Thursday, September 15, 2011

हिन्दी है हम वतन है हिन्दोस्तां हमारा



-शिशिर सिंह
विलाप करने से अगर कुछ मिलता होता तो दुनिया में मौत अन्तिम सच्चाई नहीं होती, विलाप शून्य पैदा करता है और कुछ नहीं। हिन्दी का भी विलाप करने से कुछ नहीं होगा। बेशक ऐसे समय में जब यूनेस्को विश्व की 3000 से अधिक भाषाओं पर संकट बता रहा हो। हिन्दी को लेकर चिंतित होना स्वाभाविक है पर हिन्दी का जितना तेजी से अभी विकास किया जा सकता है वो न शायद पहले करना संभव होता और न ही शायद भविष्य में होगा। जो है, जैसा है उसी में से रास्ता निकाल कर हिन्दी को आगे बढ़ाना होगा।
हिन्दी, समय के नाजुक मोड पर खड़ी है। यहाँ से अगर वह सही दिशा में ठीक-ठाक प्रयासों से भी चलती है तो अर्श उसका स्वागत करेगा, नहीं तो गर्त की परिणित उसकी बाट जोह ही रही है।
इन्टरनेट एक ऐसा माध्यम है जो हिन्दी को पैर नहीं पंख दे सकता है। इसमें किसी भी भाषा को लोकप्रिय बनाने का माद्दा है। अच्छी बात यह है कि यह किसी के बाप की बपौती नहीं है। अगर इन्टरनेट पर हिन्दी से संबंधित काम को बढ़ाया जाए तो हिन्दी को बहुत फायदा मिलेगा। यूनीकोड ने यह काम और आसान कर दिया है। इन्टरनेट पर हिन्दी भाषा में पाठ्य सामग्री को बढाना होगा। हिन्दी भाषा में पठनीय सामग्री की बेहद कमी है। लोग हिन्दी में सामग्री न मिलने का अफसोस तो जाहिर करते हैं पर कुछ करते नहीं। हिन्दी भाषियों की इस आदत के चलते अभी तक इन्टरनेट पर भाषा को गरीबी झेलनी पड़ रही है। हिन्दी भाषी कुछ नहीं देना चाहते यहाँ तक कि अपना ज्ञान भी जो बांटने से बढ़ता है। इसके उलट अंग्रेजी को देखिए। अंग्रेजी को अति लोकप्रिय बनाने में इन्टरनेट का बहुत बड़ा योगदान है। गूगल, विकीपीडिया, स्किराईव जैसी साइटों ने पाठ्य सामग्री की जो सुविधा लोगों को उपलब्ध कराई है, उसे लोगों ने अंग्रेजी में होने के बावजूद स्वीकार कर लिया। आरंभिक दौर में भाषा मजबूरी रही होगी वह बाद में रच बस कर आदत बन गई।
अगर हम इन्टरनेट पर जानकारियों को हिन्दी में देना शुरू करें तो भाषा की लोकप्रियता जरूर बढ़ेगी। ज्यादा कुछ नहीं तो जो जानकारियाँ कानूनी रूप से हिन्दी में अनुवाद करके डाली जा सकती है उसके लिए तो यह काम किया जा सकता है। गूगल, गूगल अनुवाद, विकीपिडिया तो ऐसी पहल का स्वागत करते हैं। हांलाकि यह दोनों संस्थान अपने तरफ से हिन्दी में सामग्री देने के लिए प्रयासरत हैं, पर आर्थिक संसाधनों के सहारे सीमित काम ही हो पा रहा है। बडे स्तर पर काम मन से और स्वयं सेवा से ही होगा।
इसके साथ हिन्दी की लोकप्रियता के लिए जरूरी है कि इसे प्रतिष्ठा से जोड़ा जाए। भारतीय समाज प्रतिष्ठा को लेकर बहुत संवेदनशील है। हिन्दी की साथ दिक्तत यह है कि लोग इसे ‘घर की मुर्गी दाल बराबर’ समझ रहे हैं। भारत का अभिजात्य वर्ग हिन्दी को हेय की दृष्टि से देखता है। वह हिन्दी अपनाता है पर उसे अछूत भी समझता है। संस्कृति का प्रवाह ऊपर से नीचे की ओर होता है। यही कारण है कि धीरे-धीरे अन्य वर्गों में भी हिन्दी को लेकर यह दृष्टिकोण बनता जा रहा है। ऐसा नहीं है कि हिन्दी की प्रतिष्ठा नहीं है, कई विदेशी शिक्षण संस्थान हिन्दी को प्रमुखता से अपना रहे हैं। ब्रिटेन के लन्दन, कैंब्रिज, यॉर्क जैसे विश्व प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में हिन्दी को पढ़ाया जा रहा है। हालैंड के भी चार विश्वविद्यालय इसे प्रमुख विषय के रूप में पढ़ा रहे हैं। इसके अलावा अमेरीका के 30, जर्मनी के 15 और विश्व के अन्य देशों में 100 से अधिक शिक्षण संस्थान में हिन्दी का अध्ययन होता है। ब्रिट्रेन में तो यह वेल्स भाषा के बाद उपयोग में लाई जाने वाली दूसरी सबसे बड़ी भाषा है। विश्व में इतना सम्मान होने के बावजूद भारतीय विश्वविद्यालयों में इसे सिर्फ पास करने लायक विषय के अध्ययन के रूप में अधिकतर लोग उपयोग करते हैं।
