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-प्रो. बृजकिशोर कुठियाला
भ्रष्टाचार के विरोध में उठी जनमानस की आवाज को जिस प्रकार से वर्तमान राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्था ने कुचला है वह अप्रत्यक्षित था। अन्ना हजारे देश के विशिष्ठ और नगरीय जनता की आवाज को लेकर उठे। उनके साथ कुछ और भी प्रतिष्ठित सामाजिक कार्यकर्ताओं ने सहयोग किया। कुटिलता से सरकार ने अन्ना हजारे की टीम को लुभाया और आन्दोलन टाय-टाय फिस हो गया। वार्ता के चक्रों में फंसाकर कुछ राजनेताओं ने तो स्थापित प्रतिष्ठा वाले अन्ना हजारे की छवि को भी धूमिल करने का प्रयास किया।
बाबा रामदेव की आवाज में निम्न मध्यवर्ग और ग्रामीण जनता की पीड़ा और विरोध शामिल था। भ्रष्टाचार की व्यापकता और उसकी विराटता से आम आदमी न केवल क्षुब्ध है बल्कि कुछ कर गुजरने की इच्छा भी रखता है। श्रीमती गांधी ने भी जयप्रकाश के नेतृत्व में युवा आन्दोलन को कुचलने का प्रयास किया था। जिसके कारण से भारत के प्रजातन्त्र के स्वर्णिम इतिहास में 19 महीने का एक काला अध्याय जुड़ा।
कुटिल परन्तु सफल प्रयास यह भी हुआ कि अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के आन्दोलन एक- दूसरे के सहयोगी नहीं बन पाये। दोनों ही व्यक्ति राजनीति के गठजोड़ के दांवपेच के खिलाड़ी नहीं है। परन्तु दूसरे पाले में ऐसे ही लोग सक्रिय और मुखर हैं जिनका राजनीतिक और सार्वजनिक जीवन झूठ, धोखे और ईर्ष्या का उदाहरण है। भ्रष्टाचार को रोकने, अपनी सम्पत्ति को देश में वापस लाने और सड़ी हुई व्यवस्था को बदलने के लिये आन्दोलन तो उठेंगे ही परन्तु इनका सूत्रपात राजनीति नहीं करेगी, क्योंकि जो व्यक्ति उस शाखा को काटता है जिस पर वह स्वयं बैठा है उसे शेखचिल्ली कहा गया है। हमारे राजनीतिक कार्यकर्ता सब कुछ हो सकते है, परन्तु वह मूर्ख नहीं है। इसलिये व्यवस्था परिवर्तन का कार्य तो नागरिक समाज को ही करना होगा।
नागरिक समाज के समक्ष भी प्रश्न रणनीति का उठना चाहिए। भ्रष्ट व्यवस्था को समाप्त करने का आन्दोलन तर्क संगत है परन्तु क्या नागरिक समाज विकल्प प्रस्तुत करने की स्थिति में है ? भ्रष्टाचार का सबसे परिचय है परन्तु इसके स्थान पर जिस शिष्टाचार को लाना चाहते है उसकी रचना और कल्पना हमारे पास नहीं है। आम आदमी को यह समझ में नहीं आता कि भ्रष्ट व्यवस्था द्वारा स्थापित लोकपाल की संस्था भ्रष्टाचार को कैसे समाप्त कर सकती है। केन्द्र में और राज्य सरकारों में विजिलेन्स आयोग और आर्थिक अपराधों से निपटने के लिये अनेक संस्थाएं है, वे कितनी कारगर हैं यह प्रश्न हर आन्दोलनकारी के मन में है। बाबा रामदेव भी व्यवस्था में परिवर्तन की बात तो करते हैं परन्तु नई व्यवस्था की आसानी से समझ में आने वाली परिकल्पना या मॉडल उनके पास नहीं है।
आज भारतीय समाज तीन हिस्सों में बांटा जा सकता है पहला भाग संख्या में छोटा परन्तु बहुत अधिक प्रभावी है जो न केवल भ्रष्ट है परन्तु बेईमानी और अपराध से ही विकास करने की प्रक्रिया पर उसे पूरा विश्वास है। दुर्भाग्य से समाज का अत्यन्त सूक्ष्म यह भाग ही देश को चलाता है।
