माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय ,भोपाल के जनसंचार विभाग के छात्रों द्वारा संचालित ब्लॉग ..ब्लाग पर व्यक्त विचार लेखकों के हैं। ब्लाग संचालकों की सहमति जरूरी नहीं। हम विचार स्वातंत्र्य का सम्मान करते हैं।
Saturday, March 13, 2010
“मीडिया महिलाओं के मसले मर्द के चश्मे से देखता है”
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की सौवीं वर्षगांठ के मौके पर संगोष्ठी आयोजित
आज एक महिला पत्रकार को पूरी दुनिया के बीच काम करना पड़ता है। खुले आकाश के नीचे और लोगों की भीड़ के बीच काम करना पड़ता है। उनकी सुरक्षा के कोई उपाय नहीं हैं। दिखावे के लिए ‘विशाखा गाइडलाइंस’ अगर है भी तो वह केवल ऑफिसों की चहारदीवारी के भीतर की बात करती है। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की सौवीं वर्षगांठ के मौके पर शनिवार को दिल्ली स्थित केरल भवन में ‘मीडिया में महिलाओं की छवि-प्रस्तुति और स्थिति’ के मुद्दे पर आयोजित सेमिनार में ये बातें सामाजिक कार्यकर्ता और वकील नंदिता राव ने कहीं। उन्होंने कहा कि आजादी के छह दशक बीत जाने के बावजूद श्रम की जगहों पर महिलाओं को दोहरे शोषण का शिकार होना पड़ता है। राव का कहना था कि ट्रेड यूनियनों के रूप में महिलाओं के हकों की आवाज उठाने वाले जो संगठन थे, उन्हें भी साजिशन खत्म कर दिया गया। आज हालत यह है कि पितृसत्ता के ढांचे में ढले बिना मीडिया में भी महिलाओं को उनका हक नहीं मिल पाता। एक तरह से यह महिला शक्ति की सबसे बड़ी हार है।
संगोष्ठी को संबोधित करते हुए अंग्रेजी के पूर्व प्राध्यापक और वरिष्ठ स्तंभकार बद्री रैना ने कहा कि आधुनिक मीडिया का सामाजिक संदेश सौ साल पीछे का है। उन्होंने कहा आज अगर प्रमुख टीवी चैनल वेलेंटाइन डे मौके पर दीवाने होकर इससे संबंधित खबरें दिखाते हैं, तो यह उनकी आधुनिक मानसिकता नहीं, बाजार से माल उगाहने का एक जरिया है। बद्री रैना ने मीडिया की राजनीति की ओर इशारा करते हुए कहा कि आज अगर अपने बुनियादी हकों के लिए कोई संगठन आंदोलन करता है, तो मीडिया उसे आम जनजीवन में एक बाधा के रूप में पेश करता है। लेकिन दूसरी ओर वह कांवरियों की भीड़ को वह हिंदू संस्कृति के तौर पर पेश करता है। उन्होंने टीवी कार्यक्रमों पर सवाल उठाते हुए कहा कि चैनलों पर पूजा-पाठ, संयुक्त परिवार, सास-बहू की कहानियों के नाम पर महिलाओं की पारंपरिक छवि को महिमामंडित किया जा रहा है और इस तरह मीडिया महिलाओं के मुद्दे को सौ साल पीछे धकेल रहा है।
सामाजिक कार्यकर्ता और दलित लेखक संघ की महासचिव अनिता भारती ने मीडिया में छिपे तौर पर काम कर रहे जातीय और लैंगिक पूर्वाग्रहों पर सवाल उठाते हुए कहा कि मीडिया जगत के समूचे परिदृश्य को देख कर लगता है कि ब्राह्मणवाद और बाजार ने आपस में साठ-गांठ कर लिया है। उन्होंने कहा कि क्या कारण है कि खैरलांजी में उतनी बड़ी घटना हो जाती है और मीडिया को यह कोई महत्त्वपूर्ण खबर नहीं लगती। उन्होंने खबरों की प्रस्तुति के मामले में दलित और पिछड़े तबकों के प्रति मीडिया के दुराग्रहों का हवाला देते हुए कहा कि ऐसा क्यों होता है मायावती या राबड़ी देवी के चाय बनाने के तरीके मीडिया के लिए ज्यादा महत्त्वपूर्ण होते हैं, बनिस्बत इसके कि इन नेताओं के संघर्षों के बारे में भी कुछ बता दिया जाए। अनिता भारती ने दलित मीडिया के दोहरे चरित्र पर भी सवाल उठाते हुए कहा कि यह अपने ऊपर दूसरे अत्याचारों का तो ब्योरा देता है, लेकिन अपने घर की औरतों के बारे में कोई बात नहीं करना चाहता।
