सिमोन बैक की आत्महत्या से उठे कई सवाल
सोशल नेटवर्किंग साइट्स के सामाजिक प्रभावों का अध्ययन जरूरी
-संजय द्विवेदी
संचार क्रांति का एक प्रभावी हिस्सा है- सोशल नेटवर्किंग साइट्स, जिन्होंने सही मायने में निजता के एकांत को एक सामूहिक संवाद में बदल दिया है। अब यह निजता, निजता न होकर एक सामूहिक संवाद है, वार्तालाप है, जहां सपने बिक रहे हैं, आंसू पोछे जा रहे हैं, प्यार पल रहा है, साथ ही झूठ व तिलिस्म का भी बोलबाला है। यह वर्चुअल दुनिया है जो हमने रची है, अपने हाथों से। इस अपने रचे स्वर्ग में हम विहार कर रहे है और देख रहे हैं फेसबुक,ट्विटर और आरकुट की नजर से एक नई दुनिया। इन तमाम सोशल साइट्स ने हमें नई आँखें दी हैं, नए दोस्त और नई समझ भी। यहां सवाल हैं, उन सवालों के हल हैं और कोलाहल भी है। युवा ही नहीं अब तो हर आयु के लोग यहां विचरते हैं कि ज्ञान और सूचना ना ही सही, रिश्तों के कुछ मोती चुनने के लिए। यह एक एक नया समाज है, यह नया संचार है, नया संवाद है, जिसे आप सूचना या ज्ञान की दुनिया भी नहीं कह सकते। यह एक वर्चुअल परिवार सरीखा है। जहां आपके सपने, आकांक्षाएं और स्फुट विचारों, सबका स्वागत है। दोस्त हैं जो वाह-वाह करने, आहें भरने और काट खाने के लिए तैयार बैठे हैं। यह सारा कुछ भी है तुरंत, इंस्टेंट। तुरंतवाद ने इस उत्साह को जोश में बदल दिया है।यह इतना सहज नहीं लगता पर हुआ और सबने इसे घटते हुए देखा है।
एक मौत, हजारों प्रश्नः
पिछले दिनों लंदन की 42 वर्षीय महिला सिमोन बैक की आत्महत्या की खबर एक ऐसी सूचना है जिसने सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर पल रहे रिश्तों की पोल खोल दी है। यह घटना हमें बताती है कि इन साइट्स पर दोस्तों की हजारों की संख्या के बावजूद आप कितने अकेले हैं और आपकी मौत की सूचना भी इन दोस्तों को जरा भी परेशान नहीं करती। सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक पर सिमोन ने अपनी आखिरी पंक्तियों में लिखा था-“ मैंने सारी गोलियां ले ली हैं, बाय बाय।” उसके 1048 दोस्तों ने इन्हें पढ़ा, लेकिन किसी ने यकीन नहीं किया, न ही किसी ने उसे बचाने या बात करने की कोशिश की। एक दोस्त ने उसे ‘झूठी’ बताया तो एक ने लिखा “उसकी मर्जी।” जाहिर तौर पर यह हमारे सामाजिक परिवेश के सच को उजागर करती हुई एक ऐसी सत्यकथा है जो इस नकली दुनिया की हकीकत बताती है। यह हिला देने वाली ही नहीं, शर्मसार कर देने वाली घटना बताती है कि भीड़ में भी हम कितने अकेले हैं और अवसाद की परतें कितनी मोटी हो चुकी हैं। आनलाइन दोस्तों की भरमार आज जितनी है ,शायद पहले कभी न थी किंतु आज हम जितने अकेले हैं, उतने शायद ही कभी रहे हैं।
महानगरीय जिंदगी का अकेलापनः
महानगरीय अकेलेपन और अवसाद को साधने वाली इन साइट्स के केंद्र में वे लोग हैं जो खाए-अधाए हैं और थोड़ा सामाजिक होने के मुगालते के साथ जीना चाहते हैं। सही मायने में यह निजता के वर्चस्व का समय है। व्यक्ति के सामाजिक से एकल होने का समय है। उसके सरोकारों के भी रहस्यमय हो जाने का समय है। वह कंप्यूटर का पुर्जा बन चुका है। मोबाइल और कंप्यूटर के नए प्रयोगों ने उसकी दुनिया बदल दी है, वह एक अलग ही इंसान की तरह सामने आ रहा है। वह नाप रहा है पूरी दुनिया को, किंतु उसके पैरों के नीचे ही जमीन नहीं है। उसे अपने शहर, गली, मोहल्ले या जिस बिल्डिंग में वह रहता है उसका शायद कुछ पता ना हो किंतु वह अपनी रची वर्चुअल दुनिया का सिरमौर है। वह वहां का हीरो है। मोबाइल, लैपटाप और डेस्कटाप स्क्रीन की रंगीन छवियों ने उसे जकड़ रखा है। वह एकांत का नायक है। उसे आसपास के परिवेश का पता नहीं है, वह अब विश्व नागरिक बन चुका है। दोस्तों का ढेर लगाकर सामाजिक भी हो चुका है। कुछ स्फुट, एकाध पंक्ति के विचार व्यक्त कर समाज और दुनिया की चिंता भी कर रहा है। यानि सारा कुछ बहुत ही मनोहारी है। शायद इसी को लीला कहते हैं, वह लीला का पात्र मात्र है। कारपोरेट, बाजार और यंत्रों का पुरजा।
सेहत पर भी असरः