भारतीय मीडिया इसे प्रतिष्ठा दिलाने में काफी सहयोग कर सकता है। लेकिन इस पहल के लिए जरूरी है कि हिन्दी मीडिया अपना छिछलापन छोड़े, अधिक गम्भीर बने। हिन्दी मीडिया अपनी इन्हीं आदतों के चलते बदनाम है।
प्रतिष्ठा के लिए राजनीति और बाजार का सहारा लिया जा सकता है। यह सर्वविदित तथ्य है कि राजनीति और बाजार दोनों का काम हिन्दी के बिना नहीं चल सकता। यह भी सच्चाई है कि ये दोनों समाज को काफी हद तक नियंत्रित करते हैं। हिन्दी के बिना भारतीयों का जीवन अधूरा है। हिन्दी भाषा नहीं अभिव्यक्ति है जो मूलभूत जरूरतों के बाद एक बड़ी जरूरत है।
दरअसल बाजार न जहाँ हर चीज को बेचने के नजरिया बना रखा है वहीं उसने जाने-अनजाने हर चीज के लिए प्रतियोगिता का माहौल बना दिया है। भाषा के साथ भी यही हुआ है। संकट केवल हिन्दी पर नहीं आया है,बल्कि हर भाषा की शुद्धता पर है।
बाजार के कारण सब संकट में है पर बाजार ही इसका हल निकालेगा। बाजार उग्र और अड़ियल रवैया नहीं सहता। हिन्दी को शुरूआती दौड़ में इन्हीं दोनों से बचना होगा। हिन्दी भाषा के बुद्धिजीवियों के साथ यह दिक्तत आम है। भाषा के बुद्धिजीवियों को इसके हिसाब से खुद को ढालना होगा। इससे फायदा उनको भी होगा। समय सबको मौका देता है। अभी बाजार के हिसाब से चलें बाद में वह बाजार को नियंत्रित करेंगे।
राजकाज के स्तर पर इसे लोकप्रिय बनाने के लिए जरूरी है कि हम हिन्दी राज्यों की तरफ आशा की नजरों से देखें । रूठों को मनाना और संग खडे लोगों को न देखने की भारतीयों की जो आदत है वह हिन्दी के प्रसार में भी समस्या खड़ी कर रही है। दक्षिण भारत के राज्यों के हिन्दी के प्रति विरोध को भले ही नजरअंदाज करना उचित न हो, पर जो समर्थन में हैं उनके सहारे हिन्दी राजकाज की भाषा बनाई जा सकती।
हिन्दी सबसे अधिक जनसंख्या वाले उत्तर प्रदेश की मुख्य भाषा है। इसके अलावा बिहार, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान आदि ऐसे इलाके हैं जहाँ कि बोलियाँ और भाषा हिन्दी के काफी करीब है, जिनको हिन्दी भाषी प्रदेश का व्यक्ति थोड़ा बहुत समझ लेता है। उत्तर भारत के राज्य भी अगर हिन्दी भाषा में काम करना शुरू कर दें और इसे अपने यहाँ राजभाषा/राज्यभाषा का दर्जा दे दें तो काफी बडा कदम होगा।
दरअसल हिन्दी भाषी अपनी भाषा को लेकर उतने आसक्त नहीं है जितना इसका विरोध करने वाले या दक्षिण के लोग अपने भाषा के प्रति। हिन्दी पट्टी को भी इसके प्रति आसक्त होना होगा। स्कूल कॉलेजों में भाषा को लेकर काम करना होगा, खासकर स्कूलों में ताकि भाषा के लिए नींव तैयार हो।
अंग्रेजी भारत के विविधतापूर्ण भूगोल में संपर्क भाषा के रूप में काम कर रही है, पर यह पूरी संच्चाई नहीं है। गाँधी जी जिसे भारत कहते थे, जिसे उन्होंने रेलयात्रा करके जाना, वह भारत हिन्दी में ही संपर्क कर सकता है।
अगर यह सब होता है तब भी हम हिन्दी दिवस मानयेंगे पर विलाप के साथ नहीं, गर्व के साथ यह कहते हुए कि हिन्दी है हम वतन है हिन्दोस्तां हमारा।

(शिशिर सिंह विभाग के पूर्व छात्र हैं)

1 comment:

  1. भाषा बहती नदी के समान मानी गई है, जो कठिन राहों से गुजरते हुए सरल मार्ग का अनुगमन करती है. भाषाई विकास का अध्ययन बहुत से विद्वानों ने किया है तथा उसके प्रवाह, गति, दिशा, प्रवृत्तियों की चर्चा की है. भविष्य में भी विमर्श जारी रहेगा, आज भी चिंतन हो रहा है. वैदिकी से संस्कृत के उपरांत विभिन्न भारतीय भाषाओं के विकासक्रम में खड़ी बोली मानक हिन्दी बनी, जो स्वतंत्रता आंदोलन की सबसे बड़ी देन है. गाँधी जी गुजराती थे, अँग्रेज़ी बखूबी जानते थे, लेकिन हिन्दी में ही लोगों के बीच गये. अन्ना की हिन्दी ठीक नहीं है लेकिन जंतर-मंतर से रामलीला मैदान तक सिर्फ़ हिन्दी बोलते नज़र आए. संघर्ष से उपजी भाषा टीकाऊ होती है.

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