Thursday, April 15, 2010

भक्षक नहीं रक्षक हूँ….


-कृष्ण मोहन तिवारी
मुझे दुनिया के सबसे तेज-तर्रार , फुर्तीले, विवेकी एवं ताकतवर स्तनधारियों में से एक होने का गौरव हासिल है। मेरे पंजों में 5000 पौंड की शक्ति होने के साथ ही मेरे नाखुन किसी भी पेड़ जैसे - साल, शीशम, सागौन को आलु के लच्छे की तरह कसने में सक्षम हैं। मेरे व्यक्तिव में मेरे नुकीले दांत के अलावा शिकार के दौरान मेरा अदभुत धैर्य, साहस एवं सन्तुलन चार चाँद लगाते हैं।
शायद मेरे इन्हीं गुणों को देखते हुए भारत जैसे राष्ट्र ने मुझे अपने राष्ट्रीय पशु के रूप में स्वीकार किया, जिस पर मुझे और मेरे पूर्वजों को गर्व है। मुझे राष्ट्रीय पशु बनाने के पीछे सरकार की यही भावना बलवती रही होगी कि गुलामी से मुक्त हुए देशवासी मेरी चुस्ती-फुर्ती, विवेक ,धैर्य एवं ताकत से प्रेरणा लेते हुए देश के स्वाभिमान और कद को सदैव उँचा बनाए रखें । अब तो आप मुझे जान ही गए होगें कि आखिर मैं कौन हूँ? जी हाँ, आपने सही पहचाना मैं बाघ यानि टाइगर हूँ।
आज मैं आपको अपनी कहानी सुना रहा हूँ जिससे कि आप मेरे स्वभाव के साथ ही मेरे संकट को एवं मेरे संकट के साथ ही पर्यावरण तंत्र पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव के बारें में जान सकें।
यह एशिया महाद्वीप हजारों वर्ष पूर्व से ही हमारे पूर्वजों का मनपसंद क्षेत्र रहा है। यहाँ की मिट्टी में हमारे पूर्वज विलीन हो चुके हैं। उनकी वंश परंपरा हमारे द्वारा आगे बढ़ाई जा रही है। सैकड़ों वर्षों से ही मानव अपने क्षणिक मनोरंजन के लिए मेरा शिकार करता आ रहा है, भारत में अंग्रेजों के आने के बाद हमारे शिकार में भारी इज़ाफा हुआ। सन् 1960 में एशिया के प्रमुख 13 जंगलों में हमारी ताद़ाद़ 35000 के लगभग थी। आज हमारी संख्या मात्र 3500 के लगभग रह गई है। अगर मैं केवल अपने मनपसंद क्षेत्र भारत की ही बात करें तो सिर्फ एक शताब्दी पूर्व हमारी तादाद जहाँ 40 हजार से अधिक थी जो कि आज घटकर महज 1411 रह गई है।
जब हमारी घटती संख्या से चिंतित होकर भारत सरकार ने वन्य जीवों के संरक्षण के लिए वन्य जीव संरक्षण एक्ट 1972 बनाया तब हमारी ताद़ाद़ महज 1827 रह गई थी। इसके बाद हमारी ताद़ाद़ में जबरदस्त बढ़ोत्तरी हुई और एक बार फिर हमारी जनसंख्या सम्मानजनक स्थिति में पहुँचकर वर्ष 1997 तक 3550 के पार पहुँच गई। वन्यजीव संरक्षण एक्ट एवं 1973 में प्रस्तुत टाइगर प्रोजेक्ट जैसी योजना को धता बताते हुए 1990 के दशक में एक बार फिर हमारी संख्या में कमी आने का जो सिलसिला शुरू हुआ वह रूकने का नाम नहीं ले रहा। और हम अब तक की सबसे न्यूनतम संख्या 1411 पर सिमट गए।
हमारे संरक्षण के लिए घोषित किये गए 29 बाघ अभ्यारण्यों में से पन्ना बाघ अभ्यारण्य (मध्य प्रदेश) एवं सारिस्का बाघ अभ्यारण्य (राजस्थान) से हमारे भाईयों का अस्तित्व ही समाप्त हो गया। अगर हमारी सरकार औद्योगिक विकास के नशें में इस प्रकार मदमस्त रही तो वह दिन दूर नहीं जब हम भी डायनासोर की तरह इतिहास की बात बनकर रह जायेंगे और हमारी खालें, हड्डी व अन्य अंग बड़े-बड़े म्यूजियम के शोभा की वस्तु बनकर रह जायेंगे।
यदि ऐसा हुआ तो मैं कोई भविष्यवाणी नहीं कर रहा बल्कि एक सच्चाई आप सबके सामने रख रहा हूँ कि जीव वैज्ञानिकों ने पर्यावरण को नियंत्रित करने वाले पारिस्थितिकीय तंत्र में मुझे सब से ऊपर रखा है एवं आप इस तथ्य को कभी भी नहीं झुठला सकते कि यदि वन हमारे (बाघों के) रक्षक हैं तो निश्चित ही हम वनों के, और यह भी कि दोनों एक दूसरे के पूरक हैं।
