Friday, June 24, 2011

आपातकालीन दमन के अमिट व्रणचिह्न


कुन्दन पाण्डेय
24 june 2011
BHOPAL


कहते हैं वक्त हर जख्म को भर देता है, लेकिन जख्म के चिह्न को वक्त मिटा नहीं पाता, धुंधला अवश्य कर देता है। भारतीय लोकतंत्र में आपातकाल का व्रणचिह्न, एक ऐसा ही चिह्न है। आज से ठीक 36 वर्ष पूर्व देश पर 25 जून, 1975 की मध्य रात्रि को आपातकाल थोपा गया था। लोकतंत्र के विशेषज्ञों का कहना है कि लोकतंत्र 100 वर्षों में परिपक्व होता है। इस आधार पर हमारा भारतीय लोकतंत्र 1975 में परिपक्वता वर्ष से 75 वर्ष कम था। दरअसल 1971 के आम चुनाव में दो तिहाई बहुमत से चुनाव जीतने वाली इंदिरा गांधी के खिलाफ रायबरेली से समाजवादी राजनारायण चुनाव हार गये थे। परन्तु राजनारायण के इंदिरा गांधी की जीत को चुनौती देने वाली चुनाव याचिका पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा ने 12 जून, 1975 को श्रीमती गांधी का चुनाव रद्द करने का आदेश घोषित कर दिया।
दरअसल 25 जून, 1975 की शाम छह बजे से जयप्रकाश नारायण ने रामलीला मैदान पर एकत्रित तकरीबन 1 लाख के उत्साही जनसमूह को संबोधित करते हुए इंदिरा गांधी से इस्तीफा देने का आग्रह किया और कहा कि अन्यथा भारत की जनता को उन्हें शांतिपूर्वक इस्तीफा देने को बाध्य करना चाहिए। इतना सुनने के बाद, इंदिरा गांधी ने लगभग 11.30 बजे आपातकाल के दस्तावेज पर हस्ताक्षर कर दिए। आपातकाल की घोषणा पर राष्ट्रपति ने बिना मंत्रीमंडल की सिफारिश के ही हस्ताक्षर कर दिए थे। 25 जून की रात्रि को 3 बजे जेपी को गिरफ्तार करने गयी पुलिस, 5 बजे तक पार्लियामेंट स्ट्रीट थाने ले आई। फौरन मिलने पहुंचे युवा तुर्क कहे जाने वाले कांग्रेसी नेता ‘चन्द्रशेखर’ तक को पुलिस ने वहीं गिरफ्तार कर लिया। चन्द्रशेखर की गिरफ्तारी समस्त कांग्रेसी सांसदों को यह चेतावनी थी कि जो विरोध करेगा, विपक्ष की तरह जेल में होगा।
“मेंटीनेंस ऑफ इंटरनल सिक्युरिटी एक्ट” यानी मीसा जैसा काला कानून लागू करके, प्रख्यात समाजवादी नायक रघु ठाकुर के अनुसार आपातकाल में लगभग 2 लाख लोगों को हिरासत में रखा गया था। ताज्जुब की बात है कि, यह संख्या 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन के समय कारावास में रखे गये लोगों की संख्या से अधिक थी। तत्कालीन महान्यायवादी (अटार्नी जनरल) ने कहा था कि, “राज्य किसी की भी हत्या बिना दंडित हुए कर सकता है”। यह वाक्य निश्चित ही इस समय भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ रहे सिविल सोसायटी के सदस्यों व समर्थकों के अंतस-मानस में सिहरन पैदा करने के लिए काफी है।
आपातकाल के दौरान सत्ता के नशे में मदांध संजय गांधी की मंडली का उत्साहित नारा था कि ‘एक राष्ट्र, एक पार्टी और एक नेता’। तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने ‘इंडिया इज इंदिरा’ व ‘इंदिरा इज इंडिया’ कहकर के चाटुकारिता को जबर्दस्त बढ़ावा दिया। बरूआ का यह कथन इसलिए सत्य प्रतीत होता है कि इंदिरा गांधी अपना लोकसभा निर्वाचन रद्द होने तथा कांग्रेस संसदीय दल में नये नेता के चुनाव की मांग से मानसिक रूप से अपने राजनीतिक जीवन में सबसे अशांत थी। बस फिर क्या था, ‘इंदिरा इज इंडिया’ के कारण इंदिरा ने अपनी नितांत निजी अशांति को पूरे देश पर थोप दिया। इंदिरा गांधी के सामान्य विरोध तक को देशद्रोही मानकर पूरे विपक्ष सहित जेलों में मीसा के तहत ठूंसकर, संविधान के 53 अनुच्छेद बदल दिए गए। 42 वां संविधान संशोधन इसी समय विपक्ष की अनुपस्थिति में हुआ था। पीएम के लोकसभा निर्वाचन को कोर्ट में चुनौती न देने का अकल्पनीय, निराधार एवं हास्यास्पद कानून संसद द्वारा बनाया गया। और तो और पं. नेहरू द्वारा प्रस्तावित एवं संविधान सभा द्वारा पारित ‘संविधान की प्रस्तावना’ में ‘पंथनिरपेक्ष व समाजवादी’ शब्द जोड़कर, इंदिरा ने नेहरू की समझ व विद्वता पर ही प्रश्न चिह्न लगा दिए।
