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Saturday, March 17, 2012

आज भी ज़मीन से जुड़ी है साहित्यिक पत्रकारिता





पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति पत्रकारिता सम्मान से अलंकृत हुए डॉ. हेतु भारद्वाज
भोपाल। ‘मीडिया विमर्श परिवार’ द्वारा प्रतिवर्ष दिया जाने वाला पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति अखिल भारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान इस वर्ष ‘अक्सर’ (जयपुर) के सम्पादक एवं प्रख्यात साहित्यकार डॉ. हेतु भारद्वाज को प्रदान किया गया। भोपाल के भारत भवन में आयोजित इस समारोह में देश के जाने माने साहित्यकार डॉ. विजय बहादुर सिंह ने डॉ. हेतु भारद्वाज को इस पुरस्कार से सम्मानित किया। इस सम्मान के अंतर्गत एक स्मृति चिन्ह, प्रमाणपत्र, शॉल-श्रीफल एवं 11 हजार रुपये नगद राशि दी गयी।
गौरवमयी परंपरा का सम्मानः इस अवसर पर उपस्थित डॉ. हेतु भारद्वाज ने कहा कि यह पुरस्कार उनका व्यक्तिगत सम्मान नहीं अपितु उस गौरवमयी परंपरा का सम्मान है जो प्रेमचंद और महावीर प्रसाद द्विवेदी से प्रारंभ होकर ज्ञानरंजन तक आती है। साहित्यिक पत्रकारिता आज भी माखनलाल चतुर्वेदी और पराड़कर की परंपरागत नीतियों का निर्वाह निर्भयता से कर रही है जबकि मुख्यधारा की पत्रकारिता व्यावसायिक होकर अपने पथ से विचलित हुई है। उन्होंने कहा कि सम्पादक किसी भी समाचार पत्र और पत्रिका की धुरी होता है, जो स्वयं ही एक संस्था है। परंतु वर्तमान समय में सम्पादक, संस्था न होकर मात्र एक व्यक्ति रह गया है, क्योंकि संपादक नामक इस संस्था ने ग्लैमर और भौतिकता की चकाचौंध में पाठक के प्रति अपने उत्तरदायित्व से मुँह मोड़ लिया है। इसी का परिणाम है कि स्वयं के अंतर्विरोधों को भी चिन्हित करने का मूल अधिकार संपादक के पास अब नहीं रहा। साहित्यिक पत्रकारिता इस मामले में अभी तक स्वच्छंद और निर्भीक है। यही कारण है कि इस धारा की पत्रकारिता की जड़ें आज भी माखनलाल चतुर्वेदी, पराड़कर, गणेश शंकर विद्यार्थी और माधवराव सप्रे के विचारों की ज़मीन से जुड़ी है।
क्षेत्रीय भाषाओं से अंतरसंवाद जरूरीः आयोजन की अध्यक्षता करते हुए माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृज किशोर कुठियाला ने कहा कि हमारी नई पीढ़ी के समक्ष नई चुनौतियां एवं नई समस्याएं हैं। नई तकनीक ने जिस प्रकार मानवता को जोड़ने की संभावना जगाई है वह धर्म, जाति व भौगोलिक सीमाओं से परे है। इस पीढ़ी को सौभाग्य से अत्यंत विकसित तकनीक एवं संचार प्रणाली मिली है, जिसने मार्शल मैकलुहान की ‘ग्लोबल विलेज’ की अवधारणा को सार्थक कर दिया है। परंतु इस पीढ़ी को तकनीक