-श्रीष शुक्ला
नक्सलियों ने दंतेवाड़ा में 75 अर्धसैनिक बलों की नृशंस हत्या से जता दिया है कि उन्हें देश के लोकतांत्रिक मूल्यों और स्थिरता से खतरा है। उनके इस हमले से ज़ाहिर हो गया है कि वे देश को खंडित व अस्थिर करने के लिए कुछ भी कर सकते हैं। इस हृदयविदारक दुर्घटना के बाद नक्सली आन्दोलन को समर्थन देने वाले तथाकथित समाजसेवी संगठन, बौद्धिक वर्ग व मानवाधिकार संगठनों में चुप्पी छा गई है। नक्सल समर्थकों से पूछताछ के लिए गिरफ्तारी मात्र पर हंगामा खड़ा करने वाली मानवाधिकार संगठन भी इस बर्बर नरसंहार से नजरें चुराने की कोशिश कर रही है। शायद इन 75 जवानों की हत्या को मानवाधिकार हनन नहीं माना जा सकता। गौरतलब है कि घटना के बाद एक नक्सली नेता ने लिखे ख़त में देश के जवानों से अपील की है कि वे अपने नक्सली भाइयों की मुखालिफ़त ना करें। देश के सैनिकों के हत्यारे और देश को अस्थिर व विखंडित करने वाले लोग भला देश के सपूत कैसे हो सकते हैं ? दंतेवाड़ा में बर्बर हमले के बाद गृहमंत्री ने नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफे की पेशकश भी की है लेकिन मनमोहन सिंह और यूपीए अध्यक्ष ने इस्तीफा नामंजूर कर दिया है। संकट इस घड़ी में राष्ट्रीय सियासी दलों ने भी एकता दिखाई है।
उल्लेखनीय है कि नक्सली नेता किशन जी ने 9 जून 2009 में एक अंग्रेजी दैनिक समाचार को दिये साक्षात्कार में कहा था कि वे विश्व के उन सभी आंतकी संगठनों का समर्थन करते हैं जो पूंजीवादी ताकतों को कमजोर करने की कोशिश में हैं। उन्होंने तालिबान, अलकायदा व लिट्टे जैसे कई खूंखार संगठनों का भी समर्थन किया था। तालिबान वही आंतकी संगठन है जिसका कभी अफगानिस्तान पर शासन हुआ करता था। उनके शासनकाल में महिलाओं को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार नहीं था और ना ही उन्हें घर की चहरदीवारी से निकलने की छूट थी। तालिबान के शासनकाल में अफ़गानिस्तान में कट्टरता व सामंती प्रथा भी खूब विकसित हुई थी। इससे तो यही ज़ाहिर होता है कि नक्सली साम्यवादी व्यवस्था नहीं बल्कि सांमतवादी व्यवस्था स्थापित करना चाहते हैं। किशन जी का यह बयान असल मायने में पूंजीवादी ताकतों से ज्यादा लोकतांत्रिक मूल्यों के ख़िलाफ़ था। नक्सल आंदोलन के समर्थक यह भूल गए हैं कि सरकार या व्यवस्था की ख़िलाफ़त करने का अधिकार उन्हें लोकतांत्रिक व्यवस्था के बदौलत ही हासिल हुआ है। किसी सैनिक सरकार या अलोकतांत्रिक व्यवस्था में व्यवस्था के ख़िलाफ़ अभिव्यक्ति की कोई स्वतंत्रता नहीं रहती। अगर नक्सली पिछड़े तबके का विकास ही चाहते हैं तो वे विकास की सरकारी योजनाओं का विरोध ही क्यों करते हैं ? जंगलों में विकास की गति को तेज़ करने के लिए व्यवस्था में शिरकत से उन्हें परहेज़ क्यों है ? कहीं उनकी विकास की कल्पना भोली जनता से छलावा तो नहीं है ?
