डॉ. गौतम सचदेव
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ब्रिटेन के उन मुट्ठी भर लोगों को छोड़कर, जो व्यावसायिक अथवा शैक्षिक आवश्यकताओ के लिये हिन्दी सीखते और उसका प्रयोग करते हैं, शेष हिन्दी भाषा-भाषी वे भारतवंशी और उनकी सन्तानें हैं, जो सांस्कृतिक, धार्मिक या निजी कारणों से हिन्दी को बचाये हुए हैं । ब्रिटेन अंग्रेज़ी का गढ़ है और व्यापक ब्रितानी समाज हिन्दी का प्रयोग नहीं करता । कुछ अपवादों को छोड़कर हिन्दी प्रचार और प्रसार के माध्यमों में भी दिखाई नहीं पड़ती । यहाँ रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिये अंग्रेज़ी जानना, समझना और बोलना अनिवार्य है । जो ऐसा नहीं करता या कर पाता, वह सामान्य जनजीवन से कट जाता है ।
भौगोलिक दृष्टि से ब्रितानी हिन्दी भारत से आयातित और ब्रिटेन में प्रतिरोपित पौधे जैसी या चौहद्दी में घिरे तालाब जैसी है। जिन थोड़े-से वर्गों द्वारा परस्पर व्यवहार में हिन्दी का प्रयोग किया जाता है, वहाँ भी हिन्दी भाषा-भाषियों का कोई सघन या व्यापक क्षेत्र नहीं है । इस लिये भाषा के परिवर्तन में जिस तरह से स्थानभेद की भौगोलिक और सामाजिक भूमिका होती है, यथा चार कोस पर पानी बदले, आठ कोस पर बोली – वह ब्रिटेन के सन्दर्भ में सही नहीं है ।
हिन्दी यहाँ पर अपने स्वरूप और विकास में उसके बोलने वालों की योग्यता और ज्ञान, रेडियो और टेलिविजन के उपग्रहों से प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों और अत्यल्प तथा त्रुटिपूर्ण ढंग से कराये गये अनुवादों के द्वारा परिचालित होती है, भौगोलिक कारणों से नहीं । जो अध्येता ब्रितानी हिन्दी के विकास और परिवर्तनों का अध्ययन करना चाहते हैं, उनके लिये यह एक रोचक विषय है । ब्रिटेन में हिन्दी का एक भी समाचारपत्र नहीं है । एक त्रैमासिक पत्रिका पुरवाई को छोड़कर (जो अब समय पर प्रकाशित नहीं होती) यहाँ से और कोई हिन्दी पत्रिका नहीं निकलती । हिन्दी का शिक्षण केवल कुछ संस्थाएँ और उत्साही व्यक्ति ही कर रहे हैं और उनसे हिन्दी सीखने वाले बच्चों को छोड़कर यहाँ की युवा पीढ़ी हिन्दी में कोई रुचि नहीं रखती । इस लिये ब्रिटेन में हिन्दी का भविष्य कदापि उज्ज्वल नहीं है ।
विदेशों में पनपने वाली हिन्दी को जो व्यापक अन्तरराष्ट्रीय आयाम प्राप्त होता है, उसके सीमित रूप से ब्रिटेन में भी दर्शन किये जा सकते हैं । इसका मुख्य कारण यह है कि ब्रिटेन में भारतवंशियों की काफ़ी बड़ी संख्या मौजूद है । उन्होंने अपने घरों, धार्मिक स्थलों और संस्थाओं में भारत के जो छोटे-छोटे द्वीप बसा रखे हैं, उनसे हिन्दी भाषा समेत भारतीय संस्कृति और भारतीयता के बहुविध पक्षों का विकास होना स्वाभाविक है, लेकिन चूँकि उनपर ब्रिटेन के सामाजिक और सांस्कृतिक दबाव भी काफ़ी प्रबल रूप से पड़ते हैं, इस लिये यहाँ भारत वाली शुद्ध भारतीयता के दर्शन शायद नहीं होंगे ।