का उपयोग नहीं, बल्कि विवेकपूर्ण सदुपयोग करना होगा, अन्यथा भविष्य में विज्ञान का चमत्कार हमारे लिए विनाश का समाचार बनकर रह जाएगा। उन्होंने युवाओं से अपील की कि वे अंग्रेजी भाषा के साथ-साथ अपनी राष्ट्रभाषा एवं क्षेत्रीय भाषाओं में भी अंतरसंवाद बनाए रखें। प्रो. कुठियाला ने कहा कि अब समय आ गया है कि साहित्य और पत्रकारिता दोनों को अपने आपसी मतभेदों को भुलाकर साथ मिलकर वही कार्य करना चाहिए जो दोनों ने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान किया था। दोनों एक ही सृजनात्मकता के दो पहलू हैं, इसलिए दोनों को देश के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित होना चाहिए।
अटूट रिश्ता है साहित्य व पत्रकारिता काः इस अवसर पर कार्यक्रम के विशेष अतिथि के रूप में उपस्थित हुए वरिष्ठ पत्रकार पद्मश्री विजयदत्त श्रीधर ने बताया कि साहित्य और पत्रकारिता तो बहुत बाद में एक-दूसरे से अलग हुए। एक समय था जब पत्रकारिता साहित्य से अलग नहीं थी और वही हिंदी साहित्य और पत्रकारिता का स्वर्णिम काल था। जहां एक तरफ हिंदी में सरस्वती, धर्मयुग और दिनमान जैसी पत्रिकाओं से नई परंपरा का प्रारंभ हुआ, वहीं पराड़कर जी जैसे पत्रकारों ने मुद्रास्फीति, राष्ट्रपति, श्री, सर्वश्री जैसे शब्द देकर हिंदी के शब्दकोष को और पुष्ट किया। श्री श्रीधर ने कहा कि ‘जर्नलिस्ट’ के लिए हम जिस ‘पत्रकार’ शब्द का प्रयोग करते हैं, वह स्वयं माखनलाल चतुर्वेदी जी द्वारा दिया गया। साथ ही साथ हिंदी साहित्यिक पत्रकारिता ने अन्य भारतीय भाषाओं के लेखकों को भारत के कोने-कोने तक पहुंचाया। शरतचंद्र, बंकिमचंद्र और रविन्द्रनाथ टैगोर जैसे श्रेष्ठ बांग्ला लेखकों की पहुंच हिंदी-भाषी पाठकों तक बनाने में साहित्यिक पत्रकारिता का महत्वपूर्ण योगदान रहा।
उपभोक्तावादी समय का संकटः कार्यक्रम के मुख्य अतिथि प्रख्यात साहित्यकार डॉ. विजय बहादुर सिंह ने कहा कि ‘मीडिया विमर्श’ द्वारा साहित्यिक पत्रकारिता को दिया जाने वाला यह पुरस्कार उन मूल्यों की माँग और पहचान का पुरस्कार है, जिनकी समाज को महती आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि साहित्य और पत्रकारिता में दूरी इसलिए आई है क्योंकि हम रिश्तों व मूल्यों की कद्र करने वाले समय से निकलकर उपभोगवादी समय में आ गये हैं। ‘मीडिया विमर्श’ के कार्यकारी संपादक संजय द्विवेदी ने इस अवसर पर कहा कि साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में डॉ. हेतु भारद्वाज जी को सम्मानित किए जाने से भारतेंदु हरिश्चंद, महावीर प्रसाद द्विवेदी, अज्ञेय, रघुवीर सहाय एवं धर्मवीर भारती जैसे मूर्धन्य साहित्यकारों की परंपरा का सम्मान हुआ है। उन्होंने कहा कि डॉ. श्याम सुंदर व्यास, डॉ. