Thursday, April 29, 2010

ठंडे बस्ते में समान नागरिक संहिता

-कुन्दन पाण्डेय
संसद के सन् 2002 के एक सत्र में गोरखपुर के सांसद योगी आदित्यनाथ के प्रस्ताव पर लम्बे समय बाद लोकसभा में समान नागरिक संहिता के मुद्दे पर जोरदार बहस की स्थिति अधिक समय बाद उत्पन्न हुई, किन्तु इस विषय पर जिस गंभीरता के साथ चर्चा होने की अपेक्षा थी वैसी चर्चा नहीं हुई। यद्यपि कुछ अपवादों के अतिरिक्त देश के विशेष और आम आदमी सभी यह सोचते और मानते हैं कि राष्ट्रीय एकता-अखण्डता के लिए देश में एक संविधान और एक समान कानून का सिद्धांत चलना चाहिए। एक आम धारणा यह भी है कि गांधी, नेहरु और अम्बेडकर के नाम पर अपना राजनीतिक उल्लू सीधा करने वाले लोग और दल उनके बनाए संविधान को पूर्णतः लागू करने के मुद्दे पर अभी भी तैयार नहीं है, आगे भी जल्दी तैयार नहीं होगें। इस बहस में भी इस अतिमहत्व के मुद्दे को महज मज़हबी अल्पसंख्यकवादी राजनीतिक नजरिये से देखा गया।
पिछले पाँच दशकों से दी जा रही वही थोथी दलीलें पुनः दोहराई गई। समान नागरिक संहिता का मुद्दा पुनः साम्प्रदायिकता और थोकवोट की राजनीति की तराजू पर तौला गया। कांग्रेस सहित सभी अल्पसंख्यकवादी स्वयंभू सेकुलर दल इस तथ्य से आँखें मूँदे रखना चाहते हैं कि संविधान के “नीति निर्देशक तत्वों” वाला “अनुच्छेद 44” बार-बार हमें यह निर्देशित करता है कि भारत अपने सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता बनाएगा। कांग्रेस के प्रियरंजन दास मुंशी ने यह दलील दी कि संविधान ने समान नागरिक संहिता के लिए कोई समय सीमा तय नहीं की है, सिर्फ प्रयास करने को कहा हैं, किन्तु वह यह भूल गये कि संविधान ने अस्पृश्यता निवारण के लिए भी कोई समय सीमा तय नहीं की है, सिर्फ प्रयास करने को कहा है, तो भी ससद ने अस्पृश्यता विरोधी कानून बनाया था।
जिस कांग्रेस ने अपने शासन काल में 76 बार संविधान का संशोधन मूलत निजी और दलीय स्वार्थों को देश पर थोपने के लिए किया, उसी ने देश की एकता, अखंडता और सामाजिक सांप्रदायिक समरसता के लिए आवश्यक समान नागरिक संहिता को नकार दिया। विश्व में शायद ही कोई ऐसा देश होगा जहाँ पंथनिरपेक्ष लोकतंत्र हो, किंतु जिसने अपने देशवासियों के लिए मजहबी आधार पर अलग-अलग नियमों और कानूनों का निर्माण किया हो। केवल भारत ही एक ऐसा देश है जहाँ कुछ समुदायों के लिए व्यक्तिगत कानून है, उनके लिए कानून की किताबें बदल दी जाती हैं और शेष नागरिको के लिए अलग कानून है। यही नही यहाँ के कुछ ऐसे विशेषाधिकार प्राप्त लोग हैं जिनके लिए संविधान की धज्जियाँ भी उड़ा दी जाती हैं। उनका हित साधन करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय को भी बौना बना दिया जाता है यह सभी जानते है कि 1947 में देश के विभाजन का आधार क्या था ?
