Saturday, May 1, 2010

मजबूरियां मजदूर की

-देवेश नारायण राय

हमारे भारतीय सभ्यता में मजदूरों को एक सम्मान दिया जाता था। भगवान शंकर स्वयं सेवक के रुप में हनुमान बनकर अवतार लिया और आजीवन राम की सेवा की, महात्मा गांधी भी अपने आप को जनता का सेवक कहते थे। सेवा-भाव और सेवक को हमारे यहां बहुत सम्मान दिया जाता था। पर आज परिदृश्य बदल चुका है। मजदूरों-सेवकों को आज उस दृष्टि से नहीं देखा जा रहा है। एक मई को पूरा विश्व मजदूर दिवस के रूप में मनाता है।
मजदूरों को सामाजिक आर्थिक न्याय दिलवाने के लिए पूरे विश्व ने इसे संघर्ष दिवस के रूप में मान्यता दी। सर्वप्रथम न्यूजीलैड में 28 अक्टूबर 1890 को मनाया गया था। सयुक्त राष्ट्र संघ और विश्व के कई मुल्को के तमाम प्रयासो के बावज़ूद मजदूरो को उनका हक नहीं मिल पा रहा है। अगर बात भारत की करे तो देश के कुल आबादी का 40% श्रमिक वर्ग मतलब करीब 40 करोड़ लोग आते हैं। भारत में श्रमिक को दो वर्गों में बांटा गया है। पहला- संगठित क्षेत्र के श्रमिक और दूसरा असंगठित क्षेत्र के श्रमिक। संगठित क्षेत्र के श्रमिकों की संख्या कुल श्रमिक संख्या के 3.5 प्रतिशत है और असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों की संख्या 96.5 प्रतिशत है। संगठित क्षेत्र के श्रमिक वह श्रमिक होते हैं जो किसी बड़े कंपनी फर्म या सरकारी संस्था में कागजों पर दर्ज मजदूर हैं और बाकी सभी असंगठित क्षेत्र के मजदूर हैं। दुर्भाग्य इस बात का है भारत के जितने भी श्रम कानून हैं इसी 3.5 प्रतिशत संगठित क्षेत्र के श्रमिकों के लिए है। इन्हीं को महंगाई, आवास व अन्य प्रकार के भत्ते और सुविधायें दी जाती हैं। असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के आर्थिक, सामाजिक अधिकारों के लिए सरकार के पास कोई कारगर योजना नहीं है। करीब 36.5 करोड़ वो हाथ जो भारत को संवारने में लगे हैं अपने दो जून की रोटी के लिए मुहाल है और कोई इस तरफ ध्यान भी नहीं देता। सन् 2002 में द्वितीय श्रम आयोग ने इनके लिए कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाने की बात कही पर मौजूदा यूपीए सरकार ने इस आयोग की रिपोर्ट को ठंड़े बस्ते में डाल रखा है। यूपीए सरकार की महात्वकांक्षी योजना मनरेगा भी असंगठित मजदूरों की समस्या का निदान करती प्रतीत नहीं होती। एक तो इस कार्यक्रम के क्रियान्वन में भष्ट्राचार की घातक बीमारी लग चुकी है। दूसरे यह कानून सिर्फ सौ दिन का ही रोजगार उपलब्ध कराती है मतलब साल के बाकी 265 दिन बेरोजगार ही रहना पडेगा या ठेकेदार के यहाँ औने पौने दाम कमरतोड़ मेहनत करनी पडेगी। सरकार असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के लिए अभिशाप साबित होने वाली ठेकेदारी प्रथा को बढ़ावा दे रही है। छठे वेतन आयोग के अनुसार चत्तुर्थ श्रेणी के कर्मचारी को अब तृतीय श्रेणी में डाल दिया जायेगा। मतलब अब सरकार चतुर्थ श्रेणी के कार्य को ठेके पर ठेकेदारों से करवायेगी। वहीं दूसरी ओर मजदूरों के हित पर कुठाराघात करने वाले “नए आर्थिक क्षेत्र कानून” को लागू कर दिया गया है। जिसके तहत पूंजीपतियों को किसी भी समय मजदूरों की छंटनी का अधिकार मिल गया है।
सरकार ने बाल श्रम को प्रतिबंधित तो कर दिया है पर बालश्रम आज भी हमें देखने को मिल रहा है। सबसे ज्यादा शोषण बाल श्रमिकों का ही होता है। पर सरकार इसके नियंत्रण के लिए कोई कारगर प्रयास नहीं कर रही है। कुछ ऐसा ही हाल महिला श्रमिकों की भी है। सबसे ज्यादा महिला श्रमिक कृषि क्षेत्र से जुड़ी हुई हैं। कृषि के साथ समस्या ये है कि कृषि कार्य कुछ विशेष महीनों में ही होते हैं बाकी समय उन्हें अर्धबेरोजगारी झेलनी पड़ती है। उद्योगों में भी महिलाओं का शोषण होता है। उन्हें पुरुषों के बराबर काम करना पड़ता है और वेतन भी कम मिलता है। आज के वर्तमान परिवेश को देखते हुए लगता नहीं मजदूर दिवस को मनाने के उद्देश्य पूर्ण हो पा रहे हैं।

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