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी एवं श्री हरिनारायण जी जैसे श्रेष्ठ एवं स्तरीय साहित्यिक पत्रकारों की श्रृंखला में डॉ. हेतु भारद्वाज को यह पुरस्कार देते हुए समस्त ‘मीडिया विमर्श परिवार’ तथा वह स्वयं गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। श्री द्विवेदी ने कहा कि साहित्य एवं पत्रकारिता के बीच यदि हमारा सेतु बनने का यह प्रयास सफल रहा तो वह समझेंगे कि पत्रकारिता पर साहित्य का जो ऋण था, उसे चुकाने का प्रयास किया गया है।
इस अवसर पर साहित्यकार कैलाशचंद्र पंत, छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यसचिव ए.के. विजयवर्गीय, एडवोकेट एवं लेखक जी.के. छिब्बर, पत्रकार शिवअनुराग पटैरया, दीपक तिवारी, बृजेश राजपूत, राखी झंवर, दिनकर सबनीस, नरेंद्र जैन, अमरदीप मौर्य, विवेक सारंग, डा. आरती सारंग, प्रो. आशीष जोशी, डा. पवित्र श्रीवास्तव, डा. पी. शशिकला, प्रो. अमिताभ भटनागर, राघवेंद्र सिंह, साधना सिंह, डा. मोनिका वर्मा, सुरेंद्र पाल, लालबहादुर ओझा, डा. अविनाश वाजपेयी, अभिजीत वाजपेयी, सुरेंद्र बिरवा सहित मीडिया विमर्श के संपादक डॉ. श्रीकांत सिंह, प्रकाशक श्रीमती भूमिका द्विवेदी तथा नगर के मीडिया से जुड़े शिक्षक एवं विद्यार्थी भी उपस्थित थे।
भारत भवन में गूंजा भारती बंधु का कबीर रागः पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति अखिल भारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान की यह शाम कबीर के नाम रही। अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कबीर गायक भारती बंधु ने कबीर राग की ऐसी तान छेड़ी कि भारत भवन के ‘अंतरंग’ का वह समां दर्शकों के मानस पटल पर आजीवन संचित रहेगा। अपने चिर-परिचित अंदाज में भारती बंधु ने कबीर के दोहों और साखियों की ऐसी तान छेड़ी कि पूरा सभागार झूम उठा। भारती बंधु की शेरो-शायरी ने दर्शकों को कभी खूब हँसाया तो कभी सोचने के लिए मजबूर कर दिया। इस अवसर पर भारती बंधु ने युवाओं से कहा कि पाश्चात्य संगीत सुनकर भले ही आप पश्चिम के क्षणिक रंग में रंग जाएं, लेकिन अगर आपको मानसिक और आत्मिक शांति चाहिए तो भारतीय संगीत के अलावा आपके पास कोई विकल्प नहीं है। इस सत्र के मुख्यअतिथि साहित्यकार कैलाशचंद्र पंत ने कार्यक्रम के प्रारंभ में भारती बंधु और साथी कलाकारों का शाल श्रीफल से सम्मान किया और कहा कि भारती बंधु की प्रस्तुति सुनना एक विरल अनुभव है यूं लगता है जैसे कबीर स्वयं हमारे बीच उतर आए हों।
प्रस्तुतिः शालिनी एवं सुमित कुमार सिंह

Monday, September 13, 2010

विलाप मत कीजिए, संकल्प लीजिए !