ब्रिटेन में भारतीय उपमहाद्वीप के अनेक भागों से आये लोग बसे हुए हैं । उनमें भारतीय पंजाबी तो मुख्यतः पंजाबी भाषा की दोआबी बोली और गुरुमुखी लिपि का प्रयोग करते हैं, जबकि पाकिस्तानी पंजाबी टक्साली या उर्दू मिश्रित पंजाबी बोलते हैं और उसे लिखने के लिये नस्तालीक यानि उर्दू लिपि काम में लाते हैं । इसी तरह से भारतीय बंगाली बंगला भाषा का प्रयोग करते हैं, जबकि बंगलादेशी बंगाली उसकी उपभाषा सिल्हटी का । ब्रिटेन के भारतवंशियों में अपनी-अपनी क्षेत्रीय या प्रादेशिक भाषा और बोली की रक्षा का भाव इतना प्रबल है कि राष्ट्रभाषा हिन्दी प्रायः उपेक्षित हो जाती है । लेकिन भला हो हिन्दी फ़िल्मों और भारतीय टी.वी. चैनलों से प्रसारित धारावाहिकों तथा समाचारों का, जिनके कारण हिन्दी समझने वालों का दायरा काफ़ी व्यापक है और हिन्दी भाषा जीवित है ।
ब्रिटेन में हिन्दी के जीवित रहने का दूसरा मुख्य कारण है भारतवंशियों का भारत प्रेम और इस नाते उनका अपनी राष्ट्रीय पहचान बनाये रखना । तीसरा कारण धर्म या संस्कृति है। धार्मिक अनुष्ठानों, त्योहारों, पर्वों, उत्सवों और समारोहों आदि में हिन्दी को उसका परम्परागत आदर एवं स्थान मिल ही जाता है, लेकिन वह समूचे भारतवंशियों के सामाजिक और धार्मिक व्यवहार की प्रथम भाषा नहीं है । उसकी वैसी सामाजिक या भाषिक पहचान भी नहीं है, जैसी भारतवंशियों की स्वयं अपनी पहचान है और उनकी प्रान्तीय या क्षेत्रीय भाषाओं की है । चौथा कारण सामूहिक कारण है । ब्रिटेन में हिन्दी को जीवित और लोकप्रिय बनाये रखने में भारतीय उच्चायोग काफ़ी सक्रिय है, जो हिन्दी सेवियों को सम्मान और अनुदान प्रदान करता है । उसके अलावा यू.के. हिन्दी समिति, गीतांजलि, भारतीय भाषा संगम, कृति यू.के., वातायन और कथा यू.के. जैसी अनेक हिन्दी सेवी संस्थाएँ हैं, जो हिन्दी का प्रचार-प्रसार करती हैं, सम्मेलनों और समारोहों का आयोजन करती हैं और सम्मान आदि प्रदान करती हैं। इन सबके साथ आर्य समाज, भारतीय विद्या भवन, हिन्दू सोसाइटियाँ और स्थानीय काउंसिलें यानि नगर परिषदें हैं तथा बहुत-से उत्साही शिक्षक हैं, जो अपने-अपने ढंग से हिन्दी की शिक्षा, प्रचार और प्रसार में योगदान करते हैं ।