इसके सामाजिक प्रभावों के साथ-साथ स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं भी अब असर दिखाने लगीं हैं। तमाम प्रकार की बीमारियों के साथ अब कंप्यूटर सिड्रोम का खतरा आसन्न है। जिसने नई पीढ़ी ही नहीं, हर कंप्यूटर प्रेमी को जकड़ लिया है। अब यहां सिर्फ काम की बातें नहीं, बहुत से ऐसे काम हैं जो नहीं होने चाहिए, हो रहे हैं। एकांत अब आवश्यक्ता में बदल रहा है। समय मित्रों, परिजनों के साथ नहीं अब यहां बीत रहा है। ऐसे में परिवारों में भी संकट खड़े हो रहे हैं। यह खतरा टेलीविजन से बड़ा दिख रहा है, क्योंकि लाख के बावजूद टीवी ने परिवार की सामूहिकता पर हमला नहीं किया था। साइबर की दुनिया अकेले का संवाद रचती है, यह सामूहिक नहीं है इसलिए यह स्वप्नलोक सरीखी भी है। यहां सामने वाले की पहचान क्या है यह भी नहीं पता, उस नाम का कोई है या नहीं यह भी नहीं पता, किंतु कहानियां चल रही हैं, संवाद हो रहा है, प्यार घट रहा है, क्षोभ बढ़ रहा है। एक वाक्य के विचार किस तरह कमेंट्स में और पल की दोस्ती किस तरह प्यार में बदलती है- इसे घटित होता हम यहां देख सकते हैं। सोशल नेटवर्किग साइट्स के सामाजिक प्रभावों का भारतीय संदर्भ में विशद अध्ययन होना शेष है किंतु यह एक बड़ी पीढ़ी को अपनी गिरफ्त में ले रहा है इसमें दो राय नहीं। नई पीढ़ी तो इसी माध्यम पर संवाद कर रही है, प्यार कर रही है, फंतासियां गढ़ रही है, समय से पहले जवान हो रही है। हमारे पुस्तकालय भले ही खाली पड़े हों किंतु साइबर कैफे युवाओं से भरे पड़े हैं और अब इन साइट्स ने मोबाइल की भी सवारी गांठ ली है, यानि अब जेब में ही दुनिया भर के दोस्त भी हैं। सोशल नेटवर्किंग साइट्स का भारतीय संदर्भ में असर शशि थरूर के बहाने ही चर्चा में आया, जबकि ट्विटर पर वे अपनी कैटल क्लास जैसी टिप्पणियों के चलते विवादों में आए और बाद में उन्हें मंत्री पद भी छोड़ना पड़ा। भारत में अभी कंप्यूटर का प्रयोग करने वाली पीढ़ी उतनी बड़ी संख्या में नहीं हैं किंतु इन साइट्स का सामाजिक प्रभाव बहुत है। ये निरंतर एक नया समाज बन रही हैं। सपने गढ़ रही हैं और एक नई सामाजिकता भी गढ़ रही हैं।
नकली प्रोफाइलों पर पलता प्यारः
नकली प्रोफाइल बनाकर पलने वाले पापों के अलावा छल और झूठे-सच्चे प्यार की तमाम कहानियां भी यहां पल रही हैं। व्यापार से लेकर प्यार सबके लिए इन सोशल साइट्स ने खुली जमीन दी है। सही मायने में यह सूचना, संवाद और रिश्ते बनाने का बेहद लोकतांत्रिक माध्यम हो चुका है जिसने संस्कृति,भाषा और भूगोल की सरहदों को तोड़ दिया है। संचार बेहद सस्ता और लोकतांत्रिक बन चुका है। जहां तमाम अबोली भाषाएं, भावनाएं जगह पा रही हैं। आप यहां तो अपनी बात कह ही सकते हैं। यह आजादी इस माध्यम ने हर एक को दी है। यह आजादी नौजवानों को ही नहीं, हर आयु-वर्ग के लोगों को रास आ रही है, वे विहार कर रहे हैं इन साइट्स पर। यह एक अलग लीलाभूमि है। जो टीवी से आगे की बात करती है। टीवी तमाम अर्थों में आज भी सामाजिकता को साधता है किंतु यह माध्यम एकांत का उत्सव है। वह आपके अकेलेपन को एक उत्सव में बदलने का सामर्थ्य रखता है। वह आपके लिए एक समाज रचता है। आपकी निजता को सामूहिकता में, आपके शांत एकांत को कोलाहल में बदलता है। सोशल साइट्स की सफलता का रहस्य इसी में छिपा है। वे महानगरीय जीवन में, सिकुड़ते परिवारों में, अकेले होते आदमी के साथ हैं। वे उनके लिए रच रही हैं एक वर्चुअल दुनिया जिसके हमसफर होकर हम व्यस्त और मस्त होते हैं। किंतु यह दुनिया कितनी खोखली, कितनी नकली, कितनी बेरहम और संवेदनहीन है, इसे समझने के लिए सिमोन बैक की धीरे-धीरे निकलती सांसों और बाद में उसकी मौत को महसूस करना होगा। सिमोन बैक के अकेलेपन, अवसाद और उससे उपजी उसकी मौत को अगर उसके 1048 दोस्त नहीं रोक सके तो क्या हमारी रची इस वर्चुअल दुनिया के हमारे दोस्त हमें रोने के लिए अपना कंधा देगें ?
( लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)
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