एक बहुत बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जो भ्रष्ट तो नहीं है परन्तु शिष्टाचारी भी नहीं है। आवश्यकता पड़ने पर वे भ्रष्ट व्यवस्था के साथ भी हो लेते हैं और मन ही मन उसका विरोध भी करते हैं। लाइसेन्स जल्दी बने इसके लिये रिश्वत दे देते है, टैफिक का चालान हो तो चालान की जगह रिश्वत दे कर बचने में उन्हे कोई बुराई नहीं लगती। परीक्षा में अध्यापक को सिफारिश करना उन्हें उचित लगता है और बिजली की चोरी करना वह अपना अधिकार मानते है। कहा जाये तो यह वर्ग भ्रष्ट नहीं है परन्तु शिष्टाचारी भी नहीं है। इस समूह को हम छद्म शिष्टाचारी की संज्ञा दे सकते है।
आशा की किरण इस भयानक काली रात में यह दिखाती है कि भारतीय जनता का एक वर्ग न केवल भ्रष्टाचार के विरोध में मुखर है परन्तु अपने व्यवहार से वह शिष्टाचारी भी है। सूचना प्रौद्योगिकी की बड़ी संस्था के प्रमुख की यह छवि है कि उन्होंने अपने संस्था को आज अन्तरराष्ट्रीय स्तर का बनाया है और उन्होंने कभी भी कानून को नहीं तोड़ा है रिश्वत नहीं दी है और ‘गुड प्रेक्टिसेस’ अर्थात् आदर्श व्यवहार का पालन किया है। आज का पढ़ा-लिखा युवा वर्ग अधिकतर शिष्टाचारी है उसे अपने सामने ऐसे अवसर दिखते है जिनमें वह आदर्श सामाजिक व्यवस्था में रहते हुए भी वह आगे बढ़ सकता है। आगे बढ़ने के लिये वह पीछे के द्वार, ’लाइन जम्पिंग’ और विशिष्ट देखभाल के शाटर्कट्स वह नहीं लेता। यह वर्ग देश और समाज के भविष्य के लिये चिंतित दिखता है और भ्रष्टाचार को निपटाने के लिये न केवल प्रयास परन्तु त्याग करने के लिये भी तत्पर है। अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के हाल ही में हुए आयोजनों से यह बात स्पष्ट होती है कि जब देश का शिष्टाचारी वर्ग आन्दोलित होगा तो छद्म शिष्टाचारियों का बड़ा हिस्सा उनके साथ आयेगा क्योंकि इन छद्म शिष्टाचारियों के मन में भी भ्रष्टाचार और अनाचार के प्रति विपरीत भाव है वे समाज की आदर्श व्यवस्थाओं और नैतिक मूल्यों में विश्वास रखते हैं परन्तु उनका पालन करने का साहस नहीं कर पाते। मौका मिलने पर और विश्वसनीय नेतृत्व द्वारा प्रोत्साहित करने पर वे शिष्टाचार के संरक्षक बनकर ऊभर सकते है।
देश में अनेक अन्ना हजारे और बाबा रामदेव हैं। अनेक सामाजिक और सांस्कृतिक संगठन ऐसे है जो केवल मात्र शिष्टाचार का ही संस्कार देते हैं। ऐसे संगठनों का प्रभाव भारतीय जीवन के हर पहलू पर पड़ रहा है। एक बड़ा कारण यह भी है कि भारत के नागरिक को सत्य, अहिंसा और नैतिकता का पाठ हजारों वर्षों से विरासत में मिला है। इसलिये भारत में ईमानदारी को श्रेष्ठ नीति नहीं माना गया है (ओनेस्टी इज द बेस्ट पॉलिसी) परन्तु एक अनपढ़ ग्रामीण भारतीय को भी बचपन से ही बताया जाता है कि धर्म का पालन अनिवार्य है और धर्म के पालन के लिए सत्य का आचरण अनिवार्य है। जैसा कि 1974-75 में हुआ था एक बार फिर देश में छोटे-छोटे आन्दोलन उठेंगे और मिलकर एक विराट आन्दोलन बनेगा जो अभारतीय और अव्यवहारिक व्यवस्था को परिवर्तित करेगा। आवश्यकता वर्तमान भ्रष्ट व्यवस्था के रखवालों से बेहतर रणनीति बनाने की है। इसके लिये अनेक हजारे और अनेक रामदेव मिलकर प्रयास करेंगे। शिष्टाचारी समाज के हर सज्जन व्यक्ति को अन्ना और बाबा बनना पड़ेगा।
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के कुलपति हैं)
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