लेखिका और इग्नू में प्राध्यापक सविता सिंह ने समूचे स्त्रीवादी संघर्षों को आत्मालोचन की प्रक्रिया से गुजरने की सलाह दी। उन्होंने कहा कि हमारी सबसे बुनियादी समस्या पितृसत्ता है और इससे मुक्ति पाने के लिए हमें अपने आंख-कान खुले रखने चाहिए। दूसरे देशों में जहां सरकारें अपनी पहल से स्त्रियों की भागीदारी तय करना अपनी जवाबदेही मानती है, वहीं हमारे देश में महिलाओं के लिए आरक्षण जैसे हक भी अधर में लटके होते हैं।
पाक्षिक पत्रिका ‘ग्रासरूट’ की संपादक रही अन्नू आनंद ने मीडिया में महिलाओं के प्रतिनिधित्व से संबंधित एक सर्वेक्षण के आधार पर महिलाओं के मुद्दों के उठने या न उठने के कारणों पर प्रकाश डाला और कहा कि जब तक इस क्षेत्र में ईमानदारी नहीं बरती जाएगी, प्रतिनिधित्व और उसके मुताबिक महिलाओं के मुद्दों को मीडिया में जगह मिलने में दिक्कतें आएंगी ही।
सामाजिक कार्यकर्ता और लेखिका शीबा असलम फहमी ने मौजूदा आधुनिकता को कठघरे में खड़ा करते हुए कहा कि आधुनिकता क्या केवल वस्त्रों में दिखनी चाहिए, या फिर वह हमारे भीतर विचारों के स्तर पर उतरने का पर्याय होना चाहिए। उन्होंने कहा कि महिला दिवस का सौवां साल हमारे लिए महत्त्वपूर्ण होना चाहिए, लेकिन अगर दलित समाज की महिलाएं पच्चीस दिसंबर को अपना महिला दिवस अलग से मनाती हैं, तो क्या हमें उन तक नहीं पहुंचना चाहिए। बहुत आधुनिक हो चुके हमारे मीडिया में खासतौर पर अल्पसंख्यकों के मुद्दे को एक फैशन की तरह लिया जाता है।
उर्दू एडिटर्स गिल्ड के अध्यक्ष असगर अंसारी ने कहा कि मीडिया महिलाओं की समस्याओं को मर्द के चश्मे से देखने की आदी है। अफगानिस्तान के मुद्दे पर वह मौन रहता है, मजहबी मामलों को उठाने से परहेज करता है। उन्होंने साफ लहजे में कहा कि उर्दू मीडिया दरअसल बेहतर तालीम और व्यावसायिक अवधारणा की कमी से जूझ रहा है।
पत्रकार और लेखिका मृणाल वल्लरी ने कहा कि दरअसल, मीडिया पर निशाना साधते समय हमें यह देखना चाहिए कि हम किस माइंडसेट से लैस समाज में रह रहे हैं। उन्होंने कहा कि हम जिस विचार, संस्कृति और अवधारणाओं-आग्रहों की जमीन पर खड़े होते हैं, हमारे काम में वही उभर कर सामने आता है। मीडिया में अगर स्त्रियों की छवि ऐसी परोसी जा रही है, जिससे उनकी गरिमा का नाश होता है, तो इससे बाजार और सामाजिक संस्कारों का कुछ नहीं बिगड़ता। बिगड़ता है सिर्फ स्त्री की अस्मिता का। उन्होंने निजी व्यवहारों तक में स्त्री और पुरुष के समान व्यवहारों के लिए दोहरे मानदंड के लिए पितृसत्तात्मक बुनियाद पर खड़ी सामाजिक संस्कृति को जिम्मेदार ठहराया, जो मीडिया जैसे प्रसार माध्यमों में विस्तार पाता है।
संगोष्ठी में दिल्ली यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट के अध्यक्ष एसके पांडेय, सुजाता मधोक और अंजलि देशपांडे आदि ने भी अपने विचार रखे और नए सिरे से मीडिया में संघर्ष करने की बात की।
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