राष्ट्रीय अंग्रेजी दैनिक ‘मदरलैंड’ के कार्यालय पर तोड़-फोड़ करके इसके संपादक मलकानी को गिरफ्तार किया गया। अनगिनत अखबार जो ऐसी स्थिति नहीं झेल सके, बंद हो गये। दैनिक जागरण ने अपने संपादकीय का स्थान खाली रखकर, नये तरह की पत्रकारीय अभिव्यक्ति की इबारत लिखी। प्लेटो का यह कथन इंदिरा गांधी पर सटीक बैठता है कि, “लोकतंत्र में आक्रामक और साहसी लोग नेता बन जाते हैं। दब्बू और चापलूस लोग इन नेताओं के अनुयायी।” 1971 की युद्ध विजय से अपनी आक्रामकता और साहसीपन पर श्रीमती गांधी जनता से मुहर लगवा चुकी थीं। पीएम इंदिरा ने तानाशाह के जैसे कहा कि, “मैं ही वह हूं जो देश को एकताबद्ध रखे है।” इसका तो यही अर्थ है न, कि इनके पहले नेहरू युग व इनके बाद के युग में देश में एकता नहीं थी। जेपी आन्दोलन में जनसंघ से अधिक अत्याचार सहकर संघ परिवार ने अद्वितीय व स्वर्णिम यश-ख्याति अर्जित की।
भारतीय लोकतंत्र के सभी संस्थाओं को अपूर्णनीय आघात पहुंचाया गया। आपातकाल के नाम पर किए गए दमन-शोषण और ज्यादतियों की जांच के लिए शाह आयोग का गठन किया गया। इस आयोग की गवाही में नौकरशाहों और अन्य अधिकारियों ने स्पष्ट रूप से यह स्वीकार किया कि अपने-अपने पद की रक्षा ही हमारे कार्य का एकमात्र आधार था। आपातकाल में इंदिरा गांधी ने सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग करके पहली बार लोकसेवकों को नौकरशाह बना डाला। ऐसा आभास होता है कि देश पर आपातकाल थोपने वाला शासक यह कह रहा हो कि “ऐ लोकसेवकों तुम जनता के लिए शाह जरूर हो, परन्तु एकमात्र मेरे लिए तो नौकर (शाह नहीं) ही हो”। आपातकाल ने राष्ट्र-समाज-शासन में जो धर्म-अधर्म, सही-गलत, अच्छा-बुरा, संवैधानिक-असंवैधानिक एवं नैतिक-अनैतिक का भेद बचा-खुचा था, उसे भी हमेशा-हमेशा के लिए अधिकारिक रूप से समाप्त कर दिया। अब तो भारत की प्रशासनिक मशीनरी के अंतस-मानस, चाल-चेहरा-चरित्र में आपातकाल के दुर्गुण शाश्वत अंग बन गये हैं।
परन्तु यक्ष प्रश्न यह है कि क्या आज की सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक परिदृश्य वाले समाज में जे पी जैसा कोई व्यक्तित्व हो सकता है? जो मंत्री, प्रधानमंत्री तो बहुत बड़ी बात है, सांसद या विधायक तक न बना हो। लेकिन केन्द्रीय सत्ता (इंदिरा गाँधी) के खिलाफ आन्दोलन को सफल करने के लिए लाखों लोगों को जोड़ने की क्षमता रखता हो। जो व्यक्ति, समाज या राष्ट्र इतिहास से सबक नहीं सीखता, वो इतिहास में ही दफ्न हो जाता है। लेकिन भारतीय राष्ट्र, समाज, सत्ताधारी पार्टी कांग्रेस, भाजपा सहित सभी विपक्षी दलों ने शायद ही आपातकाल से कोई सबक सीखा है। अब यह भविष्य ही बतायेगा कि पूर्व उल्लिखित सभी इकाईयों का इतिहास कैसा होता है?
(लेखक युवा पत्रकार हैं।)

1 comment:

  1. loktantra ka shatak hone waala tha(jaisa aapna bataya) lkin sarkar ke pratinidhiyon ke beech acchi saajhedhaari nahi ho saki jiska parinaam janta ne penalty conrner ke roop me bhugta..aur desh aapaatkaal ki giraft me tha...aake lekh ka koi jawab nahi umda ati umda...

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