यजुर्वेद के अनुसार सुखपूर्वक जीवन जीने के लिए विज्ञान के आविष्कार आवश्यक हैं।
-कुन्दन पाण्डेय
पश्चिम की संस्कृति से पूर्व की संस्कृति अर्थात भारत एवं भारतीय संस्कृति किन कारणों से महान है यह प्रश्न देश के युवाओं के मन में बार-बार उठता है। हमारे यहाँ के कुछ प्रौढ़ लोग ज्ञान-विज्ञान सहित विकास की परंपरा को नकारते हुए धर्म, अध्यात्म, जप, तप, व्रत एवं पूजा-पाठ आदि को ही भारतीय संस्कृति मानते हैं। वर्तमान परिवेश में जब कोई युवा मंदिर नहीं जाता या तिलक नहीं लगाता, तो घर के बुजुर्ग भरे लहजे में कोसते हुए एक ही राग अलापते हैं, क्या करें जमाना बदल गया है। आजकल के युवा संस्कृति, संस्कार एवं परंपराओं को भूलकर बस पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण कर रहे हैं।
दूसरी ओर कुछ प्रबुद्ध भारतीय धर्म, अध्यात्म, संस्कृति एवं सनातन परंपराओं को ढोंग, पाखंड़, रुढ़ि, अंधविश्वास, पुराण पंथी कहकर नकारने में गर्व अनुभव करते हैं और समझते है कि हम विकसित हो गए हैं। ऐसे लोग धार्मिक व्यक्तियों को नासमझ, अबौद्धिक और भोलाभंड़ारी कहकर मजाक उड़ाते हैं। यजुर्वेद के 40 वें अध्याय में लिखा है कि वे लोग गहरे अंधेरे में हैं जो केवल विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास को ही जीवन का लक्ष्य मानते हैं तथा इससे भी ज्यादा गहन अंधकार में वे लोग जी रहे हैं जो केवल भक्ति, पूजा-पाठ एवं अध्यात्म में निरत होकर जीवन-यापन कर रहे हैं।
वेद के अनुसार संसार में सुखपूर्वक जीवनयापन करने के लिए विज्ञान के आविष्कार भी आवश्यक हैं और आत्मिक सुख-शांति एवं संतोष के लिए उपासना, भक्ति, ध्यान, समाधि रुप अध्यात्म भी अति आवश्यक है अर्थात् भारतीय संस्कृति में भौतिकवाद एवं अध्यात्मवाद को एक दूसरे का पूरक माना गया है। अध्ययन, मनन एवं समग्र चिन्तन के अभाव में आज जिस तरह से भारतीय संस्कृति को मात्र मंदिर एवं देव स्थानों तक ही केन्द्रित मान लिया गया हैं जो कि सर्वथा अनुचित है। भारतीय वेदों में ज्ञान कांड, कर्म कांड, विज्ञान कांड व उपासना कांड का सर्वांगीण रुप से समावेश है। भारतीय संस्कृति एकांगी नहीं है बल्कि वह बहुआयामी है।
हमारे मूर्धन्य महर्षि भूगर्भ विद्या, शस्त्र विद्या, शास्त्र विद्या में निपुण थे। स्वास्थ्य, शिक्षा, दूरदर्शन, दूरभाष, विमान शास्त्र सहित संपूर्ण विद्याओं का उन्हें ज्ञान था। दुर्भाग्य से महाभारत काल के बाद से भारतीय संस्कृति का तीव्र गति से क्षरण हुआ। कालांतर में संस्कृति की व्याख्यायें स्वार्थ पूर्ति हेतु सीमित रुप से की जाने लगी। इस तरह हमारा विज्ञान सम्मत धर्म मात्र वाह्य प्रतीकों तक सीमित कर दिया गया।
आज फिर से आग्रह एवं स्वार्थों से ऊपर उठकर विज्ञान के आलोक में भारतीय सनातन मूल्यों, परंपराओं व संस्कृति को देखने की आवश्यकता है। यह शाश्वत एवं अकाट्य सत्य है कि भारतीय संस्कृति कभी भी विज्ञान की विरोधी नहीं रही, अपितु हमारी संस्कृति तो पूर्णतः विज्ञान सम्मत है।
वैदिक कालीन समाजवाद, वर्ण व्यवस्था, वैदिक शिक्षा व्यवस्था, प्राचीन वैभवशाली आयुर्विज्ञान व आयुर्वेद ज्ञान, वैदिक कृषि व्यवस्था, वैदिक गणित, वैदिक ज्योतिष व वास्तुशास्त्र सहित परा-अपरा विधाओं के समुचित अध्ययन, अनुशीलन, अनुसंधान एवं शोध की आवश्यकता है। भारत की प्राचीन संस्कृति के समुचित आधार को समझकर ही हम गर्व से कह सकेंगे कि भारतीय संस्कृति पश्चिम की संस्कृति से कैसे श्रेष्ठ है।
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