल्म के लिए कोई अभियान किया। इससे भी बड़ी बात यह है कि हमारे फिल्म के बड़े-बड़े तीरंदाजों ने भी इस फिल्म को देखने की कोई भी सार्वजनिक अपील जनता से नहीं की, हालांकि यह बाध्यता नहीं थी परन्तु अपेक्षित अवश्य था और वह भी स्वयं से आगे बढ़ कर। फ़िल्मी सितारे एवं सितारे निर्माता निर्देशक, अपने निजी प्रचारक सलाहकारों की सलाह पर अपना जन्मदिन विकलांगों, कैंसर पीड़‍ितों एवं ऐसी ही अन्य जगहों पर उपस्थित हो कर अपनी छवि बनाने के लिए जो एक तमाशा करते हैं जो कि ज्‍यादातर अविश्वसनीय ही लगता है, यदि वे इस फिल्म को देखने की अपील करते, तो यह बहुत बड़ा योगदान होता एवं उनकी अपने ही सह व्यवसायियों के प्रति उनकी सदभावनाओं को दर्शाता और एक सशक्त, सार्थक फिल्म की असामयिक, अनावश्यक और अकाल दुर्गति टल सकती थी।

यह बात सभी पर लागू होती है। चाहे वह खान हो या पाण्डेय या चोपड़ा या ठाकरे।

और अंत में यह स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि यह लेख इस फिल्म की कोई व्‍यावसायिक एवं अविश्वसनीय समीक्षा नहीं है बल्कि एक संवेदनशील नागरिक एवं फिल्मकार के हृदय से निकली संवेदना है और इस फिल्म के प्रति मेरी आत्मा से निकली एक अनुभूति है।

(मधुकर पांडेय। एक संवेदनशील लेखक। फिल्‍मकार। सादा जीवन उच्च विचार। आध्यात्मिक रुझान। अघोर मत के व्‍यावहारिक एवं मानवीय पक्ष के पथ का एक पथिक। औघड़ वाणी ब्‍लॉग के मॉडरेटर। उनसे madhukarpanday@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।

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