नक्सलियों के ख़िलाफ़ अभियान हथियार की ताकत से कहीं ज्यादा विश्वास अर्जित करने की लड़ाई है। किसी युद्ध को जीतने के लिए शत्रु की ताकत को आंकना जरूरी होता है। जंग व प्यार में सब कुछ जायज़ होता है। नक्सलियों को सरकार के ख़िलाफ़ इलाके के लोगों का समर्थन हासिल है। उन्होंने यह समर्थन शुरुआत में आदिवासियों को जंगलों में संरक्षण देकर हासिल की थी। अस्सी के दशक की शुरुआत में घने जंगलों में रहने वाले आदिवासियों को वन अधिकारियों द्वारा तंग किया जा रहा था। उन्हें जंगलों की लकड़ियों, फलों के प्रयोग व खेती करने से रोका जाने लगा था। इससे इलाके के लोगों में खासा क्षोभ व्याप्त गया। नक्सलियों ने मौके का फायदा उठाकर जंगलों में लोगों को संरक्षण देना शुरु कर दिया। नक्सलियों ने वन क्षेत्र की लगभग 300000 एकड़ जमींन अवैध तरीके से अधिपत्य में लेकर आदिवासियों में वितरित कर दिया। इससे अशिक्षित, भोले, भूमिहीन आदिवासी नक्सलियों का समर्थन करने लगे। आदिवासियों को शिक्षा सड़कें भले ही नहीं मिली लेकिन उन्हें जीने के लिए के फल व अनाज हासिल हो गया था। यह सरकारी नीतियों की विडंबना ही थी कि जमींन सरकार की और समर्थन व श्रेय नक्सलियों को मिल रहा है। नक्सली इसी वज़ह से अपने ख़िलाफ़ हर अभियान को आपरेशन ग्रीन हंट करार देते हैं ताकि बौद्धिक वर्ग व आम जनता का समर्थन हासिल किया जा सके। सरकार अगर यह लड़ाई जीतना चाहती है तो उसे लोगों को विश्वास दिलाना होगा कि देश की जमींन जंगल पर देश की जनता का अधिकार है। अनाज के हर दाने, फल, लकड़ी, तिनके-तिनके पर लोगों का अधिकार है और विश्वास दिलाना होगा कि अधिकार की इस लड़ाई में सरकार उनके साथ है।
सरकार को यह लड़ाई हथियार के मोर्चे पर ही नहीं अपितु सांस्कृतिक मोर्चे पर भी लड़नी होगी। जंगलों में रहने वाले निष्कपट आदिवासी अपनी संस्कृति व स्वाभिमान को लेकर बहुत संवेदनशील होते हैं। नक्सलियों ने आदिवासी समाज में पैठ मज़बूत करने इरादे से सांस्कृतिक घुसपैठ का ताना-बाना भी बुन डाला। उन्हें पता था कि आदिवासी संवेदनांए हासिल करने का यह खासा सफल माध्यम हो सकती हैं। इसके लिए उन्होंने सांस्कृतिक संगठन भी स्थापित किए। नक्सलियों के सांस्कृतिक संगठन चेतना नाट्य मंच में अब तक 10000 लोग जुड़ चुके हैं। इनके पास गोंड, हल्बी, छत्तीसगढ़ी व हिंदी में लिखे गीतों का भंडार है। इस तरह सांस्कृतिक मोर्चे पर भी सरकारी व्यवस्था असफल साबित हुई है। देश का संस्कृति मंत्रालय कागजों पर झंडे गाड़ता रहा लेकिन राजधानी से दूर जंगलवासियों में संरक्षण व विश्वास की अलख नहीं जगा पाई। इससे नक्सलियों को लोकतांत्रिक सरकार के समानांतर व्यवस्था स्थापित करने का एक और मौका मिल गया।