हिंदी दिवस पर विशेषः - संजय द्विवेदी
राष्ट्रभाषा के रूप में खुद को साबित करने के लिए आज वस्तुतः हिंदी को किसी सरकारी मुहर की जरूरत नहीं है। उसके सहज और स्वाभाविक प्रसार ने उसे देश की राष्ट्रभाषा बना दिया है। वह अब सिर्फ संपर्क भाषा नहीं है, इन सबसे बढ़कर वह आज बाजार की भाषा है, लेकिन हर 14 सितंबर को हिंदी दिवस के अवसर पर होने वाले आयोजनों की भाषा पर गौर करें तो यूँ लगेगा जैसे हिंदी रसातल को जा रही है। यह शोक और विलाप का वातावरण दरअसल उन लोगों ने पैदा किया है, जो हिंदी की खाते तो हैं, पर उसकी शक्ति को नहीं पहचानते। इसीलिए राष्ट्रभाषा के उत्थान और विकास के लिए संकल्प लेने का दिन ‘सामूहिक विलाप’ का पर्व बन गया है। कर्म और जीवन में मीलों की दूरी रखने वाला यह विलापवादी वर्ग हिंदी की दयनीयता के ढोल तो खूब पीटता है, लेकिन अल्प समय में हुई हिंदी की प्रगति के शिखर उसे नहीं दिखते।

अंग्रेजी के वर्चस्ववाद को लेकर हिंदी भक्तों की चिंताएं कभी-कभी अतिरंजित रूप लेती दिखती हैं। वे एक ऐसी भाषा से हिंदी की तुलना कर अपना दुख बढ़ा लेते हैं, जो वस्तुतः विश्व की संपर्क भाषा बन चुकी है और ज्ञान-विज्ञान के विविध अनुशासनों पर उसमें लंबा और गंभीर कार्य हो चुकाहै। अंग्रेजी दरअसल एक प्रौढ़ हो चुकी भाषा है, जिसके पास आरंभ से ही राजसत्ताओं का संरक्षण ही नहीं रहा वरन ज्ञान-चिंतन, आविष्कारों तथा नई खोजों का मूल काम भी उसी भाषा में होता रहा। हिंदी एक किशोर भाषा है, जिसके पास उसका कोई ऐसा अतीत नहीं है, जो सत्ताओं के संरक्षण में फला-फूला हो । आज भी ज्ञान-अनुसंधान के काम प्रायः हिंदी में नहीं हो रहे हैं। उच्च शिक्षा का लगभग अध्ययन और अध्यापन अंग्रेजी में हो रहा है। दरअसल हिंदी की शक्ति यहां नहीं है, अंग्रेजी से उसकी तुलना इसलिए भी नहीं की जानी चाहिए क्योकि हिंदी एक ऐसे क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषा है, जो विश्व मानचित्र पर अपने विस्तारवादी, उपनिवेशवादी चरित्र के लिए नहीं बल्कि सहिष्णुता के लिए जाना जाने वाला क्षेत्र है। फिर भी आज हिंदी, दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी आवादी द्वारा बोली जाने वाली भाषा है, क्या आप इस तथ्य पर गर्व नहीं कर सकते ? दरअसल अंग्रेजी के खिलाफ वातावरण बनाकर हमने अपने बहुत बड़े हिंदी क्षेत्र को ‘अज्ञानी’ बना दिया तो दक्षिण के कुछ क्षेत्र में हिन्दी विरोधी रूझानों को भी बल दिया । सच कहें तो नकारात्मक अभियान या भाषा को शक्ति नहीं दे सकते । एक भाषा के रूप में अंग्रेजी को सीखने तथा राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को समादर देने, मातृभाषा के नाते मराठी, बंगला या पंजाबी का इस्तेमाल करने में कोई बुराई नहीं है। किंतु किसी भाषा को समाज में यदि प्रतिष्ठा पानी है तो वह नकारात्मक प्रयासों से नहीं पाई जा सकती । अंग्रेजी के विस्तारवाद को हमने साम्राज्यवादी ताकतों का षडयंत्र माना और