मुस्लिम लीग की जिद और कांग्रेसी नेतृत्व की कायरता के कारण देश के टुकड़े हो गए व मजहबी द्विराष्ट्रवाद के आधार पर कांग्रेस ने भारत भूमि पर पाकिस्तान नाम का एक नया राष्ट्र स्वीकार कर लिया । उस समय भी मुस्लिम लीग के नेतृत्व में मुसलमानों के बहुमत ने यह मांग की थी कि उन्हें केवल अतिरिक्त अधिकार ही नहीं, एक अलग देश भी चाहिए । उनकी एक मांग यह थी कि उनकी कौम के मामलें किसी कानून का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए । वस्तुतः उन्हें सामाजिक साम्प्रदायिक समरसता नहीं विलगता चाहिए थी। इन्हीं लोगों और इनके नेताओं ने भारत में द्विराष्ट्र की कल्पना की और उसे मूर्त रूप देने के प्रयास में हजारों लाखों लोगों की लाशें बिछा दी थी , किन्तु भारत की मूल मनीषा मजहबी आधार पर अपने देश का राजकाज चलाने की लिए भी तैयार नहीं हुई।
भारतीय परंपरा और जीवन-दर्शन स्वभावत: पंथनिरपेक्ष है। यहाँ की विविधता और यहाँ के अनेक पंथ संप्रदायों का सहचिंतन एवं सहजीवन इसका प्रमाण है। भारतीय पंथनिरपेक्षता यहाँ की राजनीतिक और मजहबी मजबूरी नहीं है। सर्वपंथ समादर उनकी मूल चेतना, उसके चिंतन और आचरण का अभिन्न अंग है। मजहबी आधार पर देश का बँटवारा स्वीकार कर लेने के बाद के गत पचपन वर्षों में इस देश और समाजवादी सोच को समाप्त न करके उन तमाम कारणों और आधारों को पुनर्जीवित होने दिया गया जो राष्ट्र-विभाजन के लिए जिम्मेदार थे।
देश-विभाजन के लिए जिम्मेदार वे ही कारण और आधार पर फिर से फन उठाकर फुफकारने लगे हैं। वे फिर से देश-विभाजक मजहबी जहर उगलने और फैलाने लगे हैं। उन कारणों और आधारों को देश और समाज के लिए खतरनाक मानकर सर्वोच्च न्यायालय ने गत पंद्रह वर्षों में तीन बार समान नागरिक संहिता लागू करने की सलाह या निर्देश दिए हैं। सन् 1985 में शाहबानों के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला मुस्लिम महिलाओं के हक में दिया था, लेकिन अल्पसंख्यकवाद, थोक मुस्लिम-वोटों और फिरकापरस्त मुस्लिम मुल्लाओं के दबाव में बहुमत के बल से कांग्रेस ने भारत के कानून और संविधान के हाथ बांध दिए और उसकी सत्तालोलुप राजनीति देशहित को धकियाकर मुस्लिम पर्सनल लॉ के पक्ष में खड़ी हो गई। सर्वोच्च न्यायालय ने 1995 में भी कल्याणी नामक स्वयंसेवी संस्था की एक याचिका पर यह टिप्पणी की थी कि यह देशहित में नहीं होगा कि कानून बनाकर एक वर्ग पर एक से अधिक शादी करने पर रोक लगा दी गई और दूसरे वर्ग-विशेष को चार शादियाँ करने की छूट देकर समाज के अन्य लोगों को मतांतरण के लिए मजबूर कर दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने 1995 में यह अपेक्षा की थी कि देशहित में संसद शीघ्रातिशीघ्र समान नागरिक संहिता बनाएगी। 63 साल के इस स्वतंत्रयोत्तर राष्ट्र-जीवन में किसी भी सरकार ने समान नागरिक संहिता लागू करने की कोशिश नहीं की।
