Wednesday, January 12, 2011

मन का श्रृंगार



12 जनवरी 2011
अंकुर विजयवर्गीय, पू्र्व छात्र(जनसंचार विभाग)



काश ।
एक कोरा केनवास ही रहता
मन… ।
न होती कामनाओं की पौध
न होते रिश्तों के फूल
सिर्फ सफेद कोरा केनवास होता
मन… ।

न होती भावनाओं के वेग में
ले जाती उन्मुक्त हवा
न होती अनुभूतियों की
गहराईयों में ले जाती निशा ।
सोचता हूं,
अगर वाकई ऐसा होता मन
तो मन मन नहीं होता
तन तन नहीं होता
जीवन जीवन नहीं होता… ।

तो सिर्फ पौधा एक पौधा होता
फूल सिर्फ एक फूल होता
फूल पौधों का उपवन नहीं होता… ।
हवा सिर्फ हवा होती
निशा सिर्फ निशा होती
कोई खूशबू नहीं होती
कोई उषा नहीं होती… ।

जीवन की संजीवनी है भाव
रिश्तों का प्राण है प्यार
मन और तन दोनों का
यही तो है
शाश्वत श्रृंगार
एक मात्र मूल आधार... ।


वर्तमान में,
वरिष्ठ कॉपी संपादक,
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1 comment:

  1. ankur bhiya man ka sirangar wo sringar hota hai jisko sajane ke liye buitu parlar ki zarurat nahi hoti hai .............. is ko to bas xicharo ki zarurat hoti hai

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