प्रचारित किया। फलतः भावनात्मक रूप से सोचने-समझने वाला वर्ग अंग्रेजी से कटा और आज यह बात समूचे भारतीय उपमहाद्वीप के लिए गलत नजीर बन गई। यद्यपि अंग्रेजी मुठ्ठीभर सत्ताधीशों, नौकरशाहों और प्रभुवर्ग की भाषा है। वह उनकी शक्ति बन गई है। तो शक्ति को छीनने का एकमेव हथियार है उस भाषा पर अधिकार । यदि देश के तमाम गांवों, कस्बों, शहरों के लोग निज भाषा के आग्रहों आज मुठ्ठी भर लोगों के ‘अकड़ और शासन’ की भाषा न होती। इस सिलसिले में भावनात्मक नारेबाजियों से परे हटकर ‘विश्व परिदृश्य’ में हो रही घटनाओं-बदलावों का संदर्भ देखकर ही कार्यक्रम बनाने चाहिए । यह बुनियादी बात हिंदी क्षेत्र के लोग नहीं समझ सके। आज यह सवाल महत्वपूर्ण है कि अंग्रेजी सीखकर हम साम्राज्यवादी, उपनिवेशवादी कुछ क्रों से जुझ सकेंगे या उससे अनभिज्ञ रहकर। अपनी भाषा का अभिमान इसमें कहीं आड़े नहीं आता। भारतेंदु की यह बात-‘निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल’ आज के संदर्भ में भी अपनी प्रासंगिकता रखती है। आप इसी भाषा प्रेम के रुझानों को समझने के लिए दक्षिण भारत के राज्यों पर नजर डालें तो चित्र ज्यादा समझ में आएगा । मैं नहीं समझता कि किसी मलयाली भाषी, तमिल भाषी का अपनी मातृभाषा के प्रति प्रेम किसी बिहार, उ. प्र. या म. प्र. के हिंदी भाषी से कम है लेकिन दक्षिण के राज्यों ने अपनी भाषा के प्रति अनुराग को बनाए रखते हुए अंग्रेजी का भा ज्ञानार्जन किया, हिंदी भी सीखी। यदि वे निज भाषाका आग्रह लेकर बैठ जाते तो शायद वे आज सफलताओं के शिखर न छू रहे होते। आग्रहों से परे स्वस्थ चिंतन ही किसी समाज और उसकी भाषा को दुनिया में प्रतिष्ठा दिला सकता है। भाषा को अपनी शक्ति बनाने के बजाए उसे हमने अपनी कमजोरी बना डाला। बदलती दुनिया के मद्देनजर ‘विश्व ग्राम’ की परिकल्पना अब साकार हो उठी है। सो अंग्रेजी विश्व की संपर्क भाषा के रूप में और हिंदी भारत में संपर्क भाषा के स्थान पर प्रतिष्ठित हो चुकी है, यह चित्र बदला नहीं जा सकता ।

हिंदी की ताकत दरअसल किसी भाषा से प्रतिद्वंद्विता से नहीं वरन उसकी उपयोगिता से ही तय होगी। आज हिंदी सिर्फ ‘वोट माँगने की भाषा’ है, फिल्मों की भाषा है। बहुत से ऐसे क्षेत्र हैं जहां में अभी आधारभूत कार्य होना शेष है। उसने खुद को एक लोकभाषा और जनभाषा के रूप में सिद्ध कर दिया है। किंतु ज्ञान-विज्ञान के विविध अनुशासनों पर उसमें काम होना बाकी है, इसके बावजूद हिंदी का अतीत खासा चमकदार रहा है।नवजागरण और स्वतंत्रता आंदोलन में स्वामी दयानंद से लेकर विवेकानंद तक लोगों को जगाने के अभियान की भाषा हिंदी ही बनी। गांधी ने भाषा की इस शक्ति को पहचाना और करोड़ों लोगों में राष्ट्रभक्ति का ज्वार पैदा किया तो उसका माध्यम हिंदी ही बनी थी। दयानंद ने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ जैसा क्रांतिकारी ग्रंथ हिंदी में रचकर हिंदी को एक प्रतिष्ठा दी। जानकारी के लिए ये दोनों महानायक हिंदी भाषा नहीं थे । तिलक, गोखले, पटेल सबके मुख से निकलने वाली हिंदी ही देश में उठे जनज्वार का कारण बनी । यह वही दौर है जब आजादी की अलख जगाने के लिए ढेरों अखबार निकले । उनमें ज्यादातर की भाषा हिंदी थी। यह हिंदी के खड़े होने और संभलने का दौर था । यह वही दौर जब भारतेन्दु हरिचन्द्र ने ‘भारत दुर्दशा’ लिखकर हिंदी मानस झकझोरा था।