मुस्लिमपरस्त कांग्रेसियों और उसके बाद की अल्पसंख्कवादी सरकारों से तो उम्मीद भी नहीं, किंतु भाजपा से भी देशवासियों को घोर निराशा हुई है। देशवासियों की निराशा इस बात से भी है कि समान नागरिक संहिता की जरुरत को हमेशा मुस्लिम विरोध के रुप में पेश किया जाता है।
“केवल भारत ही एक ऐसा देश है जहाँ कुछ समुदायों के नागरिकों के लिए पर्सनल लॉ है और शेष नागरिकों के लिए अलग कानून”।
इस ओर इस रूप में कभी भी नहीं देखा जाता कि समान नागरिक संहिता न सिर्फ देश और समाज की एकता व अखण्डता के लिए जरूरी है, बल्कि यह कई सामाजिक बुराईयों के अंत का उपाय भी है। यह किसी खास मज़हब के आंतरिक मामलों में दखल नहीं, बल्कि सभी महजबों को एक समान आधार भूमि पर स्थापित- प्रतिष्ठित करने का सूत्र भी है। जिन लोगों ने यह मान लिया है कि मज़हबी भेदभाव किए बिना उनकी राजनीतिक यात्रा का अंत हो जाएगा, सिर्फ उन्हें ही इस पर ऐतराज है। यदि ऐसा नहीं होता तो पाकिस्तान, अरब, ईरान और सऊदी अरब में शामिल कानूनों या पर्सनल लॉ में जरूरत के मुताबिक परिवर्तन किए जाने के बाद भी भारत में समान नागरिक कानून या संहिता बनाने का विरोध नहीं किया जाता ।
महजब के नाम पर बुराईयों को ओढ़े रहने की यह नादानी क्यों और किसलिए की जा रही है? देश के बहुसंख्यक समाज ने अपनी कालबाह्य परम्पराओं और रूढ़ि रीतिरिवाजों के शुद्धिकरण का आमतौर से कभी विरोध नहीं किया। कानून बनाकर बाल विवाह पर रोक लगाई गई। सती प्रथा को खत्म किया गया। विधवा विवाह को प्रोत्साहन दिया गया। महिलाओं के आत्मसम्मान के लिए दूसरे विवाह को कानूनी मान्यता देने से इनकार किया गया। देश का बहुसंख्यक समाज यदि इन परिवर्तनों का स्वागत कर सकता है तो फिर अल्पसंख्यकों को सबसे अलग- थलग रहने का अधिकार क्यों है? समान नागरिक संहिता के कारण उनकी या किसी की भी विशिष्ट मजहबी या पंथीय पहचान पर कोई आंच आने की कोई भी संभावना नहीं है तो भी इसका विरोध क्यों ? क्या यह देश में रहने वाले सभी नागरिकों की समानता और समान अवसर के संवैधानिक प्रावधान के विरोध नहीं है? जिन लोकतांत्रिक देशों के समाज में हर स्तर पर समानता का सिद्धांत आचरण में नहीं लाया जा सकता वहाँ सामाजिक समरसता नहीं आ सकती। भारतीय संविधान की नजरों में यहाँ का हर नागरिक समान है, इसलिए सभी नागरिकों के लिए समान कानून भी होना चाहिए। यह नहीं होना चाहिए कि कुछ संदर्भों में तो शरीयत की बात मानी जाय और कुछ संदर्भों में उसे छोड़कर सामान्य कानून की बात की जाय।
महिलाओं को अधिकार देने, जनसंख्या पर रोक के उपाय करने और अपनी अलग पहचान बनाए रखने के लिए तो शरीयत का कानून चाहिए, इन मामलों में देश के कानून को हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं होना चाहिए, लेकिन अपराध, बलात्कार और आर्थिक मामले में शरीयत नहीं चाहिए? क्यों? इसलिए कि शरीयत के अनुसार चोरी करने वाले के हाथ काट देना चाहिए। बलात्कार करने वाले की पत्थर मार-मार कर हत्या कर देनी चाहिए । कमाई का तीसरा हिस्सा