व्यावसायिक स्तर पर कुछ प्रकाशकों ने हिन्दी सिखाने वाली पुस्तकें तथा दृश्य और श्रव्य कैसेट प्रकाशित किये हैं, जिनके आलेख भारतीयों ने भी रचे हैं और अंग्रेज़ों ने भी । इनके लक्ष्य भिन्न-भिन्न हैं, कुछ पर्यटकों के लिये हैं, कुछ बच्चों के लिये और कुछ सामान्य शिक्षार्थियों के लिये हैं । इनमें हिन्दी व्याकरण का जैसा ध्यान रखा जाना चाहिये, वह प्रायः नहीं मिलता । जो संस्थाएँ और व्यक्ति हिन्दी शिक्षण का कार्य कर रहे हैं, उनके पास कोई मानक या सर्वमान्य और वैज्ञानिक पाठ्यक्रम नहीं है । उनके अध्यापक भी प्रशिक्षित हिन्दी अध्यापक नहीं हैं । सब अपने-अपने ढंग और सूझबूझ से हिन्दी सिखाते हैं । मैंने स्वयं अनेक व्यक्तियों को हिन्दी की शिक्षा दी है, जिनमें अधिकतर बीबीसी के वे अंग्रेज़ संवाददाता थे, जिनको भारत में नियुक्त किया गया था । मैंने हिन्दी सिखाने के लिये व्यावहारिक, भाषा-वैज्ञानिक और आधुनिक रीतियों का पालन किया और प्रायः वह मानक ब्रितानी पद्धति अपनाई, जो अंग्रेज़ी को विदेशी भाषा के रूप में सिखाने वाली स्वीकृत पद्धति है । प्रत्येक विद्यार्थी के अनुरूप मैंने स्वयं पाठ और पाठ्य सामग्री तैयार की तथा उच्चारण के लिये प्रायः रोमन, पंजाबी, उर्दू तथा अन्य लिपियों का प्रयोग किया ।
हिन्दी शिक्षण सामग्री में व्याकरण की जो भूलें मेरे देखने में आईं, उनमें कुछ के उदाहरण हैं, आपने शादी किया, ग़रीब लोग क्या करना और न्यू डेल्ही स्टेशन कितने पैसे हैं, आदि । कैसेटों में प्रायः अंग्रेज़ी-हिन्दी का मिश्रण मिलता है, जैसे – फ़्लाइट कब चलती है, पहले रिपोर्ट हिन्दुस्तान जाएगी और क्लियरैन्स के बाद ही पासपोर्ट मिल सकता है, और हम बीवी, बच्चे यानी कि पूरी ट्राइब के साथ भारत जा रहे हैं । केम्ब्रिज विश्वविद्यालय के एक विख्यात प्रोफ़ैसर ने जो हिन्दी का व्याकरण लिखा है, उससे हिन्दी के कुछ उदाहरण देखिये – वह विजय की मुस्कराहट मुस्कराया, तालाब में कुछ पानी नहीं है, मुझे बहुत बड़ी खुशी है, हमें समय नहीं है और किन्हीं-किन्हीं गाँवों में तालाब नहीं हैं । हिन्दी के एक अन्य अंग्रेज़ प्राध्यापक ने जो चर्चित और उपयोगी हिन्दी स्वयं शिक्षक लिखा है, उसमें भी त्रुटियों का अभाव नहीं है । कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं – यात्रियों को तो यात्रा की कहानियाँ दिलचस्प होती हैं, वह चश्मा वाला लड़का जो बीड़ी पी रहा था, अभी तो मुझे मुक्ति पाने की कोई विशेष इच्छा तो नहीं है । उपर्युकत विवेचन के आधार पर ब्रितानी हिन्दी के ये सन्दर्भ विचारणीय हैं – भारतीय हिन्दी बनाम विदेशी हिन्दी, मौलिक हिन्दी बनाम अनूदित हिन्दी, मानक हिन्दी बनाम अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी और व्यवसायिक हिन्दी बनाम बोलचाल की सामान्य हिन्दी आदि।