उधर पत्रकारिता के क्षेत्र में ‘आज’ के संपादक बाबूराव विष्णुराव पराड़कर, माधवराव सप्रे, मदनमोहन मालवीय, गणेश शंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी एक इतिहास रच रहे थे। मिशनरी पत्रकारिता का यह समय ही हमारी हिंदी पत्रकारिता की प्रेरणा और प्रस्थान बिंदु है।
आजादी के बाद भी वह परंपरा रुकी या ठहरी नहीं है। हिंदी को विद्यालयों विश्वविद्यालयों, कार्यालयों। संसद तथा अकादमियों में प्रतिष्ठा मिली है। तमाम पुरस्कार योजनाएं, संबर्धन के, प्रेरणा के सरकारी प्रयास शुरू हुए हैं। लेकिन इन सबके चलते हिंदी को बहुत लाभ हुआ है, सोचना बेमानी है। हिंदी की प्रगति के कुछ वाहक और मानक तलाशे जाएं तो इसे सबसे बड़ा विस्तार जहां आजादी के आंदोलन ने, साहित्य ने, पत्रकारिता ने दिलाया, वहीं हिंदी सिनेमा ने इसकी पहुँच बहुत बढ़ा दी। सिनेमा के चलते यह दूर-दराज तक जा पहुंची। दिलीप कुमार, राजकूमार, राजकपूर, देवानंद के ‘स्टारडम’ के बाद अभिताभ की दीवनगी इसका कारण बनी। हिंदी न जानने वाले लोग हिंदी सिनेमा के पर्दे से हिंदी के अभ्यासी बने। यह एक अलग प्रकार की हिंदी थी। फिर ट्रेनें, उन पर जाने वाली सवारियां, नौकरी की तलाश में हिंदी प्रदेशों क्षेत्रों में जाते लोग, गए तो अपनी भाषा, संस्कृति,परिवेश सब ले गए । तो कलकत्ता में ‘कलकतिया हिंदी’ विकसित हुई, मुंबई में ‘बम्बईयी हिंदी’ विकसित हुई। हिंदी ने अन्य क्षेत्रीय भाषाओं से तादात्म्य बैठाया, क्योंकि हिंदी के वाहक प्रायः वे लोग थे जो गरीब थे, वे अंग्रेजी बोल नहीं सकते थे। मालिक दूसरी भाषा का था, उन्हें इनसे काम लेना था। इसमें हिंदी के नए-नए रूप बने। हिंदी के लोकव्यापीकरण की यह यात्रा वैश्विक परिप्रक्ष्य में भी घट रही थी। पूर्वीं उ. प्र. के आजमगढ़, गोरखपुर से लेकर वाराणसी आदि तमाम जिलों से ‘गिरमिटिया मजदूरों’ के रूप में विदेश के मारीशस, त्रिनिदाद, वियतनाम, गुयाना, फिजी आदि द्वीपों में गई आबादी आज भी अपनी जडो़ से जुड़ी है और हिंदी बोलती है। सर शिवसागर रामगुलाम से लेकर नवीन रामगुलाम, वासुदेव पांडेय आदि तमाम लोग अपने देशों के राष्ट्राध्यक्ष भी बने। बाद में शिवसागर रामगुलाम गोरखपुर भी आए। यह हिंदी यानी भाषा की ही ताकत थी जो एक देश में हिंदी बोलने वाले हमारे भारतीय बंधु हैं। इन अर्थों में हिंदी आज तक ‘विश्वभाषा’ बन चुकी है। दुनिया के तमाम देशों में हिंदी के अध्ययन-अध्यापन का काम हो रहा है।