जकात यानी गरीबों में बाँट दिया जाना चाहिए। ऋण के बदले ब्याज को हराम माना जाना चाहिए। यदि अल्पसंख्यकों को शरीयत ही चाहिए तो फिर वे उसे अपने ऊपर पूरी तौर से लागू क्यों नही करते? वे ऐसा इसलिए नही होने देते कि देश के संविधान और कानून का माखौल उड़ाने वाली शरीयत को वे जागीर की तरह इस्तेमाल करना चाहते हैं और भारत की सरकार उन्हें उसे इसी रूप में इस्तेमाल होने की इजाज़त देती आ रही है। वोट और सत्ता लोभ-लाभ की राजनीति ने सभी राजनीतिक दलों और नेताओं का मुँह सिल रखा है। किसी में हिम्मत नहीं है कि संविधान निर्देशित समान नागरिक संहिता का निर्माण और उसका पालन कराने के लिए लम्बा संघर्ष करे और उसे निर्णायक बिन्दु तक ले जाए। इस मामले में संविधान की दुहाई देने वाली कांग्रेस सबसे बड़ी दोषी है। संविधान का अनुच्छेद 14 स्पष्ट रूप से कहता है कि कानून की दृष्टि से किसी के साथ किसी प्रकार का भेदभाव न किया जाए।
क्या यह किसी जिम्मेदार सरकार का दायित्व नहीं है कि संविधान की मूल भावना का सम्मान करते हुए समान नागरिक संहिता लागू करे और देश की एकता और अखण्डता को अक्षुण्ण बनाये? क्या यह सच नहीं है कि समान नागरिक संहिता न होने के कारण ही देश की मुस्लिम महिलाएं मुख्यधारा से अलग-थलग हैं? न तो वे अपने अधिकारों के लिए लड़ पा रही हैं और न अपने साथ हो रहे जुल्मों का विरोध ही कर पा रही हैं। कभी कोई मुस्लिम महिला साहस करके इस अन्याय के विरुध्द सिर उठाती और मुँह खोलती भी है तो कठमुल्लें और मरगिल्ली सरकारें मिलकर उसका दमन कर देती हैं। क्या यह देश, संविधान, कानून और समाज के लिए लज्जा की बात नहीं है ? यह कितना हास्यास्पद है कि कांग्रेस दूसरे मजहबपरस्त सेकुलरी नेता और कुछ बुध्दिजीवी समान नागरिक संहिता न लागू करने की अपनी दलील में हिन्दू समाज में सैकड़ों बुराईयाँ होने की चर्चा करके उस पर लांछन लगाते हैं और मुस्लिमों में 4-4 शादियों को यह कहकर सही ठहराया जाता है कि “राजा दशरथ की भी तीन पत्नियाँ थीं”। कितनी बचकानी दलीलें हैं ये। जहाँ एक ओर हिन्दू समाज में अपनी बुराइयों का अंत करने के लिए सतत आन्दोलन और अभियान चलता रहता है वहीं दूसरी ओर मुस्लिम समाज में पहले तो बुराई को बुराई मानने ही नहीं दिया जाता और दूसरे यदि कोई उस ओर संकेत करता भी है तो उसे इस्लाम और कुरान का दुश्मन (काफ़िर) घोषित कर दिया जाता है। कुछ दलों और नेताओं के अतिरिक्त सभी मानते है कि देश में समान नागरिक संहिता लागू होनी चाहिए, लेकिन अभी नहीं? संविधान निर्मातओं ने कभी यह नहीं सोचा होगा कि उनके लिखे संविधान के अनुच्छेदों और प्रावधानों का इतना संकुचित मतलब निकाला जाएगा। यह ठीक है कि संविधान में यह लिखा है कि देश को समान नागरिक संहिता लागू करने का प्रयास करना चाहिए, लेकिन क्या इसका मतलब यह है कि यह प्रयास केवल दशकों नहीं, सदियों बाद किया जाना चाहिए?

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