भाषावैज्ञानिक आधार पर भारतीय और विदेशी हिन्दी में तात्त्विक अन्तर नहीं मिलता, लेकिन ब्रिटेन में अंग्रेज़ी के दबाव के कारण कुछ अन्तर अवश्य मिलता है । यद्यपि आज यह दबाव भारतीय हिन्दी पर भी कम नहीं है, क्योंकि शिक्षित और सम्भ्रान्त समाज हिन्दी के स्थान पर अंग्रेज़ी बोलने या हिन्दी को अंग्रेज़ीनुमा बनाने में प्रतिष्ठा का अनुभव करता है, लेकिन ब्रितानी हिन्दी पर यह दबाव अन्य कारणों से भी पड़ता है, जिनमें सांस्कृतिक और भौगोलिक कारण मुख्य हैं । ब्रिटेन जैसे अंग्रेज़ी के महासागर में हिन्दी जैसी भारतीय भाषाओं के द्वीप बहुत छोटे हैं, जिनपर अंग्रेज़ी के ज्वारभाटे और तूफ़ान आते ही रहते हैं । एक इस रूप में कि भारतीय माता-पिताओं के बच्चे यहाँ शिक्षित होने के कारण अपनी मातृभाषा का बहुत कम प्रयोग करते हैं या करते ही नहीं ।
इससे हिन्दी का क्षेत्र और भी संकुचित हो जाता है और उसमें केवल अंग्रेज़ी शब्दों और उसकी उच्चारण शैली का ही मिश्रण नहीं होता, रोमन लिपि के कारण हिन्दी के नामों और शब्दों का अंग्रेज़ीकरण भी होता है । इसके उदाहरण कभी-कभी बड़े रोचक होने लगते हैं, लेकिन ब्रितानी हिन्दी में उन्हें सहज रूप से स्वीकार किया जाता है, जैसे कीर्ति का कर्टी, गुरुमूर्ति का गुरुमर्टी, धवन का डवन या डॉवन और कान्ता का काँटा या कैंटा सुनाई पड़ना आम बात है । यहाँ भारतीय नामों को छोटा करके या बदलकर अंग्रेज़ी ढंग से बोलने-बुलवाने की प्रवृत्ति भी मिलती है, जो अंग्रेज़ों के नामों से मेल खाती है – जैसे सरस्वती का सेरा या सारा, हर्ष का हार्श, हरी या हर्षित का हैरी और कृष्ण का क्रिस हो जाना ।
अंग्रेज़ी से प्रभावित वाक्यों के कुछ उदाहरण देखिये – मेरे सनी को टायलेटें लग गई हैं, ज़रा डोर शट कर दो, मैंने संडे को टैम्पल में वर्शिप करने जाना है, आदि । इसी तरह से जब ब्रितानी हिन्दी में अंग्रेज़ी-हिन्दी व्याकरणों का मिश्रण होता है, तो टेबले, चेयरें, डिशें, डिबेटें, डेकोरेशनें, स्पीचें, हैबिटें और ट्रांसलेशनें जेसे बहुवचन सुनाई पड़ते हैं और ‘उसने कहा, यू नो जो वो हमेशा कहा करता है, दैट हीज़ बिज़ी, वो बिज़ी है, इस लिये नहीं आ सकता’ तथा ‘उसने ख़बर सुनते ही, ऐज़िज़ हिज़ हैबिट, रिऐक्ट किया अपने उसी पर्सनल स्टाइल में कि हाउ डेयर यू, तुम्हारी यह हिम्मत’ जैसे वाक्य सुनने को मिलते हैं । इस मिश्रण से आगे की स्थिति वह है, जब अनुवाद करते समय या तो अंग्रेज़ी के वाक्य-विन्यास की नक़ल की जाती है या अंग्रेज़ी का शाब्दिक अनुवाद कर दिया जाता है।
उपर्युक्त उदाहरणों से देखा जा सकता है कि लोग हिन्दी बोलते-बोलते कैसे अंग्रेज़ी में पहुँच जाते हैं । वे या तो पूरा वाक्य हिन्दी में नहीं बोल पाते या फिर बोलते ही नहीं और हिन्दी सुनकर अंग्रेज़ी में जवाब देते हैं । अंग्रेज़ी के अलावा ब्रितानी हिन्दी में पंजाबी और गुजराती शब्दों का मिश्रण भी मिलता है । हिन्दी का मर्मज्ञ होने की न यहाँ किसी को ज़रूरत है और न ही कोई होना चाहता है । यहाँ शुद्ध हिन्दी बोलने-सिखाने के साधन भी प्रायः उपलब्ध नहीं हैं, जिसका