सरकार को नक्सलियों के ख़िलाफ़ अब तक एक ही मोर्चे पर ठोस सफलता हासिल हुई थी वह है सलवा जुडूम। हालांकि यह अभियान भी विवादों से घिरा रहा है फिर भी पहली बार सरकार ने नक्सल के ख़िलाफ़ स्थानीय लोगों का समर्थन हासिल किया था। सलवा जुडूम में वे लोग शामिल हुए थे जिन्होंने नक्सल का सशस्त्र विरोध किया था। आंतक के पर्याय नक्सलियों को अब तक केवल सलवा जुडूम ही आंतकित कर सका था। यह नक्सलियों की अब तक सबसे बड़ी हार थी। सलवा जुडूम से नक्सली अभियान कमजोर पड़ा था लेकिन नक्सलियों ने इसका भी निर्मम तरीके से दमन कर दिया और सरकार सलवा जुडूम को पूर्ण संरक्षण देने में असफल साबित हुई।
नक्सली आंदोलन को कमजोर करने के लिए नक्सलियों को मुख्य धारा से भी जोड़ना होगा। ज्ञातव्य है कि केंद्र सरकार ने नक्सलियों को मुख्य धारा से जोड़ने के लिए सितंबर 2009 में एक पुर्नवास नीति बनाई थी। इस नीति के तहत आत्मसमर्पण करने वाले नक्सली को डेढ़ लाख रुपये एकमुश्त व दो हजार रुपये प्रतिमाह के हिसाब से मानदेय मिलता है लेकिन एकमुश्त धनराशि बैंक में जमा रहती है और तीन साल तक चाल चलन देखने के बाद धन निकालने की अनुमति होती है। उन्हें मुख्य धारा यानी लोकतांत्रिक व्यवस्था के साथ लाने के लिए न केवल आर्थिक संरक्षण बल्कि शारीरिक व मानसिक सुरक्षा की भी जरुरत है।
नक्सली आंदोलन के ख़िलाफ़ अभियान की सबसे कमजोर कड़ी अर्धसैनिक बलों और राज्य पुलिस के बीच सामजंस्य की कमी है। अभियान में अर्धसैनिकों के साथ उनके अधिकारी भी क्षेत्र में जाते हैं जबकि पुलिस की ओर से प्राय: सिपाही भेजे जाते हैं। शीर्ष पुलिस अधिकारी अभियान को मुख्यालय से ही कंट्रोल करना चाहते हैं। ऐसे में कंट्रोल व कमांड में प्रभुत्व को लेकर एक नई जंग छिड़ जाती है। स्थानीय इलाके की स्थितियों से अर्धसैनिकों को परिचित कराने में राज्य पुलिस की भूमिका महत्वपूर्ण रहती है। हाल में दंतेवाड़ा की घटना इसी चूक की परिणिति थी।
भविष्य में इस प्रकार की किसी चूक से बचने के लिए नक्सल प्रभावित इलाके की सुरक्षा बागडोर अधिक साधन व तकनीक संपन्न अर्धसैनिकों को सौंप देना चाहिए। इससे पहले काश्मीर व पूर्वोत्तर में भी अर्धसैनिकों सफल प्रयोग किया जा चुका है। लोकतंत्र का ख़िलाफ़त करने वाले सशस्त्र नक्सलियों को मिटाने के लिए जरुरत पड़ने पर वायुसेना के प्रयोग से भी नही हिचकना चाहिए। ऐसे किसी प्रयोग में हिचकना आस्तीन में सर्प पालने जैसा होगा। नक्सलियों के ख़िलाफ़ जंग जीतने के लिए के सरकार को इलाके में संचार तकनीकों का तेज़ी विस्तार करना करना होगा। तेज़ी से सूचना संचार के लिए वायरलेस टेलीफोन आम लोगों को उपलब्ध कराना चाहिए। गरीब व पिछड़े तबके के विकास के लिए की जा रही लड़ाई का प्रचार-प्रसार सरकार को इस तरह करना चाहिए ताकि उसे मीडिया, बौद्धिक वर्ग व समाज सेवी संगठनों का भी समर्थन हासिल हो सके। इससे नक्सल विरोधी अभियान निश्चित ही सफल होगी।
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