Tuesday, May 4, 2010

राजनैतिक स्वार्थ की लड़ाई

-कृष्ण मोहन तिवारी
हाल ही में लोकसभा के बजट के दूसरे सत्र के दौरान विपक्ष के द्वारा लाया गया अविश्वास प्रस्ताव औंधें मुँह गिर गया। भले ही यह प्रस्ताव औंधें मुँह गिर गया परंतु सियासी राजनीतिक गलियारों में इसका असर दूरगामी, परिवर्तनशील होने के साथ ही भारतीय राजनीति में बनने वाले नए समीकरण और ध्रुवीकरण की ओर भी साफ संकेत करने वाला है, जिसके कि द्रुतगामी परिणाम निकलकर सामने आ सकते हैं।
जहाँ झारखंड में भाजपा के सहयोग से मुख्यमंत्री बने शिबू सोरेन को अविश्वास प्रस्ताव पर संप्रग गठबंधन के पक्ष पर वोट करने पर दो नाँव की सवारी करना महँगा पड़ा और भाजपा द्वारा समर्थन वापसी के रूप में सोरेन के मुख्यमंत्री पद पर घने बादल छा गए है, जिससे कि झारखंड में सियासी सरगर्मियां तेज हो गई है।
इस अविश्वास प्रस्ताव के साथ ही राजनीतिक पार्टियों के दोहरे मुखौटे भी जनता के सामने उजागर होने लगे है। जहाँ एक और तीसरे मोर्चे के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी एवं राजद ने महँगाई के खिलाफ देश बंद के आह्वान को सफल बनाने के लिए जबरन ट्रेन के आवागमन को बाधित करने के साथ सरकारी बसों को आग के हवाले कर दिया । यह राजनीतिक पार्टियाँ यह भूल गई कि इन ट्रेनों और बसों पर सरकार के कोई नुमाइंदे यात्रा नहीं कर रहे थे बल्कि महँगाई के बोझ से दबी बेबस जनता यात्रा कर रही थी, जिनको इस तरह के हिंसक आंदोलन से भारी मशक्कत झेलनी पड़ी। यह तो शायद ही याद रहा होगा कि जिस लोकतंत्र की ये नेता हमेशा दुहाई देते रहते हैं, उसी लोकतंत्र मे यह भी है कि किसी भी आंदोलन में हिंसा का प्रयोग कतई वर्जित है। जिसमें शान्तिपूर्व आंदोलन एवं चुनावी प्रक्रिया को अपनाया गया है।
वही दूसरी ओर राजद और सपा ने कटौती प्रस्ताव में सदन का वाकआउट कर संप्रग गठबंधन को राहत की साँस देकर जनता को गुमराह करने का भी प्रयास किया। कांग्रेस के खिलाफ हर मोर्चे पर मोर्चा खोलने वाली बसपा सुप्रीमों मायावती को आय से अधिक मामले में सुप्रीम कोर्ट से क्लीन चिट मिलने के बाद कटौती प्रस्ताव पर सरकार के पक्ष में वोट करके महँगाई के मुद्दे पर केन्द्र सरकार को भी क्लीन चिट दे दी। इन सारें घटनाक्रम के बाद तो एक बात बिल्कुल स्पष्ट हो गई कि बिखरा हुआ विपक्ष जनता के हितों के मुद्दे पर सरकार पर कैसे दबाव बना सकता है? खुद को जनता का अपना सच्चा हितैषी बताने वाली यह पार्टियां जनता के प्रति कितनी संजीदा है? इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है ।
अविश्वास प्रस्ताव पर सरकार को राहत पहुचाने के पीछे इन राजनीतिक पार्टियों की मंशा बिल्कुल स्पष्ट है जिसका मुख्य कारण इन पार्टियों की अपनी राजनीतिक कमजोरी और अस्थिरता है।
राजनीति में एक जुमला खासा लोकप्रिय है कि “दुश्मनी जमकर करो लेकिन इतनी गुंजाइश रहे कि फिर कभी दोस्त बने तो फिर कभी शर्मिंदा ना होना पड़े”।
इस गुंजाइश के पीछे ठोस वजह यह है कि आगामी समय में बिहार और उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव नजदीक आ रहे है। बिहार में राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव अपने दम पर अपनी पार्टी का बेड़ा पार नहीं लगा सकते जिसके लिए उन्हें कही ना कही कांग्रेस की जरूरत पड़ेगी। वही दूसरी ओर यूपी में भी कांग्रेस तेजी के साथ अपना जनाधार को बढ़ा रही है। जिसके आधार पर कांग्रेस के करिश्माई प्रदर्शन की उम्मीद सभी राजनैतिक दलों को है। इस लिहाज से यदि यूपी के विधानसभा चुनाव में त्रिशंकु जनाधार की स्थिति पैदा होती है।तो कांग्रेस उसमें बड़ी भूमिका निभा सकती है। इस कारण जल में रहकर मगर से बैर कौन करना चाहेगा?
अत प्रश्न यह उठता है कि कब तक ऐसी मानसिकता वाली राजनीतिक पार्टियाँ अपनी गोटियाँ बिछाने के लिए जनता के हितो की तिलांजलि देती रहेगी?

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