एक कारण यह है कि हिन्दी सिखाने वाले व्यक्ति स्वयं हिन्दी के उच्च कोटि के विद्वान या अध्यापक नहीं हैं । अलबत्ता सरकारी अनुवाद के कामों और व्यावसायिक कारणों से एक समय पर यहाँ अनुवादकों की आवश्यकता अवश्य रही है, लेकिन उच्च स्तर के अनुवादकों का ब्रिटेन में हमेशा से अभाव चला आता है । परिणाम यह है कि यहाँ का हिन्दी अनुवाद प्रायः भ्रष्ट, अशुद्ध और कृत्रिम है । उर्दू, पंजाबी और बंगाली की दशा इससे बहुत अच्छी है ।
हिन्दी के भ्रष्ट और अशुद्ध अनुवाद के अतिरिक्त इसमें वर्तनी की अशुद्धियों की भी भरमार है, जैसे अधर्म का अर्धम, रूप का रुप, नीति का निति या निती, कृपया का कृप्या और विद्या का विध्या लिखा हुआ मिलना बड़ी सामान्य बात है । एक बार यहाँ की एक स्थानीय नगर परिषद यानि काउंसिल ने हिन्दी अनुवादकों की नियुक्ति के लिये विज्ञापन दिया । उसमें जो ग़लतियाँ थीं, वे तो थीं ही, परीक्षार्थियों के लिये उसने लगभग 600 शब्दों की जो नियमावली प्रकाशित की थी, उसमें 100 से अधिक केवल वर्तनी की अशुद्धियाँ थीं । अच्छी हिन्दी के लिये किसी समय पर जिस बीबीसी हिन्दी सेवा की प्रशंसा की जाती थी, उसमें अनुवाद की इस प्रकार की त्रुटियाँ मैंने स्वयं सुनी हैं – फ़िलिस्तीन समझौतों पर बमबारी (बॉम्बार्डमेंट ऑन पैलेस्टिनिटन सेटलमेंट्स), ज़ैतून की टहनी पेश की (ऑफ़र्ड एन ऑलिव ब्रांच) और पर्याप्त ही पर्याप्त है (इनफ़ इज़ इनफ़) । आज भी बीबीसी हिन्दी सर्विस की ऑनलाइन वेबसाइट पर भाषा की अशुद्धियाँ मिल जाना बड़ी आम बात है ।
ब्रिटेन के जिन हिन्दी लेखकों की आजकल भारत में प्रवासी लेखकों के रूप में काफ़ी चर्चा होती है, उनमें अपवाद स्वरूप दो-चार लेखकों को छोड़कर अधिकांश में भाषा की त्रुटियों के प्रति असावधानी के सहज ही दर्शन किये जा सकते हैं ।
ब्रिटेन के पुस्तकालयों में हिन्दी की पुस्तकें बहुत कम मिलेंगी । थोड़ी-बहुत जो दिखाई पड़ भी जाती हैं, वे किसी भ्रान्त और भ्रष्ट क्रय-नीति के अन्तर्गत ख़रीदी गई थीं । इससे भी ख़राब स्थिति यह है कि हिन्दी के पाठक एकदम नदारद हैं । पत्रिकाओं के नाम पर पुरवाई का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है । हिन्दी के विपरीत पुस्तकालयों में उर्दू, गुजराती, पंजाबी और बंगला पुस्तकों का न केवल स्तर ही ऊँचा है और वे बहुसंख्य रूप से मौजूद भी हैं, बल्कि उनके पाठकों की संख्या भी काफ़ी अधिक है । उनकी पत्रिकाएँ और समाचारपत्र भी नियमित रूप से छपते और पढ़े जाते हैं । इस लिये अगर ब्रिटेन में हिन्दी को लोकप्रिय और ग्राह्य बनाने के ठोस और कारगर उपाय न किये गये, तो वह दिन दूर नहीं, जब ब्रिटेन से हिन्दी पूरी तरह विदा हो जायेगी ।
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