देश में साहित्य-सृजन की दृष्टि से, प्रकाश-उद्योग की दृष्टि से हिन्दी एक समर्थ भाषा बनी है । भाषा और ज्ञान के तमाम अनुशासनों पर हिन्दी में काम शुरु हुआ है । रक्षा, अनुवांशिकी, चिकित्सा, जीवविज्ञान, भौतिकी क्षेत्रों पर हिन्दी में भारी संख्या में किताबें आ रही हैं । उनकी गुणवक्ता पर विचार हो सकता है किंतु हर प्रकार के ज्ञान और सूचना को अभिव्यक्ति देने में अपनी सामर्थ्य का अहसास हिन्दी करा चुकी है । इलेक्ट्रानिक मीडिया के बड़े-बड़े ‘अंग्रेजी दां चैनल’ भी हिन्दी में कार्यक्रम बनाने पर मजबूर हैं । ताजा उपभोक्तावाद की हवा के बावजूद हिन्दी की ताकत ज्यादा बढ़ी है । हिन्दी में विज्ञापन, विपणन उपभोक्ता वर्ग से हिन्दी की यह स्थिति ‘विलाप’ की नहीं ‘तैयारी’ की प्रेरणा बननी चाहिए । हिन्दी को 21वीं सदी की भाषा बनना है । आने वाले समय की चुनौतियों के मद्देनजर उसे ज्ञान, सूचनाओं और अनुसंधान की भाषा के रुप में स्वयं को साबित करना है । हिन्दी सत्ता-प्रतिष्ठानों के सहारे कभी नहीं फैली, उसकी विस्तार शक्ति स्वयं इस भाषा में ही निहित है । अंग्रेजी से उसकी तुलना करके कुढ़ना और दुखी होना बेमानी है । अंग्रेजी सालों से शासकवर्गों तथा ‘प्रभुवर्गों’ की भाषा रही है । उसे एक दिन में उसके सिंहासन से नहीं हटाया जा सकता । हिन्दी का इस क्षेत्र में हस्तक्षेप सर्वथा नया है, इसलिए उसे एक लंबी और सुदीर्घ तैयारी के साथ विश्वभाषा के सिंहासन पर प्रतिष्ठित होने की प्रतीक्षा करनी चाहीए, इसीलिए हिन्दी दिवस को विलाप, चिंताओं का दिन बनाने के बतजाए हमें संकल्प का दिन बनाना होगा। यही संकल्प सही अर्थों में हिंदी को उसकी जगह दिलाएगा ।
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)

Saturday, March 13, 2010

अज्ञेय की जन्‍मशती : कवि की कविता, कवि की आवाज़


दिल्ली। अज्ञेय को उनकी आवाज़ में सुनना एक आह्लादकारी अनुभव था। सात मार्च, रविवार की शाम इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के एनेक्‍सी सभागार में उनकी कविताओं को सुनने के लिए लगभग सौ बुद्धिजीवी, लेखक, कलाकार, संगीतकार, नाट्यकर्मी और पत्रकार जुटे थे। अज्ञेय के श्‍वेत-श्‍याम चित्रों एक एक करके पर्दे पर आ रहे थे और पार्श्‍व से उनकी विनम्र आवाज़ हॉल के अंधेरे में फैल रही थी। उनकी आवाज़ की रेकार्डिंग उपलब्ध हुईं रमेश मेहता और अज्ञेय के निकट रहे ओम थानवी के सौजन्य से। कविताओं का चुनाव और संयोजन ओम थानवी ने किया; चित्र उनके निजी संग्रह से थे। अज्ञेय की जन्‍मशती का यह पहला आयोजन था। इस तरह का आयोजन साल भर तक चलेगा।

इस अवसर पर दर्शकों को बांटे गये एक फोल्‍डर में अशोक वाजपेयी ने लिखा है, ‘आप जानते ही हैं कि 2011 में हमारे तीन मूर्धन्‍यों शमशेर बहादुर सिंह, अज्ञेय और नागार्जुन की जन्‍म शताब्दियां क्रमश: 13 जनवरी, 7 मार्च और ज्‍येष्‍ठ पूर्णिमा को होने जा रही है। यह अवसर होगा, जब हम इन कृतिकारों के अवदान और उनके विभिन्‍न पक्षों का पुनराकलन करें और हिंदी लेखक समाज की ओर से उन्‍हें प्रणति दें।’
(मोहल्ला लाइव डाट काम की टिप्पणी)