मैं कोई चेतावनी नहीं दे रहा बस बता रहा हूँ कि यदि हमारा अस्तित्व समाप्त हो गया तो वनों का अस्तित्व भी समाप्त हो जाएगा। जिससे कि हमारे अन्य वन जीव जैसे- हिरन, गैंड़ा हाथी एवं पशु-पक्षी भी इस खूबसूरत धरती से लुप्त हो जायेंगे और ऐसा हुआ तो पर्यावरण की भयावह स्थिति पैदा हो जायेगी। जिससे की आप सभी लोग जूझ ही रहे हैं। पर्यावरण परिवर्तन के दुष्परिणाम से चिंतित हो कर सभी राष्ट्र कोपेनहेगन जैसी जगहों पर जाकर इसका हल ढूँढ रहे हैं।
अरे! आप अभी भी नहीं समझे। कितने भोले हैं आप! आपने सुना ही होगा वन भूमि के कटाव को रोकते हैं वर्षा कराने में सहायक होते हैं वगैरह-वगैरह। आपने वनों के इन गुणों के बारे में जान तो रखा होगा। ये भी आप भली-भाँति जानते होंगे कि वनों के न होने पर कैसी विषम परिस्थितियाँ उत्पन्न हो सकती हैं। ये भी क्या मुझे ही बताना होगा ?
बिल्कुल स्पष्ट है कि आप सभी को जलवायु परिवर्तन जैसे- वातावरण के तापमान में असामान्य वृद्धि, समुद्र के जलस्तर में भारी वृद्धि( जो कि औद्योगिक विकास के कारण होने वाले कार्बन उत्सर्जन से हो रही है) जैसी प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ सकता है।
इससे पूरे मानव प्रजाति के अस्तित्व पर सवालियाँ निशान लग सकता है। मैं आपको डरा नहीं रहा हूँ बल्कि धरती के सबसे समझदार प्राणी को बता रहा हूँ क्योंकि यह कहा जाता है कि ‘समझदार को इशारा ही काफी होता है’ फिलहाल आप भलीभाँति जान हीं गए होंगे कि हम मानव के भक्षक नहीं बल्कि रक्षक हैं।
मेरा जीवित रहना मानव और प्रकृति के लिए क्यों आवश्यक है यह तो आप समझ ही गए होंगे। अब हम बात करते हैं कि हमारी घटती तादाद के प्रमुख या मुख्य कारण क्या-क्या हैं? सबसे पहले हमारे अंगों की अंतर्राष्ट्रीय बाजार में, विशेष तौर पर चीन और कोरिया में लाखों की कीमत का होना है। हमारी हड्डी, आंख, लिंग एवं खून से मादक द्रव्य(शराब) की अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कीमत लगभग पांच हजार डॉलर यानी करीब ढाई लाख रुपये है। इसके अलावा हमारे कम होते ताद़ाद़ का प्रमुख कारण यह भी है कि बाघ संरक्षण हेतु घोषित वन क्षेत्र में लगातार कमी हो रही है।
यदि सन् 1947 से 2009 के बीच 6,40,819 वर्ग किमी वन क्षेत्र से 11,395 वर्ग किमी क्षेत्र का सफाया हो गया। सन् 1988 में घोषित राष्ट्रीय वन नीति में वर्ष 2012 तक देश के 33 फीसदी हिस्से को वनाच्छादित करने का लक्ष्य रखा गया था। इस लक्ष्य को पाने की कोई सार्थक पहल दूर-दूर तक होती नज़र नहीं आ रही है, क्योंकि सरकार यह भी कहती है कि वनीकरण के लिए भूमि ही नहीं बची है। यही कारण है कि हमारे कुछ प्रेमी एवं पर्यावरणविद् सरकार के अनेकों औद्योगिक परियोजनाओं का पुरजोर विरोध करते हैं। इससे मुझे एवं मेरे भाईयों को बल मिलता है।
यह सब जानते हुए भी की वृक्ष जीवन का आधार है आज की सरकार वनों को काटकर कंक्रीट के जंगल बसा रही हैं जिससे कि हम पर व प्राकृतिक वन संपदा पर गहरा संकट आ खड़ा हुआ है। मैं आपसे कोई भीख नहीं मांग रहा बल्कि अपने मूल अधिकार की रक्षा के लिए आपके सहयोग का आँकाक्षी हूँ। फिलहाल कहानी अभी खत्म नहीं हुई, कहानी अभी बाकी है मेरे दोस्त..... मैं तो चला अपनी भूख और अस्तित्व को बचाने के लिए किसी हिरण के शिकार पर...... फिर मिलेगें...... दोस्तों......।

3 comments:

  1. बहुत खूब। खासकर लिखने की शैली, आँकड़े और उससे उपर भावना काबिले तारीफ..............

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  2. वाकई कृष्णा जी आप ने जो भी लिखा वास्तव मे वह काबिले तारीफ है। साथ ही आंकड़ो को जिस क्रम मे आप ने पिरोया है वह वास्तव मे बहुत अच्छा है।

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