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-संजय द्विवेदी
उर्वशी सिटोके यही नाम था उसका, मेरी छात्रा। जिसने विश्वविद्यालय में बहुत कम हाजिरी दी। वह कक्षाएं नहीं कर पा रही थी। उसकी खराब तबियत और शायद कुछ मुश्किलें जो मुझे पता नहीं रही हों। पहली बार एडमीशन के वक्त मैंने उसे देखा था। बातें करने और किसी को पल भर में अपना बना लेने की कला थी उसमें। उससे मेरी कुल चार या पांच मुलाकातें हुयीं पर बार-बार उसका चेहरा सामने आता है। इतनी खुशदिल और बातचीत करने वाली लड़की जिस परिवार में थी, वहां कितना सन्नाटा पसरा होगा। उसके परिजनों की सोचता हूं तो मन भारी हो उठता है। उसे हर चीज की जल्दी थी, एडमीशन की भी, इंदौर जाने की भी। मुझे अब लगता है कि आखिर वह इतनी जल्दी में क्यों थी। साधारण सी बीमारी में उसका इस तरह दुनिया छोड़ देना कई सवाल खड़े करता है। मैं जनसंचार-प्रथम सेमेस्टर में कक्षाएं नहीं लेता, पर संवाद सब बच्चों से है। इस बार एडमीशन फार्म भरने आयी तो मैने कहा कि तुम क्लास क्यों नहीं कर रही हो, टेस्ट भी छोड़ दिया। उसका कहना था बस “सर इंदौर जाकर माईग्रेशन ले आएं,फिर बस क्लास ही करना है। ” मुझे उसके न होने की खबर पर भरोसा नहीं हो रहा है। किंतु क्या वह इंदौर से लौटेगी......? उसकी शोकसभा कर ली है..... पर कहीं कोने पर उसकी आवाज गूंज रही है -......बस अब तो क्लास की करनी है सर। अपने एक सीनियर मिलन भार्गव से उसने कहा था सर मेरे क्लास न आने से नाराज हैं। पर क्या उर्वशी जैसे लड़की से कोई नाराज हो सकता है.....? मेरी भावभीनी श्रद्धांजलि।
आपके जैसा सवेदनशील शिक्षक को देख सुन कर अच्छा लगा....
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